ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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सोमवार, 14 मई 2012

''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक, का लगातार '' 34 वाँ'' अंक मई 2012

''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक, का लगातार '' 34 वाँ'' अंक मई 2012, जो समाज में व्याप्त 'भ्रूण हत्या' जैसा अमानवीय और सोची समझी साजीश के तहत स्वयं अपने ही वंश का खात्मा कर रहे हैं, जो एक अभिशप्त हिंसारूढ़ भारतीय समाज लगभग पूर्णतः इसके आगोश में है, इसी विषय पर केन्द्रीत यह अंक पाठकों को समर्पित है , इस अंक के माध्यम से लोगों में सामाजिक, धार्मिक तथा व्यावहारिक तर्कपूर्ण व मार्मिक शब्दों का प्रयोग करते हुए, देश के सुप्रसिद्ध साहित्यकारों, कवियों एवं चिन्तकों के आलेख  सम्मिलीत किए गये हैं, मुझे विश्वास है कि देश के सभी सुधी पाठक अवश्य पसन्द करेंगे और इस पूण्यप्रद अभियान में ''हम सुधरेंगे जग सुधरेगा''  की तर्ज पर भ्रूण हत्या से विमुख हो स्वस्थ जीवन देते हुए स्वस्थ जीवन व्यतीत करेंगे।
-सम्पादक, पं.विनोद चौबे, कव्हर पेज!
फोटो- हेमन्त खुन्टे, पिथौरा, रायपुर(छ.ग.)!
आवरण कथा- माँ श्री नीलमचन्द सांखला (जिला न्यायाधीश) रायपुर।  
प्रकाशन- भिलाई (छ.ग.)

शनिवार, 12 मई 2012

''माँ'' मदर्स डे (13 मई, 2012)पर विशेष


''माँ'' मदर्स डे (13 मई, 2012)पर विशेष

तू पूजा,तू अर्चना ,तू श्रद्धा , तू है वंदनीया ,तू है सबकी सृजन।
हे नारी तू नारायणी, वैभवी तू, धनलक्ष्मी मैं करूं कन्या पूजन।
संतति सुषमा के बाग में तना, विटप, तरू और हम हैं चंदन।
हों दृढ़ प्रतिज्ञ यह अलख जगायेंगे,
पुष्पीत, फलित सुषमा नहीं मिटायेंगे,
अब हरगिज़ नही होगा माँ भारती का चीखता कोंख-क्रंदन।
तू पूजा,तू अर्चना ,तू श्रद्धा , तू है वंदनीया ,तू है सबकी सृजन।।

-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, सम्पादक, ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक, भिलाई

मित्रों,
शास्त्रों में कहा गया है कि जिसने भी गर्भपात किया या करवाया है, उसको देखने से, बात करने से, स्पर्श करने से आदमी पाप का भागी बनता है। और जो गर्भपात करता है, करवाता है उसको कितना पाप लगता होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। कहते है कि उसको कई कल्पों तक रौरव, कुम्भीपाक आदि नरकों में सडऩा पड़ता है। शास्त्रों के अनुसार गर्भपात एक ब्रह्महत्या है। लोगो में बढती पुत्र- लालसा और खतरनाक गति से लगातार घटता स्त्री, पुरूष अनुपात आज पूरे देश के समाजशास्त्रियों, जनसंख्या विशेषज्ञों , योजनाकारों तथा सामाजिक चिंतकों के लिए चिंता का विषय बन गया है। जहाँ एक हजार पुरूषों में इतनी ही मातृशक्ति की आवश्यकता पड़ती है, वही अब कन्या - भ्रूण हत्या एवं जन्म के बाद बालिकाओं की हत्या ने स्थिति को विकट बना दिया है। हालाकि धर्म शास्त्रों में गर्भपात करना बहुत बड़ा कुकर्म और पाप है। इस संदर्भ में पराशर स्मृति के चौथे अध्याय में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि-ब्रह्म हत्या से जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात से लगता है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है। ऐसे में हम एक के बाद एक घोर पाप को क्यों अंजाम देते हैं..?
पराशर स्मृति के चौथे अध्याय का 20/21वाँ श्लोक-

''यत्पापं ब्रह्महत्यायां द्विगुणं गर्भपातने ।

प्रायश्चित्तं न तस्या: स्यात्तस्यास्त्यागो विधीयते । । 4.20 । ।

न कार्यं आवसथ्येन नाग्निहोत्रेण वा पुन: ।

स भवेत्कर्मचाण्डालो यस्तु धर्मपराङ्मुख: । । 4.21 । ।''

जबकि,देवी स्वरूप, निस्वार्थ भाव से अपनी सुख-सुविधाओं का बलिदान करने वाली माँ अजन्मे शिशु को मारने की स्वीकृति कैसे दे सकती है? क्या उस बच्ची को जीने का अधिकार नहीं है? बेचारी उस बच्ची ने कौन-सा अपराध किया है? यह कृत्य मानवीय दृष्टि से भी उचित नहीं है। प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है। जीने के अधिकार से किसी को वंचित करना पाप है। संसार के किसी भी धर्म में भ्रूण-हत्या को गलत बताया गया है। जैन-दर्शन में भी पंचेन्द्रिय की हत्या करना नरक की गति पाने का कारण माना गया है। आश्चर्य है कि धार्मिक कहलाने वाला समाज, चींटी की हत्या से कांपने वाला समाज आँख मूंद कर कैसे भ्रूण-हत्या करवाता है! यह मानव-जाति को कलंकित करने वाला अपराध है। अमेरिका में सन् 1954  में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें डॉ. निथनसन ने एक अल्ट्रासाउंड फिल्म (साईलेंट क्रीन) दिखाई। कन्या भ्रूण की मूक चीख बड़ी भयावह थी। उसमें बताया गया कि 10-12  सप्ताह की कन्या-धड़कन जब 120  की गति में चलती है, तब बड़ी चुस्त होती है। पर जैसे ही पहला औजार गर्भाशय की दीवार को छूता है तो बच्ची डर से कांपने लगती है और अपने आप में सिकुडऩे लगती है। औजार के स्पर्श करने से पहले ही उसे पता लग जाता है कि हमला होने वाला है। वह अपने बचाव के लिए प्रयत्न करती है। औजार का पहला हमला कमर व पैर के ऊपर होता है। गाजर-मूली की भांति उसे काट दिया जाता है। कन्या तड़पने लगती है। फिर जब संडासी के द्वारा उसकी खोपड़ी को तोड़ा जाता है तो एक मूक चीख के साथ उसका प्राणान्त हो जाता है। यह दृश्य हृदय को दहला देता है।
इस निर्मम कृत्य से बचाकर माँ के ममतामयी आँचल के पल्लु में पुष्पित और पल्लवित होने दें, ताकि संस्कारी और सुयोग्य कन्याओं के सुरभित गुणों से परिवार भी सुरभित बनेगा, जो समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।

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-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, सम्पादक, ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक, भिलाई

