ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शनिवार, 16 अप्रैल 2011

अंजनी पुत्र पवन सूत नामा

                       अंजनी पुत्र पवन सूत नामा

जन्म

हनुमान जी का जन्म त्रेता युग मे अंजना(एक नारी वानर) के पुत्र के रूप मे हुआ था। अंजना असल मे पुन्जिकस्थला नाम की एक अप्सरा थीं, मगर एक शाप के कारण उन्हें नारी वानर के रूप मे धरती पे जन्म लेना पडा। उस शाप का प्रभाव शिव के अन्श को जन्म देने के बाद ही समाप्त होना था। अंजना केसरी की पत्नी थीं। केसरी एक शक्तिशाली वानर थे जिन्होने एक बार एक भयंकर हाथी को मारा था। उस हाथी ने कई बार असहाय साधु-संतों को विभिन्न प्रकार से कष्ट पँहुचाया था। तभी से उनका नाम केसरी पड गया, "केसरी" का अर्थ होता है सिंह। उन्हे "कुंजर सुदान"(हाथी को मारने वाला) के नाम से भी जाना जाता है।
 
केसरी के संग मे अंजना ने भगवान शिव कि बहुत कठोर तपस्या की जिसके फ़लस्वरूप अंजना ने हनुमान(शिव के अन्श) को जन्म दिया।

जिस समय अंजना शिव की आराधना कर रहीं थीं उसी समय अयोध्या-नरेश दशरथ, पुत्र प्राप्ति के लिये पुत्र कामना यज्ञ करवा रहे थे। फ़लस्वरूप उन्हे एक दिव्य फल प्राप्त हुआ जिसे उनकी रानियों ने बराबर हिस्सों मे बाँटकर ग्रहण किया। इसी के फ़लस्वरूप उन्हे राम, लषन, भरत और शत्रुघन पुत्र रूप मे प्राप्त हुए।

विधि का विधान ही कहेंगे कि उस दिव्य फ़ल का छोटा सा टुकडा एक चील काट के ले गई और उसी वन के ऊपर से उडते हुए(जहाँ अंजना और केसरी तपस्या कर रहे थे) चील के मुँह से वो टुकडा नीचे गिर गया। उस टुकडे को पवन देव ने अपने प्रभाव से याचक बनी हुई अंजना के हाथों मे गिरा दिया। ईश्वर का वरदान समझकर अंजना ने उसे ग्रहण कर लिया जिसके फ़लस्वरूप उन्होंने पुत्र के रूप मे हनुमान को जन्म दिया।

अंजना के पुत्र होने के कारण ही हनुमान जी को अंजनेय नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ होता है 'अंजना द्वारा उत्पन्न'।
बाली समय जब भक्षी लिओ तब तीनहू लोक भयो अंधियारों ....
   हनुमान जी के धर्म पिता वायु थे, इसी कारण उन्हे पवन पुत्र के नाम से भी जाना जाता है। बचपन से ही दिव्य होने के साथ साथ उनके अन्दर असीमित शक्तियों का भण्डार था।

बालपन में एक बार सूर्य को पका हुआ फ़ल समझकर उसे वो उसे खाने के लिये उड़ कर जाने लगे, उसी समय इन्द्र ने उन्हे रोकने के प्रयास में वज्र से प्रहार कर दिया, वज्र के प्रहार के कारण बालक हनुमान कि ठुड्डी टूट गई और वे मूर्छित होके धरती पर गिर गये। इस घटना से कुपित होकर पवन देव ने संसार भर मे वायु के प्रभाव को रोक दिया जिसके कारण सभी प्राणियों मे हाहाकार मच गया। वायु देव को शान्त करने के लिये अंततः इन्द्र ने अपने द्वारा किये गये वज्र के प्रभाव को वापस ले लिया। साथ ही साथ अन्य देवताओं ने बालक हनुमान को कई वरदान भी दिये। यद्यपि वज्र के प्रभाव ने हनुमान की ठुड्डी पे कभी ना मिटने वाला चिन्ह छोड़ दिया।
तदुपरान्त जब हनुमान को सुर्य के महाग्यानि होने का पता चला तो उन्होंने अपने शरीर को बड़ा करके सुर्य की कक्षा में रख दिया और सुर्य से विनती की कि वो उन्हें अपना शिष्य स्वीकार करें। मगर सुर्य ने उनका अनुरोध ये कहकर अस्वीकार कर दिया कि चुंकि वो अपने कर्म स्वरूप सदैव अपने रथ पे भ्रमण करते रहते हैं, अतः हनुमान प्रभावपूर्ण तरीके से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाएँगे। सुर्य देव की बातों से विचलित हुए बिना हनुमान ने अपने शरीर को और बड़ा करके अपने एक पैर को पूर्वी छोर पे और दूसरे पैर को पश्चिमी छोर पे रखकर पुनः सुर्य देव से विनती की और अंततः हनुमान के सतात्य(दृढ़ता) से प्रसन्न होकर सुर्य ने उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर लिया।

तदोपरान्त हनुमान ने सुर्य देव के साथ निरंतर भ्रमण करके अपनी शिक्षा ग्रहण की। शिक्षा पूर्ण होने के ऊपरांत हनुमान ने सुर्य देव से गुरु-दक्षिणा लेने के लिये आग्रह किया परन्तु सुर्य देव ने ये कहकर मना कर दिया कि 'तुम जैसे समर्पित शिष्य को शिक्षा प्रदान करने में मैने जिस आनंद की अनुभूती की है वो किसी गुरु-दक्षिणा से कम नहीं है'।

परन्तु हनुमान के पुनः आग्रह करने पर सुर्य देव ने गुरु-दक्षिणा स्वरूप हनुमान को सुग्रीव(धर्म पुत्र-सुर्य)की सहायता करने की आज्ञा दे दी।
हनुमान के इच्छानुसार सुर्य देव का हनुमान को शिक्षा देना सुर्य देव के अनन्त, अनादि, नित्य, अविनाशी और कर्म-साक्षी होने का वर्णन करता है।

हनुमान जी बालपन मे बहुत नटखट थे, वो अपने इस स्वभाव से साधु-संतों को सता देते थे। बहुधा वो उनकी पूजा सामग्री और आदि कई वस्तुओं को छीन-झपट लेते थे। उनके इस नटखट स्वभाव से रुष्ट होकर साधुओं ने उन्हें अपनी शक्तियों को भूल जाने का एक लघु शाप दे दिया। इस शाप के प्रभाव से हनुमान अपनी सब शक्तियों को अस्थाई रूप से भूल जाते थे और पुनः किसी अन्य के स्मरण कराने पर ही उन्हें अपनी असीमित शक्तियों का स्मरण होता था। ऐसा माना जाता है कि अगर हनुमान शाप रहित होते तो रामायण में राम-रावण युद्ध का स्वरूप पृथक(भिन्न, न्यारा) ही होता। कदाचित वो स्वयं ही रावण सहित सम्पूर्ण लंका को समाप्त कर देते।

अतुलित बलधामं ...

  रामायण के सुन्दर-काण्ड में हनुमान जी के साहस और देवाधीन कर्म का वर्णन किया गया है। हनुमानजी की भेंट रामजी से उनके वनवास के समय तब हुई जब रामजी अपने भ्राता लछ्मन के साथ अपनी पत्नी सीता की खोज कर रहे थे। सीता माता को लंकापति रावण छल से हरण करके ले गया था। सीताजी को खोजते हुए दोनो भ्राता ॠषिमुख पर्वत के समीप पँहुच गये जहाँ सुग्रीव अपने अनुयाईयों के साथ अपने ज्येष्ठ भ्राता बाली से छिपकर रहते थे। वानर-राज बाली ने अपने छोटे भ्राता सुग्रीव को एक गम्भीर मिथ्याबोध के चलते अपने साम्राज्य से बाहर निकाल दिया था और वो किसी भी तरह से सुग्रीव के तर्क को सुनने के लिये तैयार नहीं था। साथ ही बाली ने सुग्रीव की पत्नी को भी अपने पास बलपूर्वक रखा हुआ था।
राम और लछ्मण को आता देख सुग्रीव ने हनुमान को उनका परिचय जानने के लिये भेजा। हनुमान् एक ब्राह्मण के वेश में उनके समीप गये। हनुमान के मुख़ से प्रथम शब्द सुनते ही श्रीराम ने लछ्मण से कहा कि कोई भी बिना वेद-पुराण को जाने ऐसा नहीं बोल सकता जैसा इस ब्राह्मण ने बोला। रामजी को उस ब्राह्मण के मुख, नेत्र, माथा, भौंह या अन्य किसी भी शारीरिक संरचना से कुछ भी मिथ्या प्रतीत नहीं हुआ। रामजी ने लछ्मण से कहा कि इस ब्राह्मण के मन्त्रमुग्ध उच्चारण को सुनके तो शत्रु भी अस्त्र त्याग देगा। उन्होंने ब्राह्मण की और प्रसन्नसा करते हुए कहा कि वो नरेश(राजा) निःसंकोच ही सफ़ल होगा जिसके पास ऐसा गुप्तचर होगा। श्रीराम के मुख़ से इन सब बातों को सुनकर हनुमानजी ने अपना वास्तविक रूप धारण किया और श्रीराम के चरणों में नतमष्तक हो गये। श्रीरम ने उन्हें उठाकर अपने ह्र्दय से लगा लिया। उसी दिन एक् भक्त और भगवान का हनुमान और प्रभु राम के रूप मे अटूट और अनश्वर मिलन हुआ। ततपश्चात हनुमान ने श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता करवाई। इसके पश्चात ही श्रीराम ने बाली को मारकर सुग्रीव को उनका सम्मान और गौरव वापस दिलाया और लंका युद्ध में सुग्रीव ने अपनी वानर सेना के साथ श्रीराम का सहयोग दिया।

सीता माता की खोज में वानरों का एक दल दक्षिण तट पे पँहुच गया। मगर इतने विशाल सागर को लांघने का साहस किसी में भी नहीं था। स्वयं हनुमान भी बहुत चिन्तित थे कि कैसे इस समस्या का समाधान निकाला जाये। उसी समय जामवन्त और बाकी अन्य वानरों ने हनुमान को उनकी अदभुत शक्तियों का स्मरण कराया। अपनी शक्तियों का स्मरण होते ही हनुमान ने अपना रूप विस्तार किया और पवन-वेग से सागर को उड़के पार करने लगे। रास्ते में उन्हें एक पर्वत मिला और उसने हनुमान से कहा कि उनके पिता का उसके ऊपर ॠण है, साथ ही उस पर्वत ने हनुमान से थोड़ा विश्राम करने का भी आग्रह किया मगर हनुमान ने किन्चित मात्र भी समय व्यर्थ ना करते हुए पर्वतराज को धन्यवाद किया और आगे बढ़ चले। आगे चलकर उन्हें एक राक्षसी मिली जिसने कि उन्हें अपने मुख में घुसने की चुनौती दी, परिणामस्वरूप हनुमान ने उस राक्षसी की चुनौती को स्वीकार किया और बड़ी ही चतुराई से अति लघुरूप धारण करके राक्षसी के मुख में प्रवेश करके बाहर आ गये। अंत में उस राक्षसी ने संकोचपूर्वक ये स्वीकार किया कि वो उनकी बुद्धिमता की परीक्षा ले रही थी।

आखिरकार हनुमान सागर पार करके लंका पँहुचे और लंका की शोभा और सुनदरता को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। और उनके मन में इस बात का दुःख भी हुआ कि यदी रावण नहीं माना तो इतनी सुन्दर लंका का सर्वनाश हो जायेगा। ततपश्चात हनुमान ने अशोक-वाटिका में सीतजी को देखा और उनको अपना परिचय बताया। साथ ही उन्होंने माता सीता को सांत्वना दी और साथ ही वापस प्रभु श्रीराम के पास साथ चलने का आग्रह भी किया। मगर माता सीता ने ये कहकर अस्वीकार कर दिया कि ऐसा होने पर श्रीराम के पुरुषार्थ् को ठेस पँहुचेगी। हनुमान ने माता सीता को प्रभु श्रीराम के सन्देश का ऐसे वर्णन किया जैसे कोई महान ज्ञानी लोगों को ईश्वर की महानता के बारे में बताता है।

