ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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सोमवार, 31 जुलाई 2017

'अतितृष्णा' और 'बाजारवादी संस्कृति' की आपाधापी में मरती 'मानवता'..

'अतितृष्णा' और 'बाजारवादी संस्कृति' की आपाधापी में मरती 'मानवता'..

अतितृष्णा न कर्तव्या तृष्णां नैव परित्यजेत्।
शनैः शनैश्च भोक्व्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम्॥
बहुत अधिक इच्छाएँ करना सही नहीं है और इच्छाओं का त्याग कर देना भी सही नहीं है। अपने उपार्जित (कमाए हुए) धन के अनुरूप ही इच्छा करना चाहिए वह भी एक बार में नहीं बल्कि धीरे धीरे।

यहाँ पर उल्लेखनीय है कि आज का बाजारवाद हमें उपरोक्त सीख से उल्टा करने की ही प्रेरणा देता है, बाजारवादद के कारण ही एक बार में ही अनेक और अपने द्वारा कमाए गए धन से अधिक इच्छा करके अपने सामर्थ्य से अधिक का सामान, वह भी विलासिता लेने को हम उचित समझने लगे हैं, भले ही उसके लिए हमें कर्ज में डूब जाना पड़े। और कर्ज के बढ़ते बोझ की वजह से घबराये लोग कभी-कभी तो ऐसे मानसिक व्याकुल हो उच्चटित हो जाते हैं की "आत्महत्या" जैसे निन्दनीय कदम उठा लेते हैं, जो मानवता के ऐसे शत्रुओं को 'कायर' कहना ही उचित होगा.....!
- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे
संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' भिलाई

मनोकामना पूर्ति के लिये दीया और बाती


दीप ज्योति परम ज्योति दीप ज्योति जनार्दन: दीपो हरतु मे पापं दीप ज्योति नमोस्तुते! शुभं करोतु कल्याणं आरोग्यं सुख सम्पद:द्वेस बुद्धिर्विनासय आत्म ज्योति नमोस्तुते !!

शास्त्रों में लिखा गया है ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर चलने से ही जीवन में यथार्थ तत्वों की प्राप्ति सम्भव है। अंधकार को अज्ञानता, शत्रु भय, रोग और शोक का प्रतीक माना गया है। देवताओं को दीप समर्पित करते समय भी ‘त्रैलोक्य तिमिरापहम्’ कहा जाता है, अर्थात दीप के समर्पण का उद्देश्य तीनों लोकों में अंधेरे का नाश करना ही है।

पौराणिक मान्यता है कि अग्नि के सृष्टि में तीन रूप हैं- अंतरिक्ष में विद्युत, आकाश में सूर्य और पृथ्वी पर अग्नि। संस्कृत  की एक पंक्ति ‘सूर्याशं सभवो दीप:’ अर्थात, दीपक की उत्पत्ति सूर्य के अंश से हुई है। दीपक के प्रकाश को इतना पवित्र माना गया है कि मांगलिक कार्यों से लेकर भगवान की आरती तक इसका प्रयोग अनिवार्य है।

हमारे शास्त्रों में यूं भी नौ प्रकार की पूजा-अर्चना का विधान है, जिसके तहत दीप पूजा व दीपदान को श्रेष्ठ माना गया है। प्राचीन काल से ही भारतीय परम्परानुसार किसी भी शुभ कार्य के आरम्भ में दीपक प्रज्ज्वलित किया जाता है।
शास्त्रों में विभिन्न मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये दीपक के भिन्न-भिन्न प्रकार और उद्देश्य भी बताए गये हैं-

उद्देश्य के अनुसार दीपक

अलग-अलग उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये विभिन्न तेलों या घी से दीप जलाया जाता है, इसका भी विभिन्न संहिताओं में वर्णन है:
१. आर्थिक लाभ एवं मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए सायंकाल घी के दीपक जलाने का विधान बताया गया है।

२. शत्रुओं से रक्षा के लिए तथा सूर्य संबंधी कष्टों से मुक्ति के लिये भी सरसों के तेल का दीपक जलाया जाता है।

३. तिल के तेल का दीपक शनिदेव को प्रसन्न करके न्याय और स्वास्थ्य की प्राप्ति हेतु जलाया जाता है।

४. महुए के तेल का दीपक सौभाग्य की प्राप्ति के लिये देवों को अर्पित किया जाता है।

५. राहु व केतु की शांति के लिये अलसी के तेल का दीपक शिव जी को अर्पित करने का प्रावधान है।

देवी-देवताओं के अनुसार दीपक

वैसे तो शास्त्रों में सामान्य पूजा के लिये पूजन-स्थल में एक-एक बत्ती के दो दीपकों को जलाने का प्रावधान है और सामान्यत: दो दीप और पंच तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हुई पांच दीपों की आरती जलाये जाने का प्रावधान शास्त्रों में है, लेकिन कुछ ग्रंथों में विभिन्न देवताओं को भिन्न-भिन्न प्रकार के दीपक अर्पित करने का प्रावधान बताया गया है-

१. शिव जी को आठ बत्तियों का दीप अर्पित किया जाता है।

२. विष्णु जी को दस या सोलह बत्तियों का दीप अर्पण का प्रावधान बताया गया है।

३. गणेश जी को तीन या बारह बत्तियों के दीप के अर्पण का उल्लेख मिलता है।

४. मां आदि शक्ति को केवल एक बत्ती का दीप अर्पित किया जाता है।

५. लक्ष्मी जी को सात बत्तियों का दीप समर्पित किया जाता है।

दीपकों के आकार भी प्रभावित करते हैं

गोल आकार के गहरे दीपक ज्ञान प्राप्ति और ईश्वर से सामीप्य के लिये श्रेष्ठ हैं।
कम गहराई के दीपक लक्ष्मी प्राप्ति के लिये शुभ हैं। बीच से उथले दीपक आपदा से मुक्ति के लिये उपयोग में लाये जाते हैं।
तिकोने दीपक वास्तु संबंधी दोषों से मुक्ति के लिये और रोग मुक्ति के लिये प्रयोग में लाये जाते हैं।

विभिन्न अवसरों पर दीपक को नदी में प्रवाहित किया जाना और सूर्य को समर्पित किया जाना भले ही हमें अजीब सा लगता हो, पर यह उस आध्यात्मिक उन्नति का सांकेतिक प्रदर्शन है, जिसमें प्रकृति को समय-समय पर धन्यवाद देने और उसके सम्मान को बनाये रखने की मान्यता है।

दीपक का प्रकाश भले ही सूर्य जितना न हो, लेकिन मनुष्य को प्रेरणा देता है कि घोर अंधकार में भी वह एक दीपक जैसी छोटी इकाई की तरह अपने जीवन काल में संघर्ष करके आसपास के अज्ञान और अन्याय रूपी अंधकार को दूर कर लोगों को उजाला दे सकता है।

- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई

रविवार, 30 जुलाई 2017

'कर्म ही पूजा' है, या 'कर्म भी पूजा' है ?

