ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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रविवार, 21 अक्तूबर 2012

अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे....

Pt.Vinod Choubey
छत्तीसगढ़ के भिलाई से प्रकाशित एकमात्र भारतीय धर्म-संस्कृति पर आधारित....राष्ट्र देवो भवः राष्ट्रे वयं जागृयामः का लक्ष्य ही भारत को विश्वमहाशक्ति और गुरु बना सकता है। ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका का ''दीप-पर्व स्पेशल'' अंक 2012 को आप नेट पर पढ़ें और अपने मित्रों को पढ़ाएं...।



अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे....

प्रिय पाठकों,
धन की प्राप्ति के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं किन्तु उनमें आस्था की दुनिया में धन की प्रतीक माँ लक्ष्मी को माना गया है और उनको प्रसन्न करने के लिए श्री सूक्तम् का पाठ प्राय: हम सभी करते हैं। श्री सूक्तम में कहा गया है अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे.... अर्थात अलक्ष्मी अथवा अनावश्यक तौर पर आने वाला धन जिसको काला धन कहा जाता है उसका नाश करें और हमें आप स्वयं वरण करें। लेकिन इसके बावजूद हम लोग दिनरात उसी अलक्ष्मी (भ्रष्टाचार के द्वारा अर्जित धन) के पीछे दौड़ते रहते हैं, जो एक ना एक दिन पर्दाफाश होकर अपने हाथ से निकल जाता है, साथ ही प्रतिष्ठा भी गंवानी पड़ती है। हालांकि वास्तविक लक्ष्मी (अर्जित धन) से मनुष्य धर्म और धर्मं से आरोग्यता (सुख) और अंतत: त्रिलोक-विजयी होकर मान-सम्मान, पद, प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है। हम लोग इस सूक्त का पाठ करते हैं परन्तु यह भूल जाते हैं कि इस काले धन का माँ लक्ष्मी के नजर में भी कोई स्थान नहीं होता है।  माँ लक्ष्मी को प्रसन्न करना चाहते हैं तो पहले अपने व्यापार, उद्योग, कर्मक्षेत्र को परिशोधन करने की आवश्यकता है।
यह अंक दीपोत्सव विशेषांक में समाज के अन्तगर्भित विचारों से भाग्य के प्रति किए गए छिद्रान्वेषण के वैज्ञानिकीय, सामाजिक, सामयिकी, ज्योतिषीय, दार्शनिक, तंत्र-मंत्र विज्ञान पर आधारित लेख सामग्री से परिपूर्ण यह पत्रिका आपको समर्पित है। चूंकि इसमें कर्म से भाग्य और भाग्य से सौभाग्य तथा लक्ष्मी की साधना का विशेष रूप से सम्पूर्ण पूजा विधान दिया गया है।
दीप दूसरों को प्रकाशित करता है किन्तु स्वयं को जलाकर अर्थात् अग्नि के ताप को स्वयं अंगीकार करते हुए दूसरों को प्रकाशित करता है। यह परोपकार का प्रतीक है जो मनुष्य परोपकाराय सतां विभूतय: के सूत्र को अपनाता है वही लक्ष्मीवान हो सकता है।
आजकल एक के बाद एक घोटाले, भ्रष्टाचार से अर्जित किया गये कालेधन से बने धनवान वास्तव में सबसे बड़े दरिद्र हैं क्योंकि विपन्नता छल और कपट से उत्पन्न होती है। जिस धन और जिस लक्ष्मी की परिकल्पना भारतीय शास्त्रों में की गई है वह धन परोपकार धन है इसलिए ऐसे परोपकारी सज्जनों को विभूति से परिभाषित किया गया अतएव परोपकाराय सताम् विभूतय:।
केन्द्र सरकार से लेकर राज्य सरकार और तमाम अफसर यहाँ तक कि मध्यप्रदेश के एक अध्यापक के यहाँ करोड़ों का कालाधन मिलना अपने आप में सबसे बड़ी विपन्नता का परिचायक है क्योंकि धन के बाद धर्म का पायदान है और धर्म के बाद ही मनुष्य उस धन का सुख भोग पाता है अन्यथा कारागार में कारागार में जीवन यापन करने को विवश हो जाता है। इसीलिए कहा गया है- धनात् धर्मम् तत: सुखम्।
साथ ही मैं यह भी बताना चाहूँगा कि, जहाँ धर्म है वहीं विजय है चाहे वह राजनीतिक हो, सामाजिक हो, पारवारिक हो या युद्धभूमि हो या व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का द्वंद्व युद्ध हो।
यतो धर्मस्ततो जय:।
सभी देश वासियों को धनतेरस और दीपावली पर्व पर हार्दिक शुभ कामनाओं के साथ महामाया लक्ष्मी से कामना करता हूं कि आपके जीवन में आरोग्य, सुख, समृद्धि, शांति का उल्लास भर दें।
ऋण रोगादि दारिद्वयं पाप क्षुदपमृत्यव:।
भय शोक मनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा॥
श्रीर्वर्चस्वभायुषअण मारोग्यमा विधाच्छो भमानं महीयते।
धनम् धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शत संवत्सरं दीर्घमायुर आरोग्यमस्तु। शुभमस्तु। कल्याणमस्तु।
संपादक- ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे
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अब पुनश्च चलते चलते...
सभी देश वासियों को धनतेरस और दीपावली पर्व पर हार्दिक शुभ कामनाओं के साथ महामाया लक्ष्मी से कामना करता हूं कि आपके जीवन में आरोग्य, सुख, समृद्धि, शांति का उल्लास भर दें।

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

भगवती दुर्गा की आराधना क्यों और कैसे


Pandit Vinod Choubey (jyotishacharya)