माता सीता से मिलने के पश्चात, हनुमान प्रतिशोध लेने के लिये लंका को तहस-नहस करने लगे। उनको बंदी बनाने के लिये रावण पुत्र मेघनाद(इन्द्रजीत) ने ब्रम्हास्त्र का प्रयोग किया। ब्रम्ह्मा जी का सम्मान करते हुए हनुमान ने स्वयं को ब्रम्हास्त्र के बन्धन मे बन्धने दिया। साथ ही उन्होंने विचार किया कि इस अवसर का लाभ उठाकर वो लंका के विख्यात रावण से मिल भी लेंगे और उसकी शक्ति का अनुमान भी लगा लेंगे। इन्हीं सब बातों को सोचकर हनुमान ने स्वयं को रावण के समक्ष बंदी बनकर उपस्थित होने दिया। जब उन्हे रावण के समक्ष लाया गया तो उन्होंने रावण को प्रभु श्रीराम का चेतावनी भरा सन्देश सुनाया और साथ ही ये भी कहा कि यदि रावण माता सीता को आदर-पूर्वक प्रभु श्रीराम को लौटा देगा तो प्रभु उसे क्षमा कर देंगे।

क्रोध मे आकर रावण ने हनुमान को म्रित्युदंड देने का आदेश दिया मगर रावण के छोटे भाई विभीषण ने ये कहकर बीच-बचाव किया कि एक दूत को मारना आचारसंहिता के विपरीत है। ये सुनकर रावण ने हनुमान की पूंछ में आग लगाने का आदेश दिय। जब रावण के सैनिक हनुमान की पूंछ मे कपड़ा लपेट रहे थे तब हनुमान ने अपनी पूंछ को खूब लम्बा कर लिया और सैनिकों को कुछ समय तक परेशान करने के पश्चात पूंछ मे आग लगाने का अवसर दे दिया। पूंछ मे आग लगते ही हनुमान ने बन्धनमुक्त होके लंका को जलाना शुरु कर दिया और अंत मे पूंछ मे लगी आग को समुद्र मे बुझा कर वापस प्रभु श्रीराम के पास आ गये।
लंका युद्ध में जब लछमण मूर्छित हो गये थे तब हनुमान जी को ही द्रोणागिरी पर्वत पर से संजीवनी बूटी लाने भेजा गया मगर वो बूटी को भली-भांती पहचान नहीं पाये, और पुनः अपने पराक्रम का परिचय देते हुए वो पूरा द्रोणागिरी पर्वत ही रण-भूमि में उठा लाये और परिणामस्वरूप लछमण के प्राण की रक्षा की। भावुक होकर श्रीराम ने हनुमान को ह्र्दय से लगा लिया और बोले कि हनुमान तुम मुझे भ्राता भरत की भांति ही प्रिय हो।

हनुमान का पंचमुखी अवतार भी रामायण युद्ध् कि ही एक घटना है। अहिरावण जो कि काले जादू का ग्याता था, उसने राम और लछमण का सोते समय हरण कर लिया और उन्हें विमोहित करके पाताल-लोक में ले गया। उनकी खोज में हनुमान भी पाताललोक पहुँच गये। पाताल-लोक के मुख्यद्वार एक युवा प्राणी मकरध्वज पहरा देता था जिसका आधा शरीर मछली का और आधा शरीर वानर का था। मकरध्वज के जन्म कि कथा भी बहुत रोचक है। यद्यपि हनुमान ब्रह्मचारी थे मगर मकरध्वज उनका ही पुत्र था। लंका दहन के पश्चात जब हनुमान पूँछ में लगी आग को बुझाने समुद्र में गये तो उनके पसीने की बूंद समुद्र में गिर गई। उस बूंद को एक मछली ने पी लिया और वो गर्भवती हो गई। इस बात का पता तब चला जब उस मछली को अहिरावण की रसोई में लाया गया। मछली के पेट में से जीवित बचे उस विचित्र प्राणी को निकाला गया। अहिरवण ने उसे पाल कर बड़ा किया और उसे पातालपुरी के द्वार का रक्षक बना दिया।

हनुमान इन सभी बातों से अनिभिज्ञ थे। यद्यपि मकरध्वज को पता था कि हनुमान उसके पिता हैं मगर वो उन्हें पहचान नहीं पाया क्योंकि उसने पहले कभी उन्हें देखा नहीं था।
जब हनुमान ने अपना परिचय दिया तो वो जान गया कि ये मेरे पिता हैं मगर फिर भि उसने हनुमान के साथ युद्ध करने का निश्चय किया क्योंकि पातालपुरि के द्वार की रक्षा करना उसका प्रथम कर्तव्य था। हनुमान ने बड़ी आसानी से उसे अपने आधीन कर लिया और पातलपुरी के मुख्यद्वार पर बाँध दिया।
पातालपुरी में प्रवेश करने के पश्चात हनुमान ने पता लगा लिया कि अहिरावण का वध करने के लिये उन्हे पाँच दीपकों को एक साथ बुझाना पड़ेगा। अतः उन्होंने पन्चमुखी अवतार(श्री वराह, श्री नरसिम्हा, श्री गरुण, श्री हयग्रिव और स्वयं) धारण किया और एक साथ में पाँचों दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया। अहिरावण का वध होने के पश्चात हनुमान ने प्रभु श्रीराम के आदेशानुसार मकरध्वज को पातालपुरि का नरेश बना दिया।
युद्ध समाप्त होने के साथ ही श्रीराम का चौद्ह वर्ष का वनवास भी समाप्त हो चला था। तभी श्रीराम को स्मरण हुआ कि यदि वो वनवास समाप्त होने के साथ ही अयोध्या नहीं पँहुचे तो भरत अपने प्राण त्याग देंगे। साथ ही उनको इस बात का भी आभास हुआ कि उन्हें वहाँ वापस जाने में अंतिम दिन से थोड़ा विलम्ब हो जायेगा, इस बात को सोचकर श्रीराम चिंतित थे मगर हनुमान ने अयोध्या जाकर श्रीराम के आने की जानकारी दी और भरत के प्राण बचाकर श्रीराम को चिंता मुक्त किय।

अयोध्या में राज्याभिषेक होने के बाद प्रभु श्रीराम ने उन सभी को सम्मानित करने का निर्णय लिया जिन्होंने लंका युद्ध में रावण को पराजित करने में उनकी सहायता की थी। उनकी सभा में एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया जिसमें पूरी वानर सेना को उपहार देकर सम्मानित किया गया। हनुमान को भी उपहार लेने के लिये बुलाया गया, हनुमान मंच पर गये मगर उन्हें उपहार की कोई जिज्ञासा नहीं थी। हनुमान को ऊपर आता देखकर भावना से अभिप्लुत श्रीराम ने उन्हें गले लगा लिया और कहा कि हनुमान ने अपनी निश्छल सेवा और पराक्रम से जो योगदान दिया है उसके बदले में ऐसा कोई उपहार नहीं है जो उनको दिया जा सके। मगर अनुराग स्वरूप माता सीता ने अपना एक मोतियों का हार उन्हें भेंट किया। उपहार लेने के उपरांत हनुमान माला के एक-एक मोती को तोड़कर देखने लगे, ये देखकर सभा में उपस्थित सदस्यों ने उनसे इसका कारण पूछा तो हनुमान ने कहा कि वो ये देख रहे हैं मोतियों के अन्दर उनके प्रभु श्रीराम और माता सीता हैं कि नहीं, क्योंकि यदि वो इनमें नहीं हैं तो इस हार का उनके लिये कोई मूल्य नहीं है। ये सुनकर कुछ लोगों ने कहा कि हनुमान के मन में प्रभु श्रीराम और माता सीता के लिये उतना प्रेम नहीं है जितना कि उन्हें लगता है। इतना सुनते ही हनुमान ने अपनी छाती चीर के लोगों को दिखाई और सभी ये देखकर स्तब्द्ध रह गये कि वास्त्व में उनके ह्रदय में प्रभु श्रीराम और माता सीता की छवि विद्यमान थी।


जब हनुमान जी ने भी लिखा हनुमद रामायण....

ऐसा माना जाता है कि प्रभु श्रीराम की रावण के ऊपर विजय प्राप्त करने के पश्चात ईश्वर की आराधना के लिये हनुमान हिमालय पर चले गये थे। वहाँ जाकर उन्होंने पर्वत शिलाओं पर अपने नाखून से रामायण की रचना की जिसमे उन्होनें प्रभु श्रीराम के कर्मों का उल्लेख किया था। कुछ समयोपरांत जब महर्षि वाल्मिकी हनुमानजी को अपने द्वारा रची गई रामायण दिखाने पहुँचे तो उन्होंने हनुमानजी द्वारा रचित रामायण भी देखी। उसे देखकर वाल्मिकी तोड़े निराश हो गये तो हनुमान ने उनसे उनकी निराशा का कारण पूछा तो महर्षि बोले कि उन्होने कठोर परिश्रम के पश्चात जो रामायण रची है वो हनुमान की रचना के समक्ष कुछ भी नहीं है अतः आने वाले समय में उनकी रचना उपेक्षित रह जायेगी। ये सुनकर हनुमान ने रामायण रचित पर्वत शिला को एक कन्धे पर उठाया और दूसरे कन्धे पर महर्षि वाल्मिकी को बिठा कर समुद्र के पास गये और स्वयं द्वारा की गई रचना को राम को समर्पित करते हुए समुद्र में समा दिया। तभी से हनुमान द्वारा रची गई हनुमद रामायण उपलब्ध नहीं है।

तदुपरांत महर्षि वाल्मिकी ने कहा कि तुम धन्य हो हनुमान, तुम्हारे जैसा कोइ दूसरा नहीं है और साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि वो हनुमान की महिमा का गुणगान करने के लिये एक जन्म और लेंगे। इस बात को उन्होने अपनी रचना के अंत मे कहा भी है।

माना जाता है कि रामचरितमानस के रचयिता कवि तुलसी दास कोई और नहीं बल्कि महर्षि वाल्मिकी का ही दूसरा अवतार थे।

महाकवि तुलसीदास के समय में ही एक पटलिका को समुद्र के किनारे पाया गया जिसे कि एक सार्वजनिक स्थल पर टाँग दिया गया था ताकी विद्यार्थी उस गूढ़लिपि को पढ़कर उसका अर्थ निकाल सकें। माना जाता है कि कालीदास ने उसका अर्थ निकाल लिया था और वो ये भी जान गये थे कि ये पटलिका कोई और नहिं बल्कि हनुमान द्वारा उनके पूर्व जन्म में रची गई हनुमद् रामायण का ही एक अंश है जो कि पर्वत शिला से निकल कर ज़ल के साथ प्रवाहित होके यहाँ तक आ गई है। उस पटलिका को पाकर तुलसीदास ने अपने आपको बहुत भग्यशाली माना कि उन्हें हनुमद रामायण के श्लोक का एक पद्य प्राप्त हुआ।
( वायु पुराण, लिंग पुराण एवं वाल्मिकी रामायण पर आधारीत )

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

कर्क लग्न वाले मर्यादा पुरुषोत्तम भागवान श्रीराम

 कर्क लग्न वाले मर्यादा पुरुषोत्तम भागवान श्रीराम 

नौमी तिथी मधु-मास पुनीता
शुक्ल पक्ष अभिजीत हरिप्रीता
 के अनुसार गोस्वामी तुलसीदास जी  रामचरितमानस में चैत्र शुक्ल की नवमी तिथि तथा पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण एवं कर्क लग्न में भगवान श्रीराम का जन्म हुआ। गुरु और चन्द्र लग्न में हैं। पाँच ग्रह- शनि, मंगल, गुरु, शुक्र तथा सूर्य अपनी-अपनी उच्च राशि में स्थित हैं। गुरु कर्क राशि में उच्च का होता है। गुरु लग्न में चन्द्र के साथ स्थित है जिससे प्रबल कीर्ति देने वाला गजकेसरी योग बनता है। लेकिन शनि चतुर्थ भाव में अपनी उच्च राशि तुला में स्थित होकर लग्न को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है।

