ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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बुधवार, 31 जनवरी 2018

शिव जी के कैलाश पर्वत को 'अजेय पर्वत' होने का दुर्लभ रहस्य.....

दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी पर्वत,
अप्राकृतिक शक्तियों का भण्डारक !!

कैलाश पर्वत .......
दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी पर्वत,
अप्राकृतिक शक्तियों का भण्डारक

Axis Mundi (एक्सिस मुंडी ) .............
प्रश्न पहेली रहस्य ...

एक्सिस मुंडी को ब्रह्मांड का केंद्र,
दुनिया की नाभि या आकाशीय ध्रुव
और भौगोलिक ध्रुव के रूप में,यह
आकाश और पृथ्वी के बीच संबंध
का एक बिंदु है जहाँ चारों दिशाएं
मिल जाती हैं।

और यह नाम,असली और महान,
दुनिया के सबसे पवित्र और सबसे
रहस्यमय पहाड़ों में से एक कैलाश
पर्वत से सम्बंधित हैं।

एक्सिस मुंडी वह स्थान है अलौकिक
शक्ति का प्रवाह होता है और आप उन
शक्तियों के साथ संपर्क कर सकते हैं।

रसिया (USSR) के वैज्ञानिक ने वह
स्थान कैलाश पर्वत बताया है।

भूगोल और पौराणिक रूप से कैलाश
पर्वत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।

इस पवित्र पर्वत की ऊंचाई
6714 मीटर है।

और यह पास की हिमालय सीमा की
चोटियों जैसे माउन्ट एवरेस्ट के साथ
प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता पर इसकी
भव्यता ऊंचाई में नहीं,लेकिन अपनी
विशिष्ट आकार में निहित है।

कैलाश पर्वत की संरचना कम्पास के
चार दिक् बिन्दुओं के सामान है और
एकान्त स्थान पर स्थित है जहाँ कोई
भी बड़ा पर्वत नहीं है।

कैलाश पर्वत पर चढ़ना निषिद्ध है,यह
अजेय पर्वत है पर 11वीं सदी में एक
तिब्बती बौद्ध योगी मिलारेपा ने इस
पर चढ़ने का प्रयास किया

शिव-पार्वती का घर है कैलाश
मानसरोवर !!

प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख है कि हिमालय
जैसा कोई दूसरा पर्वत नहीं है।

यहां भगवान का निवास है क्योंकि यहां
कैलाश और मानसरोवर स्थित हैं।

कैलाश मानसरोवर को शिव-पार्वती का
घर माना जाता है।

सदियों से देवता,दानव,योगी,मुनि और
सिद्ध महात्मा यहां तपस्या करते आए हैं।

कैलाश पर्वत की ऊंचाई समुद्र तल से
लगभग 20 हजार फीट है।

इसलिए तीर्थयात्रियों को कई पर्वत
ऋंखलाएं पार करनी पड़ती हैं।

यह यात्रा अत्यंत कठिन मानी जाती
है हिन्दू धर्मं के अनुसार कहते है की
जिसको भोले बाबा का बुलावा होता
है वही इस यात्रा को कर सकता है।

भारत सरकार के सौजन्य से हर वर्ष
मई-जून में सैकड़ों तीर्थयात्री कैलाश
मानसरोवर की यात्रा करते हैं।

इसके लिए उन्हें भारत की सीमा लांघ
कर चीन में प्रवेश करना पड़ता है,
क्योंकि यात्रा का यह भाग चीन में है।

सामान्यतया यह यात्रा 28 दिन में
पूरी होती है।

भारतीय भू भाग में चोथे दिन से पैदल
यात्रा शुरू होती है।

भारतीय सीमा में कुमाउ मंडल विकास
निगम इस यात्रा को संपन्न कराती है।

कैलाश पर्वत चार महान नदियों के
स्त्रोतों से घिरा है सिंध,ब्रह्मपुत्र,सतलज
और कर्णाली या घाघरा तथा दो सरोवर
इसके आधार हैं।

पहला मानसरोवर जो दुनिया की शुद्ध
पानी की उच्चतम झीलों में से एक है
और जिसका आकर सूर्य के सामान है।

पवित्र झील 'मानसरोवर'

मानसरोवर यह पवित्र झील समुद्र तल
से लगभग 4 हजार फीट की ऊंचाई पर
स्थित है और लगभग 320 बर्ग किलो
मीटर में फैली हुई है।

यहीं से एशिया की चार प्रमुख नदियां,
ब्रह्मपुत्र, करनाली, सिंधु और सतलज
निकलती हैं।

हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार,जो
व्यक्ति मानसरोवर (झील) की धरती को
छू लेता है,वह ब्रह्मा के बनाये स्वर्ग में
पहुंच जाता है और जो व्यक्ति झील का
पानी पी लेता है,उसे भगवान शिव के
बनाये स्वर्ग में जाने का अधिकार मिल
जाता है।

