सुनहु तात अब मानस रोगा।जिन्ह ते दु:ख पावहीं सब लोगा।।
एक समाचार पत्र में एक लेख छपा था कि- "बुरा करोगे तो होगी गंभीर बीमारियाँ" जिसमें मुख्य बात लगी कि पी.जी.आई. के डॉक्टर यशपाल शर्मा का (चंडीगढ़) शोध सदाचार पूर्ण जीवन का नुस्खा साइंस की कसौटी पर भी प्रमाणित हैं। इसमें उन्होंने दावा किया कि जो लोग अपराध, चोरी, भ्रष्टाचार और अक्सर झूठ बोलते हैं उन्हें कैंसर, हार्ट-अटैक व हाईपर टैंशन जैसी बीमारी हो जाती है। उन्होंने अपने शोध "मिसिंग लिंक आफ डिजीजेज" में कहा कि यों तो शरीर में बहुत से सूचना केन्द्र होते हैं किन्तु मस्तिष्क का सूचना केन्द्र प्रमुख है। अगर यही मुख्य सूचना केन्द्र स्वस्थ सूचना अन्य केन्द्रों को देता है तो हारमोन का स्वस्थ होगा, खून का बहाव स्वस्थ होगा। उन्होंने इस शोध को अमेरिका से पेटेंट करवाने की औपचारिकता पूर्ण कर ली है। उन्हीं के अनुसार यदि व्यक्ति झूठ बोलता है तो उसकी चमड़ी का रंग काला हो जाता है। (धार्मिक ग्रंथों में वर्णित राक्षस शब्द) हालांकि यह जेनेटिक भी होता है आदि-आदि। निश्चय ही डॉ. यशपाल शर्मा बधाई के पात्र हैं पर आश्चर्य होता है कि हमारे देश के वैज्ञानिकों को अमेरिका के पेटेंट की आवश्यकता महसूस होती है। यद्यपि यह सच है कि आज अमेरिका एक ऐसी महाशक्ति है जिसकी पसंद नापसंद का ध्यान देश-विदेश की सर्वोच्चा शक्ति को भी रखना पड़ता है। वरना तो कहीं "जिसकी लाठी उसकी भैंस" बनते देर नहीं लगती।
यदि भारतीय संस्कृति और संस्कार की बात करें तो हमें अपने शास्त्रों की बात (जो अकाट्य है) को किसी से पेटेंट की आवश्यकता ही नहीं है। बस हमें गर्व होना चाहिए। डॉ. जगदीश चंद्र बोस को पौधों में भी जीवन होता है, इस बात को प्रेक्टिकली करना पड़ा तब कहीं पाश्चात्य जगत की उस पर नजर गई। जबकि हमारे शास्त्रों में तो कण-कण में भगवान कहकर पूज्यनीय व चेतनापूर्ण बताया है। इसी कारण हमारे यहां आंतरिक शत्रु, द्वेष, घृणा, भय, मोह, स्पर्धा शब्दों को जीतना कहा गया है जिसके कारण मानसिक संतुलन बिगड़ने पर ही हारमोन असंतुलित होते हैं।
फिर भी यह शोध प्रशंसनीय है जो भारतीय संस्कृति की पुन: स्थापना का विषय है - धन्यवाद। इस शोध के लिए डॉ. साहब ने निश्चय ही संस्कृति की जड़ संस्कारों का शास्त्रोक्त ज्ञान लिया होगा, तभी हमारी देसी कहावत जैसा करोगे वैसा भरोगे चरितार्थ हुई है।
इसी संदर्भ में कुछ विचार बहुत समय से थे। "रामचरित मानस" पढ़ते-पढ़ते अक्सर विचार आते थे। संत शिरोमणि तुलसीदास जी की चौपाइयाँ ही आधार बनती थीं। तुलसीजी ने उत्तरकाण्ड में कुछ मानस रोगों की चर्चा की है।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दु:ख पावहीं सब लोगा।।
मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीती करहिं जो तीनिउ भाई। उपजई सन्यपात दु:खदाई।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।
ममता दादु कंडु डरपाई।। हरष विषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोई छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
अहंकार अति दुखद डमरूआ। दंभ कपट मद मान नेहरूआ।।
तृष्णा उदर वृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरून तिजारी।।
जुग विधि ज्वर मत्सर अविवेका। कह लगि कहौं कुरोग अनेका।।