मंगल सप्तम भाव में अपनी उच्च राशि मकर में स्थित होकर लग्न को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है। इस कुंडली में दो सौम्य ग्रहों- गुरु एवं चन्द्र को दो पाप ग्रह शनि एवं मंगल अपनी-अपनी उच्च राशि में स्थित होकर देख रहे हैं। ऐसी स्थिति में प्रबल राजभंग योग बनता है। फलस्वरूप श्रीराम के राज्याभिषेक से लेकर जीवनपर्यंत सभी कार्यों में बाधाएँ पैदा होती रहीं। जिस समय श्रीराम का राज्याभिषेक होने जा रहा था, उस समय शनि महादशा में मंगल का अंतर चल रहा था।
श्रीरामजी मंगली थे। सप्तम (पत्नी) भाव में मंगल है। राहु अगर 3, 6 या 11वें भाव में स्थित हो तो अरिष्टों का शमन करता है। ग्रह स्थितियों के प्रभाववश श्रीराम को दाम्पत्य, मातृ, पितृ एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं हो सकी।
आप लोग जानते भी होंगे की भगवन राम का जीवन में इस तरह शनि एवं मंगल ने अनेकों  संघर्षों के लिए विवश किया। श्रीरामजी मंगली थे। सप्तम (पत्नी) भाव में मंगल है। राहु अगर 3, 6 या 11वें भाव में स्थित हो तो अरिष्टों का शमन करता है। इन ग्रह स्थितियों के प्रभाववश श्रीराम को दाम्पत्य, मातृ, पितृ एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं हो सकी। यद्यपि दशम भाव में उच्च राशि मेष में स्थित सूर्य ने श्रीराम को एक ऐसे सुयोग्य शासक के रूप में प्रतिष्ठित किया कि उनके अच्छे शासनकाल रामराज्य की आज भी दुहाई दी जाती है।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार रामराज्य ग्यारह हजार वर्ष तक चला।ज्योतिष के अनुसार(सूर्य सिद्धांत) पर आधारीत गणना से  राम का जन्म लगभग 1 करोड़ 25 लाख 58 हजार 98 वर्ष पूर्व हुआ था। आधुनिक काल गणना पद्धति ईस्वी सन्‌ २०११ में श्रीराम का जन्म १२ अप्रैल को मनाया गया है।
श्रीराम की कुंडली का विवेचन करने से यह तो पता चला कि किन-किन ग्रहों के कारण उनको भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं हुई। लेकिन हमें स्मरण रखना चाहिए कि श्रीराम ने त्याग और संघर्ष जैसे कष्टमय मार्ग पर चलकर स्वयं को मर्यादा पुरुषोत्तम के स्वरूप में प्रस्तुत किया।
सत्य के मार्ग पर हमेशा चलते रहे, अनेक कष्ट सहे मगर फिर भी लोक कल्याण के लक्ष्य से डिगे नहीं, हरदम आगे बढ़ते रहे। इसका कारण लग्न में गुरु एवं चन्द्र की युति का होना है।
पंचम (विद्या) एवं नवम (भाग्य) भाव पर गुरु की दृष्टि का प्रभाव यह रहा कि उन्होंने धर्म का पालन करने को ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य माना। धर्म के पथ से वे कभी हटे नहीं। श्रीराम के चरित्र का अवगाहन हम सभी को करना चाहिए.....

कब होगा विवाह और कैसा होगा जीवन साथी ??? क्या करें उपाय..जल्दी हो शादी

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    कब होगा विवाह और कैसा होगा जीवन साथी ??? क्या करें उपाय..जल्दी हो शादी
    - ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे (अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त) भिलाई-09827198828
आजकल लड़के-लड़कियाँ उच्च शिक्षा या अच्छा करियर बनाने के चक्कर में बड़ी उम्र के हो जाने पर विवाह में काफी विलंब हो जाता है। उनके माता-पिता भी असुरक्षा की भावनावश बच्चों के अच्छे खाने-कमाने और आत्मनिर्भर होने तक विवाह न करने पर सहमत हो जाने से भी विवाह में विलंब निश्चित होता है।

अच्छा होगा किसी विद्वान ज्योतिषी को अपनी जन्म कुंडली दिखाकर विवाह में बाधक ग्रह या दोष को ज्ञात कर उसका निवारण करें।
ज्योतिषीय दृष्टि से जब विवाह योग बनते हैं, तब विवाह टलने से विवाह में बहुत देरी हो जाती है। वे विवाह को लेकर अत्यंत चिंतित हो जाते हैं। वैसे विवाह में देरी होने का एक कारण बच्चों का मांगलिक होना भी होता है।
इनके विवाह के योग 27, 29, 31, 33, 35 व 37वें वर्ष में बनते हैं। जिन युवक-युवतियों के विवाह में विलंब हो जाता है, तो उनके ग्रहों की दशा ज्ञात कर, विवाह के योग कब बनते हैं, जान सकते हैं।
जिस वर्ष शनि और गुरु दोनों सप्तम भाव या लग्न को देखते हों, तब विवाह के योग बनते हैं। सप्तमेश की महादशा-अंतर्दशा या शुक्र-गुरु की महादशा-अंतर्दशा में विवाह का प्रबल योग बनता है। सप्तम भाव में स्थित ग्रह या सप्तमेश के साथ बैठे ग्रह की महादशा-अंतर्दशा में विवाह संभव है।

अन्य योग निम्नानुसार हैं-
(1) लग्नेश, जब गोचर में सप्तम भाव की राशि में आए।
(2) जब शुक्र और सप्तमेश एक साथ हो, तो सप्तमेश की दशा-अंतर्दशा में।
(3) लग्न, चंद्र लग्न एवं शुक्र लग्न की कुंडली में सप्तमेश की दशा-अंतर्दशा में।

(4) शुक्र एवं चंद्र में जो भी बली हो, चंद्र राशि की संख्या, अष्टमेश की संख्या जोड़ने पर जो राशि आए, उसमें गोचर गुरु आने पर।
(5) लग्नेश-सप्तमेश की स्पष्ट राशि आदि के योग के तुल्य राशि में जब गोचर गुरु आए।
(6) दशमेश की महादशा और अष्टमेश के अंतर में।

(7) सप्तमेश-शुक्र ग्रह में जब गोचर में चंद्र गुरु आए।
(8) द्वितीयेश जिस राशि में हो, उस ग्रह की दशा-अंतर्दशा में।

आपकी भी शादी की उम्र ढल रही है और शादी की बात नहीं बन पा रही है.......
आजकल अधिकतर लड़कियों की पढ़ाई या अन्य किसी कारण से अक्सर शादी में देरी हो जाती है। किसी को अपने हिसाब का पढ़ा- लिखा लड़का नहीं मिलता तो कहीं किसी और कारण से बात नहीं बन पाती। यदि आपकी भी शादी की उम्र ढल रही है और शादी की बात नहीं बन पा रही है तो नीचे लिखे इन उपायों को जरुर अपनाएं।
 विवाह योग्य युवती जब किसी अन्य युवती के विवाह में जाएं तो उससे अपने हाथों में थोड़ी मेहंदी लगवा ले। ऐसा करने से उसका विवाह शीघ्र ही हो जाएगा।
जब लड़के वाले विवाह की बात करने घर आए तो युवती खुले बालों से, लाल वस्त्र धारण कर, हंसते हुए उन्हें कोई मीठी वस्तु खिलाकर विदा करें। विवाह की बात अवश्य ही पक्की होगी।
विवाह की इच्छा रखने वाली युवती एक सफेद खरगोश पाले और उसे अपने हाथ से ही प्रतिदिन भोजन करवाएं।

इन उपायों को करने से शीघ्र ही विवाह की इच्छा रखने वाली युवतियों का विवाह हो जाता है।

विवाह मुहूर्त में जरूरी है त्रीबल-शुद्धी:                                           -    पं विनोद चौबे  

विवाह मुहूर्त के लिए मुहूर्त शास्त्रों में शुभ नक्षत्रों और तिथियों का विस्तार से विवेचन किया गया है। उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्रपद,रोहिणी, मघा, मृगशिरा, मूल, हस्त, अनुराधा, स्वाति और रेवती नक्षत्र में, 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12, 13, 15 तिथि तथा शुभ वार में तथा मिथुन, मेष, वृष, मकर, कुंभ और वृश्चिक के सूर्य में विवाह शुभ होते हैं। मिथुन का सूर्य होने पर आषाढ़ के तृतीयांश में, मकर का सूर्य होने पर चंद्र पौष माह में, वृश्चिक का सूर्य होने पर कार्तिक में और मेष का सूर्य होने पर चंद्र चैत्र में भी विवाह शुभ होते हैं। जन्म लग्न से अथवा जन्म राशि से अष्टम लग्न तथा अष्टम राशि में विवाह शुभ नहीं होते हैं। विवाह लग्न से द्वितीय स्थान पर वक्री पाप ग्रह तथा द्वादश भाव में मार्गी पाप ग्रह हो तो कर्तरी दोष होता है, जो विवाह के लिए निषिद्ध है। इन शास्त्रीय निर्देशों का सभी पालन करते हैं, लेकिन विवाह मुहूर्त में वर और वधु की त्रिबल शुद्धि का विचार करके ही दिन एवं लग्न निश्चित किया जाता है। कहा भी गया है—
स्त्रीणां गुरुबलं श्रेष्ठं पुरुषाणां रवेर्बलम्।
तयोश्चन्द्रबलं श्रेष्ठमिति गर्गेण निश्चितम्।।

अत: स्त्री को गुरु एवं चंद्रबल तथा पुरुष को सूर्य एवं चंद्रबल का विचार करके ही विवाह संपन्न कराने चाहिए। सूर्य, चंद्र एवं गुरु के प्राय: जन्मराशि से चतुर्थ, अष्टम एवं द्वादश होने पर विवाह श्रेष्ठ नहीं माना जाता। सूर्य जन्मराशि में द्वितीय, पंचम, सप्तम एवं नवम राशि में होने पर पूजा विधान से शुभफल प्रदाता होता है। गुरु द्वितीय, पंचम, सप्तम, नवम एवं एकादश शुभ होता है तथा जन्म का तृतीय, षष्ठ व दशम पूजा से शुभ हो जाता है। विवाह के बाद गृहस्थ जीवन के संचालन के लिए तीन बल जरूरी हैं— देह, धन और बुद्धि बल। देह तथा धन बल का संबंध पुरुष से होता है, लेकिन इन बलों को बुद्धि ही नियंत्रित करती है। बुद्धि बल का स्थान सर्वोपरि है, क्योंकि इसके संवर्धन में गुरु की भूमिका खास होती है। यदि गृहलक्ष्मी का बुद्धि बल श्रेष्ठ है तो गृहस्थी सुखद होती है, इसलिए कन्या के गुरु बल पर विचार किया जाता है। चंद्रमा मन का स्वामी है और पति-पत्नी की मन:स्थिति श्रेष्ठ हो तो सुख मिलता है, इसीलिए दोनों का चंद्र बल देखा जाता है। सूर्य को नवग्रहों का बल माना गया है। सूर्य एक माह में राशि परिवर्तन करता है, चंद्रमा 2.25 दिन में, लेकिन गुरु एक वर्ष तक एक ही राशि में रहता है। यदि कन्या में गुरु चतुर्थ, अष्टम या द्वादश हो जाता है तो विवाह में एक वर्ष का व्यवधान आ जाता है।
चंद्र एवं सूर्य तो कुछ दिनों या महीने में राशि परिवर्तन के साथ शुद्ध हो जाते हैं, लेकिन गुरु का काल लंबा होता है। सूर्य, चंद्र एवं गुरु के लिए ज्योतिषशास्त्र के मुहूर्त ग्रंथों में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिनमें इनकी विशेष स्थिति में यह दोष नहीं लगता। गुरु-कन्या की जन्मराशि से गुरु चतुर्थ, अष्टम तथा द्वादश स्थान पर हो और यदि अपनी उच्च राशि कर्क में, अपने मित्र के घर मेष तथा वृश्चिक राशि में, किसी भी राशि में होकर धनु या मीन के नवमांश में, वर्गोत्तम नवमांश में, जिस राशि में बैठा हो उसी के नवमांश में अथवा अपने उच्च कर्क राशि के नवमांश में हो तो शुभ फल देता है।
सिंह राशि भी गुरु की मित्र राशि है, लेकिन सिंहस्थ गुरु वर्जित होने से मित्र राशि में गणना नहीं की गई है। भारत की जलवायु में प्राय: 12 वर्ष से 14 वर्ष के बीच कन्या रजस्वला होती है। अत: बारह वर्ष के बाद या रजस्वला होने के बाद गुरु के कारण विवाह मुहूर्त प्रभावित नहीं होता है.