 भगवती दुर्गा की आराधना क्यों और कैसे

हमारे इस ब्लाग के नियमित पाठकों, ''ज्योतिष का सूर्य '' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के प्रिय पाठकों एवं समस्त देश वासियों आप सभी को नवरात्र के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ... आईए कल से यानी 16 अक्टूबर 2012 से शारदीय नवरात्र आरम्भ हो रहा है, अतएव आज शक्ति के पूजन-अर्चन एवं साधना विषयक कुछ प्रमुख बिन्दुओं पर चर्चा करें...। मुझे विश्वास है आप सभ अवश्य लाभान्वित होंगे साथ ही खुश भी, क्योंकि...चर्चा माँ की हो रही है...और माँ इक पुत्र के लिए कितनी प्यारी होती है....। और जब चर्चा माँ की हो तो पुत्र को खुश होना ही है।
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, सम्पादक, ''ज्योतिष का सूर्य '' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई-098271-98828 (यह ज्योतिष का सूर्य पत्रिका के सितम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित हो चुका है)
भगवती दुर्गा की आराधना का सर्वोत्तम अवसर नवरात्र हैं जिसके हर दिन भगवती के नवीन स्वरूपों की पूजा-अर्चना होती है और जप-पाठ आदि के धार्मिक अनुष्ठान आयोजित होते हैं। श्रद्धालु भक्त भगवती के नव स्वरूपों की पूजा कर कृतार्थ होते हैं और देवी की अनुकपा से उनके सभी मनोरथ पूरे होते हैं। चाहे कोई भी संकट हों, विघ्न-बाधाओं के बादल प्रलय ढाने को तैयार हों, ग्रहों के प्रतिकूल प्रभाव हों – हर प्रकार की कठिनाइयां भगवती दुर्गा के आशीर्वाद से दूर हो जाती हैं। यही वजह है कि सनातन काल से लोग भगवती की नवरात्रों में विशेष पूजा किया करते हैं। नवरात्र के अवसर पर प्रस्तुत हैं माकण्डेय पुराण से संकलित देवी माहात्म्य को रेखांकित करने वाली प्रथम चरित्र-कथा जिसमें भगवती ने मधु कैटभ दैत्य का संहार किया था। कौष्टुकि मुनि के पूछने पर महर्षि मार्कण्डेय जी ने उन्हें श्री शनिदेव के भ्राता सावर्णि मनु की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाने के बाद उनके मन्वंतर के स्वामी बनने का आख्यान सुनाने के क्रम में भगवती के प्रथम चरित्र का भी गान किया।
मार्कण्डेय जी बोले - सूर्य के पुत्र साविर्णि जो आठवें मनु कहे जाते हैं, उनकी उत्पत्ति की कथा विस्तार पूर्वक कहता हूँ, सुनो। सूर्य कुमार महाभाग सवर्णि भगवती महामाया के अनुग्रह से जिस प्रकार मन्वन्तर के स्वामी हुए, वही प्रसंग सुनाता हूँ। पूर्वकाल की बात है,स्वारोचिष मन्वन्तर में सुरथ नाम के एक राजा थे, जो चैत्र वंश में उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भूमण्डल पर अधिकार था । वे प्रजा का अपने और पुत्रों की भाँति धर्मपूर्वक पालन करते थे। फिर भी उस समय कोलाविध्वंसी नाम के क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये। राजा सुरथ की दण्डनीति बड़ी प्रबल थी। उनका शत्रुओं के साथ संग्राम हुआ। यद्यपि कोलाविध्वंसी संख्या में कम थे, तो भी राजा सुरथ युद्ध में उनसे परास्त हो गये। तब वे युद्ध भूमि से अपने नगर को लौट आये और केवल अपने देश के राजा होकर रहने लगे (समूची पृथ्वी से अब उनका अधिकार जाता रहा) किंतु वहाँ भी उन प्रबल शत्रुओं ने उस समय महाभाग राजा सुरथ पर आक्रमण कर दिया।
राजा का बल क्षीण हो चला था, इसलिये उनके दुष्ट, बलवान एवं दुरात्मा मंत्रियों ने वहाँ उनकी राजधानी में भी राजकीय सेना और खजाने को वहाँ से हथिया लिया। सुरथ का प्रभुत्व नष्ट हो चुका था, इसलिये वे शिकार खेलने के बहाने घोड़े पर सवार हो वहाँ से अकेले ही एक घने जंगल में चले गये। वहाँ उन्होंने विप्रवर मेधा मुनि का आश्रम देखा, जहाँ कितने ही हिसंक जीव (अपनी स्वाभाविक हिंसावृत्ति छोड़कर) परम शान्त भाव से रहते थे। मुनि के बहुत से शिष्य उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। वहां जाने पर मुनि ने उनका सत्कार किया और वे उन मुनि श्रेष्ठ के आश्रम पर इधर-उधर विचरते हुए कुछ काल तक वहां रहे। फिर ममता से आकृष्टचित्त होकर उस आश्रम में इस प्रकार चिंता करने लगे – पूर्वकाल में मेरे पूर्वजों ने जिसका पालन किया था, वहीं नगर आज मुझसे रहित है। पता नहीं, मेरे दुराचारी भृत्यगण उसकी धर्मपूर्वक रक्षा करते हैं या नहीं। जो सदा मद की वर्षा करने वाला और शूरवीर था, वह मेरा प्रधान हाथी अब शत्रुओं के अधीन होकर न जाने किन भोगों को भोगता होगा? जो लोग मेरी कृपा, धन और भोजन पाने से सदा मेरे पीछे-पीछे चलते थे, वे निश्चय ही अब दूसरे राजाओं को अनुसरण करते होंगे। उन अपव्ययी लोगों के द्वारा खर्च होते रहने के कारण अत्यन्त कष्ट से जमा किया हुआ मेरा वह खजाना भी खाली हो जायेगा। ये तथा और भी कई बातें राजा सुरथ निरंतर सोचते रहते थे।
