ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

वैदिक परम्पराओं के अनुसार सहज, सुगम और सौष्ठव द्वारा समझने व भलिभांति समझने वाला सिद्धांत ही खगोल-अन्तरिक्ष-विज्ञान है ज्योतिष------

-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, भिलाई


मित्रों, 
आप सभी को मंगलमयी कामनाओं सहित सुप्रभातम् ।।

यथा शिखा मयूराणां, 
नागानां मणयो यथा ।
तद्वत् वेदांग शास्त्राणां, 
गणितं मूर्धनि स्थितम् ।

छन्दः पादौ तु वेदस्य,
हस्तौ कल्पोऽत्र पठच्यते ॥
मुखं व्याकरणं प्रोक्तं,
' ज्योतिषं नेत्रमुच्यते ॥ 
शिक्षा घ्राणस्तु वेदस्य, 
निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।॥ 
(पाणिनीयशिक्षा, ४१-४२) 

अब आईये ज्योतिष को व्यापक तौर पर समझने का प्रयास करते हैं। ज्योतिष शास्त्र वेदपुरूष का नेत्र है तो वहीं भारतीय संस्कृति का आधार वेद को माना जाता है। वेद धार्मिक ग्रंथ ही नहीं है बल्कि विज्ञान की पहली पुस्तक है जिसमें चिकित्सा विज्ञान, भौतिक, विज्ञान, रसायन और खगोल विज्ञान का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। भारतीय ज्योतिष विद्या का जन्म भी वेद से हुआ है। वेद से जन्म लेने के कारण इसे वैदिक ज्योतिष के नाम से जाना जाता है।

वैदिक ज्योतिष की परिभाषा
वैदिक ज्योतिष को परिभाषित किया जाए तो कहेंगे कि वैदिक ज्योतिष ऐसा विज्ञान या शास्त्र है जो आकाश मंडल में विचरने वाले ग्रहों जैसे सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध के साथ राशियों एवं नक्षत्रों का अध्ययन करता है और इन आकाशीय तत्वों से पृथ्वी एवं पृथ्वी पर रहने वाले लोग किस प्रकार प्रभावित होते हैं उनका विश्लेषण करता है। वैदिक ज्योतिष में गणना के क्रम में राशिचक्र, नवग्रह, जन्म राशि को महत्वपूर्ण तत्व के रूप में देखा जाता है।

राशि और राशिचक्र
राशि और राशिचक्र को समझने के लिए नक्षत्रों को को समझना आवश्यक है क्योकिराशि नक्षत्रों से ही निर्मिबत होते हैं। वैदिक ज्योतिष में राशि और राशिचक्र निर्धारण के लिए 360 डिग्री का एक आभाषीय पथ निर्धारित किया गया है। इस पथ में आने वाले तारा समूहों को 27 भागों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक तारा समूह नक्षत्र कहलाते हैं। नक्षत्रो की कुल संख्या 27 है। 27 नक्षत्रो को 360 डिग्री के आभाषीय पथ पर विभाजित करने से प्रत्येक भाग 13 डिग्री 20 मिनट का होता है। इस तरह प्रत्येक नक्षत्र 13 डिग्री 20 मिनट का होता है।

वैदिक ज्योतिष में राशियो को 360 डिग्री को 12 भागो में बांटा गया है जिसे भचक्र कहते हैं। भचक्र में कुल 12 राशियां होती हैं। राशिचक्र में प्रत्येक राशि 30 डिग्री होती है। राशिचक्र में सबसे पहला नक्षत्र है अश्विनी इसलिए इसे पहला तारा माना जाता है। इसके बाद है भरणी फिर कृतिका इस प्रकार क्रमवार 27 नक्षत्र आते हैं। पहले दो नक्षत्र हैं अश्विनी औरभरणी हैं जिनसे पहली राशि यानी मेष का निर्माण होता हैं इसी क्रम में शेष नक्षत्र भी राशियों का निर्माण करते हैं।

नवग्रह
वैदिक ज्योतिष में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू,शुक्र, शनि और राहु केतु को नवग्रह के रूप में मान्यता प्राप्त है। सभी ग्रह अपने गोचर मे भ्रमण करते हुए राशिचक्र में कुछ समय के लिए ठहरते हैं और अपना अपना राशिफल प्रदान करते हैं। राहु और केतु आभाषीय ग्रह है, नक्षत्र मंडल में इनका वास्तविक अस्तित्व नहीं है। ये दोनों राशिमंडल में गणीतीय बिन्दु के रूप में स्थित होते हैं।

लग्न और जन्म राशि
पृथ्वी अपने अक्ष पर 24 घंटे में एक बार पश्चिम से पूरब घूमती है। इस कारण से सभी ग्रह नक्षत्र व राशियां 24 घंटे में एक बार पूरब से पश्चिम दिशा में घूमती हुई प्रतीत होती है। इस प्रक्रिया में सभी राशियां और तारे 24 घंटे में एक बार पूर्वी क्षितिज पर उदित और पश्चिमी क्षितिज पर अस्त होते हुए नज़र आते हैं। यही कारण है कि एक निश्चित बिन्दु और काल में राशिचक्र में एक विशेष राशि पूर्वी क्षितिज पर उदित होती है। जब कोई व्यक्ति जन्म लेता है उस समय उस अक्षांश और देशांतर में जो राशि पूर्व दिशा में उदित होती है वह राशि व्यक्ति का जन्म लग्न कहलाता है। जन्म के समय चन्द्रमा जिस राशि में बैठा होता है उस राशि को जन्म राशि या चन्द्र लग्न के नाम से जाना जाता है।
- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक "ज्योतिष का सूर्य " राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई



शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

गीता रहस्य ........अवश्य पढें और मित्रों को पढायें...और पूण्य लाभ लें

गीता रहस्य ........अवश्य पढें और मित्रों को पढायें...और पूण्य लाभ लें

साथियों, 
गीता जयंती के पावन पवित्र अवसर पर आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं और बहुत बहुत बधाई......

आईये इस अवसर पर ज्ञान-लाभ लेने का प्रयास करें।  कई मित्रों यह भी पता नहीं है कि श्रीमद्भगवद गीता का प्रादुर्भाव कहां से हुआ था। तो बिना देर किये आपको बताना चाहूंगा की गीता का प्राकट्य श्री कृष्ण के द्वारा महाभारत के युद्ध के दौरान हरियाणा के कुरूक्षेत्र में स्थित सरोवर के तट पर "विराट दर्शन" देते हुये अर्जुन को गीता का उपदेश सुनाये थे। 
बड़ा सवाल ये उठता है जब केवल कृष्ण-अर्जुन संवाद है गीता तो यह हमारे मध्य कैसे पहुंची? आगे हम इसी पर चर्चा करेंगे ।  
- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे , संपादक "ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई

पौराणिक कथा के अनुसार जिस समय भगवान श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र की रणभूमि में पार्थ (अर्जुन) को गीता के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दे रहे थे उस समय धनुर्धारी अर्जुन के अलावा इस उपदेश को विश्व में चार और लोग सुन रहे थे जिसमें पवन पुत्र हनुमान, महर्षि व्यास के शिष्य

पौराणिक कथा के अनुसार जिस समय भगवान श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र की रणभूमि में पार्थ (अर्जुन) को गीता के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दे रहे थे उस समय धनुर्धारी अर्जुन के अलावा इस उपदेश को विश्व में चार और लोग सुन रहे थे जिसमें पवन पुत्र हनुमान, महर्षि व्यास के शिष्य तथा धृतराष्ट्र की राजसभा के सम्मानित सदस्य संजय और बर्बरीक शामिल थे। आपको बताते चलें बर्बरीक घटोत्कच और अहिलावती के पुत्र तथा भीम के पोते थे। जब महाभारत का युद्ध चल रहा था उस दौरान उन्हें भगवान श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त था कि कौरवों और पाण्डवों के इस भयंकर युद्ध को देख सकते हैं।
जब गीता का उपदेश चल रहा उस दौरान पवन पुत्र हनुमान अर्जुन के रथ पर बैठे थे जबकि संजय, धृतराष्ट्र से गीता आख्यान कर रहे थे। धृतराष्ट्र ने पूरी गीता संजय के मुख से सुनी वह वही थी जो कृष्ण उस समय अर्जुन से कह रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण की मंशा थी कि धृतराष्ट्र को भी अपने कर्त्तव्य का ज्ञान हो और एक राजा के रूप में वो भारत को आने वाले विनाश से बचा लें। यही नहीं यही वह चार व्यक्ति थे जिन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को विश्वरूप के रूप में देखा।
दसवें अध्याय के सातवें श्लोक तक भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी विभूति, योगशक्ति तथा उसे जानने के माहात्म्य का संक्षेप में वर्णन किया है। फिर ग्यारहवें श्लोक तक भक्तियोग तथा उसका फल बताया। अर्जुन ने भगवान की स्तुति करके दिव्य विभूतियों तथा योगशक्ति का विस्तृत वर्णन करने के लिए श्री कृष्ण से प्रार्थना की। अपनी दिव्य विभूतियों के बारे में बताने के बाद आखिर में श्री कृष्ण ने योगशक्ति का प्रभाव बताया और समस्त ब्रह्मांड को अपने एक अंश से धारण किया हुआ बताकर अध्याय समाप्त किया। यह सुनकर अर्जुन के मन में उस महान स्वरूप को प्रत्यक्ष देखने की इच्छा हुई. तब ग्यारहवें अध्याय के आरम्भ में भगवान श्री कृष्ण ने विश्वरूप के दर्शन के रूप में अपने को प्रत्यक्ष किया। इसी विराट स्वरूप में समस्त ब्रह्मांड को समाहित देख अर्जुन मोह मुक्त हुए तथा युद्ध के विरक्ति भाव से मुक्त होकर महाभारत युद्ध का निष्ठापूर्वक संचालन कर कौरवों पर विजय प्राप्त की।

-- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे , संपादक "ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई

रविवार, 6 नवंबर 2016

....यह एक ऐसी जीवनगाथा जो देती है सच्ची प्रेरणा…...तो एक बार अवश्य पढ़कर मनन करें..




....यह एक ऐसी जीवनगाथा जो देती है सच्ची प्रेरणा…...तो एक बार अवश्य पढ़कर मनन करें........
आदरणीय प्रकाश केलकर जी को नमन करते हुए उनके इस सोच ने ना केवल हमें प्रेरणा देने का काम किया है बल्कि शासकीय धन का दुरूपयोग करने वाले अधिकारी, कर्मचारी तथा घोटालेबाज नेताओं को "त्याग" का अहसास कराता है।
...बिना पत्नि कथम् धर्म:..... बिना पत्नि के कोई धर्म, दान आदि का कार्य सफल नहीं होता...पण्डित विनोद चौबे, भिलाई के अनुसार सनातन धर्म ग्रंथों में "दान" का विशेष महत्त्व है। दान करते समय पत्नि का सहभागिता भी आवश्यक है।
पुणे निवासी आदरणीय प्रकाश जी केलकर की पत्नि की भी स्विकृति है...आगे पढिये पूरी स्टोरी
जीवनके आखिरी दिन सुकून से गुजरे इसके लिए हर आदमी सारी जिंदगी पैसा कमाता है। सारी उम्र यही पुणे के 73 साल के प्रकाश केलकर ने भी किया। लेकिन अब उन्होंने अपनी सारी कमाई जवानों, किसानों और कुछ एनजीओ को देने का फैसला किया है।
इसके लिए एक करोड़ रुपए की वसीयत भी तैयार कराई है। इसमेंं कमाई के दान का विवरण दर्ज है। उनकी इस वसीयत में उनकी पत्नि की भी सहमति है। प्रकाश केलकर का वसीयत के संबंध में कहना है कि वे कपड़ा व्यवसाय करते रहे हैं। इस दौरान कपास खरीदी के लिए उन्हें गांवों में जाना पड़ता था। जहां उन्होंने किसानों की समस्याओं को निकट से देखा था। उनका शोषण भी होते देखा था। अब जीवन के अंतिम समय में उन्हीं बातों को याद करके अपनी पूरी कमाई को दान करने का निर्णय किया है।
यह पैसा किसानों,जवानों के सहयोग के लिए खर्च होगा। प्रकाश की वसीयत के मुताबिक उनकी मौत के बाद एक करोड़ रुपए में से 30 फीसदी हिस्सा प्रधानमंत्री राहत कोष और 30 फीसदी हिस्सा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री राहत कोष में जाएगा। 30 फीसदी हिस्सा जवान और किसानों की मदद में खर्च होगा। जबकि 10 फीसदी हिस्सा एनजीओ को दिया जाएगा। 
मां से मिली प्रेरणा
प्रकाशकी मां समाजसेवा करना चाहती थी मां के हाथ जब भी पैसा आता तो वो गरीबों के लिए, समाज के लिए खर्च करती थी प्रकाश के पिता नाना केलकर पुरो जमाने के जानेमाने चित्रकार थे प्रकाश की प|ी दीपा हाउसवाइफ है, समाजकार्य मे लगी रहती है प्रकाश की दो विवाहित बेटियां है, एक पुणे मे तो दूसरी अमेरिका मे सेटल है प्रकाश ने बताया, समाजकार्य की प्रेरणा मां से मिली मेरी मां हमेशा गरीबों के बारें मे सोचती थी प्रत्येक गरीब को हर रोज दो वक्त की रोटी मिले ये उनकी विचारधारा थी 
झोपड़पट्‌टी के कंपाउंडर
प्रकाशकेलकर का कहना है कि वे अपना बाकी जीवन समाजसेवा करते हुए गुजारेंगे। कभी पुणे के चौराहों पर ट्रैफिक कंट्रोल तो कभी झुग्गी में बच्चों को पढ़ाने चले जाते हैं। यहां के लोगों को वे दवाइयां भी मुहैया कराते रहते हैं। लोग उन्हें झोपड़ पट्टी का कंपाउंडर के नाम से जानते हैं।
- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, शांतिनगर, भिलाई