दोहा -
एक व्याधि त्वस नर मरहि ए असाधि बहु व्याधि। पीड़हि संतत जीव कहँु सो किमि लहै समाधि।।
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान। भेषज पुनि कोटिन्ह नहि रोग जाहि हरि जान।।
संक्षेप में अर्थ है कि तुलसीदास जी कहते हैं कि कुछ मानस रोगों का वर्णन सुनिये - सब रोगों की जड़ अज्ञान है (मोह)। इन व्याधियों से बहुत से शूल (वायु रोग दर्द) होते हैं। काम वायु रोग है, लोभ करना कफ है, क्रोध पित्त है। आयुर्वेद में भी इन तीनों (वायु कफ-पित्त) के बिगड़ने से ही सन्धिवात की बीमारी कहा है सो तुलसीदास जी ने कहा है ये ही तीनों दु:खदायक हैं। विषयों की कामना ही शूल है। ममता करना ही दाद रोग है। ईष्र्या करना ही खुजली का रोग है। सुख-दु:ख ही गले के रोग हैं (गलगंड, कठमाल या घेघा)। आजकल जिसे थायराइड़ का रोग कहते हैं। पराए सुख को देखकर जलना ही क्षय रोग (टी.बी.) है। दुष्टता व मन की कुटिलता ही कोढ़ है। अहंकार ही गाँठ का रोग है। दंभ, कपट, मद्यपान, नसों का रोग आजकल कहते हैं तनाव है। तृष्णा (अधिक की चाह) उदर वृद्धि जलोदर रोग है। तीन प्रकार की इच्छा (पुत्र, धन, मान) ही प्रबल है। मत्सर, अविवेक ही दो प्रकार के ज्वर हैं। बुखार दो प्रकार के कहे गये हैं। आयुर्वेद में भी एक लीवर की वजह से होने वाला बुखार, मलेरिया, दूसरा आँतों की खराबी से टायफायड़। अब तो बुखार के भी वर्गीकरण कर दिये गये हैं। इनकी शांति प्राप्त करने के उपाय बताते हैं - नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण) तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं किन्तु उनसे ये रोग नहीं जाते।
अर्थात् आचरण भी सात्विक, राजसिक, तामसिक हो सकता है। आचरण पवित्र रखने पर ही हमारी संस्कृति जोर देती रही है जिससे काफी रोगों से बचा जा सकता है। वास्तव में मन में विचारों का जमघट ही नसों में दबाव बनाता है, मन को शुद्ध करना ही आचरण शुद्धि है। पुन: देखिए तुलसीदास जी लिखते हैं -
एहि विधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति वियोगी।।
मानस रोग कछुक मैं गाये। हहिं सबके लखि बिरलेन्ह पाए।।
जाने ते छीजहीं कहु पापी। नास न पावही जन परितापी।।
विषय कुपथ्य पाई अंकुरे। मुनिहि ह्रदय का नर बापुरे।।
राम कृपा नासहि सब रोगा। जो एहि भाँति बने संयोगा।।
सद्गुरू बैद बवन बिस्वासा। संजम यह न विषम कै आसा।।
रघुपति भगति सजीवनी भूरी। अनुपात श्रद्धा मति पूरी।।
एहि विधि भलेहिं सो रोग नसाही। नाहि त जतन कोटि नहीं जाही।।
सुख-दु:ख, शोक, हर्ष, भय, प्रेम-वियोग - इन सबको जान लेने से कुछ कम किए जा सकते हैं किन्तु विषय रूपी कुपथ्य पाकर फिर अंकुरित हो जाते हैं। ये तो मुनि लोगों के ह्वदय को भी नहीं बक्शते फिर मनुष्य की औकात क्या ? राम कृपा के बिना ये रोग नहीं जाते। सद्गुरू रूपी वैद्य मिलने से उनके वचनों में विश्वास से विषयों की आशा छोड़ने से ही (संयम) निभेगा। श्रीराम की भक्ति ही जुड़़ी है (संजीवनी) श्रद्धा ही साथ लेने वाला (शहद आदि) अनुपात है। इस प्रकार के संयोग हों तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएं, नहीं तो करोड़ों यत्नों से भी नहीं जा सकते।
रोगों से मुक्ति तभी समझना चाहिए जब वैराग्य आ जाए, यही वैराग्य राम भक्ति प्रदान करता है। इसी राम भक्ति रूपी रस में स्नान करना ही निरोगी होना है।
