जलालाबाद में भगवान परशुराम की जन्मस्थली
उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर जनपद से लगभग 30 किमी दूर शाहजहाँपुर- फर्रूखाबाद रोड़ पर तहसील जलालाबाद में भगवान परशुराम की जन्मस्थली बताई जाती है। इस स्थान को हजारों वर्षों से लोग खेड़ा परशुरामपुरी कहते आए हैं। मुगलकाल में रूहेला सरदार नजीब खाँ के पुत्र रहमत खॉ ने इसका नाम बदलकर अपने मझले पुत्र जलालुद्दीन के नाम पर जलालाबाद कर दिया था। किन्तु अनेक स्थानों पर अभी भी परशुरामपुरी लिखा हुआ है। लोगों की दृढ़ धारणा है कि परशुराम यहीं पर जन्मे थे। स्थानीय कांग्रेसी सांसद एवं वर्तमान में केन्द्रीय राज्यमंत्री जितिन प्रसाद ने बाकायदा केन्द्रीय पर्यटन मंत्री को पत्र लिखकर इस मंदिर को पर्यटन स्थल घोषित
करने की माँग की है। स्थानीय लोगों की राज्य सरकार से माँग है कि परशुराम जन्मस्थली के इस परशुराम मंदिर को पर्यटन स्थल घोषित कर इसका विकास किया जाए। इधर उत्तर प्रदेश की राजनीति में भगवान परशुराम महत्वपूर्ण हो चले हैं। परशुराम ब्राह्मणों के स्वाभिमान और गौरव के प्रतीक बन गए हैं। सोशल इंजीनियरिंग के चलते सत्ता हथियाने के लिए ब्राह्मणों का सहयोग पाने के लिए सभी दल उनको लुभा रहे हैं। ब्राह्मणों ने भी इधर तेजी से भगवान परशुराम को भगवान का दर्जा दे उनकी पूजा-आराधना शुरू कर दी है और इसी के चलते वे अपने आराध्य देव भगवान परशुराम की जन्मस्थली जलालाबाद में स्थित परशुराम के मंदिर का जीर्णोद्धार कर विशाल मंदिर बनाने का संकल्प ले रहे हैं। इसी बहाने ब्राह्मणों ने अपने समाज को एक रखने की ठानी है। गत एक फरवरी को ब्राह्मण समाज एकता संघर्ष समिति के द्वारा भगवान परशुराम की जन्मस्थली के जलालाबाद में स्थित परशुराम मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए भूमि पूजन व शिलादान का आयोजन किया गया। इस आयोजन में नैमिष व्यास पीठाधीश्वर जगदाचार्य श्री स्वामी उपेन्द्रानन्द सरस्वती जी महाराज तथा ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य श्रीमद् स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती जी महाराज पधारे।
जिस स्थान पर आज परशुरामपुरी स्थित है त्रेतायुग में वह क्षेत्र कान्यकुन्ज राज्य में था। रूहेला सरदार नजीब खॉ के पुत्र हाफिज खाँ ने इस क्षेत्र में एक किला बनवाया था। आज उसी किले के अवशेष पर तहसील का भवन बना हुआ है। उसने अपने मझले पुत्र जलालुद्दीन का विवाह वहाँ आकर बस जाने वाले अफगान कबीले में किया था और यह इलाका अपनी पुत्रवधू को मेहर मे दिया था तभी से इस नगर का नाम परशुरामपुरी से बदलकर जलालाबाद रखा गया था।
परशुरामपुरी जलालाबाद में भगवान परशुराम का अति प्राचीन मंदिर है। मंदिर के मध्य में शिवलिंग है। सामने भगवान परशुराम की प्राचीन मूर्ति है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भगवान परशुराम के हाथों से यहाँ शिवलिंग की स्थापना की गई थी जिस पर बाद में भक्तों ने मंदिर का निर्माण कराया होगा।