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

" भाई दूज पर यम, यमुना एवं सनातन संस्कृति में बंधता पूरा विश्व"

वैसे तो सनातन संस्कृति समग्र विश्व की ऐसी विशालतम् और सहिष्णु संस्कृति है, जिसका आदर व सम्मान भारत के इतर पूरे विश्व को भी करना ही पड़ता है, मुझे बहुत प्रसन्नता हुयी जब बराक ओबामा ने व्हाईट हाऊस में विश्व को शांति का संदेश देते हुये बराक ने दीप प्रज्वलित किया और संयुक्त राष्ट्र्भवन के इलेक्ट्रीक वॉल पट्टिका पर "शुभ दीपावली" का संदेश दिया गया। हमें गर्व होता है "सनातन संस्कृति " पर । शर्म भी आता हा भारत के विपक्षी पार्टी कांग्रेस की सड़ांध, और बदबुदार तथा घिनौनी राजनीति पर जहां मध्य प्रदेश में आठ आतंकियों के मारे जाने पर "दिग्विजय सिंह" जांच की मांग करते हैं। ये वही दिग्गी राजा हैं जिन्होंने "भगवा आतंक" शब्द का पहली बार देश में प्रयोग किया जिसको पी. चिदम्बरम ने आगे बढाया। लेकिन उसी भगवा के विचार-सूत्रों ने विश्व में इतनी गहरी पैठ बनाने में सफल रही है कि उसका परिणाम अमेरिका के व्हाईट हाऊस तथा संयुक्त राष्ट्र भवन की वॉल पट्टिका पर दीपावली के दिन देखने को मिला! ऐसा इसलिये संभव हो पाता है क्योंकि "सनातन संस्कृति " उत्कृष्ट संस्कृति है, अब देखिये ना रक्षा बंधन पर बहन की रक्षा के लिये भाई संकल्प लेता है तो भाई दूज पर भाई के रक्षार्थ बहन संकल्प लेकर ईश प्रार्थना करती हैं, ऐसा केवल "सनातन संस्कृति " में ही संभव है। आईये ऐसी एक पौराणिक कथा " भाई दूज पर यम, यमुना एवं सनातन संस्कृति में बंधता पूरा विश्व" के आलेख में अवश्य पढें।
-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, रावण संहिता विशेषज्ञ एवं संपादक "ज्योतिष का सूर्य" राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई
आईये सर्वप्रथम आप लोगों को भाई दूज के पावन पवित्र अवसर पर ढेर सारी शुभकामनाएं ।।
भिलाई मे भाई दूज का समय (मुहूर्त) है दिन में 1 : 35 से 3:57 तक है इस दौरान बहने अपने भाई को टीका लगाकर भाई के दीर्घायु की कामना करें......
भाई दूज का त्योहार भाई बहन के स्नेह को सुदृढ़ करता है।यह त्योहार दीवाली के दो दिन बाद मनाया जाता है।
हिन्दू धर्म में भाई-बहन के स्नेह-प्रतीक दो त्योहार मनाये जाते हैं - एक रक्षाबंधन जो श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें भाई बहन की रक्षा करने की प्रतिज्ञा करता है। दूसरा त्योहार, 'भाई दूज' का होता है। इसमें बहनें भाई की लम्बी आयु की प्रार्थना करती हैं। भाई दूज का त्योहार कार्तिक मास की द्वितीया को मनाया जाता है।
भैया दूज को भ्रातृ द्वितीया भी कहते हैं। इस पर्व का प्रमुख लक्ष्य भाई तथा बहन के पावन संबंध व प्रेमभाव की स्थापना करना है। इस दिन बहनें बेरी पूजन भी करती हैं। इस दिन बहनें भाइयों के स्वस्थ तथा दीर्घायु होने की मंगल कामना करके तिलक लगाती हैं। इस दिन बहनें भाइयों को तेल मलकर गंगा यमुना में स्नान भी कराती हैं। यदि गंगा यमुना में नहीं नहाया जा सके तो भाई को बहन के घर नहाना चाहिए।
यदि बहन अपने हाथ से भाई को जीमाए तो भाई की उम्र बढ़ती है और जीवन के कष्ट दूर होते हैं। इस दिन चाहिए कि बहनें भाइयों को चावल खिलाएं। इस दिन बहन के घर भोजन करने का विशेष महत्व है। बहन चचेरी अथवा ममेरी कोई भी हो सकती है। यदि कोई बहन न हो तो गाय, नदी आदि स्त्रीत्व पदार्थ का ध्यान करके अथवा उसके समीप बैठ कर भोजन कर लेना भी शुभ माना जाता है।
इस दिन गोधन कूटने की प्रथा भी है। गोबर की मानव मूर्ति बना कर छाती पर ईंट रखकर स्त्रियां उसे मूसलों से तोड़ती हैं। स्त्रियां घर-घर जाकर चना, गूम तथा भटकैया चराव कर जिव्हा को भटकैया के कांटे से दागती भी हैं। दोपहर पर्यन्त यह सब करके बहन भाई पूजा विधान से इस पर्व को प्रसन्नता से मनाते हैं। इस दिन यमराज तथा यमुना जी के पूजन का विशेष महत्व है।
कथा भाई दूज की:
भगवान सूर्य नारायण की पत्नी का नाम छाया था। उनकी कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ था। यमुना यमराज से बड़ा स्नेह करती थी। वह उससे बराबर निवेदन करती कि इष्ट मित्रों सहित उसके घर आकर भोजन करो। अपने कार्य में व्यस्त यमराज बात को टालता रहा। कार्तिक शुक्ल द्वितिया का दिन आया। यमुना ने उस दिन फिर यमराज को भोजन के लिए निमंत्रण देकर, उसे अपने घर आने के लिए वचनबद्ध कर लिया।
यमराज ने सोचा कि मैं तो प्राणों को हरने वाला हूं। मुझे कोई भी अपने घर नहीं बुलाना चाहता। बहन जिस सद्भावना से मुझे बुला रही है, उसका पालन करना मेरा धर्म है। बहन के घर आते समय यमराज ने नरक निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया। यमराज को अपने घर आया देखकर यमुना की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने स्नान कर पूजन करके व्यंजन परोसकर भोजन कराया। यमुना द्वारा किए गए आतिथ्य से यमराज ने प्रसन्न होकर बहन को वर मांगने का आदेश दिया।
यमुना ने कहा कि भद्र! आप प्रति वर्ष इसी दिन मेरे घर आया करो। मेरी तरह जो बहन इस दिन अपने भाई को आदर सत्कार करके टीका करे, उसे तुम्हारा भय न रहे। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमलोक की राह की। इसी दिन से पर्व की परम्परा बनी। ऐसी मान्यता है कि जो आतिथ्य स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता।
-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, रावण संहिता विशेषज्ञ एवं संपादक " ज्योतिष का सूर्य " राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, हाऊस नं. 1299, सड़क- 26, कोहका मेन रोड,  शांतिनगर, भिलाई, जिला - दुर्ग, (छ.ग.)

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

अन्नकूट एवं गोवर्धवन का पावन प्रसंग...आप अवश्य पढें

आप सभी मित्रों को अन्नकूट एवं गोवर्धन उत्सव की हार्दिक बधाई, आईये इस पावन प्रसंग को स्पर्श करने का प्रयास करता हुं, जो आप लोगों को रूचिकर लगेगा।
- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, रावण संहिता विशेषज्ञ एवं संपादक "ज्योतिष का सूर्य" पत्रिका, 

इस प्रसंग में इंद्र का गर्व चूर करने के लिए श्री गोवर्धन पूजा का आयोजन श्री कृष्ण ने गोकुलवासियों से करवाया था। यह आयोजन दीपावली से अगले दिन शाम को होता है। इस दिन मंदिरों में अन्नकूट पूजन किया जाता  है। ब्रज के त्यौहारों में इस त्यौहार का विशेष महत्व है। इसकी शुरूआत द्वापर युग से मानी जाती है। किंवदंती है कि उस समय लोग इंद्र देवता की पूजा करते थे। अनेकों प्रकार के भोजन बनाकर तरह-तरह के पकवान व मिठाइयों का भोग लगाते थे। 

यह आयोजन एक प्रकार का सामूहिक भोज का आयोजन है। उस दिन अनेकों प्रकार के व्यंजन साबुत मूंग, कढ़ी चावल, बाजरा तथा अनेकों प्रकार की सब्जियां एक जगह मिल कर बनाई जाती थीं। इसे अन्नकूट कहा जाता था। मंदिरों में इसी अन्नकूट को सभी नगरवासी इकट्ठा कर उसे प्रसाद के रूप में वितरित करते थे।

यह आयोजन इसलिए किया जाता था कि शरद ऋतु के आगमन पर मेघ देवता देवराज इंद्र को पूजन कर प्रसन्न किया जाता कि वह ब्रज में वर्षा करवाएं जिससे अन्न पैदा हो तथा ब्रजवासियों का भरण-पोषण हो सके। एक बार भगवान श्री कृष्ण ग्वाल बालों के साथ गऊएं चराते हुए गोवर्धन पर्वत के पास पहुंचे वह देखकर हैरान हो गए कि सैंकड़ों गोपियां छप्पन प्रकार के भोजन बनाकर बड़े उत्साह से उत्सव मना रही थीं। भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों से इस बारे पूछा। गोपियों ने बतलाया कि ऐसा करने से इंद्र देवता प्रसन्न होंगे और ब्रज में वर्षा होगी जिसमें अन्न पैदा होगा।

श्री कृष्ण ने गोपियों से कहा कि इंद्र देवता में ऐसी क्या शक्ति है जो पानी बरसाता है। इससे ज्यादा तो शक्ति इस गोवर्धन पर्वत में है। इसी कारण वर्षा होती है। हमें इंद्र देवता के स्थान पर इस गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए।

ब्रजवासी भगवान श्री कृष्ण के बताए अनुसार गोवर्धन की पूजा में जुट गए। सभी ब्रजवासी घर से अनेकों प्रकार के मिष्ठान बना गोवर्धन पर्वत की तलहटी में पहुंच भगवान श्री कृष्ण द्वारा बताई विधि के अनुसार गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे। 
भगवान श्री कृष्ण द्वारा किए इस अनुष्ठान  को देवराज इंद्र ने अपना अपमान समझा तथा क्रोधित होकर अहंकार में मेघों को आदेश दिया कि वे ब्रज में मूसलाधार बारिश कर सभी कुछ तहस-नहस कर दिया। 

मेघों ने देवराज इंद्र के आदेश का पालन कर वैसा ही किया। ब्रज में मूसलाधार बारिश होने तथा सभी कुछ नष्ट होते देख ब्रज वासी घबरा गए तथा श्री कृष्ण के पास पहुंच कर इंद्र देवता के कोप से रक्षा का निवेदन करने लगे।

ब्रजवासियों की पुकार सुनकर भगवान श्री कृष्ण बोले- सभी नगरवासी अपनी सभी गउओं सहित गोवर्धन पर्वत की शरण में चलो। गोवर्धन पर्वत ही सबकी रक्षा करेंगे। सभी ब्रजवासी अपने पशु धन के साथ गोवर्धन पर्वत की तलहटी में पहुंच गए। तभी भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उंगली पर उठाकर छाता सा तान दिया। सभी ब्रज वासी अपने पशुओं सहित उस पर्वत के नीचे जमा हो गए। सात दिन तक मूसलाधार वर्षा होती रही। सभी ब्रजवासियों ने पर्वत की शरण में अपना बचाव किया। भगवान श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र के कारण किसी भी ब्रज वासी को कोई भी नुक्सान नहीं हुआ।

यह चमत्कार देखकर देवराज इंद्र ब्रह्मा जी की शरण में गए तो ब्रह्मा जी ने उन्हें श्री कृष्ण की वास्तविकता बताई। इंद्र देवता को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। ब्रज गए तथा भगवान श्री कृष्ण के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगे। सातवें दिन श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को नीचे रखा तथा ब्रजवासियों से कहा कि आज से प्रत्येक ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत की प्रत्येक वर्ष अन्नकूट द्वारा पूजा-अर्चना कर पर्व मनाया करें। इस उत्सव को तभी से अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा। 

शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

दीप पर्व पर लक्ष्मी पूजन के शुभ मुहूर्त एवं माहात्म्य


दीप पर्व पर लक्ष्मी पूजन के शुभ मुहूर्त

- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, शांतिनगर, भिलाई

शतपथ ब्राह्मण नामक ग्रंथ में लक्ष्मी जी प्राकट्य ब्रह्मा से बताया गया वहीं अन्य पुराणों में महामाया लक्ष्मी समुद्र से प्रकट हुईं बताया गया है। कार्तिक कृष्ण अमावस्या को सर्वप्रथम भगवान विष्णु ने प्रदोष काल में पूजन अर्चन किया था। उसके बाद अन्य सभी देवताओं द्वारा मां लक्ष्मी की अर्चना की गई, जो परम्परागत तौर पर आज भी दीपोत्सव के पावन पर्व पर अर्चन किया जाता है। आज के ही दिन ८४ दिवसीय लंका के युद्ध मे विजय प्राप्त कर अयोध्या आगमन हुआ था। प्रभु श्रीराम के स्वागत में पूरे अयोध्या वासी दीप जलाकर श्रीराम का स्वागत किये थे।