एक दिन उन्होंने वहाँ विप्रवर मेधा के आश्रम के निकट एक वैश्य को देखा और उससे पूछा – भाई, तुम कौन हो? यहां तुम्हारे आने का क्या कारण है? तुम क्यों शोकग्रस्त और अनमने से दिखायी देते हो? राजा सुरथ का यह प्रेम पूर्वक कहा हुआ वचन सुनकर वैश्य ने विनीत भाव से उन्हें प्रणाम करके कहा – राजन्! मैं धनियों के कुल में उत्पन्न एक वैश्य हँ। मेरा नाम समाधि है। मेरे दुष्ट स्त्री-पुत्रों ने धन के लोभ से मुझे घर से बाहर निकाल दिया है। मैं इस समय धन, स्त्री और पुत्र से वंचित हूँ। मेरे विश्वसनीय बंधुओं ने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है, इसलिये दुखी होकर मैं वन में चला आया हँ। यहाँ रहकर मैं इस बात को नहीं जानता कि मेरे पुत्रों की, स्त्री की और स्वजनों का कुशल है या नहीं। इस समय घर में वे कुशल से रहते हैं, अथवा उन्हें कोई कष्ट है? वे मेरे पुत्र कैसे हैं? क्या वे सदाचारी हैं अथवा दुराचारी हो गये हैं?
राजा ने पूछा – जिन लोभी स्त्री-पुत्र आदि ने धन के कारण तुम्हें घर से निकाल दिया, उनके प्रति तुम्हारे चित्त में इतना स्नेह क्यों है?
वैश्य बाला – आप मेरे विषय में जो बात कहते हैं, वह सब ठीक है। किंतु क्या करूँ, मेरा मन निष्ठुरता नहीं धारण करता। जिन्होंने धन के लोभ में पड़कर पिता के प्रति स्नेह, पति के प्रति प्रेम तथा आत्मीयजन के प्रति अनुराग को तिलाञ्जलि दे मुझे घर से निकाल दिया है, उन्हीं के प्रति मेरे हृदय में इतना स्नेह है। महामते, गुणहीन बन्धुओं के प्रति भी जो मेरा चित्त इस प्रकार प्रेम मग्न हो रहा है, यह क्या है – इस बात को मैं जानकर भी नहीं जान पाता। उनके लिये मैं लंबी साँसें ले रहा हँ और मेरा हृदय अत्यन्त दु:खित हो रहा है। उन लोगों में प्रेम का सर्वथा अभाव है, तो भी उनके प्रति जो मेरा मन निष्ठुर नहीं हो पाता, इसके लिये क्या करुँ।
मार्कण्डेयजी कहते हैं – तदन्तर राजाओं में श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य दोनों साथ-साथ मेधा मुनि की सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ यथायोग्य न्यायानुकूल विनयपूर्ण बर्ताव करके बैठे। तत्पश्चात वैश्य और राजा ने कुछ वार्तालाप आरंभ किया।
राजा ने कहा – भगवन् मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, उसे बताइये। मेरा चित्त अपने अधीन न होने के कारण वह बात मेरे मन को बहुत दु:ख देती है। मुनिश्रेष्ठ जो राज्य मेरे हाथ से चला गया है, उसमें और उसके सम्पूर्ण अंगों में मेरी ममता हो रही है। यह जानते हुए भी कि वह अब मेरा नहीं है, अज्ञानी की भाँति मुझे उसके लिये दु:ख होता है, यह क्या है? इधर यह वैश्य भी घर से अपमानित होकर आया है। इसके पुत्र, स्त्री और भृत्यों ने इसको छोड़ दिया है। स्वजनों ने भी इसका परित्याग कर दिया है, तो भी इसके हृदय में उनके प्रति अत्यन्त स्नेह है। इस प्रकार यह तथा मैं दोनों ही बहुत दुखी हैं। जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है, उस विषय के लिये भी हमारे मन में ममता जनित आकर्षण पैदा हो रहा है। महाभाग हम दोनों समझदार है,तो भी हममें जो मोह पैदा हुआ है, यह क्या है? विवेकशून्य पुरुष की भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है।
ऋषि बोले – महाभाग, विषय मार्ग का ज्ञान सब जीवों को है। इसी प्रकार विषय भी सबके लिये अलग-अलग हैं। कुछ प्राणी दिन में नहीं देखते, और दूसरे रात में ही नहीं देखते। तथा कुछ जीव ऐसे हैं, जो दिन और रात्रि में भी बराबर ही देखते हैं। यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं, किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते। पशु-पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं। मनुष्यों की समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियों की होती है तथा जैसी मनुष्यों की होती है, वैसी ही उन मृग-पक्षी आदि की होती है। यह तथा अन्य बातें भी प्राय: दोनों में समान ही हैं। समझ होने पर भी इन पक्षियों को तो देखो, यह स्वयं भूख से पीडि़त होते हुए भी मोहवश बच्चों की चोंच में कितने चाव से अन्न के दाने डाल रहे हैं। नरश्रेष्ठ, क्या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य समझदार होते हुए भी लोभवश अपने किये हुए उपकार का बदला पाने के लिये पुत्रों की अभिलाषा करते हैं? यद्यपि उन सबमें समझ की कमी नहीं है, तथापि वे संसार की स्थिति (जन्म-मरण की परम्परा) बनाये रखने वाले भगवती महामाया के प्रभाव द्वारा ममतामय भँवर से युक्त मोह के गहरे गर्त में गिराये जाते हैं। इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। जगदीश्वर भगवान विष्णु की योगनिद्रारूपा जो भगवाती महामाया हैं, उन्हीं से यह जगत मोहित हो रहा है। वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं। वे ही इस संपूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करती हैं तथा वे ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मुक्ति के लिये वरदान देती हैं। वे ही पराविद्या, संसार-बंधन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनी देवी तथा संपूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं।
राजा ने पूछा – भगवन, जिन्हें आप महामाया कहते हैं, वे देवी कौन हैं? ब्रह्मन्! उनका अविर्भाव कैसे हुआ? तथा उनके चरित्र कौन-कौन हैं ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे, उन देवी का जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो और जिस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ हो, वह सब मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ।