शुक्रवार, 11 मई 2012

नक्सलवाद के खिलाफ हमारी मिमियाहटें

संजय द्विवेदी
सलाहकार संपादक
'ज्योतिष का सूर्य'
उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की सरकारें दो कलेक्टरों और एक विधायक के अपहरण से सदमे से फि र उबर आई हैं। लेकिन यह सवाल मौजूं है कि आखिर कब तक?  उड़ीसा के मलकानगिरी के कलेक्टर से लेकर छत्तीसगढ़ के सुकमा कलेक्टर के अपहरण तक हमने देखा कि सरकारें इन सवालों पर कितनी बदहवास और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती हैं। यह दर्द शुक्रवार को दिल्ली में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के बयान में भी दिखा जिसमें उन्होंने कहा कि 'अपहरण पर राष्ट्रीय नीति बने और सीएम का  भी अपहरण हो तो भी आरोपी छोड़े न जाएं।'

हम तय करें अपना पक्ष:

अब सवाल यह उठता है कि भारतीय राज्य का नक्सलवाद जैसी समस्या के प्रति रवैया क्या है? क्या राज्य इसे एक सामाजिक-आर्थिक समस्या मानता है या माओवाद को एक ऐसी संगठित आतंकी चुनौती के रूप में देखता है, जिसका लक्ष्य 2050 तक भारत की राजसत्ता पर बंदूकों के बल पर कब्जा करना है। नक्सली अपने इरादों में बहुत साफ हैं। वे कुछ भी छिपाते नहीं और हमारे तंत्र की खामियों का फायदा उठाकर अपना क्षेत्र विस्तार कर रहे हैं, हजारों करोड़ की लेवी वसूल रहे हैं और अपने तरीके से एक कथित जनक्रांति को अंजाम दे रहे हैं। हर साल हमारी सरकारें नक्सल आपरेशन के नाम पर हजारों करोड़ खर्च कर रही हैं, किंतु अंजाम सिफर है।
हमारे हिस्से बेगुनाह आदिवासियों और सुरक्षाकर्मियों की लाशें ही आ रही हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या भारतीय राज्य नक्सलवाद से लडऩा चाहता है? क्या वह इस समस्या के मूल में बैठे आदिवासी समाज की समस्याओं के प्रति गंभीर है? क्या स्वयं आदिवासी समाज के बड़े पदों पर बैठे नेता, अधिकारी और जनप्रतिनिधि इस समस्या का समाधान चाहते हैं?
 क्या इस पूरे विमर्श में आदिवासी या आदिवासी नेतृत्व कहीं शामिल है? इन सवालों से टकराएं और इनके ठोस व वाजिब हलों की तलाश करें तो पता चलता है कि सरकार से लेकर प्रभुवर्गों में इन मुद्दों को लेकर न तो कोई समझ है ना ही अपेक्षित गंभीरता।

बस्तर में गिरती लाशें-

   सरकारें चुनाव जीत रही हैं और माओवाद प्रभावित इलाकों से भी प्रतिनिधि जीतकर आ रहे है। सरकार चल रही है और बजट खर्च हो रहा है। उप्र, बिहार और ऐसे तमाम इलाकों के गरीब परिवारों के बच्चे जो जंगल की बारीकियां नहीं जानते, सीआरपीएफ के सिपाही बनकर यहां अपनी मौत खुद मांग रहे हैं। जबकि राज्य को पता ही नहीं कि उसे लडऩा है या नहीं लडऩा है। अगर नहीं लडऩा है तो ये लाशें क्यों बस्तर में लगातार गिर रही हैं?  आदिवासी समाज के सवालों और उनकी मांगों के लिए काम करने वाले जनसंगठन इस दृश्य से बाहर क्यों हैं? क्या वे वहां व्याप्त समस्याओं का समाधान चाहते हैं?  ये चीजें भी चिंता में डालती हैं कि नक्सल इलाकों में सारा कुछ बहुत बेहतर चल रहा है। नेता, ठेकेदार, अफसर, व्यापारी सब वहां सुखी हैं। उनका नक्सलियों से कोई प्रतिरोध नहीं है। लेवी के खेल ने सारा कुछ बहुत सरल बना दिया है। ये इलाके लूट के इलाकों में बदल गए हैं, जहां दृश्य जंगल में मंगल जैसा है। एक भारत के बीच, एक अलग भारत, हम मानें या न मानें बन गया है। दो राज कायम हो चुके हैं। एक राज हमारे असफल गणतंत्र का है, दूसरा नरभक्षी नक्सलवाद का। उनके हाथ जिले के सबसे कद्दावर अफसर कलेक्टर तक पहुंच चुके हैं। पैसे दिए बिना आप वहां न नौकरी कर सकते हैं न ही ठेकेदारी और न ही व्यापार। यह जनयुद्ध की कड़वी सच्चाईयां है, जिसे सरकारें भी जानती हैं।

पशुपति से तिरूपति तक लाल गलियारा:

पशुपति से तिरूपति तक लाल गलियारा बनाने की साजिशें और भारत की राजसत्ता पर कब्जे का नक्सली स्वप्न बहुत प्रकट है। उनकी हिंसा में जनक्रांति और लोकतंत्र में संशोधन की बातें सिर्फ गुमराह करने वाली हैं, जो उनके पालतू बुद्धिजीवी करते रहते हैं। हमें यह भी समझना होगा कि लोकतंत्र की विफलता ने ही नक्सलवाद की विकृति को बढ़ावा दिया है। असमानताओं की बढ़ती खांईं, भ्रष्ट प्रशासनिक और पुलिस तंत्र ने इन हालात को और बदतर किया है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि लोकतंत्र को कुछ लोगों और तबकों ने अपना बंधक बना लिया है और सामान्य लोगों को उनके हक देने में हमारा परंपरागत संकोच कायम है। हमें इस बात पर सोचना होगा कि आखिर आजादी के इन छ: दशकों में हमारा जनतंत्र आम आदमी के लिए स्पेस क्यों नहीं बना पाया। हमें यह भी पता है कि कोई भी भ्रष्ट तंत्र नक्सलवाद जैसी बीमारियों का मुकाबला नहीं कर सकता क्योंकि वह नक्सल प्रभावित इलाकों में आ रहे विकास के पैसे से लेकर, सुरक्षा के पैसे को भी सिर्फ  हजम कर सकता है। देखा यह भी  जाना चाहिए कि आदिवासी इलाकों में जा रहा पैसा आखिर किसके पेट में जा रहा है?
क्या इन इलाकों में केंद्र और राज्य की सरकारों की योजनाओं का ईमानदारी से क्रियान्वयन हो रहा है? नमक के लिए आदिवासियों के शोषण का किस्सा छत्तीसगढ़ में मशहूर रहा है। पिछले कई सालों से छत्तीसगढ़ में नमक पहले पचीस पैसे किलो फिर गरीबों के लिए उसे मुफ्त कर दिया गया। चावल एक रूपए किलो में उपलब्ध है। छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने पीडीएस सिस्टम को फुलप्रूफ  किया है। उनकी सार्वजनिक वितरण प्रणाली की विरोधी भी तारीफ कर रहे हैं। किंतु आज तक मेरे संज्ञान में यह बात नहीं है कि राशन का वितरण न होने पर नक्सलियों ने किसी राशन दुकानदार को सजा दी हो। तेंदुपत्ता का सही दाम न देने पर किसी तेंदुपत्ता ठेकेदार या व्यापारी से जंग लड़ी हो। लेवी दीजिए और तेंदुपत्ता तोडि़ए। कुल मिलाकर अगर जंगल में आप नक्सलियों के साथ हैं तो आपको कोई परवाह नहीं करनी चाहिए। समानांतर सरकार आखिर क्या होती है? नक्सलियों को जो समर्थन मिला है वह कोई जनता का स्वाभाविक समर्थन है यह मानना भी भारी भूल है। राबिनहुड शैली में आप लोगों को फौरी न्याय दिलाकर लोकप्रिय हो सकते हैं। हर हिंसक अभियान और डकैत भी अपने को सही साबित करने के लिए बेहद लोकप्रिय तर्क रखते हैं। किंतु इससे उनका हिंसाचार जायज नहीं हो जाता है। बंदूकों के भय से नक्सली अगर कुछ लोगों को साथ ले पा रहे हैं और उनके शांतिमय जीवन में जहर धोल पा रहे हैं तो यह सुविधा लोकतंत्र की विफलता ने ही उन्हें उपलब्ध कराई है। राज्य की हिंसा की निरंतर और निर्मम आलोचना होनी चाहिए किंतु नक्सलियों ने जिस तरह एक शांतिप्रिय समाज का सैनिकीकरण किया है, उस खामोशी ओढ़ लेना न्याय संगत नहीं है। पश्चिम बंगाल में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में 200 यात्रियों को विस्फोट से उड़ा देनी वाली खूनी विचारधारा सत्ता में आकर क्या करेगी बहुत प्रकट है। ऐसी तमाम सामूहिक कत्लेआम और बर्बरता की कहानियां नक्सलियों के नाम दर्ज हैं, किंतु हमें पुलिस की हिंसा पर हाय-हाय का अभ्यास है जैसे यह पुलिस अमरीका की पुलिस हो।