'कर्म ही पूजा' है, या 'कर्म भी पूजा' है ?

 आज श्रावण माह का चौथा सोमवार है, आप सभी को 'ज्योतिष का सूर्य' की ओर से अनंत शुभकामनाएं ...

आईये आज "रूतम् द्रावयती'ति" रूद्र: अर्थात् लोक कल्याणार्थ निरंतर कर्म करने वाली अलग-अलग महान शक्ति:पुंजो के आराध्य या यूं कहें संचालक भूतभावन शिव और शक्ति मां पार्वती के साथ आप सहित अखिल विश्व के "रुतम्" यानी दु:ख का 'द्रावयति' यानी निवारण करने वाले भगवान शिव की ''शब्दश: लेखार्चना करें", नमन करें......और "कर्म ही पूजा है या कर्म भी पूजा है" को समझने का प्रयास करें..

पूजा शाब्दिक अर्थ ‘सम्मान देना/आदर-सत्कार करना' बताया गया है| कर्मकाण्ड में पूजा एक प्रक्रिया है जो जीव और ईश्वर के मध्य घटित होता है| इसमें मनुष्य पत्र-पुष्प-फलादि ईश्वर को प्रतिमा या आवाहित स्थान पर समर्पित करता है और जब ये प्रक्रिया मन ही मन होती है तो उसे मानसिक पूजा कहा जाता है|
   जो ब्रह्म ज्ञानमार्गियों के लिए निर्गुण-निराकार है वही भक्तिमार्गियों के लिए सगुण-साकार भी है|
  ये साधारण सी बात है कि आप जिसे प्रेम करते हैं उसे प्रसन्न देखना चाहते हैं अर्थात् आपके प्रेमी की प्रसन्नता ही आपके लिए अभीष्ट होती है| प्रेमी की प्रसन्नता के लिए उसे आदर-सम्मान, उपहार आदि देते हैं, यथासंभव उसकी इच्छापूर्ति का प्रयास करते हैं| ये प्रेमी की अनकही पूजा है, जिसे हम समझ नहीं पाते की यही पूजा है| प्रिय अतिथि (अभ्यागत) के आगमन पर उनका स्वागत-सत्कार, भोजनादि की उत्तम व्यवस्था करते हैं; जो कि अतिथि पूजा है|
  इसी प्रकार प्रेमी भक्त अपने सगुण-साकार भगवान को प्रसन्न करने के लिए बहुविध समर्पण-गुणगान-ध्यानादि करते हैं, अपने इष्ट की प्रसन्नता चाहते हैं|
  वर्त्तमान समय की पूजा के स्वरूप पर विचार करें तो अनुभव होता है कि स्वयं की प्रसन्नता पाने के लिए ईश्वर को मनाने का प्रयास करते हैं| 
  बहुधा पूजा करना (विशेषकर नित्य पूजा करना) एक लक्ष्य समझा जाता जबकि पूजा लक्ष्य (भगवान की प्रसन्नता) प्राप्ति का प्रयास है|
  पूजा को आध्यात्मिक भाव से परिभाषित करें तो :-
“पूजा भक्त और भगवान के मध्य घटित होने वाली समर्पण-सेवा की वह क्रिया है, जिससे भक्त अपने भगवान को प्रसन्न करने का प्रयास करता है"
  स्पष्ट होता है कि पूजा का अधिकारी प्रेमी भक्त है न कि स्वार्थी मानव| 
  पूजा का उद्देश्य भगवान की प्रसन्नता पाना है न कि अपनी प्रसन्नता|
  पूजा एक क्रिया है न कि लक्ष्य|
  तथापि कर्मकाण्ड में भगवान की प्रसन्नता के अतिरिक्त सांसारिक स्वार्थ सिद्धि का भी प्रलोभन है ताकि स्वार्थ के कारण ही सही भगवान से जुड़ें कदाचित प्रेम हो जाए और सच्ची पूजा कर बैठें| इसलिए मैं तो उस पूजा को भी ईश्वर की ओर बढने का प्रयास ही मानता हूं जो सांसारिक सुख या स्वयं की प्रसन्नता हेतु की जाती है|
“कर्म ही पूजा है" कथन को मैं अतिवाद समझता हूं; यह मेरी व्यक्तिगत सोच है “कर्म भी पूजा है" ऐसा मानता हूं |

- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- "ज्योतिष का सूर्य" भिलाई 

(कॉपी-पेस्ट से बचें, ऐसा पाये जाने पर दाण्डिक प्रक्रिया करने के लिये 'ज्योतिष का सूर्य' मासिक पत्रिका बाध्य होगा)

आईए... गोस्वामी तुलसीदास जी को नमन कर .. तुलसी-पुष्प को जीवन में धारण करें

'अन्तर्नाद' मंच के साथियों, वरेण्य जनो......

सीय राममय सब जग जानी !
करऊँ प्रनाम जोरि जुग पानी !! 

 आज दिनभर  हमने गोस्वामी तुलसीदास के तैल चित्र पर माल्यार्पण कर उनके दो-चार चौपाईयों का छन्दानुबंध गायन कर, हम समाचार पत्रों में सुर्खियां बटोर लेने मात्र से तुलसीदास जी के प्रति....श्रद्धासमर्पण की पूर्णता तबतक नहीं हो सकती जबतक उनके साहित्य-पुष्प को अपने जीवन का श्रृंगार नहीं बना लेते.....क्योंकि जीवधारी मनुष्य  चाहे, वह कितना भी बड़ा साम्राज्य का अधिपति हो या वह रंक की भांति जीवन यापन करने वाला 'दीन' हो सभी के लिये गोस्वामी जी के साहित्यों में एक श्रीरामचरित मानस की एक-एक चौपाईयां मौलिकता से पूर्ण जीवनोपगी है, समाज-शोधन सूत्र है, और साधनगम्य हो साकार सनातनी महापुरुष विष्णु अवतारी श्रीराम से लेकर निराकार परात्परब्रह्म ',बिनु पद चलई सुनई बिनु काना......आनन रहित सकल रस भोगी....!'' आदि के माध्यम से निर्गुण निराकार की परम सत्ता का बोध करातीं है, ये वह सोपान है जहां से चारों वेदों के उच्च शिखरों की चोटी भी ''वेदांत'' में ''समाहित  मनस स्म'' हो जाती है..तो आईये अब मैं अपनी बात को समेटते हुए .... तुलसी बाबा के उन पंक्तियों का रसपान करते हुए, जीवन में उतारने का संकल्प-मनस को अवगाहन करते हैं.... क्योंकि वैसे भी आज ''अन्तर्नाद'' मंच पर समय नहीं दे पाया और अब रात के ९ बजकर २० मिनट होने वाले हैं....शुरूआत हम  गोस्वामी जी के द्वारा तपश्चर्या के आचार्यवरिष्ठ महर्षि वाल्मिक, अत्रि,भरद्वाज तथा नारद जी से करते हैं .....तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा। (१/७३)तप के अगम न कछु संसारा। (१/१६३)