वास्तव में जब मनुष्य भय में होता है तो उसकी अंत:स्रावी ग्रंथि एड्रीनल से स्त्राव होता है जिसकी वजह से किडनी पर दबाव पड़ता है। जब मनुष्य भय से भागता है (चोर आदि) तो कुत्ते भी उसके पीछे-पीछे भागते हैं। इसी अंतस्रावी ग्रंथि की खुशबू उसे पीछा कराती है। व्यक्ति रूकता है, स्त्राव बंद हो जाता है, कुत्ता भी रूक जाता है।
हमारी अन्त:स्रावी गं्रथि अति खुशी व दु:ख मेे गले में स्थित थायराइड़ से प्रभावित होती है अत: बात-बात में खुशी व दु:ख की अनुभूति इसी का स्राव संतुलन बिग़ाड़ देती है और रोग हो जाता है। ज्यादातर मन से जुड़़े विचार जब बुद्धि पुख्ता कर देती है तो पुनरावृत्ति करते-करते चित्त पर अमिट छाप बन जाती है। किस अन्त:स्त्रावी ग्रंथि पर किस विचार का प्रभाव पड़ता है वही सही रोग निदान बता सकती है। अस्तु मन का खेल विचित्र है, यही तो है जिसे वश में करने की बात गीता में कही गई है।
आज जिस प्रकार का वातावरण तैयार हो रहा है उसमें तो लगता है छोटे-छोटे बच्चो भी मानसिक संतुलन बिग़ाड रहे हैं। टेंशन शब्द ऐसा है जो शायद आयात किया गया है। इनको अभी से स्पर्धा, स्वार्थ की खाद मिल रही है। आने वाले समय में कैसे जीवन चलेगा, इसकी शिक्षा नैतिक शिक्षा अब कोर्स में रखी ही नहीं जा रही। अस्तु, बीमारी से बचने का एकमात्र तरीका ही है। सच्चारित्र, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए, तो जीवन का नया अर्थ समझ आए। सद्गुरू रूपी वैद्य की चाह पालें तभी इस दुस्तर संसार से पार होंगे। रोगों का सही इलाज हो, जीवन को दिशा मिले।
एक समाचार पत्र में एक लेख छपा था कि- "बुरा करोगे तो होगी गंभीर बीमारियाँ" जिसमें मुख्य बात लगी कि पी.जी.आई. के डॉक्टर यशपाल शर्मा का (चंडीगढ़) शोध सदाचार पूर्ण जीवन का नुस्खा साइंस की कसौटी पर भी प्रमाणित हैं। इसमें उन्होंने दावा किया कि जो लोग अपराध, चोरी, भ्रष्टाचार और अक्सर झूठ बोलते हैं उन्हें कैंसर, हार्ट-अटैक व हाईपर टैंशन जैसी बीमारी हो जाती है। उन्होंने अपने शोध "मिसिंग लिंक आफ डिजीजेज" में कहा कि यों तो शरीर में बहुत से सूचना केन्द्र होते हैं किन्तु मस्तिष्क का सूचना केन्द्र प्रमुख है। अगर यही मुख्य सूचना केन्द्र स्वस्थ सूचना अन्य केन्द्रों को देता है तो हारमोन का स्वस्थ होगा, खून का बहाव स्वस्थ होगा। उन्होंने इस शोध को अमेरिका से पेटेंट करवाने की औपचारिकता पूर्ण कर ली है। उन्हीं के अनुसार यदि व्यक्ति झूठ बोलता है तो उसकी चमड़ी का रंग काला हो जाता है। (धार्मिक ग्रंथों में वर्णित राक्षस शब्द) हालांकि यह जेनेटिक भी होता है आदि-आदि। निश्चय ही डॉ. यशपाल शर्मा बधाई के पात्र हैं पर आश्चर्य होता है कि हमारे देश के वैज्ञानिकों को अमेरिका के पेटेंट की आवश्यकता महसूस होती है। यद्यपि यह सच है कि आज अमेरिका एक ऐसी महाशक्ति है जिसकी पसंद नापसंद का ध्यान देश-विदेश की सर्वोच्चा शक्ति को भी रखना पड़ता है। वरना तो कहीं "जिसकी लाठी उसकी भैंस" बनते देर नहीं लगती।