नक्सलवाद को खारिज करने का समय:

  आज समय आ गया है जब नक्सलवादियों में मुक्तिदाताओं की तलाश के बजाए इसे पूरी तरह खारिज किया जाना चाहिए। समस्या है तो नक्सली हैं यह कहना ठीक नहीं। समस्याएं नहीं होगीं तो भी नक्सली होंगें। इनका घोषित लक्ष्य इस देश की बरबादी और लोकतंत्र का खात्मा है। वे अपने सपनों के लिए काम कर रहे हैं। उनका उद्देश्य हमारे लोकतंत्र में जनतांत्रिक संशोधन या संवेदनशीलता का प्रसार नहीं है बल्कि वे कुछ और ही चाहते हैं। इस इरादे को समझने की जरूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि आखिर कश्मीर, बस्तर और लिट्टे के अतिवादियों के तार आपस में क्यों जुड़े हैं। कुछ विदेशी ताकतें इनके लिए इतनी उदार क्यों हैं। एक समर्थ और समस्याविहीन भारत किसके लिए समस्या है?  नक्सलवाद या इस तरह के तमाम अतिवादियों से लड़ते हुए हम अपनी कितनी सारी पूंजी हर साल पानी में डाल रहे हैं। किंतु ये समस्याएं हल नहीं हो रही हैं। मानवाधिकार संगठनों से लेकर बुद्धिजीवियों का एक तबका इस हिंसा में जनमुक्ति की संभावनाएं तलाश रहा है। क्या यह सारा कुछ अकारण है?  क्या इनकी कोशिश भारतीय लोकतंत्र के प्रति जनता के विश्वास को समाप्त करने की नहीं है? एक बार जनतंत्र से भरोसा उठ जाए तो देश को तोडऩे का काम बहुत आसान हो जाएगा। अफसोस हमारा राजनीतिक तंत्र भी इन चीजों को नहीं समझ रहा है। वह नक्सलियों, आतंकवादियों और अतिवादियों से लडऩे के बजाए बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को निपटाने में लगा है।

कठोर संकल्पों का समय:

 यह एक ऐसा समय है जब हमें कुछ कठोर संकल्प लेने होंगें। परमाणु करार को पास कराने और अब एफडीआई के लिए जान लड़ाने वाले प्रधानमंत्री जाहिर तौर पर यह नहीं कर सकते। किंतु अफसोस यही है कि हम एक गंभीर संकट के सामने हैं और हमारे केंद्र में श्रीमती इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री और राज्य में स्व.बेअंत सिंह जैसे मुख्यमंत्री नहीं है जिनके संकल्पों और शहादत से पंजाब आतंकवाद की काली छाया से मुक्त हो सका। पंजाब की याद करें तो उसके हालात कितने खराब थे, पाकिस्तान की प्रेरणा और मदद से इस इलाके में खून बह रहा था किंतु आज पंजाब में शांति है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भी अपने तरीके से फौरी तौर पर नक्सलवाद पर अंकुश लगाने का काम किया है। किंतु हम अगले किसी उच्चअधिकारी के अपहरण की प्रतीक्षा में बैठे नहीं रह सकते। इसलिए जरूरी है कि नक्सल प्रभावित राज्य और केंद्र दोनों इस समस्या के परिणाम केंद्रित हल के लिए आगे आएं। हल वार्ता से हो या किसी अन्य तरीके से हमें बस्तर और इस जैसी तमाम जमीनों पर शांति के फूल फिर से खिलाने होंगें, बारूदों की गंध कम करनी होगी। लेकिन इसके लिए मिमियाती हुई सरकारों को कुछ कठोर फैसले लेने होंगें, भ्रष्ट तंत्र पर लगाम कसनी होगी, ईमानदार और संकल्प से दमकते अफसरों को इन इलाकों में तैनात करना होगा और उनको काम करने की छूट देनी होगी। समाज को साथ लेते हुए, दमन को न्यूनतम करते हुए उनका विश्वास हासिल करते हुए आगे बढऩा होगा। शायद इससे भटका हुआ रास्ता,किसी मंजिल पर पहुंच जाए।

   (लेखक, संजय द्विवेदी, राजनीतिक विश्लेषक, नक्सल मामलों के जानकार एवं संवेदनशील निर्भीक, जिन्दादिल पत्रकारिता के गवाह, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं। )

