ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

वास्तु से संवारें शयन कक्ष (संपूर्ण सजावट सहित)


ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे,०९८२७१९८८२८
मित्रों,
प्रायः देखा जाता है कि बाहर से पति पत्नी दोनों काम करके थके मादे आते हैं और किसी ना किसी बात पर घर में खाना खाने के बाद सोते वक्त कोई ना कोई कलह हो ही जाता है। इससे कहीं कहीं तो घर टुटने की स्थिति तक निर्मित हो जाती है तो आईए आज आप लोगों को इस व्यावहारिक विपदा से निज़ात पाने के लिए कुछ उपाय बताने का प्रयत्न करते हैं मुझे विश्वास है कि आपको ऐसी व्यावहारिक विपदा से सदा सदा के लिए छुटकारा अवश्य मिलेगा। पति-पत्‍नी के रिश्‍तों पर बेडरूम का भी काफी प्रभाव होता है। जी हां आप मानें या नहीं, वास्‍तु के मुताबिक बेडरूम की साज सज्‍जा ही पति-पत्‍नी के बीच के रिश्‍तों की मुधरता तय करती है। चलिये बात अगर बेडरूम की आ ही गई है, तो उसकी साज सज्‍जा पर भी गौर कर ही लेते हैं। यहां हम आपको 10 टिप्‍स देंगे वास्‍तु के नियमों के मुताबिक बेडरूम को कैसे सजाएं।

हम जब किसी अपार्टमेंट में फ्लैट खरीदते हैं, तो चाह कर भी वास्‍तु के सारे नियमों के मुताबिक नहीं चल पाते। क्‍योंकि बिल्‍डर अपने मुताबिक बिल्डिंग बनाते हैं, आपके नहीं। तो ऐसे में अगर आप उसी बने हुए रूम को अपने तरीके से सजाएं वो भी वास्‍तु के मुताबिक, तो आपके जीवन में खुशियां हमेशा बनी रहेंगी। यदि आपका बेडरूम अच्‍छा है, तो घर में मानसिक शांति बनी रहेगी और आपकी सेक्‍सुअल लाइफ भी बेहतरीन रहेगी। प्रस्‍तुत हैं 10 टिप्‍स वास्‍तु की-

1. बेडरूम किसी प्रकार की चर्चा व बहस करने के लिए नहीं होता। यह सिर्फ आराम करने व सोने और लाइफ पार्टनर के साथ मस्‍ती करने के लिए होता है। बेडरूम में प्‍यार के अलावा अन्‍य बातें नहीं करनी चाहिये।

2. बेडरूम दक्षिण-पश्चिम दिशा में होना चाहिए और इसी कोने में बेड भी रखना चाहिये। यदि आपने अपना बेड कमरे के दक्षिण-पूर्व दिशा में रखा तो आपको ठीक से नींद नहीं आयेगी, आप तनाव से घिरे रहेंगे, आपको गुस्‍सा जल्‍दी आयेगा और बेचैनी सी बनी रहेगी।

3. बेडरूम की बाहरी दीवारों पर टूट-फूट या दरार नहीं होनी चाहिये। इससे घर में परेशानियां आती हैं।

4. यह वो रूम होता है, जहां आप दिन भर के सात से 10 घंटे तक बिताते हैं, यानी इसके वास्‍तु का सीधा प्रभाव आपके जीवन पर पड़ता है।

5. मकान के मालिक अगर उत्‍तर-पश्चिम दिशा में स्थित बेडरूम में सेते हैं, तो अस्थिरता बनी रहती है, लिहाजा इस दिशा में घर के मालिक का बेडरूम नहीं होना चाहिए। घर के अन्‍य सदस्‍यों का बेडरूम यहां हो सकता है।

5. घर के मालिक का बेडयम दक्षिण-पश्चिम में होना चाहिए, यदि किसी कारणवश नहीं है, तो दूसरा विकल्‍प दक्षिण या पश्चिम में हो सकता है।

6. बेड का सिरहाना दक्षिण की ओर होना चाहिये। इससे बेचैनी नहीं रहती है और रात में अच्‍छी नींद आती है उसका स्‍वास्‍थ्‍य उत्‍तम रहता है। उत्‍तर की तरफ सिर करके सोने से खराब सपने आते हैं और नींद अच्‍छी नहीं आती और स्‍वास्‍थ्‍य खराब रहता है। वहीं पूर्व की ओर सिर करने से ज्ञान बढ़ता है, जबकि पश्चिम की ओर सिर करके सोने से स्‍वास्‍थ्‍य खराब रहता है।

7. बेडरूम में कोई ऐसी तस्‍वीर मत लगायें, जो हिंसा दर्शा रही हो। बेडरूम की दीवार का रंग चटक नहीं होना चाहिये। साथ ही जिस तरफ बेड के सिरहाने वाली दीवार पर घड़ी, फोटो फ्रेम आदि नहीं लगायें, इससे सिर में दर्द बना रहता है। अच्‍छा होगा यदि आप बेड के ठीक सामने वाली दीवार पर कुछ मत लगायें। इससे मन की शांति बनी रहती है।

छत्तीसगढ़ हिन्दी बलागर्स लेखक एशोसियेसन द्वारा दिपावली मिलन समारोह






छत्तीसगढ़ हिन्दी बलागर्स लेखक एशोसियेसन द्वारा  दिपावली मिलन समारोह में मौजूद सभी ब्लागरों के साथ मैं (ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे) और मेरे अन्य सभी बलागर साथी जिनमें प्रमुख रूप से छ.ग. राज्य भणडार के अध्यक्ष अशोक बजाज,छ.ग.पत्रकार संघ के अध्यक्ष अनिल पुसदकर, संजीव त्रिपाठी, संतोष मिश्र, बीएस.पाबला, वैभव पाण्डेय,अहफाज रशिद, सपना निगम सहित सौकड़ों ब्लागर्स मौजूद थे।
ज्ञात हो कि इस गरिमामय कार्यक्रम में इतना मिठास और अपनापन था कि लोगों में चर्चा परिचर्चा का दौर जब चल पड़ा तो सायं ६ बजे से रात्रि ११बजे तक चलता रहा पता ही नहीं चला कि इतना समय इतनी जल्द कैसे समाप्त हो गया। अंततः छ.ग.राज्य भण्डारण निगम के अध्यक्ष श्री अशोक बजाज ने अपने संबोधन में कहा कि ब्लाग मन का उद्गार है जो बेबाकी से प्रस्तुत किया जाना चाहिए, वहीं छ.ग.पत्रकार संघ के अध्यक्ष और अमीर धरती के गरीब लोग के नाम से विख्यात ब्लागर  अनील पुसदकर ने अपने संबोधन में कहा कि प्रदेश के सभी नवोदित ब्लागरों को बेहतरीन तरीके से देश व प्रदेश में राजनितिक घटनाक्रमों पर भी हिन्दी ब्लागरों को ध्यान देना चाहिए और बेबाकी से परिसंस्कृत लहजे में अपनी बात को रखना चाहिए, हां किन्तु गरिमा का ध्यान अवश्य रखें।
ब्लाग तकनिकी पर आधरीत एक कार्यशाला आयोजित करने की बात को बीएस पाबला (छग.प्रसिद्ध ब्लागर) ने प्रमुखता से उठाये. वहीं बीएस पाबला की बातों पर ध्यान आकृष्ट कराते हुए संजीव तिवारी (छग.प्रसिद्ध ब्लागर एवं कार्यक्रम के आयोजक) उन्होंने  तकनिकी कार्यशाला पर आधारीत एक वृहद आयोजन आयोजित करने का प्रस्ताव रखा। जिस पर सभी प्रमुख ब्लागार्स ने अपनी सहमती देते पुए श्री तिवारी जी के इस पहल को बेहद सराहनीय बताते हुए, यह कार्य जल्द आयोजित करने पर अपनी सहमती दे दी।
 प्रमुख रूप से छ.ग. राज्य भणडार के अध्यक्ष अशोक बजाज,छ.ग.पत्रकार संघ के अध्यक्ष अनिल पुसदकर, नीलमचंद सांखला (जिला न्यायाधीश) संजीव त्रिपाठी, संतोष मिश्र, बीएस.पाबला, वैभव पाण्डेय,अहफाज रशिद, सपना निगम सहित सौकड़ों ब्लागर्स मौजूद थे।
-ज्योतिषाचार्य पं विनोद चौबे.09827198828

रविवार, 30 अक्तूबर 2011

SANTOSH MISHRA...: मेरी डाय़री के पन्ने में सिमटती......"डायन"

SANTOSH MISHRA...: मेरी डाय़री के पन्ने में सिमटती......"डायन": मेरी डाय़री के पन्ने में सिमटती......"डायन" ****************************** *************************** डायन वाली "खबर" आग की तरह पूरे देश...

छत्तीसगढ़ के संस्कारधानी भिलाई से प्रकाशित ।

छठ पर्व में छुपा है वैज्ञानिक रहस्य (सूर्योपासना का पर्व )


ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे-०९८२७१९८८२८
मित्रों हमारे देश में जो भी परंपराए हैं उन पावन पर्व-परंपाराओं के पिछे कुछ ना कुछ रहस्य छुपा रहता है । आईए इसी क्रम में छठ के पावन पर्व को समझने का प्रयास करते हैं।। जब तुला राशि पर सूर्य होते हैं तो सूर्य को  नीच का कहा जाता है जिसके कारण सूर्य का प्रकाश न्यून स्तरिय हो जाता है और संक्रामक बिमारीयों का खतरा बढ़ जाता है इन संक्रमण से बचने के लिए शुद्धता बेहद जरूरी होता है अतः इस छठ पर्व के बहाने चार दिन तक अत्यंत शुद्धता पूर्वक इस व्रत को पूरे देश में मनाया जाता है। इस व्रत के पिछे  वैज्ञानिक रीजन यही है। हालाकि पहले इस व्रत को केवल उत्तर भारत में हि किया जाता था । लेकिन आज इस व्रत की व्यापकता ने लगभग विश्वपटल पर अपना पैर पसार चुका है। इस व्रत से जहां प्रकृत को संचालित करने वाले सूर्य की उपासना हो जाता है वहीं दूसरी ओर संक्रामक बिमारियों से आसानी से निजात भी मिल जाता है।
सूर्य-पूजन का महापर्व है छठ पूजा। सनातन धर्म के पांच प्रमुख देवताओं में सूर्यनारायण प्रत्यक्ष देव हैं। वाल्मीकि रामायण में आदित्य हृदय स्तोत्र के द्वारा सूर्यदेव का जो स्तवन किया गया है, उससे उनके सर्वदेवमय-सर्वशक्तिमयस्वरूप का बोध होता है। छठ पर्व सूर्योपासना का अमोघ अनुष्ठान है। इससे समस्त रोग-शोक, संकट और शत्रु नष्ट होते हैं और संतान का कल्याण होता है।

काíतक मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी से इस व्रत के अनुष्ठान का शुभारंभ होता है। इस दिन व्रती स्नान करके सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसे बिहार की स्थानीय भाषा में नहाय-खाय कहा जाता है। पंचमी तिथि को पूरे दिन उपवास रखकर संध्या को एक समय प्रसाद ग्रहण किया जाता है, जो खरना या लोहण्डा के नाम से जाना जाता है। काíतक शुक्ल षष्ठी के दिन संध्याकाल में नदी,नहर या तालाब के किनारे व्रती स्त्री-पुरुष सूर्यास्त के समय अनेक प्रकार के पकवानों को बांस के सूप में सजाकर सूर्यनारायण को श्रद्धापूर्वकअ‌र्घ्यअíपत करते हैं। सप्तमी तिथि को प्रात:काल उगते हुए सूर्य को अ‌र्घ्यदेने के उपरान्त ही व्रत पूर्ण होता है।

मिथिलांचलमें इस व्रत को प्रतिहार षष्ठी व्रत के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। मैथिलवर्षकृत्यविधिमें इसकी स्कन्दपुराणमें वíणत व्रत-कथा, पूजा-विधि का उल्लेख मिलता है। इससे इस व्रत की प्राचीनताएवं महत्ता परिलक्षित होती है। प्रतिहार से तात्पर्य है-नकारात्मक (विघ्न -बाधाकारी) शक्तियों का उन्मूलन। प्रतिहार षष्ठी (सूर्य षष्ठी) व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देता है।

व्रती सूर्यनारायण का ध्यान इस प्रकार करें-

आदित्यंसर्वकतारंकलाद्वादशसंयुतम्।

पद्महस्तद्वयंवन्दे सर्वलौकेकभास्करम्॥

सूर्य भगवान को अ‌र्घ्यदेते समय यह मंत्र बोलें-

ॐएहिसूर्य सहस्त्रांशोतेजोराशेजगत्पते।अनुकम्पयमाम्भक्त्यागृहाणा‌र्घ्यम्दिवाकर॥
सूर्यषष्ठी वाराणसी में डाला छठ के नाम से जानी जाती है। इस व्रत के अनुष्ठान तथा भक्ति-भाव से किए गए सूर्य-पूजन के प्रताप से अनेक नि:संतान लोगों को पुत्र-सुख प्राप्त हुआ है। सूर्यदेव की आराधना से नेत्र, त्वचा और हृदय के सब रोग ठीक हो जाते हैं। इस व्रत की महिमा अब बिहार-झारखण्ड की सीमाओं को लांघकर सम्पूर्ण भारतवर्ष में व्याप्त हो गई है।

भिलाई में ब्लागरों का दिपावली मिलन आज संपन्न हुआ..

भिलाई में ब्लागरों का दिपावली मिलन आज संपन्न हुआ..
मित्रों आज सायं ६ बजे से ८ बजे तक भिलाई के होटल हिमालया में श्री संजीव तिवारी जी के संयोजन में दुर्ग भिलाई के सभी ब्लागरों की बैठक संपन्न हुई। जिसमें दिपावली मिलन एवं वरिष्ठ ब्लागरों ने ब्लाग को और कैसे बेहतरीन प्रस्तुत किया जाय , इस विषय पर चर्चा कर नवोदित ब्लागरों को दिशानिर्देशित भी किया गया।प्रमुख रूप से छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार अनिल पुष्डकर, छ.ग.के भण्डारण निगम के अध्यक्ष अशोक बजाजबबला जी ,  नीलमचंद सांखला (जिला न्यायाधीश, रायपुर), ज्योतिषाचार्य पं विनोद चौबे , संजीत त्रिपाठी , डब्बु मिश्रा, संतोष मिश्र,  अवधिया जी के अलावा केवल कोकस, और ई.टी.वी.के वैभव मिश्र सहित दर्जनों ब्लागर उपस्थित हुए।

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

मेरी डाय़री के पन्ने में सिमटती......"डायन"


मेरी डाय़री के पन्ने में सिमटती......"डायन"
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डायन वाली "खबर" आग की तरह पूरे देश में फैल गई, लोग कसमें खा कर कहते उन्होंने "डायन" को देखा है, उसके रोने-चीखने की आवाज सुनी है.......।

लोग मुझसे भी बता रहे थे.. ..."खिड़की की सलाखों से पंजे बढ़ाती है डायन भूख..! भूख...! चिल्लाती है....! खाना मांगती है....।"
मेरे साथ कई लोग विस्मय से आंखें फैला कर डायन का किस्सा सुनते।

"आश्चर्य....ऐसी घनी आबादी वाले इलाके में शहर के बीचो बीच डायन का होना क्या कोई मामूली बात थी। पहले तो सब ठीक था, अचानक यह घर भूत बंगला कैसे बन गया....ये सोच रहा था मैं भी।"

जितनी मुंह उतनी बातें। ऐसी हलचल मची कि मीडिया वालों की लाईन लग गई।
सबसे लोकप्रिय चैनल वालों ने डायन का लाइव टेलीकास्ट शुरू कर दिया।
लाखों दर्शक सांस रोक देख रहे थे।

घने अंधेरे को चीरते हुए कैमरा आगे बढ़ रहा था।
रिपोर्टर गहरी रहस्यमय आवाज में कह रहा था-क्या आज खत्म हो जायेगा डायन का खूनी खेल......
चर्रर्र..... की आवाज के साथ दरवाजा खुला।
भीतर से सिसकी की आवाज आ रही थी। लोगों के रोंगटे खड़े हो गए। सचमुच एक परछाई जो दिखी थी। अब की तस्वीर साफ थी। सचमुच डायन ही थी। बूढ़ा जर्जर शरीर, वीरान सी आंखें..., कमर पर झूलते चीथड़े गंदगी में लिपटा हुआ बदन..।

उसके खरखराते हुए गले से चीख निकली, लोग सहमे....। अब झपटी डायन खून पी लेगी रिपोर्टर का। पर डायन तो कांपती हुई उसके पैरों पर गिर कर रो पड़ी।
वो कह रही थी - "बेटा, बहू से कहना मैं कुछ नहीं बोलूंगी, कुत्ते की तरह तेरे दरवाजे पर पड़ी रहूंगी। कितने दिनों से तेरी राह देख रही हूं। जो खाना तू दे कर गया था, कब का खत्म हो गया। मुझे अपने साथ ही ले चल। जो रूखा-सूखा देगा....वहीं खा कर रह लूंगी। मुझे यहां अकेला मत छोड़, मेरे बेटे। अपनी माँ पर दया कर, मेरे लाल..।"
मैं सोच रहा था, कितना दुःख भरा है इस डायन में....किसने भरा, क्यों भरा...मैं अभी भी सोच रहा हूं......(संतोष मिश्रा)
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गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

छत्तीसगढ़ का ''मातर ''ही ‘गावो विश्वस्य मातर:'है.