लक्ष्मी पूजन का शुभ मुहूर्त :
प्रदोष काल: सायंकाल 5:48 से 8 :22  तक 
स्थिर लग्न:- (कुंभ)  1:55 से 3:26 तक दोपहर
स्थिर लग्न:- (वृषभ) 6:28 से 8:27 तक संध्याकाल
स्थिर लग्न:- (सिंह)  अर्धरात्रि 12 : 59 से 3:26 तक
  ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे जी के अननसार सर्वोत्तम मुहूर्त प्रदोष काल को माना जाता है। चौघिड़िया मुहूर्त के बजाय लग्न मुहूर्त अधिक फलदायक है।

लक्ष्मी के वाहन एवं पूजन विधान:

ब्रह्मवैवर्त पुराण में लक्ष्मी जी का उल्लू वाहन बताया गया है। वहीं लक्ष्मी स्तोत्रादि में गरूड़ वाहन तथा अन्य पुराणों में हस्ति वाहन बताया गया है। अत: अधिक महत्व "गरूड़ वाहन" ही है,अतएव सरस्वती, गणेश की प्रतिमा साथ में कुबेर तथा खाता बही के साथ साथ सिद्ध स्फटिक श्रीयंत्र को स्थापित कर घर के द्वार पर मंगल ऐपन, स्वास्तिक और शुभ-लाभ लिखकर विधीवत षोडसोपचार पूजन किया जाता है।

वर्जित काल एवं कार्य:
सायंकाल 4:14 मिनट से 5:38 तक राहुकाल है, इस समय सभी कार्य वर्जित है। इसके अतिरिक्त मिट्टी के दीपक ही जलाना चाहिये, ना कि मोमबत्ती और चायनीज झालर, हरा दूब आदि वर्जित है।

-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, रावण संहिता विशेषज्ञ एवं संपादक- "ज्योतिष का सूर्य" मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई, जिला-दुर्ग (छ़.ग.)

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

धनतेरस पर क्या होगा आपके लिये सटीक मुहूर्त

धनतेरस पर होगा अमृत और ध
न की वर्षा:

-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, शांतिनगर, भिलाई।
श्रीमद्भागवत के अनुसार समुद्रमंथन करते समय करते समय कार्तिक कृष्ण पक्ष के त्रयोदशी (धनतेरस) इस दिन भगवान धनवन्तरी समुद्र से कलश लेकर प्रकट हुए थे, इसलिये इस दिन खास तौर से बर्तनों की खरीदारी की जाती है. इस दिन बर्तन, चांदी खरीदने से इनमें 13 गुणा वृद्धि होने की संभावना होती है. इसके साथ ही इस दिन सूखे धनिया के बीज खरीद कर घर में रखना भी परिवार की धन संपदा में वृद्धि करता है. दीपावली के दिन इन बीजों को बाग/ खेतों में लागाया जाता है ये बीज व्यक्ति की उन्नति व धन वृद्धि के प्रतीक होते है. धनतेरस के दूसरे दिन रुप चतुर्दशी या नरक चतुर्दशी को श्री हनुमानजी का जन्म हुआ था, साथ ही यमराज को प्रसन्न करने लिये 14 दीपक जलाने की प्रथा है, ऐसी मान्यता है कि इससे पूरे वर्ष घर में सुख समृद्धि तथा आरोग्यता के साथ साथ धनतेरस को स्वर्ण, चांदी, पीतल आदि धातुओं के खरीदने से दारिद्रयता खत्म होकर धन में वृद्धि होती है। ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे के मुताबिक धनतेरस को हस्त नक्षत्र का भोग समूचा 24 घंटे रहेगा वहीं सिंह राशि पर चंद्र होने से चंद्र का भी प्राकट्य समुद्र मंथन से ही हुआ था, जो जल और लक्ष्मी का प्रतीक है, साथ ही चंद्र अपने मित्र ग्रह सूर्य की राशि पर है अत: यह पौराणिक दृष्टि से अमृत-वर्षा योग बन रहा है जिससे धनतेरस की महत्ता को और अधिक बढ़ा दिया है।

धनतेरस में शुभ मुहूर्त :
चौघडिय़ा मुहूर्त:
प्रात: 7: 54 से 9: 18 तक लाभ  (उत्तम)
प्रात: 9: 18  से 10:43 तक अमृत (सर्वोत्तम)
दिन में 12:15 से 1:28 तक शुभ (उत्तम)
सायंकाल: 5:40 से 7:5 मिनट तक लाभ (उत्तम)
रात्रि में 7:5 से 08:27 तक अमृत (सर्वोत्तम)
रात्रि में 09:51 से 11:15 मिनट तक लाभ (उत्तम)

लग्न मुहूर्त:
प्रात: 7:53 से 10:10 मिनट तक वृश्चिक लग्न, स्थिर
(वृषभ, कन्या, मकर तथा सिंह राशि वालों के लिये विशेष शुभकारक रहेगा उपरोक्त लग्न में खरीदी करना)
दोपहर: 2:3 मिनट से 3:34 तक कुंभ लग्न, स्थिर
(मिथुन, तुला, कुंभ मेष तथा वृश्चिक राशि वालों के लिये विशेष शुभकारक रहेगा उपरोक्त लग्न में खरीदी करना)
सायंकाल: 6:39 से 8:35 तक वृषभ लग्न, स्थिर (सर्वोत्तम)
(कर्क, वृश्चिक, मीन, तथा कुंभ राशि वालों के लिये विशेष शुभकारक रहेगा उपरोक्त लग्न में खरीदी करना)
रात्रि (अद्र्ध) में 01: 07 से 3:21 तक सिंह लग्न(सर्वोत्तम)
(ंिसंह, धनु,मेष तथा सिंह राशि वालों के लिये विशेष शुभकारक रहेगा उपरोक्त लग्न में खरीदी करना)


वर्जित काल:
दिन में 10:41 से 12:15 तक, राहु काल
 लक्ष्मी जी व गणेश जी की चांदी की प्रतिमाओं को इस दिन घर लाना, घर- कार्यालय,. व्यापारिक संस्थाओं में धन, सफलता व उन्नति को बढाता है.

इसके बाद धूप, दीप, नैवैद्ध से पूजन करें. और निम्न मंत्र का जाप करें.
यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धन-धान्य अधिपतये
धन-धान्य समृद्धि मे देहि दापय स्वाहा ।
-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, रावण संहिता विशेषज्ञ एवं संपादक- ज्योतिष का सूर्य, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई, जिला दुर्ग (छ.ग.)

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

रविपुष्य योग और आपके लिये कौन सा होगा समृद्धि एवं लाभदायक शुभ मुहूर्त:...?

रविपुष्य योग और आपके लिये कौन सा होगा समृद्धि एवं लाभदायक शुभ मुहूर्त:...?
ज्योतिषचार्य पण्डित विनोद चौबे, (शांतिनगर, भिलाई) जी के अनुसार २३/१०/२०१६ रविवार को   धन तेरस से ६ दिन पूर्व २२तारीख को रात्रि २ बजकर ३८ मिनट से आरंभ हो रहा है, जो २३ तारीख को अर्धरात्रि २ बजकर २ मिनट तक रहेगा। ज्योतिष मे गुरू-पुष्य और रवि-पुष्य योगों को लक्ष्मी-प्राप्ति-योग के रूप में माना जाता है, आज के दिन सोना, चांदी, तथा अन्य धातुओं से निर्मित सामनों को खरीदकर उसे घर में पूजन अर्चन करने से स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति तो होती ही है साथ ही आगामी दीपावली पर्यन्त सुख, समृद्धि तथा व्यापार मे उन्नति होता है।
ज्योतिष की दृष्टि में रविपुष्य योग का महत्त्व :
मित्रों/ साथियों
इस वर्ष २०१६ में कुल रविपुष्य योग १४ हैं, परन्तु इनमें से१२ रवि-पुष्य बीत गया और १३हवां रविपुष्य योग है जो कार्तिक मांह के कृष्ण पक्ष के अष्टमी तिथि को पड़ने वाला यह रविपुष्य विशेष लाभप्रद है। आज ही के दिन "त्रिपुष्कर योग" भी है, साथ ही बुध के साथ, सूर्य-नीच की राशि तुला पर हैं वहीं बारहवें भाव में स्वतंत्र कन्या राशि के गुरू के होने कारण "अखण्ड-समृद्धि योग" बना रहे हैं।
   चौघड़िया का मुहूर्त : दुर्ग-भिलाई के लिये:-   
(  ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, जी के द्वारा मुहूर्त का समय शोधन करके प्रस्तुत किया गया है)
प्रात: ९:१५ मिनट से १०:४० तक (लाभ ),
प्रात: १०:४०मिनट से दोपहर १२:०५ मिनट तक(अमृत) ,
दोपहर १:२९ से २:५४ तक( शुभ),
सायंकाल: ७:०९ मिनट से ८:३३ मिनट तक(लाभ),
रात्रि ८: ३३ से ९:५७ तक (अमृत)
               लग्न मुहूर्त:
प्रात: ८:१२ मिनट से १०:२९ मिनट तक(वृश्चिक लग्न, स्थिर)
इन्हें रहेगा विशेष लाभकारी :-
शिक्षण संस्थान एवं स्वास्थ्य से संबंधित कारोबरियों के लिये विशेष शुभदायक।   
           
                    लग्न मुहूर्त:
दोपहर २:२२ मिनट से ३:५३ तक (कुम्भ लग्न, स्थिर)
इन्हे रहेगा विशेष लाभकारी:-
लोहा,ठिकेदारो, सिविल खनिज तथा मेटल के कारोबारियों के लिये विशेष शुभकारक।       

                    लग्न मुहूर्त :
सायंकाल ६:५८ से ८:५४ तक (वृषभ लग्न, स्थिर)
इन्हें रहेगा विशेष लाभकारी :-
आटो, केमिकल तथा बिल्डरों के लिये विशेष शुभकारक।   
  
                 वर्जित समय:
राहुकाल - दिन में ४ बजकर १९ मिनट से ५ बजकर ४४ मिनट तक राहुकाल ।                
यह रविपुष्य योग में द्विस्व तथा चर लग्नों में खरीददारी से परहेज करें। 
    -ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, रावण संहिता विशेषज्ञ एवं संपादक, "ज्योतिष का सूर्य" राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई, दुर्ग, मोबा. नं - ९८२७१९८८२८
नोट: इस आलेख को वगैर अनुमति प्रकाशित करना दण्डनीय अपराध है, कृपया पहले अनुमति लें फिर आप अपने समाचार पत्र,पत्रिकाओं तथा वेब पोर्टलों पर प्रकाशित कर सकते हैं!

सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

अचल रहे अहिवात तुम्हारा.जब लगि गंग यमुन जलधारा..करवा चौथ व्रत-विधान.......

अचल रहे अहिवात तुम्हारा...जब लगि गंग यमुन जलधारा...
करवा चौथ व्रत-विधान........

--ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, रावण संहिता विशेषज्ञ एवं संपादक -"ज्योतिष का सूर्य" राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.)

बहनों नमस्कार, करवा चौथ के पावन पुनीत अवसर पर आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएँ। एवं आपके अखण्ड सौभाग्य की कामना करते हुये..दक्षिणेश्वर हनुमान जी एवं मां बगलामुखी से प्रार्थना करता हुँ कि आप सभी भारतीय नारियों/बहनों/मातृवत्सलाओं आपका आँचल हमेशा किलकारियों भरा सुहाग से रंग से निरंतर रंगीन बना रहे......तो आईये सर्व प्रथम शुभ मुहूर्त के बारे में बताउंगा, जो बतौर ऑफिसीयल "ज्योतिष का सूर्य" राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के संपादक आदरणीय ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे जी द्वारा ग्रह-गणना कर परिशोधन व सिद्ध मुहूर्त निकाला गया है । साथ ही आगे करवा चौथ व्रत विधान, करवा चौथ पौराणिक महत्त्व आदि के बारे में आदरणीय पण्डित विनोद चौबे जी के द्वारा प्रस्तुत किया गया है.....
करवा चौथ पूजा मुहूर्त = १७:३३ से १८:४८
अवधि = १ घण्टा १५ मिनट
करवा चौथ के दिन चन्द्रोदय = ८:४५

चतुर्थी तिथि प्रारम्भ = १८/अक्टूबर/२०१६ को १०:४७ बजे रात्रि से आरमभ होकर  अगले दिन १९ को चतुर्थी तिथि समाप्त = १९/अक्टूबर/२०१६ को ०७:३२ बजे सायंकाल तक रहेगा।