तुलसीदास जी ने तप का महत्त्व निरूपित करने के लिए ही वाल्मीकि, अत्रि, भरद्वाज, नारद आदि को तपस्यालीन चित्रित किया है। त्याग का मूर्तिमंत उदाहरण यह है - बंधुत्रय - राम, लक्ष्मण एवं भरत। चक्रवर्ती होने वाले राम वनवासी हो जाते हैं। लक्ष्मण अपने दाम्पत्य सुख की बलि देकर भ्रातृसेवा का त्यागदीप्त जीवनमार्ग अपनाता है और भरत महल में प्राप्त राज्य में लक्ष्मी को तृणवत् मानकर भाई को ढूँढने निकल पडता है। तुलसीदास ने भरत के इस त्यागपूर्ण व्यक्तित्व को प्रशंसित करते हुए कहा है -

चलत पयादे खात फल, पिता दीन्ह तजि राजु।जात मनावन रघुबरहि, भरत सरसि को आजु॥ (रामचरित मानस २/२२२)

सामान्य धर्म के दस अंग माने गये हैं। ’रामचरित मानस‘ में तुलसीदास जी ने धर्म के इन सभी अंगों को भली-भाँति प्रतिपादित किया है। परधन हडप लेने की वृत्ति चौर्य कार्य है। तुलसीदास जी कहते हैं -

धन पराय विष ते विष भारी (रामचरित मानस - ७/४९/१)

संयम के लिए इन्दि्रय-निग्रह आवश्यक है। पंचेन्दि्रयों को मनमाना न करने देना ही संयम है। इसलिए संत पुरुष काम-क्रोधादि का परित्याग करते हैं -

काम-क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पंथ।सब परिहरि रघुबीरहिं, भजहु भजहिं जेहि संत॥ (रामचरित मानस - सुंदरकाण्ड ५/३९)

सत्य को धर्म का पर्याय मानकर तुलसीदास कहते हैं- ’धरमु न दूसर सत्य समाना।‘ इसी प्रकार परहित और अहिंसा की भावना का निरूपण करते हुए वे कहते हैं -

परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीडा सम नहिं अधमाई॥ (रामचरित मानस - ७/४९/१)

विश्व का व्यवहार धर्मपालन पर अवलम्बित है। तुलसीदास के मतानुसार धर्म का पालन करने से ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति होती है और सुख-संतोष की अनुभूति होती है -

धरम तडाग ग्यान विज्ञाना। ये पंकज विसके विधि नाना॥सुख संतोष विराग विवेका। विगत सोक ये कोक अनेका॥ (रामचरित मानस - ७/३२/४)

ऐसी धार्मिकता कष्टसाध्य है। जिसमें

नर सहस्र महँ सुनहु पुरारी, कोउ एक होइ धर्मब्रतधारी।

गोस्वामी तुलसीदास ने धर्मरथ के रूपक के माध्यम से धर्म के विभिन्न अंगों का विस्तार से प्रतिपादन किया है। (७/१०३) ’ज्ञानदीपक‘ (लंकाकांड ८०/३-६) के प्रसंग में भी उन्होंने धर्म के विविध अंगों का परिचय दिया है। जीवन मनुष्य की कडी कसौटी लेता है। रामचरितमानस में वर्णधर्म, आश्रमधर्म, पुत्रधर्म, स्त्रीधर्म, युगधर्म का भी निरूपण किया है। जैसे ः

नित जुग धर्म होहिं सब केरे, हृदय राम माया के प्रेरें॥ (७/१.४/१.२)

तत्पश्चात् उन्होंने युगविशेष में मनुष्य के हृदय में कौन-सी भावनाएँ धर्म प्रेरक हो सकती हैं, इसका वर्णन किया है। ’रामचरितमानस‘ समानाचरण मूल्यों की दृष्टि से भी एक समन्वय ग्रंथ है। समाज में संत का कार्य संसारियों का मार्गदर्शन बनता है। अतः समाज को शिक्षा देने हेतु तुलसी ने सन्त के लक्षण एवं आचरणों को विस्तार से उल्लेख किया है। जैसे -

उमा संत कइ इहइ बडाई। मंद करत जो करइ भलाई॥ (सु.का. ४१-६)संतहृदय जस निर्मल बारी,बाँधे घाट मनोहर चारी।संत उदय संतत सुखकारी,संत विटप सरिता गिरि धरनी,परहित हेतु सबन्ह कै करनी।संत हृदय नवनीत समाना,कहा कबिन्ह करि कहइ न जाना।निज परिताप दवइ नवनीता,परदुख द्रवहिं संत सुपुनीता।

(रामचरित मानस - ७/१२५/७)

तुलसी का संत, शील का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत करता है। ऐसे संतत्व के लिए संन्यास ग्रहण करना आवश्यक नहीं। तुलसीदास ने भरत, विभीषण, हनुमान आदि में इसी संतत्व के महान् गुणों का निरूपण किया है। संत समाज का उन्नायक होता है और असंत अर्थात् खल प्रगतिपथ में रोडा। असंत के अवगुणों का भी उन्होंने वर्णन किया है। रावण के बारे में तुलसीदास जी ने कहा है -

काम रूप जानहिं सब माया।सपनेहु जिन्ह के धरम न दाया। (रामचरितमानस १/१८१)

तुलसीदास जी गुरुशिष्य सम्बन्ध को पावनतम संबंध मानते हैं। गुरु के गरिमामय व्यक्तित्व का उन्होंने प्रभावशाली शब्दों में वर्णन किया है।

हरइ शिष्य धन सोक न हरई,सो गुरु घोर नरक महुँ परई॥ (रामचरितमानस ७/९९)

कहकर धोखेबाज गुरुओं को उन्होंने आडे हाथों लिया है। गुरु की तरह मैत्री में वफादारी का मूल्य भी सुंदर ढंग से निरूपित किया है।

जे न मित्र दुख होहिं दुखारीतिन्हहिं विलोकत पातक भारी। (रामचरित मानस ४/८)

’रामचरितमानस‘ में राजनीतिपरक मूल्यों का भी तुलसीदास जी ने विशद् निरूपण किया है। ’रामचरितमानस‘ में तुलसी ने तत्कालीन मुगलप्रशासन तंत्र का चित्रण कलियुग के वर्णन के रूप में उत्तरकांड में किया है। उन्होंने नृपतंत्र के रूप में दशरथ के शासनतंत्र की मर्यादाएँ बताई हैं तो दूसरी ओर जनक जैसे दार्शनिक तथा त्यागी सम्राट के राज्य संचालन को भी वर्णित किया है। किन्तु तुलसीदास को राम के शासनतंत्र के समर्थक और रावण के शासनतंत्र के विरोधी हैं। तुलसी ने राजा को प्रजा का प्रतिनिधि माना है। राजा की सर्वोपरि सत्ता को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने उसकी निरंकुशता को सह्य नहीं माना है। उन्होंने उसी शासक को सच्चा शासक माना है जो पद को प्रजा की सेवा का निमित्त मानता है।

जनता की अपेक्षाओं के परिपुष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि - ’जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।‘ राजा को तुलसी ने सूरज से उपमित किया है -

बरषत, हरषत लोग सब, करषत लखै न कोई।तुलसी प्रजा सुभाग ते, भूप भानु सो होई॥

’राजा‘ को मुख समान होकर सब विधि प्रजा का पोषण करना चाहिए - इस बात पर जोर देते हुए कहा है कि -

मुखिया मुख सा चाहिए, खान पान को एकपालहिं-पोषहिं सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥

तुलसीदास ने इसके लिए ’राम-राज्य‘ अथवा कल्याण-राज्य का आदर्श प्रस्तुत किया है। यह कल्याणकारी राज्य धर्म का राज्य होता है, न्याय का राज्य होता है, कर्त्तव्य-पालन का राज्य होता है। वह सत्ता का नहीं, सेवा का राज्य होता है। इस कल्याणकारी राज्य की झोली में है - क्षमा, समानता, सत्य, त्याग, बैर का अभाव, बलिदान एवं प्रजा का सर्वांगीण उत्कर्ष। इस कल्याणकारी राज्य की कल्पना की परिधि में व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य और विश्व का कल्याण समाविष्ट है। इसके केन्द्र में है धर्म जिसे हम वर्तमान के संदर्भ में ’कर्त्तव्य पालन‘ के स्वरूप में भी ले सकते हैं। जहाँ धर्म होगा, वहाँ सत्य होगा, शिवत्व होगा, सौंदर्य होगा, सुख होगा, शान्ति होगी, कल्याण होगा।

तुलसीदास ने देखा कि अपने युग में जनता पारस्परिक कलह, ईर्ष्या, द्वेष और अधर्म में फँसी हुई है। पति-पत्नी, भाई-भाई, राजा-प्रजा, परिवार-कुटुम्ब में छोटी-मोटी बातों पर कलह-विवाद ओर संघर्ष हो रहे हैं।

जहाँ समाज मानस-रोगों से विमुक्त होकर विमलता, शुभ्रता, नीति और धर्म का चरण करे, उसी का नाम कल्याणकारी राज्य। यह कल्याणकारी राज्य अशत्रुत्व और समता का राज्य है। इसके अभाव में राज्य कल्याण - राज्य न रहकर अनेक दूषणों से दूषित हो जाता है, जिसकी झाँकी तुलसी ने हमें ’कलि-काल‘ वर्णन में कराई है। ’रामचरित-मानस‘ उन आदर्शों की उर्वर भूमि है, जिसको अपनाने से किसी युग की प्रजा अपने कल्याण की साधना कर सकती है। (जल्दबाजी में लेख लिखा हुं, कुछ त्रुटियों संभावना स्वाभाविक है मुझे उम्मीद है आप लोग ''जौं बालक कह तोतरि भाषा" के अनुसार मुझे यानी आपका छोटा बालक 'विनोद' को क्षमा करेंगे) शुभरात्रि, नमोनम:

- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

  'ग्राह्य' योग्य है यह 'ग्रहण' और आपकी राशियों और व्यापार पर क्या पड़ेगा प्रभाव (शोधपूर्ण आलेख)

       'ग्राह्य' योग्य है यह 'ग्रहण'  और आपकी राशियों और व्यापार पर क्या पड़ेगा प्रभाव (शोधपूर्ण आलेख)

'ग्राह्य' योग्य है यह 'ग्रहण' पर केन्द्रीत आलेख  क्योंकि इसमें  राहु के  साथ  ही 'केतु ' के खगोलीय अस्तित्व  और  'ग्रहण कारकत्व' का  'साइंटिफिक'  शोध पूर्ण आलेख .....

-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे

  प्रिय मित्रों/साथियों/ फॉलोवर आत्मीयजनों ..नमस्कार

  इस बार रक्षाबंधन को  7-8-2017 को खण्डग्रास  चंद्र ग्रहण  हो रहा है तो मैं आप लोगों को साईंटिफिक ढंग से  सूर्य और चंद्र ग्रहणों में  ''केतु के अस्तित्व '' के बारे में बात करेंगे, आईए इसके पूर्व एक बार फिर श्रावण पुर्णिमा को लगने वाले खण्ड ग्रास चंद्रग्रहण के  बारे में भी बताये देता हुं. जिसका विवरण इस प्रकार है... यह ग्रहण श्रावण पूर्णिमा को 7 एवं 8 अगस्त 2017 की मध्यगत रात्रि को सम्पूर्ण भारत में खंडग्रास के रुप में दिखाई देगा  विवरण इस प्रकार है ग्रहण का प्रारंभ 10:52:56pm 7-8-2017 एवं ग्रहण का मध्य 11:50:29pm  7-8-2017 और ग्रहण का मोक्ष( समाप्त) 12:48:09 am 8-8-2017, सूतक का निर्णय  7/8/2017   दोपहर 1:53 से  लगेंगे अतः आप सभी रक्षाबंधन प्रात: से  दोपहर 1:53  से पहले धूमधाम से मनाया जाना चाहिये क्योंकि इस दिन  भद्रा का विचार नहीं किया जाना चाहिये! 

ज्योतिष में दो प्रकार के केतुओं का उल्लेख पाया जाता है। एक केतु तो चंद्रमा का अवरोही पात  जिसे अंग्रेजी में Descending Node कहते हैं,  जो क्रांतिवृत्त पर आरोही पात (Ascending Node) अर्थात् राहु के सामने 1800 के अंतर पर स्थित होता है और दूसरा केतु धूमकेतु (पुच्छल तारा अथवा Coment ) होता है, जिनका वर्णन वराहमिहिर की वृहत्संहिता के केतुचार नामक अध्याय में पाया जाता है। यहाँ हम पहले केतु के बारे में विचार करेंगे।

मुझे  अपने शिक्षाकाल का वो दौर संस्मरण आ रहा है जब  बांस को फाड़कर पतले बांस की प्रतंचानुमा बांस के  अलग-अलग टुकड़ो  से 'गोल' बनाते थे और गुरूदेव डॉ.रामचंद्र पाण्डेय जी उसे ठीक ठीक ग्रहों की प्रतिस्थापना करके ''खगोलीय घटनाओं पर विस्तृत जानकारी देते'' उसी क्रम में 

 जब हम लोगों को इस केतु का नाम राहु के साथ जु़डा हुआ है। राहु-केतु का ज्योतिष मे  विशिष्ट स्थान है। ज्योतिष में राहु-केतु सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण के कारक माने जाते हैं। राहु-केतु को कुछ लोग छाया ग्रह कहते हैं, तो कुछ कटान बिन्दु कहते हैं।

खगोलीय दृष्टि से राहु-केतु चंद्रमा के पातबिन्दु (Node) हैं। पातबिंदु क्रान्तिवृृत्त (सूर्य का प्रतीयमान मार्ग) पर वे बिंदु होते हैं, जिस स्थान पर चंद्रमा अथवा कोई ग्रह क्रान्तिवृत्त को काटकर एक बार दक्षिण से उत्तर की ओर एवं दूसरी बार उत्तर से दक्षिण की ओर जाते हैं। जब वे क्रान्तिवृत्त (Ascending Node) को काटकर दक्षिण से उत्तर की ओर जाते हैं तो उस बिंदु को आरोही पात (Ascending Node) एवं जब वे उत्तर से दक्षिण की ओर जाते हैं, तो उस बिंदु को अवरोही पात (Descending Node) कहते हैं। चंद्रमा के आरोही पात को राहु एवं अवरोही पात को केतु कहते हैं। ये दोनों पात बिंदु क्रान्तिवृत्त पर आमने-सामने 180 Degree के अंतर पर स्थित होते हैं।

क्रान्तिवृत्त से उत्तर अथवा दक्षिण की ओर कोणात्मक दूरी को शर (Celestial Latitude) कहते हैं। चूँकि क्रान्तिवृत्त सूर्य का प्रतीयमान मार्ग है अत: सूर्य का शर सदैव शून्य होता है। चंद्रमा अथवा ग्रह जब अपने पात बिंदु पर होते हैं, उस समय वे क्रान्तिवृत्त पर होते हैं और उस समय उनका शर शून्य होता है। चंद्रमा अथवा ग्रहों के परम शर अलग-अलग होते हैं अर्थात वे क्रान्तिवृत्त से अलग-अलग दूरी तक उत्तर अथवा दक्षिण की ओर जाते हैं। उदाहरण के लिए चंद्रमा का परम शर 50 9" होता है अर्थात् चंद्रमा क्रान्तिवृत्त से 5.9 Degree" तक उत्तर की ओर एवं उतना ही दक्षिण की ओर चले जाते हैं। इसी प्रकार बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति एवं शनि के औसत परम शर क्रमश: 7.0", 3.24", 1.51", 1.18", 2.29 Degree" होते हैं। चंद्रमा के पात बिंदु निम्नलिखित चित्र से स्पष्ट हैं -

राहु-केतु : चंद्रमा एवं ग्रहों के पात बिंदु स्थिर नहीं होते हैं। ये भी क्रान्तिवृत्त पर भ्रमण करते रहते हैं। चंद्रमा के पात बिंदु (राहु-केतु) 6793.5 दिन (अर्थात 18.6 वर्ष) में वक्र गति से एक भगण (चक्कर) पूरा करते हैं। एक वर्ष में ये 19.21 Degree" एवं एक दिन में 3' 11"  की वक्र गति से क्रान्तिवृत्त पर संचरण करते हैं। अमावस्या अथवा पूर्णिमा को यदि ये पात बिंदु (राहु अथवा केतु) सूर्य के पास हों तो क्रमश: सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण प़डते हैं। चँूकि सूर्य का एक भगण (पृथ्वी का परिक्रमण) 365.2564 दिन में मार्गी गति में तथा चंद्रपात (राहु अथवा केतु) का एक भगण 6793.5 दिन में वक्र गति में होता है अत: सूर्य के साथ राहु अथवा केतु की युति 346.62 (= 1(365.2564+6793.5) दिन में होती है। यह सूर्य के साथ राहु से राहु अथवा केतु से केतु तक की युति की अवधि है। चूँकि राहु एवं केतु एक-दूसरे के आमने-सामने स्थित होते हैं अत: राहु से केतु अथवा केतु से राहु तक, सूर्य की युति होने में 173.31 दिन (346.62 दिन का आधा समय) लगते हैं। पृथ्वी की कक्षा की उत्केन्द्रता के कारण यह अवधि 1.67 प्रतिशत (अर्थात् 2.89 दिन) न्यूनाधिक हो सकती है।

यह हम जानते हैं कि सूर्यग्रहण के समय चंद्रमा, सूर्य को एवं चंद्रग्रहण के समय पृथ्वी की छाया चंद्रमा को ढक लेती है। आर्यभट्ट ने भी कहा है - च्च्छादयति शशि: सूर्य शशिनं महती च भूच्छायाज्ज्। सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण तभी संभव होते हैं, जब सूर्य एवं चंद्रमा का भोगांशीय (Longitudinalद्य) (पूर्व-पश्चिम) अंतर शून्य अथवा 1800 के आसपास हो जाए, चँूकि सूर्य एवं चंद्रमा का भोगांशीय (पूर्व-पश्चिम) अंतर तो प्रत्येक अमावस्या को शून्य एवं पूर्णिमा को 1800 हो जाता है परन्तु उनका शरीय (उत्तर-दक्षिण) अंतर प्रत्येक अमावस्या एवं पूर्णिमा को शून्य नहीं होता है अत: सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण प्रत्येक अमावस्या एवं पूर्णिमा को नहीं प़डते हैं। सूर्य एवं चंद्रमा का शरीय अंतर शून्य तभी होगा, जब चंद्रमा अपने पात बिंदु (राहु अथवा केतु) के पास स्थित हों। ऎसा यदि अमावस्या अथवा पूर्णिमा को हो तो ही क्रमश: सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण प़डते हैं। इससे स्पष्ट है कि अमावस्या अथवा पूर्णिमा को सूर्य के पास राहु अथवा केतु की युति होने के कारण ही क्रमश: सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण प़डते हैं।

अमावस्या को सूर्यग्रहण के समय सूर्य एवं चंद्रमा दोनों की युति एक साथ या तो राहु से होती है या केतु से होती है क्योंकि अमावस्या को सूर्य एवं चंद्रमा एक साथ होते हैं। पूर्णमासी को चंद्रग्रहण के समय सूर्य एवं चंद्रमा की युतियां भिन्न-भिन्न होती हैं। उस समय यदि सूर्य की युति राहु से होती है तो चंद्रमा की युति केतु से होती है अथवा यदि सूर्य की युति केतु से होती है तो चंद्रमा की युति राहु से होती है क्योंकि पूर्णमासी को सूर्य एवं चंद्रमा आमने-सामने स्थित होते हैं। औसतन 173.31 दिन (लगभग पौने छ: माह) के अंतराल के बाद जब ग्रहण पुनरावृत्त होते हैं तब राहु अथवा केतु के साथ की ये युतियां आपस में बदल जाती हैं। राहु अथवा केतु के पास जब चंद्रमा होते हैं, तब चंद्रमा का शर शून्य होता है। राहु अथवा केतु से ज्यों-ज्यों चंद्रमा का भोगांशीय अंतर 90 Degree"  तक बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों चंद्रमा का शर भी बढ़ता जाता है। राहु अथवा केतु से चंद्रमा का भोगांशीय अंतर जब 90 Degree" हो जाता है तब चंद्रमा अपने परम शर 5.9 Degree" कला पर होते हैं। राहु अथवा केतु से ज्यों-ज्यों चंद्रमा का भोगांशीय अंतर 90 Degree" से अधिक बढ़ने लगता है, त्यों-त्यों चंद्रमा का शर पुन: घटने लग जाता है। इस प्रकार चंद्रमा का शर उसके राहु अथवा केतु से भोगांशीय अंतर के साथ-साथ घटता-बढ़ता रहता है।

यदि अमावस्या को सूर्य से राहु अथवा केतु का भोगांशीय (पूर्व-पश्चिम) अंतर 15 Degree से कम हो तो निश्चित रूप से सूर्यग्रहण प़डता है। यदि यह अंतर 15 एवं 18 Degree" के बीच हो तो सूर्यग्रहण प़ड भी सकता है और नहीं भी प़ड सकता है। यह पृथ्वी से सूर्य एवं चंद्रमा की तात्कालिक दूरी पर निर्भर करेगा। यदि अमावस्या को सूर्य से राहु अथवा केतु का भोगांशीय अंतर 18 Degree से अधिक हो तो सूर्यग्रहण कदापि नहीं प़डेगा। इसी प्रकार यदि पूर्णिमा को सूर्य से राहु अथवा केतु का भोगांशीय अंतर 9 Degree से कम हो तो निश्चित रूप से चंद्रग्रहण प़डता है। यदि यह अंतर 9 Degree एवं 12 Degree के बीच हो तो चंद्रग्रहण प़ड भी सकता है और नही भी प़ड सकता है। यह पृथ्वी से सूर्य एवं चंद्रमा की तात्कालिक दूरी पर निर्भर करेगा। यदि पूर्णिमा को सूर्य से राहु अथवा केतु का भोगांशीय अंतर 12 Degree से अधिक हो तो चंद्रग्रहण कदापि नहीं प़डेगा। अमावस्या अथवा पूर्णिमा को सूर्य से राहु अथवा केतु का भोगांशीय अंतर जितना कम होगा, ग्रहण का परिमाण उतना ही अधिक होगा।

चूंकि सूर्य के साथ राहु अथवा केतु की युति औसतन 173.31 दिन में होती है अत: इस युति के आस-पास जो भी अमावस्या अथवा पूर्णिमा प़डेगी, उसको क्रमश: सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण निश्चित रूप से प़डेंगे। उदाहरण के लिए वर्ष 2007 में सूर्य की राहु५ एवं केतु से युति के कारण निम्नानुसार सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण होंगे।

उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट है कि सूर्य के साथ राहु-केतु की युति से पूर्व पूर्णिमा प़डने पर चंद्रग्रहण किंतु युति के पश्चात् अमावस्या प़डने पर सूर्यग्रहण प़ड रहा है। इसी प्रकार सूर्य के साथ चंद्रपातों (राहु अथवा केतु) की युति के कारण सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण औसतन 173.31 दिन के अंतराल में प़डते रहते हैं।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सूर्यग्रहण सूर्य से राहु अथवा केतु के 180 के भोगांशीय अंतर तक प़ड जाता है, जबकि चंद्रग्रहण 12 Degree के भोगांशीय अंतर के बाद नहीं प़डता है

इसी कारण चंद्रग्रहणों से सूर्यग्रहणों की संख्या लगभग डेढ़ गुना (18 भाग 12) अधिक होती है, परंतु हमको सूर्यग्रहणों से चंद्रग्रहण अधिक संख्या में प़डते हुए दिखाई देते हैं। इसका कारण यह है कि चंद्रग्रहण संपूर्ण पृथ्वी पर जहाँ भी रात हो, दिखाई देता है जबकि सूर्यग्रहण लम्बन ( Parallax ) के कारण पृथ्वी के थो़डे से भाग पर ही दिखाई देता है। इसी कारण किसी स्थान विशेष से हमकोसूर्यग्रहणों से चंद्रग्रहण अधिक संख्या में प़डते हुए दिखाई देते हैं। इसी तथ्य को लेकर एक कविराज ने यह लिख दिया था कि चंद्रमा के सौम्य एवं शीतल होने के कारण राहु-केतु उसको जल्दी-जल्दी ग्रसते रहते  हैं , पुनश्च रक्षाबंधन के पावन पर आप सभी को "ज्योतिष का सूर्य " परिवार की ओर से  अनंत शुभकामनाएं..!