 छत्तीसगढ़ का ''मातर ''ही ‘गावो विश्वस्य मातर:'है.

छत्तीसगढ़ की संस्कृति में मातर और उत्तर भारत में गोवर्धन पूजा का सीधा संबंध गोसंवर्द्धन और गो-माता के प्रति श्रद्धावनत हो उनकी उपासना करने का एक प्रमुख माध्यम है।

‘गावो विश्वस्य मातर:’ अर्थात गाय विश्व की माता है। वास्तव में यह बात कुछ लोगों को बड़ी अटपटी लग रही होगी कि गाय विश्व की माता कैसे हो सकती है। इस बात को जानने से पहले हमें माँ को समझना पड़ेगा कि माँ किसे कहते हैं।

माँ हमें जन्म देती है और बिना किसी अपेक्षा के हमारा पालन-पोषण तथा हमारी सुरक्षा करती है। हमने कभी सोचा है कि गाय हमें जन्म देने के अलावा वह सब कुछ देती है, जिसके कारण हम उसको मां कहते हैं।

जन्म देने वाली मां के अतिरिक्त पालन-पोषण करने वाली मां को मां नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? किसी कारणवश यदि नवजात बच्चे को जन्म देने वाली मां का दूध नहीं मिलता है तो चिकित्सक गाय के दूध की सलाह देते हैं। चिकित्सकों का मानना है कि मां के दूध के बाद गाय का दूध शिशु के लिए सर्वोत्तम आहार है। जब गाय का दूध जन्म देने वाली मां के दूध के समान है, तो गाय भी मां के समान ही है। इसीलिए गौदुग्ध को हमारे ऋषि मुनियों ने अमृत तुल्य माना है।

हमारे जीवन में गौमाता का उतना ही महत्व है जितना गंगा मैया का। गंगा मैया जहाँ अपने अमृत रूपी जल से हरी-भरी धरती को उपजाऊ बनाती हैं, वहीं गाय अपने गोबर और मूत्र से धरती को उर्वराशक्ति प्रदान करती हैं। उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि गाय हमारी माता हैं। गाय विश्व की माता है।

गोवंश भारतीय कृषि का प्राण तत्व एवं मूल आधार है। दुर्भाग्य से आज के मशीनी युग में कृषि क्षेत्र में बैल की जगह ट्रैक्टर तथा गोबर की जगह रासायनिक पदार्थों ने ले ली है। खेतों में रासायनिक तत्वों के अत्यधिक प्रयोग से जमीन के अन्दर लवण की कमी हो गयी है। धरती में बनावटी खाद तथा रासायनिक दवाओं के प्रयोग से कृषि की पैदावार में वृद्धि तो हुई, लेकिन प्राकृतिक गुण लुप्त हो गये हैं।

पंचगव्य का महत्व
गाय के दूध, दही, घी, गोबर और मूत्र से पंचगव्य बनता है। यह पंचगव्य अनेक असाध्य रोगों से हमारी सुरक्षा करते हैं। गाय हमें हल जोतने के लिए बछड़ा देती है। यही नहीं वह मरने के बाद धरती को पोषक तत्वों से भरा अपना शरीर भी दे जाती है। वह पोषक तत्व कृषि के लिए उर्वरक का काम करता है। इस तरह गाय धरती का सुरक्षा कवच है।

गोमूत्र में ताम्र के अतिरिक्त लोहे, कैल्शियम, फॉस्फोरस, पोटाश, कार्बोनिक एसिड, और लेक्टोज आदि तत्व प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, जिनके कारण गोमूत्र से निर्मित विविध प्रकार की औषधियां कई रोगों के निवारण में उपयोगी हैं। गाय का गोबर और मूत्र से जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ जाती है। भूमि कई वर्षों तक उपजाऊ बनी रहती है।

गौ दूध का वैज्ञानिक महत्व
हृदय रोगियों के लिए गाय का दूध अत्यन्त उपयोगी है। गाय का दूध सुपाच्य होता हैं, वह मस्तिष्क की सूक्ष्मतम नाड़ियों में पहुँचकर मस्तिष्क को शक्ति प्रदान करता हैं। यह जीवनशक्ति प्रदान करने वाले द्रव्यों में सर्वश्रेष्ठ है। गाय के दूध में 8 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.7 प्रतिशत मिनरल्स, विटामिन ए, बी, सी, डी एवं ई पाया जाता है। दूध में उपस्थित विटामिन ‘ए’ (कैरोटीन) ऑखों की ज्योति बढ़ाने में सहायक होता है।

गौ घृत का वैज्ञानिक महत्व-
गो-घृत के सेवन से हृदय पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता और शरीर में कोलेस्टा्रॅल नियंत्रित रहता है। गाय के घी में मौजूद ईथीलीन ऑक्साइड जीवाणुरोधक होता है, जिसका उपयोग ऑपरेशन थियेटर को कीटाणुरहित करने में किया जाता है। गो-घृत में प्रोपीलीन ऑक्साइड होता है। गोघृत द्वारा किए गए यज्ञ से वातावरण की शुद्वि होती है। गो-घृत नेत्रों के लिए हितकारी, अग्निप्रदीपक, त्रिदोषनाशक, बलवर्धक, आयुवर्धक, सुगन्धयुक्त, मधुर, शीतल और सब घृतों में उत्तम होता है।

गौ-नवनीत (मक्खन) कांतिवर्धक, अग्निप्रदीपक, महाबलकारी, वात-पित्तनाशक, रक्तशोधक, क्षय, बवासीर, लकवा एवं श्वांस आदि रोगों को दूर करने में सहायक होता है।

गौमूत्र का वैज्ञानिक महत्व-
गौमूत्र एक प्रकार का विषनाशक औषधि है। इसमें पाये जाने वाले विशिष्ट तत्वों के कारण गोमूत्र से निर्मित विविध प्रकार की औषधियां कई रोगों के निवारण में उपयोगी रहती हैं। गोमूत्र वातावरण को शुद्व करता है और जमीन की उर्वराशक्ति को बढ़ाता है। युवा शक्ति के संरक्षण एवं विकास में गौमूत्र बहुत प्रभावी और प्रेरक औषधि का काम करती है। इसके प्रयोग से शीघ्रपतन, धातु का पतलापन, शारीरिक एवं मानसिक कमजोरी, आलस्य, सिरदर्द आदि ब्याधियां दूर होने लगती हैं। कैंसर, उच्च रक्तचाप तथा दमा जैसे रोगों में भी गोमूत्र सेवन अत्यधिक उपयोगी सिद्व हुआ है।

गोबर का वैज्ञानिक महत्व-
गाय के ताजे गोबर के स्थान विशेष पर लेपन से टी.बी. तथा मलेरिया के कीटाणु तत्काल मर जाते हैं। गोबर हमारी त्वचा के दाद, एक्जिमा और घाव को ठीक करने में भी लाभदायक है।

गाय के गोबर से पर्यावरण संरक्षण-
सिर्फ एक गाय के गोबर से प्रतिवर्ष 4500 लीटर बायोगैस मिलती है, जिसके उपयोग करने से प्रतिवर्ष लाखों टन लकड़ी की बचत होती है। गोबर की खाद सर्वोत्तम है। गोवंश से लाखों गैलन गोमूत्र प्रतिवर्ष प्राप्त होता है, जो फसलों के लिए सर्वश्रेष्ठ कीटनाशक और अनेक रोगों के लिए औषधि है। गाय एवं गोवंश भारतीय कृषि की रीढ़ हैं। अत: गाय विश्व की माता है।

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

महालक्ष्मी-पूजनम् (संपूर्ण पूजा विधान) 26/10/2011

महालक्ष्मी-पूजनम्  (संपूर्ण पूजा विधान)
सभी प्रकार के अनुष्ठानों में लक्ष्मी का अनुष्ठान अत्यंत कठिन माना जाता है । संयोग से दिपावली में योग्य अनुष्ठानी ब्रह्मणों की  की भी अनुपलब्धता रहती है ऐसे में आपके मन में यह विचार आता है कि यदि महालक्ष्मी पूजन की संपूर्ण विधी हमें ज्ञात रहता तो मैं स्वतः इस अनुष्ठान को संपन्न करा लेता ....लेकिन आपको संपूर्ण पूजा पद्धति की विधीवत जानकारी के वगैर पूजन करनें में भय का होना लाज़मी है किन्तु कहा जाता है ..माँ कभी कुमाता नहीं होती ठीक उसी प्रकार जैसे तोतली भाषा में बोलने वाले बच्चे को उसके कथनानुसार दुध पिलाने को आतुर हो उठती है ..तो मित्रों आप लोग माँ से डरें न बल्कि अपने ज्ञान के अनुसार उनका पत्रं, पुष्पं जो भी उपलब्ध हो अथवा टुटे-फुटे शब्दों में भी उनकी आराधना कर सकते हैं..
किन्तु इस बार हम आपको अपने यथा ज्ञान के अनुसार संकलित महा लक्ष्मी-पूजन विधान (संपूर्ण ) मैं आपके समक्ष रख रहा हुं। इस महा लक्ष्मी पूजन से संबंधित अधिक जानकारी के लिए आप हमसे फोन पर भी निःशुल्क परामर्श ले सकते हैं..ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे मोबा.नं.09827198828

श्री लक्ष्मीपूजन एवं उसका अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व
         
विक्रम संवत अनुसार कार्तिक अमावस्याका दिन दीपावलीका एक महत्त्वपूर्ण दिन है ।

दीपावलीके कालमें आनेवाली अमावस्याका महत्त्व
सामान्यत: अमावस्याको अशुभ मानते हैं; परंतु दीपावली कालकी अमावस्या शरदपूर्णिमा अर्थात कोजागिरी पूर्णिमाके समान ही कल्याणकारी एवं समृद्धिदर्शक है ।
इस दिन करनेयोग्य धार्मिक विधियां हैं..
१. श्री लक्ष्मीपूजन
२. अलक्ष्मी नि:सारण
दीपावलीके इस दिन धन-संपत्तिकी अधिष्ठात्रि देवी श्री महालक्ष्मीका पूजन करनेका विधान है । दीपवालीकी अमावस्याको अर्धरात्रिके समय श्री लक्ष्मी का आगमन सद्गृहस्थोंके घर होता है । घरको पूर्णत: स्वच्छ, शुद्ध और सुशोभित कर दीपावली मनानेसे देवी श्री लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और वहां स्थायी रूपसे निवास करती हैं । इसीलिए इस दिन श्री लक्ष्मीजीका पूजन करते हैं और दीप जलाते हैं । यथा संभव श्री लक्ष्मीपूजनकी विधि सपत्निक करते हैं ।

यह अमावस्या प्रदोषकालसे आधी रात्रितक हो, तो श्रेष्ठ होती है । आधी रात्रितक न हो, तो प्रदोषव्यापिनी तिथि लेनी चाहिए । दीपावलीके दिन श्री लक्ष्मीपूजनके लिए विशेष सिद्धता की जाती है ।

पूजाके आरंभमें आचमन किया जाता है । (मंत्र) उपरांत प्राणायाम ......... एवं देशकालकथन किया जाता है । तदुपरांत लक्ष्मीपूजन एवं उसके अंतर्गत आनेवाले अन्य विधियोंके लिए संकल्प किया जाता है । (मंत्र)

पूजनके आरंभमें, आचमन, प्राणायाम इत्यादि धार्मिक कृतियां करनेसे पूजककी सात्त्विकता बढ़ती है । इससे पूजकको देवतापूजनसे प्राप्त चैतन्यका आध्यात्मिक स्तरपर अधिक लाभ होता है । श्री लक्ष्मीपूजनका प्रथम चरण है,

श्री महागणपतिपूजन -

संकल्पके उपरांत श्रीमहागणपतिपूजनके लिए ताम्रपात्रमें रखे नारियलमें श्रीमहागणपतिका आवाहन किया जाता है । आसन, पाद्य, अर्घ्य, स्नान, कर्पासवस्त्र, चंदन, पुष्प एवं दुर्वा, हलदी, कुमकुम, धूप, दीप, नैवेद्य आदि उपचार अर्पित कर पूजन किया जाता है ।

श्री गणपति दिशाओंके स्वामी हैं । इसलिए प्रथम श्री महागणपति पूजन करनेसे सर्व दिशाएं खुल जाती हैं । परिणामस्वरूप सर्व देवतातत्त्वोंकी तरंगोंको बिना किसी अवरोध पूजनविधिके स्थानपर आना सुलभ होता है । श्री महागणपति पूजनके उपरांत कलश, शंख, घंटा, दीप इन पूजाके उपकरणोंका पूजन किया जाता है । तत्पश्र्चात जल प्रोक्षण कर पूजासामग्री की शुद्धि की जाती है ।

वरुण तथा अन्य देवताओंका आवाहन और पूजन

चौपाएपर अखंड चावलका पुंज बनाकर उसपर जलसे भरा कलश रखते हैं । कलशमें भरे जलमें चंदन, आम्रपल्लव, सुपारी एवं सिक्के रखे जाते हैं ।   कलशको वस्त्र अर्पित किया जाता है । तदुपरांत कलशपर अखंड चावलसे भरा पूर्णपात्र रखा जाता है । इस पूर्णपात्रमें रखे चावलपर कुमकुमसे अष्टदल कमल बनाया होता है । कलशको अक्षत समर्पित कर उसमें वरुण देवताका आवाहन किया जाता है । चंदन, हलदी, कुमकुम, अक्षत एवं पुष्प अर्पित कर वरुणदेवताका पूजन किया जाता है ।

अष्टदल कमलके कारण उस स्थानपर शक्तिके स्पंदनोंका निर्माण होता है । ये शक्तिके स्पंदन सर्व दिशाओंमें प्रक्षेपित होते हैं । इस प्रकार पूर्णपात्रमें बना अष्टदल कमल यंत्रके समान कार्य करता है । पूर्णपात्रमें बनाए अष्टदल कमलपर सर्व देवताओंकी स्थापना करते हैं । कलशमें श्री वरुणदेवताका आवाहन कर उनका पूजन करते हैं । तदुपरांत पूर्णपात्रमें बनाए अष्टदल कमलपर आवाहन किए गए देवता तत्त्वोंका पूजन करते हैं ।

कलशमें वरुणदेवताका आवाहन करनेका महत्त्व

वरुण जलके देवता हैं । वरुणदेवता आपतत्त्वका नियमन करते हैं और कर्मकांडके विधि करते समय आवश्यकताके अनुसार ईश्वरीय तत्त्व साकार होनेमें सहायता करते हैं । आपतत्त्वके माध्यमसे आवश्यक ईश्वरीय तत्त्व व्यक्तिमें एवं विधिके स्थानपर कार्यरत होता है । यही कारण है कि, हिंदु धर्मने विविध देवताओंके पूजन हेतु की जानेवाली विभिन्न प्रकारकी विधियोंमें वरुणदेवताका आवाहन करनेका विधान बताया है ।

कलशमें वरुण देवताका आवाहन कर पूजन करनेके उपरांत चावलसे भरे पूर्णपात्र पर अक्षत अर्पित कर सर्व देवताओंका आवाहन किया जाता है। चंदन, पुष्प एवं तुलसीपत्र, हलदी, कुमकुम, धुप, दीप आदि उपचार अर्पित कर सर्व देवताओंका पूजन किया जाता है ।