टिप्पणी - २४ घण्टे की घड़ी Bhilai के स्थानीय समय के साथ और सभी मुहूर्त के समय के लिए डी.एस.टी समायोजित (यदि मान्य है)।
करवा चौथ व्रत का अन्य प्रांतों में निर्धारण:
करवा चौथ का व्रत कार्तिक हिन्दु माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के दौरान किया जाता है। अमांत पञ्चाङ्ग जिसका अनुसरण गुजरात, महाराष्ट्र, और दक्षिणी भारत में किया जाता है, के अनुसार करवा चौथ अश्विन माह में पड़ता है। हालाँकि यह केवल माह का नाम है जो इसे अलग-अलग करता है और सभी राज्यों में करवा चौथ एक ही दिन मनाया जाता है।
यदि आपकोलकोई संदेह हो तो व्रत से संबंधित कोई भी सवाल  mo. No. 9827198828 (Astro guru, Pandit Vinod Choubey) इस नंबर पर संपर्क करें। 
करवा चौथ का दिन और संकष्टी चतुर्थी, जो किभगवान गणेश के लिए उपवास करने का दिन होता है, एक ही समय होते हैं। विवाहित महिलाएँ पति की दीर्घ आयु के लिए करवा चौथ का व्रत और इसकी रस्मों को पूरी निष्ठा से करती हैं। विवाहित महिलाएँ भगवान शिव, माता पार्वती और कार्तिकेय के साथ-साथ भगवान गणेश की पूजा करती हैं और अपने व्रत को चन्द्रमा के दर्शन और उनको अर्घ अर्पण करने के बाद ही तोड़ती हैं। करवा चौथ का व्रत कठोर होता है और इसे अन्न और जल ग्रहण किये बिना ही सूर्योदय से रात में चन्द्रमा के दर्शन तक किया जाता है।
करवा चौथ के दिन को करक चतुर्थी के नाम से भी जाना जाता है। करवा या करक मिट्टी के पात्र को कहते हैं जिससे चन्द्रमा को जल अर्पण, जो कि अर्घ कहलाता है, किया जाता है। पूजा के दौरान करवा बहुत महत्वपूर्ण होता है और इसे ब्राह्मण या किसी योग्य महिला को दान में भी दिया जाता है।
करवा चौथ दक्षिण भारत की तुलना में उत्तरी भारत में ज्यादा प्रसिद्ध है। करवा चौथ के चार दिन बाद पुत्रों की दीर्घ आयु और समृद्धि के लिएअहोई अष्टमी व्रत किया जाता है।
--(लेखक ज्योतिष एवं वास्तु पर आधारीत राष्ट्रीय मासिक पत्रिका ''ज्योतिष का सूर्य'' के संपादक एवं धर्म-संस्कृति हेतु समर्पित धर्म-सचेतक हैं)

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

.......भावी मेट सकहीं त्रिपुरारी...दुर्भाग्य और दुर्भिक्ष दोनों को पलट सकतें हैं भगवान शिव तूल्य कष्ट से निजात पाने के लिये "महामृत्युञ्जय" के मृतसंजीवनी इन मंत्रों से साधना!

.......भावी मेट सकहीं त्रिपुरारी...दुर्भाग्य और दुर्भिक्ष दोनों को पलट सकतें हैं भगवान शिव
 तूल्य कष्ट से निजात पाने के लिये "महामृत्युञ्जय"  के मृतसंजीवनी इन मंत्रों से साधना!

महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है। यह मंत्र निम्न प्रकार से है-
एकाक्षरी(1) मंत्र- ‘ह्रौं’ ।
त्र्यक्षरी(3) मंत्र- ‘ॐ जूं सः’।
चतुराक्षरी(4) मंत्र- ‘ॐ वं जूं सः’।
नवाक्षरी(9) मंत्र- ‘ॐ जूं सः पालय पालय’।
दशाक्षरी(10) मंत्र- ‘ॐ जूं सः मां पालय पालय’।
(स्वयं के लिए इस मंत्र का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो ‘मां’ के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा)
वेदोक्त मंत्र-
महामृत्युंजय का वेदोक्त मंत्र निम्नलिखित है-
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॥
इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ’ लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे ‘त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठजी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता अर्थात्‌ शक्तियाँ निश्चित की हैं जो कि निम्नलिखित हैं।
इस मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है।
जन्मांक/हस्तरेखा के आधार पर मंत्रों का यदि सही निर्धारण किया जाय तो मनोकामना जल्द पूर्ण होने में सहायता मिलती है, यदि आपको इस संबंध में  विस्तृत जानकारी चाहिये तो आप ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, (ऱावण संहिता विशेषज्ञ एवं संपादक- "ज्योतिष का सूर्य " राष्ट्रीय मासिक पत्रिका,  हाऊस नं.१२९९, सड़क-२६, शांतिनगर, भिलाई, जिला-दुर्ग (छ.ग.) मोबाईल नं.9827198828
मंत्र विचार :
इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है। इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।
शब्द बोधक शब्द बोधक
‘त्र’ ध्रुव वसु ‘यम’ अध्वर वसु
‘ब’ सोम वसु ‘कम्‌’ वरुण
‘य’ वायु ‘ज’ अग्नि
‘म’ शक्ति ‘हे’ प्रभास
‘सु’ वीरभद्र ‘ग’ शम्भु
‘न्धिम’ गिरीश ‘पु’ अजैक
‘ष्टि’ अहिर्बुध्न्य ‘व’ पिनाक
‘र्ध’ भवानी पति ‘नम्‌’ कापाली
‘उ’ दिकपति ‘र्वा’ स्थाणु
‘रु’ भर्ग ‘क’ धाता
‘मि’ अर्यमा ‘व’ मित्रादित्य
‘ब’ वरुणादित्य ‘न्ध’ अंशु
‘नात’ भगादित्य ‘मृ’ विवस्वान
‘त्यो’ इंद्रादित्य ‘मु’ पूषादिव्य
‘क्षी’ पर्जन्यादिव्य ‘य’ त्वष्टा
‘मा’ विष्णुऽदिव्य ‘मृ’ प्रजापति
‘तात’ वषट
इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं। ये बोधक देवताओं के नाम हैं।
शब्द की शक्ति-
शब्द वही हैं और उनकी शक्ति निम्न प्रकार से है-
शब्द शक्ति शब्द शक्ति
‘त्र’ त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘म’ मंगल ‘ब’ बालार्क तेज
‘कं’ काली का कल्याणकारी बीज ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘जा’ जालंधरेश ‘म’ महाशक्ति
‘हे’ हाकिनो ‘सु’ सुगन्धि तथा सुर
‘गं’ गणपति का बीज ‘ध’ धूमावती का बीज
‘म’ महेश ‘पु’ पुण्डरीकाक्ष
‘ष्टि’ देह में स्थित षटकोण ‘व’ वाकिनी
‘र्ध’ धर्म ‘नं’ नंदी
‘उ’ उमा ‘र्वा’ शिव की बाईं शक्ति
‘रु’ रूप तथा आँसू ‘क’ कल्याणी
‘व’ वरुण ‘बं’ बंदी देवी
‘ध’ धंदा देवी ‘मृ’ मृत्युंजय
‘त्यो’ नित्येश ‘क्षी’ क्षेमंकरी
‘य’ यम तथा यज्ञ ‘मा’ माँग तथा मन्त्रेश
‘मृ’ मृत्युंजय ‘तात’ चरणों में स्पर्श
यह पूर्ण विवरण ‘देवो भूत्वा देवं यजेत’ के अनुसार पूर्णतः सत्य प्रमाणित हुआ है।
महामृत्युंजय के अलग-अलग मंत्र हैं। आप अपनी सुविधा के अनुसार जो भी मंत्र चाहें चुन लें और नित्य पाठ में या आवश्यकता के समय प्रयोग में लाएँ। मंत्र निम्नलिखित हैं-
तांत्रिक बीजोक्त मंत्र-ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ ॥
संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या-ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ।
महामृत्युंजय का प्रभावशाली मंत्र-ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥
महामृत्युंजय मंत्र जाप में सावधानियाँ
महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियाँ रखना चाहिए जिससे कि इसका संपूर्ण लाभ प्राप्त हो सके और किसी भी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न रहे।
अतः जप से पूर्व निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
1. जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें।
2. एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं।
3. मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें।
4. जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए।
5. रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें।
6. माला को गोमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गोमुखी से बाहर न निकालें।
7. जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है।
8. महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें।
9. जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें।
10. महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें।
11. जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए।
12. जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधरन भटकाएँ।
13. जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें।
14. मिथ्या बातें न करें।
15. जपकाल में स्त्री सेवन न करें।
16. जपकाल में मांसाहार त्याग दें।
कब करें महामृत्युंजय मंत्र जाप?
महामृत्युंजय मंत्र जपने से अकाल मृत्यु तो टलती ही है, आरोग्यता की भी प्राप्ति होती है। स्नान करते समय शरीर पर लोटे से पानी डालते वक्त इस मंत्र का जप करने से स्वास्थ्य-लाभ होता है।
दूध में निहारते हुए इस मंत्र का जप किया जाए और फिर वह दूध पी लिया जाए तो यौवन की सुरक्षा में भी सहायता मिलती है। साथ ही इस मंत्र का जप करने से बहुत सी बाधाएँ दूर होती हैं, अतः इस मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए। निम्नलिखित स्थितियों में इस मंत्र का जाप कराया जाता है-
(1) ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म, मास, गोचर और दशा, अंतर्दशा, स्थूलदशा आदि में ग्रहपीड़ा होने का योग है।
(2) किसी महारोग से कोई पीड़ित होने पर।
(3) जमीन-जायदाद के बँटबारे की संभावना हो।
(4) हैजा-प्लेग आदि महामारी से लोग मर रहे हों।
(5) राज्य या संपदा के जाने का अंदेशा हो।
(6) धन-हानि हो रही हो।
(7) मेलापक में नाड़ीदोष, षडाष्टक आदि आता हो।
(8) राजभय हो।
(9) मन धार्मिक कार्यों से विमुख हो गया हो।
(10) राष्ट्र का विभाजन हो गया हो।
(11) मनुष्यों में परस्पर घोर क्लेश हो रहा हो।
(12) त्रिदोषवश रोग हो रहे हों।
महामृत्युंजय जप मंत्र
महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। यहाँ हमने आपकी सुविधा के लिए संस्कृत में जप विधि, विभिन्न यंत्र-मंत्र, जप में सावधानियाँ, स्तोत्र आदि उपलब्ध कराए हैं। इस प्रकार आप यहाँ इस अद्‍भुत जप के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
महामृत्युंजय जपविधि – (मूल संस्कृत में)