जनश्रुतियां हैं कि ब्रह्मा ने अपने मन
-मस्तिष्क से मानसरोवर बनाया है।

दरअसल, मानसरोवर संस्कृत के मानस
(मस्तिष्क) और सरोवर (झील)शब्द से
बना है।

मान्यता है कि ब्रह्ममुहुर्त में देवता गण
यहां स्नान करते हैं।

शक्त ग्रंथ के अनुसार, सती का हाथ
इसी स्थान पर गिरा था, जिससे यह
झील तैयार हुई।

इसलिए इसे 51 शक्तिपीठों में से
एक माना गया है।

गर्मी के दिनों में जब मानसरोवर की
बर्फ पिघलती है,तो एक प्रकार की
आवाज भी सुनाई देती है।

श्रद्धालु मानते हैं कि यह मृदंग की
आवाज है।

मान्यता यह भी है कि कोई व्यक्ति
मानसरोवर में एक बार डुबकी लगा
ले,तो वह रुद्रलोक पहुंच सकता है।

तथा राक्षस झील जो दुनिया की खारे
पानी की उच्चतम झीलों में से एक है
और जिसका आकार चन्द्र के सामान है।

राक्षस ताल

मानसरोवर के बाद आप राक्षस ताल
की यात्रा करेंगे।

यह लगभग 225 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र
में फैला है।

प्रचलित है कि रावण ने यहां पर शिव
की आराधना की थी।

इसलिए इसे राक्षस ताल या रावणहृद
भी कहते हैं।

एक छोटी नदी गंगा-चू दोनों झीलों
को जोड़ती है।

हिंदू के अलावा, बौद्ध और जैन धर्म में
भी कैलाश मानसरोवर को पवित्र तीर्थ
स्थान के रूप में देखा जाता है।

बौद्ध समुदाय कैलाश पर्वत को कांग
रिनपोचे पर्वत भी कहते हैं।

उनका मानना है कि यहां उन्हें
आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है।

कहा जाता है कि मानसरोवर के पास
ही भगवान बुद्ध महारानी माया के गर्भ
में आये।

जैन धर्म में कैलाश को अष्टपद पर्वत
कहा जाता है।

जैन धर्म के अनुयायी मानते हैं कि
जैन धर्म गुरु ऋषभनाथ को यहीं
पर आध्यात्मिक ज्ञान मिला था।

ये दोनों झीलें सौर और चंद्र बल को
प्रदर्शित करते हैं जिसका सम्बन्ध
सकारात्मक और नकारात्मक
उर्जा से है।

जब दक्षिण चेहरे से देखते हैं तो एक
स्वस्तिक चिन्ह वास्तव में देखा जा
सकता है।

गौरीकुंड

कैलाश पर्वत की परिक्रमा के दौरान
आपको एक किलोमीटर परिधि वाला
गौरीकुंड भी मिलेगा।

यह कुंड हमेशा बर्फ से ढंका रहता है,
लेकिन तीर्थयात्री बर्फ हटाकर इस कुंड
के पवित्र जल में स्नान करना नहीं भूलते।

हिंदू धर्म में ऐसा माना जाता है कि
गौरीकुंड में स्नान करने पर मोक्ष की
प्राप्ति होती है।

कैलाश पर्वत और उसके आस पास
के वातावरण पर अध्ययन कर रहे
रसिया(USSR) के वैज्ञानिक Tsar
Nikolai Romanov और उनकी
टीम ने तिब्बत के मंदिरों में धर्मं गुरुओं
से मुलाकात की उन्होंने बताया कैलाश
पर्वत के चारों ओर एक अलौकिक शक्ति
का प्रवाह होता है जिसमे तपस्वी आज भी
आध्यात्मिक गुरुओं के साथ telepathic
संपर्क करते है।

" In shape it (Mount Kailas)
resembles a vast cathedral…
the sides of the mountain are
perpendicular and fall sheer
for hundreds of feet,the strata
horizontal,the layers of stone
varying slightly in colour,and
the dividing lines showing up
clear and distinct...... which
give to the entire mountain
the appearance of having
been built by giant hands,
of huge blocks of reddish
stone. "

(G.C. Rawling,The Great
Plateau,London,1905).