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

सबके जिंदगी से जुड़ा है ज्योतिष











सबके जिंदगी  से जुड़ा है ज्योतिष मानव शरीर और ब्रह्मांड की समानता पर पुराणों तथा धर्मग्रंथों में व्यापक विचार हुआ है। जो ब्रह्मांड में है, वह मानव शरीर में भी है। ब्रह्मांड को समझने का श्रेष्ठ साधन मानव शरीर ही है। समाज वैज्ञानिकों ने भी सावययी-सादृश्यता के सिद्धांत को इसी आधार पर निर्मित किया है। मानव शरीर व संपूर्ण समाज को एक-दूसरे का प्रतिबिंब माना है।

शरीर व समाज की समानता को 'सावययी-सादृश्यता' का नाम दिया है। सौरमंडल को ज्योतिष भली-भाँति जानता है। इसी सौरमंडल में व्याप्त पंचतत्वों को प्रकृति ने मानव निर्माण हेतु पृथ्वी को प्रदान किए हैं। मानव शरीर जल, अग्नि, पृथ्वी, वायु तथा आकाश तत्व से निर्मित हुआ है। ज्योतिष ने सौरमंडल के ग्रहों, राशियों तथा नक्षत्रों में इन तत्वों का साक्षात्कार कर अपने प्राकृतिक सिद्धांतों का निर्माण किया है।

ज्योतिष का फलित भाग इन ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों के मानव शरीर पर प्रभाव का अध्ययन करता है। जो पंचतत्व इन ग्रह-नक्षत्रों व राशियों में हैं, वे ही मानव शरीर में भी हैं, तो निश्चित ही इनका मानव शरीर पर गहरा प्रभाव है। भारतीय ज्योतिष ने सात ग्रहों को प्राथमिकता दी है- रवि, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि। राहु एवं केतु 'छाया ग्रह' हैं। पाश्चात्य ज्योतिष जगत में यूरेनस, नेपच्यून तथा प्लूटो का भी महत्व है।

ज्योतिष ने पंचतत्वों में प्रधानता के आधार पर ग्रहों में इन तत्वों को अनुभव किया है- रवि तथा मंगल अग्नि तत्व के ग्रह हैं। अग्नि तत्व शरीर की ऊर्जा तथा जीने की शक्ति का कारक है। अग्नि तत्व की कमी शरीर के विकास को अवरुद्ध कर रोगों से लड़ने की शक्ति कम करती है। शुक्र व चंद्रमा जल तत्व के कारक हैं। शरीर में व्याप्त जल पर चंद्रमा का आधिपत्य है। शरीर में स्थित 'जल' शरीर का पोषण करता है। जल तत्व की कमी आलस्य व तनाव उत्पन्न कर शरीर की संचार व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव डालती है। जल व मन दोनों चंचल हैं, इसलिए चंद्रमा को मन का कारक तत्व प्रदान किया है। शुक्राणु जल में ही जीवित रहते हैं, जो सृष्टि के विकास व निर्माण में महत्वपूर्ण हैं। 'शुक्र' कामजीवन का कारक है। यही कारण है कि शुक्र के अस्त होने पर विवाह के मुहूर्त नहीं निकलते हैं।

बृहस्पति एवं राहू आकाश तत्व से संबंध रखते हैं। ये व्यक्ति के पर्यावरण तथा आध्यात्मिक जीवन से सीधा संबंध रखते हैं। बुध 'पृथ्वी-तत्व' का कारक है। यह बुद्धि क्षमता तथा निर्णय लेने की शक्ति शरीर को देता है। इस तत्व की कमी बुद्धिमत्ता तथा निर्णय क्षमता पर विपरीत असर डालती है। शनि वायु तत्व का कारक है। शरीर में व्याप्त वायु पर इसका आधिपत्य है। केतु को मंगलवत माना जाता है।
मानव जीवन में कुछ गुण मूल प्रकृति के रूप में मौजूद होते हैं। प्रत्येक मनुष्य में प्राकृतिक रूप से आत्मा, मन, बल, वाणी, ज्ञान, काम तथा दुःख विद्यमान होते हैं। यह ग्रहों पर निर्भर करता है कि मानव जीवन में इनकी मात्रा कितनी है, विशेष रूप से प्रथम दो तत्वों को छोड़कर, क्योंकि आत्मा से ही शरीर है, यह रवि का अधिकार क्षेत्र है। मन चंद्रमा का है। मंगल- बल, वाणी- बुध, ज्ञान- बृहस्पति, काम- शुक्र तथा दुःख पर शनि का आधिपत्य है।

आधुनिक मनोविज्ञान मानव की चार मूल प्रवृत्तियाँ मानता है- भय, भूख, यौन व सुरक्षा। भय पर शनि व केतु का आधिपत्य है। भूख पर रवि एवं बृहस्पति, यौन पर शुक्र तथा सुरक्षा पर चंद्र, मंगल तथा बुध का आधिपत्य है। मानव शरीर के विभिन्ना धातु तत्वों का भी ब्रह्मांड के ग्रहों से सीधा संबंध है। शरीर की हड्डियों पर रवि, खून पर चंद्रमा, शरीर के मांस पर मंगल, त्वचा पर बुध, चर्बी पर बृहस्पति, वीर्य पर शुक्र तथा स्नायुमंडल शनि से संबंध रखता है।

राहू एवं केतु चेतना से संबंधित हैं। शरीर आयुर्वेद के अनुसार त्रिदोष से पीड़ित हो सकता है, जो विभिन्ना रोगों के रूप में प्रकट होता है- वात, पित्त एवं कफ। रवि, मंगल- पित्त, चंद्रमा- कफ, शनि- वायु, बुध- त्रिदोष, शुक्र- कफ एवं वात तथा बृहस्पति- कफ और पित्त का अधिपति है। शरीर की आंतरिक स्वास्थ्य रचना इन प्रवृत्तियों तथा ग्रहों के उचित तालमेल पर ही निर्भर है।

आध्यात्मिक व सामाजिक जीवन के मान से सत्व, रज तथा तमो गुण मानव के मौलिक गुण माने गए हैं। बृहस्पति, रवि, चंद्रमा तथा नेपच्यून सतोगुण, शुक्र, बुध तथा प्लूटो रजोगुण तथा शेष तमोगुण के प्रतिनिधि हैं। जहाँ तक राशियों का प्रश्न है मेष, सिंह व धनु अग्नि तत्व, वृषभ, कन्या व मकर पृथ्वी तत्व, मिथुन, तुला व कुंभ वायु तत्व तथा कर्क, वृश्चिक व मीन जल तत्व की राशियाँ हैं। आकाश तत्व इन सभी में 12 प्रतिशत प्राप्त होता है।

नक्षत्रों का भी तत्व के आधार पर विभाजन भारतीय ज्योतिष में किया है- अश्विनी, मृगसर, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, विशाखा वायु तत्व के नक्षत्र हैं। भरणी, कृत्तिका, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाति, पूर्वाषाढ़ा तथा दोनों भाद्रपद अग्नि तत्व के नक्षत्र हैं। रोहिणी, अनुराधा, ज्येष्ठा, उत्तराषाढ़ा पृथ्वी तत्व के तथा शेष जल तत्व के नक्षत्र हैं। आकाश तत्व इन सभी नक्षत्रों में 12 प्रतिशत प्राप्त होता है।

अध्यात्म ज्योतिष जीवात्मा तथा परमात्मा के एकाकार होने को 'मोक्ष' कहता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्रह्मांड तथा शरीर के आंतरिक व बाह्य रहस्यों को समझना आवश्यक है। मानव शरीर ब्रह्मांड के पंचतत्वों से निर्मित होता है और इन्हीं तत्वों में विलीन हो जाता है। ग्रहों, राशियों व नक्षत्रों के तत्वों का ज्ञान, इसका प्रभाव मानव के अंतिम लक्ष्य मोक्ष का मार्गदर्शन करता है। भौतिक जगत में परमात्मा मानव जीवन देकर मोक्ष का अवसर प्रदान करता है। यहाँ ग्रह-नक्षत्रों का सकारात्मक प्रभाव सहयोग देता है, नकारात्मक प्रभाव व्यवधान उत्पन्ना करते हैं। शनि एवं केतु मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा जाता है। यह प्रतीकात्मक है। नेत्र व्यक्ति को अच्छा व बुरा देखने तथा समझने का शक्तिशाली माध्यम है। आंतरिक व बाह्य रहस्यों को देखने में नेत्रों की भूमिका महत्वपूर्ण है। प्राचीन ज्योतिष के सभी सिद्धांत योगियों व ऋषियों ने सिर्फ नेत्र से देखकर तथा योगमार्ग से अनुभव करके बनाए हैं, बिना कोई वैज्ञानिक यंत्रों की सहायता से। यह अपने आप में आंतरिक व बाह्य रहस्यों में ज्योतिष के महत्व को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है।



सोमवार, 11 अप्रैल 2011

आखिर कार चार लोगों ने कर ही लिया आत्म हत्या एक आई.सी.यू. में..

आखिर कार चार लोगों ने कर ही लिया   आत्म हत्या एक आई.सी.यू. में.. सुनील और उसके परिवार को बीएसपी प्रबंधन किसी न किसी आधार पर नौकरी या मकान के संबंध में आश्वासन देता रहा लेकिन वह सुनील ने कहा कि हमारे उपर कोई पुिलिसयाकारवाई नही होना चाहिए और वह सांसद सरोज पानडेय से मिलने की बात भी कही किन्तु हेमा मालिनी के नृत्य गान में व्यस्त होने के कारण वह स्वयं न जाकर अपने प्रतिनीधी को भेजना ही मुनासिब समझा और अन्ततः आज भोर में पूरा परिवार जहर खा लिया िजसमें चार लोगों की जान चली गयी ए गहन चिकित्सा मे मौत से जुझ रहा है ..
काश यदि मैडम(सरोज पांडेय) साहिबा सुनील से एक बार मिल ली होती तो यह मामला टल सकता था।
सुनील गुप्ता मंगलवार को 11 बजे घर से बाहर आने के लिए तैयार हो गया। बीएसपी प्रबंधन ने उसकी मांगों पर सहानुभूति पूर्वक विचार करने का आश्वासन दिया है। बावजूद इसके मामले का पटाक्षेप होते नहीं दिख रहा है। क्योंकि उसका कहना है कि प्रशासन ने उसे और उसके परिवार को अभी तो मरने नहीं दिया, लेकिन बाद में वह अपनी जिंदगी और मौत का फैसला खुद करेगा।
इधर शोसल एक्टिविस्ट ममता शर्मा ने इस मामले में कोर्ट में रिट पीटिशन दायर करने की घोषणा की है। सुनील के फैसले को लेकर प्रशासन को दोपहर तक संशय रहा। यहां तक कि सुबह जब बीएसपी के डीजीएम आईआर एके कायल, एजीएम टाउन सर्विसेस कृष्णा साहा और सीनियर मैनेजर आईआर अमूल्य प्रियदर्शी एसडीएम सिद्धार्थ दास और सीएसपी आरके भट्ट के साथ सुनील को समझाने के लिए उसके घर पहुंचे तब भी वह नहीं मान रहा था। वह खुद को व परिवार को मुक्त करने और घर से बाहर निकलने के लिए भी तैयार नहीं हुआ। एसडीएम ने उसे घर खाली नहीं कराने का आश्वासन दिया तब भी वह नहीं माना और नौकरी या पैसे के लिए अड़ा रहा। वह सुबह से ही सल्फास का डिब्बा हाथ में लिए हुए था और अधिकारियों के जाने के बाद भी जहर खा लेने की बात करता रहा।लेकिन करीब एक घंटा बाद उसने कहा कि ठीक है, वह प्रशासन के दबाव के कारण वह मंगलवार को 11 बजे परिवार सहित मुक्त हो जाएगा। अचानक लिए गए इस फैसले का कारण लोग समझ नहीं पाए लेकिन माना जा रहा है कि उसे नौकरी के संबंध में प्रबंधन की ओर से कोई आश्वासन दिए जाने के बाद उसने यह फैसला लिया होगा।
प्रबंधन को डर था...
ममता शर्मा ने आज प्रेस कान्फ्रेस में कहा कि सुनील और उसके परिवार को बीएसपी प्रबंधन किसी न किसी आधार पर नौकरी या मकान के संबंध में आश्वासन देता रहा है। इसीलिए उसके पिता की मृत्यु के बाद भी उसे घर खाली नहीं करवाया गया था। क्योंकि उसे यह डर था कि कहीं सुनील अनुकंपा नियुक्ति वाले मामले को न उठा दे। जिस आधार पर उसे पहले घर खाली नहीं कराया गया और नौकरी का मौखिक आश्वासन दिया गया उसी आधार रिट पिटीशन दायर किया जाएगा। पुलिस प्रशासन से भी उसकी बात हुई है, वह उसके एमएल साहू की मौत के मामले की दोबारा जांच करने के लिए तैयार है। उन्होंने बताया कि एमएल साहू को डायरी लिखने की आदत थी। उसने डायरी में कुछ लोगों के नाम का उल्लेख करते हुए लिखा है उसे इन लोगों से जान का खतरा है।