श्रीलक्ष्मी तथा कुबेर का आवाहन एवं पूजन

सर्व देवताओंके पूजनके उपरांत कलशपर रखे पूर्णपात्रमें श्रीलक्ष्मीकी मूर्ति रखी जाती है । उसके निकट द्रव्यनिधि रखा जाता है । उपरांत अक्षत अर्पित कर ध्यानमंत्र बोलते हुए, मूर्तिमें श्रीलक्ष्मी तथा द्रव्यनिधि पर कुबेर का आवाहन किया जाता है । अक्षत अर्पित देवताओंको आसन दिया जाता है । उपरांत श्री लक्ष्मीकी मूर्ति एवं द्रव्यनिधि स्वरूप कुबेर को अभिषेक करने हेतु ताम्रपात्रमें रखा जाता है । अब श्रीलक्ष्मी एवं कुबेर को आचमनीसे जल छोडकर पाद्य एवं अर्घ्य दिया जाता है ।

तत्पश्र्चात दूध, दही, घी, मधु एवं शर्करासे अर्थात पंचामृत स्नान का उपचार दिया जाता है । गंधोदक एवं उष्णोदक स्नान का उपचार दिया जाता है । चंदन व पुष्प अर्पित किया जाता है । श्री लक्ष्मी व कुबेरको अभिषेक किया जाता है । उपरांत वस्त्र, गंध, पुष्प, हलदी, कुमकुम, कंकणादि सौभाग्यालंकार, पुष्पमाला अर्पित की जाती हैं । श्री लक्ष्मीके प्रत्येक अंगका उच्चारण कर अक्षत अर्पित की जाती है । इसे अंगपूजा कहते हैं ।

श्री लक्ष्मीकी पत्रपूजा की जाती है । इसमें सोलह विभिन्न वृक्षोंके पत्र अर्पित किए जाते हैं । पत्रपूजाके उपरांत धूप, दीप आदि उपचार समर्पित किए जाते हैं ।  श्रीलक्ष्मी व कुबेरको नैवेद्य चढ़ाया जाता है । अंतमें देवीकी आरती उतारकर, मंत्रपुष्पांजली अर्पित की जाती है । कुछ स्थानोंपर देवीको धनिया एवं लाई अर्पण करनेकी प्रथा है ।

कुछ स्थानोंपर भित्तिपर विभिन्न रंगोंद्वारा श्रीगणेश-लक्ष्मीजीके चित्र बनाकर उनका पूजन करते हैं । तो कुछ स्थानोंपर श्रीगणेश-लक्ष्मीजीकी मूर्तियां तथा कुछ स्थानोंपर चांदीके सिक्केपर श्री लक्ष्मीजीका चित्र बनाकर उनका पूजन करते हैं ।

श्री लक्ष्मीपूजनमें अष्टदल कमलपर स्थापित विविध देवता तत्त्वोंके पूजनके उपरांत श्री लक्ष्मीजीकी मूर्तिका अभिषेक करनेका कारण

किसी भी देवता पूजनमें देवताका आवाहन करनेसे देवताका निर्गुण तत्त्व कार्यरत होता है और पूजास्थानपर आकृष्ट होता है । देवताकी मूर्ति देवताका सगुण रूप है । इस सगुण रूपको भावसहित और संभव हो, तो मंत्रसहित अभिषेक करनेसे मूर्तिमें देवताका सगुणतत्त्व कार्यरत होता है । इससे मूर्तिमें संबंधित देवताका निर्गुण तत्त्व आकृष्ट होनेमें सहायता होती है । अभिषेकद्वारा जागृत मूर्तिको उसके स्थानपर रखनेसे उस स्थानका स्पर्श मूर्तिको होता रहता है । इससे आवाहन किए गए देवतातत्त्व मूर्तिमें निरंतर संचारित होते रहते हैं । इस प्रकार देवतातत्त्वसे संचारित मूर्तिद्वारा देवतातत्त्वकी तरंगें प्रक्षेपित होने लगती हैं । जिनका लाभ पूजकके साथही वहां उपस्थित अन्य व्यक्तियोंको भी मिलता है । साथही पूजास्थानके आसपासका वातावरण भी देवतातत्त्वकी तरंगोंसे संचारित होता है । यही कारण है कि, श्री लक्ष्मीपूजनमें अष्टदल कमलपर स्थापित विविध देवता तत्त्वोंके पूजनके उपरांत श्री लक्ष्मीजीकी मूर्तिका अभिषेक करते हैं ।

श्री लक्ष्मी एवं कुबेरको नैवेद्य निवेदित करते हैं । श्री लक्ष्मीको धनिया एवं चावलकी खीलें अर्पण करते है ।

श्री लक्ष्मीदेवीके नैवेद्यमें समाविष्ट घटक

श्री लक्ष्मीपूजनमें देवीको अर्पित करने हेतु बनाए नैवेद्यमें लौंग, इलायची, दूध एवं शक्कर, इन घटकोंका समावेश होता है । कुछ लोग संभव हो, तो इन घटकोंको मिलाकर बनाए खोएका उपयोग नैवेद्यके रूपमें करते हैं । इन घटकोंमेंसे प्रत्येक घटकका कार्य भिन्न होता है ।
१. लौंग तमोगुणका नाश करती है ।
२. इलायची रजोगुणका नाश करती है । 
३. दूध एवं शक्कर सत्त्वगुणमें वृद्धि करते हैं ।
यही कारण है कि, इन घटकोंको 'त्रिगुणावतार' कहते हैं । ये घटक व्यक्तिमें त्रिगुणोंकी मात्राको आवश्यकतानुसार अल्पाधिक करनेका महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं ।
कुछ स्थानोंपर लक्ष्मीपूजनके लिए धनिया, बताशे, चावलकी खीलें, गुड तथा लौंग, इलायची, दूध एवं शक्कर इत्यादिसे बनाए खोएका उपयोग भी नैवेद्यके रूपमें करते हैं । इनमेंसे धनिया `धन' वाचक शब्द है, तो चावलकी `खीलें' समृद्धिका । मुट्ठीभर धान भूंजनेपर उससे अंजुलीभर खीलें बनती हैं । लक्ष्मीकी अर्थात धनकी समृद्धि होने हेतु श्री लक्ष्मीजीको खीलें चढाते हैं ।

श्री लक्ष्मीके पूजन हेतु उपयोगमें लाई जानेवाली सामग्रीसे प्राप्त लाभ

१. बताशेसे सात्त्विकताका २५ प्रतिशत लाभ मिलता है ।
२. धानद्वारा शक्तिकी तरंगोंका २० प्रतिशत
३. चावलकी खीलोंसे चैतन्यकी तरंगोंका २५ प्रतिशत  
४. गूडसे आनंदकी तरंगोंका १५ प्रतिशत
५. धनियासे शांतिकी तरंगोंका १५ प्रतिशत लाभ मिलता है ।
इनका कुल योग होता है १०० प्रतिशत ।
इस सारिणीसे श्री लक्ष्मीपूजनके समय उपयोगमें लाई जानेवाली सामग्रीका महत्त्व स्पष्ट होता है । ये सामग्री देवीको निवेदित करनेके उपरांत प्रसादके रूपमें सगेसंबंधियोंमें बांटते हैं ।

पूजनके अंतिम चरणमें देवीकी आरती उतारकर, मंत्रपुष्पांजली अर्पित करते हैं । श्रद्धापूर्वक नमस्कार कर पूजनके समय हुई गलतियोंके लिए देवीकी क्षमा याचना करते हैं ।
दीपावलीके दिन श्री लक्ष्मीपूजन करनेसे सूक्ष्म स्तरपर होनेवाली प्रक्रिया
प्रथम पूजा
श्रीसूक्त के १६ मन्त्र मॉं लक्ष्मी को विशेष प्रसन्न करने वाले माने गए हैं । यह सूक्त ‘ श्री ’ अर्थात लक्ष्मी प्रदान करने वाला है । इसी कारण इसे श्रीसूक्त कहते हैं । वेदोक्त होने के कारण यह अत्यधिक प्रभावशाली भी है । प्रत्येक धार्मिक कार्य में , हवनादि के अन्त में इन १६ सूक्तों से मॉं लक्ष्मी के प्रसन्नार्थ आहूतियॉं अवश्य लगाई जाती हैं । इसके १६ सूक्तों से मॉं लक्ष्मी की षोडशोपचार पूजा की जाती है । दीपावली पर पुराणोक्त , वेदोक्त अथवा पारम्परिक रुप से तो प्रतिवर्ष ही आप पूजन करते हैं । इस वर्ष इन विशिष्ट सूक्तों से मॉं लक्ष्मी को प्रसन्न कीजिए ।
लक्ष्मी पूजन हेतु सामग्री रोली , मौली , पान , सुपारी , अक्षत ( साबुत चावल ), धूप , घी का दीपक , तेल का दीपक , खील , बतासे , श्रीयंत्र , शंख ( दक्षिणावर्ती हो , तो उत्तम ), घंटी , घिसा हुआ चन्दन , जलपात्र , कलश , पाना ( लक्ष्मी , गणेश एवं सरस्वती का संयुक्त चित्र ), दूध , दही , शहद , शर्करा , घृत , गंगाजल , सिन्दूर , नैवेद्य , इत्र , यज्ञोपवीत , श्वेतार्क के पुष्प , कमल का पुष्प , वस्त्र , कुंकुम , पुष्पमाला , ऋतुफल , कर्पूर , नारियल , इलायची , दूर्वा , एकाक्षी नारियल , चॉंदी का वर्क इत्यादि ।
पूजन विधि सर्वप्रथम लक्ष्मी -गणेश के पाने ( चित्र ), श्रीयन्त्र आदि को जल से पवित्र करके लाल वस्त्र से आच्छादित चौकी पर स्थापित करें । लाल कम्बल या ऊन के आसन को बिछाकर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठें । पूजन सामग्री निम्नलिखित प्रकार से रखें :
बायीं ओर : १ . जल से भरा हुआ पात्र , २ . घंटी , ३ . धूपदान , ४ . तेल का दीपक ।
दायीं ओर : १ . घृत का दीपक , २ . जल से भरा शंख ( दक्षिणावर्ती शंख हो , तो उत्तम ) ।
सामने : १ . घिसा हुआ चन्दन , २ . रोली , ३ . मौली , ४ . पुष्प , ५ . अक्षत आदि ।
भगवान के सामने : चौकी पर नैवेद्य ।
सर्वप्रथम निम्नलिखित मन्त्र से अपने ऊपर तथा पूजन सामग्री के ऊपर जल छिडकें :
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥
अब चौकी के दायीं ओर घी का दीपक प्रज्वलित करें ।
स्वस्तिवाचन इसके पश्चात दाहिने हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर निम्न मन्त्रों से स्वस्तिवाचन करें :
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु ॥
पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः ।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम ।
विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रेस्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोर्ध्रुवोऽसि वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥
अग्निर्देवताव्वातोदेवतासूर्य्योदेवता चन्द्रमा देवताव्वसवो देवता रुद्रोदेवता आदित्यादेवता मरुतोदेवता विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिः देवतेन्द्रोदेवताव्वरुणोदेवता ॥
द्यौः शान्तिरन्तिरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ।
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु ।
शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः । सुशान्तिर्भवतु ॥
ॐ शांतिः शांतिः सुशांतिर्भवतु । सर्वारिष्ट -शांतिर्भवतु ॥
अब हाथ में लिए हुए अक्षत -पुष्य सामने चौकी पर चढा दें ।
गणपति आदि देवताओं का स्मरण स्वस्तिवाचन के पश्चात निम्नलिखित मन्त्र के साथ भगवान गणेश का हाथ में पुष्प -अक्षत आदि लेकर स्मरण करना चाहिए तत्पश्चात उन्हें चौकी पर चढा दें :
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः ।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ॥
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः ।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ॥
अब निम्नलिखित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए सम्बन्धित देवताओं का का स्मरण करें :
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः । लक्ष्मी -नारायणाभ्यां नमः ।
उमामहेश्वराभ्यां नमः । वाणी -हिरण्यगर्भाभ्यां नमः ।
शची -पुरन्दराभ्यां नमः । मातृपितृचरणकमलेभ्यो नमः ।
इष्टदेवताभ्यो नमः । कुलदेवताभ्यो नमः ।
ग्राम देवताभ्यो नमः । वास्तुदेवताभ्यो नमः ।
स्थानदेवताभ्यो नमः । सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः ।
सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः । सिद्धिबुद्धि सहिताय श्रीमन्महागणाधिपतये नमः ।
विभिन्न देवताओं के स्मरण के पश्चात निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए गणपति , सूर्य , ब्रह्मा , विष्णु , महेश , सरस्वती इत्यादि को प्रणाम करना चाहिए ।
विनायकं गुरुं भानुं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान ।
सरस्वतीं प्रणम्यादौ सर्वकार्यार्थ सिद्धये ॥
हाथ में लिए हुए अक्षत और पुष्पों को चौकी पर समर्पित कर दें ।