कृतनित्यक्रियो जपकर्ता स्वासने पांगमुख उदहमुखो वा उपविश्य धृतरुद्राक्षभस्मत्रिपुण्ड्रः । आचम्य । प्राणानायाम्य। देशकालौ संकीर्त्य मम वा यज्ञमानस्य अमुक कामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजय मंत्रस्य अमुक संख्यापरिमितं जपमहंकरिष्ये वा कारयिष्ये।
॥ इति प्रात्यहिकसंकल्पः॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॐ गुरवे नमः।
ॐ गणपतये नमः। ॐ इष्टदेवतायै नमः।
इति नत्वा यथोक्तविधिना भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कुर्यात्‌।
भूतशुद्धिः
विनियोगः
ॐ तत्सदद्येत्यादि मम अमुक प्रयोगसिद्धयर्थ भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च करिष्ये। ॐ आधारशक्ति कमलासनायनमः। इत्यासनं सम्पूज्य। पृथ्वीति मंत्रस्य। मेरुपृष्ठ ऋषि;, सुतलं छंदः कूर्मो देवता, आसने विनियोगः।
आसनः
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय माँ देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌।
गन्धपुष्पादिना पृथ्वीं सम्पूज्य कमलासने भूतशुद्धिं कुर्यात्‌।
अन्यत्र कामनाभेदेन। अन्यासनेऽपि कुर्यात्‌।
पादादिजानुपर्यंतं पृथ्वीस्थानं तच्चतुरस्त्रं पीतवर्ण ब्रह्मदैवतं वमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। जान्वादिना भिपर्यन्तमसत्स्थानं तच्चार्द्धचंद्राकारं शुक्लवर्ण पद्मलांछितं विष्णुदैवतं लमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌।
नाभ्यादिकंठपर्यन्तमग्निस्थानं त्रिकोणाकारं रक्तवर्ण स्वस्तिकलान्छितं रुद्रदैवतं रमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। कण्ठादि भूपर्यन्तं वायुस्थानं षट्कोणाकारं षड्बिंदुलान्छितं कृष्णवर्णमीश्वर दैवतं यमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। भूमध्यादिब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त माकाशस्थानं वृत्ताकारं ध्वजलांछितं सदाशिवदैवतं हमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। एवं स्वशरीरे पंचमहाभूतानि ध्यात्वा प्रविलापनं कुर्यात्‌। यद्यथा-पृथ्वीमप्सु। अपोऽग्नौअग्निवायौ वायुमाकाशे। आकाशं तन्मात्राऽहंकारमहदात्मिकायाँ मातृकासंज्ञक शब्द ब्रह्मस्वरूपायो हृल्लेखार्द्धभूतायाँ प्रकृत्ति मायायाँ प्रविलापयामि, तथा त्रिवियाँ मायाँ च नित्यशुद्ध बुद्धमुक्तस्वभावे स्वात्मप्रकाश रूपसत्यज्ञानाँनन्तानन्दलक्षणे परकारणे परमार्थभूते परब्रह्मणि प्रविलापयामि।तच्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सच्चिदानन्दस्वरूपं परिपूर्ण ब्रह्मैवाहमस्मीति भावयेत्‌। एवं ध्यात्वा यथोक्तस्वरूपात्‌ ॐ कारात्मककात्‌ परब्रह्मणः सकाशात्‌ हृल्लेखार्द्धभूता सर्वमंत्रमयी मातृकासंज्ञिका शब्द ब्रह्मात्मिका महद्हंकारादिप-न्चतन्मात्रादिसमस्त प्रपंचकारणभूता प्रकृतिरूपा माया रज्जुसर्पवत्‌ विवर्त्तरूपेण प्रादुर्भूता इति ध्यात्वा। तस्या मायायाः सकाशात्‌ आकाशमुत्पन्नम्‌, आकाशाद्वासु;, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अदभ्यः पृथ्वी समजायत इति ध्यात्वा। तेभ्यः पंचमहाभूतेभ्यः सकाशात्‌ स्वशरीरं तेजः पुंजात्मकं पुरुषार्थसाधनदेवयोग्यमुत्पन्नमिति ध्यात्वा। तस्मिन्‌ देहे सर्वात्मकं सर्वज्ञं सर्वशक्तिसंयुक्त समस्तदेवतामयं सच्चिदानंदस्वरूपं ब्रह्मात्मरूपेणानुप्रविष्टमिति भावयेत्‌ ॥
॥ इति भूतशुद्धिः ॥
अथ प्राण-प्रतिष्ठा
विनियोगःअस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामंत्रस्य ब्रह्माविष्णुरुद्रा ऋषयः ऋग्यजुः सामानि छन्दांसि, परा प्राणशक्तिर्देवता, ॐ बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, क्रौं कीलकं प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः।
डं. कं खं गं घं नमो वाय्वग्निजलभूम्यात्मने हृदयाय नमः।
ञं चं छं जं झं शब्द स्पर्श रूपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा।
णं टं ठं डं ढं श्रीत्रत्वड़ नयनजिह्वाघ्राणात्मने शिखायै वषट्।
नं तं थं धं दं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम्‌।
मं पं फं भं बं वक्तव्यादानगमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।
शं यं रं लं हं षं क्षं सं बुद्धिमानाऽहंकार-चित्तात्मने अस्राय फट्।
एवं करन्यासं कृत्वा ततो नाभितः पादपर्यन्तम्‌ आँ नमः।
हृदयतो नाभिपर्यन्तं ह्रीं नमः।
मूर्द्धा द्विहृदयपर्यन्तं क्रौं नमः।
ततो हृदयकमले न्यसेत्‌।
यं त्वगात्मने नमः वायुकोणे।
रं रक्तात्मने नमः अग्निकोणे।
लं मांसात्मने नमः पूर्वे ।
वं मेदसात्मने नमः पश्चिमे ।
शं अस्थ्यात्मने नमः नैऋत्ये।
ओंषं शुक्रात्मने नमः उत्तरे।
सं प्राणात्मने नमः दक्षिणे।
हे जीवात्मने नमः मध्ये एवं हदयकमले।
अथ ध्यानम्‌रक्ताम्भास्थिपोतोल्लसदरुणसरोजाङ घ्रिरूढा कराब्जैः
पाशं कोदण्डमिक्षूदभवमथगुणमप्यड़ कुशं पंचबाणान्‌।
विभ्राणसृक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरुहाढया
देवी बालार्कवणां भवतुशु भकरो प्राणशक्तिः परा नः ॥
॥ इति प्राण-प्रतिष्ठा ॥जप‍
अथ महामृत्युंजय जपविधि
संकल्प
तत्र संध्योपासनादिनित्यकर्मानन्तरं भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कृत्वा प्रतिज्ञासंकल्प कुर्यात ॐ तत्सदद्येत्यादि सर्वमुच्चार्य मासोत्तमे मासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रो अमुकशर्मा/वर्मा/गुप्ता मम शरीरे ज्वरादि-रोगनिवृत्तिपूर्वकमायुरारोग्यलाभार्थं वा धनपुत्रयश सौख्यादिकिकामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजयदेव प्रीमिकामनया यथासंख्यापरिमितं महामृत्युंजयजपमहं करिष्ये।
विनियोग
अस्य श्री महामृत्युंजयमंत्रस्य वशिष्ठ ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः श्री त्र्यम्बकरुद्रो देवता, श्री बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, मम अनीष्ठसहूयिर्थे जपे विनियोगः।
अथ यष्यादिन्यासः
ॐ वसिष्ठऋषये नमः शिरसि।
अनुष्ठुछन्दसे नमो मुखे।
श्री त्र्यम्बकरुद्र देवतायै नमो हृदि।
श्री बीजाय नमोगुह्ये।
ह्रीं शक्तये नमोः पादयोः।
॥ इति यष्यादिन्यासः ॥
अथ करन्यासः
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्रायं शूलपाणये स्वाहा अंगुष्ठाभ्यं नमः।
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय तर्जनीभ्याँ नमः।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ओं नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने स्वाहा मध्यामाभ्याँ वषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय हां ह्रीं अनामिकाभ्याँ हुम्‌।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुः साममन्त्राय कनिष्ठिकाभ्याँ वौषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृताम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्निवयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघारास्त्राय करतलकरपृष्ठाभ्याँ फट् ।
॥ इति करन्यासः ॥
अथांगन्यासः
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः।
ॐ ह्रौं ओं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय शिरसे स्वाहा।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय चंद्रशिरसे जटिने स्वाहा शिखायै वषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरांतकाय ह्रां ह्रां कवचाय हुम्‌।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्यार्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजु साममंत्रयाय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृतात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघोरास्त्राय फट्।
॥ इत्यंगन्यासः ॥
अथाक्षरन्यासः
त्र्यं नमः दक्षिणचरणाग्रे।
बं नमः,
कं नमः,
यं नमः,
जां नमः दक्षिणचरणसन्धिचतुष्केषु ।
मं नमः वामचरणाग्रे ।
हें नमः,
सुं नमः,
गं नमः,
धिं नम, वामचरणसन्धिचतुष्केषु ।
पुं नमः, गुह्ये।
ष्टिं नमः, आधारे।
वं नमः, जठरे।
र्द्धं नमः, हृदये।
नं नमः, कण्ठे।
उं नमः, दक्षिणकराग्रे।
वां नमः,
रुं नमः,
कं नमः,
मिं नमः, दक्षिणकरसन्धिचतुष्केषु।
वं नमः, बामकराग्रे।
बं नमः,
धं नमः,
नां नमः,
मृं नमः वामकरसन्धिचतुष्केषु।
त्यों नमः, वदने।
मुं नमः, ओष्ठयोः।
क्षीं नमः, घ्राणयोः।
यं नमः, दृशोः।
माँ नमः श्रवणयोः ।
मृं नमः भ्रवोः ।
तां नमः, शिरसि।
॥ इत्यक्षरन्यास ॥
अथ पदन्यासः
त्र्यम्बकं शरसि।
यजामहे भ्रुवोः।
सुगन्धिं दृशोः ।
पुष्टिवर्धनं मुखे।
उर्वारुकं कण्ठे।
मिव हृदये।
बन्धनात्‌ उदरे।
मृत्योः गुह्ये ।
मुक्षय उर्वों: ।
माँ जान्वोः ।
अमृतात्‌ पादयोः।
॥ इति पदन्यास ॥
मृत्युंजयध्यानम्‌
हस्ताभ्याँ कलशद्वयामृतसैराप्लावयन्तं शिरो,
द्वाभ्याँ तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्याँ वहन्तं परम्‌ ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकांतं शिवं,
स्वच्छाम्भोगतं नवेन्दुमुकुटाभातं त्रिनेत्रभजे ॥
मृत्युंजय महादेव त्राहि माँ शरणागतम्‌,
जन्ममृत्युजरारोगैः पीड़ित कर्मबन्धनैः ॥
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड,
इति विज्ञाप्य देवेशं जपेन्मृत्युंजय मनुम्‌ ॥
अथ बृहन्मन्त्रः
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूः भुवः स्वः। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्‌। उर्व्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌। स्वः भुवः भू ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥
समर्पण
एतद यथासंख्यं जपित्वा पुनर्न्यासं कृत्वा जपं भगन्महामृत्युंजयदेवताय समर्पयेत।
गुह्यातिगुह्यगोपता त्व गृहाणास्मत्कृतं जपम्‌।
सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर!!

