ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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रविवार, 30 अक्तूबर 2011

छठ पर्व में छुपा है वैज्ञानिक रहस्य (सूर्योपासना का पर्व )


ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे-०९८२७१९८८२८
मित्रों हमारे देश में जो भी परंपराए हैं उन पावन पर्व-परंपाराओं के पिछे कुछ ना कुछ रहस्य छुपा रहता है । आईए इसी क्रम में छठ के पावन पर्व को समझने का प्रयास करते हैं।। जब तुला राशि पर सूर्य होते हैं तो सूर्य को  नीच का कहा जाता है जिसके कारण सूर्य का प्रकाश न्यून स्तरिय हो जाता है और संक्रामक बिमारीयों का खतरा बढ़ जाता है इन संक्रमण से बचने के लिए शुद्धता बेहद जरूरी होता है अतः इस छठ पर्व के बहाने चार दिन तक अत्यंत शुद्धता पूर्वक इस व्रत को पूरे देश में मनाया जाता है। इस व्रत के पिछे  वैज्ञानिक रीजन यही है। हालाकि पहले इस व्रत को केवल उत्तर भारत में हि किया जाता था । लेकिन आज इस व्रत की व्यापकता ने लगभग विश्वपटल पर अपना पैर पसार चुका है। इस व्रत से जहां प्रकृत को संचालित करने वाले सूर्य की उपासना हो जाता है वहीं दूसरी ओर संक्रामक बिमारियों से आसानी से निजात भी मिल जाता है।
सूर्य-पूजन का महापर्व है छठ पूजा। सनातन धर्म के पांच प्रमुख देवताओं में सूर्यनारायण प्रत्यक्ष देव हैं। वाल्मीकि रामायण में आदित्य हृदय स्तोत्र के द्वारा सूर्यदेव का जो स्तवन किया गया है, उससे उनके सर्वदेवमय-सर्वशक्तिमयस्वरूप का बोध होता है। छठ पर्व सूर्योपासना का अमोघ अनुष्ठान है। इससे समस्त रोग-शोक, संकट और शत्रु नष्ट होते हैं और संतान का कल्याण होता है।

काíतक मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी से इस व्रत के अनुष्ठान का शुभारंभ होता है। इस दिन व्रती स्नान करके सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसे बिहार की स्थानीय भाषा में नहाय-खाय कहा जाता है। पंचमी तिथि को पूरे दिन उपवास रखकर संध्या को एक समय प्रसाद ग्रहण किया जाता है, जो खरना या लोहण्डा के नाम से जाना जाता है। काíतक शुक्ल षष्ठी के दिन संध्याकाल में नदी,नहर या तालाब के किनारे व्रती स्त्री-पुरुष सूर्यास्त के समय अनेक प्रकार के पकवानों को बांस के सूप में सजाकर सूर्यनारायण को श्रद्धापूर्वकअ‌र्घ्यअíपत करते हैं। सप्तमी तिथि को प्रात:काल उगते हुए सूर्य को अ‌र्घ्यदेने के उपरान्त ही व्रत पूर्ण होता है।

मिथिलांचलमें इस व्रत को प्रतिहार षष्ठी व्रत के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। मैथिलवर्षकृत्यविधिमें इसकी स्कन्दपुराणमें वíणत व्रत-कथा, पूजा-विधि का उल्लेख मिलता है। इससे इस व्रत की प्राचीनताएवं महत्ता परिलक्षित होती है। प्रतिहार से तात्पर्य है-नकारात्मक (विघ्न -बाधाकारी) शक्तियों का उन्मूलन। प्रतिहार षष्ठी (सूर्य षष्ठी) व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देता है।

व्रती सूर्यनारायण का ध्यान इस प्रकार करें-

आदित्यंसर्वकतारंकलाद्वादशसंयुतम्।

पद्महस्तद्वयंवन्दे सर्वलौकेकभास्करम्॥

सूर्य भगवान को अ‌र्घ्यदेते समय यह मंत्र बोलें-

ॐएहिसूर्य सहस्त्रांशोतेजोराशेजगत्पते।अनुकम्पयमाम्भक्त्यागृहाणा‌र्घ्यम्दिवाकर॥
सूर्यषष्ठी वाराणसी में डाला छठ के नाम से जानी जाती है। इस व्रत के अनुष्ठान तथा भक्ति-भाव से किए गए सूर्य-पूजन के प्रताप से अनेक नि:संतान लोगों को पुत्र-सुख प्राप्त हुआ है। सूर्यदेव की आराधना से नेत्र, त्वचा और हृदय के सब रोग ठीक हो जाते हैं। इस व्रत की महिमा अब बिहार-झारखण्ड की सीमाओं को लांघकर सम्पूर्ण भारतवर्ष में व्याप्त हो गई है।

1 टिप्पणी:

भास्कर मिश्रा "पारस" ने कहा…

सूर्य उपासना का वैज्ञानिक महत्व को जानकार मेरे ज्ञान में वृद्धि हुई..लेख ज्ञानवर्धक और लाभप्रद है..पंडित जी सूर्य सभी देवताओं के केन्द्र में है...इनकी उपासना से न केवल हमें मानसिक शांति मिलती है...बल्कि हम उर्जा से भरपूर भी होते हैं...दैनिक स्नान के बाद सूर्य को जल अर्पित करना इसी कड़ी के अन्तर्गत आता है...शानदार लेखन के लिए आपको बधाई