ऋषि बोले – राजन्! वास्तव मे तो वे देवी नित्यस्वरूपा ही हैं। सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का रूप है तथा उन्होंने समस्त विश्व को व्याप्त कर रखा है, तथापि उनका प्राकटय अनेक प्रकार से होता है। वह मुझ से सुनो। यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि जब देवताओं को कार्य सिद्ध करने के लिये प्रकट होती हैं, उस समय लोक में उत्पन्न हुई कहलाती हैं। कल्प के अन्त में जब सम्पूर्ण जगत् एकार्णव में निमग् हो रहा था और सबके प्रभु भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या बिछाकर योगनिद्रा का आश्रय ले सो रहे थे, उस समय उनके कानों की मैल से दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मुध और कैटभ के नाम से विख्यात थे। वे दोनों ब्रह्मा जी का वध करने को तैयार हो गये।
भगवान विष्णु के नाभिकमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्माजी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया और भगवान को सोया हुआ देखा तो एकाग्रचित्त होकर उन्होंने भगवान विष्णु को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा का स्तवन आरम्भ किया। जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान ब्रह्मा स्तुति करने लगे।
ब्रह्मा जी ने कहा – देवि तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तम्ही वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार – इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो। देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। देवि! तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुम से ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्ही कल्प के अंत में सबको अपना ग्रास बना लेती हो।
जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पप्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो। तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोह रूपा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्रीं और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लाज्जा , पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खङ्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ – ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। तुम सौम्य और सौम्यतर हो – इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्याधिक सुन्दरी हो। पर और अपर – सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो।
सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हींहो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है। जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार णकरते हैं, उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है तो तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है। मुझको, भगवान शंकर को तथा भगवान विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है। अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है। देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्घर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।
ऋषि कहते हैं – राजन्! जब ब्रह्मा जी ने वहाँ मधु और कैटभ को मारने के उद्देश्य से भगवान विष्णु को जगाने के लिए तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्ष स्थल से निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी की दृष्टि के समक्ष खडी हो गयी।
योगनिद्रा से मुक्त होने पर जगत के स्वामी भगवान जनार्दन उस एकावर्णव के जल में शेषनाग की शय्या से जाग उठे। फिर उन्होंने उन दोनों असुरों को देखा। वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त बलवान तथा परक्रमी थे और क्रोध से ऑंखें लाल किये ब्रह्माजी को खा जाने के लिये उद्योग कर रहे थे। तब भगवान श्री हरि ने उठकर उन दोनों के साथ पाँच हजार वर्षों तक केवल बाहु युद्ध किया। वे दोनों भी अत्यन्त बल के कारण उन्मत्त हो रहे थे। इधर महामाया ने भी उन्हें मोह में डाल रखा था, इसलिये वे भगवान विष्णु से कहने लगे – हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हैं। तुम हम लोगों से कोई वर माँगो।
श्री भगवान् बोले – यदि तुम दोनों मुझ पर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथ से मारे जाओ। बस, इतना सा ही मैंने वर माँगा है। यहाँ दूसरे किसी वर से क्या लेना है।
ऋषि कहते हैं – इस प्रकार धोखे में आ जाने पर जब उन्होंने सम्पूर्ण जगत में जल ही जल देखा तब कमलनयन भगवान से कहा – जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो।
ऋषि कहते हैं- तब तथास्तु कहकर शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रखकर चक्रसे काट डाले। इस प्रकार ये देवी महामाया ब्रह्माजी की स्तुति करने पर स्वयं प्रकट हुई थीं।

दुर्गा सप्तशती में भगवती दुर्गा के सुन्दर इतिहास के साथ-साथ गूढ़ रहस्यों का भी वर्णन किया गया है। राजा सुरथ ने भी दुर्गा आराधना से ही अखण्ड साम्राज्य प्राप्त किया था। न जाने कितने की आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा मंत्र साधक माँ दुर्गा के सिद्ध मंत्र की साधना कर अपने मनोरथों को पूरा करने में सफलता प्राप्त कर चुके हैं। नवरात्रों अथवा ग्रहण काल में दुर्गा मंत्र की साधना कर आप भी अपने मनोरथ पूर्ण कर सकते हैं। यह मंत्र साधना सभी प्रकार के फल प्रदान करती है। ? ह्रीं दुं दुर्गायै नम: – यह आठ अक्षरों का भगवती दुर्गा का सिद्धि मंत्र है जिसका पाठ रक्तचन्दन की 108 दाने की माला से प्रतिदिन शुद्ध अवस्था में साधक को करना चाहिये।

साधना विधि – नवरात्र, सूर्य या चन्द्र ग्रहण के समय अथवा किसी भी शुभ मुहूर्त में इस साधना को करें। नवरात्र में पूरे 9 दिनों तक नियम के साथ दैनिक पूजन और मंत्र जप करें। ग्रहण काल में जितना समय ग्रहणकाल रहता है उतने ही समय तक मंत्र जाप साधना करनी चाहिये। नवरात्र के 9 दिनों की साधना में प्रतिदिन 27 माला जपने का विधान है। 9 दिनों में 24000 मंत्र जप के बाद 9वें दिन इसी मंत्र को पढ़ते हुए 108 बार आहुति देकर हवन करना चाहिये। इस प्रकार यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। इस दुर्गा मंत्र का प्रभाव अचूक है।
यदि साधक ने 9 दिनों तक नियमित मंत्र जप और हवन की क्रिया पूरी कर ली तो वह कभी भी इस मंत्र को पढ़कर, दूब से जल छिड़कते हुये किसी की आपदाओं या बाधाओं का निवारण कर सकता है – चाहे कोई भी आर्थिक संकट हो, भूतादि ग्रहों की पीड़ा हो, प्रेत-पिशाच बाधा हो, दुर्भाग्य हो, नवग्रह पीड़ा हो, रोग अथवा बीमारी हो, शत्रु षडयंत्र की पीडा हो।
दुर्गाजी की प्रतिमा चित्र तथा श्री सिद्ध दुर्गा यंत्र जिसे नवार्ण मंत्र से प्रतिष्ठित किया गया हो। उसे लाल रंग के शुद्ध रेशमी कपड़े पर आसीन करके स्नान करायें। लाल चंदन, पुष्प, दीप व नैवेद्य अर्पित करें, फिर दुर्गाजी की स्तुति और ध्यान करें -

अध्यारूढ़ां मृगेन्द्रं सजल जलधर श्यामलां हस्त पद्मां।
शूलं वाणं कृपाणं त्वसि जलज गदा चाप पाशान् वहन्ती।
चंद्रोतंशां त्रिनेत्रां चितसृणिरसिमाखेटं विभ्रतीभि:।
कन्याभि: सेव्यमाना प्रतिभट भयदां शूलिनीं भावयाम:॥

ध्यान स्तुति के बाद परम तन्मय भाव से उपर्युक्त सिद्ध दुर्गा मंत्र का जाप करे। सिद्ध दुर्गा साधना के लिये सर्वप्रथम शुद्ध स्थान पर आसन बिछाकर, पूजा की सारी सामग्री पहले से वहां रख लें। ताम्र पत्र अथवा भोजपत्र पर रचित श्री सिद्ध दुर्गा यंत्र काठ के पीढ़े पर एक कपड़ा बिछाकर उस पर स्थापित करें। यंत्र तथा मूर्ति अथवा चित्र जो भी हो उसकी रक्त चंदन, पुष्प, अक्षत, धूप-दीपादि से पूजा करके रक्त चंदन की 108 दाने की माला से दुर्गा अष्टाक्षर मंत्र का 27 माला जप करें। जप के समय घी का दीपक दुर्गाजी के सम्मुख जलाये। विकल्प के रूप में मीठे तेल के दीपक से भी काम चलाया जा सकता है। इस उपासना के लिये ऊनी आसन का ही प्रयोज्य होता है। माला लाल चंदन की, कुशाग्रंथि की अथवा रुद्राक्ष की भी ले सकते हैं। रक्त चंदन की माला सर्वश्रेष्ठ होती है। जप के लिये अर्द्धरात्रि का समय उत्तम होता है।
मंत्र जप समाप्त होने पर पूजा से उठने के पूर्व क्षमा याचना करते हुये दुर्गा जीे की स्तुति पढऩी चाहिये। स्तुति पढऩे या याद करने में असुविधा हो तो के वल श्री दुर्गायै नम: का सात बार जप करके देवी की प्रतिमा को क्षमा याचना हेतु प्रणाम करना चाहिये। मंत्र जप हो जाने पर कभी भी, किसी भी प्रकार प्रतिकूलता के शमन की आवश्यकता पडने पर इसे पढ़ते हुए उस पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, सम्पादक, ज्योतिष का सूर्य, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई-098271-98828

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

आयु: पुत्रान्यश: स्वर्ग कीर्ति पुष्टि बलं .........1

Pandit Vinod Choubey (jyotishacharya)

पितृ अमावस्या के पावन पर्व पर सभी देश वासियों को हार्दिक शुभकामनाएँ.....।

आयु: पुत्रान्यश: स्वर्ग कीर्ति पुष्टि बलं .........1

पितृ को पिण्डदान करने वाला हर व्यक्ति दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, लक्ष्मी, पशु, सुख साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है। यही नहीं पितृ की कृपा से ही उसे सब प्रकार की समृद्धि, सौभाग्य, राज्य तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। आश्विन मास के पितृ पक्ष में पितृ को आस लगी रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्डदान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे।

आयु: पुत्रान्यश: स्वर्ग कीर्ति पुष्टि बलं यिम्पशून्सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात्पितृपूजनात्।
यही आशा लेकर वे पितृलोक से पृथ्वी लोक पर आते हैं। अतएव प्रत्येक हिंदू गृहस्थ का धर्म है कि वह पितृपक्ष में अपने पितृ के लिए श्राद्ध एवं तर्पण करें तथा अपनी श्रद्धानुसार पितृ के निमित्त दान करें। वैसे तो हर माह आने वाली अमावस्या पितृ की पुण्यतिथि है। लेकिन आश्विन की अमावस्या पितृ के लिए परम फलदायी है। इस अमावस्या को ही पितृविजर्सनी अमावस्या अथवा महालया कहते हैं। जो व्यक्ति पितृपक्ष के पंद्रह दिनों तक श्राद्ध तर्पण आदि नहीं कहते हैं, वह लोग अमावस्या को ही अपने पितृ के निमित्त श्राद्धादि सम्पन्न करते हैं।