रसिया के वैज्ञानिकों का दावा है
की कैलाश पर्वत प्रकृति द्वारा
निर्मित सबसे उच्चतम पिरामिड है।

जिसको तीन साल पहले चाइना के
वैज्ञानिकों द्वारा सरकारी चाइनीज़ प्रेस
में इसे नकार दिया था।

आगे कहते हैं #कैलाशपर्वत दुनिया
का सबसे बड़ा रहस्यमयी,पवित्र स्थान
है जिसके आस पास अप्राकृतिक शक्तियों
का भण्डार है।

इस पवित्र पर्वत सभी धर्मों ने अलग
अलग नाम दिए हैं। "

USSR के वैज्ञानिकों की यह
रिपोर्ट UNSpecial! Magzine
में प्रकाशित की गयी थी।

With deep thanks to Mr. Wolf Scott, former Deputy Director of UNRISD,
======

।। जयतु संस्‍कृतम् ।
जयतु भारतम् ।।★
👍👍👍👍👍
#साभार_संकलित★
★★★★★★★★

जयति पुण्य सनातन संस्कृति★
जयति पुण्य भूमि भारत★

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनभं
चारुचन्द्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं
परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्र
कृत्तिंवसानं विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिल
भयहरं पञ्चवक्त्रं त्रीनेत्रम्।।

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः।
बाहुभ्यामुत ते नमः।।

नमः सर्वहितार्थाय जगदाधार हेतवे।
साष्टांङ्गोऽयं प्रणामस्ते प्रयत्नेन मया कृतः।।

पापोऽहं पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भवः।
त्राहि मां पार्वतीनाथ सर्वपापहरो भव।।

पूरे विश्व में सिर्फ हिन्दू थे ...

कहते हैं कि एक समय था जबकि संपूर्ण धरती पर सिर्फ हिंदू थे। प्राचीन काल में भारत की सीमा अफगानिस्तान के हिन्दूकुश से लेकर अरुणाचल तक और कश्मीर से लेकर श्रीलंका तक। दूसरी ओर अरुणाचल से लेकर इंडोनेशिया, मलेशिया तक फैली थी। इस संपूर्ण क्षेत्र में 18 महाजनपदों के सम्राटों का राज था जिसके अंतर्गत सैंकड़ों जनपद और उपजनपद थे। सात द्वीपों में बंटी धरती के संपूर्ण जम्बूद्वीप पर हिन्दू धर्म ही कायम था।

सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)

क्या प्राचीनकाल में संपूर्ण धरती पर फैला था हिन्दू धर्म?

मैक्सिको, अमेरिका, रूस, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान, किर्गिस्तान, तुर्की, सीरिया, इराक, स्पेन, इंडोनेशिया, चीन आदि सभी जगह पर हिन्दू धर्म से जुड़े साक्ष्य पाए गए हैं। विद्वानों अनुसार अरब की यजीदी, सबाइन, सबा, कुरैश आदि कई जातियों का प्राचीन धर्म हिन्दू ही था। मैक्सिको में एक खुदाई के दौरान गणेश और लक्ष्मी की प्राचीन मूर्तियां पाई गईं थी। 'मैक्सिको' शब्द संस्कृत के 'मक्षिका' शब्द से आता है और मैक्सिको में ऐसे हजारों प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है। दूसरी ओर स्पेन में हजारों वर्ष पुराना एक मंदिर है जिस पर भगवान विष्णु की प्रतिमा अंकीत है।

चीन में हिन्दू

चीन के इतिहासकारों के अनुसार चीन के समुद्र से लगे औद्योगिक शहर च्वानजो में और उसके चारों ओर का क्षे‍त्र कभी हिन्दुओं का तीर्थस्थल था। वहां 1,000 वर्ष पूर्व के निर्मित हिन्दू मंदिरों के खंडहर पाए गए हैं। इसका सबूत चीन के समुद्री संग्रहालय में रखी प्राचीन मूर्तियां हैं। मात्र 500 से 700 ईसापूर्व ही चीन को महाचीन एवं प्राग्यज्योतिष कहा जाता था, लेकिन इसके पहले आर्य काल में यह संपूर्ण क्षेत्र हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष नाम से प्रसिद्ध था।

रूस में हिन्दू

एक हजार वर्ष पहले रूस ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। माना जाता है कि इससे पहले यहां असंगठित रूप से हिन्दू धर्म प्रचलित था और उससे भी पहले संगठित रूप से वैदिक पद्धति के आधार पर हिन्दू धर्म प्रचलित था। रूस में आज भी पुरातत्ववेताओं को कभी-कभी खुदाई करते हुए प्राचीन रूसी देवी-देवताओं की लकड़ी या पत्थर की बनी मूर्तियां मिल जाती हैं। कुछ मूर्तियों में दुर्गा की तरह अनेक सिर और कई-कई हाथ बने होते हैं। कुछ वर्ष पूर्व ही रूस में वोल्गा प्रांत के स्ताराया मायना (Staraya Maina) गांव में विष्णु की मूर्ति मिली थी जिसे 7-10वीं ईस्वी सन् का बताया गया। यह गांव 1700 साल पहले एक प्राचीन और विशाल शहर हुआ करता था। 2007 को यह विष्णु मूर्ति पाई गई। 7 वर्षों से उत्खनन कर रहे समूह के डॉ. कोजविनका कहना है कि मूर्ति के साथ ही अब तक किए गए उत्खनन में उन्हें प्राचीन सिक्के, पदक, अंगूठियां और शस्त्र भी मिले हैं।