(लेखक ज्योतिष एवं वास्तु पर आधारीत राष्ट्रीय मासिक पत्रिका ''ज्योतिष का सूर्य'' के संपादक एवं धर्म-संस्कृति के लिए समर्पित धर्म-सचेतक हैं)

.......भाभी मेट सकहीं त्रिपुरारी...दुर्भाग्य और दुर्भिक्ष दोनों को पलट सकतें हैं भगवान शिव
 तूल्य कष्ट से निजात पाने के लिये "महामृत्युञ्जय"  के मृतसंजीवनी इन मंत्रों से साधना!
महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है। यह मंत्र निम्न प्रकार से है-
एकाक्षरी(1) मंत्र- ‘ह्रौं’ ।
त्र्यक्षरी(3) मंत्र- ‘ॐ जूं सः’।
चतुराक्षरी(4) मंत्र- ‘ॐ वं जूं सः’।
नवाक्षरी(9) मंत्र- ‘ॐ जूं सः पालय पालय’।
दशाक्षरी(10) मंत्र- ‘ॐ जूं सः मां पालय पालय’।
(स्वयं के लिए इस मंत्र का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो ‘मां’ के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा)
वेदोक्त मंत्र-
महामृत्युंजय का वेदोक्त मंत्र निम्नलिखित है-
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॥
इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ’ लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे ‘त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठजी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता अर्थात्‌ शक्तियाँ निश्चित की हैं जो कि निम्नलिखित हैं।
इस मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है।
जन्मांक/हस्तरेखा के आधार पर मंत्रों का यदि सही निर्धारण किया जाय तो मनोकामना जल्द पूर्ण होने में सहायता मिलती है, यदि आपको इस संबंध में  विस्तृत जानकारी चाहिये तो आप ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, (ऱावण संहिता विशेषज्ञ एवं संपादक- "ज्योतिष का सूर्य " राष्ट्रीय मासिक पत्रिका,  हाऊस नं.१२९९, सड़क-२६, शांतिनगर, भिलाई, जिला-दुर्ग (छ.ग.) मोबाईल नं.9827198828
मंत्र विचार :
इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है। इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।
शब्द बोधक शब्द बोधक
‘त्र’ ध्रुव वसु ‘यम’ अध्वर वसु
‘ब’ सोम वसु ‘कम्‌’ वरुण
‘य’ वायु ‘ज’ अग्नि
‘म’ शक्ति ‘हे’ प्रभास
‘सु’ वीरभद्र ‘ग’ शम्भु
‘न्धिम’ गिरीश ‘पु’ अजैक
‘ष्टि’ अहिर्बुध्न्य ‘व’ पिनाक
‘र्ध’ भवानी पति ‘नम्‌’ कापाली
‘उ’ दिकपति ‘र्वा’ स्थाणु
‘रु’ भर्ग ‘क’ धाता
‘मि’ अर्यमा ‘व’ मित्रादित्य
‘ब’ वरुणादित्य ‘न्ध’ अंशु
‘नात’ भगादित्य ‘मृ’ विवस्वान
‘त्यो’ इंद्रादित्य ‘मु’ पूषादिव्य
‘क्षी’ पर्जन्यादिव्य ‘य’ त्वष्टा
‘मा’ विष्णुऽदिव्य ‘मृ’ प्रजापति
‘तात’ वषट
इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं। ये बोधक देवताओं के नाम हैं।
शब्द की शक्ति-
शब्द वही हैं और उनकी शक्ति निम्न प्रकार से है-
शब्द शक्ति शब्द शक्ति
‘त्र’ त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘म’ मंगल ‘ब’ बालार्क तेज
‘कं’ काली का कल्याणकारी बीज ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘जा’ जालंधरेश ‘म’ महाशक्ति
‘हे’ हाकिनो ‘सु’ सुगन्धि तथा सुर
‘गं’ गणपति का बीज ‘ध’ धूमावती का बीज
‘म’ महेश ‘पु’ पुण्डरीकाक्ष
‘ष्टि’ देह में स्थित षटकोण ‘व’ वाकिनी
‘र्ध’ धर्म ‘नं’ नंदी
‘उ’ उमा ‘र्वा’ शिव की बाईं शक्ति
‘रु’ रूप तथा आँसू ‘क’ कल्याणी
‘व’ वरुण ‘बं’ बंदी देवी
‘ध’ धंदा देवी ‘मृ’ मृत्युंजय
‘त्यो’ नित्येश ‘क्षी’ क्षेमंकरी
‘य’ यम तथा यज्ञ ‘मा’ माँग तथा मन्त्रेश
‘मृ’ मृत्युंजय ‘तात’ चरणों में स्पर्श
यह पूर्ण विवरण ‘देवो भूत्वा देवं यजेत’ के अनुसार पूर्णतः सत्य प्रमाणित हुआ है।
महामृत्युंजय के अलग-अलग मंत्र हैं। आप अपनी सुविधा के अनुसार जो भी मंत्र चाहें चुन लें और नित्य पाठ में या आवश्यकता के समय प्रयोग में लाएँ। मंत्र निम्नलिखित हैं-
तांत्रिक बीजोक्त मंत्र-ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ ॥
संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या-ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ।
महामृत्युंजय का प्रभावशाली मंत्र-ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥
महामृत्युंजय मंत्र जाप में सावधानियाँ
महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियाँ रखना चाहिए जिससे कि इसका संपूर्ण लाभ प्राप्त हो सके और किसी भी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न रहे।
अतः जप से पूर्व निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
1. जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें।
2. एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं।
3. मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें।
4. जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए।
5. रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें।
6. माला को गोमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गोमुखी से बाहर न निकालें।
7. जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है।
8. महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें।
9. जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें।
10. महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें।
11. जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए।
12. जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधरन भटकाएँ।
13. जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें।
14. मिथ्या बातें न करें।
15. जपकाल में स्त्री सेवन न करें।
16. जपकाल में मांसाहार त्याग दें।
कब करें महामृत्युंजय मंत्र जाप?
महामृत्युंजय मंत्र जपने से अकाल मृत्यु तो टलती ही है, आरोग्यता की भी प्राप्ति होती है। स्नान करते समय शरीर पर लोटे से पानी डालते वक्त इस मंत्र का जप करने से स्वास्थ्य-लाभ होता है।
दूध में निहारते हुए इस मंत्र का जप किया जाए और फिर वह दूध पी लिया जाए तो यौवन की सुरक्षा में भी सहायता मिलती है। साथ ही इस मंत्र का जप करने से बहुत सी बाधाएँ दूर होती हैं, अतः इस मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए। निम्नलिखित स्थितियों में इस मंत्र का जाप कराया जाता है-
(1) ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म, मास, गोचर और दशा, अंतर्दशा, स्थूलदशा आदि में ग्रहपीड़ा होने का योग है।
(2) किसी महारोग से कोई पीड़ित होने पर।
(3) जमीन-जायदाद के बँटबारे की संभावना हो।
(4) हैजा-प्लेग आदि महामारी से लोग मर रहे हों।
(5) राज्य या संपदा के जाने का अंदेशा हो।
(6) धन-हानि हो रही हो।
(7) मेलापक में नाड़ीदोष, षडाष्टक आदि आता हो।
(8) राजभय हो।
(9) मन धार्मिक कार्यों से विमुख हो गया हो।
(10) राष्ट्र का विभाजन हो गया हो।
(11) मनुष्यों में परस्पर घोर क्लेश हो रहा हो।
(12) त्रिदोषवश रोग हो रहे हों।
महामृत्युंजय जप मंत्र
महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। यहाँ हमने आपकी सुविधा के लिए संस्कृत में जप विधि, विभिन्न यंत्र-मंत्र, जप में सावधानियाँ, स्तोत्र आदि उपलब्ध कराए हैं। इस प्रकार आप यहाँ इस अद्‍भुत जप के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
महामृत्युंजय जपविधि – (मूल संस्कृत में)
कृतनित्यक्रियो जपकर्ता स्वासने पांगमुख उदहमुखो वा उपविश्य धृतरुद्राक्षभस्मत्रिपुण्ड्रः । आचम्य । प्राणानायाम्य। देशकालौ संकीर्त्य मम वा यज्ञमानस्य अमुक कामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजय मंत्रस्य अमुक संख्यापरिमितं जपमहंकरिष्ये वा कारयिष्ये।
॥ इति प्रात्यहिकसंकल्पः॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॐ गुरवे नमः।
ॐ गणपतये नमः। ॐ इष्टदेवतायै नमः।
इति नत्वा यथोक्तविधिना भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कुर्यात्‌।
भूतशुद्धिः
विनियोगः
ॐ तत्सदद्येत्यादि मम अमुक प्रयोगसिद्धयर्थ भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च करिष्ये। ॐ आधारशक्ति कमलासनायनमः। इत्यासनं सम्पूज्य। पृथ्वीति मंत्रस्य। मेरुपृष्ठ ऋषि;, सुतलं छंदः कूर्मो देवता, आसने विनियोगः।
आसनः
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय माँ देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌।
गन्धपुष्पादिना पृथ्वीं सम्पूज्य कमलासने भूतशुद्धिं कुर्यात्‌।
अन्यत्र कामनाभेदेन। अन्यासनेऽपि कुर्यात्‌।
पादादिजानुपर्यंतं पृथ्वीस्थानं तच्चतुरस्त्रं पीतवर्ण ब्रह्मदैवतं वमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। जान्वादिना भिपर्यन्तमसत्स्थानं तच्चार्द्धचंद्राकारं शुक्लवर्ण पद्मलांछितं विष्णुदैवतं लमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌।
नाभ्यादिकंठपर्यन्तमग्निस्थानं त्रिकोणाकारं रक्तवर्ण स्वस्तिकलान्छितं रुद्रदैवतं रमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। कण्ठादि भूपर्यन्तं वायुस्थानं षट्कोणाकारं षड्बिंदुलान्छितं कृष्णवर्णमीश्वर दैवतं यमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। भूमध्यादिब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त माकाशस्थानं वृत्ताकारं ध्वजलांछितं सदाशिवदैवतं हमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। एवं स्वशरीरे पंचमहाभूतानि ध्यात्वा प्रविलापनं कुर्यात्‌। यद्यथा-पृथ्वीमप्सु। अपोऽग्नौअग्निवायौ वायुमाकाशे। आकाशं तन्मात्राऽहंकारमहदात्मिकायाँ मातृकासंज्ञक शब्द ब्रह्मस्वरूपायो हृल्लेखार्द्धभूतायाँ प्रकृत्ति मायायाँ प्रविलापयामि, तथा त्रिवियाँ मायाँ च नित्यशुद्ध बुद्धमुक्तस्वभावे स्वात्मप्रकाश रूपसत्यज्ञानाँनन्तानन्दलक्षणे परकारणे परमार्थभूते परब्रह्मणि प्रविलापयामि।तच्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सच्चिदानन्दस्वरूपं परिपूर्ण ब्रह्मैवाहमस्मीति भावयेत्‌। एवं ध्यात्वा यथोक्तस्वरूपात्‌ ॐ कारात्मककात्‌ परब्रह्मणः सकाशात्‌ हृल्लेखार्द्धभूता सर्वमंत्रमयी मातृकासंज्ञिका शब्द ब्रह्मात्मिका महद्हंकारादिप-न्चतन्मात्रादिसमस्त प्रपंचकारणभूता प्रकृतिरूपा माया रज्जुसर्पवत्‌ विवर्त्तरूपेण प्रादुर्भूता इति ध्यात्वा। तस्या मायायाः सकाशात्‌ आकाशमुत्पन्नम्‌, आकाशाद्वासु;, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अदभ्यः पृथ्वी समजायत इति ध्यात्वा। तेभ्यः पंचमहाभूतेभ्यः सकाशात्‌ स्वशरीरं तेजः पुंजात्मकं पुरुषार्थसाधनदेवयोग्यमुत्पन्नमिति ध्यात्वा। तस्मिन्‌ देहे सर्वात्मकं सर्वज्ञं सर्वशक्तिसंयुक्त समस्तदेवतामयं सच्चिदानंदस्वरूपं ब्रह्मात्मरूपेणानुप्रविष्टमिति भावयेत्‌ ॥
॥ इति भूतशुद्धिः ॥
अथ प्राण-प्रतिष्ठा
विनियोगःअस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामंत्रस्य ब्रह्माविष्णुरुद्रा ऋषयः ऋग्यजुः सामानि छन्दांसि, परा प्राणशक्तिर्देवता, ॐ बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, क्रौं कीलकं प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः।
डं. कं खं गं घं नमो वाय्वग्निजलभूम्यात्मने हृदयाय नमः।
ञं चं छं जं झं शब्द स्पर्श रूपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा।
णं टं ठं डं ढं श्रीत्रत्वड़ नयनजिह्वाघ्राणात्मने शिखायै वषट्।
नं तं थं धं दं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम्‌।
मं पं फं भं बं वक्तव्यादानगमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।
शं यं रं लं हं षं क्षं सं बुद्धिमानाऽहंकार-चित्तात्मने अस्राय फट्।
एवं करन्यासं कृत्वा ततो नाभितः पादपर्यन्तम्‌ आँ नमः।
हृदयतो नाभिपर्यन्तं ह्रीं नमः।
मूर्द्धा द्विहृदयपर्यन्तं क्रौं नमः।
ततो हृदयकमले न्यसेत्‌।
यं त्वगात्मने नमः वायुकोणे।
रं रक्तात्मने नमः अग्निकोणे।
लं मांसात्मने नमः पूर्वे ।
वं मेदसात्मने नमः पश्चिमे ।
शं अस्थ्यात्मने नमः नैऋत्ये।
ओंषं शुक्रात्मने नमः उत्तरे।
सं प्राणात्मने नमः दक्षिणे।
हे जीवात्मने नमः मध्ये एवं हदयकमले।
अथ ध्यानम्‌रक्ताम्भास्थिपोतोल्लसदरुणसरोजाङ घ्रिरूढा कराब्जैः
पाशं कोदण्डमिक्षूदभवमथगुणमप्यड़ कुशं पंचबाणान्‌।
विभ्राणसृक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरुहाढया
देवी बालार्कवणां भवतुशु भकरो प्राणशक्तिः परा नः ॥
॥ इति प्राण-प्रतिष्ठा ॥जप‍
अथ महामृत्युंजय जपविधि
संकल्प
तत्र संध्योपासनादिनित्यकर्मानन्तरं भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कृत्वा प्रतिज्ञासंकल्प कुर्यात ॐ तत्सदद्येत्यादि सर्वमुच्चार्य मासोत्तमे मासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रो अमुकशर्मा/वर्मा/गुप्ता मम शरीरे ज्वरादि-रोगनिवृत्तिपूर्वकमायुरारोग्यलाभार्थं वा धनपुत्रयश सौख्यादिकिकामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजयदेव प्रीमिकामनया यथासंख्यापरिमितं महामृत्युंजयजपमहं करिष्ये।
विनियोग
अस्य श्री महामृत्युंजयमंत्रस्य वशिष्ठ ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः श्री त्र्यम्बकरुद्रो देवता, श्री बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, मम अनीष्ठसहूयिर्थे जपे विनियोगः।
अथ यष्यादिन्यासः
ॐ वसिष्ठऋषये नमः शिरसि।
अनुष्ठुछन्दसे नमो मुखे।
श्री त्र्यम्बकरुद्र देवतायै नमो हृदि।
श्री बीजाय नमोगुह्ये।
ह्रीं शक्तये नमोः पादयोः।
॥ इति यष्यादिन्यासः ॥
अथ करन्यासः
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्रायं शूलपाणये स्वाहा अंगुष्ठाभ्यं नमः।
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय तर्जनीभ्याँ नमः।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ओं नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने स्वाहा मध्यामाभ्याँ वषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय हां ह्रीं अनामिकाभ्याँ हुम्‌।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुः साममन्त्राय कनिष्ठिकाभ्याँ वौषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृताम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्निवयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघारास्त्राय करतलकरपृष्ठाभ्याँ फट् ।
॥ इति करन्यासः ॥
अथांगन्यासः
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः।
ॐ ह्रौं ओं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय शिरसे स्वाहा।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय चंद्रशिरसे जटिने स्वाहा शिखायै वषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरांतकाय ह्रां ह्रां कवचाय हुम्‌।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्यार्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजु साममंत्रयाय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृतात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघोरास्त्राय फट्।
॥ इत्यंगन्यासः ॥
अथाक्षरन्यासः
त्र्यं नमः दक्षिणचरणाग्रे।
बं नमः,
कं नमः,
यं नमः,
जां नमः दक्षिणचरणसन्धिचतुष्केषु ।
मं नमः वामचरणाग्रे ।
हें नमः,
सुं नमः,
गं नमः,
धिं नम, वामचरणसन्धिचतुष्केषु ।
पुं नमः, गुह्ये।
ष्टिं नमः, आधारे।
वं नमः, जठरे।
र्द्धं नमः, हृदये।
नं नमः, कण्ठे।
उं नमः, दक्षिणकराग्रे।
वां नमः,
रुं नमः,
कं नमः,
मिं नमः, दक्षिणकरसन्धिचतुष्केषु।
वं नमः, बामकराग्रे।
बं नमः,
धं नमः,
नां नमः,
मृं नमः वामकरसन्धिचतुष्केषु।
त्यों नमः, वदने।
मुं नमः, ओष्ठयोः।
क्षीं नमः, घ्राणयोः।
यं नमः, दृशोः।
माँ नमः श्रवणयोः ।
मृं नमः भ्रवोः ।
तां नमः, शिरसि।
॥ इत्यक्षरन्यास ॥
अथ पदन्यासः
त्र्यम्बकं शरसि।
यजामहे भ्रुवोः।
सुगन्धिं दृशोः ।
पुष्टिवर्धनं मुखे।
उर्वारुकं कण्ठे।
मिव हृदये।
बन्धनात्‌ उदरे।
मृत्योः गुह्ये ।
मुक्षय उर्वों: ।
माँ जान्वोः ।
अमृतात्‌ पादयोः।
॥ इति पदन्यास ॥
मृत्युंजयध्यानम्‌
हस्ताभ्याँ कलशद्वयामृतसैराप्लावयन्तं शिरो,
द्वाभ्याँ तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्याँ वहन्तं परम्‌ ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकांतं शिवं,
स्वच्छाम्भोगतं नवेन्दुमुकुटाभातं त्रिनेत्रभजे ॥
मृत्युंजय महादेव त्राहि माँ शरणागतम्‌,
जन्ममृत्युजरारोगैः पीड़ित कर्मबन्धनैः ॥
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड,
इति विज्ञाप्य देवेशं जपेन्मृत्युंजय मनुम्‌ ॥
अथ बृहन्मन्त्रः
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूः भुवः स्वः। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्‌। उर्व्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌। स्वः भुवः भू ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥
समर्पण
एतद यथासंख्यं जपित्वा पुनर्न्यासं कृत्वा जपं भगन्महामृत्युंजयदेवताय समर्पयेत।
गुह्यातिगुह्यगोपता त्व गृहाणास्मत्कृतं जपम्‌।
सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर!!