गुरुवार, 10 मई 2012

अपनो ने ठुकराया गैरों ने गले लगाया ''संस्कृत'' को

अपनो ने ठुकराया गैरों ने गले लगाया ''संस्कृत'' को 


-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, संपादक, ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक, 09827198828
वैशाखी के बदौलत चल रही मनमोहन-सरकार को जहाँ एक तरफ भ्रष्टाचार रूपी आसूरी प्रवृत्ति ने पूरी तरह अपने आगोश में ले लिया है जिसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का अस्तीत्व खतरे में है वहीं दूसरी ओर भारतीयता की पहचान संस्कृति संस्कृतस्था को मिटाकर  ऋषि-मुनीयों के इस देश भारत को पाश्चात्य-संस्कृति रूपी काल के गाल में जबरन ढ़केलने की साजिश की जा रही है। ऐसा लगता है कि मनमोहन सरकार का एकमात्र लक्ष्य है भारतीयता, भारतीय संस्कृति और सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा को मिटाना। इसलिए कभी वह भारतीयता पर चोट करती है, कभी भारतीय संस्कृति के विरुद्ध कार्य करती है, तो कभी इस सरकार के नुमाईन्दे मंत्रीगण भगवा-आतंक कह कर भारतीय-संत महात्माओं को पीड़ा पहुँचाने का काम करती है, तो कभी संस्कृत की 'हत्याÓ के लिए विदेशी भाषा रूपी शस्त्र चलाती है। संस्कृत की हत्या? जी हाँ , यह सरकार जिस नीति पर चल रही है उससे तो संस्कृत भाषा एक-दो साल में तड़प-तड़प कर अपने प्राण त्याग देगी। उल्लेखनीय है कि देश के सभी 987 केन्द्रीय विद्यालयों में कक्षा 6 से 8 तक संस्कृत भाषा अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाती है। किन्तु 4 अप्रैल, 2012 को सरकार ने संस्कृत पढ़ाने की अनिवार्यता समाप्त कर दी है। अब बच्चे संस्कृत की जगह फ्रेंच और जर्मन भी पढ़ सकेंगे।
वहीं सबसे विकासशील देश जापान ने संस्कृत को सदियों से गले लगा रखा है,जिसका उसे लाभ भी मिल रहा है, और सबसे बड़ा लाभ तो यही है कि है  विकास के नाम पर पूरी दुनिया का सिरमौर बना बैठा है आईए जानते हैं कि इसका राज क्या है और कबसे जापान संस्कृत का प्रेमी है..इस पर विदेशी व भारतीय विद्वानों का क्या कहना है...?
जापान देश में पिछली चौदह शताब्दियों से संस्कृत-अध्ययन की अखण्ड परम्परा चली आ रही है। प्रो. हाजी-मे-नाका-मुरा के अनुसार तो भारत को छोड़कर संसार में सबसे अधिक संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन जापान में ही होता रहा है और एक बड़ी संख्या में वहां के विद्यार्थी संस्कृत पढ़ते रहे हैं। भारत के विश्वविद्यालयों में भारतीय दर्शन का विभाग सन्‌ १९१७ में चालू हुआ, जबकि जापान के टोकियो विश्वविद्यालय में यह विभाग सन्‌ १९०४ में ही आरम्भ हो चुका था।
पिछली शताब्दी में यूरोप के अनेक विद्वान काल-कवलित हुए संस्कृत वाङ्मय की खोज में लग गये। इंग्लैंड के सर विलियम जोन्स, फ्रांस के प्रो. सिल्वांलेवी, जर्मन विद्वान मैक्सम्यूलर, हंगरी के चोमाखोरेशी, हालैण्ड के प्रो. एच. कर्ण और प्रो. सेदेस आदि विद्वानों ने भारत, तिब्बत, चीन, इण्डोनेशिया आदि की संस्कृत पाण्डुलिपियों तथा संस्कृत से अनूदित ग्रन्थों की खोज की। सहस्रशः ऐसे ग्रन्थों का पता चला जो विदेशी आक्रमणों के कारण भारत में नष्ट हो चुके थे। इन संस्कृत एवं संस्कृत से अनूदित ग्रन्थों का उद्धार और सम्पादन संस्कृत जगत्‌ के लिये एक बड़ी चुनौती रही है। इस दिशा में जितना भी कार्य हुआ है उसका अधिकांश श्रेय यूरोप के संस्कृत विद्वानों को ही जाता है। दुर्भाग्य से भारत अभी इस क्षेत्र में बहुत पीछे है। मध्य पूर्वी एशिया में हजारों संस्कृत ग्रन्थ और ग्रन्थों के खण्ड संग्रहालयों में, पुस्तकालयों में अथवा भूमि के नीचे सोये पड़े हैं और उनमें सोया पड़ा है भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय का इतिहास। अपनी मूक वाणी में वे पुकार रहे हैं ‘को माम्‌ उद्धरिष्यति' शायद कोई नूतन कुमरिल भट्ट इस पुकार को सुने।
सन्‌ १८८० में जापान में बर्तानिया के दूतावास के एक अधिकारी अनैस्ट-सेटोअ को जापान की १८वीं शती के महानतम संस्कृत विद्वान ऋषिवर ‘जी-उन्‌-सोंजा' द्वारा लिखे गये एक हजार ग्रन्थों का पता चला। उन्हीं दिनों बर्तानिया में ऋग्वेद का प्रकाशन हुआ था। अनैस्ट-सैटोअ ने जापान में ओसाका द्वीप के गुह्य सरस्वती मंदिर ‘‘को-की-जी' के अध्यक्ष भिक्षु ‘काईशिन्‌' को वेद का सैट दिया और भिक्षु ‘काईशिन्‌' से मुनिवर ‘जी-उन-सोंजा' के नब्बे ग्रन्थ प्राप्त किये। संस्कृत के इन नब्बे ग्रन्थों से यूरोप के विद्वानों में ‘को-की-जी' के सरस्वती मंदिर और मुनि ‘जी-उन-सोंजा' की धूम मच गयी। उन संस्कृत ग्रन्थों में से ‘उष्णीय विजया ण् धारिणी', ‘वज्रछेदिका' और ‘सद्धर्म-पुण्डरीक' का सम्पादन एवं प्रकाशन किया गया। फ्रांस के विख्यात भारतीयविद्याविशेषज्ञ प्रो. सिल्वांलेवी भी जापान में संस्कृत-अध्ययन के इतिहास की खोज करने लगे।
जापान के आचार्य ककुबन (१०१५-११४८ई.) ने बीजाक्षर अ को देवता मानकर (अक्षराणामकारोह्ढस्मि-गीता) उसे अष्टदल कमल पर आसीन तथा उस कमल को भी वज्र पर आधारित माना है। धर्म को शक्ति का आधार मिले तभी धर्म प्रभावी होगा। ‘शिंगोन' अर्थात्‌ सत्यवाक्‌ नाम दिया गया। अनेक मंदिर बनाये गये एवं संस्कृत ग्रन्थों के विनय अवदान सूत्र ग्रन्थों के अनुवाद होने लगे। किन्तु मंत्रों का महत्त्व अर्थों में ही नहीं बल्कि उच्चारणों में भी है और चीनी लिपि उच्चारण के लिये समर्थ नहीं है तो भारत की लिपि का संस्कृत के मंत्र लिखने के लिये प्रयोग किया गया। इस लिपि को सिद्धम्‌ कहा गया। ११वीं शती में ईरानी यात्री अल्बेरूनी ने भी अपने यात्रा-वृत्तान्त में लिखा कि भारत में सिद्धम्‌ लिपि का प्रचार है। कोबोदाईशी स्वयं सिद्धम्‌ के अच्छे लेखक थे। जापान में सिद्धम्‌ लिखना एक कला बन गयी, साधना बन गयी, साधना का मापदण्ड बन गयी। और आज तक यह स्थिति है।
चीन और जापान में ‘काञ्‌जी' लिपि में लिखा जाता है जो कि चित्र लिपि है ‘कोबोदाईशी' ने ध्वनियों को प्रकट करने के लिये नयी लिपि का आविष्कार किया जिसे काना कहते हैं। यह लिपि उन्होंने संस्कृत वर्णमाला के आधार पर बनायी। कोबोदाईशी से भी पहले सन्‌ ५९३ में राजकुमार ‘शोतोकु' ने जापान का राज्यभार सम्भाला। ‘शोतोकु' अपने महान्‌ आदर्शों एवं धर्मप्रचार के कारण जापान के अशोक कहलाये। ईसा की छठी शताब्दी में शोतोकु ने जापान का १७ सूत्री संविधान बनाया जो कि भगवान्‌ बुद्ध के ‘बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय' सिद्धान्त पर आधारित था। सम्भवतः यह संसार का सबसे पहला संविधान है जो कि जापान के होर्यूजी मन्दिर के संग्रहालय में सुरक्षित है। संविधान के अवसर पर भारत से संस्कृत ग्रन्थ ‘उष्णीशविजयाधारिणी' मंगवा कर उसका पाठ किया। यह संस्कृत धारिणी भी ‘होर्यूजी' मन्दिर में रखी है। किन्तु वर्ष में एक बार ही दर्शनार्थ बाहर निकाली जाती है। यह ग्रन्थ सम्भवतः संस्कृत की प्राचीनतम पाण्डुलिपि हो। संस्कृत की अधिक प्राचीन पाण्डुलिपियां भारत में नहीं, जापान से मिली हैं। भारत में १० शताब्दी तक की ही पाण्डुलिपियां हैं।
जबकि जापान में छठी शताब्दी की भी पाण्डुलिपियां मिलती हैं। राजकुमार शोतोकु ताईशी ने ‘सद्धर्म पुण्डरीक सूत्र' ‘श्रीमाला देवी सिंह नादसूत्र' और ‘विमजकीर्ति निर्देशसूत्र' पर भी भाष्य लिखे। कुछ वर्षों के पश्चात्‌ जापान सम्राट ‘शोमू' ने तोदाईजी के मन्दिर के उद्घाटन के लिये भारतीय आचार्य बोधिसेन को बुलाने के लिये अधिकारियों का एक दल चीन भेजा। इस दल की प्रार्थना को स्वीकार करके भारद्वाज ब्राह्मण आचार्य बोधिसेन ने १३ दिसम्बर सन्‌ ७३० ई. को जापान के लिये प्रस्थान किया। इनके साथ वियतनामी भिक्षु फुचिये और चीनी भिक्षु ‘ताओ सुआन' भी थे। मार्ग कठिनाइयों से भरा था, किन्तु तांत्रिक आचार्य बोधिसेन के प्रभाव से समुद्र शांत हुआ, यात्रा निर्बाध रही। नारा नगर के तोदाईजी के बड़े मन्दिर का उद्घाटन और बुद्ध की विशाल प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा आचार्य बोधिसेन के कर-कमलों द्वारा समपन्न हुई। भगवान बुद्ध की यह प्रतिमा अपने बृहत्‌ आकार के कारण ‘दाईबुल्सु'? के नाम से प्रसिद्ध है। दाई अर्थात्‌ बड़ा, बुत्सु? अर्थात्‌ बुद्ध। महान्‌ बुद्ध। आचार्य बोधिसेन का जापान के सांस्कृतिक जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
जापानी नृत्य तथा संगीत जिसे ‘बुंगाकु' तथा ‘गगाकु' कहते हैं, भारतीय ही हैं जो कि १३०० वर्ष पूर्व आचार्य बोधिसेन द्वारा जापान में प्रचलित हुआ। अनेक संस्कृत कथाएं भी जापान की निधि बन गयीं। जैसे महाभारत में ऋष्यश्रृंग का राजा लोमपाद की पुत्री शान्ता से परिणय की कथा जापान में बहुत प्रचलित हुई। जापानी काबुकी में ‘नरुकामी' का कथानक इसी कथा पर आधारित है।
आधुनिक युग में जापान के विद्वान संस्कृत की बड़ी सेवा कर रहे हैं। उन्होंने संस्कृत के अनेक ऐसे ग्रन्थों का उद्धार किया है जिनके केवल अनुवाद ही चीनी तथा तिब्बती भाषा में मिलते हैं। जापान में शिक्षा का माध्यम जापानी होने के कारण जापानी विद्वानों की संस्कृत सेवा की जानकारी बाहर के देशों में बहुत कम हो पायी। जापान में संस्कृत पुण्यभाषा के रूप में मानी जाती है। मध्ययुग में लड़ाई से पहले योद्धा अपने कपड़ों पर संस्कृत के बीजाक्षर लिखवाकर युद्ध में जाया करते थे। मृतकों की समाधियों पर संस्कृत मंत्र ‘ओं आविर हूं खं' और ‘ओं स्वाहा' के मंत्र लिखे रहते हैं। जापान के अनेक मन्दिरों में लिखे संस्कृत के मंत्र किस भारतीय को मुग्ध न कर देंगे।