अमेरिका में हिन्दू

शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो लुप्त हो गई। इस जाति का नाम कपि था। वानरों के साम्राज्य की राजधानी किष्किंधा थी। सुग्रीव और बालि इस सम्राज्य के राजा थे। भारत के बाहर वानर साम्राज्य अमेरिका में भी था। सेंट्रल अमेरिका के मोस्कुइटीए (Mosquitia) में शोधकर्ता चार्ल्स लिन्द्बेर्ग ने एक ऐसी जगह की खोज की है जिसका नाम उन्होंने ला स्यूदाद ब्लैंका (La Ciudad Blanca) दिया है जिसका स्पेनिश में मतलब व्हाइट सिटी (The White City) होता है, जहां के स्थानीय लोग बंदरों की मूर्तियों की पूजा करते हैं। चार्ल्स का मानना है कि यह वही खो चुकी जगह है जहां कभी हनुमान का साम्राज्य हुआ करता था। एक अमेरिकन एडवेंचरर ने लिम्बर्ग की खोज के आधार पर गुम हो चुके ‘Lost City Of Monkey God’ की तलाश में निकले। 1940 में उन्हें इसमें सफलता भी मिली पर उसके बारे में मीडिया को बताने से एक दिन पहले ही एक कार दुर्घटना में उनकी मौत हो गई और यह राज एक राज ही बनकर रह गया। अमेरिका की माया सभ्यता के अवशेष भी हिन्दू धर्म से जुड़ते हैं।

अमेरिकन महाद्वीप के बोलीविया (वर्तमान में पेरू और चिली) में हिन्दुओं ने प्राचीनकाल में अपनी बस्तियां बनाईं और कृषि का भी विकास किया। यहां के प्राचीन मंदिरों के द्वार पर विरोचन, सूर्य द्वार, चन्द्र द्वार, नाग आदि सब कुछ हिन्दू धर्म समान हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक सेना ने नेटिव अमेरिकन की एक 45वीं मिलिट्री इन्फैंट्री डिवीजन का चिह्न एक पीले रंग का स्वास्तिक था। नाजियों की घटना के बाद इसे हटाकर उन्होंने गरूड़ का चिह्न अपनाया।

इंडोनेशिया में हिन्दू

इंडोनेशिया कभी हिन्दू राष्ट्र हुआ करता था, लेकिन इस्लामिक उत्थान के बाद यह राष्ट्र आज मुस्लिम राष्ट्र है। इंडोनेशिया का एक द्वीप है बाली जहां के लोग अभी भी हिन्दू धर्म का पालन करते हैं। इंडोनेशिया के द्वीप बाली द्वीप पर हिन्दुओं के कई प्राचीन मंदिर हैं, जहां एक गुफा मंदिर भी है। इस गुफा मंदिर को गोवा गजह गुफा और एलीफेंटा की गुफा कहा जाता है। 19 अक्टूबर 1995 को इसे विश्व धरोहरों में शामिल किया गया। यह गुफा भगवान शंकर को समर्पित है। यहां 3 शिवलिंग बने हैं। देश-विदेश से पर्यटक इसे देखने आते हैं।

कंबोडिया में हिन्दू
पौराणिक काल का कंबोजदेश कल का कंपूचिया और आज का कंबोडिया। पहले हिंदू रहा और फिर बौद्ध हो गया। विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर परिसर तथा विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक स्मारक कंबोडिया में स्थित है। यह कंबोडिया के अंकोर में है जिसका पुराना नाम 'यशोधरपुर' था। इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय (1112-53ई.) के शासनकाल में हुआ था। यह विष्णु मन्दिर है जबकि इसके पूर्ववर्ती शासकों ने प्रायः शिवमंदिरों का निर्माण किया था। कंबोडिया में बड़ी संख्या में हिन्दू और बौद्ध मंदिर हैं, जो इस बात की गवाही देते हैं कि कभी यहां भी हिन्दू धर्म अपने चरम पर था। माना जाता है कि प्रथम शताब्दी में कौंडिन्य नामक एक ब्राह्मण ने हिन्द-चीन में हिन्दू राज्य की स्थापना की थी। इन्हीं के नाम पर कम्बोडिया देश हुआ। हालांकि कम्बोडिया की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के शिवभक्त राजा कम्बु स्वायंभुव ने डाली थी। वे इस भयानक जंगल में आए और यहां बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने यहां एक नया राज्य बसाया, जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे-भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कम्बु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कम्बुज राजवंश की नींव डाली। कम्बोडिया में हजारों प्राचीन हिन्दू और बौद्ध मंदिर है।