परशुरामपुरी में मंदिर लगभग 20 फुट ऊँचे स्थान पर बना है। मंदिर की ऊँचाई इसकी अति प्राचीनता का प्रमाण है। यवनों के द्वारा परशुराम मंदिर अनेक बार तोड़ा गया तथा परशुराम के भक्तों द्वारा पुनः उसका जीर्णोद्धार कराया गया। जीर्णोद्धार के समय मलबे के नीचे से परशुराम से संबंधित अनेक प्राचीन वस्तुएँ उपलब्ध हुईं। एक बार मंदिर के मलबे के नीचे से लगभग 8 फीट ऊँचा और ढाई फीट फलक का परशु निकला था। प्राचीन परशु अब नहीं है किन्तु उसी आकार का परशु मंदिर पर लगा है जो आज भी मंदिर द्वार के दाईं ओर लगा है।
कहा जाता है कि सतयुग के अन्त में परशुराम जी का अवतरण यही हुआ है बैसाख शुक्ल पक्ष अक्षय तृतीया बुधवार रोहिणी नक्षत्र सायंकाल तुला लग्न में परशुराम का इसी क्षेत्र में जन्म हुआ था। उनके बाबा ऋचीक मुनि की तपःस्थली यही थी, पिता जमदग्नि का जन्म भी यहीं होना बताया जाता है। जमदग्नि के नाना राजा गाधि का राज्य भी यही था उनका किला आज भी प्रसिद्ध है। परशुराम की माता रेणुका दक्षिण देश की राजकुमारी थीं।
आज भी परशुराम मंदिर के पश्चिमी भाग में दाक्षायणी या ढकियाइन का मन्दिर है जो रेणुका के रहने का स्थान बताया जाता है। परशुराम अपने पिता के लिए रामगंगा लाए थे उसका अंश आज भी जिगदिनी नाम की झील जमदग्नि का स्मरण दिलाती है।
त्रेतायुग में आतंकी राजाओं का परशुराम ने विनाश किया था और तपस्वी ऋषि-मुनियों की सुरक्षा की तथा ताल खुदवाए। परशुराम द्वारा खोदे गए ताल प्रायः धनुषाकार हैं तथा रामताल के नाम से प्रसिद्ध है। परशुराम मंदिर के सम्मुख आज भी रामताल है।
जनश्रुति और प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि भगवान परशुराम की जन्मभूमि यही रही होगी। यहाँ से पश्चिम दिशा में कटका-कटकिया आज भी कंटकपुरी की याद दिलाते हैं। जहाँ परशुराम ने सहस्रबाहु की सेना और उनके पुत्रों को अपने फरसे से काटा था। उसमें हयहयवंशी आतंकी क्षत्रिय पश्चिमी जंगलों में निवास करते थे।
ब्राह्मणों को कष्ट पहुँचाने वाले दस्यु रूप में रहते थे। परशुराम ने उन्हें नष्ट कर उनके स्थानों को खंडहर बना दिया जो आज भी खंडहर के नाम से प्रसिद्ध है। जनश्रुति के अनुसार खंडहर वाउनी कहलाती है। इसके अलावा दिउरा, जमुनिया, उबरिया आदि स्थान भी परशुरामजी से संबंधित बताए जाते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि सभी पीठों के शंकराचार्य इस मंदिर पर आ चुके है। करपात्री जी महाराज अपने पर्यटन स्थलों में इसे प्रधानता देते थे।
परशुराम के मंदिर में सभी श्रद्धालुओं की मनोकामनाएँ पूरी होती हैं। नगर के नव विवाहित वर-वधू सर्वप्रथम इसी मंदिर में आशीर्वाद लेने आते हैं। दूर-दूर से मुण्डन, अन्नप्राशन, करधनी धारण आदि संस्कार कराने मंदिर पर ही लोग आते है। वर्तमान में इस मंदिर के महंत सत्यदेव पाण्डेय है जिनके कार्यकाल में मंदिर का विकास हुआ नये भवन बने, नवदुर्गा की स्थापना और चौबीस अवतारों की प्रतिष्ठा की गई।