गणपति स्थापना अब एक सुपारी लेकर उस पर मौली लपेटकर चौकी पर थोडे से चावल रखकर सुपारी को उस पर रख दें । तदुपरान्त भगवान गणेश का आवाहन करें :
ॐ गणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे निधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम ।
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतये नमः , गणपतिमावाहयामि , स्थापयामि , पूजयामि च ।
आवाहन के पश्चात निम्नलिखित मन्त्र की सहायता से गणेशजी की प्रतिष्ठा करें और उन्हें आसन दें :
अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च ।
अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन ॥
गजाननं ! सुप्रतिष्ठिते वरदे भवेताम ॥
प्रतिष्ठापूर्वकम आसनार्थे अक्षतान समर्पयामि । गजाननाभ्यां नमः ।
पुनः अक्षत लेकर गणेशजी के दाहिनी ओर माता अम्बिका का आवाहन करें :
ॐ अम्बे अम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कश्चन ।
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम ।
हेमाद्रितनयां देवीं वरदां शमरप्रियाम ।
लम्बोदरस्य जननीं गौरीमावाहयाम्यहम ॥
ॐ भूभुर्वःस्वः गौर्ये नमः , गौरीमावाहयामि , स्थापयामि , पूजयामि च ।
अक्षत चौकी पर छोड दें । अब पुनः अक्षत लेकर माता अम्बिका की प्रतिष्ठा करें :
अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च ।
अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन ॥
अम्बिके सुप्रतिष्ठिते वरदे भवेताम ।
प्रतिष्ठापूर्वकम आसनार्थे अक्षतान समर्पयामि गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । ऐसा कहते हुए आसन पर अक्षत समर्पित करें ।
संकल्प उपर्युक्त प्रक्रिया के पश्चात दाहिने हाथ में अक्षत , पुष्प , दूर्वा , सुपारी , जल एवं दक्षिणा ( सिक्का ) लेकर निम्नलिखित प्रकार से संकल्प करें :
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्रि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे ... नगरे /ग्रामे /क्षेत्रे २०६७ वैक्रमाब्दे शोभननाम संवत्सरे कार्तिक मासे कृष्णपक्षे अमावस्यायां तिथौ शुक्रवासरे प्रदोषकाले /सायंकाले /रात्रिकाले स्थिरलग्ने शुभ मुहूर्ते ... गोत्र उत्पन्नः ... शर्मा /वर्मा /गुप्तः अहं श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त फलवाप्तिकामनया ज्ञाताज्ञातकायिक वाचिक मानसिक सकल पाप निवृत्तिपूर्वकं मम सर्वापच्छान्तिपूर्वक दीर्घायुष्यबल पुष्टिनैरुज्यादि सकलशुभफल प्राप्तर्थं गज तुरंग -रथराज्यैश्वर्यादि सकल सम्पदाम उत्तरोत्तराभि -वृदध्यर्थं विपुल धनधान्य -प्राप्त्यर्थे , मम सपुत्रस्य सबांधवस्य अखिलकुटुम्ब -सहितस्य समस्त भय व्याधि जरा पीडा मृत्यु परिहारेण , आयुरारोग्यैश्वर्याभि -वृद्धयर्थं परमंत्र परतंत्र परयंत्र परकृत्याप्रयोग छेदनार्थं गृहे सुखशांति प्राप्तर्थं मम जन्मकुण्डल्यां , गोचरकुण्डल्यां , दशाविंशोत्तरी कृत सर्वकुयोग निवारणार्थं मम जन्मराशेः अखिल कुटुम्बस्य वा जन्मराशेः सकाशाद्ये केचिद्विरुद्ध चतुर्थाष्टम द्वादश स्थान स्थित क्रूर ग्रहास्तैः सूचितं सूचयिष्यमाणं च यत्सर्वारिष्ट तद्विनाशाय नवम एकादश स्थान स्थित ग्रहाणां शुभफलप्राप्त्यर्थं आदित्यादि नवग्रहानुकूलता सिद्धयर्थं दैहिक दैविक भौतिक तापत्रय शमनार्थम धर्मार्थकाम मोक्ष फलवाप्त्यर्थं श्रीमहालक्ष्मीपूजनं कुबेरादीनां च पूजनं करिष्ये । तदड्रत्वेन प्रथमं गणपत्यादिपूजनं च करिष्ये । उक्त संकल्प वाक्य पढकर जलाक्षतादि गणेशजी के समीप छोड दें । इसके पश्चात गणेशजी का पूजन करें ।
गणेशाम्बिका पूजन हाथ में अक्षत लेकर निम्न मन्त्र से गणेशाम्बिका का ध्यान करें :
गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम ।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपमजम ॥
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम ॥
श्रीगणेशाम्बिकाभ्यां नमः कहकर हाथ में लिए हुए अक्षतों को भगवान गणेश एवं माता गौरी को समर्पित करें ।
अब गणेशजी का पूजन निम्न प्रकार से करें :
तीन बार जल के छींटें दें और बोलें : पाद्यं , अर्घ्यं , आचमनीयं समर्पयामि ।
सर्वाड्रेस्नानं समर्पयामि । जल के छींटे दें ।
सर्वाड्रे पंचामृतस्नानं समर्पयामि । पंचामृत से स्नान कराए ।
पंचामृतस्नानान्ते सर्वाड्रे शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि । शुद्ध जल से स्नान कराए ।
सुवासितम इत्रं समर्पयामि । इत्र चढाए ।
वस्त्रं समर्पयामि । वस्त्र अथवा मौली चढाए ।
यज्ञोपवीतं समर्पयामि । यज्ञोपवीत चढाए ।
आचमनीयं जलं समर्पयामि । जल के छींटे दें ।
गन्धं समर्पयामि । रोली अथवा लाल चन्दन चढाए ।
अक्षतान समर्पयामि । चावल चढाए ।
पुष्पाणि समर्पयामि । पुष्प चढाए ।
मंदारपुष्पाणि समर्पयामि । सफेद आक के फूल चढाए ।
शमीपत्राणि समर्पयामि । शमीपत्र चढाए ।
दूर्वांकुरान समर्पयामि । दूर्वा चढाए ।
सिंदूरं समर्पयामि । सिन्दूर चढाए ।
धूपम आघ्रापयामि । धूप करें ।
दीपकं दर्शयामि । दीपक दिखाए ।
नैवेद्यं समर्पयामि । प्रसाद चढाए ।
आचमनीयं जलं समर्पयामि । जल के छींटे दें ।
ताम्बूलं समर्पयामि । पान , सुपारी , इलायची आदि चढाए ।
नारिकेलफलं समर्पयामि । नारियल चढाए ।
ऋतुफलं समर्पयामि । ऋतुफल चढाए ।
दक्षिणां समर्पयामि । नकदी चढाए ।
कर्पूरनीराजनं समर्पयामि । कर्पूर से आरती करें ।
नमस्कारं समर्पयामि । नमस्कार करें ।
गणेश जी से प्रार्थना पूजन के उपरान्त हाथ जोडकर इस प्रकार पार्थना करें :
विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय ,
लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय ।
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय ,
गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥
भक्तार्तिनाशनपराय गणेश्वराय ,
सर्वेश्वराय शुभदाय सुरेश्वराय ।
विद्याधरायं विकटाय च वामनाय ,
भक्तप्रसन्नवरदाय नमो नमस्ते ॥
नमस्ते ब्रह्मरुपाय विष्णुरुपाय ते नमः ।
नमस्ते रुद्ररुपाय करिरुपाय ते नमः ॥
विश्वस्वरुपरुपाय नमस्ते ब्रह्मचारिणे ।
लम्बोदरं नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रिय ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥
त्वां विघ्नशत्रुदलनेति च सुन्दरेति
भक्तप्रियेति सुखदेति फलप्रदेति ।
विद्याप्रदेत्यघहरेति च ये स्तुवन्ति
तैभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेव ॥
अब हाथ में पुष्प लेकर निम्नलिखित मन्त्र को उच्चारित करते हुए समस्त पूजनकर्म भगवान गणेश को अर्पित कर दें :
गणेशपूजने कर्म यन्न्यूनमधिकं कृतम ।
तेन सर्वेण सर्वात्मा प्रसन्नोऽस्तु सदा मम ॥
अनया पूजया सिद्धिबुद्धिसहितो ।
महागणपतिः प्रीयतां न मम ॥
शंख स्थापन एवं पूजन
उक्त पूजन के पश्चात चौकी पर दायीं ओर दक्षिणावर्ती शंख को थोडे से अक्षत डालकर स्थापित करना चाहिए । शंख का चन्दन अथवा रोली से पूजन करें । अक्षत चढाए तथा अन्त में पुष्प चढाए और निम्नलिखित मन्त्र की सहायता से प्रार्थना करें :
त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृतः करे ।
निर्मितः सर्वदेवैश्च पाञजन्य ! नमोऽस्तु ते ॥

तृतीय पूजा
कलश स्थापन एवं पूजन चौकी के पास ईशानकोण ( उत्तर -पूर्व ) में धान्य ( जौ -गेहु ) के ऊपर कलश स्थापित करें । अब हाथ में अक्षत एवं पुष्प लेकर कलश के ऊपर चारों वेद एवं अन्य देवी -देवताओं का निम्नलिखित मन्त्रों के द्वारा आवाहन करें :
कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः ।
मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः ॥
कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा ।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः ॥
अडैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः ।
अत्र गायत्री सावित्री शान्तिः पुष्टिकरी तथा ॥
सर्वे समुद्राः सरितस्तीर्थानि जलदा नदाः ।
आयान्तु देवपूजार्थं दुरितक्षयकारकाः ॥
गडे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धुकावेरि जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरु ॥
उक्त आवाहन के पश्चात गन्ध , अक्षत , पुष्प आदि से कलश एवं उसमें स्थापित देवों का पूजन करें । तदुपरान्त सभी देवों को नमस्कार करें ।
कलश स्थापन एवं पूजन के उपरान्त नवग्रह एवं षोडशमातृका का पूजन यदि सम्भव हो सके , तो मण्डल बनाकर करें , अन्यथा नवग्रह एवं षोडशमातृका को चौकी पर स्थान देते हुए मानसिक पूजन कर लेना चाहिए ।
नवग्रह पूजन दोनों हाथ जोडकर निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें और सूर्यादि नवग्रह देवताओं का ध्यान करें :
ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी
भूमिसुतो बुधश्च ।
गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः सर्वे ग्रहाः शान्तिकरा भवन्तु ॥
सूर्यः शौर्यमथेन्दुरुच्चपदवीं सन्मडलं मडलः
सदुद्धिं च बुधो गुरुश्च गुरुतां शुक्रः सुखं शं शनिः ।
राहुर्बाहुबलं करोतु सततं केतुः कुलस्योन्नतिं
नित्यं प्रीतिकरा भवन्तु मम ते सर्वेऽनुकूला ग्रहाः ॥
अपने हाथ में एक पुष्प लेकर उस पर कुंकुम लगाए और ‘ सूर्यादि नवग्रहदेवताभ्यो नमः ’ कहते हूए सूर्य -चन्द्रमा आदि नवग्रहों एक निमित्त सामने चौकी पर चढा दें ।
अब सूर्य आदि ग्रहों को ‘ दीपकं दर्शयामि ’ कहते हुए दीपक दिखाए और अपने हाथ धो लें । इसके पश्चात उन्हें नैवेद्य अर्पित करें । इसके पश्चात आचमन हेतु जल भी अर्पित करें ।
पंचलोकपाल पूजन दोनों हाथ जोडकर निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें और ब्रह्मादि पंचलोकपाल देवताओं का ध्यान करें :
ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः ।
स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च विवः ॥
अपने हाथ में एक पुष्प लेकर उस पर कुंकुम लगाए और ‘ ब्रह्मादि पंचलोकपाल देवताभ्यो नमः ’ कहते हुए ब्रह्मा आदि पंचलोकपालों के निमित्त सामने चौकी पर चढा दें ।
अब ब्रह्मा आदि पंचलोकपालों को ‘ दीपकं दर्शयामि ’ कहते हुए दीपक दिखाए और अपने हाथ धो लें । इसके पश्चात उन्हें नैवेद्य अर्पित करें । इसके पश्चात आचमन हेतु जल भी अर्पित करें ।


 
 
महालक्ष्मी पूजन
उक्त समस्त प्रक्रिया के पश्चात प्रधान पूजा में भगवती महालक्ष्मी का पूजन करना चाहिए । पूजा में अपने सम्मुख महालक्ष्मी का बडा चित्र अथवा लक्ष्मी -गणेश का पाना लगाना चाहिए । पूजन से पूर्व नवीन चित्र और श्रीयन्त्र तथा द्रव्यलक्ष्मी ( स्वर्ण अथवा चॉंदी के सिक्के ) आदि की निम्नलिखित मन्त्र से अक्षत छोडकर प्रतिष्ठा कर लेनी चाहिए :
अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च ।
अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन ॥
ध्यान
ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्त्रजाम ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ॥
ॐ महालक्ष्मै नमः । ध्यानार्थे पुष्पं समर्पयामि ॥
ध्यान हेतु मॉं लक्ष्मी को कमल अथवा गुलाब का पुष्प अर्पित करें ।
आवाहन
ॐ तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनगामिनीम ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्चं पुरुषानहम ॥
ॐ कमलायै नमः । कमलाम आवाहयामि , आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ॥
मॉं लक्ष्मी का पूजन करने हेतु आवाहन करें और ऐसी भावना रखें कि मॉ लक्ष्मी साक्षात पूजन हेतु आपके सम्मुख आकर बैठी हों । आवाहन हेतु सामने चौकी पर पुष्प अर्पित करें ।
आसन
ॐ अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम ।
श्रियं देवीमुप ह्रये श्रीर्मादेवी जुषताम ॥
ॐ रमायै नमः । आसनं समर्पयामि ॥
आसनार्थे पुष्पं समर्पयामि ॥
आसन हेतु सामने चौकी पर पुष्प अर्पित करें ।
पाद्य
ॐ कां सोमिस्तां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम ।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोप ह्रये श्रियम ॥
ॐ इन्दिरायै नमः । इन्दिरां पादयोः पाद्यं समर्पयामि ॥
मॉ लक्ष्मी को चन्दन आदि मिश्रित जल से पाद्य हेतु जल चढाए ।
अर्घ्य
ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम ।
तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥
ॐ समुद्रतनयायै नमः । समुद्रतनयां हस्तयोरर्घ्यं समर्पयामि ॥
मॉं लक्ष्मी को सुगन्धित जल से अर्घ्य प्रदान करें ।
आचमन एवं पंचामृत
आदि से स्नान
ॐ आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥
ॐ भृगुतनयायै नमः ॥ भृगुतनयाम आचमनीयं जलं समर्पयामि । स्नानीयं जलं समर्पयामी । पंचामृत स्नानं समर्पयामी ।
मॉं लक्ष्मी को आचमन हेतु जल चढाए एवं क्रमशः शुद्ध जल और पंचामृत से स्नान करवाए ।
वस्त्र
ॐ उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेस्मिन कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥
ॐ पद्मायै नमः ॥ पद्मां वस्त्रं समर्पयामी । उपवस्त्रं समर्पयामी ॥
मॉं लक्ष्मी को वस्त्र और उपवस्त्र चढाए ।
आभूषण
ॐ क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठालक्ष्मीं नाशयाम्यहम ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात ॥
ॐ कीर्त्यै नमः ॥ नानाविधानि कुण्डलकटकादीनि आभूषणानि समर्पयामि ॥
मॉं लक्ष्मी को विभिन्न प्रकार के आभूषण अथवा तन्निमित्त अक्षत -पुष्प अर्पित करें ।
गन्धाक्षत , सिन्दूर एवं इत्र
ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम ।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप ह्रये श्रियम ॥
ॐ आर्द्रायै नमः । आर्द्रां गन्धं समर्पयामी ।
गन्धान्ते अक्षतान समर्पयामी ।
सिन्दूरं समर्पयामी ।
सुगन्धिद्रव्यं समर्पयामी ।
मॉं लक्ष्मी को क्रमशः गन्ध , अक्षत सिन्दूर एवं इत्र अर्पण करें ।
पुष्प एवं पुष्पमाला
ॐ मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रुपमत्रस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥
ॐ अनपगामिन्यै नमः । अनपगामिनीं पुष्पमालां समर्पयामि ॥
मॉं लक्ष्मी को लाल रंग के पुष्प अर्पित करें ।
धूप
ॐ कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम ॥
ॐ महालक्ष्मै नमः । धूपम आघ्रापयामि ।
गुग्गुल आदि की सुगन्धित धूप जलाकर मॉं लक्ष्मी की ओर धूप प्रसारित करें ।
दीप
ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥
ॐ श्रियै नमः । श्रियं दीपकं दर्शयामि ॥
चार बत्तियों वाला एक दीपक प्रज्वलित करें । मॉं लक्ष्मी को यह दीपक दिखाए ।
नैवेद्य
ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिडलां पद्ममालिनीम ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ॥
ॐ अश्वपूर्वायै नमः । अश्वपूर्वां नैवेद्यं निवेदयामि । मध्ये पानीयम , उत्तरापोऽशनार्थं हस्तप्रक्षालनार्थं मुखप्रक्षालनार्थं च जलं समर्पयामि । ऋतुफलं समर्पयामि । आचमनीयं जलं समर्पयामि ।
मॉं लक्ष्मी को क्रमशः नैवेद्य , आचमन , ऋतुफल तथा आचमन अर्पित करें ।
ताम्बूल
ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ॥
ॐ गन्धद्वारायै नमः । गन्धद्वारां मुखवासार्थं ताम्बूलवीटिकां समर्पयामि ॥
मॉं लक्ष्मी को मुखशुद्धि हेतु ताम्बूल अर्पित करें ।
दक्षिणा
ॐ तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान विन्देयं पुरुषानहम ॥
ॐ हिरण्यवर्णायै नमः । हिरण्यवर्णां पूजा साफल्यार्थं दक्षिणां समर्पयामि ॥
किए गये पूजन कर्म की पूर्ण सफलता के लिए मॉं लक्ष्मी को यथाशक्ति दक्षिणा अर्पित करें ।
अंग पूजन अब निम्नलिखित मन्त्रों का पाठ करते हुए मॉं लक्ष्मी के निमित्त अंग पूजा करें । प्रत्येक मन्त्र को पढकर कुछ गन्धाक्षत -पुष्प सामने मण्डल पर चढाए ।
ॐ चपलायै नमः , पादौ पूजयामि ।
ॐ चञलायै नमः , जानुनी पूजयामि ।
ॐ कमलायै नमः , कटिं पूजयामि ।
ॐ कात्यायन्यै नमः , नाभिं पूजयामि ।
ॐ जगन्मात्रे नमः , जठरं पूजयामि ।
ॐ विश्ववल्लभायै नमः , वक्षःस्थलं पूजयामि ।
ॐ कमलवासिन्यै नमः , हस्तौ पूजयामि ।
ॐ पद्माननायै नमः , मुखं पूजयामि ।
ॐ कमलपत्राक्ष्यै नमः , नेत्रत्रयं पूजयामि ।
ॐ श्रियै नमः , शिरः पूजयामि ।
ॐ महालक्ष्म्यै नमः , सर्वाडं पूजयामि ।