चन्द्रग्रहण  में क्या है वर्जित कार्य :

चंद्रग्रहण के दौरान गर्भवती महिलाओं को ग्रहण के समय  रात्रि में  घर से बाहर नहीं  निकलना चाहिये ! गर्भवती महिलाओं को उनके शरीर के माप का एक काला धागा  'दक्षिणेश्वर  और दक्षिणेश्वरी मंत्र से अभिमंत्रित ' करके कमर में बांधना चाहिये.. इससे प्रसव काल में कोई परेशानियां जच्चे-बच्चे को नहीं होता है, साथ ही गर्भस्थ शीशु को 'बालारिष्ट' का प्रभाव नहीं रहता है ! इससे जुड़े उठ रहे प्रश्नों के लिये आप हमसे  सीधा संपर्क कर सकते हैं मोबाईल नं. 9827198828 (केवल गर्भवती महिलाओं के लिये ही यह सुविधा उपलब्ध है) 

अब आईये मूल विषय पर चलते हैं ग्रहण के दौरान  कामनापरक अनुष्ठान, मैथुन, क्षौर, श्मश्रु: तथा लौहकर्तन यंत्र या डीवाईड करने वाला कोई भी धातु के उस्तरा का प्रयोग वर्जित है  ! साथ ही  भोजन बनाना, खाना या  संबंधित भोज्य सामग्रियों का संचय नहीं करना चाहिये !

चंद्रग्रहण पर करणीय कार्य :

चन्द्र ग्रहण हो या सूर्य ग्रहण दोनों  ही ग्रहणों के स्पर्श  यानी शुरू होते ही स्नान करके  भगवद्भजन, संकीर्तन एवं  अथर्ववेदीय  तंत्रकल्प के मंत्रों को गुरु के सानिध्य में सिद्ध करना चाहिये और जगत का कल्याण करना चाहिये ! गीता, नारायण कवच, विष्णु सहस्त्र स्तोत्र का पाठ करना चाहिये  !

चन्द्रग्रहण का आपकी राशि अनुसार शुभाशुभ फल :

मकरगत चंद्र होंगे जब ग्रहण होगा तब अत: मकर के स्वामी शनि न्यायाधीश हैं अत: इस वित्तीय. वर्ष  २०१७-१८ में  भारत की आर्थिक सम्प्रभुता बढेगी, वहीं भारतीय सत्ता पर सत्तासीन एनडीए का पराक्रम बढेगा, किन्तु भ्रष्ट आचरण, आर्थिक कदाचरण  कर अनाप-श़नाप धन संग्रही राक्षसी शक्तियों का दमन होगा. वहीं  सच्चाई के मार्ग पर चलकर नौकरी/व्यापार करने वाले लोगों को न्यायाधीश शनि विशेष समृद्धवान बनायेंगे.!

   चंद्रग्रहण पर  राशिफल जो आपको प्रभावित कर सकता है  :

मेष- सुख, वृष- माननास, मिथुन- मृत्युतूल्य कष्ट, कर्क- स्त्रीपीड़ा, सिंह- सौख्य, कन्या- चिन्ता, तुला- व्यथा, वृश्चिक- श्री:, धनु- क्षति, मकर- घात, कुंभ- हानि, मीन ,- लाभ

उपरोक्त कुछ राशियों के लिये अशुभ फल कहें गये हैं, किन्तु यदि आप ग्रहण के दौरान खुली आकाश के नचे नहीं जाते हैं तो आप उपरोक्त अशुभफल से बच जायेंगे, दरअसल  मैं  स्वभाविक वास्तविक तथ्य आपके सामने रखा हुं: !नमोनम:

-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका

शांतिनगर, भिलाई

मोबाईल नं. 9827198828

(नोट:- इस आलेख का का कॉपी-पेस्ट करना दण्डनीय अपराध है,  फोन पर ज्योतिषिय परामर्श उपलब्ध नहीं है, और परामर्श सशुल्क है)



28 जुलाई/इतिहास-स्मृति "त्रिपुरा के बलिदानी स्वयंसेवक"

28 जुलाई/इतिहास-स्मृति

त्रिपुरा के बलिदानी स्वयंसेवक

विश्व भर में फैले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करोड़ों स्वयंसेवकों के लिए 28 जुलाई, 2001 एक काला दिन सिद्ध हुआ। इस दिन भारत सरकार ने संघ के उन चार वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की मृत्यु की विधिवत घोषणा कर दी, जिनका अपहरण छह अगस्त, 1999 को त्रिपुरा राज्य में कंचनपुर स्थित ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के एक छात्रावास से चर्च प्रेरित आतंकियों ने किया था। 
इनमें सबसे वरिष्ठ थे 68 वर्षीय श्री श्यामलकांति सेनगुप्ता। उनका जन्म ग्राम सुपातला (तहसील करीमगंज, जिला श्रीहट्ट, वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ था। श्री सुशीलचंद्र सेनगुप्ता के पांच पुत्रों में श्री श्यामलकांति सबसे बड़े थे। विभाजन के बाद उनका परिवार असम के सिलचर में आकर बस गया। 
मैट्रिक की पढ़ाई करते समय सिलचर में प्रचारक श्री वसंतराव, एक अन्य कार्यकर्ता श्री कवीन्द्र पुरकायस्थ तथा उत्तर पूर्व विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक श्री उमारंजन चक्रवर्ती के संपर्क से वे स्वयंसेवक बने। 