मैक्समूलर द्वारा वेदों का विकृतीकरण क्यों?

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  मैक्समूलर द्वारा वेदों का विकृतीकरण क्यों?

इस प्रश्न का कुछ उत्तर तो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में बोडेन चेयर की स्थापना के उद्‌देश्य से ही सुस्पष्ट है, जिसके लिए १८४७ में मैक्समूलर की ऋग्वेद के सम्पादन एवं अंग्रेजी भाष्य करने के लिए नियुक्ति की गई थी। इसी नीति के अन्तर्गत उसने १८४९ और १८५४ में ऋग्वेद के दो खंडो का प्रकाशन भी किया। परन्तु १८५५ में मैकॉले से मिलने के बाद उसकी हिन्दू धर्म शास्त्रों के प्रति चिन्तन की दिशा ही बदल गई। अब उसने वेदों के अतिरिक्त अन्य हिन्दू धर्म शास्त्रों की आलोचना की ओर विशेष ध्यान दिया तथासंस्कृत को मृत एवं हेय भाषा सिद्ध करने का प्रयास किया। इसके ही फलस्वरूप उसने १८५६ में 'ऐसेज ऑन कम्परेटिव मायथोलौजी', १९५९, में 'दी हिस्ट्री ऑफ ऐंशिएन्ट संस्कृत लिटरेचर', और १८६१ और १८६४ में 'साइंस ऑफ लैंग्वेजिज' (दो खंडो में) आदि गं्रथों की रचना की।
 (तालिका १)।
मैक्समूलर ने ऋग्वेद के भाष्यकार के रूप में प्रारम्भिक लक्षणों को प्रगट करना शुरु कर दिया था। इसीलिए वह चाहता था कि बोडेन-चेयर पर विराजमान प्रो. विलसन वेदों पर ईसाई दृष्टिकोण से कुछ लिखें ताकि उनके विचारों को वह अपने लिए मार्ग दर्शक के रूप में प्रयोग कर सकें।
 