अष्टसिद्धि पूजन अंगपूजन के पश्चात अष्टसिद्धियों का पूजन करें । पूजन में निम्नलिखित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए गन्धाक्षत -पुष्प सामने मण्डल पर चढाए :
ॐ अणिम्ने नमः , ॐ महिम्ने नमः , ॐ गरिम्णे नमः , ॐ लघिम्ने नमः , ॐ प्राप्त्यै नमः , ॐ प्राकाम्यै नमः , ॐ ईशितायै नमः , ॐ वशितायै नमः ॥
अष्टलक्ष्मी पूजन
अष्टसिद्धियों के पूजन के पश्चात मॉं लक्ष्मी के अष्ट स्वरुपों का पूजन करना चाहिए । निम्नलिखित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए अष्टलक्ष्मियों के पूजन के लिए गन्धाक्षत -पुष्प सामने मण्डल पर चढाए :
ॐ आद्यलक्ष्म्यै नमः
ॐ विद्यालक्ष्म्यै नमः
ॐ सौभाग्यलक्ष्म्यै नमः
ॐ अमृतलक्ष्म्यै नमः
ॐ कामलक्ष्म्यै नमः
ॐ सत्यलक्ष्म्यै नमः
ॐ भोगलक्ष्म्यै नमः
ॐ योगलक्ष्म्यै नमः ।
आरती , पुष्पाज्जलि और प्रदक्षिणा
निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए जलपात्र लेकर आरती करें । आरती के पश्चात पुष्पांजलि एवं प्रदक्षिणा करें :
कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं तु प्रदीपितम ।
आरार्तिकमहं कुर्वे पश्य मे वरदो भव ॥
नानासुगन्धिपुष्पाणि यथाकालोद्भवानि च ।
पुष्पाज्जलिर्मया दत्ता गृहाण परमेश्वरि ॥
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च ।
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणा पदे पदे ।
ॐ महालक्ष्म्यै नमः । प्रार्थनापूर्वकं नमस्कारान समर्पयामि ॥
आरती तथा समर्पण
अब घर के सभी लोग एकत्र होकर मॉं लक्ष्मी की आरती करें । आरती के लिए एक थाली में रोली से स्वस्तिक बनाए । उस पर कुछ अक्षत और पुष्प डालकर गौघृत का चतुर्मुख दीपक स्थापित करें और मॉं लक्ष्मी की शंख , घंटी , डमरु आदि के साथ आरती करें । दीपक के पश्चात क्रमशः कर्पूर , धूप , जलशंख एवं वस्त्र की सहायता से आरती करें ।
जय लक्ष्मी माता , ( मैया ) जय लक्ष्मी माता ।
तुमको निशिदिन सेवत हर विष्णु धाता ॥ ॐ ॥
उमा रमा ब्रह्माणी , तुम ही जग माता ।
सूर्य चन्द्रमा ध्यावत , नारद ऋषि गाता ॥ ॐ ॥
दुर्गा रुप निरंजिनि , सुख सम्पति दाता ।
जो कोई तुमको ध्यावत , ऋधि सिधि धन पाता ॥ ॐ ॥
तुम पाताल निवासिनी , तुम ही शुभदाता ।
कर्म प्रभाव प्रकाशिनी , भवनिधि की त्राता ॥ ॐ ॥
जिस घर तुम रहती तह सब सदुण आता ।
सब सम्भव हो जाता , मन नहिं घबराता ॥ ॐ ॥
तुम बिन यज्ञ न होते , वस्त्र न हो पाता ।
खान पान का वैभव सब तुमसे आता ॥ ॐ ॥
शुभ गुण मन्दिर सुन्दर क्षीरोदधि जाता ।
रत्न चतुर्दश तुम बिन कोई नहीं पाता ॥ ॐ ॥
महालक्ष्मी जी की आरती , जो कोई नर गाता ।
उर आनन्द समाता , पाप उतर जाता ॥ ॐ ॥
समर्पण : निम्नलिखित का उच्चारण करते हुए महालक्ष्मी के समक्ष पूजन कर्म को समर्पित करें और इस निमित्त जल अर्पित करें : कृतेनानेन पूजनेन भगवती महालक्ष्मीदेवी प्रीयताम न मम ॥
अब मॉं लक्ष्मी के समक्ष दण्डवत प्रणाम करें तथा अनजानें में हुई त्रुटियों के लिए क्षमा मॉंगते हुए , देवी से सुख -समृद्धि , आरोग्य तथा वैभव की कामना करें ।
दीपावली पर सरस्वती पूजन करने का भी विधान है । इसके लिए लक्ष्मी पूजन करने के पश्चात निम्नलिखित मन्त्रों से मॉं सरस्वती का भी पूजन करना चाहिए । सर्वप्रथम निम्नलिखित मन्त्र से मॉं सरस्वती का ध्यान करें :
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता ,
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता ,
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥
हाथ में लिए हुए अक्षतों को मॉं सरस्वती के चित्र के समक्ष चढा दें ।
अब मॉं सरस्वती का पूजन निम्नलिखित प्रकार से करें :
तीन बार जल के छींटे दें और बोलें : पाद्यं , अर्घ्यं , आचमनीयं ।
सर्वाडेस्नानं समर्पयामि । मॉं सरस्वती पर जल के छींटे दें ।
सर्वाडें पंचामृत स्नानं समर्पयामि । मॉं सरस्वती को पंचामृत से स्नान कराए ।
पंचामृतस्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि । शुद्ध जल से स्नान कराए ।
सुवासितम इत्रं समर्पयामि । मॉं सरस्वती पर इत्र चढाए ।
वस्त्रं समर्पयामि । मॉं सरस्वती पर मौली चढाए ।
आभूषणं समर्पयामि । मॉं सरस्वती पर आभूषण चढाए ।
गन्धं समर्पयामि । मॉं सरस्वती पर रोली अथवा लाल चन्दन चढाए ।
अक्षतान समर्पयामि । मॉं सरस्वती पर चावल चढाए ।
कुंकुमं समर्पयामि । मॉं सरस्वती पर कुंकुम चढाए ।
धूपम आघ्रापयामि । मॉं सरस्वती पर धूप करें ।
दीपकं दर्शयामि । मॉं सरस्वती को दीपक दिखाए ।
नैवेद्यं निवेदयामि । मॉं सरस्वती को प्रसाद चढाए ।
दीपावली पर सरस्वती पूजन आचमनं समर्पयामि । मॉं सरस्वती पर जल के छींटे दें ।
ताम्बूलं समर्पयामि । मॉं सरस्वती पर पान , सुपारी , इलायची आदि चढाए ।
ऋतुफलं समर्पयामि । मॉं सरस्वती पर ऋतुफल चढाए ।
दक्षिणां समर्पयामि । मॉं सरस्वती की कर्पूर जलाकर आरती करें ।
नमस्कारं समर्पयामि । मॉं सरस्वती को नमस्कार करें ।
सरस्वती महाभागे देवि कमललोचने ।
विद्यारुपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोऽस्तुते ।
दीपावली पर कुबेर पूजन
दीपावली एवं धनत्रयोदशी पर महालक्ष्मी के पूजन के साथ -साथ धनाध्यक्ष कुबेर का पूजन भी किया जाता है । इनके पूजन से घर में स्थायी सम्पत्ति में वृद्धि होती है और धन का अभाव दूर होता है । इनका पूजन इस प्रकार करें ।
सर्वप्रथम निम्नलिखित मन्त्र के साथ इनका आवाहन करें :
आवाहयामि देव त्वामिहायामि कृपां कुरु ।
कोशं वर्द्धय नित्यं त्वं परिरक्ष सुरेश्वर ॥
अब हाथ में अक्षत लेकर निम्नलिखित मंत्र से कुबेरजी का ध्यान करें :
मनुजवाह्यविमानवरस्थितं ,
गरुडरत्ननिभं निधिनायकम ।
शिवसखं मुकुटादिविभूषितं ,
वरगदे दधतं भज तुन्दिलम ॥
हाथ में लिए हुए अक्षतों को कुबेरयंत्र , चित्र या विग्रह के समक्ष चढा दें ।
अब कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह का पूजन निम्नलिखित प्रकार से करें :
तीन बार जल के छींटे दें और बोलें : पाद्यं , अर्घ्य , आचमनीयं समर्पयामि ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , स्नानार्थें जलं समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर जल के छींटे दें ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , पंचामृतस्नानार्थे पंचामृतं समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह को पंचामृत स्नान कराए ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , सुवासितम इत्रं समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर इत्र चढाए ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , वस्त्रं समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर मौली चढाए ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , गन्धं समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर रोली अथवा लाल चन्दन चढाए ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , अक्षतान समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर चावल चढाए ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , पुष्पं समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर पुष्प चढाए ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , धूपम आघ्रापयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर धूप करें ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , दीपकं दर्शयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह को दीपक दिखाए ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , नैवेद्यं समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर प्रसाद चढाए ।
आचमनं समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर जल के छींटे दें ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , ऋतुफलं समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर ऋतुफल चढाए ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , ताम्बूलं समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर पान , सुपारी , इलायची आदि चढाए ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , दक्षिणां समर्पयामि । कुबेर यंत्र , चित्र या विग्रह पर नकदी चढाए ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , कर्पूरनीराजनं समर्पयामि । कर्पूर जलाकर आरती करें ।
ॐ वैश्रवणाय नमः , नमस्कारं समर्पयामि । नमस्कार करें ।
अंत में इस मंत्र से हाथ जोडकर प्रार्थना करें :
धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च ।
भगवन त्वत्प्रसादेन धनधान्यादिसम्पदः ॥
कुबेर पूजन के साथ यदि तिजोरी की भी पूजा की जाए , तो साधक को दोगुना लाभ मिलता है ।
व्यापारीवर्ग के लिए दीपावली का दिन बही -खाता , तुला आदि के पूजन का दिवस भी होता है । सर्वप्रथम व्यापारिक प्रतिष्ठान के मुख्यद्वार के दोनों ओर दीवार पर ‘ शुभ -लाभ ’ और ‘ स्वस्तिक ’ एवं ‘ ॐ ’ सिन्दूर से अंकित करें । तदुपरान्त इन शुभ चिह्नों की रोली , पुष्प आदि से ‘ ॐ ’ देहलीविनायकाय नमः ’ कहते हुए पूजन करें । अब क्रमशः दवात , बहीखाता , तुला आदि का पूजन करना चाहिए ।
दवात पूजन : दवात को महाकाली का रुप माना गया है । सर्वप्रथम नई स्याहीयुक्त दवात को शुद्ध जल के छींटे देकर पवित्र कर लें , तदुपरान्त उसके मुख पर मौली बॉंध दे । दवात को चौकी पर थोडे से पुष्प और अक्षत डालकर स्थापित कर दें । दवात का रोली -पुष्प आदि से महाकाली के मन्त्र ‘ ॐ श्रीमहाकाल्यै नमः ’ के साथ पूजन करें । अन्त में इस प्रकार प्रार्थना करें :
कालिके ! त्वं जगन्मातर्मसिरुपेण वर्तसे ।
उत्पन्ना त्वं च लोकानां व्यवहारप्रसिद्धये ॥
लेखनी का पूजन : दीपावली के दिन नयी लेखनी अथवा पेन को शुद्ध जल से धोकर तथा उस पर मौली बॉंधकर लक्ष्मीपूजन की चौकी पर कुछ अक्षत एवं पुष्प डालकर स्थापित कर देना चाहिए । तदुपरान्त रोली पुष्प आदि से ‘ ॐ लेखनीस्थायै देव्यै नमः ’ मन्त्र बोलते हुए पूजन करें । तदुपरान्त निम्नलिखित मन्त्र से हाथ जोडकर प्रार्थना करें :
शास्त्राणां व्यवहाराणां विद्यानामाप्नुयाद्यतः ।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि मम हस्ते स्थिरा भव ।
दीपावली पर
बहीखाता -तुला पूजन
दीपावली के दिन व्यापारी वर्ग नए बहीखातों का शुभारम्भ करते हैं । नए बहीखाते लेकर उन्हें शुद्ध जल के छींटे देकर पवित्र कर लें । तदुपरान्त उन्हें लाल वस्त्र बिछाकर तथा उस पर अक्षत एवं पुष्प डालकर स्थापित करें । तदुपरान्त प्रथम पृष्ठ पर स्वस्तिक का चिह्न चंदन अथवा रोली से बनाए ।
अब बहीखाते का रोली , पुष्प आदि से ‘ ॐ श्रीसरस्वत्यै नमः ’ मन्त्र की सहायता से पूजन करें ।
तुला का पूजन : सर्वप्रथम तुला को शुद्ध कर लेना चाहिए । तदुपरान्त उस पर रोली से स्वस्तिक का चिह्न बनाए । तुला पर मौली आदि बॉंध दें तथा ‘ ॐ तुलाधिष्ठातृदेवतायै नमः ’ कहते हुए रोली , पुष्प आदि से तुला का पूजन करें ।
 
 

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

सौंदर्य के साथ संवारें भाग्य को (रूप चतुर्दशी)

 सौंदर्य के साथ संवारें भाग्य को (रूप चतुर्दशी)
मित्रों सर्वप्रथम आप सभी को रूपचौदस की ढ़ेर सारी शुभकामनायें, प्रबुद्ध प्रिय पाठकों , कहा जाता है कि शरीर की सुंदर छवि का होना उतना ही आवश्यक है जितना मनुष्य के जीवन निर्वाह में धन की । अतएव इन दोनों अहम वस्तुओं का परस्पर में अनुनाश्रय संबंध है यानी एक के बिना दूसरा अधूरा तो आईए ''ज्योतिष का सूर्य'' के माध्यम से आज आपको इन दोनों अमूल्य पदार्थों को आसानी से एक दिन में ही प्राप्त करने का कुछ विशेष उपाय और गूढ़ रहस्य बताने जा रहा हुं मुझे विश्वास है कि आप जरूर लाभ उठायेंगे...
अवश्यमेव कर्तव्यं स्नानं नरकभीरूणा।। 
पक्षे प्रत्युषसमये स्नानं कुर्यात्प्रयत्नत:।

तैले लक्ष्मी: जले गंगा दीपावल्या चतुर्दशी।
प्रात: स्नानं तु य: कुर्यात् यमलोकं न पश्यति।।

भावार्थ- रूप चतुर्दशी के दिन तेल में लक्ष्मी का वास और जल में गंगा की पवित्रता होती है। इस शुभावसर पर दीप के प्रकाश में जो व्यक्तिप्रात:काल स्नान करता है, वह स्वरूपवान होता है तथा उसके जीवन की परेशानियां दूर होती हैं।

आज रूप चतुर्दशी है। इसे छोटी दिवाली और नरक चौदस भी कहा जाता है। आज के दिन का महत्व स्वच्छता से है।

आज क्या करें : सूर्योदय से पहले उठकर तेल-उबटन से नहाएं। शाम को तिल्ली के तेल के 14 दीपक थाली में सजाएं। फिर हाथ में जल लेकर उन्हें मंदिर में लगाएं।

पौराणिक महत्व :
भगवान वामन ने राजा बलि की पृथ्वी तथा शरीर को तीन पगों में इसी दिन नाप लिया था। हनुमानजी का जन्म भी आज ही हुआ था।

आज के ही दिन श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था।
कार्तिक माह के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी के नाम से जाना जाता है. नरक चतुर्दशी को नरक चौदस, रुप चौदस, रूप चतुर्दशी, नर्क चतुर्दशी या नरका पूजा के नाम से भी जानते हैं. मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन मुख्य रूप से मृत्यु के देवता यमराज की पूजा का विधान है
नरक चतुर्दशी को छोटी दीपावली भी कहा जाता है. दीपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली नरक चतुर्दशी के दिन संध्या के पश्चात दीपक प्रज्जवलित किए जाते हैं. नरक चतुर्दशी का पूजन कर अकाल मृत्यु से मुक्ति तथा स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए यमराज जी की पूजा उपासना की जाती है. इस रात्रि के पूजन एवं दीप जलाने की प्रथा के संदर्भ में पौराणिक कथाएं तथा कुछ लोक मान्यताएं प्रचलित हैं जो इस पर्व के महत्व को परिलक्षित हैं.
नरक चतुर्दशी पर्व से जुड़ीं कुछ कथाएं
नरक चतुर्दशी के पर्व के साथ अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. एक पौराणिक कथा के अनुसार रन्ति देव नामक एक राजा हुए थे. वह बहुत ही पुण्यात्मा और धर्मात्मा पुरूष थे सदैव धर्म कर्म के कार्यों में लगे रहते थे. जब उनका अंतिम समय आया तो यमराज के दूत उन्हें लेने के लिए आते हैं. और राजा को नरक में ले जाने के लिए आगे बढते हैं.