वियतनाम में हिन्दू

वियतनाम का इतिहास 2,700 वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। वियतनाम का पुराना नाम चम्पा था। चम्पा के लोग और चाम कहलाते थे। वर्तमान समय में चाम लोग वियतनाम और कम्बोडिया के सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं। आरम्भ में चम्पा के लोग और राजा शैव थे लेकिन कुछ सौ साल पहले इस्लाम यहां फैलना शुरु हुआ। अब अधिक चाम लोग मुसलमान हैं पर हिन्दू और बौद्ध चाम भी हैं। भारतीयों के आगमन से पूर्व यहां के निवासी दो उपशाखाओं में विभक्त थे। हालांकि संपूर्ण वियतनाम पर चीन का राजवंशों का शासन ही अधिक रहा। दूसरी शताब्दी में स्थापित चंपा भारतीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र था। यहां के चम लोगों ने भारतीय धर्म, भाषा, सभ्यता ग्रहण की थी। 1825 में चंपा के महान हिन्दू राज्य का अंत हुआ। श्री भद्रवर्मन् जिसका नाम चीनी इतिहास में फन-हु-ता (380-413 ई.) मिलता है, चंपा के प्रसिद्ध सम्राटों में से एक थे जिन्होंने अपनी विजयों ओर सांस्कृतिक कार्यों से चंपा का गौरव बढ़ाया। किंतु उसके पुत्र गंगाराज ने सिंहासन का त्याग कर अपने जीवन के अंतिम दिन भारत में आकर गंगा के तट पर व्यतीत किए। चम्पा संस्कृति के अवशेष वियतनाम में अभी भी मिलते हैं। इनमें से कई शैव मन्दिर हैं।

मलेशिया में हिन्दू

मलेशिया वर्तमान में एक मुस्लिम राष्ट्र है लेकिन पहले ये एक हिन्दू राष्ट्र था। मलय प्रायद्वीप का दक्षिणी भाग मलेशिया देश के नाम से जाना जाता है। इसके उत्तर में थाइलैण्ड, पूर्व में चीन का सागर तथा दक्षिण और पश्चिम में मलाक्का का जलडमरूमध्य है।

उत्तर मलेशिया में बुजांग घाटी तथा मरबाक के समुद्री किनारे के पास पुराने समय के अनेक हिन्दू तथा बौद्ध मंदिर आज भी हैं। मलेशिया अंग्रेजों की गुलामी से 1957 में मुक्त हुआ। वहां पहाड़ी पर बटुकेश्वर का मंदिर है जिसे बातू गुफा मन्दिर कहते हैं। वहां पहुंचने के लिए लगभग 276 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। पहाड़ी पर कुछ प्राचीन गुफाएं भी हैं। पहाड़ी के पास स्थित एक बड़े मंदिर देखने में हनुमानजी की भी एक भीमकाय मूर्ति लगी है।

सिंगापुर में हिन्दू

सिंगापुर एक छोटा सा राष्ट्र है। यह ब्राईंदेश दक्षिण में मलय महाद्वीप के दक्षिण सिरे के पास छोटा-सा द्वीप है। इसके उत्तर में मलेशिया का किनारा, पूर्व की ओर चीन का समुद्र और दक्षिण-पश्चिम की ओर मलक्का का जलडमरू- मध्य है। 14वीं सदी तक सिंगापुर टेमासेक नाम से जाना जाता था। सुमात्रा के पॉलेमबग का राजपुत्र संगनीला ने इसे बासाया था तब इसका नाम सिंहपुर था। यहां इस बात के चिन्ह मिलते हैं कि उनका कभी हिन्दू धर्म से भी निकट का संबंध था। 1930 तक उनकी भाषा में संस्कृत भाषा के शब्दों का समावेश है। उनके नाम हिन्दुओं जैसे होते थे और कुछ नाम आज भी अपभ्रंश रूप में हिन्दू नाम ही हैं।

थाइलैंड में हिन्दू

थाइलैंड एक बौद्ध राष्ट्र है। यहां पर प्राचीनकाल में हिन्दू और बौद्ध दोनों ही धर्म और संस्कृति का एक साथ प्रचलन था लेकिन अब हिन्दू नगण्य है। खैरात के दक्षिण-पूर्व में कंबोडिया की सीमा के पास उत्तर में लगभग 40 कि.मी. की दूरी पर युरिराम प्रांत में प्रसात फ्नाम रंग नामक सुंदर मंदिर है। यह मंदिर आसपास के क्षेत्र से लगभग 340 मी. ऊंचाई पर एक सुप्त ज्वालामुखी के मुख के पास स्थित है। इस मंदिर में शंकर तथा विष्णु की अति सुंदर मूर्ति हैं।

फिलीपींस :

फिलीपींस में किसी समय भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रभाव था, पर 15वीं शताब्दी में मुसलमानों ने आक्रमण कर वहां आधिपत्य जमा लिया। आज भी फिलीपींस में कुछ हिन्दू रीति-रिवाज प्रचलित हैं।

