'अन्तर्नाद' मंच के साथियों, वरेण्य जनो......
सीय राममय सब जग जानी !
करऊँ प्रनाम जोरि जुग पानी !!
आज दिनभर हमने गोस्वामी तुलसीदास के तैल चित्र पर माल्यार्पण कर उनके दो-चार चौपाईयों का छन्दानुबंध गायन कर, हम समाचार पत्रों में सुर्खियां बटोर लेने मात्र से तुलसीदास जी के प्रति....श्रद्धासमर्पण की पूर्णता तबतक नहीं हो सकती जबतक उनके साहित्य-पुष्प को अपने जीवन का श्रृंगार नहीं बना लेते.....क्योंकि जीवधारी मनुष्य चाहे, वह कितना भी बड़ा साम्राज्य का अधिपति हो या वह रंक की भांति जीवन यापन करने वाला 'दीन' हो सभी के लिये गोस्वामी जी के साहित्यों में एक श्रीरामचरित मानस की एक-एक चौपाईयां मौलिकता से पूर्ण जीवनोपगी है, समाज-शोधन सूत्र है, और साधनगम्य हो साकार सनातनी महापुरुष विष्णु अवतारी श्रीराम से लेकर निराकार परात्परब्रह्म ',बिनु पद चलई सुनई बिनु काना......आनन रहित सकल रस भोगी....!'' आदि के माध्यम से निर्गुण निराकार की परम सत्ता का बोध करातीं है, ये वह सोपान है जहां से चारों वेदों के उच्च शिखरों की चोटी भी ''वेदांत'' में ''समाहित मनस स्म'' हो जाती है..तो आईये अब मैं अपनी बात को समेटते हुए .... तुलसी बाबा के उन पंक्तियों का रसपान करते हुए, जीवन में उतारने का संकल्प-मनस को अवगाहन करते हैं.... क्योंकि वैसे भी आज ''अन्तर्नाद'' मंच पर समय नहीं दे पाया और अब रात के ९ बजकर २० मिनट होने वाले हैं....शुरूआत हम गोस्वामी जी के द्वारा तपश्चर्या के आचार्यवरिष्ठ महर्षि वाल्मिक, अत्रि,भरद्वाज तथा नारद जी से करते हैं .....तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा। (१/७३)तप के अगम न कछु संसारा। (१/१६३)
तुलसीदास जी ने तप का महत्त्व निरूपित करने के लिए ही वाल्मीकि, अत्रि, भरद्वाज, नारद आदि को तपस्यालीन चित्रित किया है। त्याग का मूर्तिमंत उदाहरण यह है - बंधुत्रय - राम, लक्ष्मण एवं भरत। चक्रवर्ती होने वाले राम वनवासी हो जाते हैं। लक्ष्मण अपने दाम्पत्य सुख की बलि देकर भ्रातृसेवा का त्यागदीप्त जीवनमार्ग अपनाता है और भरत महल में प्राप्त राज्य में लक्ष्मी को तृणवत् मानकर भाई को ढूँढने निकल पडता है। तुलसीदास ने भरत के इस त्यागपूर्ण व्यक्तित्व को प्रशंसित करते हुए कहा है -
चलत पयादे खात फल, पिता दीन्ह तजि राजु।जात मनावन रघुबरहि, भरत सरसि को आजु॥ (रामचरित मानस २/२२२)
सामान्य धर्म के दस अंग माने गये हैं। ’रामचरित मानस‘ में तुलसीदास जी ने धर्म के इन सभी अंगों को भली-भाँति प्रतिपादित किया है। परधन हडप लेने की वृत्ति चौर्य कार्य है। तुलसीदास जी कहते हैं -
धन पराय विष ते विष भारी (रामचरित मानस - ७/४९/१)
संयम के लिए इन्दि्रय-निग्रह आवश्यक है। पंचेन्दि्रयों को मनमाना न करने देना ही संयम है। इसलिए संत पुरुष काम-क्रोधादि का परित्याग करते हैं -
काम-क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पंथ।सब परिहरि रघुबीरहिं, भजहु भजहिं जेहि संत॥ (रामचरित मानस - सुंदरकाण्ड ५/३९)