यमदूतों को देख कर राजा आश्चर्य चकित हो उनसे पूछते हैं कि मैंने तो कभी कोई अधर्म या पाप नहीं किया है तो फिर आप लोग मुझे नर्क में क्यों भेज रहे हैं. कृपा कर मुझे मेरा अपराध बताएं जिस कारण मुझे नरक का भागी होना पड़ रहा है. राजा की करूणा भरी वाणी सुनकर यमदूत उनसे कहते हैं कि, हे राजन एक बार तुम्हारे द्वार से एक ब्राह्मण भूखा ही लौट गया जिस कारण तुम्हें नरक जाना पड़ रहा है.

यह सुनकर राजा यमदूतों से विनती करते हुए कहते हैं कि वह उसे एक वर्ष का और समय देने की कृपा करें. राजा का कथन सुनकर यमदूत विचार करने लगते हैं और राजा की आयु एक वर्ष बढा़ देते हैं. यमदूतों के जाने पर राजा इस समस्या के निदान के लिए ऋषियों के पास जाता हैं, उन्हें सारा वृतान्त सुनाता है.

ऋषि राजा से कहते हैं कि यदि राजन कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें. ब्रह्मणों को भोजन करवा कर उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें तो वह इस पाप से मुक्त हो सकते हैं. ऋषियों के कथन अनुसार राजा कार्तिक माह की कृष्ण चतुर्दशी का व्रत करता है और इस प्रकार राजा पाप मुक्त हो कर विष्णु लोक में स्थान पाता है. तभी से पापों एवं नर्क से मुक्ति हेतु कार्तिक चतुर्दशी व्रत प्रचलित है.

एक अन्य कथा अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने कार्तिक माह को कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन नरकासुर का वध करके, देवताओं व ऋषियों को उसके आतंक से मुक्ति दिलवाई थी. इसके साथ ही साथ श्री कृष्ण भगवान ने सोलह हजार कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त करवाया था. इस उपलक्ष पर नगर वासियों ने नगर को दीपों से प्रकाशित किया और उत्सव मनाया तभी से नरक चतुर्दशी का त्यौहार मनाया जाने लगा.
रूप चतुर्दशी
नरक चतुर्दशी को रूप चतुर्दशी भी कहते हैं. रूप चतुर्दशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए ऎसा करने से रूप सौंदर्य की प्राप्ति होती है. रूप चतुर्दशी से संबंधित एक कथा भी प्रचलित है मान्यता है कि प्राचीन समय पहले हिरण्यगर्भ नामक राज्य में एक योगी रहा करते थे. एक बार योगीराज ने प्रभु को पाने की इच्छा से समाधि धारण करने का प्रयास किया. अपनी इस तपस्या के दौरान उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पडा़. उनकी देह पर कीड़े पड़ गए, बालों, रोओं और भौंहों पर जुएँ पैदा हो गई.

अपनी इतनी विभत्स दशा के कारण वह बहुत दुखी होते हैं. तभी विचरण करते हुए नारद जी उन योगी राज जी के पास आते हैं और उन योगीराज से उनके दुख का कारण पूछते हैं. योगीराज उनसे कहते हैं कि, हे मुनिवर मैं प्रभु को पाने के लिए उनकी भक्ति में लीन रहा परंतु मुझे इस कारण अनेक कष्ट हुए हैं ऎसा क्यों हुआ? योगी के करूणा भरे वचन सुनकर नारदजी उनसे कहते हैं, हे योगीराज तुमने मार्ग तो उचित अपनाया किंतु देह आचार का पालन नहीं जान पाए इस कारण तुम्हारी यह दशा हुई है.

नारद जी के कथन को सुन, योगीराज उनसे देह आचार के विषय में पूछते हैं इस पर नारदजी उन्हें कहते हैं कि सर्वप्रथम आप कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन व्रत रखकर भगवान की पूजा अराधना करें क्योंकि ऎसा करने से आपका शरीर पुन: पहले जैसा स्वस्थ और रूपवान हो जाएगा. तब आप मेरे द्वारा बताए गए देह आचार को कर सकेंगे. नारद जी के वचन सुन योगीराज ने वैसा ही किया और उस व्रत के फलस्वरूप उनका शरीर पहले जैसा स्वस्थ एवं सुंदर हो गया. अत: तभी से इस चतुर्दशी को रूप चतुर्दशी के नाम से जाना जाने लगा.

नरक चतुर्दशी पूजा । छोटी दिवाली पूजा विधि

नरक चतुर्दशी के दिन सुबह के समय आटा, तेल और हल्दी को मिलाकर उबटन तैयार किया जाता है. इस उबटन को शरीर पर लगाकर, अपामार्ग (चिचड़ी) की पत्तियों को जल में डालकर स्नान करते हैं. इस दिन विशेष पूजा की जाती है जो इस प्रकार होती है, सर्वप्रथम एक थाल को सजाकर उसमें एक चौमुख दिया जलाते हैं तथा सोलह छोटे दीप और जलाएं तत्पश्चात रोली खीर, गुड़, अबीर, गुलाल, तथा फूल इत्यादि से ईष्ट देव की पूजा करें. इसके बाद अपने कार्य स्थान की पूजा करें. पूजा के बाद सभी दीयों को घर के अलग अलग स्थानों पर रख दें तथा गणेश एवं लक्ष्मी के आगे धूप दीप जलाएं. इसके पश्चात संध्या समय दीपदान करते हैं जो यम देवता, यमराज के लिए किया जाता है. विधि-विधान से पूजा करने पर व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो प्रभु को पाता है
-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे-०९८२७१९८८२८, भिलाई, दुर्ग( छ ग.)

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

धनतेरस की मान्यतायें एवं शुभ मुहूर्त में क्या करें और कैसे..?


24-10-2011 को धनतेरस है

धनतेरस की मान्यतायें एवं शुभ मुहूर्त में क्या करें और कैसे..?
ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे -09827198828

मित्रों कल धनत्रयोदशी का पावन पर्व है सर्वप्रथम ''ज्योतिष का सूर्य'' परिवार के तरफ से आप सभी को ढ़ेर सारी मनोवांछित शुभकामनायें...कल धन के देवता कुबेर और मृत्यु देवता यमराज की पूजा का विशेष महत्व है । इसी दिन देवताओं के वैद्य धनवंतरि ऋषि अमृत कलश सहित सागर मंथन से प्रकट हुए थे । अतः इस दिन धनवंतरी जयंती मनायी जाती है । निरोग रहते हेतु उनका पूजन किया जाता है । इस दिन अपने सामथ्र्य अनुसार किसी भी रुप मे चादी एवं अन्य धातु खरीदना अति शुभ है । धन संपति की प्राप्ति हेतु कुबेर देवता के लिए घर के पूजा स्थल पर दीप दान करें एवं मृत्यु देवता यमराज ( जो अकाल मृत्यु से करता है ) के लिए मुख्य द्वार पर भी दीप दान करें ।

कार्तिक मास की कृष्ण त्रयोदशी को धनतेरस कहते हैं। आज के दिन घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर रखा जाता है। आज के दिन नये बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है। धनतेरस के दिन यमराज और भगवान धनवन्तरि की पूजा का महत्व है।
पंचांग के अनुसार हर साल कार्तिक कृष्ण की त्रयोदशी के दिन धन्वतरि त्रयोदशी मनायी जाती है। जिसे आम बोलचाल में ‘धनतेरस’ कहा जाता है। यह मूलतः धन्वन्तरि जयंती का पर्व है और आयुर्वेद के जनक धन्वन्तरि के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है।

धनतेरस के दिन नए बर्तन या सोना-चांदी खरीदने की परम्परा है। इस पर्व पर बर्तन खरीदने की शुरआत कब और कैसे हुई, इसका कोई निश्चित प्रमाण तो नहीं है लेकिन ऐसा माना जाता है कि जन्म के समय धन्वन्तरि के हाथों में अमृत कलश था। यही कारण होगा कि लोग इस दिन बर्तन खरीदना शुभ मानते हैं।

आने वाली पीढ़ियां अपनी परम्परा को अच्छी तरह समझ सकें, इसके लिए भारतीय संस्कृति के हर पर्व से जुड़ी कोई न कोई लोककथा अवश्य है। दीपावली से पहले मनाए जाने वाले धनतेरस पर्व से  भी जुड़ी एक लोककथा है, जो कई युगों से कही-सुनी जा रही है।

पौराणिक कथाओं में धन्वन्तरि के जन्म का वर्णन करते हुए बताया गया है कि देवता और असुरों के समुद्र मंथन से धन्वन्तरि का जन्म हुआ था। वह अपने हाथों में अमृत-कलश लिए प्रकट हुए थे। इस कारण उनका नाम ‘पीयूषपाणि धन्वन्तरि’ विख्यात हुआ। उन्हें विष्णु का अवतार भी माना जाता है।

परम्परा के अनुसार धनतेरस की संध्या को यम के नाम का दीया घर की देहरी पर रखा जाता है और उनकी पूजा करके प्रार्थना की जाती है कि वह घर में प्रवेश नहीं करें और किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं। देखा जाए तो यह धार्मिक मान्यता मनुष्य के स्वास्थ्य और दीर्घायु जीवन से प्रेरित है।

यम के नाम से  दीया निकालने के बारे में भी एक पौराणिक कथा है- एक बार राजा हिम ने अपने पुत्र की  कुंडली बनवाई, इसमें यह बात सामने आयी कि शादी के ठीक चौथे दिन सांप के काटने से  उसकी मौत हो जाएगी। हिम की पुत्रवधू को जब इस बात का पता चला तो उसने निश्चय किया कि वह हर हाल में अपने पति को यम के कोप से बचाएगी।  शादी के चौथे दिन उसने पति के कमरे के बाहर घर के सभी जेवर और सोने-चांदी के सिक्कों का ढेर बनाकर उसे पहाड़ का रूप दे दिया और खुद रात भर बैठकर उसे गाना और कहानी सुनाने लगी ताकि उसे नींद नहीं आए।

रात के समय जब यम सांप के रूप में उसके पति को डंसने आया तो वह आभूषणों के पहाड़ को पार नहीं कर सका और उसी ढेर पर बैठकर गाना सुनने लगा। इस तरह पूरी रात बीत गई। अगली सुबह सांप को लौटना पड़ा। इस तरह उसने अपने पति की जान बचा ली। माना जाता है कि तभी से लोग घर की सुख-समृद्धि के लिए धनतेरस के दिन अपने घर के बाहर यम  के नाम का दीया निकालते हैं ताकि यम उनके परिवार को कोई नुकसान नहीं पहुंचाए।

भारतीय संस्कृति में स्वास्थ्य का स्थान धन से ऊपर माना जाता रहा है। यह कहावत आज भी प्रचलित है कि “पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में माया” इसलिए दीपावली में सबसे पहले धनतेरस को महत्व दिया जाता है। जो भारतीय संस्कृति के सर्वथा अनुकूल  है।

धनतेरस के दिन सोने और चांदी के बर्तन, सिक्के तथा आभूषण खरीदने की परम्परा रही है। सोना सौंदर्य में वृद्धि तो करता ही है, मुश्किल घड़ी में संचित धन के रूप में भी काम आता है। कुछ लोग शगुन के रूप में सोने या चांदी के सिक्के भी खरीदते हैं।

बदलते दौर के साथ लोगों की पसंद और जरूरत भी बदली है इसलिए इस दिन अब बर्तनों और आभूषणों के अलावा वाहन, मोबाइल आदि भी खरीदे जाने लगे हैं। वर्तमान समय में देखा जाए तो मध्यमवर्गीय परिवारों में धनतेरस के दिन वाहन खरीदने का फैशन सा बन गया है।  इस दिन ये लोग गाड़ी खरीदना शुभ मानते हैं। कई लोग तो इस दिन कम्प्यूटर और बिजली के उपकरण भी खरीदते हैं।

रीति-रिवाजों से जुड़ा धनतेरस आज व्यक्ति की आर्थिक क्षमता का सूचक बन गया है। एक तरफ उच्च और मध्यम वर्ग के लोग धनतेरस के दिन विलासिता से भरपूर वस्तुएं खरीदते हैं तो दूसरी ओर निम्न वर्ग के लोग जरूरत की वस्तुएं खरीद कर धनतेरस का पर्व मनाते हैं। इसके बावजूद वैश्वीकरण के इस दौर में भी लोग अपनी परम्परा को नहीं भूले हैं और अपने सामर्थ्य के अनुसार यह पर्व मनाते हैं।
भगवान धन्वंतरि पूजन इस बार 3 नवंबर 2010, बुधवार को प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी है जो 4.57 मिनट से लगेगी। इस समय प्रदोष काल 5.41 से 8.27 तक रहेगा। शाम 5.42 से 7.11 तक लाभ का चौघड़‍िया रहेगा फिर अमृत 7.11 से 8.40 तक रहेगा। जो प्रदोषकाल में आता है अतः इस समयावधि में गादी बिछाने एवं भगवान धन्वंतरि का पूजन करना श्रेष्ठ है।

रुप चौदस , नरक चतुर्दशी एवं हनुमान जयंतीः इसे छोटी दीपावली भी कहते है । इस दिन रुप और सौदर्य प्रदान करने वाले देवता श्री कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए पूजा की जाती है । इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था और राक्षस बारासुर द्वारा बंदी बनायी गयी सोलह हजार एक सौ कन्याओं को मुक्ति दिलायी थी । अतः नरक चतुर्दशी मनायी जाती है । दूसरो अर्थात गंदगी है उसका अंत जरुरी है । इस दिन अपने घर की सफाई अवश्य करें । रुप और सौंदर्य प्राप्ति हेतु इस दिन शरीर पर उबटन लगाकर स्नान करें । अंजली पुत्र बजरंगबलि हनुमान का जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में हुआ था अतः हनुमान जयंती भी इसी दिन मनायी जाती है । सांय काल उनका पूजन एवं सुंदर कांड का पाठ अवश्य करें ।
 

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

बनारस, का हाल बा गुरु!