मैट्रिक करते हुए ही उनके पिताजी का देहांत हो गया। घर की जिम्मेदारी कंधे पर आ जाने से उन्होंने नौकरी करते हुए एम.काॅम. तक की शिक्षा पूर्ण की। इसके बाद उन्होंने डिब्रूगढ़ तथा शिवसागर में जीवन बीमा निगम में नौकरी की। 1965 में वे कोलकाता आ गये। 1968 में उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। इससे उन्हें तीन पुत्र एवं एक कन्या की प्राप्ति हुई। नौकरी के साथ वे संघ कार्य में भी सक्रिय रहे। 1992 में नौकरी से अवकाश लेकर वे पूरा समय संघ कार्य में लगाने लगे। वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने उनकी योग्यता तथा अनुभव देखकर उन्हें क्षेत्र कार्यवाह का दायित्व दिया।
दूसरे कार्यकर्ता श्री दीनेन्द्र डे का जन्म 1953 में उलटाडांगा में हुआ था। उनके पिता श्री देवेन्द्रनाथ डे डाक विभाग में कर्मचारी थे। आगे चलकर यह परिवार सोनारपुर में बस गया। 1963 में यहां की ‘बैकुंठ शाखा’ में वे स्वयंसेवक बने। यहां से ही उन्होंने 1971 में उच्च माध्यमिक उत्तीर्ण किया। 
‘डायमंड हार्बर फकीरचंद काॅलिज’ से गणित (आॅनर्स) में पढ़ते समय उनकी संघ से निकटता बढ़ी और वे विद्यार्थी विस्तारक बन गये। क्रमशः उन्होंने संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। प्रचारक के रूप में वे ब्रह्मपुर नगर प्रचारक, मुर्शिदाबाद सह जिला प्रचारक, कूचबिहार, बांकुड़ा तथा मेदिनीपुर में जिला प्रचारक रहे। इसके बाद वे विभाग प्रचारक, प्रांतीय शारीरिक प्रमुख रहते हुए वनवासियों के बीच सेवा कार्यों में भी संलग्न रहे।
51 वर्षीय श्री सुधामय दत्त मेदिनीपुर शाखा के स्वयंसेवक थे। स्नातक शिक्षा पाकर वे प्रचारक बने। पहले वे हुगली जिले में चूंचड़ा नगर प्रचारक और फिर मालदा के जिला प्रचारक बनाये गये। कुछ समय तक उन पर बंगाल के सेवाकार्यों की भी जिम्मेदारी रही। इसके बाद पत्रकारिता में उनकी रुचि देखकर उन्हें कोलकाता से प्रकाशित हो रहे साप्ताहिक पत्र ‘स्वस्तिका’ का प्रबन्धक बनाया गया। अपहरण के समय वे अगरतला में विभाग प्रचारक थे। 
बंगाल में 24 परगना जिले के स्वयंसेवक, 38 वर्षीय श्री शुभंकर चक्रवर्ती इनमें सबसे युवा कार्यकर्ता थे। एल.एल.बी. की परीक्षा देकर वे प्रचारक बने। वर्धमान जिले के कालना तथा कारोयात में काम करने के बाद उन्हें त्रिपुरा भेजा गया। इन दिनों वे त्रिपुरा में धर्मनगर जिले के प्रचारक थे। 

इन सबकी मृत्यु की सूचना स्वयंसेवकों के लिए तो हृदय विदारक थी ही; पर उनके परिजनों का कष्ट तो इससे कहीं अधिक था, जो आज तक भी समाप्त नहीं हुआ। चूंकि इन चारों के मृत देह नहीं मिले, इसलिए उनका विधिवत अंतिम संस्कार तथा मृत्यु के बाद की क्रियाएं भी नहीं हो सकीं।
- श्री कनिराम जी,  सह प्रांत प्रचार प्रमुख, छत्तीसगढ

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

'नीतीश' की घर वापसी, तो हुई 'विचार वापसी' हुई क्या..? या यह ''नौटंकीबाज मिलन" है....

संपादकीय...

'नीतीश' की घर वापसी, तो हुई 'विचार वापसी' हुई क्या..? या यह ''नौटंकीबाज मिलन" है....

इश़रत जहां को बिहार की बेटी कहने वाले नीतीश जी की घर वापसी से उनके विचारों में बदलाव आये या नहीं..? घर वापसी के बाद 'नीतीश बाबू' की अन्तरात्मा 'इश़रत जहां' को लेकर क्या बोल रही है..? सवाल तो बनता है....! मेरे खयाल से बिहार में भाजपा को भारी क्षति पहुंचेगा...यह मेरा व्यक्तिगत राय है...

खैर, २०१९ के 'महाविजय' के 'विजयरथ' को कोई रोक नहीं सकता.लेकिन भाजपा को नीतीश कुमार जैसे 'गिरगिटों' से सावधान रहना इनका बहुत कच्चा रंग है

 क्योंकि... जिनके सिद्धांत निर्जीव पाषाणवत् यानी काल के गाल में समाया हुआ पर्वतीय चट्टान हो गया हो, वह आज नहीं तो कल 'पाषाणावरोध' करेगा ही.... क्योंकि अभी यही नीतीश पिछली सरकार में 'भाजपा' के विधायकों को ही फोड़कर 'मोदी जी के बतौर पीएम प्रोजेक्ट कराने व स्वयं पीएम के लिये नाम उछालने के लिये भारी भरकम की राजस्व से मीडिया मैनेज कर विरोध कराया था'.....

सच्चाई और जमीनी हकीकत तो यह है कि इस बार नीतीश+लालू सरकार तीन साल तक विकास के नाम पर केवल धांधली, गुंडई के अलावां कुछ नहीं किये है.... यह बहुत अच्छा मौका था बिहार मे भाजपा को स्वयं के पैरों पर खड़ा होने का.. और कार्यकर्ताओं को पुनर्जागृत करने का ! आज जो स्वतंत्रता बीजेपी कार्यकर्ताओं को काम करने के लिये मिली थी वह लगभग विखराव और भटकाव की ओर जायेगा..

कुल मिलाकर 'सहानुभूति से पूरा वोट लालू ले जायेगा, और जेडयू +बीजेपी आपस में वर्चस्व की लड़ाई लड़कर अपना वजूद खत्म करेंगे...बिहार बीजेपी के कार्यकर्ता बेहद नाराज हैं........

कुल मिलाकर यह ''नौटंकीबाज मिलन'' है

भाजपा को आयातित नेताओं और कुछ कथित ''गिरगिटों'' से सावधान रहना चाहिये....और जो बीजेपी के लिये जन्मत: से वरिष्ठता की पड़ाव तक झंडा, बैनर उठाने से लेकर आम सभाओं में दरी बिछाने वाले कार्यकर्ता है उनका अपेक्षित नहीं तो कम से कम बिहार के जदयू नेताओं के दर पर भटकने ना जाना पड़े!

अब देखिये ना गुजरात में भाजपा की बढ़ती साख़ इस बात का गवाह है कि कल ही तीन कांग्रेसी विधायकों ने इस्तीफा देकर अहमद पटेल (कांग्रेस) राज्यसभा में पहुंचना नामुमकीन है, शंकर सिंह बाघेला पहले ही कांग्रेस को अलविदा कह चुके हैं! क्या बिहार में भी यूपी और गुजरात की परिकल्पना इस ''नौटंकीबाज मिलन'' से पूरी हो सकती है ? या बिहार राज्य में.. यूपी और गुजरात के बीजेपी जनाधार की कल्पना  ''दिन में तारे जमीं पर'' की कल्पना मात्र है !

-पण्डित विनोद चौबे, संपादक- ''ज्योतिष का सूर्य'' भिलाई !