यदि भारतीय संस्कृति और संस्कार की बात करें तो हमें अपने शास्त्रों की बात (जो अकाट्य है) को किसी से पेटेंट की आवश्यकता ही नहीं है। बस हमें गर्व होना चाहिए। डॉ. जगदीश चंद्र बोस को पौधों में भी जीवन होता है, इस बात को प्रेक्टिकली करना पड़ा तब कहीं पाश्चात्य जगत की उस पर नजर गई। जबकि हमारे शास्त्रों में तो कण-कण में भगवान कहकर पूज्यनीय व चेतनापूर्ण बताया है। इसी कारण हमारे यहां आंतरिक शत्रु, द्वेष, घृणा, भय, मोह, स्पर्धा शब्दों को जीतना कहा गया है जिसके कारण मानसिक संतुलन बिगड़ने पर ही हारमोन असंतुलित होते हैं।
फिर भी यह शोध प्रशंसनीय है जो भारतीय संस्कृति की पुन: स्थापना का विषय है - धन्यवाद। इस शोध के लिए डॉ. साहब ने निश्चय ही संस्कृति की जड़ संस्कारों का शास्त्रोक्त ज्ञान लिया होगा, तभी हमारी देसी कहावत जैसा करोगे वैसा भरोगे चरितार्थ हुई है।
इसी संदर्भ में कुछ विचार बहुत समय से थे। "रामचरित मानस" पढ़ते-पढ़ते अक्सर विचार आते थे। संत शिरोमणि तुलसीदास जी की चौपाइयाँ ही आधार बनती थीं। तुलसीजी ने उत्तरकाण्ड में कुछ मानस रोगों की चर्चा की है।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दु:ख पावहीं सब लोगा।।
मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीती करहिं जो तीनिउ भाई। उपजई सन्यपात दु:खदाई।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।
ममता दादु कंडु डरपाई।। हरष विषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोई छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
अहंकार अति दुखद डमरूआ। दंभ कपट मद मान नेहरूआ।।
तृष्णा उदर वृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरून तिजारी।।
जुग विधि ज्वर मत्सर अविवेका। कह लगि कहौं कुरोग अनेका।।
दोहा -
एक व्याधि त्वस नर मरहि ए असाधि बहु व्याधि। पीड़हि संतत जीव कहँु सो किमि लहै समाधि।।
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान। भेषज पुनि कोटिन्ह नहि रोग जाहि हरि जान।।
संक्षेप में अर्थ है कि तुलसीदास जी कहते हैं कि कुछ मानस रोगों का वर्णन सुनिये - सब रोगों की जड़ अज्ञान है (मोह)। इन व्याधियों से बहुत से शूल (वायु रोग दर्द) होते हैं। काम वायु रोग है, लोभ करना कफ है, क्रोध पित्त है। आयुर्वेद में भी इन तीनों (वायु कफ-पित्त) के बिगड़ने से ही सन्धिवात की बीमारी कहा है सो तुलसीदास जी ने कहा है ये ही तीनों दु:खदायक हैं। विषयों की कामना ही शूल है। ममता करना ही दाद रोग है। ईष्र्या करना ही खुजली का रोग है। सुख-दु:ख ही गले के रोग हैं (गलगंड, कठमाल या घेघा)। आजकल जिसे थायराइड़ का रोग कहते हैं। पराए सुख को देखकर जलना ही क्षय रोग (टी.बी.) है। दुष्टता व मन की कुटिलता ही कोढ़ है। अहंकार ही गाँठ का रोग है। दंभ, कपट, मद्यपान, नसों का रोग आजकल कहते हैं तनाव है। तृष्णा (अधिक की चाह) उदर वृद्धि जलोदर रोग है। तीन प्रकार की इच्छा (पुत्र, धन, मान) ही प्रबल है। मत्सर, अविवेक ही दो प्रकार के ज्वर हैं। बुखार दो प्रकार के कहे गये हैं। आयुर्वेद में भी एक लीवर की वजह से होने वाला बुखार, मलेरिया, दूसरा आँतों की खराबी से टायफायड़। अब तो बुखार के भी वर्गीकरण कर दिये गये हैं। इनकी शांति प्राप्त करने के उपाय बताते हैं - नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण) तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं किन्तु उनसे ये रोग नहीं जाते।