(लेखक ज्योतिष एवं वास्तु पर आधारीत राष्ट्रीय मासिक पत्रिका ''ज्योतिष का सूर्य'' के संपादक एवं धर्म-संस्कृति के लिए समर्पित धर्म-सचेतक हैं)

शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

जन्मकुंडली के मुख्य कारक ग्रह ही कुंडली के प्रेसिडेंट होते हैं.........


विशेष सूचना: साथियों पांच वर्ष पहले दिनांक शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011 को "ज्योतिष का सूर्य " राष्ट्रीय मासिक पत्रिका में प्रकाशित एवं वेब पोर्टल के इस लिंक पर संग्रहित किया गया है। 
http://panditvinodchoubey.blogspot.in/2011/10/blog-post_21.html?m=1
मुझे लगा कि एक बार नये एवं पुराने साथियों के अवलोकनार्थ आपके समक्ष रखूँ ताकि इस परा विद्या से आपको मदद मिल सके.
जन्मकुंडली के मुख्य कारक ग्रह ही कुंडली के प्रेसिडेंट होते हैं।
आपका करियर और आपकी कुंडली
--ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे-09827198828
किसी शायर ने कहा है कि तरक्कीयों के दौर में उसी का तरीका चल गया, बनाके अपना रास्ता जो भीड़ से आगे निकल गया। यानी सवा सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में अपनी मेहनत के बल पर पहचान बनाना आसान काम नहीं है। किंतु कर्म और भाग्य का सही तालमेल बैठ जाये तो सब कुछ संभव है। जीवन की यात्रा में मार्ग वही चुनें जो आपके स्वभाव के अनुसार हो। जहां आपको लगे कि यह काम मैं इस क्षेत्र में बेहतर कर सकता हूं, उसी कार्य को करें। अब आपके मन में प्रश्न उठ रहा होगा कि हमें कैसे पता कि किस क्षेत्र में हमें कामयाबी मिलेगी और क्या काम हमारे लिये बेहतर रहेगा। आपको जानकर खुशी होगी कि इसका सीधा जवाब ज्योतिष विज्ञान के पास है। आप स्वयं ही अपनी कुंडली के ग्रहों के आधार पर अपने करियर का चुनाव कर सकते हैं, अथवा किसी ज्योतिषी को अपनी कुंडली दिखाकर उनसे सलाह ले सकते हैं। ऐसे ही अंतर्मन में उठ रहे कुछ सवालों के जवाब इस आलेख
http://ptvinodchoubey.blogspot.com/ में देने का प्रयास कर रहा हूं।
सामान्यत: वैदिक ग्रंथों के अनुसार सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरू और शनि इन सात ग्रहों का अपना अलग-अलग क्षेत्र और प्रभाव है। लेकिन, जब इन ग्रहों का आपसी योग बनता है तो क्षेत्र और प्रभाव बदल जाते हैं। इन ग्रहों के साथ राहु और केतु मिल जाये, तो कार्य में बाधा उत्पन्न करते हैं। व्यवहारिक भाशा में कहें तो टांग अड़ाते हैं। जन्मकुंडली के मुख्य कारक ग्रह ही कुंडली के प्रेसिडेंट होते हैं। यानी जो भी कुछ होगा वह उन ग्रहों की देखरेख में होगा, अत: यह ध्यान में जरूर रखें कि इस कुंडली में कारक ग्रह कौन से हैं। अगर कारक ग्रह कमजोर हैं या अस्त है, वृद्धावस्था में हैं तो उसके बाद वाले ग्रहों का असर आरंभ हो जायेगा। मंगल, शुक्र और सूर्य, शनि करियर की दशा तय करते हैं। बुध और गुरु उस क्षेत्र की बुद्धि और शिक्षा प्रदान करते हैं। यद्यपि क्षेत्र इनका भी निश्चित है, लेकिन इन पर जिम्मेदारियां ज्यादा रहती हैं। इसलिये कुंडली में इनकी शक्ति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आज हम किसी एक या दो ग्रहों के करियर पर प्रभाव की चर्चा करेंगे। जन्मकुंडली में वैसे तो सभी बारह भाव एक दूसरे को पूरक हैं, किंतु पराक्रम, ज्ञान, कर्म और लाभ इनमें महत्?वपूर्ण है। इसके साथ ही इन सभी भावों का प्रभाव नवम भाग्य भाव से तय होता है। अत: यह परम भाव है।
सूर्य और मंगल यानी सोच और साहस के परम शुभ ग्रह माने गये हैं। सूर्य को कुंडली की आत्मा कहा गया है। और शोधपरक, आविष्कारक, रचनात्मक क्षेत्र से संबंधित कार्यों में इनका खास दखल रहता है। मशीनरी अथवा वैज्ञानिक कार्यों की सफलता सूर्यदेव के बगैर संभव ही नहीं है। जब यही  सूक्ष्म कार्य मानव शरीर से जुड़ जाता है तो शुक्र का रोल आरंभ हो जाता है, क्योंकि मेंडिकल एस्ट्रोजॉली में शुक्र तंत्रिका तंत्र विज्ञान के कारक हैं। यानी शुक्र को न्यूरोलॉजी और गुप्त रोग का ज्ञान देने वाला माना गया है। सजीव में शुक्र का रोल अधिक रहता है और निर्जीव में सूर्य का रोल अधिक रहता है। यदि आपकी कुंडली में ये दोनों ग्रह एक साथ हैं और दक्ष अंश की दूरी पर हैं तो ह मानकर चलें कि इनका फल आपके ऊपर अधिक घटित होगा। तीसरे भाव, पांचवें भाव, दशम भाव और एकादश भाव में इनकी स्थिति आपके कुशल वैज्ञानिक, आविश्कारक, डॉक्टर, संगीतज्ञ, फैशन डिजाइनर, हार्ट अथवा न्यूरो सर्जन बना सकती है। इन दोनों की युति में शुक्र बलवान हों, तो स्त्री रोग विशेषज्ञ बना सकते हैं। साथ ही ललित कला और फिल्म उद्योग में संगीतकार आदि बन सकते हैं। लेकिन, जब इन्हीं सूर्य के साथ मंगल मिले हैं, तो पुलिस, सेना, इंजीनियर, अग्निशमन विभाग, कृषि कार्य, जमीन-जायदाद, ठेकेदारी, सर्जरी,  खेल, राजनीति तथा अन्य प्रबंधन कार्य के क्षेत्र में अपना भाग्य आजमा सकते हैं। यदि इनकी युति पराक्रम भाव में दशम अथवा एकादश भाव में हो इंजीनियरिंग, आईआईटी वैज्ञानिक बनने के साथ-साथ अच्छे खिलाड़ी और प्रशासक बनना लगभग सुनिश्चित कर देती है। अधिकतर वैज्ञानिक, खिलाडिय़ों और प्रभावशाली व्यक्तियों की कुंडली में यह युति और योग देखे जा सकते हैं। आज के प्रोफेशनल युग में इनका प्रभाव और फल चरम पर रहता है। इसलिये यह मानकर चलें कि यदि कुंडली में मंगल, सूर्य तीसरे दसवे या ग्याहरवें भाव में हो तो अन्य ग्रहों के द्वारा बने हयु योगों को ध्यान में रखकर उपरोक्त कहे गये क्षेत्रों में अपना भाग्य आजमाना चाहिये। यदि इनके साथ बुध भी जुड़ जायें तो एजुकेशन, बैंक और बीमा क्षेत्र में किस्मत आजमा सकते हैं। लेकिन, इसके लिये कुंडली में बुध ओर गुरु की स्थिति पर ध्यान देने की जरूरत है। वास्तुकला तथा अन्य नक्काशी वाले क्षेत्रों के दरवाजे भी आपके लिये खुल जायेंगे, इसलिये कुंडली में अगर सूर्य, मंगल की प्रधानता हो तो इनके कारक अथवा संबंधित क्षेत्र अति लाभदायक और कामयाबी दिलाने वाले रहेंगे, इसलिये जो बेहतर और आपकी प्रकृति को सूट करे वही क्षेत्र चुनें।  
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें..09827198828 (प्रति प्रश्न मात्र 1100 रू )

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

शरद पूर्णिमा को गजकेसरी योग में होगी अमृत वर्षा

शरद पूर्णिमा को गजकेसरी योग में होगी अमृत वर्षा



ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, 
संपादक- ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई, 98271- 98828
 साथियों आप सभी को शरद पूर्णीमा के पूण्य अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं......
15अक्टूबर 2016 को चंद्र 16 कलाओं से पूर्ण अपनी धवल प्रकाश से आच्छादित गगन में विराजित चंद्र न केवल अमृत की वर्षा करते हैं बल्कि आरोग्यता, सुख, सौभाग्य लक्ष्मी और अचल संपत्ति को भी अपने भक्तों को प्रदान करते हैं। शरद पूर्णिमा के शुभ अवसर पर सुबह उठकर व्रत करके अपने इष्ट देव का पूजन करना चाहिए। इन्द्र और महालक्ष्मी जी का पूजन करके घी के दीपक जलाकर, गंध पुष्प आदि से पूजन करना चाहिए। ब्राह्मणों को खीर का भोजन कराना चाहिए और उन्हें दान दक्षिणा प्रदान करनी चाहिए। लक्ष्मी प्राप्ति के लिए इस व्रत को विशेष रूप से किया जाता है। कहा जाता है कि इस दिन जागरण करने वाले की धन-संपत्ति में वृद्धि होती है।
* इस व्रत को मुख्य रूप से स्त्रियों द्वारा किया जाता है।
* उपवास करने वाली स्त्रियां इस दिन लकड़ी की चौकी पर सातिया बनाकर पानी का लोटा भरकर रखती हैं।
* एक गिलास में गेहूं भरकर उसके ऊपर रुपया रखा जाता है और गेहूं के 13 दाने हाथ में लेकर कहानी सुनी जाती है।
* गिलास और रुपया कथा कहने वाली स्त्रियों को पैर छूकर दिए जाते हैं।
 ज्योतिष के अनुसार दुर्लभ संयोग

ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे के अनुसार मीन राशि के चंद्र और कन्या राशि पर वृहस्पति गोचर में संचरण कर रहे हैं, जिसके कारण चं. और गुरू परस्पर में शुभ दृष्टि होने के कारण " गजकेसरी " योग बन रहा है, चंद्र जहां सौभाग्य का प्रतीक ग्रह होकर महिलाओं को "अखण्ड सौभाग्य " प्रदान करेंगे वहीं गुरू सुख, समृद्धि की वर्षा करेगे....अत: कफ, वात दोनों रोग से पिड़ीत जनों के लिए आज के दिन औषधी ग्रहण करना बेहद लाभकारी सिद्ध होगा । साथ ही समुद्र के देवता वरुण के साथ लक्ष्मी, कुबेर का पूजन करना धन, समृद्धि के साथ दामपत्य जीवन के संबंधों में प्रेमामृत की भरपूर पूर्ति करेगा। अत: आज की रात्रि बेहद शुभकारक है।
शरद पूर्णिमा
शरद पूर्णिमा जिसे कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा भी कहते हैं हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को कहते हैं। यूं तो हर माह में पूर्णिमा आती है लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्व उन सभी से कहीं अधिक है। हिंदू धर्म ग्रंथों में भी इस पूर्णिमा को विशेष बताया गया है। ज्?योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चंद्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। हिन्दी धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्री कृष्ण ने महारास रचा था। शरद पूर्णिमा से जुड़ी कई मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणें विशेष अमृतमयी गुणों से युक्त रहती हैं जो कई बीमारियों का नाश कर देती हैं। यही कारण है कि शरद पूर्णिमा की रात को लोग अपने घरों की छतों पर खीर रखते हैं जिससे चंद्रमा की किरणें उस खीर के संपर्क में आती है और उसके बाद उस खीर का सेवन किया जाता है। कुछ स्थानों पर सार्वजनिक रूप से खीर का प्रसाद भी वितरण किया जाता है।
कथा
एक साहुकार के दो पुत्रियाँ थी। दोनो पुत्रियाँ पुर्णिमा का व्रत रखती थी। परन्तु बडी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधुरा व्रत करती थी। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान पैदा ही मर जाती थी। उसने ब्राह्मणों से इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी सन्तान पैदा होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पुरा विधिपुर्वक करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती है।
उसने पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। उसके लडका हुआ परन्तु शीघ्र ही मर गया। उसने लडके को पीढे पर लिटाकर ऊपर से पकडा ढक दिया। फिर बडी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पीढा दे दिया। बडी बहन जब पीढे पर बैठने लगी जो उसका घाघरा बच्चे का छू गया। बच्चा घाघरा छुते ही रोने लगा।बडी बहन बोली- तु मुझे कंलक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता। तब छोटी बहन बोली, यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। उसके बाद नगर में उसने पुर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढिंढोरा पिटवा दिया।
विधान
इस दिन मनुष्य विधिपूर्वक स्नान करके उपवास रखे और जितेन्द्रिय भाव से रहे। धनवान व्यक्ति ताँबे अथवा मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढँकी हुई स्वर्णमयी लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारों से उनकी पूजा करें, तदनंतर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के घी से भरे हुए 100 दीपक जलाए।इसके बाद घी मिश्रित खीर तैयार करे और बहुत-से पात्रों में डालकर उसे चन्द्रमा की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर (3 घंटे) बीत जाएँ, तब लक्ष्मीजी को सारी खीर अर्पण करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक सात्विक ब्राह्मणों को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएँ और उनके साथ ही मांगलिक गीत गाकर तथा मंगलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनंतर अरुणोदय काल में स्नान करके लक्ष्मीजी की वह स्वर्णमयी प्रतिमा आचार्य को अर्पित करें। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूँगी।
यथासंभव शाम या रात ही नहीं, सुबह भी इस मंत्र से मां लक्ष्मी का ध्यान कर लाल गंध, लाल अक्षत, लाल फूल, दूध की मिठाई या खीर का नैवेद्य अर्पित कर पूजा करें -
भवानि त्वं महालक्ष्मी: सर्वकामप्रदायिनी। सुपूजिता प्रसन्ना स्यान्महालक्ष्मि नमोस्तुते।। 
नमस्ते सर्वदेवानां वरदासि हरिप्रिये। या गतिस्त्वत्प्रपन्नानां सा में भूयात् त्वदर्चनात्।। 
ध्यान व पूजा के बाद लाल आसन पर पूर्व दिशा में मुख कर बैठ मां लक्ष्मी के इस सरल मंत्र का यथाशक्ति जप करें। बाद आरती करें -
पुत्रपौत्रं धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम् प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे।
इस प्रकार प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।
(लेखक ज्योतिष एवं वास्तु पर आधारीत राष्ट्रीय मासिक पत्रिका ''ज्योतिष का सूर्य'' के संपादक एवं धर्म-संस्कृति के लिए पूर्णत: समर्पित धर्म-सचेतक हैं)