भारतीय वांगमय में उसके रचयिताओं ने अपने तथा अपने ग्रंथों के ऐतिहासिक नायकों की जन्मतिथि और जन्मस्थान का कोई स्पष्ट और विस्तार से उल्लेख नहीं किया है। ऋषि मुनियों के जन्मस्थान और निवास स्थान स्थित दूसरी है। बहुत कम ऋषि मुनि ऐसे थे जिनकी एक या दो पीढियाँ किसी निश्चित स्थान पर निवास करती थी। अधिकांश ऋषि मुनि मानव कल्याण के लिए उपदेश प्रचार के लिए जगह-जगह भ्रमण करते थे और आवश्यकतानुसार आश्रम बनाकर निवास करते थे। इसीलिए वाल्मीकि, विश्वामित्र, अगस्त आदि ऋषियों के आश्रम देश के भिन्न-भिन्न स्थानों में पाए जाते हैं।
भगवान परशुराम के पूर्वज भार्गव ऋषिगण भृगु, शुक्राचार्य, च्यवन, दधीचि, मार्कण्डेय आदि भ्रमणशील थे। छठे अवतार परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम देश के कोने-कोने में मिलते हैं। महर्षि जमदग्नि और परशुराम के अनेक प्रमुख स्थानों को भगवान परशुराम के जन्मस्थान से जोड़ा जाता है।
भगवान परशुराम के जन्मस्थान को लेकर कई स्थानों पर दावा किया जाता है। जिनमें उत्तर प्रदेश के जनपद गाजीपुर में जमनिया, जनपद मेरठ के पुरा महादेव परशुरामेश्वर, वाराणसी जनपद के भार्गवपुर व जलालाबाद शाहजहाँपुर, राजस्थान के जनपद चित्तौड़ स्थित मातृकुंडिया, हिमाचल प्रदेश के जनपद ददाहु के रेणुका तीर्थ तथा मध्य प्रदेश के ओंकारेश्वर स्थित जानापाव को परशुराम जन्मस्थली होने का दावा किया जाता है।
फिलहाल उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण शाहजहाँपुर जनपद के जलालाबाद स्थित परशुराम मंदिर को ही भगवान परशुराम का जन्मस्थली घोषित करने के लिए सामाजिक व राजनीतिक प्रयास कर रहे हैं।
उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर जनपद से लगभग 30 किमी दूर शाहजहाँपुर- फर्रूखाबाद रोड़ पर तहसील जलालाबाद में भगवान परशुराम की जन्मस्थली बताई जाती है। इस स्थान को हजारों वर्षों से लोग खेड़ा परशुरामपुरी कहते आए हैं। मुगलकाल में रूहेला सरदार नजीब खाँ के पुत्र रहमत खॉ ने इसका नाम बदलकर अपने मझले पुत्र जलालुद्दीन के नाम पर जलालाबाद कर दिया था। किन्तु अनेक स्थानों पर अभी भी परशुरामपुरी लिखा हुआ है। लोगों की दृढ़ धारणा है कि परशुराम यहीं पर जन्मे थे। स्थानीय कांग्रेसी सांसद एवं वर्तमान में केन्द्रीय राज्यमंत्री जितिन प्रसाद ने बाकायदा केन्द्रीय पर्यटन मंत्री को पत्र लिखकर इस मंदिर को पर्यटन स्थल घोषित
करने की माँग की है। स्थानीय लोगों की राज्य सरकार से माँग है कि परशुराम जन्मस्थली के इस परशुराम मंदिर को पर्यटन स्थल घोषित कर इसका विकास किया जाए। इधर उत्तर प्रदेश की राजनीति में भगवान परशुराम महत्वपूर्ण हो चले हैं। परशुराम ब्राह्मणों के स्वाभिमान और गौरव के प्रतीक बन गए हैं। सोशल इंजीनियरिंग के चलते सत्ता हथियाने के लिए ब्राह्मणों का सहयोग पाने के लिए सभी दल उनको लुभा रहे हैं। ब्राह्मणों ने