रविवार, 10 अप्रैल 2011

ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे महाराज

हजारे ने दिया 15 अगस्त तक - अन्ना का अल्टीमेटम नया लोकपाल विधेयक तैयार करने के लिए संयुक्त मसौदा समिति गठित करने के लिए सरकार द्वारा अधिसूचना जारी किये जाने के साथ ही प्रख्यात समाज सेवी अन्ना हजारे ने पिछले पांच दिन से चल रहा अपना आमरण अनशन शनिवार को समाप्त कर दिया और लोगों से आजादी की दूसरी लड़ाई का श्रीगणेश करने का आह्वान किया ।
हजारे ने यहां जंतर मंतर पर विशाल जनसमूह के  'वन्देमातरम्'  'इंकलाब ङ्क्षजदाबाद' और 'भारत माता की जय' के उद्घोष के बीच एक नन्हीं बच्ची के हाथों नीबू पानी पीकर अपना अनशन तोड़ा ।  हजारे ने इसके बाद अपने संबोधन में सरकार को चेतावनी दी कि यदि लोकपाल विधेयक १५ अगस्त से पहले संसद से पारित नहीं किया गया तो वह स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की ओर कूच करेंगे ।
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री यदि जन लोकपाल कानून को अमली जामा पहनाने में सफल रहते हैं तो उनका स्वागत किया जायेगा  और यदि सरकार ऐसा नहीं करती है तो स्वतंत्रता दिवस पर पूरा देश लाल किले पर झंडा फहराने जायेगा। हजारे के अनशन समाप्त करने के साथ ही यहां तथा देश के अन्य हिस्सों में उनके  सैकड़ों समर्थकों ने भी अनशन तोड़ा।  इसे जनता की जीत बताते हुए हजारे ने कहा कि लोगों ने जाति, धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठकर विश्व के समक्ष इस आंदोलन के माध्यम से एकजुटता की मिसाल पेश की है । उन्होंने किसानों और मजदूरों के सवालों,   सत्ता के विकेन्द्रीकरण, जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने तथा निर्वाचन प्रणाली में सुधार को लेकर भी आंदोलन करने की जरूरत  बतायी । उन्होंने कहा कि भगत ङ्क्षसह, सुखदेव और राजगुरू ने वंदे मातरम् और भारत माता की जय के नारों से अंग्रेजों की नींद उड़ा दी थी और अब इन नारों ने ''काले अंग्रेजों'' की नींद उड़ा दी है।  हजारे ने इस आंदोलन से जन-जन को एक कड़ी के रूप में पिरोने में मीडिया की प्रशंसा करते हुये कहा कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने पूरी दुनिया के सामने अपनी ताकत दिखा दी है।  उन्होंने आंदोलन में सहयोग के लिए देश की युवा शक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा कि उनमें आशा की किरण दिखाई देती है। उन्होंने कहा, युवा शक्ति ही राष्ट्रशक्ति है, वह जग जाये तो देश का भविष्य उज्ज्वल है।
हजारे ने कहा कि आंदोलन में शामिल सभी लोगों से उन्हें बहुत प्रेरणा मिली। अब  लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार किया जाना है तो उनकी जिम्मेदारी और बढ़ गयी है। उन्होंने कहा कि लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार होने पर उसे मंत्रिमंडल की स्वीकृति के लिये भेजा जाएगा और इसके बाद संसद से इसकी मंजूरी ली जायेगी। उन्होंने कहा कि यदि किसी स्तर पर भी अडंगा लगाने की कोशिश की गयी तो फिर जोरदार आंदोलन किया जाएगा ।
उन्होंने कहा कि अभी तो आंदोलन की शुरूआत हुयी है और आगे बहुत कुछ करना है।  हजारे ने कहा कि उनके साथ विभिन्न राज्यों में बड़ी संख्या में लोगों ने  आमरण अनशन में हिस्सा लिया जिनसे मिलने (शेष पृष्ठ ८ पर)
के लिये वह उन राज्यों का दौरा करेंगे और आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने के लिये लगातार लोगों के संपर्क में बने रहेंगे।  उन्होंने अनशन में शामिल लोगों की इस मांग पर कि इस आंदोलन को राष्ट्रव्यापी बनाने के लिए एक राष्ट्रीय समिति गठित की जाये सहमति जताते हुए कहा कि इस दिशा में कदम उठाया जायेगा ।
इससे पहले स्वामी अग्निवेश ने उपस्थित जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा कि सरकार से केवल जन लोकपाल विधयेक के लिए आदेश जारी करने की मांग की गई थी, ङ्क्षकतु सरकार ने इससे आगे बढते हुए अधिसूचना जारी कर दी है ।  भारतीय पुलिस सेवा की पूर्व अधिकारी और इस आंदोलन में पूरी तरह से सक्रिय रही किरण बेदी ने कहा कि यह लड़ाई आत्मसम्मान के लिए थी और उन्हें उम्मीद है कि इससे ईमानदारी जरूर आयेगी । लोग ईमानदारी की कमाई खायें । उन्होंने कहा कि हमें यह याद रखना होगा कि यह लड़ाई हम सभी ने अपने लिए लड़ी है और इसको आगे भी जारी रखने की जरूरत है।
शहीद भगत ङ्क्षसह के भतीजे किरण जोत ङ्क्षसह ने इस मौके पर कहा कि पिछला साल देश में भ्रष्टाचार के लिए जाना जायेगा।  उन्होंने कहा कि शहीद भगत ङ्क्षसह ने आठ अप्रैल १९२९ को सेन्ट्रल असेम्बली में धमाका कर अंग्रेजों को हिला कर रख दिया था और ठीक आठ अप्रैल के ही दिन सरकार को जन लोकपाल विधेयक के लिए सहमति को मजबूर होना पड़ा है ।
पांच दिन तक चले इस आमरण अनशन में ४९९ लोग शामिल हुए, वहीं आंदोलन को समाज के सभी वर्गों का भरपूर सहयोग मिला ।  सुपर स्टार अमिताभ बच्चन, मेट्रो मैन ई श्रीधरन,  योग गुरू रामदेव, प्रमुख समाज सेवी मेघा पाटेकर, अभिनेता अनुपम खेर, शबाना आजमी, फराह खान के अलावा आमिर खान ने भी अपना समर्थन दिया ।
अनशनस्थल पर जहां एक तरफ लगातार रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीताराम गूंज रहा था वहीं दूसरी तरफ विशाल जनसमूह इंकलाब ङ्क्षजदाबाद  वन्देमातरम और भारत माता की जय का उद्घोष कर रहा था। स्थल में जगह-जगह हवन, यज्ञ भी हो रहे घे ।
शनिवार सुबह जारी अधिसूचना के अनुसार समिति में सरकार की तरफ से कानून मंत्री वीरप्पा मोइली, दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल, गृहमंत्री पी चिदंबरम और जल संसाधन मंत्री सलमान खुर्शीद सदस्य होंगे। दूसरी तरफ समाज की तरफ से इसमें अन्ना हजारे, वरिष्ठ वकील शांतिभूषण, वकील प्रशांत भूषण, उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश संतोष हेगड़े और आरटीआई कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल शामिल हैं।
संयुक्तमसौदा समिति की बैठक 16 कोनई दिल्ली। लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए मंत्रियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की सदस्यता वाली नवगठित संयुक्त मसौदा समिति की पहली बैठक अगले सप्ताह 16 अप्रैल को होने की संभावना है।
समिति के संयोजक और विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा कि पहली बैठक 16 अप्रैल को होना निर्धारित किया गया है। लेकिन यह तिथि अभी अंतिम नहीं है और हम सदस्यों की उपलब्धता को सुनिश्चित करना चाहते हैं।
यह पूछे जाने पर कि क्या सरकार गजट अधिसूचना जारी करके झुक गई है, उन्होंने कहा कि संयुक्त समिति के गठन को किसी की जीत या हार के रूप में नहीं देखा
जाना चाहिए।
उन्होंने कहा कि हमें राष्ट्रीय उद्देश्यों के लिए मिलकर काम करना चाहिए। सरकार और समाज में इस विषय पर कोई मतभेद नहीं है। साझा उद्देश्य लोकपाल विधेयक को लाना है। विधि मंत्री ने कहा कि कांग्रेस पार्टी कभी भी जनांदोलन के खिलाफ नहीं रही, वास्तव में कांग्रेस का निर्माण ही जनांदोलन का परिणाम है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पार्टी के पूर्ण अधिवेशन में भ्रष्टाचार के खिलाफ सम्पूर्ण लड़ाई का आह्वान कर चुकी हैं
ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे महाराज

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

 ज्योतिषाचार्य  पंडित विनोद चौबे ( वैदिक ज्योतिष एक अध्ययन )
नमो देवि महा विद्ये नमामि चरणौ तव सदा ज्ञान प्रकाशं मे देहि सर्वार्थदे शिवे।।
यत्कृपालेश लेशांशलेशलवांशकम,लबध्वा मुक्तो भवेज्जन्तुस्तां न सेवेत को ज।
स्वयमाचरेत शिष्यानाचारे स्थापयत्यापि आचिनोतीह शास्त्रार्थानाचार्यस्तेन कथ्यते॥
चराचरस्मासन्नमध्यापयति य: स्वयम यमादि योगसिद्धत्वादाचार्य इति कथ्यते॥।
जन्महेतु हि पितरौ पूजनीयौ प्रयत्नत: गुरुर्विशेषत: पूज्यो
धर्माधर्मप्रदर्शक:॥
ज्योतिषमान जाग्रत जगत की एक दिव्य ज्योति का नाम हीजीवन है। ज्योति का पर्या ज्योतिष या ज्यौतिष है; अथवा ज्यौतिष स्वरूप ब्रह्म की व्याख्या का नाम ज्योतिष है,ऐतरेय ब्राह्मण ने ब्रह्म को क्रियादामृत स्वरूप त्रयी त्रीणी ज्योतिषीं नाम से पुकारा है (५।५।२)
वेद स्वरूप ज्योतिष ब्रह्मरूप ज्योति या ज्योतिष है,जिसका द्वतीय नाम संवत्सर ब्रह्म या महाकाल (महारुद्र) है जो अक्षर ब्रह्म से भी उच्चारित किया जाता है,ब्रह्मसृष्टि के मूल बीजाक्षरो या मूल अनन्त कलाओं को एक एक कर जानना,वैदिक दार्शनिक ज्योतिष या अव्यक्त ज्योतिष कहा जाता है।
इसका दूसरा स्वरूप लौकिक या व्यक्त ज्योतिष है जिसे खगोलीय या ब्रह्माण्डीय ज्योतिष कहा जाता है,व्यक्त या अव्यक्त इन दोनो के आकार दोनों की कलायें एक समान है। एक बिम्ब है तो दूसरा प्रतिबिम्ब है,इस प्रकार वैदिक दर्शन के नौ प्रकार के अहोरात्र या सम्वत्सर ब्रह्म दर्शन का गणित् से लोक व्यवहारिक विवेचन करते हुये आज तक वैदिक ज्योतिष की सुरक्षा मध्य युग के पहिले के आचार्यों ने की है।
वैदिक दर्शन के परिचय के लिये मैंने (विनोद चौबे ) जब कशी हिन्दू विश्व विद्यालय वराणसी में अध्ययन किया तो पाया की यह वेदान्गी भूत ज्योतिष दर्शन सूर्य के समान प्रकाश देने का काम करता है,अतएव इसे वेद पुरुष या ब्रह्मपुरुष का चक्षु: (सूर्य) भी कहा गया है। ज्योतिषामयनं चक्षु: सूर्यो अजायत,इत्यादि आगम वचनों के आधार से त्रिस्कंध ज्योतिष शास्त्र के के प्रधान प्रमुख सर्वोपादेय ग्रह गणित ग्रन्थ का नाम तक सूर्य सिद्धान्त या चक्षुसिद्धान्त कहा गया है। अथवा अनन्त आकाशीय ग्रह नक्षत्र आकाश गंगा नीहारिका सम्पन्न जो स्वयं अनन्त है,उस ब्रह्म दर्शक चक्षु रूप शास्त्र का नाम ज्योतिष शास्त्र कहा गया है। जिसके यथोचित स्वरूप का ज्ञान प्राचीन भारतीयों को हो चुका था,संक्षेप मे इसी लिये यहां ज्योतिष शास्त्र का इतिहास लिखा जा रहा है।
प्राचीन भारतीय ज्योतिष
भारतीय ज्योतिष का प्राचीनतम इतिहास (खगोलीय विद्या) के रूप सुदूर भूतकाल के गर्भ मे छिपा है,केवल ऋग्वेद आदि प्राचीन ग्रन्थों में स्फ़ुट वाक्याशों से ही आभास मिलता है,कि उसमे ज्योतिष का ज्ञान कितना रहा होगा। निश्चित रूप से ऋग्वेद ही हमारा प्राचीन ग्रन्थ है,बेवर मेक्समूलर जैकीबो लुडविंग ह्विटनी विंटर निट्ज थीवो एवं तिलक ने रचना एवं खगोलीय वर्णनो के आधार पर ऋग्वेद के रचना का काल ४००० ई. पूर्व स्वीकार किया है। चूंकि ऋग्वेद या उससे सम्बन्धित ग्रन्थ ज्योतिष ग्रन्थ नही है,इसलिये उसमे आने वाले ज्योतिष सम्बन्धित लेख बहुधा अनिश्चित से है,परन्तु मनु ने जैसा कहा है कि “भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात्प्रसिद्धयति”। इससे स्पष्ट है कि वेद त्रिकाल सूत्रधर है, और इसके मंत्र द्रष्टा ऋषि भी भी त्रिकादर्शी थे। वेदों के मंत्र द्रष्टा ऋषि भूगोल खगोल कृष शास्त्र एव राजधर्म प्रभृति के अन्वेषण में संलग्न रहते थे। खगोल सम्बन्धी परिज्ञान के लिये आकाशीय ग्रह नक्षत्रों के सिद्धान्त वेदों में अन्वेषित किये जा सकते हैं। क्योंकि आधुनिक काल की घडियों के अभाव मे मंत्रद्रष्टा ऋषि आकाशीय ग्रह उपग्रह एवं नक्षत्रों के आधार पर ही समय का सुपरिज्ञान कर लेते थे। इसके बारे में भास्कराचार्य ने निर्दिष्ट किया है:-
वेदास्तावद यज्ञकर्मप्रवृता: यज्ञा प्रोक्तास्ते तु कालाश्रयेण,
शास्त्रादस्मात काबोधो यत: स्याद वेदांगत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्सात।
शब्दशास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषी श्रोत्रमुक्तं निरुक्तं कल्प: करौ,
या तु शिक्षा‍ऽस्य वेदस्य नासिका पादपद्मद्वयं छन्दं आद्यैर्बुधै:॥
वेदचक्षु: किलेदं स्मृतं ज्यौतिषं मुख्यता चान्गमध्येऽस्य तेनोच्यते,
संयुतोऽपीतरै: कर्णनासादिभिश्चक्षुषाऽगेंन हीनो न किंचित कर:।
तस्मात द्विजैर्ध्ययनीयमेतत पुंण्यं रहस्यं परमंच तत्वम,
यो ज्योतिषां वेत्ति नर: स सम्यक धर्मार्थकामान लभते यशश्च॥