अर्थात् आचरण भी सात्विक, राजसिक, तामसिक हो सकता है। आचरण पवित्र रखने पर ही हमारी संस्कृति जोर देती रही है जिससे काफी रोगों से बचा जा सकता है। वास्तव में मन में विचारों का जमघट ही नसों में दबाव बनाता है, मन को शुद्ध करना ही आचरण शुद्धि है। पुन: देखिए तुलसीदास जी लिखते हैं -
एहि विधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति वियोगी।।
मानस रोग कछुक मैं गाये। हहिं सबके लखि बिरलेन्ह पाए।।
जाने ते छीजहीं कहु पापी। नास न पावही जन परितापी।।
विषय कुपथ्य पाई अंकुरे। मुनिहि ह्रदय का नर बापुरे।।
राम कृपा नासहि सब रोगा। जो एहि भाँति बने संयोगा।।
सद्गुरू बैद बवन बिस्वासा। संजम यह न विषम कै आसा।।
रघुपति भगति सजीवनी भूरी। अनुपात श्रद्धा मति पूरी।।
एहि विधि भलेहिं सो रोग नसाही। नाहि त जतन कोटि नहीं जाही।।
सुख-दु:ख, शोक, हर्ष, भय, प्रेम-वियोग - इन सबको जान लेने से कुछ कम किए जा सकते हैं किन्तु विषय रूपी कुपथ्य पाकर फिर अंकुरित हो जाते हैं। ये तो मुनि लोगों के ह्वदय को भी नहीं बक्शते फिर मनुष्य की औकात क्या ? राम कृपा के बिना ये रोग नहीं जाते। सद्गुरू रूपी वैद्य मिलने से उनके वचनों में विश्वास से विषयों की आशा छोड़ने से ही (संयम) निभेगा। श्रीराम की भक्ति ही जुड़़ी है (संजीवनी) श्रद्धा ही साथ लेने वाला (शहद आदि) अनुपात है। इस प्रकार के संयोग हों तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएं, नहीं तो करोड़ों यत्नों से भी नहीं जा सकते।
रोगों से मुक्ति तभी समझना चाहिए जब वैराग्य आ जाए, यही वैराग्य राम भक्ति प्रदान करता है। इसी राम भक्ति रूपी रस में स्नान करना ही निरोगी होना है।
वास्तव में जब मनुष्य भय में होता है तो उसकी अंत:स्रावी ग्रंथि एड्रीनल से स्त्राव होता है जिसकी वजह से किडनी पर दबाव पड़ता है। जब मनुष्य भय से भागता है (चोर आदि) तो कुत्ते भी उसके पीछे-पीछे भागते हैं। इसी अंतस्रावी ग्रंथि की खुशबू उसे पीछा कराती है। व्यक्ति रूकता है, स्त्राव बंद हो जाता है, कुत्ता भी रूक जाता है।
हमारी अन्त:स्रावी गं्रथि अति खुशी व दु:ख मेे गले में स्थित थायराइड़ से प्रभावित होती है अत: बात-बात में खुशी व दु:ख की अनुभूति इसी का स्राव संतुलन बिग़ाड़ देती है और रोग हो जाता है। ज्यादातर मन से जुड़़े विचार जब बुद्धि पुख्ता कर देती है तो पुनरावृत्ति करते-करते चित्त पर अमिट छाप बन जाती है। किस अन्त:स्त्रावी ग्रंथि पर किस विचार का प्रभाव पड़ता है वही सही रोग निदान बता सकती है। अस्तु मन का खेल विचित्र है, यही तो है जिसे वश में करने की बात गीता में कही गई है।
आज जिस प्रकार का वातावरण तैयार हो रहा है उसमें तो लगता है छोटे-छोटे बच्चो भी मानसिक संतुलन बिग़ाड रहे हैं। टेंशन शब्द ऐसा है जो शायद आयात किया गया है। इनको अभी से स्पर्धा, स्वार्थ की खाद मिल रही है। आने वाले समय में कैसे जीवन चलेगा, इसकी शिक्षा नैतिक शिक्षा अब कोर्स में रखी ही नहीं जा रही। अस्तु, बीमारी से बचने का एकमात्र तरीका ही है। सच्चारित्र, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए, तो जीवन का नया अर्थ समझ आए। सद्गुरू रूपी वैद्य की चाह पालें तभी इस दुस्तर संसार से पार होंगे। रोगों का सही इलाज हो, जीवन को दिशा मिले।
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