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

आश्चर्य किन्तु सत्य......बगलामुखी उपासना

आश्चर्य, किन्तु सत्य राजयोग "श्रीनाथ योग



" को जागृत करने वाली ,"श्री-कुल" की देवी बगलामुखी......
यह मेरा अनुभव है......एक बार अवश्य पढें.....हो सकता है आपका भी राजयोग जागृत हो जाय........
साथियों,
नमस्कार आज हम चर्चा करेंगे कि जन्मकुण्डली/हस्तरेखा/मस्तक रेखा में "राजयोग" है और उसके फलिभूत होने की विंशोत्तरी दशा भी चल रहा है,परन्तु फलिभूत क्यों नहीं हो रहा है? यही प्रश्न कल मेरे समक्ष आया।
कल हमारे निवास/ऑफिस शांतिनगर, भिलाई में एक ऐसे सज्जन की जन्मकुण्डली आई जो "श्रीनाथ" राजयोग और भाग्येश वृहस्पति की विंशोत्तरी दशा में उच्च राशिस्थ सूर्य जो तृतीयस्थ हैं , सूर्य की अन्तर्दशा चल रही है, साथ ही मंगल अपनी मकर (उच्च) राशि के होते हुये भी यह व्यक्ति सामान्य  "रेडीमेड स्टोर्स" के व्यवसाई हैं , मैने उनसे बार- बार प्रश्न किया कि - आपकी जन्म टाईमिंग व डेट सही तो है ? उन्होंने कहा कि हां बिल्कुल सही है, इसका उन्होंने चिकित्सालय का प्रमाण भी बताया मैं, हतप्रभ और आश्चर्यचकित था, कि आखिर कहीं मिस्टेक तो दिख नहीं रहा, फिर ये "श्रीनाथ" योग ने कार्य क्यों नहीं किया। इस व्यक्ति को किसी बड़ी राजनीतिक पार्टी में बड़ी भूमिका में होना था अथवा लग्नेश शुक्र पंचमस्थ है तो इसे माईनिंग(खनिज) से संबंधित व्यापार करना था, किन्तु यह बिल्कुल अपोजिट दिख रहा है, माज़रा क्या है ? यह सवाल मेरे मन बार-बार कौंध रहा था। मैने उनसे पूछा- मित्रवर, आपने कभी कोयले का व्यवसाय किया क्या? उन्होंने अपनी नम आँखों से कहा हां, मैं कोयले का ही व्यापार करता था, लेकिन हमारे सहपाठी ने हथिया लिया और मैं अब बच्चों को पढाने लिखाने व घर खर्च के लिये एक छोटा सा " रेडिमेड स्टोर्स" चलाता हुं जो उसमे भी कोई ख़ास बरक्कत नहीं है।
साथियों, जब मैंने गहन चिन्तन किया तो पाया कि - " यह व्यक्ति भाग्य से शत्रु से पीड़ित है, जो कभी मित्र बनकर सबकुछ ठग लिया, और वह आज एक किसी राष्ट्रीय पार्टी का प्रादेशिक पदाधिकारी बन फार्चुनर गाड़ी से घूम रहा है, और ये रेडिमेड स्टोर्स के बतौर संचालक "टू व्हीलर" से घूम रहे हैं।
मैने, उनको कहा कि आप पुन: कोयले का कार्य स्वयं करें और आपके जन्म कुण्डली/हस्तरेखा/मस्तक रेखा में कोई दुर्भाग्य नहीं है बल्कि "शत्रु-कृत-बाहरी-बाधा" है, जिसका मात्र उपाय है बगलामुखी की उपासना करें।
मित्रों, 1999 में काशी हिन्दू विश्व विद्यालय से ज्योतिष से आचार्य किया, तबसे आजतक हजारों कुण्डलियों तथा हस्तरेखाओं का अवलोकन किया और देश के विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब-पोर्टलों एवं सोशल मीडिया, टेलीविज़न के लाईव टेलीकास्ट सहित "ज्योतिष का सूर्य" राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई द्वारा संचालित ब्लॉग, फेसबुक, गुगल प्लस, वर्डप्रेस, ई-मेगजीन आदि के माध्यम से मैने अपने ज्योतिष पर आधारीत अनुभव को शेयर करता रहा हुँ, आज मुझे लगा कि यह वाकया आपके समक्ष रखूं।  वाकई जीवन सामान्य में कई ऐसे अवसर आते हैं जहां मैं भी हतप्रभ (चकित)  हो जाता हुं। ठिक वैसा ही क्षण का आभास मुझे उपरोक्त व्यापारी "रेडिमेड स्टोर्स" व्यापारी के जन्मांक को देखकर लगा।
तब मुझे "तंत्र कल्प" में वर्णित "श्री-कुल की देवी" मां बगलामुखी का ध्यान आया कि इस मामले में दसमहाविद्या की देवता बगलामुखी माँ ही सहायता कर सकतीं हैं! और रूद्रयामल तंत्र के इस बगलामुखी स्तोत्र पर पड़ा जो शत्रुओं के पराजय के लिये अमोघ अस्त्र है।
इसके अतिरिक्त अगर आपको राजनीतिक क्षेत्र में, व्यापारिक क्षेत्र में शत्रुबाधा/प्रतिस्पर्धा जो जरूरत से अधिक आपके कैरियर में रूकावट डाल रहें हैं तो आप किसी सक्षम परम साधक गुरू से "मंत्र दीक्षा" लेकर " बगलामुखी स्तोत्र" का नियमित पाठ करें, और ऱाजयोग, प्रसिद्धि, सत्ता और धन वैभव से समृद्ध व्यक्तित्व का स्वत: निर्माण करें...वाक्कई चकित कर देने वाला परिणाम देखें !
(यह साधना आरंभ करने के पूर्व कुंडली का परिक्षण करा लेना चाहिये, साथ ही सक्षम गुरू से " मंत्र दीक्षा" ले लेना चाहिये, क्योंकि तनिक भी गलती अधिक  नुकसान कर देता ह, अधिक जानकारी के लिये " ज्योतिष का सूर्य" के कार्यालय में संपर्क कर सकते हैं)
॥ श्रीबगलामुखीस्तोत्रम् ॥
श्रीगणेशाय नमः ।
चलत्कनककुण्डलोल्लसितचारुगण्डस्थलीं
लसत्कनकचम्पकद्युतिमदिन्दुबिम्बाननाम् ।
गदाहतविपक्षकां कलितलोलजिह्वाञ्चलां
स्मरामि बगलामुखीं विमुखवाङ्मनस्स्तम्भिनीम् ॥ १॥
पीयूषोदधिमध्यचारुविलद्रक्तोत्पले मण्डपे
सत्सिंहासनमौलिपातितरिपुं प्रेतासनाध्यासिनीम् ।
स्वर्णाभां करपीडितारिरसनां भ्राम्यद्गदां विभ्रतीमित्थं
ध्यायति यान्ति तस्य सहसा सद्योऽथ सर्वापदः ॥ २॥
देवि त्वच्चरणाम्बुजार्चनकृते यः पीतपुष्पाञ्जलीन्भक्त्या
वामकरे निधाय च मनुं मन्त्री मनोज्ञाक्षरम् ।
पीठध्यानपरोऽथ कुम्भकवशाद्बीजं स्मरेत्पार्थिवं
तस्यामित्रमुखस्य वाचि हृदये जाड्यं भवेत्तत्क्षणात् ॥ ३॥
वादी मूकति रङ्कति क्षितिपतिर्वैश्वानरः शीतति क्रोधी
शाम्यति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति ।
गर्वी खर्वति सर्वविच्च जडति त्वन्मन्त्रिणा यन्त्रितः
श्रीर्नित्ये बगलामुखि प्रतिदिनं कल्याणि तुभ्यं नमः ॥ ४॥
मन्त्रस्तावदलं विपक्षदलने स्तोत्रं पवित्रं च ते
यन्त्रं वादिनियन्त्रणं त्रिजगतां जैत्रं च चित्रं च ते ।
मातः श्रीबगलेति नाम ललितं यस्यास्ति जन्तोर्मुखे
त्वन्नामग्रहणेन संसदि मुखे स्तम्भो भवेद्वादिनाम् ॥ ५॥
दुष्टस्तम्भनमुग्रविघ्नशमनं दारिद्र्यविद्रावणं
भूभृत्सन्दमनं चलन्मृगदृशां चेतःसमाकर्षणम् ।
सौभाग्यैकनिकेतनं समदृशः कारुण्यपूर्णेक्षणम्
मृत्योर्मारणमाविरस्तु पुरतो मातस्त्वदीयं वपुः ॥ ६॥
मातर्भञ्जय मद्विपक्षवदनं जिह्वां च सङ्कीलय
ब्राह्मीं मुद्रय दैत्यदेवधिषणामुग्रां गतिं स्तम्भय ।
शत्रूंश्चूर्णय देवि तीक्ष्णगदया गौराङ्गि पीताम्बरे
विघ्नौघं बगले हर प्रणमतां कारुण्यपूर्णेक्षणे ॥ ७॥
मातर्भैरवि भद्रकालि विजये वाराहि विश्वाश्रये
श्रीविद्ये समये महेशि बगले कामेशि वामे रमे ।
मातङ्गि त्रिपुरे परात्परतरे स्वर्गापवर्गप्रदे
दासोऽहं शरणागतः करुणया विश्वेश्वरि त्राहि माम् ॥ ८॥
संरम्भे चौरसङ्घे प्रहरणसमये बन्धने व्याधिमध्ये
विद्यावादे विवादे प्रकुपितनृपतौ दिव्यकाले निशायाम् ।
वश्ये वा स्तम्भने वा रिपुवधसमये निर्जने वा वने वा
गच्छंस्तिष्ठंस्त्रिकालं यदि पठति शिवं प्राप्नुयादाशु धीरः ॥ ९॥
त्वं विद्या परमा त्रिलोकजननी विघ्नौघसञ्छेदिनी
योषित्कर्षणकारिणी जनमनःसम्मोहसन्दायिनी ।
स्तम्भोत्सारणकारिणी पशुमनःसम्मोहसन्दायिनी
जिह्वाकीलनभैरवी विजयते ब्रह्मादिमन्त्रो यथा ॥ १०॥
विद्या लक्ष्मीर्नित्यसौभाग्यमायुः पुत्रैः पौत्रैः सर्वसाम्राज्यसिद्धिः ।
मानो भोगो वश्यमारोग्यसौख्यं प्राप्तं तत्तद्भूतलेऽस्मिन्नरेण ॥ ११॥
त्वत्कृते जपसन्नाहं गदितं परमेश्वरि ।
दुष्टानां निग्रहार्थाय तद्गृहाण नमोऽस्तु ते ॥ १२॥
पीताम्बरां च द्विभुजां त्रिनेत्रां गात्रकोमलाम् ।
शिलामुद्गरहस्तां च स्मरे तां बगलामुखीम् ॥ १३॥
ब्रह्मास्त्रमिति विख्यातं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।
गुरुभक्ताय दातव्यं न देयं यस्य कस्यचित् ॥ १४॥
नित्यं स्तोत्रमिदं पवित्रमिह यो देव्याः पठत्यादराद्धृत्वा
यन्त्रमिदं तथैव समरे बाहौ करे वा गले ।
राजानोऽप्यरयो मदान्धकरिणः सर्पा मृगेन्द्रादिकास्ते
वै यान्ति विमोहिता रिपुगणा लक्ष्मीः स्थिरा सिद्धयः ॥ १५॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीबगलामुखीस्तोत्रं समाप्तम् ॥
---ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, रावण संहिता विशेषज्ञ एवं संपादक, 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, हाऊस नं. 1299, सड़क- 26, कोहका रोड,  शांतिनगर, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) -490023
(विशेष सूचना: मित्रों बगलामुखी देवी दश महाविद्या की देवी हैं इनकी साधना बिना किसी परमसाधक गुरू के सान्निध्य में ना करें, अथवा गुरू परम्परा से "मन्त्र दीक्षा" लेने के बाद ही" बगलोपासना" करें)