भी इधर तेजी से भगवान परशुराम को भगवान का दर्जा दे उनकी पूजा-आराधना शुरू कर दी है और इसी के चलते वे अपने आराध्य देव भगवान परशुराम की जन्मस्थली जलालाबाद में स्थित परशुराम के मंदिर का जीर्णोद्धार कर विशाल मंदिर बनाने का संकल्प ले रहे हैं। इसी बहाने ब्राह्मणों ने अपने समाज को एक रखने की ठानी है। गत एक फरवरी को ब्राह्मण समाज एकता संघर्ष समिति के द्वारा भगवान परशुराम की जन्मस्थली के जलालाबाद में स्थित परशुराम मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए भूमि पूजन व शिलादान का आयोजन किया गया। इस आयोजन में नैमिष व्यास पीठाधीश्वर जगदाचार्य श्री स्वामी उपेन्द्रानन्द सरस्वती जी महाराज तथा ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य श्रीमद् स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती जी महाराज पधारे।
जिस स्थान पर आज परशुरामपुरी स्थित है त्रेतायुग में वह क्षेत्र कान्यकुन्ज राज्य में था। रूहेला सरदार नजीब खॉ के पुत्र हाफिज खाँ ने इस क्षेत्र में एक किला बनवाया था। आज उसी किले के अवशेष पर तहसील का भवन बना हुआ है। उसने अपने मझले पुत्र जलालुद्दीन का विवाह वहाँ आकर बस जाने वाले अफगान कबीले में किया था और यह इलाका अपनी पुत्रवधू को मेहर मे दिया था तभी से इस नगर का नाम परशुरामपुरी से बदलकर जलालाबाद रखा गया था।
परशुरामपुरी जलालाबाद में भगवान परशुराम का अति प्राचीन मंदिर है। मंदिर के मध्य में शिवलिंग है। सामने भगवान परशुराम की प्राचीन मूर्ति है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भगवान परशुराम के हाथों से यहाँ शिवलिंग की स्थापना की गई थी जिस पर बाद में भक्तों ने मंदिर का निर्माण कराया होगा।
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कहा जाता है कि सतयुग के अन्त में परशुराम जी का अवतरण यही हुआ है बैसाख शुक्ल पक्ष अक्षय तृतीया बुधवार रोहिणी नक्षत्र सायंकाल तुला लग्न में परशुराम का इसी क्षेत्र में जन्म हुआ था। उनके बाबा ऋचीक मुनि की तपःस्थली यही थी, पिता जमदग्नि का जन्म भी यहीं होना बताया जाता है। जमदग्नि के नाना राजा गाधि का राज्य भी यही था उनका किला आज भी प्रसिद्ध है। परशुराम की माता रेणुका दक्षिण देश की राजकुमारी थीं।
आज भी परशुराम मंदिर के पश्चिमी भाग में दाक्षायणी या ढकियाइन का मन्दिर है जो रेणुका के रहने का स्थान बताया जाता है। परशुराम अपने पिता के लिए रामगंगा लाए थे उसका अंश आज भी जिगदिनी नाम की झील जमदग्नि का स्मरण दिलाती है।
त्रेतायुग में आतंकी राजाओं का परशुराम ने विनाश किया था और तपस्वी ऋषि-मुनियों की सुरक्षा की तथा ताल खुदवाए। परशुराम द्वारा खोदे गए ताल प्रायः धनुषाकार हैं तथा रामताल के नाम से प्रसिद्ध है। परशुराम मंदिर के सम्मुख आज भी रामताल है।
