ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

!!विशेष सूचना!!
नोट: इस ब्लाग में प्रकाशित कोई भी तथ्य, फोटो अथवा आलेख अथवा तोड़-मरोड़ कर कोई भी अंश हमारे बगैर अनुमति के प्रकाशित करना अथवा अपने नाम अथवा बेनामी तौर पर प्रकाशित करना दण्डनीय अपराध है। ऐसा पाये जाने पर कानूनी कार्यवाही करने को हमें बाध्य होना पड़ेगा। यदि कोई समाचार एजेन्सी, पत्र, पत्रिकाएं इस ब्लाग से कोई भी आलेख अपने समाचार पत्र में प्रकाशित करना चाहते हैं तो हमसे सम्पर्क कर अनुमती लेकर ही प्रकाशित करें।-ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे, सम्पादक ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका,-भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं.09827198828
!!सदस्यता हेतु !!
.''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के 'वार्षिक' सदस्यता हेतु संपूर्ण पता एवं उपरोक्त खाते में 220 रूपये 'Jyotish ka surya' के खाते में Oriental Bank of Commerce A/c No.14351131000227 जमाकर हमें सूचित करें।

ज्योतिष एवं वास्तु परामर्श हेतु संपर्क 09827198828 (निःशुल्क संपर्क न करें)

आप सभी प्रिय साथियों का स्नेह है..

बुधवार, 2 नवंबर 2011

कटघरे में निजी विश्वविद्यालय.........?