उक्त श्लोक का आशय इस प्रकार है:-
समग्र वेदों का तात्पर्य यज्ञ कर्मो से है,यज्ञों का सम्पादन शुभ समयों के आधीन होता है। अतएव शुभ समय या अशुभ समय का बोध ज्योतिष शास्त्र द्वारा ही होने से ज्योतिष शास्त्र का नाम वेदांग ज्योतिष कहा जाता है। वेद रूप पुरुष के मुख्य छ: अंगों में व्याकरणशास्त्र वेद का मुख ज्योतिष शास्त्र दोनो नेत्र निरुक्त दोनो कान कल्प शास्त्र दोनो हाथ शिक्षा शास्त्र वेद की नासिका और छन्द शास्त्र वेद पुरुष के दोनो पैर कहे गये हैं।
पर पुरुष रूप वेद का ज्योतिष शास्त्र नेत्र स्थानीय होने से ज्योतिष शास्त्र ही वेद का मुख्य अंग हो जाता है।
हाथ पैर कान आदि समाचीन इन्दिर्यों की स्थिति के बावजूद नेत्र स्थानीय ज्योतिष शास्त्र की अनभिज्ञता किसी की नही होती अतएव सर्वशास्त्रों के अध्ययन की सत्ता होती हुयी भी ज्योतिष शास्त्र ज्ञान की परिपक्वता से वेदोक्त धर्म कर्म नीति भूत भविष्यादि ज्ञान पूर्वक धर्म अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार उपरोक्त श्लोक से वेद एवं ज्योतिष शास्त्र का निकटतम सम्बन्ध स्वत: सिद्द है। ग्रह नक्षत्रों के परिज्ञान से काल का उद्बोधन करने वाला शास्त्र ज्योतिष शास्त्र ही है। प्रन्तु उस उद्बोधन के साथ आकाशीय चमत्कार को देखने के लिये गणित ज्योतिष के तीन भेद किये गये हैं।
१. सिद्धान्त गणित
२. तंत्र गणित
३. करण गणित

१.सिद्धान्त गणितजिस गणित के द्वारा कल्प से लेकर आधुनैक काल तक के किसी भी इष्ट दिन के खगोलीय स्थितिवश गत वर्ष मास दिन आदि सौर सावन चान्द्रभान को ज्ञात कर सौर सावन अहर्गण बनाकर मध्यमादि ग्रह स्पष्टान्त कर्म किये जाते है,उसे सिद्धान्त गणित कहा जाता है।
२. तंत्र गणितजिस तंत्र द्वारा वर्तमान युगादि वर्षों को जानकर अभीष्ट दिन तक अहर्गण या दिन समूहों के ज्ञान के मध्यमादि ग्रह गत्यादि चमत्कार देखा जाता है,उसे तंत्र गणित कहा जाता है।
३. करण गणितवर्तमान शक के बीच में अभीष्ट दिनों को जानकर अर्थात किसी दिन वेध यंत्रों के द्वारा ग्रह स्थिति देख कर और स्थूल रूप से यह ग्रह स्थिति गणित से कब होगी,ऐसा विचार कर तथा ग्रहों के स्पष्ट वश सूर्य ग्रहण आदि का विचार जिस गणित से होता है,उसे करण गणित कहते हैं।
तंत्र तथा करण ग्रन्थों का निर्माण वेदों से हजारों वर्षों के उपरान्त हुआ,अत: इस पर विचार न करके वेदों में सिद्धान्त गणित सम्बन्धी बीजों का अन्वेषण आवश्यक होगा।
वेदों में सूर्य के आकर्षण बल पर आकाश में नक्षत्रों की स्थिति का वर्णण मिलता है।
“तिस्त्रो द्याव: सवितर्द्वा उपस्थां एका यमस्य भुवने विराषाट,अणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत॥
(सूर्य ही दिन और रात का कारण होता है) (ऋ.म.१.सू.३५.म-६)
आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेश्यन्नमृतं मर्त्य च हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन.
(सूर्य के आकर्षण पर ही पृथ्वी अपने अक्ष पर स्थिर है) (य.वे.अ.३३ म.४३)
भारतीय आचार्यों का आकर्षण सिद्धान्त का सम्यक ज्ञान था:-
सविता: यन्त्रै: पृथ्वीमरम्णाद्सक्म्भने सविता द्यामदृहत अश्वमिवाधुक्षदधुनिमन्तरिक्षमतूर्ते वद्धं सविता अमुद्रम” (ऋ.म.१० सू.१४९ म.१)
चन्द्रमा के विषय मे भी वेदों में पर्याप्त जानकारी मिलती है। चन्द्रमा स्वत: प्रकाशवान नही है। इस सिद्धान्त की पुष्टि वेद मंत्रों में ही है जैसे:-
अत्राह गोर्मन्वतनाम त्वष्टुरपीच्यम इत्था चन्द्रमसो ग्रहे (ऋ.,म.१.सू.८४ म.१५)
चन्द्रमा आकाश मे गतिशील है,यह नित्यप्रति दौडता है,चन्द्रिका के साथ जो निम्न मंत्र से व्यक्त हो रहा है:-
चन्द्रमा अप्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि,न वो हिरण्यनेमय: पदं विदन्ति विद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी (ऋ.म.१.सू.१०५म.१)
चन्द्रमा का नाम पंचदश भी है,जो पन्द्रह दिन में क्षीण और पन्द्रह दिन में पूर्ण होता है,जो निम्न मंत्र में व्यक्त हो रहा है:-
चन्द्रमा वै पंचदश: एष हि पंचद्श्यामपक्षीयते,पंचदश्यामापूर्यते॥ (तैतरीय ब्राह्मण १.५.१०)
वेदों में महिनों की चर्चा भी है,अधिमास के संदर्भ में ऋकसंहिता की ऋचा विचारणीय है:-
वेदमासो धृतव्रतो द्वादश प्रयावत:॥ वेदा य उपजायते। (ऋ.स.१.२५.८.)
तैत्तरीय संहिता में ऋतुओं एवं मासों के नाम बताये गये है,जैसे :-
बसंत ऋतु के दो मास- मधु माधव,
ग्रीष्म ऋतु के शुक्र-शुचि,
वर्षा के नभ और नभस्य,
शरद के इष ऊर्ज,
हेमन्त के सह सहस्य और
शिशिर ऋतु के दो माह तपस और तपस्य बताये गये हैं।
बाजसनेही संहिता में पूर्वोक्त बारह महिनों के अतिरिक्त १३ वें मास का नाम अहंस्पति बताया गया है:-
मधवे स्वाहा माधवाय स्वाहा शुक्राय स्वाहा शुचये स्वाहा नभसे स्वाहा नभस्याय स्वाहेस्वाय स्वाहोर्जाय स्वाहा सहसे स्वाहा तपसे स्वाहा तपस्याय स्वाहांहस्पतये स्वाहा॥ (वा.सं.२२.३१)
तैत्तरीय ब्राह्मण में १३ मासों के नाम इस प्रकार हैं:-
अरुणोरुण्जा: पुण्डरीको विश्वजितभिजित। आर्द्र: पिन्वमानोन्नवान रसवाजिरावान। सर्वौषध: संभरो महस्वान॥ (तैत्तरीय.ब्रा.३.१०.१)
१. अरुण
२. अरुणरज
३. पुण्डरीक
४. विश्वजित
५. अभिजित
६.आर्द्र
७.पिन्वमान
८.उन्नवान
९.रसवान
१०.इरावान
११.सर्वौषध
१२.संभर
१३.सहस्वान

ऋग्वेद में ९४ अवयव कहे गये है:-
चतुर्भि: साकं नवति च नामभिश्चक्रं न वृतं व्यतीखींविपत। बृहच्छरीरो विमिमान ऋक्कभियुर्वाकुमार: प्रत्येत्याहवम॥ (ऋ.म.१.सू.१५५.म.६.)
उक्त मंत्र में गति विशेष द्वारा विविध स्वभाव शाली काल के ९४ अंशों को चक्र की तरह वृत्ताकार कहा गया है। उक्त कालावयवों में १ सम्वतसर २ अयन ५ ऋतुयें १२ माह २४ पक्ष ३० अहोरात्र ८ पहर और १२ आरा मानी गयी हैं। ऋतुओं में हिमन्त और शिशिर एक ऋतु मानी गयी है। इस प्रकार ९४ कलावयवों की गणना की गयी है।
ऋग्वेद में रशियों की गणना निम्न मंत्र से की गयी है:-
“द्वादशारं नहि तज्जराय बर्वर्तिचक्रं परिद्यामृतस्य। आपुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्तशतानि विंशतिश्च तस्थु:॥” (ऋ.म.सू.१६५म.१६)
सत्यामक आदित्य का १२ अरों (माह) सयुंक्त चक्र स्वर्ग के चारों ओर बारह भ्रमण करता है। जो कभी पुराना नही होता है,इस चक्र में पुत्र स्वरूप ७२० (३६० दिन,३६० रात) निवास करते हैं।
ज्योतिष में वर्ष को उत्तरायण एव दक्षिणायन दो विभागों में विभाजित किया गया है,उत्तरायण का अर्थ है बिन्दु से सूर्य का उत्तर दिशा की ओर जाना तथा दक्षिणायन से तात्पर्य है सूर्य का सूर्योदय बिन्दु से दक्षिण की ओर चलना। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार:-
“बसंतो ग्रीष्मो वर्षा:। ते देवा ऋतव: शरद्धेमतं शिशिरस्ते पितरौ………स (सूर्य:) यत्रो तगार्वतते देवेषु र्तहि भवति………यत्र दक्षिणावर्तते पितृषु र्तहि भवति॥
उक्त मंत्र के अनुसार बसंत ग्रीष्म वर्षा ये देव ऋतुयें है,शरद हेमन्त और शिशिर यह पितर ऋतुयें हैं। जब सूर्य उत्तरायण मे रहता है तो ऋतुये देवों में गिनी जाती है। तैत्तरीय उपनिषद में वर्णन है कि सूर्य ६ माह उत्तरायण और ६ माह दक्षिणायन में रहता है:-
“तस्मादादित्य: षण्मासो दक्षिणेनैति षडुत्तरेण”. (तै.स.६.५.३)
वैदिक काल में महिनो के नाम मधु और माधव से ही चलते थे,परन्तु कालान्तर में इनके नाम मिट गये और तारों के नाम पर नवीन नाम प्रचलित हो गये। हमारे ऋषियों ने इस बात को स्वीकार नही किया कि ऋतुओं एवं महिनो में सम्बन्ध ना रहे,उन्होने तारों के नाम से महिना बनाना शुरु कर दिया,तैत्तरीय ब्राह्मण मे एक स्थान पर यह स्पष्ट होता है,कि तारों का वेध मास निर्धारण के लिये आरम्भ हो गया था।
वैदिक काल में नक्षत्र केवल चमकीले तारे या सुगमता से पहचाने जाने वाले छोटे तारे के पुंज थे,परन्तु आकाश में इनकी बराबर दूरी न होना एवं तारों का पुंज न रहने से बडी असुविधा रही होगी। इसके अतिरिक्त चन्द्रमा की जटिल गति भी कठिनाई से ज्ञात हुयी होगी। पूर्णिमा के के होने की सही स्थिति का भान न होना भी एक कठिनाई रही होगी। चन्द्रमा का मार्ग आकाश में स्थिर न होना भी एक कठिनाई थी। एक ही तारे को कभी समीप और कभी पास रहने से भी तारों को देखकर माह बनाने में कठिनाई रही होगी। परन्तु यह सभी बातें कालान्तर में स्पष्ट हो गयी होंगी। चन्द्रमा का समीप होना और तारों का दूर होना भी एक कठिनाई रही होगी। सभी कठिनाइयों के कारण ही स्पष्ट हो गया कि तैत्तरीय-ब्राह्मण तक चन्द्रमा का नियमित वेध प्रारम्भ हो गया था।
वेद संहिता ब्राह्मण किसी मे भी महिनों के चैत्र बैसाख आदि नाम नही हैं। ये नाम वेदांग ज्योतिष में जो १२०० ईशा से पूर्व का ग्रंथ है। इस प्रकार यह अनुमान किया जा सकता है कि नवीन मासों के नाम २००० ईशा पूर्व से परिवर्तन में आये होंगे।
प्राचीन काल में सप्ताह का कोई महत्व नही था। सप्ताह के दिनों के नाम का उल्लेख वेद संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में नही है। उस समय पक्ष एवं उनके उपविभाग ही चलते थे।
वैदिक काल में संवत शब्द वर्ष का वाचक था। संवत्सर इद्वत्सर इत्यादि ये संवत्सर के पर्यायवाची शब्द हैं। इसी आधार पर से सूर्य सिद्धांतकार ने काल गणना से प्रसिद्ध नौ विभागों का उल्लेख किया है:-
“ब्राह्मं दिव्यं तथा पित्र्यं प्राजापत्यंच गौरवम। सौरं च सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव॥”
इस प्रकार अवान्तर के ज्योतिषकाल में वर्षों के नौ भेद कहे गये हैं। जैसे-
१. ब्राह्मवर्ष
२. दिव्यवर्ष
३. पितृवर्ष
४. प्रजापत्यवर्ष
५. गौरववर्ष
६. सौरवर्ष
७. सावनवर्ष
८. चान्द्रवर्ष
९. नाक्षत्रवर्ष

इस प्रकार सिद्धान्त ज्योतिषकाल में शुद्धगणित ज्योतिष विकासोन्मुख हो गया था। वैदिक काल में आज के अर्थ में तिथि का प्रयोग नही होता था। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार जहां चन्द्रमा अस्त होता है और उदय होता है वह तिथि है। इसका मतलब है कि तिथि का अर्थ कुछ और ही है,कालान्तर में तिथि का यह अर्थ हुआ कि जितने में सूर्य का सापेक्ष में चन्द्रमा १२ अंशों आगे चलता है,वही तिथि है। सामविधान ब्राह्मण (२/६,२/७/३/३) मे कृष्ण चतुर्दशी कृष्ण पंचमी शुक्ल चतुर्दशी आदि शब्द आये हैं। क्षय तिथियों का वैदिक काल में उल्लेख नही प्राप्त होता है,शंकर बालकृष्ण दीक्षित मानते है कि प्रतिपदा एवं द्वितीया से तात्पर्य इस काल में पहली दूसरी रातों के लिये प्रयुक्त होता था। कालान्तर मे इनका नाम बदल गया होगा और जो वर्तमान में प्रयुक्त होता है वह हो गया होगा। वैदिक काल में दिन को चार भागों में विभाजित करने की प्रथा थी। पूर्वाह्न मध्याह्न अपराह्न सायाह्न ये नाम थे। दिनों को पन्द्रह भागों को बांट कर उनमे से एक को मुहूर्त कहा जाता था। परन्तु अब मुहूर्त का अर्थ बदला हुआ है,और वह भी फ़लित संयोग के कारण। तैत्तरीय ब्राह्मण (३.११.१) में एक ही जगह पर सूर्य चन्द्रमा नक्षत्र संवत्सर ऋतु मास अर्धमास अहोरात्र आदि शब्द प्रयुक्त हुये है।
उक्त जानकारी के अलावा यहाँ आपको बताना चाहूँगा की '' भारतीय ज्योतिष क्स्क्स गोल-विज्ञानम '' अगले ब्लॉग पोस्ट में देखने न भूले -----
चौबे महाराज

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

मित्रों अब सब्र का बाँध फूट गया है नौजवानों को सामने आना ही होगाभ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का अनशन शुरू
आखिरकार देश में फैले भ्रष्टाचार पर काबू पाने की लालसा लिए अन्ना हजारे को जंतर मंतर पर आमरण अनशन पर बैठना ही पड़ा । उनके साथ कई सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं | अनशन पर बैठने से पहले अन्ना हजारे सुबह राजघाट पर गांधी जी को नमन करने के बाद भ्रष्टाचार को जड़ से खात्मा करने का कठोर-संकल्प कि ''जबतक शरीर में प्राण रहेगा तबतक आमरण अनशन चलता रहेगा''| इधर मनमोहन सिंह ने कहा कि '' अन्ना हजारे को एक बार पुनर्विचार करना चाहिए '' यह कह कर अनशन न करने की सलाह भी दे रहे हैं। लेकिन कट्टर गांधीवादी अन्ना हजारे अपनी बात पर सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ भ्रष्टाचार के विरोध में अपने कई सहयोगियों के साथ जंतर-मंतर पर आमरण अनशन पर बैठ गए हैं। अन्ना हजारे चाहते हैं कि सरकार लोकपाल बिल तुरंत लाए, लोकपाल की सिफारिशें अनिवार्य तौर पर लागू हों और लोकपाल को जजों, सांसदों, विधायकों आदि पर भी मुकदमा चलाने का अधिकार हो। लेकिन सरकार इन खास मुद्दों बहस और चर्चा की जरूरत मान रही है, पत्रकारों से बातचीत में हजारे ने आमरण अनशन पर बैठने की घोषणा की थी। उन्होंने कहा था, 'चूंकि प्रधानमंत्री ने लोकपाल बिल का स्वरूप तय करने के लिए नागरिक समाज के लोगों के साथ एक संयुक्त समिति गठित किए जाने की मांग को अस्वीकार कर दिया है, इसलिए पूर्व में की गई घोषणा के अनुसार मैं आमरण अनशन पर बैठूंगा। यदि इस दौरान मेरी जिंदगी भी कुर्बान हो जाए तो मुझे इसका अफसोस नहीं होगा। मेरा जीवन राष्ट्र को समर्पित है।'
हजारे मंगलवार सुबह नौ बजे राजघाट गए और उसके बाद उन्होंने इंडिया गेट से जंतर-मंतर का रुख किया। जंतर-मंतर पर उन्होंने अपना उपवास शुरू किया।
अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव, स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल आदि ने दिसंबर में प्राइम मिनिस्टर को पत्र लिखा था। पिछले महीने हजारे अपने साथियों के साथ पीएम, कानून मंत्री और कई बड़े अफसरों से मिले भी थे। पीएम ने उन्हें लोकपाल बिल पर समुचित कदम उठाने का भरोसा दिया था। एक कमेटी बनाने की बात भी की थी।
हजारे चाहते हैं कि उन्होंने लोकपाल बिल का जो ड्राफ्ट सरकार को दिया है, उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया जाए। लेकिन कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े, वकील प्रशांत भूषण और एक्टिविस्ट अरविंद केजरीवाल द्वारा तैयार इस ड्राफ्ट को मानने से पहले सरकार इस पर विचार-विमर्श करना चाहती है।
मित्रों अब सब्र का बाँध फूट गया है नौजवानों को सामने आना ही होगा। वगैर क्रान्ति का यह मशला हल नहीं होगा।-ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे महाराज (सम्पादक) ज्योतिष का सूर्य , हिन्दी मासिक पत्रिका भिलाई (छ.ग.)

रविवार, 3 अप्रैल 2011

13 अप्रैल 2036,क्षुद्र ग्रह के टकराने से तबाह हो सकती है धरती

करीब 40 हजार किमी प्रति घंटे की रफ्तार से आ रही उल्का के 13 अप्रैल 2036 को पृथ्वी से टकराने की आशंका रूसी वैज्ञानिकों ने जताई है।वैज्ञानिकों की माने तो 40,000 मील प्रति घंटा की रफ्तार से आ रहे विशालकाय क्षुद्र ग्रह के टकराने से धरती तबाह हो सकती है। करीब ढाई सौ मीटर चौड़ी यह उल्का 2029 में पृथ्वी के करीब से गुजरेगी। इसे चेतावनी का समय माना जा रहा है, जब यह पता चलेगा कि उल्का का रुख क्या होगा।
वैज्ञानिकों के अनुसार धरती के काफी निकट स्थित 275 मीटर चौड़ा क्षुद्रग्रह धरती के काफी शक्तिशाली गुरूत्वीय केंद्र की होल से अप्रैल 2029 में गुजरेगा और सात साल बाद लगभग 13 अप्रैल 2036 को यह धरती से टकरायेगा।
उल्का ‘एपोफिस’ के बारे में कहा जा रहा है कि वह अप्रैल 2029 में पृथ्वी के नजदीक से गुजरेगी। यदि उस पर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का असर हो गया, तो उल्का सात साल बाद वापस लौटकर पृथ्वी से टकरा सकती है। वैज्ञानिक इसे ‘की-होल’ असर बता रहे हैं। हालांकि, नासा ने इसके टकराने की संभावना ढाई लाख बार में एक बताई है।
गौरतलब है कि धरती के गुरूत्वाकषर्ण के काफी शक्तिशाली होने के कारण जब यह क्षुद्र ग्रह इसके काफी निकट से गुजरेगा तो इस बल की वजह से यह क्षुद्रग्रह अपने रास्ते से विचलित हो जायेगा।
नासा के नीयर अर्थ आब्जेक्ट प्रोग्राम कार्यालय के निदेशक डोनाल्ड योमांस ने बताया कि धरती के गुरूत्वाकर्षण की वजह से यह क्षुद्र अपने रास्ते से विचलित होगा और इस बात की संभावना बनती है कि यह धरती से टकरा जाये।
डेली मेल ने डोनाल्ड के हवाले से बताया कि यह स्थिति 13 अप्रैल 2029 को हो सकती है। क्षुद्र ग्रह के धरती के काफी निकट होने के कारण ऐसा हो सकता है लेकिन हमनें इस समय धरती के टकराने संबंधी संभावनाओं को पूरी तरह खारिज कर दिया है।
उन्होंने बताया कि अगर यह धरती के काफी करीब यानी की होल के पास से गुजरता है तो यह अपने रास्ते से विचलित होगा और 13 अप्रैल 2036 को सीधा धरती से आ टकरायेगा।
नासा वैज्ञानिक ने कहा कि यह टक्कर वैसी नहीं होगी जिस तरह 2036 में क्षुद्र ग्रह के टकराने की भविष्यवाणी रूस के वैज्ञानिक कर रहे है।
गौरतलब है कि सेंट पीटसबर्ग सरकारी विविद्यालय के प्रोफेसर लियोनिड सोकोलोव पहले ही भविष्यवाणी कर चुके है कि 3,7000 से 3,8000 किलोमीटर की रफ्तार से चल रहा क्षुद्र ग्रह 13 अप्रैल 2029 को धरती से टकरा सकता है।
प्रोफेसर सोकोलोव ने कहा कि यह संभव है कि 13 अप्रैल 2036 को धरती से यह क्षुद्र ग्रह टकरा जाये। हमारा काम इसके विकल्पों पर विचार करना है और इस क्षुद्र ग्रह में भविष्य में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर वैसी स्थिति का निर्माण करना है।
रूसी वैज्ञानिकों ने उल्का के टकराने की स्थिति से बचने के लिए 14 महीने पहले एक ऑपरेशन शुरू किया है। इसमें उल्का को उसके रास्ते से भटकाना शामिल है। नासा ने भी उल्का को रास्ते से हटाने के लिए अभियान शुरू किया है। ऐसा मानवरहित अंतरिक्ष यान को उल्का से टकराकर किया जा सकता है। इस विकल्प पर प्रयोग के लिए पिछले सप्ताह नासा ने प्रशांत महासागर के करीब 50 हजार किमी ऊपर उल्का ‘2011सीक्यू1’ को यान से टकराकर नष्ट किया।