जिन पितृ की तिथि याद नहीं हो, उनके निमित्त श्राद्ध तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है। अमावस्या के दिन सभी पितृ का विसर्जन होता है। अमावस्या के दिन पितृ अपने पुत्रादि के द्वार पर पिण्डदान एवं श्राद्धादि की आशा में जाते हैं। यदि वहां उन्हें पिण्डदान या तिलाज्जलि आदि नहीं मिलती है तो वे शाप देकर चले जाते हैं। अत: श्राद्ध का परित्याग नहीं करना चाहिए। पितृपक्ष पितृ के लिए पर्व का समय है। अत: इस पक्ष में श्राद्ध किया जाता है जिसकी पूर्ति अमावस्या को विसर्जन तर्पण से होती है।

पितृ पक्ष के दिनों में लोग अपने पितरों की संतुष्टि के लिए संयमपूर्वक विधि-विधान से पितृ यज्ञ करते हैं, लेकिन कार्य की अतिव्यस्तता के कारण यदि कोई श्राद्ध करने से वंचित रह जाता है तो उसे पितृ विसर्जनी अमावस्या को प्रात: स्नान करने के बाद गायत्री मंत्र जपते हुए सूर्य को जल चढाने के बाद घर में बने भोजन में से पंचबलि जिसमें सर्वप्रथम गाय के लिए, फिर कुत्ते के लिए, फिर कौए के लिए, फिर देवादि बलि एवं उसके बाद चीटियों के लिए भोजन का अंश देकर श्रद्धापूर्वक पितरों से सभी प्रकार का मंगल होने की प्रार्थना कर भोजन कर लेने से श्राद्ध कमोंü की पूर्ति का फल अवश्य ही मिलता है तथा वह व्यक्ति धन, समस्त सुख आदि की प्राप्ति कर मोक्ष को प्राप्त होता है।

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

ज्योतिष और लक्ष्मी योग

ज्योतिष और लक्ष्मी योग

इस भौतिक मानवीय जीवन में से लक्ष्मी का प्रभुत्व छोड़दें तो शेष रह जाता है शून्य। लक्ष्मी है कि चिर युवा व चंचला होने के कारण एक जगह टिकती ही नहीं।
चाणक्य ने ठीक ही कहा है कि निर्धनता आज के युग का सबसे बड़ा अभिशाप ै। कैसी विचित्र सिथिति है कि शुक्र दैत्य गुरु है और बृहस्पति देवगुरु हैं। इनमें शुक्र संपत्ति का भोगव गुरु धनप्राप्ति कारक हैं एवं परस्पर शत्रु। दोनों की श्रेष्ठïता हो तभी व्यक्ति धनोपार्जन कर, उसका भोग कर सकता है। आनन्द संग्रह कर सकता है। जन्मकुण्डली में उक्त दोनों ग्रह अर्थात बृहस्पति व शुक्र दिनपति सूर्य व निशानाथ चंद्रमा से अच्छा संबंध करते हों अर्थात इनके साथ हों या देखे जाते हों तो व्यक्ति जीवन में यथेष्टï मात्रा में धन संग्रह करता है। इसी कारण से शुक्र-चंद्र लाटरी योग व गुरु-चंद्र गज-केसरी योग बनाते हैं।
वृष लग्न, कन्या लग्न और मकर लग्न में उत्पन्न जातकों में धन प्राप्त करने की इच्छा व लालसा अन्य लग्नोत्पन्न जातकों से अधिक होती है लेकिन ये खर्च करना नहीं चाहते। मकर लग्नोत्पन्न व्यक्ति परोपकार व यशोपर्जन के लिए तो कम से कम धन खर्च कर ही लेता है। मिथुन, तुला व कुम्भ लग्नोत्पन्न जातक का आकर्षण धन के प्रति होता है। वे मितव्ययी तो होते हैं परन्तु कृपण नहीं। मेष, सिंह व धनु लग्न के जातक जीवन में हर भौतिक इच्छा पूर्ण करना चाहते हैं। वे ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यचीच करने का मुख्य साधन मानते हैं। सिंह लग्न का व्यक्ति इसमें सबसे आगे रहता है। चंद्रमा चलायमान, चंचल व भावुक ग्रह हैं, अत: कर्क लग्नोत्पन्न व मंगल राशि, वृश्चिक व मीन राशि लग्नोत्पन्न व्यक्ति अत्यन्त भावुक होते हैं। इनमें धन संग्रह करने की तीव्र आकांक्षी होती है। शुक्र भोग-सेक्स, भौतिक सुख, संपत्ति, विलासिता, ऐश्वर्य, आनन्द का सूचक ग्रह है। बृहस्पति धन संपदा प्राप्ति कारक है। इस लेख में आपको विभिन्न ग्रहों की स्थिति, स्वामी एवं उच्च-नीच आदि शब्दों का प्रयोग जानना होगा, इसके लिए आपको इस सारणी का उपयोग फलदायक होगा।
लग्न, पंचम एवं नवम भाव के स्वामी ग्रहों का चन्द्रमा व शुक्र सेसंबंध हो चो अचानक धन प्राप्त होता है।
गुरु धन एवं समृद्धि का कारक है। चन्द्रमा तीव्रता का कारक है। शुक्र सौन्दर्य का, ऐश्वर्य का, गुप्त कार्यों का कारक है। यदि तीनों की स्थिति गोचर में जन्मकुण्डली के समन्वय करते हुए शुभ स्थानों में होती है साथ ही दशा अन्र्दशा भी अनुकूल हो तो व्यक्ति को अवश्य ही करोड़पति बना देती है।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि उपरोक्त धन प्राप्ति के यगो भी जन्म कुण्डली में स्थित है लेकिन किस समय कौनसी दशा अन्र्दशा में धन प्राप्ति का, करोड़पति बनने का योग घटित होगा?
त्रिकोण भाव के स्वामी ग्रहों की महादशा में या द्वितीय या एकादश भाव के स्वामी ग्रहों की महादशा एवं एकादश या द्वितीय भाव की अन्तर्दशा हो। पुन: इन्ही ग्रहों की प्रत्यन्तर दशा एवं सूक्ष्म दशा में परस्पर आपसी शुभ संबंध होने पर व्यक्ति करोड़पति बन जाता है।

कुछ योग:

द्वितीय, अ।्टम व नवम भाव के स्वामी ग्रहों का केन्द्र त्रिकोण से शुभ संबंध होने पर साहसी, खतरनाक प्रतियोगिताओं, प्रतिस्पर्धाओं से धन प्राप्ति होती है।
लग्न, पंचम एवं नवम भाव का अथवा उनके स्वामी ग्रहों का आपसी शुभ संबंध होने पर बुद्धि क्षमता वाली प्रतियोगिताओं से धन प्राप्ति होती है।
धन, भाव एकादश भाव एवं भाग्य भाव में स्थित ग्रहों अथवा इन भावों से स्वामी ग्रहों का आपसी भाव परिवर्तन होने पर करोड़पति अवश्य बनता है।
एकादशेश तथा द्वितीयेश चतुर्थ भाव में हों तथा चतुर्थेश शुभ ग्रह की राशि में शुभ ग्रह से युत अथवा दृष्टï हो तो जातक को आकस्मिक रूप से धन का लाभ हो तो जातक को आकस्मिक रूप से धन का लाभ होता है। यदि पंचम भाव में स्थित चन्द्रमा शुक्र से दृष्टï हो तो व्यक्ति को लाटरी, शेयर, सट्टïे, रेस आदि से धन प्राप्त होता है। यदि धनेश शनि हो और वह चतुर्थ, अष्टïम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो तथा बुध सप्तम भाव में स्वक्षैत्री होकर स्थित हो तो आकस्मिक रूप से धन का लाभ होता है।
अब मैं प्रत्येक लग्न के अनुसार उनके धन-समृद्धि के योग स्पष्टï कर रहा हूं।
मेष लग्न:
मेष लग्न हो, मंगल कमेश भाग्येश 5वें हो तो जातक लक्ष्याधिपति बनात हैं। मेष राशिस्थ लग्न की कुण्डली में सूर्य स्व का हो, गुरु चंद्र की युति 11वें हों तो जातक लक्ष्मीवान होता है।
वृष लग्न:
बुध एवं शनि द्वितीय स्थान में हों तो धन प्राप्ति होती है।
शुक्र मिथुन का हो, बुध मीन का हो, गुरु ध्रुव केन्द्र में हो ते जातक को यकायक अर्थ की प्राप्ति होती है।
मिथुन लग्न:
भाग्येश भाग्य भवन में बैठकर बुध से युति करे तो द्रव्य की प्राप्ति का योग होता है। द्वितीयेश उच्च स्थान में बैठा ो तो पैतृक धन की प्राप्ति होती है।
कर्क लग्न :
गुरु शत्रु भावस्था हो तथा केतु से युति करें तो जातक बहुत ऐश्वर्यवान, योग्य व राजनीति पटु होता है।
कर्क लग्न की कुण्डली में शुक्र 12वें या 2रे भाव में हो तो जातक धनवान होता है।
सिंग लग्न:
शुक्र बलवान होकर चतुर्थेश केसाथ चतुर्थ भाव में हो तो जातक को आजीवन सुख प्राप्त होता।
शुक्र सूर्य के नवांश में हो तो जातक ऊन, दवा, घास, धान, सोना, मोती आदि के व्यापार से अथोपार्जन करता है।
कन्या लग्न:
शुक्र  व केतु दूसरे भाव में हो तो व्यक्ति धनाढ्य होता है तथा आकस्मिक ढंग से अर्थ की प्राप्ति होती है।
चन्द्रमा 10वें स्थान में मिथुन राशि का हो, दशमेश बुध लग्न में हो तथा भाग्येश शुक्र द्वितीय स्थान में हो तो जातक धनवान भाग्यवान व उच्च पदाधिकारी होता है।
तुला लग्न:
शुक्र यदि केतु सहित द्वितीय भाव में हो तो जातक को निश्चय ही लक्ष्याधिपति बना देता है।
जन्म का लग्न तुला हो तथा राहु, शुक्र, मंगल, शनि 12वें भाव में यानी कन्या राशि में हों तो जातक कुबेर से भी अधिक धनवान होता है।
वृश्चिक लग्न :
गुरु व बुध पंचम स्थान में हों तथा चंद्रमा 11 वें भावस्थ हो तो जातक करोड़पति होता है।
चन्द्रमा गुरु, केतु नवम भाव में हों तो विशेष भाग्योदय होता है। चंद्रमा भाग्येश है, गुरु के साथ स्तित हो गज केशरी योग बनाता है, गुरु अपनी उच्च राशि में भी होता है जो कि धनेश है।
धनु लग्न:
गुरु, बुध लग्न में सूर्य, शुक्र द्वितीय भाव में मंगल, राहु, षष्ठïम् भाव में तथा शेष 3 ग्रह अलग-अलग कहीं भी हों तो जातक आजीवन सुख भोगता है। चंद्रमा 8वें भाव में हों, कर्क राशि में सूर्य शुक्र शनि स्थित हों तो विख्यात, शिल्पादि कलाओं का जानकार पतला पर दृढ़ शरीर से युक्त अनेक सन्तानों से युक्त व निरन्तर संपत्तिवान रहता है।
मकर लग्न :
चन्द्रमा व मंगल एक साथ 1/4/7/10 केन्द्र भावस्थ 5/9 त्रिकोण में अथवा 2/11 भाव में कही हो तो जातक धनाढ्य होता है।
धनेश तुला राशि में एवं लाभेश मंगल मकर राशिगत अर्थात् लग्न में हो तो जातक धनवान होता है।
कुंभ लग्न:
10वें भाव में अर्थात वृश्चिक राशि में चन्द्र शनि का योग हो तो वह जातक कुबेर तुल्य ऐश्वर्य सम्पन्न होता है।
कुंभ लग्न हो, शनि लग्न में स्व का स्थित हो, मंगल की 8वीं दृष्टिï शनि पर हो तो राजराजेश्वर योग होने से जातक पूर्णरूपेण संपन्न, सुखी, धनवान, दीर्घायु होता है।
मीन लग्न :
यदि दूसरे भाव में चन्द्रमा एवं 5वें भाव में मंगल हो तो मंगल की दशा में श्रेष्ठï धन लाभ होता है।
गुरु 6वें भाट में हो, शुक्र 8वें, शनि 12वें तथा चन्द्रमा मंगल 11वें भावस्थ हों तो उच्चाति उच्च धनदायक योग बनात है।
लाल किताब और धनी योग :
आज दो प्रकार की ज्योतिषीय गणना द्वारा फल निकाले जाते हैं-एक तो परंपरागत प्राचीन ज्योतिष है, दूसरा, मुलकाल में विकसित सामुद्रिक ज्योतिष है, जिसे लाल किसाब के नाम से जाना जाता है। हम यहां लाल किताब के विशिष्टï योग दे रहे हैं क्योकि यह आसान है। इसकी गणना तकनीकी में परंपरागत अंतर है।
(1) खाना नं. 3 एवं 4 में चंद्रमा और मंगल साथ हों, तो श्रेष्ठï धन की प्राप्ति होगी। (2) चंद्रमा और मंगल खाना नं. 10 एवं 11 मे हो, तो धन नष्ट होगा। (3) चंद्रमा और मंगल शनि के साथ हो या उसके प्रभाव में हों, तो भी धन हानि होग।
(4) खान नं. 4 में चंद्रमा और बृहस्पति हो, तो गुप्त स्त्रोत से या दबा हुआ (किसी के अधिकार में सुक्षित या अपनी ही अनभिज्ञता में स्थित) धन प्राप्त होगा। यह धन बढ़ता ही जायेगा। (5) खान नं. 4 में मंगल एवं शुक्र हों, तो ससुराल से धन की प्राप्ति होगी या स्त्री के द्वारा धन प्राप्त होगा। (6) खान नं. 4 में बृहपस्ति व शनि हों, तो शादी के बाद धन बढ़ेगा। (7) मंगल, बृहस्पति हों, तो श्रेष्ठï गृहस्थी धन मिलता रहेगा। (8) मंगल, शनि हों, तो लूटमार, बेईमानी, प्रपंच का धन प्राप्त होगा। (9) शुक्र, बृहस्पति हों, तो धन की स्थिति झाग के बुलबुले जैसी होग॥ (10) सूरज, बृहस्पति हों, तो धन प्राप्त होगा, जो सम्मान भी दिलायेगी। (11) बृहस्पति की दृषिट नवग्रहों से मिल रही हो।