जर्मन में हिन्दू

जर्मनी तो खुद को आर्य मानते ही हैं। लेकिन आश्चर्य की जर्मन में 40 हजार साल पुरानी भगवान नरसिंह की मूर्ति मिली। ये मूर्ति सन 1939 में पाई गई थी। ये मूर्ति इंसानों की तरह दिखने वाले शेर की है। जिसकी लंबाई 29.6 सेंटीमीटर (11.7 सेमी) है। कॉर्बन डेटिंग पद्धति से बताया गया है कि यह लगभग 40 हजार साल पुरानी है। ये मूर्ति होहलंस्टैंन स्टैडल, जर्मन घाटी क्षेत्र में मिली थी। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद गायब हो गई थी। बाद में उसे खोजा गया। ये मूर्ति खंडित अवस्था में मिली थी और 1997-1998 के दौरान कुछ लोगों ने उसे जोड़ा। सन् 2015 में उसे म्यूजियम में रखा गया

साभार, 'ज्योतिष का सूर्य'

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

जय-विजय को सनकादि का शाप

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

*श्रीमद्भागवतमहापुराण*
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..

*जय-विजय को सनकादि का शाप*

वैमानिकाः सललनाश्चरितानि यत्र ।
    गायन्ति लोकशमलक्षपणानि भर्तुः ।
अन्तर्जलेऽनुविकसन् मधुमाधवीनां ।
    गन्धेन खण्डितधियोऽप्यनिलं क्षिपन्तः ॥ १७ ॥
पारावतान्यभृतसारसचक्रवाक ।
    दात्यूहहंसशुकतित्तिरिबर्हिणां यः ।
कोलाहलो विरमतेऽचिरमात्रमुच्चैः ।
    भृङ्गाधिपे हरिकथामिव गायमाने ॥ १८ ॥
मन्दारकुन्दकुरबोत्पलचम्पकार्ण ।
    पुन्नागनागबकुलाम्बुजपारिजाताः ।
गन्धेऽर्चिते तुलसिकाभरणेन तस्या ।
    यस्मिंस्तपः सुमनसो बहु मानयन्ति ॥ १९ ॥

वहाँ (वैकुण्ठधाममें) विमानचारी गन्धर्वगण अपनी प्रियाओंके सहित अपने प्रभुकी पवित्र लीलाओंका गान करते रहते हैं, जो लोगोंकी सम्पूर्ण पापराशिको भस्म कर देनेवाली हैं। उस समय सरोवरोंमें खिली हुई मकरन्दपूर्ण वासन्तिक माधवी लताकी सुमधुर गन्ध उनके चित्तको अपनी ओर खींचना चाहती है; परन्तु वे उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते वरं उस गन्धको उड़ाकर लानेवाले वायुको ही बुरा-भला कहते हैं ॥ १७ ॥ जिस समय भ्रमरराज ऊँचे स्वर से गुंजार करते हुए मानो हरिकथा का गान करते हैं, उस समय थोड़ी देर के लिये कबूतर, कोयल, सारस, चकवे, पपीहे, हंस, तोते, तीतर और मोरों का कोलाहल बंद हो जाता है—मानो वे भी उस कीर्तनानन्द में बेसुध हो जाते हैं ॥ १८ ॥ श्रीहरि तुलसी से अपने श्रीविग्रह को सजाते हैं और तुलसी की गन्धका ही अधिक आदर करते हैं—यह देखकर वहाँके मन्दार, कुन्द, कुरबक (तिलकवृक्ष), उत्पल (रात्रिमें खिलनेवाले कमल), चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेसर, बकुल (मौलसिरी), अम्बुज (दिनमें खिलनेवाले कमल) और पारिजात आदि पुष्प सुगन्धयुक्त होनेपर भी तुलसीका ही तप अधिक मानते हैं ॥ १९ !! *श्रीमद्भागवतमहापुराण*
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे, भिलाई

अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत !!

अरब की प्राचीन समृद्ध
वैदिक संस्कृति और भारत !!

अरब देश का भारत,भृगु के पुत्र
शुक्राचार्य तथा उनके पोत्र और्व
से ऐतिहासिक संबंध प्रमाणित है।

यहाँ तक कि "हिस्ट्री ऑफ
पर्शिया" के लेखक साइक्स
का मत है कि अरब का नाम
और्व के ही नाम पर पड़ा,जो
विकृत होकर "अरब" हो गया।

भारत के उत्तर-पश्चिम में इलावर्त
था,जहाँ दैत्य और दानव बसते
थे,इस इलावर्त में एशियाई रूस
का दक्षिणी-पश्चिमी भाग,ईरान
का पूर्वी भाग तथा गिलगित का
निकटवर्ती क्षेत्र सम्मिलित था।

आदित्यों का आवास स्थान-
देवलोक भारत के उत्तर-पूर्व
में स्थित हिमालयी क्षेत्रों में
रहा था।

बेबीलोन की प्राचीन गुफाओं
में पुरातात्त्विक खोज में जो
भित्ति चित्र मिले है,उनमें
विष्णु को हिरण्यकश्यप
के भाई हिरण्याक्ष से युद्ध
करते हुए उत्कीर्ण किया
गया है।

उस युग में अरब एक बड़ा
व्यापारिक केन्द्र रहा था,इसी
कारण देवों,दानवों और दैत्यों
में इलावर्त के विभाजन को
लेकर 12 बार युद्ध 'देवासुर
संग्राम' हुए।

देवताओं के राजा इन्द्र ने अपनी
पुत्री ज्यन्ती का विवाह शुक्र के
साथ इसी विचार से किया था कि
शुक्र उनके(देवों के) पक्षधर बन
जायें,किन्तु शुक्र दैत्यों के ही गुरू
बने रहे।

यहाँ तक कि जब दैत्यराज बलि
ने शुक्राचार्य का कहना न माना,
तो वे उसे त्याग कर अपने पौत्र
और्व के पास अरब में आ गये
और वहाँ 10 वर्ष रहे।

साइक्स ने अपने इतिहास ग्रन्थ
"हिस्ट्री ऑफ पर्शिया" में लिखा
है कि'शुक्राचार्य लिव्ड टेन इयर्स
इन अरब'।

अरब में शुक्राचार्य का इतना
मान-सम्मान हुआ कि आज
जिसे 'काबा' कहते है,वह
वस्तुतः'काव्य शुक्र'(शुक्राचार्य)
के सम्मान में निर्मित उनके
आराध्य भगवान शिव का ही
मन्दिर है।

कालांतर में 'काव्य' नाम विकृत
होकर 'काबा' प्रचलित हुआ।

अरबी भाषा में 'शुक्र' का अर्थ
'बड़ा' अर्थात 'जुम्मा' इसी कारण
किया गया और इसी से'जुम्मा'
(शुक्रवार)को मुसलमान पवित्र
दिन मानते है।

"बृहस्पतिदेवानां पुरोहित
आसीत्,
उशना काव्योऽसुराणाम्"।
जैमिनिय ब्रा.(01-125)

अर्थात बृहस्पति देवों के पुरोहित
थे और उशना काव्य(शुक्राचार्य)
असुरों के।

प्राचीन अरबी काव्य संग्रह
ग्रँथ "सेअरूल-ओकुल" के
257वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद
से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह
से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए
लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-
ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध
कविता में भारत भूमि एवं वेदों
को जो सम्मान दिया है,
वह इस प्रकार है-

"अया मुबारेकल अरज
मुशैये नोंहा मिनार हिंदे।
व अरादकल्लाह मज्जो
नज्जे जिकरतुन।1।

वह लवज्जलीयतुन ऐनाने
सहबी अरवे अतुन जिकरा।
वहाजेही योनज्जेलुर्र
रसूल मिनल हिंदतुन।2।

यकूलूनल्लाहः या अहलल
अरज आलमीन फुल्लहुम।
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद
हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3।

वहोबा आलमुस्साम वल
यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।
फऐ नोमा या अरवीयो
मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4।

जइसनैन हुमारिक अतर
नासेहीन का-अ-खुबातुन।
व असनात अलाऊढ़न व
होवा मश-ए-रतुन।5।"

अर्थात-(1) हे भारत की पुण्य
भूमि (मिनार हिंदे)तू धन्य है,
क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के
लिए तुझको चुना।

(2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश,
जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य
सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता
है,यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में
ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट
हुआ।

(3) और परमात्मा समस्त संसार
के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि
वेद,जो मेरे ज्ञान है,इनके अनुसार
आचरण करो।

(4) वह ज्ञान के भण्डार साम
और यजुर है,जो ईश्वर ने प्रदान
किये।
इसलिए,हे मेरे भाइयों ! इनको
मानो,क्योंकि ये हमें मोक्ष का
मार्ग बताते है।

(5) और दो उनमें से रिक्,
अतर (ऋग्वेद,अथर्ववेद)
जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा
देते है,और जो इनकी शरण
में आ गया,वह कभी अन्धकार
को प्राप्त नहीं होता।

इस्लाम मजहब के प्रवर्तक
मोहम्मद स्वयं भी वैदिक
परिवार में हिन्दू के रूप में
जन्में थे,और जब उन्होंने
अपने हिन्दू परिवार की
परम्परा और वंश से संबंध
तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर
घोषित करना निश्चित किया,
तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-
भिन्न हो गया और काबा में स्थित
महाकाय शिवलिंग(संगेअस्वद)
के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर
मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-
हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने
पड़े।

उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब
में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में
इतना अधिक सम्मान होता था
कि सम्पूर्ण अरबी समाज,जो
कि भगवान शिव के भक्त थे
एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा
हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य
उपासक थे,उन्हें अबुल हाकम
अर्थात "ज्ञान का पिता" कहते थे।

बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय
ने उन्हें ईष्यावश अबुल जिहाल
"अज्ञान का पिता" कहकर उनकी
निन्दा की।

जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण
किया,उस समय वहाँ बृहस्पति,मंगल,
अश्विनी कुमार,गरूड़,नृसिंह की मूर्तियाँ
प्रतिष्ठित थी।

साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्व
विजेता महाराजा बलि की भी
थी,और दानी होने की प्रसिद्धि
से उसका एक हाथ सोने का
बना था।

'Holul' के नाम से अभिहित यह
मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल
की मूर्त्तियो के बराबर रखी थी।

मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को
तोड़कर वहाँ बने कुएँ में फेंक
दिया,किन्तु तोड़े गये शिवलिंग
का एक टुकडा आज भी काबा
में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित
है,वरन् हज करने जाने वाले
मुसलमान उस कालेअश्वेत)
प्रस्तर खण्ड अर्थात 'संगे
अस्वद' को आदर मान
देते हुए चूमते है।

प्राचीन अरबों ने सिन्ध को सिन्ध
ही कहा तथा भारतवर्ष के अन्य
प्रदेशों को हिन्द निश्चित किया।

सिन्ध से हिन्द होने की बात
बहुत ही अवैज्ञानिक है।

इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद
के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व
यानि लगभग 1800 ईश्वी पूर्व
भी अरब में हिंद एवं हिंदू शब्द
का व्यवहार ज्यों का त्यों आज
ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था।

अरब की प्राचीन समृद्ध
संस्कृति वैदिक थी तथा
उस समय ज्ञान-विज्ञान,
कला-कौशल,धर्म-संस्कृति
आदि में भारत(हिंद) के
साथ उसके प्रगाढ़ संबंध थे।

हिंद नाम अरबों को इतना प्यारा
लगा कि उन्होंने उस देश के नाम
पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चों के
नाम भी हिंद पर रखे।

अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ" से
अरूल-ओकुल' के 253वें
पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के
चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम
की कविता है जिसमें उन्होंने
हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू
का प्रयोग बड़े आदर से किया है ।

हजरत मोहम्मद के चाचा 'उमर
-बिन-ए-हश्शाम' की कविता नयी
दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री
लक्ष्मीनारायण मन्दिर(बिड़ला
मन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला
के लाल पत्थर के स्तम्भ(खम्बे)
पर काली स्याही से लिखी हुई है,
जो इस प्रकार है -

"कफविनक जिकरा
मिन उलुमिन तब असेक।
कलुवन अमातातुल हवा
व तजक्करू ।1।

न तज खेरोहा उड़न
एललवदए लिलवरा।
वलुकएने जातल्लाहे
औम असेरू।2।

व अहालोलहा अजहू
अरानीमन महादेव ओ।
मनोजेल इलमुद्दीन मीन
हुम व सयत्तरू।3।

व सहबी वे याम फीम
कामिल हिन्दे यौमन।
व यकुलून न लातहजन
फइन्नक तवज्जरू।4।

मअस्सयरे अरव्लाकन
हसनन कुल्लहूम।
नजुमुन अजा अत
सुम्मा गबुल हिन्दू।5।

अर्थात् -
(1) वह मनुष्य, जिसने सारा
जीवन पाप व अधर्म में बिताया
हो,काम,क्रोध में अपने यौवन
को नष्ट किया हो।

(2) अदि अन्त में उसको
पश्चाताप हो और भलाई
की ओर लौटना चाहे,तो
क्या उसका कल्याण हो
सकता है ?

(3)एक बार भी सच्चे हृदय
से वह महादेव जी की पूजा
करे,तो धर्म-मार्ग में उच्च से
उच्च पद को पा सकता है।

(4)हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन
लेकर केवल एक दिन भारत
(हिंद) के निवास का दे दो,
क्योंकि वहाँ पहुँचकर मनुष्य
जीवन-मुक्त हो जाता है।

(5)वहाँ की यात्रा से सारे शुभ
कर्मो की प्राप्ति होती है,और
आदर्श गुरूजनों (गबुलहिन्दू)
का सत्संग मिलता है।

भविष्यपुराण के अनुसार राक्षस
था,ने राजा भोज के स्वपन में
आकर कहा था की आपका
सनातन धर्म सर्वोत्तम है पर
मैं उसे पुरे संसार से समेट
कर उसे पैशाचिक दारुण
धर्म में परिवर्तित कर दूंगा।

अरब में इस्लाम के अभ्युदय
के पूर्व सनातन धर्म ही स्थापित
था।

अरब में तब घर घर में सनातनी
देवी देवताओं की पूजा होती थी,
शिक्षा के लिए विधिवत गुरुकुल
थे,बड़े बड़े संग्रहालय और
पुस्तकालय थे,वैदिक संस्कृति
से ओतप्रोत अरब में चहुँ और
सनातन धर्म का एकछत्र
साम्राज्य था।

पर शको के आक्रमण के बाद
यहाँ से भारत का नियंत्रण एवं
संपर्क लगभग कट चूका था,
फलतः इस्लाम संस्कृति का
निर्बाध प्रसार प्रचार हुआ।