बनारस, का हाल बा गुरु!
मित्रों आज मैं आप लोगों को काशी का भ्रमण कराता हुं क्योंकि आज के दस वर्ष पहले मैं इन्हीं बनारस की गलियों में 12 वर्ष का समय बाबा के दरबार में बिताया हुं जब मैं मात्र १४ साल का था उस समय बनारस आ गया था तो उस समय छोटी उम्र में घर छोड़कर यहा रहना इतना आसान नहीं था क्योंकि कभी कभी घर की याद आती थी तो हमारे गुरूजी श्री श्रीनाथ त्रिपाठी जी यही कहते थे ...चना चबेना गंगजल जो पुरवै करतार काशी कबहुं छोड़िये बाबा विश्वनाथ दरबार..
बाबा के मंदिर से आगे  कचौड़ी गली है। मिठाई और कचौड़ियों के लिये बहुत प्रसिद्ध स्थान है। हालाँकि बनारस के हर मुहल्ले में मिठाई की दुकानों पर कचौड़ियाँ मिलेंगी पर सुबह सुबह ही और उनका स्वाद- लाजवाब। देश भर में ऐसी कचौड़ियाँ और कहीं नहीं मिलतीं। कचौड़ियों के साथ जो असली स्वाद होता है वह है सब्जी का। साधारण से साधारण आलू की सब्जी में भी वो गमक की मुँह में पानी आ जाए।

पर अब कचौड़ी गली में अधिक बिक्री स्थानीय लोगों के कारण नहीं होती। वह होती है पास में ही मणिकर्णिका घाट पर स्थित श्मशान के कारण। दूरदराज़ के गाँवों, कस्बों से लोग काशी में मुक्ति दिलाने के लिये शवों को लेकर आते हैं और शवदाह के बाद लौटते समय कचौड़ी गली में भरपेट कचौड़ी और मिठाई का रसपान करते हैं।

इसी कचौड़ी गली से आगे पड़ती है खोआ गली जिसका एक मुँह चित्रा सिनेमा के सामने आकर खुलता है। खोआ गली में सिर्फ़ खोआ यानी मावा मिलता है। पीतल के बड़े बड़े थालों में सजा हुआ मावा। तरह तरह का मावा या खोआ। खोए की ऐसी मंडी कहीं और ढूँढे न मिलेगी। तीस चालीस दुकानें और सिर्फ़ खोए की दुकानें।

खोआ गली में आधा किलो से लेकर सैकड़ों किलो तक खोआ आप खरीद सकते हैं। बनारस वैसे भी खोए की मिठाइयों के लिये प्रसिद्ध है। पर कुछ ख़ास मिठाइयाँ तो केवल बनारस में ही मिलेंगी। राधाप्रिय, तिरंगी बर्फी, लालपेड़ा, राजभोग, लवंगलता, परवल की मिठाई, संतरे की मिठाई और न जाने कितने नाम। पर कुछ मिठाइयाँ तो ऐसी हैं जिनका पेटेंट बनारसियों को करा ही लेना चाहिये। इनमें बारह महीने मिलने वाली मलाई और मलाई पूड़ी भी हो और जाड़े के दिनों में मिलने वाला मलइयो भी। मलइयो ऐसी अद्भुत चीज़ है जिसे मिठाई की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यह मीठे की श्रेणी में आता है। इसे बनाने की कला भी अद्भुत है। रात में दूध को खुले में रख देते हैं केसर डालकर और आधी रात से उसे मथना शुरू करते हैं। उससे उठा हुआ गाढ़ा फेन ही मलइयो है जो सुबह आठ नौ बजे तक गलता नहीं है। किसने ईजाद किया होगा इसे, यह खोज का विषय है। एक और मिठाई है पलंग तोड़ जो विशेष रुप से नंदन साहू लेन में भैरो साव के यहाँ मिलती है।

खोआ गली का एक सिरा जाकर मिल जाता है ज्ञानवापी से। वही ज्ञानवापी जहाँ अब पुलिस का भयानक पहरा है, जहाँ संगीनों के साए में बाबा विश्वनाथ रोज़ हजारों भक्तों को दर्शन देते हैं, जिनके त्रिशूल पर निर्भय काशी टिकी है और जिसके आसपास के मकानों की खिड़कियाँ भी अब कड़ी सुरक्षा घेरे के नीचे हैं। वही ज्ञानवापी जहाँ स्थित कारमाइकल लायब्रेरी को अब लोग लगभग भूलते जा रहे हैं और विश्वनाथ गली के दुकानदार इसलिये दुखी हैं कि मंदिर, मस्ज़िद के झगड़ों ने ज्ञानवापी को अभेद्य किला बना दिया है और उनकी दुकानदारी आधी रह गई है। काशी को निर्भय करने वाले भोलेनाथ, विश्वनाथ महादेव की नगरी ख़ुद को असुरक्षित महसूस कर रही है। ऐसे में गाहे बगाहे जब यहाँ के निवासी ‘‘अभी तो केवल झाँकी है, मथुरा काशी बाक़ी है‘‘ जैसे प्रायोजित नारे सुनते हैं तो सिहर उठते हैं।

इसी ज्ञानवापी में पीछे की ओर है मुहल्ला नीलकंठ जहाँ पास में ही रहा करते थे शिवप्रसाद मिश्र रुद्र काशिकेय जिनका कथा खंडों में बँटा संग्रह ‘बहती गंगा’ बनारस की अद्भुत बानगी प्रस्तुत करता है। जिसके जीवंत पात्र इतिहास पुरुष थे, जिसकी एक एक कहानी ऐसी है कि हर कहानी पर एक फ़िल्म बनाई जा सकती है। भंगड़ भिक्षुक, दाताराम नागर, नन्हकू सिंह जैसे पात्र भूली हुई किवदंती बन चुके हैं। मज़ा देखिये कि बनारस की नई पीढ़ी से अगर आप पूछेंगे कि ये लोग कौन तो उन्हें कुछ नहीं पता। ‘बहती गंगा’ जो बनारस की पहचान बन सकती है कुछ साहित्य प्रेमियों के अलावा बाकियों के लिए अपरिचित है। शायद हिंदी में है इसलिये। शायद इसका अँगरेज़ी में अनुवाद होता या अँगरेज़ी में लिखी गई होती तो लोग ज़्यादा जानते इसे। डॉमिनिक लॉ पियेर ने जब कलकत्ते पर अँगरेज़ी में लिखा तो लोगों ने उसे ख़ूब पढ़ा पर रुद्र जी की ‘बहती गंगा’ की शायद कुछ हज़ार प्रतियाँ ही बिक पाईं होंगी। खैर, किस किस से गिला कीजिये।

कचौड़ी गली से अंदर घुसकर पहुँच जाते हैं मनकनका घाट यानी मर्णिकर्णिक घाट। कहते हैं कि भगवान शिव, पार्वती के साथ भ्रमण पर निकले थे और काशी में पार्वती के कान की मणि जिस स्थान पर गिरी वह हो गया मणिकर्णिका। आज उसी मणिकर्णिक पर मुक्ति के लिये निरंतर लोग शवदाह करते हैं। यह सच है कि वहाँ चिताओं की आग ठंडी नहीं होती। दिनरात जलती चिताएँ मनुष्य को नश्वरता की याद भले दिलाएँ पर मणिकर्णिका पर बिना कुछ भोग चढ़ाए चिता को अग्नि नहीं मिल पाती। बाक़ी सबकी अपनी अपनी सामर्थ्य। इस मुक्तिधाम में भी सांसारिक माया मोह से किसी को मुक्ति नहीं ।

अब घाटों की बात निकली है तो जान लीजिये कि अर्धचंद्रकार बहती गंगा के किनारे अस्सी से ज़्यादा घाट हैं और हर घाट के बारे में जनश्रुतियाँ। ये सभी घाट स्थापत्य के बेजोड़ नमूने हैं। इनके किनारे बने भवन बार बार इटली के वेनिस और टर्की के इस्तांबुल की याद दिलाते हैं। फ़र्क बस ये कि इन दोनों जगहों पर दोनों ओर सुंदर इमारतें हैं और बनारस में केवल एक ओर। यहाँ गंगा दक्षिण से उत्तरवाहिनी हो गई है और बनारस पार करते ही फिर दक्षिण की ओर मुड़ गई है। इनमें से सबसे अधिक चर्चित या देखा जाने वाला घाट है दशाश्वमेघ घाट। इस घाट की ख़ासियत यह है कि यहाँ एकदम घाट तक सड़क आई है। इसलिये पर्यटक सबसे अधिक यहीं आते हैं। कहते हैं कि इसी घाट पर दस अश्वमेघ यज्ञ हुए इसलिये इसका नाम पड़ गया दशाश्वमेघ घाट।

आजकल हर शाम दशाश्वमेघ और उसके बगल में गंगा आरती का आयोजन होता है। लोगों की आस्था को बाज़ार ने किस तरह भुनाया और आकर्षित किया है इसका अद्वितीय उदाहरण है गंगा आरती। नीचे बदबू मारता गंगा का पानी और ऊपर श्रद्धालु जन, गंगा आरती की स्तुतियों और स्तोत्रों की गूँज से विनयावनत। सच ही है, श्रद्धा कभी स्थान या समय नहीं देखती।

इन घाटों पर पर्यटकों के पहुँचते ही नाववालों से लेकर पंडे तक उन्हें घेरने की कोशिश करते हैं। अब सौदा जितने में पट जाय। यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। भारतेंदु ने अपनी प्रेमजोगिनी में काशी का अद्भुत चित्रण किया है। वे लिखते हैं -
देखी तुम्हरी कासी लोगों देखी तुम्हरी कासी
जहाँ विराजें विश्वनाथ विश्वेश्वर जी अविनासी
घाट जाएँ तो गंगा पुत्तर नोचे दे गलफाँसी
आधी कासी भाँड़ भंडेरिया लुच्चे और सन्यासी।

भारतेंदु ही थे जो यह कहने का साहस कर सकते थे वरना बनारस के पंडों से तो भगवान बचाए। ऐसे भारतेंदु हरिश्चंद्र का मकान भारतेंदु भवन आज भी चौक से ठठेरी बाज़ार की ओर होते हुए आगे जाएँ तो मिल जाएगा। जस का तस। कई आँगनों का घर, जो अब पारिवारिक विभाजन में बँट गया है। भारतेंदु के प्रपौत्ऱ अभी भी उसी निवास में रह रहे हैं। उनके घर के पिछवाड़े ही है अग्रसेन महाजनी पाठशाला जिसकी भूमिका महाजनी शिक्षा के विकास में बहुत महत्वपूर्ण रही है।

शनि की साढ़ेसाती से किसको मिलेगी मुक्ति ...?

शनि की साढ़ेसाती से किसको मिलेगी मुक्ति ...?
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे 09827198828
न्याय के देव शनि को कौन नहीं भला जानता होगा, और शनि की साढ़ेसाती से लगभग सभी लोग परिचित होते ही हैं। ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर 15 नवंबर 2011 को शनि तुला राशि में प्रवेश करेंगे जिसकी वजह से सिंह राशि वालों की साढ़ेसाती समाप्त हो जाएगी तथा कन्या, तुला और वृश्चिक राशि वाले जातकों पर साढ़ेसाती का प्रभाव बना रहेगा। इन तीनों राशियों में तुला राशि के जातकों के लिए शनि की साढ़ेसाती शुभ रहेगी।
15 नवंबर को तुला राशि में प्रवेश करेंगे शनि :
प्रिय पाठकों, ज्योतिष गणनाओं के आधार पर शनि तुला राशि में 15 नवंबर 2011 को प्रवेश करेगा। खुशी की बात यह है कि सिंह राशि वाले महानुभावों को शनि की साढ़े साती से मुक्ति मिलेगी, वहीं दूसरी ओर वृश्चिक राशि वालों पर शनि की साढ़ेसाती प्रारंभ होगी तथा कन्या और तुला राशि वालों को शनि की साढ़े साती चालू यथावत बनी रहेगी। कन्या राशि वालों को यह अंतिम ढैय्या रहेगी और तुला राशि वालों को दूसरी ढैय्या रहेगी। तुला राशि का स्वामी शुक्र और कन्या राशि का स्वामी बुध यह दोनों ही शनिदेव के मित्र हैं। इस कारण से इन राशि वालों को कष्ट की मात्रा अल्प रहेगी। इसके अतिरिक्त यदि शनिदेव की आराधना करके उनका सम्मान किया जाये तो साढ़ेसाती का असर नगण्य हो सकता है।
देश के लिए कैसा रहेगा यह शनि का राशि परिवर्तन :
हमारे देश भारतवर्ष की वृष लग्न और कर्क राशि है। अतएव अपने देश भारत पर शनि के साढ़े साती का असर बिल्कुल न के बराबर रहेगा। बल्कि वृष लग्न वाले भारतवर्ष एवं जातकों के लिए शनि सकारात्मक फल प्रदान करने वाला योगकारी और भाग्योदयकारी है।
 हजारों कुंडलीयों में मैने प्राय: ऐसा देखा है कि जन्म पत्रिका में शनि यदि लाभकारी स्थिति में है तो उन व्यक्तियों को लाभ देगा। इस लेख के माध्यम से उन भविष्यवक्ताओं एवं लोगों को बताना चाहूंगा कि यदि शनि की साढ़े साती का विश्लेषण करते समय हमें प्रमुख रूप से निम्नलिखित तथ्यों का जरूर ध्यान देना चाहिए।
जन्म पत्रिका के अनुसार किस ग्रह की महादशा, अंतर्दशा चल रही है, यह भी ध्यान में रखना होगा। यह नियम भी याद रखना आवश्यक है कि जब शनि 3, 6, 11 स्थानों पर भ्रमण करता है तो बहुत अच्छा फ ल देता है। इस नियम के अनुसार तुला का शनि सिंह राशि, वृष राशि एवं धनु राशि वालों को लाभकारी रहने की संभावना है। कन्या राशि वालों को यह धन स्थान में मित्र क्षेत्री रहने से यदि जन्म पत्रिका में लाभकारी है तो बहुत लाभकारी सिद्ध होगा। यदि सर्विस में है तो प्रमोशन मिलेगा। जहां 15 नवंबर 2011 से शनि की साढ़ेसाती कन्या, तुला, वृश्चिक राशि पर रहेगी, उसी के साथ कर्क, मीन राशि वालों को शनि की ढैय्या रहेगी। इनका समय कष्टकारी रहेगा। शनि लाभकारी रहेगा या कष्टकारी, इसका निर्णय अष्टक वर्ग में उसे प्राप्त बिंदु के आधार पर ही रिकया जाना चाहिए। क्योंकि वह उसी के अनुसार फ ल देगा। यदि 28 से कम बिंदु मिले हैं तो परिणाम ठीक नहीं होंगे, यदि 28 से अधिक बिंदु मिलते हैं तो उस अवस्था में शनि कम कष्टकारी रहेगा। शनि के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए व्यापक दृष्टिकोण रखना होगा। यह भी विचार करें कि वह जन्म पत्रिका में किस ग्रह के ऊपर से भ्रमण कर रहा है, उसके अनुसार परिणाम होंगे। ज्योतिष का यह नियम भी याद रखें कि शनि जिस स्थान पर रहता है उसमें उस भाव से संबंधित शुभ फल देता है, परंतु जिस घर पर उसकी दृष्टि रहती है उससे संबंधित वस्तुओं को नुकसान पहुंचाता है।
  शनि की दृष्टि है अमंगलकारी :
शनि की दृष्टि अमंगलकारी रहने का कारण यह भी है कि शनि को उनकी धर्म पत्नी द्वारा श्राप दिया गया था। शनि अपने स्थान से सप्तम स्थान, तृतीय स्थान एवं दशम स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है। जिन युवकों एवं कन्याओं की जन्म पत्रिका में शनि की पूर्ण दृष्टि सप्तम यानी विवाह स्थान पर रहती है, ऐसे लड़के, लडकियों के विवाह बहुत कठिनाई से होते हैं। यदि किसी लड़के, लड़की के विवाह में विलंब होता है तो देखें कि शनि की दृष्टि तो विवाह स्थान पर है या नहीं, यदि है तो दृष्टि प्रभाव हेतु समुचित उपायों का उपयोग कर सकते हैं।
माननीया सुश्री मायावती का शनि पंचम में है और विवाह स्थान को तृतीय पूर्ण दृष्टि से देख रहा है। वह शायद इसी कारण अविवाहित हैं, जैसा कि ऊपर वर्णन कर चुके हैं। वृश्चिक राशि पर 15.11.2011 से साढ़े साती आयेगी। तुला का शनि उच्च का रहेगा तो तुला, मिथुन, धनु, मकर तथा कुंभ राशि वालों के लिए लाभकारी रहेगा। परंतु भारतीय जनता पार्टी की राशि पर साढ़ेसाती के कारण पार्टी में परेशानी पैदा करेगा। नेताओं में मतभेद उभरेंगे। प्रधानमंत्री पद के दावेदार को लेकर भी मतभेद बढऩे की संभावना रहेगी।
कैसे प्रसन्न होंगे शनिदेव :
श्री शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए निम्नलिखित मंत्रों में से किसी मंत्र का जप श्रद्धापूर्वक करें तो कष्टों का निवारण होगा।
तांत्रिक मंत्र : 1. ऊँ शं शनैश्चराय नम: 2. ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:
वैदिक मंत्र : ऊँ शन्नौ देवीरभिष्टयाऽआपो भवंतु पीतये। शंय्योरभि:श्रवंतु न:॥
श्री शंकर भगवान की उपासना व श्री बजरंगबली की उपासना से भी शनि के कष्ट दूर होते हैं। अत: आप श्री शंकर भगवान या श्री बजरंगबली की आराधना करें। शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए शनि की वस्तुओं का दान करना भी लाभकारी रहता है। ये वस्तुएं हैं- काले उड़द, काले तिल, तेल, लोहा, बर्तन में सरसों का तेल आदि- श्री बजरंगबली के मंदिर में भेंट करना, बहुत लाभकारी रहता है। शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जप भी बहुत लाभकारी सिद्ध होता है। वह मंत्र इस प्रकार है- ऊँ त्र्यंबकम् यजामहे सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
 हम सभी जानते हैं कि शनिदेव, सूर्य पुत्र और यम के सहोदर हैं। भगवान भोलेनाथ ने शनि को भ्रष्ट जीवों को दंड देने की जिम्मेदारी दी है। इस प्रकार शनिदेव दंडाधिकारी हैं। शनि जन्म पत्रिका में कर्म स्थान यानी दशम स्थान- भाग्य में स्वगृही या उच्च का होने पर उक्त व्यक्ति को राजनीति में शिखर पर पहुंचा देता है। पत्रिका में वृष, तुला और मकर लग्न वालों को यह योगकारी होता है और वह स्वगृही या उच्च का हो तो उच्चपद दिलाता है जैसे माननीय अटल बिहारी बाजपेई जी का तुला का शनि लग्न में उच्च का है।
1. श्री के. पी. एस. गिल प्रसिद्ध पुलिस अधिकारी का शनि भाग्य में स्वगृही है और बार-बार उच्चपद मिलता गया।
2. श्री मनमोहन सिंह जी का शनि धनस्थान में स्वगृही होने का लाभ यह हुआ कि उन्हें उच्चपद मिला।
3. श्री मुरली मनोहर जोशी जी का शनि स्वगृही है और विपरीत राजयोग बनाया है तथा शनि की महादशा 18 जुलाई 2013 से लाभकारी रहेगी पार्टी में पूछ परख बढ़ेगी और अचानक लाभ मिलेगा।
4. बी.जे.पी. के श्री विक्रम वर्मा जी, को भी शनि आय स्थान में 15 नवंबर 2011 से लाभकारी रहेगा।
5. श्री शिवराज सिंह चौहान मुखयमंत्री (म.प्र.) की मकर राशि होने से शनि भाग्य में लाभकारी रहेगा। उत्तर प्रदेश की मुखयमंत्री सुश्री मायावती की वृष लग्न है और भाग्य का स्वामी शनि पंचम (बुद्धि स्थान) में होने से पुन: मुखयमंत्री बनी। श्री नारायण दत्त तिवारी और नर्मदा आंदोलन की नेता सुश्री मेघा पाटकर की मकर लग्न में एवं शनि भाग्य में उच्च का है वह राजनीति में उच्चपद पर अवश्य जायेंगी। शनि की दशा में अभी उनका समय अनुकूल चल रहा है। शनि व्यक्ति को कर्मठ बनाता है। यदि किसी की जन्म पत्रिका में शनि बलहीन मेष राशि में बैठा हो तो व्यक्ति बार-बार उन्नति के शिखर तक पहुंचते-पहुंचते रह जाता है। वृष, तुला, मकर राशि-लग्न वाले व्यक्ति नीलम की अंगूठी पहनकर शनि को प्रसन्न कर सकते हैं।