बोडेन चेयर पाने का प्रयास

मैक्समूलर ने प्रारम्भ से ही लगातार बोडेन चेयर के उद्‌देश्यों की पूर्ति के लिए जी जान से परिश्रम किया। उसने इस काल खण्ड (१८४७-१८६०) में अपने आप को ईसाईयत के क्रुसेडर (धर्म योद्धा) और हिन्दू धर्म के विध्वंसक के रूप में पूरी तरह सािपित कर लिया था और जब १८६० में बोडेन चेयर पर आसीन प्रोफेसर डा. विलसन की मृत्यु हो गई तो उसने बोडेन चेयर के पद को अथियाने का हर सम्भव प्रयास किया। भारत कि मिशनरियों ने उसकी ईसाई हितकारी सेवाओं की भूरि-भूरिप्रशंसा करते हुए उसे बोडेन चेयर के लिए अपना मनचाहा सर्वोत्तम प्रत्याशी माना जैसा कि उनके नीचे दिए पत्रों से सुस्पष्ट है। कलकत्ता के बिशप श्री काटन ने लिखाः 
“Revenswood, Simla, July 13, 1860, My dear Sir, When I heard of the great loss which Sanskrit literature had sustained by the death of Professor Wilson, my thoughts naturally turned to you as his obvious successor, and it wil give me great pleasure to hear that the University make an election which is certainly expected and will be approved by every one to whom I have spoken on the subject in this country.”
“I feel considerable interest in the matter, because I am sure that it is of the greatest importance for our missionaries to understand Sanskrit, to study the philosophy and Sacred books of the Hindus, and to be able to meet the Pundits on their own ground.”
Among the means to this great end, none can be more important than your edition and Professor Wilson’s transalation of the Rigveda. (Max Muller did the translation on Sayana’s basis which was published in Wilson’s name as he was the Librarian and Incharge of Publications).  It would be most fitting in my opinion for the great Christian University to place in its Sanskrit Chair the scholar who has made the Sanskrit scriptures accessible to the Christian missionary.”….You are at liberty to make any use that you please of this letter.”  With every wish for your success. I remain, my dear, Your’s very sincerely. (G.E.L. Cotton)”.                   
(LLMM, Vol. 1, pp. 236-37).
रोविन्सवुड शिमला, जुलाई १३, १८६०; ''प्रियवर महोदय! जब मुझे प्रोफेसर विल्सन, जिसने संस्कृत रचना को प्रगति दी, के निधन का बड़ा दुःखद समाचार मिला तो मेरा ध्यान, उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में, अपने आप ही आपकी तरफ गया और मेरे लिए यह अति प्रसन्नता का विषय होगा कि विश्वविद्यालय यह चुनाव, जो कि निश्चय ही होगा, उस व्यक्ति के पक्ष में हो जिसके बारे में मैने इस देश (भारत) में सबको बतलाया है।''
''मैं इस विषय में काफी दिलचस्पी रखता हूँ क्योंकि मुझे आशा है यह हमारे मिशनरियों को संस्कृत जानने और हिन्दुओं केधर्मशास्त्रों तथा दर्शनों को समझने और हिन्दू पंडितों से उनकी ही धरती पर उन्हें चुनौती देने के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है।''
''इस उद्‌देश्य की पूर्ति के लिए अनेक साधनों में से डा. विल्सन के मार्ग दर्शन में आपके द्वारा ऋग्वेद का सम्पादन एवं भाष्य से ज्यादा अन्य कोई कार्य उपयोगी न हो सकेगा। मेरे विचार से यहसबसे उचित होगा कि इस महान ईसाई विश्वविद्यालय (ऑक्सफोर्ड) के लिए (बोडेन की) संस्कृत-चेयर उस विद्वान को दी जाए जिसने संस्कृत धर्मशास्त्रों को ईसाई मिशनरियों के लिए सुग्राह्य बनाया है, आप मेरे इस पत्र को जैसे चाहें उस कार्य के लिए प्रयोग कर लें। आपकी सफलता की कामनाओं सहित- आपका प्रिय जी. ई. एल. काटन,'' 
(जी.प.खं. १, पृ. २३६-२३७)। 
इसी प्रकार ऑक्सफोर्ड आन्दोलन से जुड़े एक दूसरे सक्रिय सदस्य और मिशनरी डॉ. ई. बी. पूसी ने मैक्समूलर को लिखाः
“Christ Church, June 2, 1860, My Dear Professor—On the first election to the Sanskrit Chair, you will have heard that we were divided before two great names.  Professor Wilson, whose first-rate Sanskrit knowledge was in the mouth of every one, and Dr. Mill who, many of us thought, might fulfil the object of the founder better by giving to the Professorship a direct missionary turn.  The same thought would naturally recur to us now, and I have kept myself in suspense since our sudden loss of Professor Wilson.  My first impression, however, is my abiding conviction, that we should be best promoting the intentions of the founder, by electing yourself, who have already done so much to make us fully acquainted with the religious system of those whom we wish to win to the Gospel…..I cannot but think gthat your lecturers on the Vedas….are the greatest fits which have been berstowed on those who would win to Christianity the subtle and thoughtful minds of the cultivated Indians.  We owe you every much for the past, and we shall ourselves gain greatly by placing you in a position in which you can give our undivided attention to those labours by which we have already so much profited.
“…….Your work will form a new era in the efforts for the conversion of India, and Oxford will have reason to be thankful for that by giving you a home it will have facilitated a work of such primary and lasting importance for the conversation of India and which by anabling us to compare that early false religion  with the  true, illustrates the more than blessedness of what we enjoy.  Your very faithfully,  E.B. Pusey.”      
(LLMM Vol. 1 pp. 237-38).
''क्राइस्ट चर्च, जून २, १८६०, मेरे प्रिय प्रोफेसर-संस्कृत (बोडेन) चेयर के लिए सबसे पहले चुनाव में तुमने सुना होगा कि हम दो बड़े नामों के बीच में विभाजित थे। प्रोफेसर विल्सन, जिसके संस्कृत ज्ञान के प्रति आदर के कारण सभी के मुँह पर उन्हीं का नाम था, और दूसरे थे, डॉ. मिल जिनके बारे में हममे से कुछ यह सोचते थेकि एक मिशनरी को सीधे प्रोफेसर का पद देने से वे चेयर के संस्थापक (बोडेन) के उद्‌देश्य की पूर्ति अधिक अच्छी तरह कर सकेंगे और निश्चय ही यही विचार अब हमारे मन में फिर से आएगा; और डॉ. विल्सन की अचानक मृत्यु के बाद से ही मैं बड़ी दुविधा में हूँ। फिर भी मेरी प्राथमिकता यह है कि इस पद के लिए आपको चुनने से हम चेयर के संस्थापक की भावनाअें का सबसे अधिकआदर कर सकेंगे, क्यों आपने हम सबको उनकी (हिन्दुओं) की धर्म व्यवस्था से पूरी तरह परिचित कराया है जिन तक हम गोस्पिलों (बाइबिल) को ले जाना चाहते हैं। मैं इसके अलावा और कुछ नहीं सोच सकता कि आपके वेदों पर भाषण उन लोगों के लिए सबसे अधिक उपयोगी होंगे जो विचारवान और तीव्र बुद्धि वाले सभ्य भारतीयों को ईसाईयत के लिए जीतने में सक्रिय हैं। हम सब आपके पिछले कार्यों के प्रति आभारी हैं और हम सब आपको इस सम्माननीय पद पर प्रतिष्ठित करके और अधिक लाभान्वित होंगे। तब आप हमारा सम्पूर्ण ध्यान उन प्रयासों की तरफ और अधिक खींच सकेंगे जिससे हम पहले ही काफी लाभान्वित हुए हैं।''
''आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने के प्रयत्नों में नवयुग लाने वाला होगा और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय को अपने को धन्य समझने का अवसर होगा जिसने आपको आश्रय देकर भारत को ईसाई बनाने के प्राथमिक और दूरगामी प्रभाव के महत्वपूर्ण कार्य को सुगम बना दिया। साथ ही यह आपका कार्य हमें तुलनात्मक दृष्टि से समर्थ बनाएगा कि हम पुराने (हिन्दू) धर्म को सच्चे (ईसाई) धर्म के साथ तुलना का आनन्द उठाऐं। आपका यह कार्य उससे भी बड़ा औरआशीषपूर्ण है जो कि हमें प्राप्त है। आपका - ई.बी. पूसी।
उपरोक्त दोनों पत्रों से सुस्पष्ट और सच्चाई के साथ प्रमाणित होता है कि मैक्समूलर का साहित्य भारत को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने के कार्य को सुगम बनाएगा और यदि वह विल्सन का उत्तराधिकारी चुना जाता है तो इससे कर्नल बाडेन के उद्‌देश्य की पूर्ति और अधिक प्रभावी ढंग से किए जाने की सम्भावना हो सकेगी। इन पत्रों से यह भी प्रमाणित होता है कि डॉ. मैक्समूलर अन्य किसी संस्कृत के विद्वान की अपेक्षा भारत में गोस्पिल (बाइबिल) के हित में भारतीयों के पवित्र ग्रंथों को उन तक पहुँचा कर पहले ही अधिक कार्य कर चुका है और उसके चुनाव से उसे और अधिक कार्य करने का अवसर मिलेगा। वह वर्तमान संस्कृत विद्वानों एवं बोडेन चेयर के प्रत्याशियों में सर्वोत्तम है। लेकिन प्रतीत होता है कि मैक्समूलर को पूर्वानुमान थ कि चुनाव का परिणाम उसके विरुद्ध होगा, जैसा कि उसने अपनी माँ को लिखे पत्र से प्रगट होता हैः
''मेरी प्यारी माँ: मेरा काफी समय चुनाव कार्य में लग जाता है और कभी-कभी लगता है कि मैं चुनाव की न सोचता। इसमें मेरा दिसम्बर (१८६०) तक का समय लग जाएगा और यदि मैं सफल नहीं होताहूँ तो बड़ा दुःखी होऊँगा। जरा उन चार हजार चयनकर्ताओं की सोचों जो कि सारे इंग्लैंड में बिखरे हुए हैं और प्रत्येक को पत्र भी लिखा जाना चाहिए।''
 (जी.प. खं. १, पृ. २३८)
अन्त में मैक्समूलर २७३ (८३३/६१०) मतों से चुनाव हार गया। मुखयतया इसलिए कि वह एक गैर-ब्रिटिश था। इससे वह काफी निराश हुआ। ऐन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (खंड XVII पृ. ९२७-२८) बतलाता है कि ''यह (चुनाव में हारना) मैक्समूलर के जीवन की एक बड़ी निराशा थी जिसका उसके ऊपर बहुत समय तक प्रभाव रहा।''
मैक्समूलर के वेद भाष्य का उद्‌देश्य
हालांकि १८६० में बोडेन चेयर के लिए मैक्समूलर का चयन नहीं हुआ फिर भी वह बोडेन के उद्‌देश्य की पूर्ति के लिए योजनाबद्ध तरीके से लगातार प्रयास करता रहा। मगर यहाँ प्रश्न यह है कि एक संस्कृत के विद्वान होने के नाते उसका वेदभाष्य के प्रति क्या दृष्टिकोण था? वेदभाष्य करने में उसका क्या उद्‌देश्य था? क्या वह मैकॉले जैसे संस्कृत एवं भारत के कट्‌टर विरोधी का अनुयायी था या एक उदारवादी विचारक था?
मूलर के जीवनी लेखक निराद चौधरी का मत है कि 'उसने मध्यम मार्ग अपनाया', (वही. पृ. १३४), या यह कहिए कि उसने एक बहुरुपिया जैसा खेल खेला जिससेकि ब्रिटिशों के राजनैतिक उद्‌देश्यों की भी पूर्ति होती रह और भारतीयों को भी शब्द जाल में बहकाए रखा? मैक्समूलर एक अर्न्तमुखी व्यक्ति था जिसने ऋग्वेद के भाष्य करने के पीछे अपने सच्चे मनोभावों और उद्‌देश्यों को अपने जीवन भर कभी भी सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया। मगर अपने हृदय की भावनाओं को १५ दिसम्बर १८६६ को केवल अपनी पत्नी को लिखे पत्र में अवश्य व्यक्त किया। उसके ये मनोभाव एवं उद्‌देश्य आम जनता को तभी पता चल सके जब उसके निधन के बाद, १९०२ में उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसकी जीवनी व पत्रों को सम्पादित कर दो खण्डों में एक दूसरी जीवनी प्रकाशित की। यदि श्रीमती जोर्जिना उसे अप्रकाशित पत्रों को प्रकाशित न करती तो विश्व उस छद्‌मवेशी व्यक्ति के असली चेहरे को आज तक भी नहीं जान पाता। अपनी पत्नी को लिखे इस पत्र में मैक्समूलर ने अपने वेद भाष्य के उद्‌देश्य को पहली बार दिल खोलकर उजागर किया। वह लिखता हैः
“I hope I shall finish that work, and I feel convinced, though I shall not live to see it, that this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country.  It is the root of their religion, and to show them what that root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung up from it during the last three thousand years.”  
(LLMM. Vol, 1, p. 328).
अर्थात्‌ ''मुझे आशा है कि मैं इस काम को (सम्पादन-भाष्य आदि) पूरा कर दूंगा और मुझे निश्चय है कि यद्यपि मैं उसे देखने के लिए जीवित न रहूँगा तो भी मेरा ऋग्वेद का यह संस्करण और वेद का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों की आत्माओं के विकास पर प्रभाव डालने वाला होगा। यह (वेद) उनके धर्म का मूल है और मूल को उन्हें दिखा देना जो कुछ उससे पिछले तीन हजार वर्षों में निकला है, उसको मूल सहित उखाड़ फैंकने का सबसे उत्तम तरीका है।'' 
(जी.प.,खं. १, ३२८)
उपरोक्त पत्र को पढ़ने के बाद पाठकों को और अधिक प्रमाणों की शायद आवश्यकता नहीं रहेगी। यहाँ मैक्समूलर स्वयं सच्चाई स्वीकारता है कि उसके वेद भाष्य का उद्‌देश्य क्या था। वह स्पष्ट कहता है कि उसके वेद और उससे निकले हिन्दू धर्म शास्त्रों के भाष्यादि का उद्‌देश्य हिन्दू धर्म को जड़ से उखाड़फैंकने का हैं भले ही वेदों में कितना ही श्रेष्ठ ज्ञान क्यों न हो। यदि वह इतना पक्षपाती और पूर्वाग्रही है, तो उसके साहित्य को पढ़ना और मानना ही व्यर्थ है।
इसका अर्थ यह भी हुआ कि जो कोई आज मैक्समूलर के वेद भाष्य को प्रामाणिक मानता है तथा वैसा प्रचार करता है, वह भी हिन्दू धर्म को जड़ से उखाड़ कर फैंक देना चाहता हूँ जैसा कि हम ईसाई मिशनरियों एवं कम्युनिष्टों के साहित्य व प्रचार कार्यों में देखते हैं।
(हिन्दु राइटर्स फोरम ) !!साभार!!

