ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

''पंडितों की हो रही एडवांस बुकिंग ''

''पंडितों की हो रही एडवांस बुकिंग ''

मित्रों संध्या शुभमस्तु।।
आज एक समाचार पत्र में समाचार प्रकाशित हुआ था जिसका शिर्षक था।
''पंडितों की हो रही एडवांस बुकिंग '' http://epaper.bhaskar.com/index.php?editioncode=119&ch=mpcg जो मेरे समझ से काफी अमर्यादित शब्द लगा..आप लोगों की क्या राय है..और तो और इस समाचार में जिन पूरोहितों की चर्चा की गयी है वे लोग एक दिन में अथवा एक रात में चार चार शादियां करवाने की जिम्मा ले रखी है। क्या एक ही शुभ मुहूर्त में एक पंडित जी अलग-अलग घरों में विवाह करा सकते हैं क्योंकि प्रायः रात्रि व दिन कालिक वैवाहिक लग्नों में एक एध को छोड़कर कोई न कोई लग्न या तो अंधे अथवा पंगु अथवा विवाह (पाणि ग्रहण) के लिए उपयुक्त नहीं रहते फिर भी इल पूरोहितों द्वारा इस समाचार में चार चार विवाह कराने की बात स्वीकारी गयी है क्या यह उचित है अथवा हमारे धर्म संस्कृति के पौराणिक संविधान सूत्रों के साथ खिलवाड़...??
जबकि विवाह मुहूर्तों की असलियत कुछ इस प्रकार है..

विवाह मुहूर्त में जरूरी है त्रिबल शुद्धि  

-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, 09827198828, Bhilai

हमारे जीवन में मुहूर्तोü का अत्यधिक महžव माना जाता है। ऋषि-मुनियों ने अपने चिंतन के बाद जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, उनके संकलित स्वरूप का नाम मुहूर्त शास्त्र है। विवाह-मुहूर्त में रवि शुद्धि, गुरू शुद्धि एवं चंद्र शुद्धि का विशेष महžव है। देव गुरू बृहस्पति विवाहोपरांत आपसी समझ से गृहस्थी के दायित्व को निभाने की शक्ति प्रदान करते हैं। इसलिए विवाह में कन्या की राशि से गुरू शुद्धि (गुरूबल) का विचार किया जाता है।

विवाह के बाद गृहस्थ के लिए संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी पुरूष पर आ जाती है। जिसका सूचक सूर्य को माना जाता है। इसलिए विवाह में वर की राशि से रवि शुद्धि (रविबल) का विचार किया जाता है। प्रत्येक कार्य की सफलता उसकी प्रक्रिया में एकाग्रता पर आधारित होती है। एकाग्रता एवं निरंतरता चंद्र शुद्धि पर आधारित होती है। विवाह में वर-कन्या दोनों की राशि से चंद्र-शुद्धि (चंद्र-बल) का विचार किया जाता है। मुहूर्त शास्त्र की दृष्टि से सभी दोषों का विचार कर यदि शुद्ध मुहूर्त निकाला जाए, तो वर्ष में कम ही मुहूर्त बनते हैं। इसे ध्यान में रखते हुए ऋषियों ने विवाह के उपवाद बताए हैं, जिनमें देवोत्थान या प्रबोधनी का दिन भी शुभ माना जाता है।

विवाह मुहूर्त के लिए मुहूर्त शास्त्रों में शुभ नक्षत्रों और तिथियों का विस्तार से विवेचन किया गया है। उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्रपद,रोहिणी, मघा, मृगशिरा, मूल, हस्त, अनुराधा, स्वाति और रेवती नक्षत्र में, 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12, 13, 15 तिथि तथा शुभ वार में तथा मिथुन, मेष, वृष, मकर, कुंभ और वृश्चिक के सूर्य में विवाह शुभ होते हैं। मिथुन का सूर्य होने पर आषाढ़ के तृतीयांश में, मकर का सूर्य होने पर चंद्र पौष माह में, वृश्चिक का सूर्य होने पर कार्तिक में और मेष का सूर्य होने पर चंद्र चैत्र में भी विवाह शुभ होते हैं।

जन्म लग्न से अथवा जन्म राशि से अष्टम लग्न तथा अष्टम राशि में विवाह शुभ नहीं होते हैं। विवाह लग्न से द्वितीय स्थान पर वक्री पाप ग्रह तथा द्वादश भाव में मार्गी पाप ग्रह हो तो कर्तरी दोष होता है, जो विवाह के लिए निषिद्ध है। इन शास्त्रीय निर्देशों का सभी पालन करते हैं, लेकिन विवाह मुहूर्त में वर और वधु की त्रिबल शुद्धि का विचार करके ही दिन एवं लग्न निश्चित किया जाता है। कहा भी गया है—
स्त्रीणां गुरुबलं श्रेष्ठं पुरुषाणां रवेर्बलम्।
तयोश्चन्द्रबलं श्रेष्ठमिति गर्गेण निश्चितम्।।
अत: स्त्री को गुरु एवं चंद्रबल तथा पुरुष को सूर्य एवं चंद्रबल का विचार करके ही विवाह संपन्न कराने चाहिए। सूर्य, चंद्र एवं गुरु के प्राय: जन्मराशि से चतुर्थ, अष्टम एवं द्वादश होने पर विवाह श्रेष्ठ नहीं माना जाता। सूर्य जन्मराशि में द्वितीय, पंचम, सप्तम एवं नवम राशि में होने पर पूजा विधान से शुभफल प्रदाता होता है। गुरु द्वितीय, पंचम, सप्तम, नवम एवं एकादश शुभ होता है तथा जन्म का तृतीय, षष्ठ व दशम पूजा से शुभ हो जाता है। विवाह के बाद गृहस्थ जीवन के संचालन के लिए तीन बल जरूरी हैं— देह, धन और बुद्धि बल। देह तथा धन बल का संबंध पुरुष से होता है, लेकिन इन बलों को बुद्धि ही नियंत्रित करती है। बुद्धि बल का स्थान सर्वोपरि है, क्योंकि इसके संवर्धन में गुरु की भूमिका खास होती है। यदि गृहलक्ष्मी का बुद्धि बल श्रेष्ठ है तो गृहस्थी सुखद होती है, इसलिए कन्या के गुरु बल पर विचार किया जाता है। चंद्रमा मन का स्वामी है और पति-पत्नी की मन:स्थिति श्रेष्ठ हो तो सुख मिलता है, इसीलिए दोनों का चंद्र बल देखा जाता है। सूर्य को नवग्रहों का बल माना गया है। सूर्य एक माह में राशि परिवर्तन करता है, चंद्रमा 2.25 दिन में, लेकिन गुरु एक वर्ष तक एक ही राशि में रहता है। यदि कन्या में गुरु चतुर्थ, अष्टम या द्वादश हो जाता है तो विवाह में एक वर्ष का व्यवधान आ जाता है।
चंद्र एवं सूर्य तो कुछ दिनों या महीने में राशि परिवर्तन के साथ शुद्ध हो जाते हैं, लेकिन गुरु का काल लंबा होता है। सूर्य, चंद्र एवं गुरु के लिए ज्योतिषशास्त्र के मुहूर्त ग्रंथों में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिनमें इनकी विशेष स्थिति में यह दोष नहीं लगता। गुरु-कन्या की जन्मराशि से गुरु चतुर्थ, अष्टम तथा द्वादश स्थान पर हो और यदि अपनी उच्च राशि कर्क में, अपने मित्र के घर मेष तथा वृश्चिक राशि में, किसी भी राशि में होकर धनु या मीन के नवमांश में, वर्गोत्तम नवमांश में, जिस राशि में बैठा हो उसी के नवमांश में अथवा अपने उच्च कर्क राशि के नवमांश में हो तो शुभ फल देता है।

सिंह राशि भी गुरु की मित्र राशि है, लेकिन सिंहस्थ गुरु वर्जित होने से मित्र राशि में गणना नहीं की गई है। भारत की जलवायु में प्राय: 12 वर्ष से 14 वर्ष के बीच कन्या रजस्वला होती है। अत: बारह वर्ष के बाद या रजस्वला होने के बाद गुरु के कारण विवाह मुहूर्त प्रभावित नहीं होता है

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

वेदों का अध्ययन व मनन जंगलों में किया जाता था उसे आरण्यक कहा जाता है

वेदों का अध्ययन व मनन जंगलों में किया जाता था उसे आरण्यक कहा जाता है-

मित्रों.. शुभरात्रि आज आप लोगों से आरण्यक के बारे में च्चा करूंगा, ताकि आप सभी अपने शयन के समय विधीवत इनका चिन्तन व मनन कर सकें..तो आईए...

ब्राह्मण ग्रन्थ के जो भाग अरण्य में पठनीय हैं, उन्हें 'आरण्यक' कहा गया या यों कहें कि वेद का वह भाग, जिसमें यज्ञानुष्ठान-पद्धति, याज्ञिक मन्त्र, पदार्थ एवं फलादि में आध्यात्मिकता का संकेत दिया गया, वे 'आरण्यक' हैं। जो मनुष्य को आध्यात्मिक बोध की ओर झुका कर सांसारिक बंधनों से ऊपर उठते हैं। वानप्रस्थाश्रम में संसार-त्याग के उपरांत अरण्य में अध्ययन होने के कारण भी इन्हें 'आरण्यक' कहा गया। आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा, आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को आरयण्क इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का मनन अरण्य अर्थात् वन में किया जाता था। ये ग्रन्थ अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए थै। आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद् आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण भी कहते हैं) मुख्य हैं। ऐतरेय तथा शांखायन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद् आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से सम्बद्ध हैं। अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या मी महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरू, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख है।

वेद एवं संबधित आरयण्कवेद  सम्बन्धित आरण्यक 
1- ऋग्वेद
 ऐतरेय आरण्यक, शांखायन आरण्यक या कौषीतकि आरण्यक

2- यजुर्वेद  बृहदारण्यक, मैत्रायणी, तैत्तिरीयारण्यक

3- सामवेद  जैमनीयोपनिषद या तवलकार आरण्यक

4- अथर्ववेद  कोई आरण्यक नहीं
 
'आरण्यक' नाम से स्पष्ट है कि इन ग्रन्थों का घनिष्ठ सम्बन्ध अरण्य अथवा वन से है। अरण्यों के एकान्त वातावरण में, गम्भीर आध्यात्मिक रहस्यों के अनुसन्धान की चेष्टा स्वाभाविक ही नहीं, सुकर भी थी। आरण्यकों में सकाम कर्म के अनुष्ठान तथा उसके फल के प्रति आसक्ति की भावना विद्यमान नहीं दिखलाई देती। इसी कारण इनका आध्यात्मिक महत्त्व ब्राह्मण ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक है। उपनिषदों के तत्त्वज्ञान को समझने के लिए भी आरण्यकों का पहले अनुशीलन आवश्यक है। उपनिषदों में बहुसंख्यक ऐसे प्रसंग हैं, जिनके यथार्थ परिज्ञान के लिए उनके उन मूलाधारों को जानना आवश्यक है, जो आरण्यकों में निहित हैं। भाषा की दृष्टि से भी आरण्यक साहित्य महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इनका प्रणयन वैदिकी और लौकिक संस्कृत की मध्यवर्तनी भाषा में हुआ है। कर्मकाण्ड की दृष्टि से ब्राह्मण एवं आरण्यक परस्पर अत्यधिक सम्बद्ध हैं, इसलिए बौधायन धर्मसूत्र में, आरण्यकों को भी 'ब्राह्मण' आख्या से संयुक्त किया गया है–
"विज्ञायते कर्मादिष्वेतैर्जुहुयात् पूतो देवलोकात् समश्नुते इति हि ब्राह्मणमिति हि ब्राह्मण्"।
तैत्तिरीयारण्यक–भाष्यभूमिका में सायणाचार्य का कथन है कि अरण्यों अर्थात् वनों में पढ़े–पढ़ाये जाने के कारण 'आरण्यक' नामकरण हुआ
'अरण्याध्ययना–देतदारण्यकमितीर्यते। अरण्ये तदधीयीतेत्येवं वाक्यं प्रवक्ष्यते।।
 ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करने वाला ही इन ग्रन्थों के अध्ययन का अधिकारी है–"एतदारण्यकं सर्व नाव्रती श्रोतुमर्हति"।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'आरण्यक' शब्द 'अरण्य' में 'वुञ्' (भावार्थक) प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है–इस प्रकार से इसका अर्थ है, 'अरण्य में होने वाला' - 'अरण्ये भवमिति आरण्यम्।' बृहदारण्यक में भी इसी का समर्थन किया गया है–'अरण्येऽनूच्यमानत्वात् आरण्यकम्।' उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि आरण्यकों का अध्ययन सामान्यतः वनों में ही किया जाता था, किन्तु यह अनिवार्यता नहीं थी। तैत्तियारण्यक के कुछ अंशों से विदित होता है कि वैदिकयुग में, वनों के साथ ही ग्रामों में भी कोई बन्धन नहीं था।

कुंआरों से नाराज हैं ग्रहों का मंत्रिमंडल

http://www.bhaskar.com/article/CHH-OTH-1850525-2897507.html
कुंआरों से नाराज हैं ग्रहों का मंत्रिमंडल

दैनिक भास्कर समाचार पत्र में हमारे द्वारा की भविष्यवाणी

(निर्मल साहू)सिटी रिपोर्टर त्न भिलाई

लगता है इस साल ग्रहों का मंत्रिमंडल कुंआरों से नाराज हैं। तभी इस साल विवाह के मुहूर्त बहुत कम हैं। एक महीने तक गुरु और शुक्र अस्ताचल में छिपे रहेंगे। उनकी गैर-मौजूदगी में विवाह हो नहीं सकते। कुछ खरमास का अडंगा हैं तो कुछ मासांत दोष।
लगभग पांच महीने तो देव ही सोए रहेंगे। इस साल सात फेरे लेकर विवाह बंधन में बंधने का ख्वाब देख रहे हैं तो जल्दी कीजिए। जनवरी से दिसंबर तक मात्र 48 दिन ही विवाह के योग हैं। जनवरी के 9 दिन और फरवरी के 11 दिन के योग तो बीत गए। अब मात्र 28 दिन बचे हैं। 14 मार्च से 14 अप्रैल तक सूर्य मीन राशि में चला जाएगा। खरमास के कारण इस महीने विवाह के लिए कोई मुहूर्त नहीं है। इसके बाद 1 मई को गुरु पश्चिम में अस्त होगा जो 1 जून को पूर्व में उदय होगा। शुक्र 26 मई को अस्त होगा, जो 6 जून को उदित होगा। पूरा मई और जून के शुरुआती 11 दिन भी विवाह नहीं हो सकेंगे। 27 जून को देवशयनी एकादशी के बाद देव सो जाएंगे जो 24 नवंबर को प्रबोधिनी एकादशी के दिन जागेंगे- तब तक वैसे भी शुभ कार्य नहीं हो सकेंगे। 30 जून से 27 नवंबर तक लगभग पांच महीने भी कोई मुहूर्त नहीं है।
विवाह के लिए गुरु व शुक्र जरूरी : पं. विनोद चौबे बताते हैं कि जब तक गुरु और शुक्र उदित नहीं होंगे विवाह नहीं हो सकता। गुरु विवाह का कारक होता है जो दो विचारों व संस्कारों में तालमेल कराता है। शुक्र प्रेम का कारक होता है जो दांपत्य जीवन के लिए जरूरी है। यह शास्त्र सम्मत भी है कि जब गुरु और शुक्र अस्त हों तो विवाह नहीं होता।

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

कुंभ प्राचीन कुंभों का उपहास : शंकराचार्य

कुंभ प्राचीन कुंभों का उपहास : शंकराचार्य

छत्तीसगढ़ के सुप्रसिध्द तीर्थ राजिम के त्रिवेणी संगम पर 13 दिवसीय राजिम कुंभ मेले के अंतिम दिन सोमवार महाशिवरात्रि पर शाही स्नान का अनुष्ठान सम्पन्न हुआ। इससे पहले नागा साधुओं के साथ अन्य सम्प्रदायों, आश्रमों, अखाडों और शक्तिपीठों के साधु-संतों की नवापारा और राजिम में भव्य शोभा यात्रा निकली। संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल साधु-संतों के साथ शोभा यात्रा में शामिल हुए और संगम पर बने शाही कुंड में महाशिवरात्रि पर पुण्य स्नान किया।
शोभा यात्रा सुबह साढ़े सात बजे लोमश ऋषि आश्रम के पास बने संत समागम स्थल से निकली। देश भर से आए नागा साधुओं के अलावा अन्य साधु-संत अपने-अपने अखाड़ों, आश्रमों, सम्प्रदायों तथा शक्तिपीठों के परम्परागत शस्त्रों, ध्वजों और पताकाओं के साथ इसमें शामिल हुए। उन्होंने मार्ग में जगह-जगह शस्त्रों के साथ करतब दिखाए। रास्ते में श्रध्दालुजनों द्वारा साधु-संतों का स्वागत किया गया। शोभा यात्रा नेहरू घाट, महानदी पुल, पं. सुंदरलाल शर्मा चौक, राजिम से नदी के रास्ते शाही कुंड तक पहुंची। यहां सबसे पहले नागा साधुओं ने स्नान किया।
इससे पहले महाशिवरात्रि पर हजारों श्रध्दालुओं ने त्रिवेणी संगम पर पुण्य स्नान का लाभ लिया। इसके लिए सुबह चार बजे से श्रध्दालुओं की भीड़ उमड़ पड़ी। कुलेश्वर महादेव मंदिर, राजीव लोचन मंदिर के अतिरिक्त नवापारा और राजिम के अन्य मंदिरों में दिनभर दर्शनार्थियों का तांता लगा रहा। महाशिवरात्रि के कारण मंदिरों को विशेष रूप से सजाया गया था। सुबह तीन बजे से ही मंदिरों के द्वार दर्शनार्थियों के लिए खोल दिए गए थे। स्नान से पूर्व श्रध्दालुओं ने मुक्ताकाशी मंच पर आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनंद सुबह तक उठाया। इसके बाद संगम पर स्नान का सिलसिला शुरू हो गया। स्नान के बाद श्रध्दालुगण मंदिरों में पहुंचेे। महाशिवरात्रि के अवसर पर भगवान श्री राजीव लोचन का विशेष श्रृंगार किया गया तथा पूजा-अर्चना की गई। राजीव लोचन मंदिर में दर्शनार्थियों को भगवान श्री राजीव लोचन को लगाए गए भोग का प्रसाद वितरित किया गया
 कुंभ प्राचीन कुंभों का उपहास : शंकराचार्य
पुरी के शंकराचार्य जगदगुरु स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने राजिम कुंभ के समापन अवसर पर संबोधित करते हुए राज्यपाल शेखर दत्त व संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल की उपस्थिति में कहा कि राजिम में हर... वर्ष कुंभ का आयोजन कर देश के प्राचीन कुंभों का उपहास किया जा रहा है। यह हर वर्ष नहीं होना चाहिए। पूरा कुंभ बारह वर्षों में व अर्ध कुंभ छह वर्ष में एक बार होता है, लेकिन राजिम में हर साल कुंभ हो र2हा है। राजिम कुंभ दिशाहीनता की ओर जा रहा है। शंकराचार्य ने कहा कि इसके जरिए धर्म अध्यात्म के प्रचार का अच्छा काम हो रहा है, फिर भी इसे कुंभ नहीं कहा जा सकता। उन्होंने संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल की तरफ मुखातिब होते हुए कहा कि मेरी उपस्थिति में राजिम कुंभ का नारा लगाना मेरी अवहेलना है।
http://epaper.bhaskar.com/index.php?editioncode=116&pagedate=02%2F21%2F2012&ch=mpcg

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

महाशिवरात्रि पर्व के अवसर पर दुर्लभ संयोग

महाशिवरात्रि पर्व के अवसर पर दुर्लभ संयोग

ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, 09827198828, भिलाई,दुर्ग (छ.ग.)

  • महाशिवरात्रि का व्रत प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष चतुदर्शी तिथि 20फरवरी 2012को है। इस बार महाशिवरात्रि सोमवार को पड़ने से अत्यंत शुभ मानी जा रही है। सोमवार शिव जी का ही दिन होता है और उस दिन की महाशिवरात्रि अत्यंत शुभ संकेत लेकर आ रही है।
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  • ‘महाशिवरात्रि’
  • भगवान शंकर के जन्मदिवस के रूप में मनाए जाने वाला धार्मिक पर्व ‘महाशिवरात्रि’ हर्षोल्लास व धूमधाम से मनाया जाएगा। मान्यता है कि महाशिवरात्रि का दिन महाशुभ होता है इसलिए इस दिन से विभिन्न शुभ कार्यों की शुरुआत की जाती है। इनमें गृह प्रवेश, व्यवसाय आरंभ, विभिन्न निर्माण कार्य, पूजा-पाठ आदि कार्य संपन्न किए जाते हैं। ज्ञात हो कि प्रत्येक वर्ष के फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। इस दिन मंदिर में भक्तिभाव से माँगा हुआ वरदान महादेव पूरा करते हैं। महाशिवरात्रि पर अपनी बुराइयों को त्याग कर अच्छाइयों को ग्रहण करने का पर्व माना जाता है। इस पर्व पर शिव की आराधना कर परेशानियों से छुटकारा पाया जा सकता है। इससे समस्त प्रकार की बाधाओं से छुटकारा मिलता है। भगवान शंकर ने समुद्र मंथन के पश्चात निकले विष को अपने कंठ में धारण किया था। इसलिए इस दिवस पर भगवान शिव के समक्ष अपने पापों का त्यागकर व मन की बुराइयों को भुलाकर अच्छी सोच विचार को अपनाना चाहिए। कहा जाता कि जब इस धरती पर चारों ओर अज्ञान का अंधकार छा जाता है, तब ऐसी धर्म ग्लानि के समय शिव का दिव्य अवतरण इस धरा पर होता है। वास्तव में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाने वाला महाशिवरात्रि का पर्व परमात्मा के दिव्य अवतरण की यादगार है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि भी कहा गया।इस बार यह पर्व विशेष संयोग के साथ आ रहा है, जिसमें शिव पूजा विशेष फलदायी होगी।
  • महाशिवरात्रि की व्रत-कथा
एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?'
उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।
शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया।
अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।
पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।
एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।
कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।'
शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मार।'
शिकारी हँसा और बोला, 'सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।'
उत्तर में मृगी ने फिर कहा, 'जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।'
मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा।
शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,' हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।'
मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।'
उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।
थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।
देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।'
इस पर्व के लिए श्रद्घालुओं को कुछ खास नहीं करना पड़ता क्योंकि भगवान शिव बहुत भोले हैं सिर्फ मन से तैयार रहकर उपवास करते हैं। इस दिन उपवास करने से मन की मुराद पूरी होती है। युवतियों को मन के अनुरूप वर की प्राप्ति होती है। इस दिन भगवान शंकर का जन्मदिन माना जाता है। इसलिए रात्रि जागरण का नियम है। इससे मनोकानाएँ पूर्ण होती है।
महाशिवरात्रि पर शिव लिंग व मंदिर में शिव को गाय के कच्चे दूध से स्नान कराने पर विद्या प्राप्त होती है। गन्ने के रस से स्नान करने पर लक्ष्मी प्राप्त होती है एवं शुद्घ जल से स्नान कराने पर सभी इच्छाएँ पूरी होती है। भगवान शिवलिंग पर बेलपत्र, अक्षत, दूध, फूल औल फल चढ़ाना चाहिए।

श्रवण नक्षत्र के साथ महाशिवरात्रि का योग :हालाकि श्रवण नक्षत्र के साथ शिवरात्रि का योग इसके पूर्व वर्ष 2006, 2007 तथा वर्ष 2009 में बना था। दो वर्षों बाद शिवरात्रि श्रवण नक्षत्र में आ रही है इसलिए इसका महत्व अधिक है। शिवरात्रि पर शिव आराधना से समस्त मनोकामनाएँ पूरी होती हैं। इस दिन व्रत का महत्व बताया गया है। शिव पूजा में आकड़े के फूल व बिल्व पत्र का भी महत्व शास्त्रों में है।थाली में कुंकू, हल्दी, गुलाल, अक्षत, जनेऊ के साथ अष्ट गंध या चंदन रखें। शिवलिंग को ॐ नमः शिवाय के उच्चारण के साथ जल चढ़ाकर पंचामृत अभिषेक करें। जल अर्पण कर कुंकू आदि चढ़ाएँ और आस्थानुसार भोग (बोर, मिठाई) अर्पण तथा आरती करें। हो सके तो पूजा-अर्चना के साथ भाँग या मावे का श्रृंगार भी करें।
पूजा में आँकड़े का फूल, धतुरा, पुष्प, इत्यादि भी चढ़ाकर प्रार्थना करें। व्रतधारी श्रद्घालुओं को एक समय फलाहार करना चाहिए। शिवरात्रि पर रात्रि पूजा का विशेष महत्व है। श्रद्घालुओं को रूद्र, शिवाष्टक का भी पाठ करना चाहिए।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चतुर्दशी तिथि को चन्द्रमा बहुत क्षीण अवस्था में पहुँच जाते हैं. चन्द्रमा के अंदर सृष्टि को ऊर्जा देने की सामर्थ्य नहीं होती.बलहीन चन्द्रमा अपनी ऊर्जा देने में असमर्थ होते हैं. चन्द्रमा मन का कारक ग्रह है. इसी कारण मन के भाव भी चन्द्रमा की कलाओं के जैसे घटते-बढ़ते रहते हैं.कई बार व्यक्ति का मन बहुत अधिक दुखी होता है और वह मानसिक कठिनाईयों का सामना करता है. चन्द्रमा शिव भगवान के मस्तक की शोभा बढा़ते हैं.इसलिए सामान्य प्राणी यदि चन्द्रमा की कृपा पाना चाहता है तो उसे भगवान शिव की भक्ति करनी आवश्यक है. वैसे तो प्रत्येक मास शिवरात्रि के दिन भगवान शिव की पूजा करने से चन्द्रमा बलशाली होता है.परन्तु यदि प्रत्येक माह पूजन नहीं किया जा सकता है तब महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव का विधिवत तरीके से पूजन किया जा सकता है.
इसके अतिरिक्त सूर्यदेव भी महाशिवरात्रि तक उत्तरायण में आ चुके होते हैं. इस समय ऋतु परिवर्तन का समय भी होता है.ऋतु परिवर्तन के कारण यह समय अत्यन्त शुभ माना गया है. यह समय वसंत ऋतु के आगमन का समय है. वसंत काल के कारण मन उल्लास तथा उमंगों से भरा होता है.इसी समय कामदेव का भी विकास होता है.इस कारण कामजनित भावनाओं पर अंकुश केवल भगवान की आराधना करने से ही लगा सकते हैं. भगवान शिव को काम निहंता माना गया है. अत: इस ऋतु में महाशिवरात्रि के दिन उनका पूजन करने से कामजनित भावनाओं पर साधारण मनुष्य अंकुश लगा सकता है.इस समय भगवान शिव की आराधना सर्वश्रेष्ठ है.भारतवर्ष के बारह ज्योतिर्लिंगों का संबंध ज्योतिषीय दृष्टिकोण से बारह चन्द्र राशियों के साथ माना गया है.
महाशिवरात्रि के बारे में कहा गया है कि जिस शिवरात्रि में त्रयोदशी,चतुर्दशी तथा अमावस्या तीनों ही तिथियों का स्पर्श होता है, उस शिवरात्रि को अति उत्तम माना गया है. महाशिवरात्रि के विषय में अनेकों मान्यताएँ हैं. उनमें से एक मान्यता के अनुसार भगवान शिवजी ने इस दिन ब्रह्मा के रुप से रुद्र के रुप में अवतार लिया था.इस दिन प्रलय के समय प्रदोष के दिन भगवान शिव तांडव करते हुए समस्त ब्रह्माण्ड को अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से भस्म कर देते हैं.इस कारण इसे महाशिवरात्रि कहा गया है.
इसी कारण महाशिवरात्रि को कालरात्रि भी कहा जाता है.भगवान शिव सृष्टि के विनाश तथा पुन:स्थापना दोनों के मध्य एक कडी़ जोड़ने का कार्य करते हैं.प्रलय का अर्थ है –कष्ट और पुन:स्थापना का अर्थ है – सुख. अत: ज्योतिष शास्त्र में भगवान शिव को सुख देने का आधार माना गया है. इसीलिए शिवरात्रि पर अनेकों ग्रंथों में अनेक प्रकार से भगवान शिव की आराधना करने की बात कही गई है. अनेक प्रकार के अनुष्ठान करने का महत्व भी बताया गया है.

सर्वव्यापी भगवान शिव

धर्मग्रंथों के मुताबिक अनादि, अनंत, सर्वव्यापी भगवान शिव की भक्ति दिन और रात के मिलन की घड़ी यानी प्रदोष काल और अर्द्धरात्रि में सिद्धि और साधना के लिए बहुत ही शुभ व मंगलकारी बताई गई है। इसलिए महाशिवरात्रि हो या प्रदोष तिथि शिव भक्ति से सभी सांसारिक इच्छाओं को पूरा करने का अचूक काल मानी जाती है।
धार्मिक पंरपराओं से परे क्या आपने विचार किया है कि शिव भक्ति के लिए महाशिवरात्रि,प्रदोष काल, शाम या रात का इतना महत्व क्यों है? यहां जानिए इन धर्म भावों से जुड़ा व्यावहारिक पहलू
दरअसल, हिन्दू धर्मग्रंथों में भगवान शिव को तमोगुणी व विनाशक शक्तियों का स्वामी भी माना गया है। रात्रि भी तमोगुणी यानी तम या अंधकार भरी होती है। जिसमें तामसी या बुरी शक्तियां हावी मानी जाती हैं,जो सांसारिक जीवों के लिए अशुभ व पीड़ादायी मानी गई है। लोक भाषा में इन शक्तियों को ही भूत-पिशाच पुकारा जाता है,शास्त्रों में शिव को इन भूतगणों का ही स्वामी और भूतभावन बताया गया है। जिन पर शिव का पूरा नियंत्रण होता है। इसलिए प्रदोष काल में शिव की पूजा इन बुरी शक्तियों के प्रभाव से बचाने वाली होती है।
इसमें व्यावहारिक पक्ष को समझें तो असल में दिन के वक्त सूर्य की ऊर्जा और प्रकाश से तन ऊर्जावान बना रहता है,रोग पैदा करने वाले जीव भी निष्क्रिय होते हैं। शरीर के स्वस्थ होने से मन व आत्मा में सत् यानी अच्छे विचारों के प्रवाह से बुरे या तामसी भावों का असर नहीं होता। शैव ग्रंथों में सूर्य को शिव का ही रूप माना गया है और शिव रूप वेद में भी सूर्य को जगत की आत्मा माना गया है। इस तरह सूर्य रूप शिव के प्रभाव से दिन में बुरी शक्तियां कमजोर हो जाती हैं।
वहीं दिन ढलते ही सत्वगुणी प्रकाश के जाने और तमोगुणी अंधकार के आने से तन, मन के भावों में बदलाव आता है। बुरे और तामसी भावों के हावी होने से मन,विचार और व्यवहार के दोष बड़े कलह और संताप पैदा करते हैं। यही दोष पैशाचिक प्रवृत्ति माने जाते हैं। जिन पर प्रभावी और तुरंत नियंत्रण के लिए ही रात्रि के आरंभ में यानी प्रदोष काल में आसान उपायों से प्रसन्न होने वाले देवता और भूतों के स्वामी शिव यानी आशुतोष की पूजा बहुत ही शुभ और संकटनाशक मानी गई है।

भगवान शिव की आरती

जय शिव ओंकारा ॐ जय शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ जय शिव...॥
एकानन चतुरानन पंचानन राजे ।
हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ॐ जय शिव...॥
दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे।
त्रिगुण रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ जय शिव...॥
अक्षमाला बनमाला रुण्डमाला धारी ।
चंदन मृगमद सोहै भाले शशिधारी ॥ ॐ जय शिव...॥
श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे ।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ जय शिव...॥
कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता ।
जगकर्ता जगभर्ता जगसंहारकर्ता ॥ ॐ जय शिव...॥
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।
प्रणवाक्षर मध्ये ये तीनों एका ॥ ॐ जय शिव...॥
काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी ।
नित उठि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ ॐ जय शिव...॥
त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे ।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ ॐ जय शिव...॥

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

कैसे रह पायेगा मेरा भारत महान.???

कैसे रह पायेगा मेरा भारत महान.???

1. शास्त्रीय संगित की जगह अब कोला-वेरी-डी
2. संस्कृत की जगह इंगलिश और जर्मनी-भाषा-साहित्य
3. नैतिक शिक्षा के जगह अब इंटर्नेट की शिक्षा (छोटे बच्चों को )
संस्कृत को दरकिनार करना भारत के लिए संकट खड़ा कर सकता है।
पिछले दिनो हर स्कूलों में सप्ताह में एक दिन नैतिक-शिक्षा का पाठ पढ़ाया जाता था लेकिन आज बदलते दौर नें उसका स्थान कोलावेरी डी जैसे पाश्चात्य संगितों ने ले लिया है और वास्तविक शास्त्रीय संगित  की शिक्षा न के बराबर ही रह गयी है । ठिक उसी प्रकार नैतिकता के पाठ पढ़ाने वाले स्कूल अब छोटी उम्र में प्रोजेक्ट-वर्क-फाईल बनाने के नाम पर उन्हें नेट की शिक्षा देने लगे हैं। नेट की शिक्षा खराब नहीं है परन्तु आज के विभत्स कथित एक वर्ग ने जो इन्टर्नेट पर अश्लीलता फैला रखी है उससे बच्चों पर गलत प्रभाव पड़ता है । पिछले दिनों एक छात्र नें अपने अध्यापिका को ही चाकू से गोदकर मार डाला था। यदि उन बच्चों में तनिक भी नैतिक शिक्षा का समावेश होता तो शायद ऐसा घिनौना कदम नहीं उठाता। आज नैतिकता का मूल स्थान संस्कृत साहित्य हैं जिनको आज के कथित पढ़े-लिखे एक वर्ग ने दरकिनार कर दिया है। साथ ही शासन (केन्द्र व राज्य) अनेक भारतीय भाषाओं की जननी कही जाने वाली संस्कृत कई भारतीय धर्मग्रंथों की भाषा भी है। जिस भाषा ने भारत में अपना बचपन बिताया वह अब अपना यौवन विदेशों में बिता रही है। भारतीयों की बेरूखी की शिकार देववाणी संस्कृत को विदेशों में भरपूर दुलार व सम्मान मिल रहा है। यदि आज समय रहते हम नहीं जागे तो कल को हमारी आने वाली पीढियाँ हमसे यही पूछेंगी कि आखिर यह संस्कृत क्या है और इसे किसने बनाया था? संस्कृत को केवल कर्मकांड की भाषा कहने की भूल करने वाले नासमझ लोगों को पढ़े-लिखे शिक्षितों की संज्ञा देती है,जो जान-बूझकर संस्कृत को नकार रहे हैं।
 ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, 09827198828, भिलाई दुर्ग (छ.ग.)
(संपादक, ''ज्योति, का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका)

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

मैं उत्तर प्रदेश हुँ... संपादकीय



 
''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका.
 का 31 सवें अंक (फरवरी-2012) का आवरण पृष्ठ है।
 

 गंगा-जमुनी संस्कृति का उद्गम स्थल रहा उत्तर प्रदेश आज अपनी पहचान के संकट से गुजर रहा है। धर्म व जाति आधारित राजनीति का बोलबाला है और विकास के रथ का पहिया टूटकर किंचड़ जा फंसा है महाभारत के कर्ण ने अकिंचन बन सहायता की गुहार भले न की हो लेकिन आज उत्तर प्रदेश अपने करूण स्वर से जरूर पुकारने को मजबूर है, क्योंकि  मराठी मानुष की आवाज उठा पहले बालासाहब ठाकरे और अब राज ठाकरे जैसे नेताओं ने तो घोर अपमान किया ही जिसे राजनीतिक वोट भुनाने के लिए राहुल गांधी ने तो भिखारी शब्द का प्रयोग कर उत्तर प्रदेश के बेबसी को जगजाहिर कर दिया। लंबे अरसे बाद पूर्ण बहुमत से बसपा ने सरकार बनाने में सफल भी रही, किन्तु उनके पार्टी के विधायक व मंत्रीयों के द्वारा लड़की और महिलाओं पर अनाचार जैसे सामाजिक अभिशप्त घिनौने कार्यों से पिछले पांच वर्षों तक उत्तर प्रदेश सुर्खियों में रहा। ऐसे में उत्तर प्रदेश की दर्द भरी यह कराहें भरना ला•ामी है।
राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जो दिल्ली की सत्ता को बहुत रास आता है। 2012 के विधानसभा चुनावों को 2014 में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है। वैसे तो हर राज्य के चुनावी नतीजे अहम होते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जो दीर्घकाल से देश की राजनीतिक दशा व दिशा को तय करता आ रहा है। लेकिन 18 मंडल, 75 जनपद, 312 तहसील, 80 लोकसभा, 30 राज्यसभा के साथ 403 सदस्यीय विधानसभा और 20 करोड़ की आबादी वाले इस विशालकाय प्रदेश में विकास कहीं पीछे छूट गया है और जाने-अनजाने में यह सूबा धर्म व जाति आधारित राजनीति की प्रयोगशाला बन गया है। हम यहां सिर्फ यूपी की बात करेंगे। क्या चल रहा है यूपी की राजनीति में? लेकिन इससे पहले प्रदेश की जातीय समीकरण को सुलझा लेते हैं।
यूपी के बारे में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि यहां के मतदाता अपना वोट नेता को नहीं, जाति को देते हैं। हर बार की तरह इस बार भी मतदाता वोट तो जाति को देंगे लेकिन जीतेगी राजनीति ही। जाति के इसी समीकरण को अपने-अपने पक्ष में करने के लिए तमाम राजनीतिक दल और प्रत्याशी अपने लुभावने वादों से मतदाताओं को फांसने में जुट गए हैं, लेकिन संयोगवश किसी राजनीतिक दल के पास न तो कोई मुद्दा है न कोई एजेंडा। ऐसे में मतदाताओं के पास एकमात्र विकल्प जाति का होता है और जिस दल का जातीय समीकरण मजबूत होगा, राजनीति उसे सत्ता सुख का ताज पहनाएगी। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जिस पार्टी को 30 प्रतिशत वोट मिलेंगे, उसकी जीत तय है। जहां तक जातीय समीकरण की बात है तो प्रदेश में 16 प्रतिशत वोट अगड़ी जाति के हैं। इनमें 8 प्रतिशत ब्राह्मण, 5 प्रतिशत ठाकुर और 3 प्रतिशत अन्य हैं। 35 प्रतिशत पिछड़ी जातियों में 13 प्रतिशत यादव, 12 प्रतिशत कुर्मी और 10 प्रतिशत अन्य हैं। इसके अलावा 25 प्रतिशत दलित, 18 प्रतिशत मुस्लिम, 5 प्रतिशत जाट और एक फीसदी अन्य हैं। पिछले चुनाव में मायावती सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले के तहत 25 प्रतिशत दलित, 8 प्रतिशत ब्राह्मण और 18 प्रतिशत मुस्लिम वोटों को जोडऩे में काफी हद तक सफल रहीं थी और यूपी में बसपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार का यही राज था।
लेकिन जमीनी हकीकत इस बात की गवाह है माया राज में बलात्कार और भ्रष्टाचार ये दोनों भूत ने माया को लगभग दर्जनों से अधिक मंत्री व विधायकों को पार्टी से निकाल बाहर  करना पड़ा। इस परीदृश्य को आप यह कह सकते हैं जिस प्रकार दावे-प्रतिदावे कर उ.प्र. के पिछले चुनाव में 25 से 30 प्रतिशत वोट पाकर अपने बलबुते पर सरकार बनाने में कामयाब तो रहीं, पर जनता अपने आपको ठगा सा एहसास कर रही है, क्योंकि जमीनी हकीकत विकास के नाम पर लगभग जीरो है।
 आप इसे सीधे -साधे शब्दों में ठगी कह सकते हैं। वो ठगी जो यहां की जनता से बार-बार की जाती है। जातिवाद के जहर से पैदा हुई राजनैतिक अराजकता और भ्रष्टाचार के मौजूदा माहौल ने यूपी को विध्वंश के कगार पर ला खड़ा किया है। फिर भी चुनाव के मध्य एक हिली हुई बुनियाद पर नयी इमारत खड़ा करने का दावा किया जा रहा है? क्या यह बेमानी नहीं है तो और क्या है? कांग्रेस का यूपी विजन और भाजपा का घोषणापत्र मुंगेरीलाल के वो सपने हैं, जिन्हें देखने से भी यूपी की जनता अब डरती है।
एक ऐसे वक्त में जब यूपी की जनता को पूर्व की सरकारों ने या तो मुफ्तखोरी या फिर भुखमरी की आदत डलवा रखी हो, प्रदेश के आर्थिक साम्राज्य पर पोंटी चड्ढा जैसे माफियाओं का कब्ज़ा हो, नए पूंजी निवेश की सम्भावना खत्म हो चुकी हो, प्रदेश के तमाम निगमों पर ताला लग चूका हो, बिजली के मांग और आपूर्ति के बीच अंतर सारी हदें तोड़ रहा हो, सरकारी विभागों में आधी आबादी सेवानिवृति के कगार पर हो, वहीं आधे पदों पर बरसों से कोई भर्ती सिर्फ  इसलिए नहीं हो कि काम के बदले देने के लिए पैसा न हो, शिक्षकों से लेकर मालियों तक की तनख्वाह देने में सरकार के पसीने छूट रहे हों, क्या भाजपा और कांग्रेस द्वारा दिखाए जा रहे सपनों को सहजता से स्वीकार कर एक यूपी की जनता सुनहरे कल की कल्पना करनी चाहिए? शायद नहीं! ये मुश्किल होगा। आज यूपी पर लगभग 2 लाख करोड़ रुपयों का कर्ज है। सालाना प्रति व्यक्ति आय लगभग 26 हजार रूपए है जो देश के औसतन प्रति व्यक्ति आय 54,835 की आधी है। आज देश के कुल घाटे के 13 फीसदी के लिए केवल यूपी जिम्मेदार है। ऐसे में कैसा विजन कैसा राम-राज्य?
दरअसल आज यूपी जिस हालात में है उसके लिए कांग्रेस ,भाजपा उतनी ही जिम्मेदार हैं जितनी मुलायम की सपा और मायावती की बसपा। कांग्रेस पाने विजन और भाजपा अपने घोषणापत्र में सिर्फ सब्जबाग दिखाती है, दरअसल यूपी की जनता की जरूरतें अलग हैं, उसकी व्यथा अलग है। दोनों ही पार्टियां जनता की दुखती रग के ठिकाने को पहचान पाने और फिर उसे सहलाने में पूरी तरह से असफल रही हैं।
कांग्रेस द्वारा अपने विजन में अगले पांच सालों में उत्तर प्रदेश में 20 लाख नौकरियां देनेका वादा किया गया है, वहीं भाजपा इतने ही समय में एक करोड़ नौकरियां देने का वादा कर रही है। ये कैसे संभव है जब प्रदेश के सिंचाई से लेकर बिजली विभाग तक में खाली लाखों  पदों को सिर्फ  इसलिए नहीं भरा जा सका क्योंकि उनके पास अपने कामगारों को देने को पैसा ही नहीं है।
उत्तर प्रदेश के बिजली विभाग में लगभग सवा लाख -पद खाली हैं, सिंचाई, स्वास्थ्य और लोक निर्माण विभाग में भी तृतीय श्रेणी के पदों पर लंबे अरसे से भर्तियाँ नहीं हुई है, इसकी वजह धन की अनुपलब्धता और विभागों की बेहद जीर्ण-शीर्ण होती जा रही आर्थिक स्थिति है। वो कांग्रेस ही थी जिसके कार्यकाल में उत्तर प्रदेश के आधा दर्जन से अधिक निगम या तो बंद हो गए या बीमार घोषित कर दिए गए, वहीं भाजपा ने सत्ता संभालने के बाद यहाँ के उद्योगों को निजीकरण के जाल में ऐसा उलझाया कि वो आज तक नहीं उबरे हैं। सपा ने फिर बसपा ने प्रदेश में पिछले 10 सालों में लगभग 2 लाख  प्राथमिक  शिक्षकों की नियुक्ति तो कर ली, लेकिन उन्हें तनख्वाह देने में सरकार के पसीने छूट रहे हैं, कई -कई सालों से काम कर रहे शिक्षकों को अभी भी साल -साल भर पर आधा तिहाई वेतन मिल रहा है, वो भी भारी घुस देकर।
कांग्रेस ने अपने  विजन में सभी ग्रामीण परिवारों में एक -एक मोबाइल फोन देने का वादा किया है , वही भाजपा किसानों के एक लाख तक के कर्जे को माफ करने का वायदा किया गया है, कांग्रेस ने पहले ही पचास हजार तक के कर्ज को माफ करने की बात कही है। कांग्रेस द्वारा किसानों को उन्नत बीज  और बाजार उपलब्ध कराने की भी बात कही गयी है। यूपी का दुर्भाग्य है कि यहाँ के किसान राजनीति के दुश्चक्र से पैदा हुए आर्थिक दमन के आगे समर्पण कर चुके हैं, ज्यादातर सीमांत कृषकों ने या तो दूसरे रोजगार अपना लिए हैं या फिर खेती के नए और अवैज्ञानिक तरीकों को अपनाकर सब कुछ गँवा दिया है, गंगा और यमुना एक्प्रेस वे किसानों के लिए दैत्य साबित हुए हैं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने वक्त की आवाज को और सरकार के मंसूबों को समझ लिया है, उन्हें लगता है कि खेती किसानी से बेहतर है कि अपनी जमीन उद्योगपतिओं को बेंच दी जाए। कर्ज की माफी की जहाँ तक बात है सरकारे बदलती गयी फसलों के समर्थन मूल्य बैलगाड़ी की तरह ही रहे, ऐसे में कर्ज को माफ कर किसानों के हालात में सुधार करना नामुमकिन है ,जहाँ तक मोबाइल फोन देने का सवाल है, इससे किसानों का कोई भला नहीं होने वाला है। भाजपा ने गरीबी की रेखा से नीचे वालों को दो रूपए किलो की डर से 35 किलो गेंहू देने का वायदा किया है, ये आश्चर्यजनक किन्तु सच है कि यूपी में किसी गरीब के लिए बीपीएल कार्ड बनवाना बेटी की शादी से ज्यादा कठिन हैं।
भाजपा और कांग्रेस दोनों ने प्रदेश को बिजली कटौती से मुक्त करने का भरोसा दिलाया है, कांग्रेस गाँव -गाँव चौबीसों घंटे बिजली देने का वायदा कर रही हैं,ये हास्यास्पद है। प्रदेश में 7500 मेगावाट बिजली की जरुरत है यहाँ के बिजलीघर लाख कोशिशों के बावजूद बमुश्किल 2700-2800 मेगावाट बिजली पैदा कर पाते हैं केंद्रीय पूल की बिजली को मिला दने तो भी लगभग 3,000 मेगावाट बिजली की कमी प्रदेश को हमेशा बनी रहती है। यूपी में हर साल बिजली की मांग लगभग 500 मेगावाट बढ़ जाती है ,पर 1980 के बाद से प्रदेश मे साव्र्जनिक्क्षेत्र का कोई भी नया बिजलीघर नहीं बना ,निजी क्षेत्र मे नए बिजलीघरों के करार तो किये गए लेकिन वो भी कागजों पर ही बिजली पैदा कर रहे हैं।
भाजपा गरीब छात्रों को लैपटॉप और टैबलेट मुफ्त बांटेगी। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में गरीब छात्रों को 12 वीं कक्षा तक सभी पुस्तकें, चार जोड़ी यूनिफार्म, बैग, जूते आदि मुफ्त देने का वादा भी किया है।वहीँ कांग्रेस भी अपने विजन में सभी छात्रों को कंप्यूटर शिक्षा देने का दंभ भर रही है। लेकिन सच्चाई ये है कि अभी प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का ही आधार स्तंभ मजबूत नहीं हो पाया है, सबसे पहली जरुरत शत-प्रतिशत साक्षरता को तय करने की होनी चाहिए ,आज प्रदेश में माध्यमिक विद्यालयों का अभाव है। आज भी यहाँ के छात्रों को लंबी दूरी तय करकेविद्यालय जाना पड़ता है। शिक्षा विभाग प्रदेश के सर्वाधिक भ्रष्ट विभागों में शुमार हैं, शिक्षक बाबुओं के चंगुल में इस कदर फंसे पड़े हैं कि उनके पास छात्रों के लिए समय ही कम है । सच ये है प्रदेश में वायदों से ज्यादा जरुरत माहौल बदलने की है, और इसके लिए चाहे भाजपा हो चाहे कांग्रेस या फिर कोई और दल, गहरे आत्मबल की जरुरत होगी, जो कि अब तक नहीं दिखा।

     संपादकीय :
 '' मैं उत्तर प्रदेश हुँ। मैने देश को बाल्मीकि, संत तुलसीदास, कबीरदास, सूरदास, प्रेमचंद, निराला, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नंदन पंत, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, रामचंद्र शुक्ल, महाबीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त जैसे रचनाकारों को पैदा कियाऔर जिस सूबे की राजनीति ने देश को सर्वाधिक आठ प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चौधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी के रूप में दिए  हैं। मेरा रूतबा भी काफी मायने रखता है क्योंकि मैं देश का सबसे बड़ा प्रदेश हुँ। मेरी साख पर जातिवाद व सम्प्रदायवाद  इन दोनों ने बट्टा लगा दिया है। अभी मैं मात्र एक जातिवाद और समाजवाद का प्रयोगशाल बनकर रह गया हुँ। कोई भी आता है तो सबसे पहले जातीय समीकरण का ही प्रयोग करता है। बाहर किसी प्रदेश में जाता हुं तो मुझे दुतकारा जाता है क्योंकि मैं सबसे बड़ा प्रदेश होने के बावजूद भी क्षेत्रीय पार्टीयों के त्रिकोंणीय या फिर चतुष्कोंणीय चुनाव परीणाम के कारण मेरा वर्चस्व केन्द्र सरकार में टुकड़ों में बंट जाता है जो हमारे शक्ति को क्षीण करता जा रहा है। ''
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सम्पादक,' ज्योतिष का सूर्य ' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

पुराणों में शनि और रावण की रोचक कहानी


पुराणों में शनि और रावण की रोचक कहानी
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, 09827198828
आसुरी संस्कृति में महान् व्यक्तित्व उत्पन्न हुए, जिनका बल-पौरूष और विद्वत्ता अतुलनीय रही थी। शुम्भ-निशुम्भ, मधु-कैटभ, हिरण्यकश्यप, बलि या रावण, सभी अतुल पराक्रमी और महा विद्वान थे। यह अलग बात है कि उन्होंने अपनी शक्तियों का प्रयोग असामाजिक कृत्य और भोगों की प्राप्ति हेतु किया।  
इनमें रावण का नाम असुर कुल के विद्वानों में अग्रणी रहा है। रावण चूंकि बाम्हण वंश में उत्पन्न हुए। उनके पिता ऋषि विश्रवा और दादा पुलस्त्य ऋषि महा तपस्वी और धर्मज्ञ थे किन्तु माता असुर कुल की होने से इनमें आसुरी संस्कार आ गए थे। ऋषि विश्रवा के दो पत्नियाँ थीं। एक का नाम इडविडा था जो बाम्हण कुल से थीं और जिनके कुबेर और विभीषण, ये दो संतानें उत्पन्न हुई। दूसरी पत्नी का नाम कैकसी था,  जो असुर कुल से थीं और इनके रावण, कुंभकर्ण और सूर्पणखा नामक संतानें उत्पन्न हुई।
कुबेर इन सब में सबसे बडे थे और रावण विभीषणादि जब बाल्यावस्था में थे, तभी कुबेर धनाघ्यक्ष की पदवी प्राप्त कर चुके थे। कुबेर की पद-प्रतिष्ठा से रावण की माँ ईष्र्या करती थीं और रावण को कोसा करती थीं। रावण के मन को एक दिन ठेस लगी और अपने भाइयों ( कुंभकर्ण-विभीषण ) को साथ में लेकर तपस्या करने चला गया। रावण का भातृ प्रेम अप्रतिम था। इनकी तपस्या सफल हुई और तीनों भाइयों ने ब्रम्हाजी से स्वेच्छापूर्ण वरदान प्राप्त किया।
रावण इतना अधिक बलशाली था कि सभी देवता और ग्रह-नक्षत्र उससे घबराया करते थे। ऎसा पढने को मिलता है कि रावण ने लंका में दसों दिक्पालों को पहरे पर नियुक्त किया हुआ था। रावण चूंकि बाम्हण कुल में जन्मा था सो पौरोहित्य कर्म में पूर्ण पारंगत था। शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि शिवजी ने लंका का निर्माण करवाया और रावण ने उसकी वास्तु शांति करवाई, नगर-प्रवेश करवाया और दक्षिणा में लंका को ही मांग लिया था तथा लंका विजय के प्रसंग में सेतुबन्ध रामेश्वर की स्थापना, जब श्रीराम कर रहे थे, तब भी मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा आदि का पौरोहित्य कार्य रावण ने ही सम्पन्न करवाया।
रावण की पत्नी मंदोदरी जब माँ बनने वाली थी (मेघनाथ के जन्म के समय) तब रावण ने समस्त ग्रह मण्डल को एक निश्चित स्थिति में रहने के लिए सावधान कर दिया। जिससे उत्पन्न होने वाला पुत्र अत्यंत तेजस्वी, शौर्य और पराक्रम से युक्त हो। यहाँ रावण का प्रकाण्ड ज्योतिष ज्ञान परिलक्षित होता है।
उसने ऎसा समय (मुहूर्त) साध लिया था, जिस समय पर किसी का जन्म होगा तो वह अजेय और अत्यंत दीर्घायु से सम्पन्न होगा लेकिन जब मेघनाथ का जन्म हुआ, ठीक उसी समय शनि ने अपनी स्थिति में परिवर्तन कर लिया, जिस स्थिति में शनि के होने पर रावण अपने पुत्र की दीर्घायु समझ रहा था, स्थिति परिवर्तन से वह पुत्र अब अल्पायु हो गया। रावण अत्यंत क्रोधित हो गया। उसने क्रोध में आकर शनि के पैरों पर गदा का प्रहार कर दिया। जिससे शनि के पैर में चोट लग गयी और वे पैर से कुछ लाचार हो गये, अर्थात् लँगडे हो गये।
शनि देव ही आयु के कारक हैं, आयु वृद्घि करने वाले हैं, आयुष योग में शनि का स्थान महत्वपूर्ण है किन्तु शुभ स्थिति में होने पर शनि आयु वृद्घि करते हैं तो अशुभ स्थिति में होने पर आयु का हरण कर लेते हैं। मेघनाथ के साथ भी ऎसा ही हुआ। मेघनाथ की पत्नी शेषनाग की पुत्री थी और महासती थी। मेघनाथ भी परम तेजस्वी और उपासना बल से परिपूर्ण था। इन्द्र को भी युद्घ में जीत लेने से उसका नाम च्च्इन्द्रजीतज्ज् पड गया था लेकिन दुर्भाग्यवश लक्ष्मण जी के हाथों उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रसंग में शनिदेव आयु के कारक और नाशक होते हैं, यह सिद्घ होता है।

क्रांतिकारी मन्सूबे के हैं शनिदेव...?