कटघरे में निजी विश्वविद्यालय.........?
-पं. विनोद चौबे

भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष एवं सेवा निवृत्त न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि भारतीय मिडिया जन विरोधी और निम्नस्तरीय है। मैं  उनका ध्यान मिडिया पर उंगली उठाने के बजाय भारतीय शिक्षा की ओर ध्यान आकृष्ट कराना चाहुंगा  कि आज जिस लहजे में मीडिया को प्रेस परिषद के दायरे में लाये जाने की वकालत कर रहे हैं इसकी बजाय भारतीय शिक्षा में व्याप्त धोखाधड़ी, फर्जी विश्वविद्यालयों द्वारा फर्जी तरीके से दी जाने वाली उपाधियों पर उनकी नजर क्यों नहीं जाती है? जहाँ  एक तरफ स्वच्छ और स्वस्थ देश भारत के निर्माण में मीडिया अपनी अहम भूमिका निभाती हुई एक के बाद एक तमाम नेताओं व नौकरशाहों द्वारा किए गए अरबों रूपये के घोटालों का  पर्दाफाश करने वाली मीडिया को बांधकर वे क्या जताना चाहते हैं?
अभी हाल ही में एक निजी टीवी चैनल ने अपने आप में प्रतिष्ठित कही जाने वाली कुछ प्रायवेट युनिवर्सिटियों के कर्ताधर्ताओं के मात्र तीन दिन में पीएचडी, बगैर कक्षाएँ पढ़े एम.टेक और एम.फिल कराने के गोरखधंधे को अपने कैमरे में कैद कर इनकी विश्वसनीयता और गुणवत्ता को कटघरे में खड़ा कर दिया है। साथ ही लगातार खुल रहे निजी विश्वविद्यालयों की मान्यता पर भी सवाल खड़ा कर यह सिद्ध कर दिया है कि ये संस्थान उच्चशिक्षा के प्रचार के लिए नहीं, बल्कि अपने मालिकों की तिजौरियाँ भरने के लिए खोले जा रहे हैं? वास्तव में भारत की इस इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा की गई जांच से यह भी सिद्ध होता है कि वर्तमान समय में देशभर में जितने भी निजी विवि प्रारम्भ किए गए हैं या फिर प्रारम्भ होने वाले हैं अधिकांश कार्पोरेट जगत द्वारा ही संचालित है और ये विश्व विद्यालय उनके लिए एक लाभकारी उपक्रम है जिनके जरिए वो सिर्फ रुपए बनाना चाहेंगे। चूँकि इनके लिए यह एक व्यापार ही है और अब व्यापार में नैतिकता और अनैतिकता का कोई अर्थ नहीं रह गया है।
एक तरफ केन्द्र सरकार के केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा शिक्षा में सुधार के बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं, वहीं पर आज यह शिक्षा एकमात्र पूंजीपतियों के पालने में छोटे बच्चे की तरह किलकारी मारता हुआ रो - रो कर अपनी संवेदनाएं धरती माँ को सुनाता है। आखिर धरती माँ अपने बच्चे को शिक्षा रूपी बगैर दूध पिलाए कब तक लोरियाँ सुनाकर सुलाती रहेगी।
उल्लेखनीय है कि विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा का मानकीकरण करने वाले नियामक संस्थान है तथा इनके द्वारा छात्रो दी गई उपाधियों को वैश्विक मान्यता मिलती है,इसमें विश्व विद्यालय की श्रेष्ठता की भी अहम भूमिका होती है और इसके दृष्टिगत आजादी के पचास साल तक उच्चशिक्षा की इस नियंत्रक संस्था को सरकार ने अपने हाथों में रखा था लेकिन उदारीकरण की शुरूआत के बाद शिक्षा के क्षेत्र में भी उदारीकारण की हवा चलने लगी थी और चिकित्सा एवं तकनीकि शिक्षा के साथ व्यावसायिक एवं शिक्षक प्रशिक्षण के क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने के इनके मान्यता और संचालन संबंधी नियमों का सरलीकरण किया गया और देशभर में निजी विश्वविद्यालयों के साथ निजी क्षेत्र द्वारा मेडिकल,इंजीनियरिंग,प्रबंधन और शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान प्रारम्भ किए गए। लेकिन इनमें से अधिकांश कमाई का जरिया बनकर रह गए। मार्कंडेय काटजू को शिक्षा में हो रहे इस फर्जीवाड़े का खेल क्यों नहीं दिख रहा है? कोई भी इस प्रकार की टीका टिप्पणी या ठींकरा फोडऩे के लिए केवल मीडिया ही दिखती है। अभी देखने में आया है कि निजी विश्व विद्यालय  प्रारम्भ करने के लिए जमीन और आधारभूत संरचना संबंधित शर्तों को हवा में ही उड़ा दिया जाता है। इस उपक्रम में सबसे यादा फायदे का खेल दूरस्थ शिक्षा के नाम पर खेला जाता है सारे देश में फैले इनके एक कमरे में चल रहे दूरस्थ शिक्षा केन्द्र स्नातक से लेकर पीएच.डी.जैसी सर्वोच्च उपाधि रूपये की दम पर उपलब्ध कराने का काम करते हैं,विद्यार्थी को कहीं आने जाने या पढऩे लिखने की कोई जरूरत नहीं सब कुछ रूपये की दम पर हो जाता है। उच्चशिक्षा से पल्ला झाड़ती सरकार ने निजी विश्व विद्यालय खोलना आसान कर दिया है। राज्य सरकारों ने बाकायदा निजी विश्व विद्यालय नियामक संस्थान बना दिए है कि इनमें आवेदन लगाओ, एनओसी पाओ और विश्व विद्यालय की दुकान प्रारम्भ कर डिग्री बेचों। विवि प्रारम्भ करने के उपक्रम में चतुर और असरदार लोग मिलकर समिति बनाते हैं,फिर सरकारी या सस्ती जमीन का जुगाड़ कर,बैंक से लोन लेकर चमचमाती बिल्डिंग खड़ी कर यूजीसी और संबंधित संस्थाओं से मान्यता के लिए आवेदन कर देते हैं। और इनके निरीक्षण तो इनके लिए एक कुशल प्रबंधन की परीक्षा ही होती है। बिल्डिंग तो तैयार है,प्रयोगशाला तैयार करने के लिए उपकरण की आवश्यकता पड़ती है लेकिन इन्हें खरीदने की जरूरत नहीं है आजकल उपकरण विक्रेता दो चार दिनों के लिए ये सब किराए पर उपलब्ध करा देते हैं। पुस्तकालय के लिए किताबें भी किराए पर मिल जाती हैं। किसी भी शिक्षण संस्थान के लिए सबसे अहम होता है शिक्षक का प्रबंध करना यह सबसे खर्चीला काम है। विवि और व्यावसायिक संस्थानों के लिए शिक्षकों को भारी वेतन देना पड़ता है साथ ही इन संस्थानों में शिक्षक के पद के लिए निर्धारित न्यूनतम योग्यताधारी व्यक्तियों का देश भर में भारी टोटा है। ऐसी विकट समस्या से निजात का सबसे सरल तरीका खोजा गया है कि शिक्षक की बजाए उसका बायोडाटा रख लो अगर निरीक्षण के समय निरीक्षकों से सेटिंग जम गई तो ठीक अन्यथा बायोडाटा वाले शिक्षकों को बुला लो,आने जाने के खर्च के साथ थोड़ी बहुत मुद्राएं पकड़ा दो निरीक्षण निपट जाएगा।
सेवानिवृत्त न्यायाधीश मा. मार्कंडेय काटजू को भारत के मीडिया को बांधने की बजाय, भारत की बदहाल शिक्षा और बाजारवादी शिक्षा को भारतीय संस्कृति के अनुरूप पुन: गांधी जी के शिक्षानीति की तरफ अग्रसित करने के लिए किसी परिषद में बांधने की अहम जरूरत है। इस तरह उच्चशिक्षा में चल रहे निजीकरण से हो रहे फर्जीवाड़े से यह स्पष्ट है कि इसके जरिये देश की शिक्षा की मान्यता और प्रतिष्ठा संकट आसन्न है तथा विश्व विद्यालय जैसी नियामक संस्थाओं के निजीकरण पर पुर्नविचार की आवश्यकता है।क्योंकि विवि छात्रों को उपाधि देता है,जिसकी सारी दुनिया में मान्यता होती है। विवि पाठयम का निर्धारण और शोध को बढ़ावा देने का कार्य करते हैं। विवि जैसे शिक्षण संस्थान की प्रकृति ही सार्वजनिक हितों का पोषण करना है। कार्पोरेट द्वारा संचालित निजी विवि कभी सार्वजनिक हित की प्रकृति पर काम कर सकता है ऐसा सोचना ही बेमानी होगा।

कोई टिप्पणी नहीं: