बनारस, का हाल बा गुरु!
मित्रों आज मैं आप लोगों को काशी का भ्रमण कराता हुं क्योंकि आज के दस वर्ष पहले मैं इन्हीं बनारस की गलियों में 12 वर्ष का समय बाबा के दरबार में बिताया हुं जब मैं मात्र १४ साल का था उस समय बनारस आ गया था तो उस समय छोटी उम्र में घर छोड़कर यहा रहना इतना आसान नहीं था क्योंकि कभी कभी घर की याद आती थी तो हमारे गुरूजी श्री श्रीनाथ त्रिपाठी जी यही कहते थे ...चना चबेना गंगजल जो पुरवै करतार काशी कबहुं छोड़िये बाबा विश्वनाथ दरबार..
बाबा के मंदिर से आगे कचौड़ी गली है। मिठाई और कचौड़ियों के लिये बहुत प्रसिद्ध स्थान है। हालाँकि बनारस के हर मुहल्ले में मिठाई की दुकानों पर कचौड़ियाँ मिलेंगी पर सुबह सुबह ही और उनका स्वाद- लाजवाब। देश भर में ऐसी कचौड़ियाँ और कहीं नहीं मिलतीं। कचौड़ियों के साथ जो असली स्वाद होता है वह है सब्जी का। साधारण से साधारण आलू की सब्जी में भी वो गमक की मुँह में पानी आ जाए।
पर अब कचौड़ी गली में अधिक बिक्री स्थानीय लोगों के कारण नहीं होती। वह होती है पास में ही मणिकर्णिका घाट पर स्थित श्मशान के कारण। दूरदराज़ के गाँवों, कस्बों से लोग काशी में मुक्ति दिलाने के लिये शवों को लेकर आते हैं और शवदाह के बाद लौटते समय कचौड़ी गली में भरपेट कचौड़ी और मिठाई का रसपान करते हैं।
इसी कचौड़ी गली से आगे पड़ती है खोआ गली जिसका एक मुँह चित्रा सिनेमा के सामने आकर खुलता है। खोआ गली में सिर्फ़ खोआ यानी मावा मिलता है। पीतल के बड़े बड़े थालों में सजा हुआ मावा। तरह तरह का मावा या खोआ। खोए की ऐसी मंडी कहीं और ढूँढे न मिलेगी। तीस चालीस दुकानें और सिर्फ़ खोए की दुकानें।
खोआ गली में आधा किलो से लेकर सैकड़ों किलो तक खोआ आप खरीद सकते हैं। बनारस वैसे भी खोए की मिठाइयों के लिये प्रसिद्ध है। पर कुछ ख़ास मिठाइयाँ तो केवल बनारस में ही मिलेंगी। राधाप्रिय, तिरंगी बर्फी, लालपेड़ा, राजभोग, लवंगलता, परवल की मिठाई, संतरे की मिठाई और न जाने कितने नाम। पर कुछ मिठाइयाँ तो ऐसी हैं जिनका पेटेंट बनारसियों को करा ही लेना चाहिये। इनमें बारह महीने मिलने वाली मलाई और मलाई पूड़ी भी हो और जाड़े के दिनों में मिलने वाला मलइयो भी। मलइयो ऐसी अद्भुत चीज़ है जिसे मिठाई की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यह मीठे की श्रेणी में आता है। इसे बनाने की कला भी अद्भुत है। रात में दूध को खुले में रख देते हैं केसर डालकर और आधी रात से उसे मथना शुरू करते हैं। उससे उठा हुआ गाढ़ा फेन ही मलइयो है जो सुबह आठ नौ बजे तक गलता नहीं है। किसने ईजाद किया होगा इसे, यह खोज का विषय है। एक और मिठाई है पलंग तोड़ जो विशेष रुप से नंदन साहू लेन में भैरो साव के यहाँ मिलती है।
खोआ गली का एक सिरा जाकर मिल जाता है ज्ञानवापी से। वही ज्ञानवापी जहाँ अब पुलिस का भयानक पहरा है, जहाँ संगीनों के साए में बाबा विश्वनाथ रोज़ हजारों भक्तों को दर्शन देते हैं, जिनके त्रिशूल पर निर्भय काशी टिकी है और जिसके आसपास के मकानों की खिड़कियाँ भी अब कड़ी सुरक्षा घेरे के नीचे हैं। वही ज्ञानवापी जहाँ स्थित कारमाइकल लायब्रेरी को अब लोग लगभग भूलते जा रहे हैं और विश्वनाथ गली के दुकानदार इसलिये दुखी हैं कि मंदिर, मस्ज़िद के झगड़ों ने ज्ञानवापी को अभेद्य किला बना दिया है और उनकी दुकानदारी आधी रह गई है। काशी को निर्भय करने वाले भोलेनाथ, विश्वनाथ महादेव की नगरी ख़ुद को असुरक्षित महसूस कर रही है। ऐसे में गाहे बगाहे जब यहाँ के निवासी ‘‘अभी तो केवल झाँकी है, मथुरा काशी बाक़ी है‘‘ जैसे प्रायोजित नारे सुनते हैं तो सिहर उठते हैं।
इसी ज्ञानवापी में पीछे की ओर है मुहल्ला नीलकंठ जहाँ पास में ही रहा करते थे शिवप्रसाद मिश्र रुद्र काशिकेय जिनका कथा खंडों में बँटा संग्रह ‘बहती गंगा’ बनारस की अद्भुत बानगी प्रस्तुत करता है। जिसके जीवंत पात्र इतिहास पुरुष थे, जिसकी एक एक कहानी ऐसी है कि हर कहानी पर एक फ़िल्म बनाई जा सकती है। भंगड़ भिक्षुक, दाताराम नागर, नन्हकू सिंह जैसे पात्र भूली हुई किवदंती बन चुके हैं। मज़ा देखिये कि बनारस की नई पीढ़ी से अगर आप पूछेंगे कि ये लोग कौन तो उन्हें कुछ नहीं पता। ‘बहती गंगा’ जो बनारस की पहचान बन सकती है कुछ साहित्य प्रेमियों के अलावा बाकियों के लिए अपरिचित है। शायद हिंदी में है इसलिये। शायद इसका अँगरेज़ी में अनुवाद होता या अँगरेज़ी में लिखी गई होती तो लोग ज़्यादा जानते इसे। डॉमिनिक लॉ पियेर ने जब कलकत्ते पर अँगरेज़ी में लिखा तो लोगों ने उसे ख़ूब पढ़ा पर रुद्र जी की ‘बहती गंगा’ की शायद कुछ हज़ार प्रतियाँ ही बिक पाईं होंगी। खैर, किस किस से गिला कीजिये।
कचौड़ी गली से अंदर घुसकर पहुँच जाते हैं मनकनका घाट यानी मर्णिकर्णिक घाट। कहते हैं कि भगवान शिव, पार्वती के साथ भ्रमण पर निकले थे और काशी में पार्वती के कान की मणि जिस स्थान पर गिरी वह हो गया मणिकर्णिका। आज उसी मणिकर्णिक पर मुक्ति के लिये निरंतर लोग शवदाह करते हैं। यह सच है कि वहाँ चिताओं की आग ठंडी नहीं होती। दिनरात जलती चिताएँ मनुष्य को नश्वरता की याद भले दिलाएँ पर मणिकर्णिका पर बिना कुछ भोग चढ़ाए चिता को अग्नि नहीं मिल पाती। बाक़ी सबकी अपनी अपनी सामर्थ्य। इस मुक्तिधाम में भी सांसारिक माया मोह से किसी को मुक्ति नहीं ।
अब घाटों की बात निकली है तो जान लीजिये कि अर्धचंद्रकार बहती गंगा के किनारे अस्सी से ज़्यादा घाट हैं और हर घाट के बारे में जनश्रुतियाँ। ये सभी घाट स्थापत्य के बेजोड़ नमूने हैं। इनके किनारे बने भवन बार बार इटली के वेनिस और टर्की के इस्तांबुल की याद दिलाते हैं। फ़र्क बस ये कि इन दोनों जगहों पर दोनों ओर सुंदर इमारतें हैं और बनारस में केवल एक ओर। यहाँ गंगा दक्षिण से उत्तरवाहिनी हो गई है और बनारस पार करते ही फिर दक्षिण की ओर मुड़ गई है। इनमें से सबसे अधिक चर्चित या देखा जाने वाला घाट है दशाश्वमेघ घाट। इस घाट की ख़ासियत यह है कि यहाँ एकदम घाट तक सड़क आई है। इसलिये पर्यटक सबसे अधिक यहीं आते हैं। कहते हैं कि इसी घाट पर दस अश्वमेघ यज्ञ हुए इसलिये इसका नाम पड़ गया दशाश्वमेघ घाट।
आजकल हर शाम दशाश्वमेघ और उसके बगल में गंगा आरती का आयोजन होता है। लोगों की आस्था को बाज़ार ने किस तरह भुनाया और आकर्षित किया है इसका अद्वितीय उदाहरण है गंगा आरती। नीचे बदबू मारता गंगा का पानी और ऊपर श्रद्धालु जन, गंगा आरती की स्तुतियों और स्तोत्रों की गूँज से विनयावनत। सच ही है, श्रद्धा कभी स्थान या समय नहीं देखती।
इन घाटों पर पर्यटकों के पहुँचते ही नाववालों से लेकर पंडे तक उन्हें घेरने की कोशिश करते हैं। अब सौदा जितने में पट जाय। यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। भारतेंदु ने अपनी प्रेमजोगिनी में काशी का अद्भुत चित्रण किया है। वे लिखते हैं -
देखी तुम्हरी कासी लोगों देखी तुम्हरी कासी
जहाँ विराजें विश्वनाथ विश्वेश्वर जी अविनासी
घाट जाएँ तो गंगा पुत्तर नोचे दे गलफाँसी
आधी कासी भाँड़ भंडेरिया लुच्चे और सन्यासी।
भारतेंदु ही थे जो यह कहने का साहस कर सकते थे वरना बनारस के पंडों से तो भगवान बचाए। ऐसे भारतेंदु हरिश्चंद्र का मकान भारतेंदु भवन आज भी चौक से ठठेरी बाज़ार की ओर होते हुए आगे जाएँ तो मिल जाएगा। जस का तस। कई आँगनों का घर, जो अब पारिवारिक विभाजन में बँट गया है। भारतेंदु के प्रपौत्ऱ अभी भी उसी निवास में रह रहे हैं। उनके घर के पिछवाड़े ही है अग्रसेन महाजनी पाठशाला जिसकी भूमिका महाजनी शिक्षा के विकास में बहुत महत्वपूर्ण रही है।
मित्रों आज मैं आप लोगों को काशी का भ्रमण कराता हुं क्योंकि आज के दस वर्ष पहले मैं इन्हीं बनारस की गलियों में 12 वर्ष का समय बाबा के दरबार में बिताया हुं जब मैं मात्र १४ साल का था उस समय बनारस आ गया था तो उस समय छोटी उम्र में घर छोड़कर यहा रहना इतना आसान नहीं था क्योंकि कभी कभी घर की याद आती थी तो हमारे गुरूजी श्री श्रीनाथ त्रिपाठी जी यही कहते थे ...चना चबेना गंगजल जो पुरवै करतार काशी कबहुं छोड़िये बाबा विश्वनाथ दरबार..
बाबा के मंदिर से आगे कचौड़ी गली है। मिठाई और कचौड़ियों के लिये बहुत प्रसिद्ध स्थान है। हालाँकि बनारस के हर मुहल्ले में मिठाई की दुकानों पर कचौड़ियाँ मिलेंगी पर सुबह सुबह ही और उनका स्वाद- लाजवाब। देश भर में ऐसी कचौड़ियाँ और कहीं नहीं मिलतीं। कचौड़ियों के साथ जो असली स्वाद होता है वह है सब्जी का। साधारण से साधारण आलू की सब्जी में भी वो गमक की मुँह में पानी आ जाए।
पर अब कचौड़ी गली में अधिक बिक्री स्थानीय लोगों के कारण नहीं होती। वह होती है पास में ही मणिकर्णिका घाट पर स्थित श्मशान के कारण। दूरदराज़ के गाँवों, कस्बों से लोग काशी में मुक्ति दिलाने के लिये शवों को लेकर आते हैं और शवदाह के बाद लौटते समय कचौड़ी गली में भरपेट कचौड़ी और मिठाई का रसपान करते हैं।
इसी कचौड़ी गली से आगे पड़ती है खोआ गली जिसका एक मुँह चित्रा सिनेमा के सामने आकर खुलता है। खोआ गली में सिर्फ़ खोआ यानी मावा मिलता है। पीतल के बड़े बड़े थालों में सजा हुआ मावा। तरह तरह का मावा या खोआ। खोए की ऐसी मंडी कहीं और ढूँढे न मिलेगी। तीस चालीस दुकानें और सिर्फ़ खोए की दुकानें।
खोआ गली में आधा किलो से लेकर सैकड़ों किलो तक खोआ आप खरीद सकते हैं। बनारस वैसे भी खोए की मिठाइयों के लिये प्रसिद्ध है। पर कुछ ख़ास मिठाइयाँ तो केवल बनारस में ही मिलेंगी। राधाप्रिय, तिरंगी बर्फी, लालपेड़ा, राजभोग, लवंगलता, परवल की मिठाई, संतरे की मिठाई और न जाने कितने नाम। पर कुछ मिठाइयाँ तो ऐसी हैं जिनका पेटेंट बनारसियों को करा ही लेना चाहिये। इनमें बारह महीने मिलने वाली मलाई और मलाई पूड़ी भी हो और जाड़े के दिनों में मिलने वाला मलइयो भी। मलइयो ऐसी अद्भुत चीज़ है जिसे मिठाई की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यह मीठे की श्रेणी में आता है। इसे बनाने की कला भी अद्भुत है। रात में दूध को खुले में रख देते हैं केसर डालकर और आधी रात से उसे मथना शुरू करते हैं। उससे उठा हुआ गाढ़ा फेन ही मलइयो है जो सुबह आठ नौ बजे तक गलता नहीं है। किसने ईजाद किया होगा इसे, यह खोज का विषय है। एक और मिठाई है पलंग तोड़ जो विशेष रुप से नंदन साहू लेन में भैरो साव के यहाँ मिलती है।
खोआ गली का एक सिरा जाकर मिल जाता है ज्ञानवापी से। वही ज्ञानवापी जहाँ अब पुलिस का भयानक पहरा है, जहाँ संगीनों के साए में बाबा विश्वनाथ रोज़ हजारों भक्तों को दर्शन देते हैं, जिनके त्रिशूल पर निर्भय काशी टिकी है और जिसके आसपास के मकानों की खिड़कियाँ भी अब कड़ी सुरक्षा घेरे के नीचे हैं। वही ज्ञानवापी जहाँ स्थित कारमाइकल लायब्रेरी को अब लोग लगभग भूलते जा रहे हैं और विश्वनाथ गली के दुकानदार इसलिये दुखी हैं कि मंदिर, मस्ज़िद के झगड़ों ने ज्ञानवापी को अभेद्य किला बना दिया है और उनकी दुकानदारी आधी रह गई है। काशी को निर्भय करने वाले भोलेनाथ, विश्वनाथ महादेव की नगरी ख़ुद को असुरक्षित महसूस कर रही है। ऐसे में गाहे बगाहे जब यहाँ के निवासी ‘‘अभी तो केवल झाँकी है, मथुरा काशी बाक़ी है‘‘ जैसे प्रायोजित नारे सुनते हैं तो सिहर उठते हैं।
इसी ज्ञानवापी में पीछे की ओर है मुहल्ला नीलकंठ जहाँ पास में ही रहा करते थे शिवप्रसाद मिश्र रुद्र काशिकेय जिनका कथा खंडों में बँटा संग्रह ‘बहती गंगा’ बनारस की अद्भुत बानगी प्रस्तुत करता है। जिसके जीवंत पात्र इतिहास पुरुष थे, जिसकी एक एक कहानी ऐसी है कि हर कहानी पर एक फ़िल्म बनाई जा सकती है। भंगड़ भिक्षुक, दाताराम नागर, नन्हकू सिंह जैसे पात्र भूली हुई किवदंती बन चुके हैं। मज़ा देखिये कि बनारस की नई पीढ़ी से अगर आप पूछेंगे कि ये लोग कौन तो उन्हें कुछ नहीं पता। ‘बहती गंगा’ जो बनारस की पहचान बन सकती है कुछ साहित्य प्रेमियों के अलावा बाकियों के लिए अपरिचित है। शायद हिंदी में है इसलिये। शायद इसका अँगरेज़ी में अनुवाद होता या अँगरेज़ी में लिखी गई होती तो लोग ज़्यादा जानते इसे। डॉमिनिक लॉ पियेर ने जब कलकत्ते पर अँगरेज़ी में लिखा तो लोगों ने उसे ख़ूब पढ़ा पर रुद्र जी की ‘बहती गंगा’ की शायद कुछ हज़ार प्रतियाँ ही बिक पाईं होंगी। खैर, किस किस से गिला कीजिये।