शनिदेव क्रांति लाने की क्षमता देते हैं। सूर्य से दूर होने के कारण सूर्य की रोशनी से वंचित शनि काले हैं कठोर है परन्तु यही कठोरता अनुशासन भी है। धर्म भाव में बैठे शनि अपने (धर्म) क्षेत्र में गहराई और अनुशासन देते हैं जो उच्चा कोटि के तपस्वी का प्रथम गुण और आवश्यकता है। इन शनिदेव को जब बृहस्पति की शुभ दृष्टि प्राप्त हो जाती है तो धर्म, आघ्यात्म और वैराग्य का अद्भुत संगम होता है। कुछ तपस्वियों की कुण्डली में इसका विश्लेषण करते हैं।
न कोई हार अंतिम हार होती है न कोई अंतिम जीत। किसी भी हार या जीत को अंतिम मान लेने से दोनों ही स्थितियों में अकर्मण्यता आ जाती है। शनिदेव, जो कठोर श्रम के प्रतीक हैं, को अकर्मण्यता बिल्कुल पसंद नहीं है। सुख-दु:ख के भँवर ही व्यक्ति को श्रम करने के लिए प्रेरित करते हैं। दण्डनायक शनि ही समय-समय पर कर्मो के लेखे-जोखों के अनुसार दण्ड देते रहते हैं जिससे सन्तुलन बना रहे। ये तो हम अज्ञानी हैं, जो शनिदेव की संतुलन की इस प्रक्रिया के वास्तविक अर्थ को समझ नहीं पाते और थोडे से ही कष्ट में चीत्कार उठते हैं।
अंग्रेजी के महान कवि एवं लेखक विलियम शेक्सपियर ने लिखा था- Adversity is the best teacher. शनिदेव वही शिक्षक हैं जो कष्ट की कसौटी पर व्यक्ति को परखते हैं, मजबूत बनाते हैं और उसके संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास करने में अहम भूमिका निभाते हैं, अत: शनिदेव और उनका न्याय न केवल हमारे कर्मो का उचित लेखा जोखा है अपितु जीवन की पाठशाला का एक महत्वपूर्ण अघ्याय भी है।

कोयले और हीरे के रासायनिक संयोजन में कोई अंतर नहीं होता, परन्तु दाब और ताप अधिक होने पर कोई कोयला, हीरे में परिवर्तित हो जाता है। ऎसे ही हैं शनिदेव और जन्मपत्रिका में उनकी स्थिति भी ऎसे ही परिणाम देने वाली होती है। कहते हैं जो तप कर निखर उठे वही सोना है, जर्रे की तो नियति ही जल कर राख हो जाना है।
शनिदेव को यदि जीवनरूपी स्वर्ण की कसौटी कहा जाए तो कतई गलत नहीं होगा। शनिदेव की कठोर परीक्षा पर जो खरा उतरा, इतिहास ने ना केवल उसे, उसके कष्ट और त्याग को याद रखा अपितु उदाहरण की तरह देखा और वे आदर्श रूप में जनमानस में छा गए चाहे राजा नल हों, विक्रमादित्य हों या फिर राजा हरिश्चन्द्र।  
आज कलियुग में हमारा दृष्टिकोण कुछ बदल सा गया है। लालबत्ती पर रूके ट्रैफिक में जब एक गरीब लडका फटे-पुराने कपडे से गाडी का काँच या बोनट साफ करता है और फिर एक-दो रूपये की मांग करता है तो हम नजर अंदाज कर देते हैं लेकिन जब शनिवार को वही लडका बर्तन में लोहे की प्रतिमा और तेल लेकर " जय शनि महाराज " बोलता हुआ हमारे पास आता है तो स्वचालित यंत्र रूपी हमारे हाथ उसके बर्तन में एक या दो अथवा उपलब्ध सिक्का डाल देते हैं। 
एक बार शनिदेव ने भगवान शंकर से कहा कि वो उन पर आना चाहते हैं। भगवान शिव ने पार्वती जी को उनके पिता के घर भेज दिया, नन्दी एवं अन्य गणों को भी कुछ समय के लिए स्वयं से दूर कर दिया। जब शनिदेव ने यह देखा तो मुस्कुरा कर कहा कि जब पत्नी, वाहन, नौकर कुछ भी पास नहीं है तो मैं आकर भी क्या करूँगा ?
संभवत: शनिदेव का व्यक्ति को परखने का यह अपना ही अंदाज है कि वे सम्पन्न व्यक्तियों को अधिक पीडा या कष्ट देते हैं जो शायद इस बात की ओर संकेत करता है कि अत्यधिक ऎशो-आराम पाने के लिए व्यक्ति ने जो भी कार्य अनुचित ढंग से किए हैं, उनके दण्ड स्वरूप उस ऎशो-आराम को अपनी दशा-अन्तर्दशा में अथवा साढेसाती में वापस लेकर व्यक्ति को यह एहसास कराना चाहते हों कि वह कहाँ-कहाँ गलत था और उस गलती के परिणाम क्या-क्या रहे हांगे ?  इसके विपरीत एक मजदूर जो दिनभर कडी मेहनत करके अपने परिवार के लिए आवश्यकतानुरूप चीजें जुटाता है, उसे कभी हमने शनिदेव से पीडित या प्रताडित होते कम ही देखा है। 

धन की वर्षा करते हैं शनिदेव...?
यदि आप धन कुबेर बनने का सपना देखते हैं, तो आप अपनी जन्म कुण्डली में इन ग्रह योगों को देखकर उसी अनुसार अपने प्रयासों को गति दें।
१ यदि लग्र का स्वामी दसवें भाव में आ जाता है तब जातक अपने माता-पिता से भी अधिक धनी होता है।
2 मेष या कर्क राशि में स्थित बुध व्यक्ति को धनवान बनाता है।
3 जब गुरु नवे और ग्यारहवें और सूर्य पांचवे भाव में बैठा हो तब व्यक्ति धनवान होता है।
4 शनि ग्रह को छोड़कर जब दूसरे और नवे भाव के स्वामी एक दूसरे के घर में बैठे होते हैं तब व्यक्ति को धनवान बना देते हैं।
5 जब चंद्रमा और गुरु या चंद्रमा और शुक्र पांचवे भाव में बैठ जाए तो व्यक्ति को अमीर बना देते हैं।
6 दूसरे भाव का स्वामी यदि ८ वें भाव में चला जाए तो व्यक्ति को स्वयं के परिश्रम और प्रयासों से धन पाता है।
७ यदि दसवें भाव का स्वामी लग्र में आ जाए तो जातक धनवान होता है।
8 सूर्य का छठे और ग्यारहवें भाव में होने पर व्यक्ति अपार धन पाता है। विशेषकर जब सूर्य और राहू के ग्रहयोग बने।
९ छठे, आठवे और बारहवें भाव के स्वामी यदि छठे, आठवे, बारहवें या ग्यारहवे भाव में चले जाए तो व्यक्ति को अचानक धनपति बन जाता है।
१० यदि सातवें भाव में मंगल या शनि बैठे हों और ग्यारहवें भाव में शनि या मंगल या राहू बैठा हो तो व्यक्ति खेल, जुंए, दलाली या वकालात आदि के द्वारा धन पाता है।
११ मंगल चौथे भाव, सूर्य पांचवे भाव में और गुरु ग्यारहवे या पांचवे भाव में होने पर व्यक्ति को पैतृक संपत्ति से, खेती से या भवन से आय प्राप्त होती है, जो निरंतर बढ़ती है।
१९ गुरु जब दसर्वे या ग्यारहवें भाव में और सूर्य और मंगल चौथे और पांचवे भाव में हो या ग्रह इसकी विपरीत स्थिति में हो व्यक्ति को प्रशासनिक क्षमताओं के द्वारा धन अर्जित करता है।
१२ गुरु जब कर्क, धनु या मीन राशि का और पांचवे भाव का स्वामी दसवें भाव में हो तो व्यक्ति पुत्र और पुत्रियों के द्वारा धन लाभ पाता है।
१३ राहू, शनि या मंगल और सूर्य ग्यारहवें भाव में हों तब व्यक्ति धीरे-धीरे धनपति हो जाता है।
१४ बुध, शुक और शनि जिस भाव में एक साथ हो वह व्यक्ति को व्यापार में बहुत ऊंचाई देकर धनकुबेर बना देता है।
१५ दसवें भाव का स्वामी वृषभ राशि या तुला राशि में और शुक्र या सातवें भाव का स्वामी दसवें भाव में हो तो व्यक्ति को विवाह के द्वारा और पत्नी की कमाई से बहुत धन लाभ होता है।
१६ शनि जब तुला, मकर या कुंभ राशि में होता है, तब आंकिक योग्यता जैसे अकाउण्टेट, गणितज्ञ आदि बनकर धन अर्जित करता है।
१७ बुध, शुक्र और गुरु किसी भी ग्रह में एक साथ हो तब व्यक्ति धार्मिक कार्यों द्वारा धनवान होता है। जिनमें पुरोहित, पंडित, ज्योतिष, प्रवचनकार और धर्म संस्था का प्रमुख बनकर धनवान हो जाता है।
१८ कुण्डली के त्रिकोण घरों या चतुष्कोण घरों में यदि गुरु, शुक्र, चंद्र और बुध बैठे हो या फिर ३, ६ और ग्यारहवें भाव में सूर्य, राहू, शनि, मंगल आदि ग्रह बैठे हो तब व्यक्ति राहू या शनि या शुक या बुध की दशा में अपार धन प्राप्त करता है।
२० यदि सातवें भाव में मंगल या शनि बैठे हों और ग्यारहवें भाव में केतु को छोड़कर अन्य कोई ग्रह बैठा हो, तब व्यक्ति व्यापार-व्यवसार द्वारा अपार धन प्राप्त करता है। यदि केतु ग्यारहवें भाव में बैठा हो तब व्यक्ति विदेशी व्यापार से धन प्राप्त करता है।
शनिदेव को कैसे करें प्रसन्न..?
शनिवार को पीपल पर जल व तेल चढाना, दीप जलाना, पूजा करना या परिक्रमा लगानाअति शुभ होता है। धर्मशास्त्रों में वर्णन है कि पीपल पूजा केवल शनिवार को ही करनी चाहिए।  
पुराणों में आई कथाओं के अनुसार ऎसा माना जाता है कि समुद्र मंथन के समय लक्ष्मीजी से पूर्व उनकी बडी बहन, अलक्ष्मी (ज्येष्ठा या दरिद्रा) उत्पन्न हुई, तत्पश्चात् लक्ष्मीजी। लक्ष्मीजी ने श्रीविष्णु का वरण कर लिया। इससे ज्येष्ठा नाराज हो गई। तब श्रीविष्णु ने उन अलक्ष्मी को अपने प्रिय वृक्ष और वास स्थान पीपल के वृक्ष में रहने का ओदश दिया और कहा कि यहाँ तुम आराधना करो। मैं समय-समय पर तुमसे मिलने आता रहूँगा एवं लक्ष्मीजी ने भी कहा कि मैं प्रत्येक शनिवार तुमसे मिलने पीपल वृक्ष पर आया करूँगी।
शनिवार को श्रीविष्णु और लक्ष्मीजी पीपल वृक्ष के तने में निवास करते हैं। इसलिए शनिवार को पीपल वृक्ष की पूजा, दीपदान, जल व तेल चढाने और परिक्रमा लगाने से पुण्य की प्राप्त होती है और लक्ष्मी नारायण भगवान व शनिदेव की प्रसन्नता होती है जिससे कष्ट कम होते हैं और धन-धान्य की वृद्धि होती है।
शनि-शिग्नापुर
महाराष्ट्र में शिरडी के पास शिग्नापुर में शनिदेव का प्रसिद्ध मंदिर है। कहते हैं- बहुत पहले एक काली शिला बहती हुई इस गाँव की नदी में आ गई। खेलते हुए बच्चों ने जब इसे लकडी के टुकडे से खींचना चाहा तो शिला में से खून बहने लगा। बच्चों ने गाँव वालों को बुलाया। सभी ने शिला को उठाने का प्रयास किया परंतु सफल नहीं हो सके। रात को एक व्यक्ति को स्वप्न में किसी दिव्य आवाज ने कहा कि जब कोई मामा-भांजा इस शिला को उठाएंगे तो ही सफल होंगे। गाँव वालों ने ऎसा ही किया और एक चबूतरे पर शिला की स्थापना की। शनिदेव की कृपा से आज तक कोई भी इस गाँव में कोई भी ताला नहीं लगाता। आज तक यह शिला खुले मे उस चबूतरे पर ही है और इसके ऊपर मंदिर बनाने के सारे प्रयास विफल रहे हैं।
नोटः  (साभार पूर्वांचल न्यूज ) 

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प्रकाशन 15 मार्च 2012, लगातार 31 सवाँ अंक .

उक्त मासिक पत्रिका ने विगत तीन वर्षों में भारत पटल पर बनाने में सफल रही है। ज्ञात हो कि पिछले दिसम्बर (2011) में आंग्ल नववर्ष के मद्देनजर 2012 राशिफल विशेषांक प्रकासित किया गया जो देश भर में पाठकों द्वारा सराहना की गयी थी। इसी सफलता को देखते हुए उसी क्रम में आगामी अंक 15 मार्च 2012 को हिन्दू नव वर्ष विश्व का सर्व श्रेष्ठ मानक वर्ष है सूर्यसिद्धांत और खगोल पर आधारित इस वर्ष की न केवल प्रशंसा होती वरन इसे पूरे विश्व के लोग स्वीकार भी करते हैं। अतः हम भारतीय लोगों को भी इसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए.।
मित्रों इस नूतन वर्ष पर हमारे संपादक मंडल ने यह लिर्णय लिया है कि बहुरंगी साज-सज्जा के साथ एक दुर्लभ पाठ्य सामग्रीयों से युक्त विशेषांक प्रकासित किया जाय। अतः इस विशेषांक में यदि आप लोग भी अपने विचार लेखों के माध्यम से अथवा अपने प्रतिष्ठान, दूकान, व्यापार, अथवा आस्था का मंदिर अतः मंदिरों सहित ज्योतिषी, वास्तु विशेषज्ञ आदि मित्रगण विज्ञापन देना चाहते हैं तो आप सहर्ष हमसे संपर्क कर सकते हैं अथवा बाई पोस्ट हमें प्रेषित कर सकते हैं चूंकि निचे दिये गये चित्र में बाकि विवरण दिये गये हैं जिसमें पता भी है।
पत्रिका के विस्तारित स्थान उ.प्र., झारखंड, बिहार, मध्यप्रदेश, दिल्ली और छत्तीसगढ़..जिनमें प्रमुख रूप से छत्तीसगढ़ में 40 हजार प्रतियां वितरित हो रहीं हैं..
शुभमस्तु।

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

भारत का पांचवा कुम्भ राजिम मेला का शुभारंभ

भारत का पांचवा कुम्भ राजिम मेला का शुभारंभ
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे,संपादक ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, 
मोबा.09827198828 भिलाई
छत्तीसगढ़ के प्रयागराज के रूप में प्रसिध्द तीर्थ स्थल राजिम के त्रिवेणी संगम पर कल माघ पूर्णिमा से अध्यात्म, कला एवं संस्कृति के समागम का राजिम कुंभ शुरू हो गया। राजिम कुंभ मेला महाशिवरात्रि तक बारह दिवसीय यह भव्य आयोजन चलेगा। महामण्डलेश्वर अग्नि पीठाधीश्वर श्री रामकृष्णानंद जी महाराज अमरकंटक और अन्य साधु-संतों के पावन सानिध्य में  महानदी, पैरी और सोंढूर नदी के संगम पर गंगा आरती के बाद भगवान राजीव लोचन की पूजा-अर्चना के साथ कुंभ की शुरूआत हुई। 07 फ रवरी को शुभारंभ हुआ । माघ पूर्णिमा से प्रांरभ होने वाले इस धार्मिक और सांस्कृतिक महोत्सव का प्रमुख आकर्षण शाही स्नान होगा. पवित्र नदियों सोंढूर, पैरी और चित्रोत्पला के पावन तट पर 07 फरवरी को माघ पूर्णिमा, 14 फरवरी को श्री जानकी जयंती, 17 फरवरी को विजया एकादशी और 20 फरवरी को महाशिवरात्रि का शाही स्नान विशेष महत्व लिये होगा. संत समागम का शुभारंभ 13 फरवरी को शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती की उपस्थिति में होंगे. स्वामी निश्चलानंद जी सरस्वती 19 व 20 फरवरी को  समापन समारोह में उपस्थित रहेंगे.


 छत्तीसगढ़ के प्रयागराज के रूप में प्रसिध्द तीर्थ स्थल राजिम के त्रिवेणी संगम पर कल माघ पूर्णिमा से अध्यात्म, कला एवं संस्कृति के समागम का राजिम कुंभ शुरू हो गया। राजिम कुंभ मेला महाशिवरात्रि तक चलेगा। महामण्डलेश्वर अग्नि पीठाधीश्वर श्री रामकृष्णानंद जी महाराज अमरकंटक और अन्य साधु-संतों के पावन सानिध्य में  महानदी, पैरी और सोंढूर नदी के संगम पर गंगा आरती के बाद भगवान राजीव लोचन की पूजा-अर्चना के साथ कुंभ की शुरूआत हुई।
माघ पूर्णिमा से लेकर महाशिवरात्रि तक पन्द्रह दिनों के लिए लगने वाला भारत का पाँचवाँ कुम्भ मेला छत्तीसगढ़ की धार्मिक राजधानी प्रयागधरा राजिम में हर वर्ष लगने वाला कुम्भ है। इसमें उज्जैन, हरिद्वार, अयोध्या, प्रयाग, ऋषिकेश, द्वारिका, कपूरथला, दिल्ली, मुंबई जैसे धार्मिक स्थलों के साथ छत्तीसगढ़ के प्रमुख धार्मिक सम्प्रदायों के अखाड़ों के महंत, साधु-संत, महात्मा और धर्माचार्यों का संगम होता है।
जहाँ एक ओर जगतगुरु शंकराचार्य, ज्योतिष पीठाधीश्वर व महामंडलेश्वरों की संत वाणी का अमृत बरसता है। वहीं श्रद्धालुगण दूर-दूर से आकर इनके प्रवचनों का लाभ लेते हैं। इसमें शाही कुम्भ स्नान होता है जो देखने लायक रहता है। नागा साधुओं के दर्शन के वास्ते भीड़ उमड़ पड़ती है। अखाड़ों के साधुओं के करतब लोगों को आश्चर्य में डाल देते हैं।
पृथ्वी को मृत्युलोक में स्थापित करके विघ्नों को नाश करने के लिए ब्रह्मा सहित देवतागण विचार करने लगे कि इस लोक में दुष्टों की शांति के लिए क्या करना चाहिए? इतने में अविनाशी परमात्मा का ध्यान किया तो एकत्रित देवता बड़े आश्चर्य से देखते हैं कि सूर्य के समान तेज वाला एक कमल गो लोक से गिरा, जो पाँच कोस लम्बा और सुगंध से भरा या जिसमें भौंरे गुँजार कर रहे थे तथा फूल का रस टपक रहा था मानो यह कमल नहीं अमृत का कलश है।
ऐसे कमल फूल को देखकर बह्मा जी बहुत प्रसन्न हुए और आज्ञा दी कि हे पुष्कर 'तुम मृत्युलोक में जाओÓ जहाँ तुम गिरोगे वह क्षेत्र पवित्र हो जाएगा, नाल सहित वह मनोहारी कमल पृथ्वी पर गिरा और पाँच कोस भूमंडल को व्याप्त कर लिया। जिनके स्वामी स्वयं भगवान राजीवलोचन हैं।
कमल फूल की पाँच पंखुड़ी के ऊपर पाँच स्वयं भूपीठ विराजित हैं जिसे पंचकोशी धाम के नाम से जाना जाता हैं। श्री राजीवलोचन भगवान पर कमल पुष्प चढ़ाने का अनुष्ठान है। इन्हीं दिनों से यह पवित्र धरा कमलक्षेत्र के रूप में अंकित हो गया। परकोटे पर लेख के आधार पर कमलक्षेत्र पद्मावती पुरी राजिम नगरी की संरचना जिस प्रकार समुद्र के भीतर त्रिशूल की नोक पर काशी पुरी तथा शंख में द्वारिकापुरी की रचना हुई है, उसी के अनुरूप पाँच कोस का लम्बा चौड़ा वर्गाकार सरोवर है। बीच में कमल का फूल है, फूल के मध्य पोखर में राजिम नगरी है।
श्री मद्राजीवलोचन महात्म्यम्? के अनुसार भगवान श्वेतवराह ने कहा कि 'तीनों लोकों में प्रख्यात कमलक्षेत्र होगा, जिनको साक्षात काशी समस्त देवता, लोकपाल, श्री पार्वती और सर्पों के साथ महादेव जी निवास करेंगे। इस संसार में यह क्षेत्र बैकुंठ के समान है, पद्म सरोवर में साक्षात गज-ग्राहा लड़ाई का प्रमाण मिलता है।
अन्य हाथियों के साथ क्रीडा करता हुआ गजराज पद्म सरोवर में घुसा तो उसके पैर को ग्राहा ने कसकर पकड़ लिया। छुड़ाने का भरपूर प्रयास किया किन्तु नाकाम रहा। व्याकुल होकर कमल फूल ले भगवान को अर्पण करते हुए वह आर्तशब्द करने लगा, हे गदाधर रक्षा करो, कराल ग्राहा ने मुख से मेरा पैर जकड़ लिया है, इससे छुड़ाओ। इस तरह रुदन भरी आवाज सुनकर लक्ष्मी पति भक्त वत्सल भगवान विष्णु स्वयं उपस्थित हो गए। सूर्य के समान तेज से युक्त सुदर्शन चक्र से ग्राहा को खंड-खंड कर गजराज की रक्षा की तथा ग्राहा का उद्धार किया।
बुजुर्गों का कथन है कि इस पद्म सरोवर में स्नान करने से शरीर के रोग नष्ट हो जाते हैं। शंख, चक्र, गदा, पद्म से आलोकित प्रभु की परम पावनी लीला के कारण इसे पद्मावती पुरी के नाम से नवाजा जाने लगा। राजिम कुम्भ के छत्तीसगढ़ शासन द्वारा विशेष व्यवस्था की जाती है। अयोध्या मथुरा, गया, काशी, अवन्तिका, द्वारिकापुरी ये मोक्ष प्रदायक हैं, उसी प्रकार राजिम क्षेत्र भी मोक्ष धाम है।

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर करें भगवान शिवआराधना


ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे
महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर करें भगवान शिवआराधना

-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, 09827198828, भिलाई, दुर्ग, छ.ग.

20फरवरी को इसबार महाशिवरात्रि फाल्गुन कृष्ण पक्ष चौदश, श्रवण नक्षत्र, वरीयान योग, और दिन भी सोमवार का दुर्लभ संयोग बन रहा है जो ऐतिहासिक है आज महाशिवरात्रि के दिन चतर्दश शिवलिंग का पूजन अभिषेक अलग अलग खामना के अनुसार करना चाहिए. मित्रों अलग अलग पदार्थों के एवं राशियों के अनुसार मैं आगामी पोस्ट में आपके सामने रखूंगा लेकिन शास्वत शिव पूजन की संक्षिप्त विधी आपके सामने इस पोस्ट में रखने जा रहा हुं..।शिव ही परमपिता परमेश्वर हैं। सनातन धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। दुनिया के सभी धर्मों के ईष्टों को ईश्वर का फरिश्ता माना गया है ऐसे ही सनातन धर्म में भी ईश्वर के कई फरिश्तों यानि अवतारों का जिक्र है। लेकिन शिवजी कोई अवतार नहीं बल्कि साक्षात् ईश्वर हैं। वह मृत्यु लोक के भगवान हैं। शिवजी को वेद में रुद्र कहा गया है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र स्कन्द और गणेश हैं।
अधिकतर चित्रों में महादेव योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा लिंग के रूप में की जाती है । भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है। भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।

व्यक्तित्व
शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं। ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि। शिवरात्रि व्रत की पारणा चतुर्दशी में ही करनी चाहिए। जो चतुर्दशी में पारणा करता है, वह समस्त तीर्थो के स्नान का फल प्राप्त करता है। जो मनुष्य शिवरात्रि का उपवास नहीं करता, वह जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है। शिवरात्रि का व्रत करने वाले इस लोक के समस्त भोगों को भोगकर अंत में शिवलोक में जाते हैं।

शिवरात्रि
प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति एवं मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है, क्योंकि इसी दिन अर्धरात्रि के समय भगवान शिव लिंगरूप में प्रकट हुए थे। माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
॥ शिवलिंगतयोद्रूत: कोटिसूर्यसमप्रभ ||
भगवान शिव अर्धरात्रि में शिवलिंग रूप में प्रकट हुए थे, इसलिए शिवरात्रि व्रत में अर्धरात्रि में रहने वाली चतुर्दशी ग्रहण करनी चाहिए। कुछ विद्वान प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी विद्धा चतुर्दशी शिवरात्रि व्रत में ग्रहण करते हैं। नारद संहिता में आया है कि जिस तिथि को अर्धरात्रि में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी हो, उस दिन शिवरात्रि करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। जिस दिन प्रदोष व अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो, वह अति पुण्यदायिनी कही गई है।

ईशान संहिता के अनुसार इस दिन ज्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे शक्तिस्वरूपा पार्वती ने मानवी सृष्टि का मार्ग प्रशस्त किया। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि मनाने के पीछे कारण है कि इस दिन क्षीण चंद्रमा के माध्यम से पृथ्वी पर अलौकिक लयात्मक शक्तियां आती हैं, जो जीवनीशक्ति में वृद्धि करती हैं। यद्यपि चतुर्दशी का चंद्रमा क्षीण रहता है, लेकिन शिवस्वरूप महामृत्युंजय दिव्यपुंज महाकाल आसुरी शक्तियों का नाश कर देते हैं। मारक या अनिष्ट की आशंका में महामृत्युंजय शिव की आराधना ग्रहयोगों के आधार पर बताई जाती है। बारह राशियां, बारह ज्योतिर्लिगों की आराधना या दर्शन मात्र से सकारात्मक फलदायिनी हो जाती है। यह काल वसंत ऋतु के वैभव के प्रकाशन का काल है। ऋतु परिवर्तन के साथ मन भी उल्लास व उमंगों से भरा होता है। यही काल कामदेव के विकास का है और कामजनित भावनाओं पर अंकुश भगवद् आराधना से ही संभव हो सकता है। भगवान शिव तो स्वयं काम निहंता हैं, अत: इस समय उनकी आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है।

माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान् शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीव है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं।

पूजन
शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए। शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प अति प्रिय हैं। अत: पूजन में इनका उपयोग करें। जो इस व्रत को हमेशा करने में असमर्थ है, उन्हें इसे बारह या चौबीस वर्ष करना चाहिए। शिव का त्रिशूल और डमरू की ध्वनि मंगल, गुरु से संबद्ध हैं। चंद्रमा उनके मस्तक पर विराजमान होकर अपनी कांति से अनंताकाश में जटाधारी महामृत्युंजय को प्रसन्न रखता है तो बुधादि ग्रह समभाव में सहायक बनते हैं। सप्तम भाव का कारक शुक्र शिव शक्ति के सम्मिलित प्रयास से प्रजा एवं जीव सृष्टि का कारण बनता है। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है।

||महा मृत्‍युंजय मंत्र ||
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात्

ज्योतिर्लिंग
भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग है। सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशङ्कर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री˜यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर। हिंदुओं में मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और संध्या के समय इन बारह ज्योतिर्लिङ्गों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों का किया हुआ पाप इन लिंगों के स्मरण मात्र से मिट जाता है।

भगवनान शिव के अन्य नाम
हिन्दू धर्म में भगवान शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है
रूद्र - रूद्र से अभिप्राय जो दुखों का निर्माण व नाश करता है।
पशुपतिनाथ - भगवान शिव को पशुपति इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह पशु पक्षियों व जीवआत्माओं के स्वामी हैं
अर्धनारीश्वर - शिव और शक्ति के मिलन से अर्धनारीश्वर नाम प्रचलित हुआ।
महादेव - महादेव का अर्थ है महान ईश्वरीय शक्ति।
भोला - भोले का अर्थ है कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वाला। यह विश्वास किया जाता है कि भगवान शंकर आसानी से किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं।
लिंगम - यह रोशनी की लौ व पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है।
नटराज - नटराज को नृत्य का देवता मानते है क्योंकि भगवान शिव तांडव नृत्य के प्रेमी हैं।शान्ति नगर स्थित शिवशक्ति दुर्गा मंदिर के पं. सोहनानंद जी महाराज ने बताया कि शिवरात्रि को रात्रि में चार बार हर तीन घंटे बाद रुद्राभिषेक किया जाता है। इससे जातक का कालसर्प दोष व सभी गृहदोष दूर हो जाते हैं।

शिव तांडव स्तोत्र
जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥
जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी । विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥
धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर- स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा- कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर- प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥
ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा- निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥
कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल- द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक- प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥
नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर- त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥
प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा- विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी- रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर- द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल- ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो- र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌ विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌ ।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका- निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌ ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥


भगवान शिव के 108 नाम
शिव - कल्याण स्वरूप
महेश्वर - माया के अधीश्वर
शम्भू - आनंद स्स्वरूप वाले
पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले
शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले
विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले
कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले
नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले
शंकर - सबका कल्याण करने वाले
शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले
खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले
विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी
शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले
अंबिकानाथ - भगवति के पति
श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले
भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले
भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले
शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले
त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी
शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले
शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय
उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले
कपाली - कपाल धारण करने वाले
कामारी - कामदेव के शत्रु
अंधकारसुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले
गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले
ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले
कालकाल - काल के भी काल
कृपानिधि - करूणा की खान
भीम - भयंकर रूप वाले
परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले
मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले
जटाधर - जटा रखने वाले
कैलाशवासी - कैलाश के निवासी
कवची - कवच धारण करने वाले
कठोर - अत्यन्त मजबूत देह वाले
त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले
वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले
वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले
भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले
सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले
स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले
त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले
अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है
सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले
परमात्मा - सबका अपना आपा
सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले
हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले
यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले
सोम - उमा के सहित रूप वाले
पंचवक्त्र - पांच मुख वाले
सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाल
विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर
वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले
गणनाथ - गणों के स्वामी
प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाल
हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले
दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले
गिरीश - पहाड़ों के मालिक
गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले
अनघ - पापरहित
भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले
भर्ग - पापों को भूंज देने वाले
गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले
गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी
कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले
पुराराति - पुरों का नाश करने वाले
भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न
प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति
मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले
सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले
जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले
जगद्गुरू - जगत् के गुरू
व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले
महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता
चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले
रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले
भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी
स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले
अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले
दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले
अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले
अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाल
सात्त्विक - सत्व गुण वाले
शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले
शाश्वत - नित्य रहने वाले
खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले
अज - जन्म रहित
पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले
मृड - सुखस्वरूप वाले
पशुपति - पशुओं के मालिक
देव - स्वयं प्रकाश रूप
महादेव - देवों के भी देव
अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले
हरि - विष्णुस्वरूप
पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले
अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले
दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाल
हर - पापों व तापों को हरने वाले
भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले
अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले
सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले
सहस्रपाद - अनंत पैर वाले
अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले
अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित
तारक - सबको तारने वाला
परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर

मार्च माह का राशिफल 2012

मार्च माह का राशिफल 2012

ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, 09827198828


मेष : आपका नया मकान बन सकता है. कारोबार में गति सामान्य रहेगी. राजनीतिक माहौल मे आपका रुतवा बढ सकता है. विरोधी आपके सामने चारों खाने चित्त होंगे. हां, बेकार के कानूनी पचड़ों में पडऩे से बचें. कुछ विशेष व्यापारी वर्ग से आपको लाभ हो सकता है.
वृष: परिवारजनों के सहयोग से जीवन में खुशियां आएंगी. धन के अपव्यय से बचें. बाहर घूमने का कार्यक्रम बन सकता है. शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों की पढ़ाई में रुचि बढ़ेगी. प्रेम संबंध मजबूत होगी. व्यापार में लाभ एवम उन्नति के अवसर प्राप्त होंगे.
मिथुन: अच्छा वक्त आने को है. शुभ संदेश जीवन में खुशियों की बौछार लेकर आएंगे. इस अच्छे समय का पूरा फायदा उठाएं. कमाई के नए साधन मिलेंगे. परिवार में सुख-शांति रहेगी. मन प्रसन्न रहेगा .व्यापारियों के लिए नए अवसर खुलेंगे.
कर्क: सेवार्थ कुछ समय बिताइए, लाभ होगा. छोटी-मोटी बीमारियों को छोड़ दें तो आमतौर पर स्वास्थ्य ठीक रहेगा. आर्थिक पक्ष भी सामान्य ही रहेगा. प्रेम-प्रसंगों में व्यर्थ के वाद-विवाद से बचें.
सिंह:  मेहनत रंग लाने लगी है, लेकिन अति महत्वाकांक्षी बनने से बचें. रणनीति बनाकर ही आगे बढ़ें. सेहत ठीकठाक रहेगी. वाहन चलाते हुए अतिरिक्त सावधानी बरतें. पारिवारीक कलह से बचने का प्रयत्न करें, कहा गया है-जहां सुमती तंह सम्पति नाना।
कन्या: मजबूत इच्छाशक्ति के बिना आप कामयाबी नहीं पा सकेंगे. आपकी मेहनत की सराहना तो होगी, लेकिन साथ ही शत्रुओं का आपके प्रति वैमनस्य भी बढ़ेगा. समय प्रबंधन से आप कई रुके हुए काम कर सकते हैं, इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है.
तुला: कारोबार की दृष्टि से समय अनुकूल है. नए सौदे लाभकारी होंगे. ट्रांसपोर्ट से जुड़े व्यवसायियों के लिए विशेष तौर पर समय अच्छा है. धन आपके पास आएगा, लेकिन रुकेगा नहीं. किसी भी तरह के विवाद से दूर रहें.
वृश्चिक: आपके काम को सराहा तो जाएगा, लेकिन उसके लिए आपको धैर्य रखना होगा. सेहत सामान्यं रहेगी. बॉस के साथ संबंधों में सुधार होगा. शत्रु शांत रहेंगे. संतान की ओर से सुखद समाचार मिलेगा. विद्यार्थियों के लिए समयानुकूल है.
धनु: महीने का पहला पखवाड़ा थोड़ा निराश करने वाला रहेगा. बनते काम बिगड़ेगें सफलता मुश्किल होगी. मुकदमेबाजी में ना फंसें, अपने क्रोध पर काबू रखें. किसी भी तरह के विवाद से दूर रहने में ही भलाई है. 15 तारीख के बाद स्थिति में सुधार होगा. आय के नए स्रोत खुलेंगे.
मकर: सामान्य महीना. सत्पुरुषों के संग से लाभ होगा. रुका हुआ धन मिल सकता है. विद्यार्थी वर्ग को फायदा होगा. शत्रु आप पर हावी होने के प्रयास में हैं, सावधान रहें. व्यर्थ की बातों में समय खर्च न करें.
कुम्भ: 15 तारीख से पहले कोई नया काम शुरू न करें. महीने के दूसरे पखवाड़े में आपके लिए हालात बदलने वाले हैं. कहीं दूर से मिला कोई शुभ समाचार मिल सकता है. रुका हुआ धन आएगा. कानूनी पेंच आपको थोड़ा परेशान कर सकते हैं. नकारात्मक लोगों से दूर रहें. विद्यार्थियों को परीक्षा में सफलता मिलेगी.
मीन: बॉस से किसी तरह का विवाद हो सकता है, आपका अडिय़ल रवैया हालात बिगाड़ सकता है. नौकरी में परेशानी रहेगी. आर्थिक रूप से परेशान रह सकते हैं. जीवनसाथी का रवैया आपको परेशानी में डाल सकता है.
नोट: हमारे किसी भी लेख को कापी करना दण्डनीय अपराध है ऐसा करने पर उचित कार्यवायी करने को मजबूर हो जाऊंगा। समाचार पत्र पत्रिकाएं हमसे अनुमती लेकर प्रकाशित कर सकते हैं...!.

उत्तर प्रदेश की करुण पुकार... कोई मेरी भी तो सुनो..मैं उत्तर प्रदेश हुँ

उत्तर प्रदेश की करुण पुकार...
कोई मेरी भी तो सुनो
             मैं उत्तर प्रदेश हुँ। मैने देश को बाल्मीकि, संत तुलसीदास, कबीरदास, सूरदास, प्रेमचंद, निराला, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नंदन पंत, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, रामचंद्र शुक्ल, महाबीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त जैसे रचनाकारों को पैदा कियाऔर जिस सूबे की राजनीति ने देश को सर्वाधिक आठ प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चौधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी के रूप में दिए  हैं। मेरा रूतबा भी काफी मायने रखता है क्योंकि मैं देश का सबसे बड़ा प्रदेश हुँ। मेरी साख पर जातिवाद व सम्प्रदायवाद  इन दोनों ने बट्टा लगा दिया है। अभी मैं मात्र एक जातिवाद और समाजवाद का प्रयोगशाल बनकर रह गया हुँ। कोई भी आता है तो सबसे पहले जातीय समीकरण का ही प्रयोग करता है। बाहर किसी प्रदेश में जाता हुं तो मुझे दुतकारा जाता है क्योंकि मैं सबसे बड़ा प्रदेश होने के बावजूद भी क्षेत्रीय पार्टीयों के त्रिकोंणीय या फिर चतुष्कोंणीय चुनाव परीणाम के कारण मेरा वर्चस्व केन्द्र सरकार में टुकड़ों में बंट जाता है जो हमारे शक्ति को क्षीण करता जा रहा है। गंगा-जमुनी संस्कृति का उद्गम स्थल रहा उत्तर प्रदेश आज अपनी पहचान के संकट से गुजर रहा है। धर्म व जाति आधारित राजनीति का बोलबाला है और विकास के रथ का पहिया टूटकर किंचड़ जा फंसा है महाभारत के कर्ण ने अकिंचन बन सहायता की गुहार भले न की हो लेकिन आज उत्तर प्रदेश अपने करूण स्वर से जरूर पुकारने को मजबूर है, क्योंकि  मराठी मानुष की आवाज उठा पहले बालासाहब ठाकरे और अब राज ठाकरे जैसे नेताओं ने तो घोर अपमान किया ही जिसे राजनीतिक वोट भुनाने के लिए राहुल गांधी ने तो भिखारी शब्द का प्रयोग कर उत्तर प्रदेश के बेबसी को जगजाहिर कर दिया। लंबे अरसे बाद पूर्ण बहुमत से बसपा ने सरकार बनाने में सफल भी रही, किन्तु उनके पार्टी के विधायक व मंत्रीयों के द्वारा लड़की और महिलाओं पर अनाचार जैसे सामाजिक अभिशप्त घिनौने कार्यों से पिछले पांच वर्षों तक उत्तर प्रदेश सुर्खियों में रहा। ऐसे में उत्तर प्रदेश की दर्द भरी यह कराहें भरना लाजमी है।

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

मर्यादाओं को तोड़ सारी हदें पार करती पत्रकारिता..??

मर्यादाओं को तोड़ सारी हदें पार करती पत्रकारिता..??