जनश्रुति और प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि भगवान परशुराम की जन्मभूमि यही रही होगी। यहाँ से पश्चिम दिशा में कटका-कटकिया आज भी कंटकपुरी की याद दिलाते हैं। जहाँ परशुराम ने सहस्रबाहु की सेना और उनके पुत्रों को अपने फरसे से काटा था। उसमें हयहयवंशी आतंकी क्षत्रिय पश्चिमी जंगलों में निवास करते थे।
ब्राह्मणों को कष्ट पहुँचाने वाले दस्यु रूप में रहते थे। परशुराम ने उन्हें नष्ट कर उनके स्थानों को खंडहर बना दिया जो आज भी खंडहर के नाम से प्रसिद्ध है। जनश्रुति के अनुसार खंडहर वाउनी कहलाती है। इसके अलावा दिउरा, जमुनिया, उबरिया आदि स्थान भी परशुरामजी से संबंधित बताए जाते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि सभी पीठों के शंकराचार्य इस मंदिर पर आ चुके है। करपात्री जी महाराज अपने पर्यटन स्थलों में इसे प्रधानता देते थे।
परशुराम के मंदिर में सभी श्रद्धालुओं की मनोकामनाएँ पूरी होती हैं। नगर के नव विवाहित वर-वधू सर्वप्रथम इसी मंदिर में आशीर्वाद लेने आते हैं। दूर-दूर से मुण्डन, अन्नप्राशन, करधनी धारण आदि संस्कार कराने मंदिर पर ही लोग आते है। वर्तमान में इस मंदिर के महंत सत्यदेव पाण्डेय है जिनके कार्यकाल में मंदिर का विकास हुआ नये भवन बने, नवदुर्गा की स्थापना और चौबीस अवतारों की प्रतिष्ठा की गई।
भारतीय वांगमय में उसके रचयिताओं ने अपने तथा अपने ग्रंथों के ऐतिहासिक नायकों की जन्मतिथि और जन्मस्थान का कोई स्पष्ट और विस्तार से उल्लेख नहीं किया है। ऋषि मुनियों के जन्मस्थान और निवास स्थान स्थित दूसरी है। बहुत कम ऋषि मुनि ऐसे थे जिनकी एक या दो पीढियाँ किसी निश्चित स्थान पर निवास करती थी। अधिकांश ऋषि मुनि मानव कल्याण के लिए उपदेश प्रचार के लिए जगह-जगह भ्रमण करते थे और आवश्यकतानुसार आश्रम बनाकर निवास करते थे। इसीलिए वाल्मीकि, विश्वामित्र, अगस्त आदि ऋषियों के आश्रम देश के भिन्न-भिन्न स्थानों में पाए जाते हैं।
भगवान परशुराम के पूर्वज भार्गव ऋषिगण भृगु, शुक्राचार्य, च्यवन, दधीचि, मार्कण्डेय आदि भ्रमणशील थे। छठे अवतार परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम देश के कोने-कोने में मिलते हैं। महर्षि जमदग्नि और परशुराम के अनेक प्रमुख स्थानों को भगवान परशुराम के जन्मस्थान से जोड़ा जाता है।
भगवान परशुराम के जन्मस्थान को लेकर कई स्थानों पर दावा किया जाता है। जिनमें उत्तर प्रदेश के जनपद गाजीपुर में जमनिया, जनपद मेरठ के पुरा महादेव परशुरामेश्वर, वाराणसी जनपद के भार्गवपुर व जलालाबाद शाहजहाँपुर, राजस्थान के जनपद चित्तौड़ स्थित मातृकुंडिया, हिमाचल प्रदेश के जनपद ददाहु के रेणुका तीर्थ तथा मध्य प्रदेश के ओंकारेश्वर स्थित जानापाव को परशुराम जन्मस्थली होने का दावा किया जाता है।
फिलहाल उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण शाहजहाँपुर जनपद के जलालाबाद स्थित परशुराम मंदिर को ही भगवान परशुराम का जन्मस्थली घोषित करने के लिए सामाजिक व राजनीतिक प्रयास कर रहे हैं।
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