बुधवार, 9 मई 2012

प्री पीएचडी के परिणाम से विश्वविद्यालय के पठन-पाठन सवालों के घेरे में

ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे

प्री पीएचडी के परिणाम से विश्वविद्यालय

 के पठन-पाठन सवालों के घेरे में

ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, संपादक''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका

''जहाँ एक तरफ संस्कृत को प्रभावी बनाने जुटी हुई है, छत्तीसगढ़ संस्कृत विद्यामंडलम के अध्यक्ष डॉ.गणेश कौशिक और सचिव डॉ.सुरेश कुमार शर्मा प्रदेश के अलग-अलग क्षेत्रों में जाकर सामाजिक संगठनों एवं आमजनसाधारण को प्रोत्साहित कर संस्कृत के पुनरूद्धार के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं वहीं, कुछ लोग धरातली संस्कृत के जागरण, पठन पाठन एवं अकादमिकल संस्कृत के छात्रों को सहयोग व मार्गदर्शन देने के बजाय नेताओं की चाटूकारिता, मंचों पर आसीन हो किमती पुष्पहार पहनने में ही गौरव समझते हैं। ''

छत्तीसगढ़ के पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय की विश्वसनीयता और विश्वविद्यालयीन कार्य प्रणाली के प्रति उदासीनता आये दिन समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनती ही रहती है, कभी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) से मिले करोड़ों रुपयों के लैप्स का मामला हो, अथवा नकल मारकर थीसिस तैयार करने वाले डॉ. गुरूदास तोलानी की पीएचडी उपाधि , जिसे बाद में विश्वविद्यालय को पीएचडी निरस्त कर उनके गाइड डॉ. एसएस खनूजा को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया।
उल्लेखनीय है कि शासकीय गजानंद महाविद्यालय भाटापारा के सहायक प्राध्यापक डॉ. तोलानी को वर्ष 2006 में 'ग्रामीण विकास में बिलासपुर-रायपुर क्षेत्रीय बैंक की भूमिका (रायपुर जिले के विशेष संदर्भ में)Ó विषय पर पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय ने पीएचडी की उपाधि प्रदान की थी। इस पर शासकीय सत्यनारायण अग्रवाल कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय कोहका-नेवरा के प्राध्यापक डॉ. डीके वर्मा ने आपत्ति की थी। उन्होंने डॉ. तोलानी पर अपने थीसिस की नकल करने का आरोप लगाते हुए राज्यपाल से भी इसकी शिकायत की थी। डॉ. वर्मा के मुताबिक उन्होंने 'बिलासपुर-रायपुर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के कार्यों का आर्थिक विश्लेषण: समस्याएं एवं संभावनाएंÓ शीर्षक से अपना शोध पेश किया था। इस पर उन्हें वर्ष 1997 में पीएचडी की उपाधि दी गई थी। डॉ. तोलानी ने मिलते-जुलते शोध के नाम पर उनसे थीसिस ली थी, लेकिन उसकी नकल कर डाला। डॉ. तोलानी के शोध निदेशक डॉ. खनूजा थे। इन सभी तथ्यों के जांॅच के बाद विश्वविद्यालय ने डॉ. तोलानी के पीएचडी को निरस्त करने का निर्णय लिया था, जो विश्वविद्यालय के लापरवाही का ज्वलंत नमूना है।
दिलचस्प बात यह है कि जहाँ एक तरफ संस्कृत को प्रभावी बनाने जुटी हुई है, छत्तीसगढ़ संस्कृत विद्यामंडलम के अध्यक्ष डॉ.गणेश कौशिक और सचिव डॉ.सुरेश कुमार शर्मा प्रदेश के अलग-अलग क्षेत्रों में जाकर सामाजिक संगठनों एवं आमजनसाधारण को प्रोत्साहित कर संस्कृत के पुनरूद्धार के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं वहीं, कुछ लोग धरातली संस्कृत के जागरण, पठन पाठन एवं अकादमिकल संस्कृत के छात्रों को सहयोग व मार्गदर्शन देने के बजाय नेताओं की चाटूकारिता, मंचों पर आसीन हो किमती पुष्पहार पहनने में ही गौरव समझते हैं।
संस्कृत में पीएचडी करने का ख्वाब लिए 31 स्टूडेंट छह माह से भटक रहे, जिनमें 15 छात्रों का ही रजिस्ट्रेशन हो पया बाकि 16 छात्र आज भी वेटिंग में हैं। हालाकि संस्कृत में पीएचडी के लिए बाकायदे पिछले वर्ष 5 गाइड थे जो अब 6 गाइड घोषित किए गये हैं, कायदे से छह स्टूडेंट प्रति गाइड दिए जा सकते हैं। यू.जी.सी. के नये संशोधन आने की वजह से प्रशासनिक कार्यों का हवाला दे गइड(मार्गदर्शक) कतराते हैं। सबसे दु:खद बात तो यह है कि पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के छात्रों में पढऩे वाले भी संस्कृत और गणित के एक भी छात्र जो एम.ए. में 50 से 60 प्रतिशत अंको से पास हुए थे, वे भी पास नहीं हो सके जो विश्वविद्यालय के द्वारा कराये जाने वाले पठन-पाठन पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते है, जो हास्यास्पद है।
 पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय ने पिछले दिन प्री पीएचडी के नतीजे घोषित कर दिए। नतीजे विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर भी अपलोड हैं। नतीजों से विद्यार्थियों के होश उड़ गए है। गणित विषय में 113 विद्यार्थियों ने परीक्षा दी थी। इनमें से एक भी सफ ल नहीं हो सका है।
विश्वविद्यालय प्रशासन ने नतीजों की सूचना सभी केन्द्रों को भेज दी। नतीजे उम्मीदवारों के पक्ष में नहीं हैं। गणित ही नहीं, दर्शनशास्त्र और कम्प्यूटर साइंस ने भी विद्यार्थियों को झटका लगाया है। दोनों विषयों में केवल एक-एक उम्मीदवारों से प्रीपीएचडी उत्तीर्ण की है। दर्शनशास्त्र विषय में आठ और कम्प्यूटर साइंस विषय में 35 परीक्षार्थी शामिल हुए थे। सबसे अधिक 60 उम्मीदवार हिंदी विषय में सफल हुए हैं। बायोटेक्नोलॉजी के नतीजे भी संतोषजनक हैं। इसमें 26 छात्रों ने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। इसी प्रकार वाणिज्य में 25, भूगोल में 23, प्रबंधन में 21, राजनीति में 16, शिक्षा व अंग्रेजी में 12-12, पुरस्कालय विज्ञान में नौ और बॉटनी में आठ परीक्षार्थी सफल हुए। गौरतलब है कि विश्वविद्यालय ने दूसरी बार 22 अप्रैल को प्रीपीएचडी का आयोजन किया था। इसमें करीब 2300 परीक्षार्थी शामिल हुए थे।

कठिन है डगर:

प्रीपीएचडी उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थियों की राह अभी आसान नहीं हुई है। सफ ल उम्मीदवारों को पीएचडी शुरू करने से पहले गाइड तलाशना होगा। गाइड अनुमति देंगे, तभी आगे की प्रक्रिया शुरू हो पाएगी। दो बार प्रीपीएचडी होने के बाद अधिकांश गाइडों के पास सीटें फु ल हो गई हैं। इस स्थिति में नए विद्यार्थियों की राह में मुश्किलें खड़ी हो जाएगी।

खाली सीटें:
अंग्रेजी में 26 सीटें, हिंदी 55, संस्कृत 14, दर्शनशास्त्र 28, भाषा विज्ञान 9, ग्रंथालय एवं सूचना विज्ञान एक, इतिहास 21, राजनीति विज्ञान 45, अर्थशास्त्र 47, समाजशास्त्र 68, भूगोल 31, मनोविज्ञान 23, भौतिकी 57, रसायनशास्त्र 55, गणित 94, भूविज्ञान 29, सांख्यिकी 24, इलेक्ट्रानिक्स एक, कम्प्यूटर साइंस तीन, वनस्पति विज्ञान 39, एंथ्रेपोलॉली पांच, बायोसाइंस 21 , बायोटेक्नोलॉजी दो, वाणिज्य 84, गृहविज्ञान 33, शिक्षा एक और शारीरिक शिक्षा की एक सीट शामिल है।