सत्य को धर्म का पर्याय मानकर तुलसीदास कहते हैं- ’धरमु न दूसर सत्य समाना।‘ इसी प्रकार परहित और अहिंसा की भावना का निरूपण करते हुए वे कहते हैं -
परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीडा सम नहिं अधमाई॥ (रामचरित मानस - ७/४९/१)
विश्व का व्यवहार धर्मपालन पर अवलम्बित है। तुलसीदास के मतानुसार धर्म का पालन करने से ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति होती है और सुख-संतोष की अनुभूति होती है -
धरम तडाग ग्यान विज्ञाना। ये पंकज विसके विधि नाना॥सुख संतोष विराग विवेका। विगत सोक ये कोक अनेका॥ (रामचरित मानस - ७/३२/४)
ऐसी धार्मिकता कष्टसाध्य है। जिसमें
नर सहस्र महँ सुनहु पुरारी, कोउ एक होइ धर्मब्रतधारी।
गोस्वामी तुलसीदास ने धर्मरथ के रूपक के माध्यम से धर्म के विभिन्न अंगों का विस्तार से प्रतिपादन किया है। (७/१०३) ’ज्ञानदीपक‘ (लंकाकांड ८०/३-६) के प्रसंग में भी उन्होंने धर्म के विविध अंगों का परिचय दिया है। जीवन मनुष्य की कडी कसौटी लेता है। रामचरितमानस में वर्णधर्म, आश्रमधर्म, पुत्रधर्म, स्त्रीधर्म, युगधर्म का भी निरूपण किया है। जैसे ः
नित जुग धर्म होहिं सब केरे, हृदय राम माया के प्रेरें॥ (७/१.४/१.२)
तत्पश्चात् उन्होंने युगविशेष में मनुष्य के हृदय में कौन-सी भावनाएँ धर्म प्रेरक हो सकती हैं, इसका वर्णन किया है। ’रामचरितमानस‘ समानाचरण मूल्यों की दृष्टि से भी एक समन्वय ग्रंथ है। समाज में संत का कार्य संसारियों का मार्गदर्शन बनता है। अतः समाज को शिक्षा देने हेतु तुलसी ने सन्त के लक्षण एवं आचरणों को विस्तार से उल्लेख किया है। जैसे -
उमा संत कइ इहइ बडाई। मंद करत जो करइ भलाई॥ (सु.का. ४१-६)संतहृदय जस निर्मल बारी,बाँधे घाट मनोहर चारी।संत उदय संतत सुखकारी,संत विटप सरिता गिरि धरनी,परहित हेतु सबन्ह कै करनी।संत हृदय नवनीत समाना,कहा कबिन्ह करि कहइ न जाना।निज परिताप दवइ नवनीता,परदुख द्रवहिं संत सुपुनीता।
(रामचरित मानस - ७/१२५/७)
तुलसी का संत, शील का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत करता है। ऐसे संतत्व के लिए संन्यास ग्रहण करना आवश्यक नहीं। तुलसीदास ने भरत, विभीषण, हनुमान आदि में इसी संतत्व के महान् गुणों का निरूपण किया है। संत समाज का उन्नायक होता है और असंत अर्थात् खल प्रगतिपथ में रोडा। असंत के अवगुणों का भी उन्होंने वर्णन किया है। रावण के बारे में तुलसीदास जी ने कहा है -
काम रूप जानहिं सब माया।सपनेहु जिन्ह के धरम न दाया। (रामचरितमानस १/१८१)
तुलसीदास जी गुरुशिष्य सम्बन्ध को पावनतम संबंध मानते हैं। गुरु के गरिमामय व्यक्तित्व का उन्होंने प्रभावशाली शब्दों में वर्णन किया है।
हरइ शिष्य धन सोक न हरई,सो गुरु घोर नरक महुँ परई॥ (रामचरितमानस ७/९९)
कहकर धोखेबाज गुरुओं को उन्होंने आडे हाथों लिया है। गुरु की तरह मैत्री में वफादारी का मूल्य भी सुंदर ढंग से निरूपित किया है।
जे न मित्र दुख होहिं दुखारीतिन्हहिं विलोकत पातक भारी। (रामचरित मानस ४/८)
’रामचरितमानस‘ में राजनीतिपरक मूल्यों का भी तुलसीदास जी ने विशद् निरूपण किया है। ’रामचरितमानस‘ में तुलसी ने तत्कालीन मुगलप्रशासन तंत्र का चित्रण कलियुग के वर्णन के रूप में उत्तरकांड में किया है। उन्होंने नृपतंत्र के रूप में दशरथ के शासनतंत्र की मर्यादाएँ बताई हैं तो दूसरी ओर जनक जैसे दार्शनिक तथा त्यागी सम्राट के राज्य संचालन को भी वर्णित किया है। किन्तु तुलसीदास को राम के शासनतंत्र के समर्थक और रावण के शासनतंत्र के विरोधी हैं। तुलसी ने राजा को प्रजा का प्रतिनिधि माना है। राजा की सर्वोपरि सत्ता को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने उसकी निरंकुशता को सह्य नहीं माना है। उन्होंने उसी शासक को सच्चा शासक माना है जो पद को प्रजा की सेवा का निमित्त मानता है।
जनता की अपेक्षाओं के परिपुष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि - ’जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।‘ राजा को तुलसी ने सूरज से उपमित किया है -
बरषत, हरषत लोग सब, करषत लखै न कोई।तुलसी प्रजा सुभाग ते, भूप भानु सो होई॥
’राजा‘ को मुख समान होकर सब विधि प्रजा का पोषण करना चाहिए - इस बात पर जोर देते हुए कहा है कि -
मुखिया मुख सा चाहिए, खान पान को एकपालहिं-पोषहिं सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥
तुलसीदास ने इसके लिए ’राम-राज्य‘ अथवा कल्याण-राज्य का आदर्श प्रस्तुत किया है। यह कल्याणकारी राज्य धर्म का राज्य होता है, न्याय का राज्य होता है, कर्त्तव्य-पालन का राज्य होता है। वह सत्ता का नहीं, सेवा का राज्य होता है। इस कल्याणकारी राज्य की झोली में है - क्षमा, समानता, सत्य, त्याग, बैर का अभाव, बलिदान एवं प्रजा का सर्वांगीण उत्कर्ष। इस कल्याणकारी राज्य की कल्पना की परिधि में व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य और विश्व का कल्याण समाविष्ट है। इसके केन्द्र में है धर्म जिसे हम वर्तमान के संदर्भ में ’कर्त्तव्य पालन‘ के स्वरूप में भी ले सकते हैं। जहाँ धर्म होगा, वहाँ सत्य होगा, शिवत्व होगा, सौंदर्य होगा, सुख होगा, शान्ति होगी, कल्याण होगा।
तुलसीदास ने देखा कि अपने युग में जनता पारस्परिक कलह, ईर्ष्या, द्वेष और अधर्म में फँसी हुई है। पति-पत्नी, भाई-भाई, राजा-प्रजा, परिवार-कुटुम्ब में छोटी-मोटी बातों पर कलह-विवाद ओर संघर्ष हो रहे हैं।
जहाँ समाज मानस-रोगों से विमुक्त होकर विमलता, शुभ्रता, नीति और धर्म का चरण करे, उसी का नाम कल्याणकारी राज्य। यह कल्याणकारी राज्य अशत्रुत्व और समता का राज्य है। इसके अभाव में राज्य कल्याण - राज्य न रहकर अनेक दूषणों से दूषित हो जाता है, जिसकी झाँकी तुलसी ने हमें ’कलि-काल‘ वर्णन में कराई है। ’रामचरित-मानस‘ उन आदर्शों की उर्वर भूमि है, जिसको अपनाने से किसी युग की प्रजा अपने कल्याण की साधना कर सकती है। (जल्दबाजी में लेख लिखा हुं, कुछ त्रुटियों संभावना स्वाभाविक है मुझे उम्मीद है आप लोग ''जौं बालक कह तोतरि भाषा" के अनुसार मुझे यानी आपका छोटा बालक 'विनोद' को क्षमा करेंगे) शुभरात्रि, नमोनम:
- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई
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