                                             ।। मौलिकता प्रमाणीकरण ।।
00 मैं ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे प्रमाणित करता हूं कि 'सावन में रुद्रपाठ से प्रसन्न होतें हैं भगवान शिव
00 मेरी अपनी रचना है। इस आलेख का प्रकाशन अभी तक किसी समाचार पत्र/पत्रिका में नहीं कराया गया है। आपकी लब्ध प्रतिष्ठिïत पत्रिका में प्रकाशन हेतु सादर पे्रेषित है। कृपया यथायोग्य स्थान प्रदान करने का कष्टï करें।
                                           
00 प्रमाणितकर्ता -(ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे , श्रीमद्भागवत कथावाचक एवं सम्पादक. "ज्योतिष का सूर्य " राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शंतिनगर भिलाई, मोबा.9827198828 )

भिलाई एकता मंच द्वारा आयोजित गणेश विसर्जन कार्यक्रम की एक झलक!!

भिलाई एकता मंच द्वारा आयोजित गणेश विसर्जन कार्यक्रम की एक झलक!!

भिलाई एकता मंच द्वारा आयोजित गणेश विसर्जन कार्यक्रम में दुर्ग सांसद सरोज पाण्डेय, श्री विजय बघेल, संसदीय सचिव (गृह, जेल एवं सहकारिता छ.ग. शासन), एवं भिलाई नगर के विधायक श्री बदरूद्दीन कुरैशी, दुर्ग ग्रामिण विधायिका श्रीमती प्रतिमा चन्द्राकर, भिलाई नगर पालिक निगम की महापौर श्रीमति निर्मला यादव), वैशाली नगर के विधायक श्री भजन सिंह निरंकारी एवं गजल गायक श्री प्रभन्जय चतुर्वेदी और साथ में ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, सम्पादक 'ज्योतिष का सूर्य', राष्ट्रीय मासिक पत्रिका। एकता मंच एवं ''अभी तक'' न्यूज चैनल के सभी सदस्यों तथा नगर सभी गणमान्य नागरिकों को धन्यवाद साथ ही। इस कार्यक्रम में प्रमुख रूप से सहयोगी एवं आयोजक श्री रत्नाकर आल्वा, श्री मिथलेश ठाकुर, अनुभूति भाकरे, अमित नागरकर, सूरज सिंह, रमेश सहित सतीश बौद्ध के अलावा समस्त अभी तक  परिवार के मेम्बरों को धन्यवाद।  इसी प्रकार भिलाई में आप लोग कार्यक्रम आयोजित करते रहें ताकि ''भारतीय संस्कृति'' को बल मिल सके। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ मैं. पं. विनोद चौबे!