विवाह मुहूर्तों में क्या हो सवधानिया

विवाह मुहूर्तों में क्या हो सवधानिया
कई बार शुभ मुहूर्तो को लेकर आमजनमानस में ऊहा-पोह की स्थिति निर्मीत होती है। ऐसे में आने वाली मुहूर्त संबंधित कठिनाईयों से निजात पाने हेतु ज्योतिष का सूर्य नें आपके समक्ष सरलता पूर्वक मुहूर्त के कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य रखने जा रहा है। विवाह आदि शुभ मुहूर्त निकालने में लग्न का विशेष महत्व है। विवाह संबंधी लग्न में किन ग्रह योगों के क्या संभावित परिणाम होंते हैं तथा विवाह में क्या-क्या वर्जित और मान्य है तथा उन दोषों के क्या विपरीत परिणाम हो सकते हैं उसके बारे में भलीभाँति जानकारी होना बेहद आवश्यक है।अभिजित और गोधूलि लग्न की विशेषता अपने आप में बेहद महत्त्वपूर्ण है। हिंदु धर्म-संस्कृति के अनुसार चार आश्रमों में गृहस्थाश्रम को ही श्रेष्ठ माना गया हैं, और सुखमय दांपत्य जीवन के वगैर संभव नहीं है और सुखमय दांपत्य जीवन के लिए विवाह कालिक लग्नादि शुभ हों। उपरोक्त सभी विषयों को ध्यान में रखते हुए सभी वर्गों के लिए अत्यंत उपयोगी जानकारी प्रस्तुत है।
 विवाह लग्न एवं पत्नि का स्वभाव :
1.यदि प्रश्न लग्न में पाप ग्रह हो या लग्न से सप्तम भाव में मंगल हो (ज्योतिषी को चाहिये कि प्रश्न के समय लग्न और ग्रह स्पष्ट करके देखें) तो जिसके लिए प्रश्न किया गया है, उस कन्या और वर को 8 वर्ष के भीतर ही घातक, अरिष्ट बतावें।
2.यदि लग्न में चंद्र और उससे सप्तम में मंगल हो तो भी घातक अरिष्ट समझें। यदि लग्न से पंचम भाव में पाप ग्रह  हो और वह नीच राशि में पाप ग्रह से देखा जाता हो तो वह कन्या कुलटा स्वभाव वाली अथवा मृतवत्सा होती है।
3.यदि प्रश्न लग्न से 3-5-7-11 और 10वें भाव में चंद्र हो तथा उस पर गुरु की दृष्टि हो तो उस कन्या को शीध्र ही पति की प्राप्ति होगी।
4.यदि प्रश्न लग्न में तुला, वृष या कर्क राशि हो तथा वह शुक्र और चंद्र से युक्त हो तो वरके लिए कन्या (पत्नी) लाभ होता है अथवा सम राशि लग्न हो, उसमें सम राशि का ही द्रेष्काण हो और सम राशि का नवमांश तथा उस पर चंद्र और शुक्र की दृष्टि हो तो वर को पत्नी की प्राप्ति होती है।
5.यदि प्रश्न लग्न में पुरुष राशि और पुरुष राशि का नवमांश हो तथा उस पर पुरुष ग्रह (रवि, मंगल और गुरु) की दृष्टि हो तो उन कन्याओं को पति की प्राप्ति होती है।
6.यदि प्रश्न के समय कृष्ण पक्ष हो और चंद्र सम राशि में होकर लग्न से छठे या आठवें भाव में पाप ग्रह से देखा जाता हो तो (निकट भविष्य में) विवाह संबंध नहीं हो पाता है।
कन्या-वर की वर्ष शुद्धि : कन्या के जन्म समय से सम वर्षों में और वर के जन्म समय से विषम वर्षों में होने वाला विवाह उन दोनों के प्रेम और प्रसन्नता को बढ़ाने वाला होता है, और इसके विपरीत घातक होता है ।
 विवाह विहित मास : माघ, फाल्गुन, वैशाख और ज्येष्ठ ये चार मास विवाह के लिए श्रेष्ठ तथा कार्तिक और मार्गशीर्ष (अगहन) ये दो मास मध्यम हैं अन्य मास निन्दित हैं। सूर्य आद्र्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक में हो, गुरु तथा शुक्र अस्त हों, बाल, बृद्ध हो, गुरु सिंह राशि या उसके नवमांश में हो- उस समय विवाहादि शुभ कार्य नहीं करने चाहिए।
विवाह में वज्र्य : भूकम्पादि उत्पात तथा सर्वग्रास सूर्य या चंद्र ग्रहण हो तो उसके बाद सात दिन तक का समय शुभ नहीं है। यदि खंड ग्रहण हो तो उसके बाद तीन दिन अशुभ होते हैं तथा किसी ग्रहण के पूर्व के तीन दिन भी शुभ नहीं माने जाते हैं। मास के अंतिम दिन, रिक्ता, अष्टमी, व्यतीपात और वैधृति योग, संपूर्ण तथा परिघ योग का पूर्वार्ध - ये विवाह में वर्जित हैं।
विहित नक्षत्र : रेवती, रोहिणी, तीनों उत्तरा, अनुराधा, स्वाति, मृगशिरा, हस्त, मघा और मूल- ये ग्यारह नक्षत्र वेधरहित हों तो इन्हीं में स्त्री का विवाह शुभ कहा गया है। विवाह में वर को सूर्य का और कन्या को बृहस्पति का बल अवश्य प्राप्त होना चाहिये। इनके अनिष्ट होने पर इनकी यत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिए। विवाह में शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट होने पर सब राशि प्रशस्त हैं। चंद्र, सूर्य, बुध, बृहस्पति तथा शुक्र आदि ग्रह जिस राशि के इष्ट हों, वह लग्न शुभप्रद होता है। यदि चार ग्रह भी बली हों तो भी उन्हें शुभ प्रद समझना चाहिए।
 विवाह के इक्कीस दोष : 1.पंचांग शुद्धि का न होना, 2. उस दिन सूर्य की संक्रांति होना 3. पाप ग्रह का षडवर्ग में रहना। 4. लग्न से छठे भाव में शुक्र की स्थिति। 5. अष्टम में मंगल 6. गण्डांत होना 7. कर्तरी योग, 8. बारहवें, छठे और आठवें चंद्र का होना तथा चंद्र के किसी अन्य ग्रह का होना, 9. वर-कन्या की जन्मराशि से अष्टम राशि लग्न हो या चंद्र राशि हो, 10. विष घटी, 11. दुर्मुहर्त, 12. वार दोष 13. खार्जूर 14. नक्षत्रैक चरण, 15. ग्रहण और उत्पात के नक्षत्र, 16. पाप ग्रह से विद्ध नक्षत्र 17. पाप से युक्त नक्षत्र 18. पाप ग्रह का नवमांश 19. महापात 20. उदयास्त की शुद्धि न होना तथा 21. वैधृति -विवाह में ये 21 दोष कहे गये हैं।
गण्डान्तदोष : पूर्णा (5-10-15) तिथियों के अंत और नंदा (1-6-11) तिथियों की आदि की संधि में दो घड़ी 'तिथिगण्डांत' दोष कहलाता है। कर्क लग्न के अंत और सिंह लग्न के आदि की संधि में, बृश्चिक और धनु की संधि में तथा मीन और मेष लग्न की संधि में आधा घड़ी 'लग्न गण्डांत' कहलाता है। यह भी घातक होता है। आश्लेषा के अंत का चतुर्थ चरण और मघा का प्रथम चरण तथा ज्येष्ठा की अंत की 16 घड़ी और मूल का प्रथम चरण एवं रेवती नक्षत्र के अंत की ग्यारह  घड़ी और अश्विनी का प्रथम चरण इस प्रकार इन दो-दो नक्षत्रों की संधि का काल 'नक्षत्रगण्डांत' कहलाता है। ये तीनों प्रकार के गण्डांत महाक्रूर होते हैं। कर्त्तरी-दोष : लग्न से बारहवें में मार्गी और द्वितीय में वक्री दोनों पाप ग्रह हों तो लग्न में आगे-पीछे दोनों ओर से जाने के कारण यह 'कर्तरी दोष' कहलाता है। इसमें विवाह होने से यह 'कर्तरी दोष' वर-वधू दोनों का अनिष्ट करता है।
लग्न-दोष : यदि लग्न से छठे, आठवें तथा बारहवें में चंद्र हो तो यह 'लग्न-दोष' कहलाता है। ऐसा लग्न शुभ ग्रहों तथा अन्य संपूर्ण गुणों से युक्त होने पर भी दोष युक्त होता है। वह लग्न, बृहस्पति, और शुक्र से युक्त हो तथा चंद्र उच्च, नीच, मित्र या शत्रु राशि में (कहीं भी) हो तो यह दोष वर-वधू के लिए घातक है।
 सग्रह दोष :चंद्र यदि किसी ग्रह से युक्त हो तो 'सग्रह' नामक दोष होता है, यह दोष भी त्याज्य है। चंद्र के साथ सूर्य हो तो दरिद्रता, मंगल से युक्त हो तो घात अथवा रोग, बुध से युक्त हो तो पति-पत्नी में शत्रुता, शनि से युक्त हो तो प्रवज्या (गृह त्याग), राहू से युक्त हो तो सर्वस्वहानि और केतु से युक्त हो तो कष्ट और दरिद्रता होती है।
पाप ग्रहों की निंदा और शुभग्रहों की प्रशंसा : सग्रह दोष में चंद्र यदि पाप ग्रहों से युक्त हो तो वर-वधू दोनों के लिए घातक होता है। यदि वह शुभ ग्रहों से युक्त हो तो उस स्थिति में यदि उच्च या मित्र की राशि में चंद्र हो तो लग्न दोष युक्त रहने पर भी वर-वधू के लिए कल्याणकारी होता है। परंतु चंद्र स्वोच्च में या स्वराशि में या मित्र की राशि में रहने पर भी यदि पाप ग्रह से युक्त हो तो वर-वधू दोनों के लिए घातक होता है।
अष्टम राशि लग्न दोष : वर या वधु के जन्म लग्न से अथवा उनकी जन्मराशि से अष्टम राशि विवाह- लग्न में पड़े तो यह दोष भी दोनों के लिए घातक होता है। वह राशि या वह लग्न शुभ ग्रह से युक्त हो तो भी उस लग्न को, उस नवमांश से युक्त लग्न को अथवा उसके स्वामी को यत्नपूर्वक त्याग देना चाहिये।
द्वादश राशि दोष : वर- वधू के जन्म लग्न या जन्म राशि से द्वादश राशि यदि विवाह लग्न में पड़े तो दोनों के धन की हानि होती है। अत: उस लग्न, उसके नवमांश की ओर उसके स्वामी को भी त्याग देना चाहिये।
जन्म लग्न और जन्म राशि की प्रशंसा : जन्म राशि और जन्म लग्न का उदय विवाह में शुभ होता है तथा दोनों के उपचय (3-6-10-11) स्थान यदि विवाह लग्न में हो तो अत्यंत शुभप्रद होते हैं।
 विहित नवमांश : वृष, तुला, मिथुन, कन्या और धनु का उत्तराद्र्ध तथा इन राशियों में नवमांश विवाह लग्न में शुभप्रद हैं। किसी भी लग्न में अंतिम नवमांश यदि वर्गोत्तम हो तभी उसे शुभप्रद समझना चाहिये। अन्यथा विवाह लग्न का अंतिम नवमांश (26 अंश 40 कला के बाद) अशुभ होता है। यहां अन्य नवमांश नहीं ग्रहण करने चाहिये, क्योंकि ये कुनवांश कहलाते हैं। लग्न में कुनवांश हो तो अन्य सब गुणों से युक्त होने पर भी वह त्याज्य हैं। जिस दिन महापात (सूर्य-चंद्र का क्रांति समय) हो, वह दिन भी त्याग देना चाहिये।
लता दोष: सूर्य आदि (पूर्ण चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु) ग्रह क्रमश: अपने आश्रित नक्षत्र से आगे और पीछे 12-22-3-7-6-5-8 तथा 9 वें से दैनिक नक्षत्र को लातों से दूषित करते हैं, इसलिए इसका नाम 'लत्ता दोष' है। (इनमें सूर्य अपने से आगे और पूर्ण चंद्र पीछे, फिर मंगल आगे और बुध पीछे के नक्षत्रों को दूषित करते हैं। ऐसा ही क्रम आगे भी समझना चाहिये।
पात दोष : सूर्य जिस नक्षत्र में हो उससे आश्लेषा, मघा, रेवती, चित्रा, अनुराधा और श्रवण तक की जितनी संखया हो, उतनी ही संखया यदि अश्विनी से दिन नक्षत्र तक गिनने से हो तो वह नक्षत्र पात दोष से दूषित समझा जाता है।
अभिजित एवं गोधूलि लग्न : सूर्योदय काल में जो लग्न रहता है, उससे चतुर्थ लग्न का नाम अभिजित है और सातवां गोधूलि लग्न कहलाता है। ये दोनों लग्न विवाह में पुत्र-पौत्र की वृद्धि करने वाले होते हैं। पूर्व तथा कलिंग (जगन्नाथ पुरी से कृष्णा नदी तक का भूभाग) देशवासियों के लिए गोधूलि लग्न प्रधान है और अभिजित लग्न तो पूरे भारत के लिए मुखय कहा गया है, क्योंकि वह सब दोषों का नाश करने वाला है।
अन्य प्रमुख दोष : पुत्र का विवाह करने के बाद 6 मास में पुत्री का विवाह नहीं करना चाहिए। एक पुत्र या पुत्री का विवाह करने के बाद दूसरे पुत्र का उपनयन (जनेऊ) भी नहीं करना चाहिए। सहोदर कन्याओं का विवाह यदि 6 मास के भीतर हो तो निश्चित ही तीन वर्ष के भीतर उनमें से एक विधवा हो जाती है। अपने पुत्र के साथ जिसकी पुत्री का विवाह हो, फिर उसके पुत्र के साथ अपनी पुत्री का विवाह करना 'प्रत्युद्व दोष' कहलाता है। किसी एक ही वर को अपनी दो कन्याएं नहीं देनी चाहिए। दो सहोदर वरों को दो सहोदरा कन्याएं नहीं देनी चाहिए। दो सहोदरों का एक ही दिन (एक साथ) विवाह या मुंडन नहीं करना चाहिए।