कचौड़ी गली से अंदर घुसकर पहुँच जाते हैं मनकनका घाट यानी मर्णिकर्णिक घाट। कहते हैं कि भगवान शिव, पार्वती के साथ भ्रमण पर निकले थे और काशी में पार्वती के कान की मणि जिस स्थान पर गिरी वह हो गया मणिकर्णिका। आज उसी मणिकर्णिक पर मुक्ति के लिये निरंतर लोग शवदाह करते हैं। यह सच है कि वहाँ चिताओं की आग ठंडी नहीं होती। दिनरात जलती चिताएँ मनुष्य को नश्वरता की याद भले दिलाएँ पर मणिकर्णिका पर बिना कुछ भोग चढ़ाए चिता को अग्नि नहीं मिल पाती। बाक़ी सबकी अपनी अपनी सामर्थ्य। इस मुक्तिधाम में भी सांसारिक माया मोह से किसी को मुक्ति नहीं ।
अब घाटों की बात निकली है तो जान लीजिये कि अर्धचंद्रकार बहती गंगा के किनारे अस्सी से ज़्यादा घाट हैं और हर घाट के बारे में जनश्रुतियाँ। ये सभी घाट स्थापत्य के बेजोड़ नमूने हैं। इनके किनारे बने भवन बार बार इटली के वेनिस और टर्की के इस्तांबुल की याद दिलाते हैं। फ़र्क बस ये कि इन दोनों जगहों पर दोनों ओर सुंदर इमारतें हैं और बनारस में केवल एक ओर। यहाँ गंगा दक्षिण से उत्तरवाहिनी हो गई है और बनारस पार करते ही फिर दक्षिण की ओर मुड़ गई है। इनमें से सबसे अधिक चर्चित या देखा जाने वाला घाट है दशाश्वमेघ घाट। इस घाट की ख़ासियत यह है कि यहाँ एकदम घाट तक सड़क आई है। इसलिये पर्यटक सबसे अधिक यहीं आते हैं। कहते हैं कि इसी घाट पर दस अश्वमेघ यज्ञ हुए इसलिये इसका नाम पड़ गया दशाश्वमेघ घाट।
आजकल हर शाम दशाश्वमेघ और उसके बगल में गंगा आरती का आयोजन होता है। लोगों की आस्था को बाज़ार ने किस तरह भुनाया और आकर्षित किया है इसका अद्वितीय उदाहरण है गंगा आरती। नीचे बदबू मारता गंगा का पानी और ऊपर श्रद्धालु जन, गंगा आरती की स्तुतियों और स्तोत्रों की गूँज से विनयावनत। सच ही है, श्रद्धा कभी स्थान या समय नहीं देखती।
इन घाटों पर पर्यटकों के पहुँचते ही नाववालों से लेकर पंडे तक उन्हें घेरने की कोशिश करते हैं। अब सौदा जितने में पट जाय। यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। भारतेंदु ने अपनी प्रेमजोगिनी में काशी का अद्भुत चित्रण किया है। वे लिखते हैं -
देखी तुम्हरी कासी लोगों देखी तुम्हरी कासी
जहाँ विराजें विश्वनाथ विश्वेश्वर जी अविनासी
घाट जाएँ तो गंगा पुत्तर नोचे दे गलफाँसी
आधी कासी भाँड़ भंडेरिया लुच्चे और सन्यासी।
भारतेंदु ही थे जो यह कहने का साहस कर सकते थे वरना बनारस के पंडों से तो भगवान बचाए। ऐसे भारतेंदु हरिश्चंद्र का मकान भारतेंदु भवन आज भी चौक से ठठेरी बाज़ार की ओर होते हुए आगे जाएँ तो मिल जाएगा। जस का तस। कई आँगनों का घर, जो अब पारिवारिक विभाजन में बँट गया है। भारतेंदु के प्रपौत्ऱ अभी भी उसी निवास में रह रहे हैं। उनके घर के पिछवाड़े ही है अग्रसेन महाजनी पाठशाला जिसकी भूमिका महाजनी शिक्षा के विकास में बहुत महत्वपूर्ण रही है।
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