 मित्रों मैं कल एक समाचार पत्र के साईट पर ''लीज़ा ने एक दिन में 919 पुरूषों के साथ किया था सेक्स''...http://bollywood.bhaskar.com/article/ENT-MM-worlds-biggest-gang-bang-%E2%80%93-919-guys-in-the-same-day-2824479.html.तो मुझे बड़ा दुःख हुआ कि आज बाजारवाद के इस पत्रकारिता की मर्यादा दम तोड़ रही है..आखिरकार हम कहां जा रहे हैं...अभी हाल ही में अन्ना लाईव चल रहा था और वहीं महाराष्ट्र में कर्ज से परेशान किसानों की मौत हो रही थी लेकिन अन्ना के लाईव ने किसानों के मौत की खबर लुप्तप्राय हो गयी उसी तरह से आज नेताओं को खुजली हो जाये और किसी हास्पिटल इलाज कराने पहुच जाएं तो नेता जी ..समाचार पत्र का  बहुत बड़ा सामाचार बन जाता है..अब.इतिहासकार, साहित्यकार, समाजसेवी संगठनो के समाचार का जगह नंगी तस्वीर वाली मोतरमाओं ने ले लिया है बाकी बचे जगह में नेता जी की दाद, खाज, खुजली....

चुनाव का दरीयाई घोड़ा, चलो कुछ तो बोला।

चुनाव का दरीयाई घोड़ा, चलो कुछ तो बोला।
जाति, पांति, खानदान से निर्मोही मुर्गा वांग छोड़ा ।।

करवटें बदल हिन्दुस्तान का रूख मोड़ा है।
हिन्दुस्तान तोड़ने की जुगत में धर्मवाद छेड़ा है।।

स्कट के अधोवस्त्र से यू.पी. ने साड़ी पहनाया है।
देखो कमाल साड़ी का मंच तक पहुंचाया है।।

अब साड़ी मत छोड़ मैना, लाज रखना यू.पी का।
भारत माँ का पवित्र आँचल, वीरों के रवानी का।।

बस अब बहुत हुआ घोटाला, रोक सको तो रोक लो।
जनता की झल्लाहट, बौखलाहट नौजवानों की रोक लो।।

मजबूर जनता का जंग, साढ़े चार गज की आरक्षण आग।
जला देगी तेरी उस लंका को, जिसने लगायी पूंछ में आग।।

-पं.विनोद चौबे
 

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

शत्रु-विनाशक आदित्य-हृदय

शत्रु-विनाशक आदित्य-हृदय

।। आदित्य हृदय स्तोत्रम् ।।
जब भगवान् राम रावण के साथ युद्ध करते-करते क्लान्त हो गए, तब तान्त्रिक अस्त्र-शस्त्रों के आविष्कारक ऋषि अगस्त्य ने आकर भगवान् राम से कहा कि ‘३ बार जल का आचमन कर, इस ‘आदित्य-हृदय’ का तीन बार पाठ कर रावण का वध करो ।’ राम ने इसी प्रकार किया, जिससे उनकी क्लान्ति मिट गई और नए उत्साह का सञ्चार हुआ । भीषण युद्ध में रावण मारा गया ।
रविवार को जब संक्रान्ति हो, उस दिन सूर्य-मन्दिर में, नव-ग्रह मन्दिर में अथवा अपने घर में सूर्य देवता के समक्ष इस स्तोत्र का ३ बार पाठ करें । न्यास, विनियोगादि संक्रान्ति के ५ मिनट पूर्व प्रारम्भ कर दें । प्रयोग के दिन बिना नमक का भोजन करें ।
‘कृत्य-कल्पतरु’ के अनुसार १०८ बार इसका पाठ करना चाहिए । जो लोग केवल तीन ही पाठ करें, वे १०८ बार ‘गायत्री-मन्त्र’ का जप अवश्य करें ।

विनियोगः- ॐ अस्य आदित्य-हृदय-स्तोत्रस्य-श्रीअगस्त्य ऋर्षिनुष्टुप्छन्दः आदित्य-हृदयभूतो भगवान श्रीब्रह्मा देवता, ॐ बीजं, रश्मि-मते शक्तिः, अभीष्ट-सिद्धयर्थे पाठे विनियोगः (वा)निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जय सिद्धौ च विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः- अगस्त्य ऋषये नमः शिरसि। अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे। ॐ आदित्य-हृदय-भूत-श्रीब्रह्मा देवतायै नमः हृदि। ॐ बीजाय नमः गुह्ये। ॐ रश्मिमते शक्तये नमः पादयोः। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो नः प्रचोदयात् कीलकाय नमः नाभौ।

इस स्तोत्र के अंगन्यास और करन्यास तीन प्रकार से किये जाते हैं। केवल प्रणव से, गायत्री मन्त्र से अथवा `रश्मिमते नमः´ इत्यादि छः नाम मन्त्रों से। यहाँ नाम मन्त्रों से किये जाने वाले न्यास का प्रकार बतलाया गया है।

कर-न्यासः- ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः। ॐ देवासुर-नमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नमः। ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादि-न्यासः- ॐ रश्मिमते हृदयायं नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुर-नमस्कृताय शिखायै वषट्। ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।
इस प्रकार न्यास करके निम्न गायत्री मन्त्र से भगवान् सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिये – “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।´´ तत्पश्चात् आदित्यहृदय का पाठ करना चाहिये -
।। पूर्व-पीठिका ।।
ततो युद्ध-परिश्रान्तं, समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा, युद्धाय समुपस्थितम् ।।1।।
दैवतैश्च समागम्य, द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।
उपगम्याब्रवीद् रामगस्त्यो भगवांस्तदा ।।2।।
राम राम महाबहो ! श्रृणु गुह्यं सनातनम् ।
येन सर्वानरीन् वत्स ! समरे विजयिष्यसे ।।3
आदित्य-हृदयं पुण्यं, सर्व-शत्रु-विनाशनम् ।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ।।4
सर्व-मंगल-मांगल्यं, सर्व-पाप-प्रणाशनम् ।
चिन्ता-शोक-प्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ।।5
।। मूल-स्तोत्र ।।
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं, देवासुरनमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्तं, भास्करं भुवनेश्वरम् ।।6
सर्व-देवात्मको ह्येष, तेजस्वी रश्मि-भावनः ।
एष देवासुर-गणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ।।7
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च, शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो, यमः सोमो ह्यपाम्पतिः ।।8
पितरो वसवः साध्या, अश्विनो मरूतो मनुः ।
वायुर्वह्निः प्रजाः प्राण, ऋतु-कर्ता प्रभाकरः ।।9
आदित्यः सविता सूर्यः, खगः पूषा गभस्तिमान् ।
सुवर्ण-सदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः ।।10
हरिदश्वः सहस्त्रार्चिः, सप्त-सप्तिर्मरीचि-मान् ।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशु-मान् ।।11
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहस्करो रविः ।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः, शंखः शिशिर-नाशनः ।।12
व्योम-नाथस्तमो-भेदी, ऋग्यजुः साम-पारगः ।
घन-वृष्टिरपां मित्रो, विन्ध्य-वीथी-प्लवंगमः ।।13
आतपी मण्डली मृत्युः, पिंगलः सर्वतापनः ।
कविर्विश्वो महातेजा, रक्तः सर्वभवोद्भवः ।।14
नक्षत्र-ग्रह-ताराणामधिपो विश्व-भावनः ।
तेजसामपि तेजस्वी, द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ।।15
नमः पूर्वाय गिरये, पश्चिमायाद्रये नमः ।
ज्योतिर्गणानां पतये, दिनाधिपतये नमः ।।16
जयाय जय-भद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।
नमो नमः सहस्त्रांशो, आदित्याय नमो नमः ।।17
नमः उग्राय वीराय, सारगांय नमो नमः ।
नमः पद्म-प्रबोधाय प्रचण्डाय, नमोऽस्तु ते ।।18
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय, सूरायादित्य-वर्चसे ।
भास्वते सर्व-भक्षाय, रौद्राय वपुषे नमः ।।19
तमोघ्नाय हिमघ्नाय, शत्रुघ्नायामितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय, ज्योतिषां पतये नमः ।।20
तप्त-चामीकराभाय, हरये विश्व-कर्मणे ।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय, रूचये लोकसाक्षिणे ।।21
नाशयत्येष वै भूतं, तमेव सृजति प्रभुः ।
पायत्येष तपत्येष, वर्षत्येष गभस्तिभिः ।।22
एष सुप्तेषु जागर्ति, भूतेषु परि-निष्ठितः ।
एष चैवाग्नि-होत्रं च, फलं चैवाग्नि-होतृणाम् ।।23
देवाश्च क्रतवश्चैव, क्रतूनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु, सर्वेषु परम-प्रभुः ।।24

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु, कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरूषः कश्चिन्नावसीदति राघवः ! ।।25
पूजयस्वैनमेकाग्रों, देव-देवं जगत्पतिम् ।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा, युद्धेषु विजयिष्यसि ।।26
अस्मिन् क्षणे महाबाहो, रावणं त्वं जहिष्यसि ।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो, जगाम स यथाऽऽगतम् ।।27
एतच्छ्रुत्वा महा-तेजा, नष्ट-शोकोऽभवत् तदा ।
धारयामास सु-प्रीतो, राघवः प्रयतात्मवान् ।।28
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं, परं हर्षमवाप्त-वान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा, धनुरादाय वीर्य-वान् ।।29
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा, जयार्थं समुपागमत् ।
सर्व-यत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ।।30
अथ रविरवदिन्नरीक्ष्य रामं मुदित-मनाः परमं प्रहृष्य-माणः ।
निशिचरपति-संक्षयं विदित्वा, सुर-गण-मध्य-गतो वचस्त्वरेति।।31
।।इति वाल्मीकीयरामयणे युद्धकाण्डे, अगस्त्यप्रोक्तमादित्यहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णं।।

श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिये उनके सामने उपस्थित हो गया।।1।।
यह देख भगवान् अगस्त्य मुनि, जो युद्ध देखने के लिये देवताओं के साथ आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले।।2।।
सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो। वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे।।3
यह गोपनीय स्तोत्र “आदित्यहृदय´´ परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय प्राप्त होती है। यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है।।4
सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।।5

भगवान् सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित (रश्मिवान्) हैं। ये नित्य उदय होने वाले (समुद्यन), देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी हैं। तुम इनका (रश्मिमते नमः, समुद्यते नमः, देवासुरनमस्कृताय नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः- इन छः नाम मन्त्रों के द्वारा) पूजन करो।।6
सम्पूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं। ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत् को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं।।7
ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओ को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं।।8-9
इन्हीं के नाम – आदित्य (अदितिपुत्र), सविता (जगत् को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग (आकाश में विचरनेवाले), पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान (प्रकाशमान्), स्वर्णसदृश, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड का उत्पत्ति के बीज), दिवाकर (दिन का प्रकाश फैलाने वाले)।।10
हरिदश्व (दिशाओं में व्यापक या हरे रंग के घोड़ों वाले), सहस्त्रार्चि (हजारों किरणों से सुशोभित), सप्तसप्ति (सात घोड़ों वाले), मरीचमान् (किरणों से सुशोभित), तिमिरोन्मथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भु (कल्याण के उद्गम स्थल), त्वष्टा (भक्तो का दुःख दूर करने वाले या जगत् का संहार करने वाले), मार्तण्डक (ब्रह्माण्ड को जीवन प्रदान करने वाले), अंशुमान् (किरण धारण करने वाले)।।11
हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करने वाले), अहस्कर (दिनकर), रवि (सबके स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख (आनन्द रूप एवं व्यापक), शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले)।।12
व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी (अन्धकार का भेदन करने वाले), ऋक्, यजुःऔर समवेद के पारगामी, घनवृष्टि (घनी वृष्टि के कारण), अपां मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विन्ध्यवीथीप्लवंगम (आकाश में तीव्र गति से चलने वाल।।13
आतपी (घाम उत्पन्न करने वाले), मण्डली (किरण समूह को धारण करने वाले), मृत्यु, पिंगल, सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि, विश्व, महातेजस्वी, रक्त, सर्वभवोद्भव (सबकी उत्पत्ति के कारण)।।14
नक्षत्रताराग्रहों के स्वामी, विश्वभावन (जगत् की रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी तथा द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) आपको नमस्कार हैं।।15
पूर्वगिरि -उदयाचल तथा पश्चिमगिरि – अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है।।16
आप जयस्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता हैं। आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। आपको बारम्बार नमस्कार है। सहस्त्रों किरणों से सुशोभित भगवान् सूर्य ! आपको बारम्बार नमस्कार है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध हैं, आपको नमस्कार है।।17
उग्र (अभक्तों के लिये भयंकर), वीर और सारंग (शीघ्रगामी) सूर्यदेव को नमस्कार है। कमलों को विकसित करने वाले प्रचण्ड तेजधारी मार्तण्ड को प्रणाम है।।18
ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी (परात्पर रूप में) हैं। सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाली अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्र रूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।।19
आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देव स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।।20
आपकी प्रभा तपाये हुए स्वर्ण के समान है, आप हरि (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं, तम के नाशक, प्रकाश स्वरूप और जगत् के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है।।21
रघुनन्दन ! ये भगवान् सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुँचाते और वर्षा करते हैं।।22
ये सब भूतों में अन्तर्यामी रूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जगाते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरूषों को मिलने वाले फल हैं।।23
देवता (यज्ञ में भाग ग्रहण वाले), यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। सम्पूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।।24

राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा किसी भी भय के अवसर पर जो कोई पुरूष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।।25
इसलिये तुम एकाग्रचित्त होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो। इस “आदित्यहृदय´´ का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे।।26
`महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे।´ यह कहकर अगस्त्यजी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये।।27
उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्ध वित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान् सूर्य को देखते हुए इसका तीन बार जप किया। इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साह पूर्वक विजय पाने के लिये आगे बढ़े। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण का वध का निश्चय किया।।28-30
उस समय देवताओं के मध्य में खड़े भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा – रघुनन्दन ! अब शीघ्रता करो।।31