13 अप्रैल 2036,क्षुद्र ग्रह के टकराने से तबाह हो सकती है धरती

करीब 40 हजार किमी प्रति घंटे की रफ्तार से आ रही उल्का के 13 अप्रैल 2036 को पृथ्वी से टकराने की आशंका रूसी वैज्ञानिकों ने जताई है।वैज्ञानिकों की माने तो 40,000 मील प्रति घंटा की रफ्तार से आ रहे विशालकाय क्षुद्र ग्रह के टकराने से धरती तबाह हो सकती है। करीब ढाई सौ मीटर चौड़ी यह उल्का 2029 में पृथ्वी के करीब से गुजरेगी। इसे चेतावनी का समय माना जा रहा है, जब यह पता चलेगा कि उल्का का रुख क्या होगा।
वैज्ञानिकों के अनुसार धरती के काफी निकट स्थित 275 मीटर चौड़ा क्षुद्रग्रह धरती के काफी शक्तिशाली गुरूत्वीय केंद्र की होल से अप्रैल 2029 में गुजरेगा और सात साल बाद लगभग 13 अप्रैल 2036 को यह धरती से टकरायेगा।
उल्का ‘एपोफिस’ के बारे में कहा जा रहा है कि वह अप्रैल 2029 में पृथ्वी के नजदीक से गुजरेगी। यदि उस पर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का असर हो गया, तो उल्का सात साल बाद वापस लौटकर पृथ्वी से टकरा सकती है। वैज्ञानिक इसे ‘की-होल’ असर बता रहे हैं। हालांकि, नासा ने इसके टकराने की संभावना ढाई लाख बार में एक बताई है।
गौरतलब है कि धरती के गुरूत्वाकषर्ण के काफी शक्तिशाली होने के कारण जब यह क्षुद्र ग्रह इसके काफी निकट से गुजरेगा तो इस बल की वजह से यह क्षुद्रग्रह अपने रास्ते से विचलित हो जायेगा।
नासा के नीयर अर्थ आब्जेक्ट प्रोग्राम कार्यालय के निदेशक डोनाल्ड योमांस ने बताया कि धरती के गुरूत्वाकर्षण की वजह से यह क्षुद्र अपने रास्ते से विचलित होगा और इस बात की संभावना बनती है कि यह धरती से टकरा जाये।
डेली मेल ने डोनाल्ड के हवाले से बताया कि यह स्थिति 13 अप्रैल 2029 को हो सकती है। क्षुद्र ग्रह के धरती के काफी निकट होने के कारण ऐसा हो सकता है लेकिन हमनें इस समय धरती के टकराने संबंधी संभावनाओं को पूरी तरह खारिज कर दिया है।
उन्होंने बताया कि अगर यह धरती के काफी करीब यानी की होल के पास से गुजरता है तो यह अपने रास्ते से विचलित होगा और 13 अप्रैल 2036 को सीधा धरती से आ टकरायेगा।
नासा वैज्ञानिक ने कहा कि यह टक्कर वैसी नहीं होगी जिस तरह 2036 में क्षुद्र ग्रह के टकराने की भविष्यवाणी रूस के वैज्ञानिक कर रहे है।
गौरतलब है कि सेंट पीटसबर्ग सरकारी विविद्यालय के प्रोफेसर लियोनिड सोकोलोव पहले ही भविष्यवाणी कर चुके है कि 3,7000 से 3,8000 किलोमीटर की रफ्तार से चल रहा क्षुद्र ग्रह 13 अप्रैल 2029 को धरती से टकरा सकता है।
प्रोफेसर सोकोलोव ने कहा कि यह संभव है कि 13 अप्रैल 2036 को धरती से यह क्षुद्र ग्रह टकरा जाये। हमारा काम इसके विकल्पों पर विचार करना है और इस क्षुद्र ग्रह में भविष्य में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर वैसी स्थिति का निर्माण करना है।
रूसी वैज्ञानिकों ने उल्का के टकराने की स्थिति से बचने के लिए 14 महीने पहले एक ऑपरेशन शुरू किया है। इसमें उल्का को उसके रास्ते से भटकाना शामिल है। नासा ने भी उल्का को रास्ते से हटाने के लिए अभियान शुरू किया है। ऐसा मानवरहित अंतरिक्ष यान को उल्का से टकराकर किया जा सकता है। इस विकल्प पर प्रयोग के लिए पिछले सप्ताह नासा ने प्रशांत महासागर के करीब 50 हजार किमी ऊपर उल्का ‘2011सीक्यू1’ को यान से टकराकर नष्ट किया।

13 अप्रैल 2036,क्षुद्र ग्रह के टकराने से तबाह हो सकती है धरती

करीब 40 हजार किमी प्रति घंटे की रफ्तार से आ रही उल्का के 13 अप्रैल 2036 को पृथ्वी से टकराने की आशंका रूसी वैज्ञानिकों ने जताई है।वैज्ञानिकों की माने तो 40,000 मील प्रति घंटा की रफ्तार से आ रहे विशालकाय क्षुद्र ग्रह के टकराने से धरती तबाह हो सकती है। करीब ढाई सौ मीटर चौड़ी यह उल्का 2029 में पृथ्वी के करीब से गुजरेगी। इसे चेतावनी का समय माना जा रहा है, जब यह पता चलेगा कि उल्का का रुख क्या होगा।
वैज्ञानिकों के अनुसार धरती के काफी निकट स्थित 275 मीटर चौड़ा क्षुद्रग्रह धरती के काफी शक्तिशाली गुरूत्वीय केंद्र की होल से अप्रैल 2029 में गुजरेगा और सात साल बाद लगभग 13 अप्रैल 2036 को यह धरती से टकरायेगा।
उल्का ‘एपोफिस’ के बारे में कहा जा रहा है कि वह अप्रैल 2029 में पृथ्वी के नजदीक से गुजरेगी। यदि उस पर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का असर हो गया, तो उल्का सात साल बाद वापस लौटकर पृथ्वी से टकरा सकती है। वैज्ञानिक इसे ‘की-होल’ असर बता रहे हैं। हालांकि, नासा ने इसके टकराने की संभावना ढाई लाख बार में एक बताई है।
गौरतलब है कि धरती के गुरूत्वाकषर्ण के काफी शक्तिशाली होने के कारण जब यह क्षुद्र ग्रह इसके काफी निकट से गुजरेगा तो इस बल की वजह से यह क्षुद्रग्रह अपने रास्ते से विचलित हो जायेगा।
नासा के नीयर अर्थ आब्जेक्ट प्रोग्राम कार्यालय के निदेशक डोनाल्ड योमांस ने बताया कि धरती के गुरूत्वाकर्षण की वजह से यह क्षुद्र अपने रास्ते से विचलित होगा और इस बात की संभावना बनती है कि यह धरती से टकरा जाये।
डेली मेल ने डोनाल्ड के हवाले से बताया कि यह स्थिति 13 अप्रैल 2029 को हो सकती है। क्षुद्र ग्रह के धरती के काफी निकट होने के कारण ऐसा हो सकता है लेकिन हमनें इस समय धरती के टकराने संबंधी संभावनाओं को पूरी तरह खारिज कर दिया है।
उन्होंने बताया कि अगर यह धरती के काफी करीब यानी की होल के पास से गुजरता है तो यह अपने रास्ते से विचलित होगा और 13 अप्रैल 2036 को सीधा धरती से आ टकरायेगा।
नासा वैज्ञानिक ने कहा कि यह टक्कर वैसी नहीं होगी जिस तरह 2036 में क्षुद्र ग्रह के टकराने की भविष्यवाणी रूस के वैज्ञानिक कर रहे है।
गौरतलब है कि सेंट पीटसबर्ग सरकारी विविद्यालय के प्रोफेसर लियोनिड सोकोलोव पहले ही भविष्यवाणी कर चुके है कि 3,7000 से 3,8000 किलोमीटर की रफ्तार से चल रहा क्षुद्र ग्रह 13 अप्रैल 2029 को धरती से टकरा सकता है।
प्रोफेसर सोकोलोव ने कहा कि यह संभव है कि 13 अप्रैल 2036 को धरती से यह क्षुद्र ग्रह टकरा जाये। हमारा काम इसके विकल्पों पर विचार करना है और इस क्षुद्र ग्रह में भविष्य में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर वैसी स्थिति का निर्माण करना है।
रूसी वैज्ञानिकों ने उल्का के टकराने की स्थिति से बचने के लिए 14 महीने पहले एक ऑपरेशन शुरू किया है। इसमें उल्का को उसके रास्ते से भटकाना शामिल है। नासा ने भी उल्का को रास्ते से हटाने के लिए अभियान शुरू किया है। ऐसा मानवरहित अंतरिक्ष यान को उल्का से टकराकर किया जा सकता है। इस विकल्प पर प्रयोग के लिए पिछले सप्ताह नासा ने प्रशांत महासागर के करीब 50 हजार किमी ऊपर उल्का ‘2011सीक्यू1’ को यान से टकराकर नष्ट किया।
विश्व कप की भविष्यवाणी सत्य हुई लेकीन........
प्यारे मित्रों
मुझे बेहद ख़ुशी हो रही है की आज भारत ने विश्व कप जीत कर सारे दुनिया को अपने मुठी में कर लिया है यहाँ आप लोगों को बताना चाहूँगा की कभी भी तात्कालिक परिस्थितिओं को देख कर ''ज्योतिषीय '' भविष्यवाणी नहीं किया जाता , बल्कि गृह-गोचरीय गणना का आधार बनाकर ही आतिसंवेदंशील घटनाओं पर भविष्यवाणी सटीक एवं सत्य होतीं है।
मैने यत्किंचित ज्योतिषियों को देखा है कि वर्तमान की अवस्था को आधार बनाकर बड़बोलेपन की भाषा में भविष्य वाणी कर देते हैं वे लोग स्वयं तो बदनाम होते ही हैं साथ-साथ ज्योतिष विषय को भी कलंकीत करते हैं। ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा उनकी है जो कभी गुरू परम्परा अथवा अधिकृत यूनिवर्सिटी के द्वारा प्राधिकृत ज्योतिष का वगैर  अध्ययन किये शार्ट-कट में किसी संस्थान को पैसा देकर डिग्री खरीद कर ज्योतिष की दुकानदारी चला रहे हैं,जो कि उनका केवल मात्र लक्ष्य रत्न और यंत्र बेचना मात्र है।
मैने प्राच्य भारतीय ज्योतिष का आधार पर जो भी भविष्यवाणीयां आजतक किया है वह सत्य हुयीं। (1) कच्छ-भुज की दैविय आपदा .(2) यू.पी.ए-2 का विजय (3) बिहार विधान सभा चुनाव (4) छत्तीसगढ़ का विधान सभा चुनाव। सहीत देश - विदेश के घटना क्रमों के साथ - साथ अभी बेहद रोमांचक मोहाली में भारत-पाक सेमिफाईनल क्रिकेट मैच एवं फाईनल विश्व कप में भारत का विजय लेकिन टॉस में श्रीलंका  का विजय जो दिनांक 2-4-2011 के  दैनिक नवभारत (दुर्ग-भिलाई) आडिशन के पेज नं. 1 (शेष भाग 2 पृष्ठ ) पर देखा जा सकता है। भारत-पाक मैच का अभी-तक (न्यूज चेनल)  पर 29-3-2011, को प्रसारण किया गया था।
मै आप लोगों अपने मुह मिया मिठ्ठु बनने का प्रयास नहीं कर रहा हुँ बल्की कथित ज्योतिषियों को यह संदेश देना चाहता हुँ कि कृपया वे लोग ज्योतिष की आड़ में रत्नों एवं भाग्यशाली यंत्रो का कारोबार करें लेकीन ज्योतिष को बदनाम न करें ।
हमारी बात किसी को शूल के समान लगा हो तो कृपया हमें छमा करने का कष्ट करें -
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे महाराज(सम्पादक)
ज्योतिष का सूर्य (हिन्दी मासिक पत्रिका),भिलाई (छ.ग.)

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

खगोल विज्ञान-१ : न्यूटन से पहले भास्कराचार्य ने बताया था गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त


खगोल विज्ञान को वेद का नेत्र कहा गया, क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टियों में होने वाले व्यवहार का निर्धारण काल से होता है और काल का ज्ञान ग्रहीय गति से होता है। अत: प्राचीन काल से खगोल विज्ञान वेदांग का हिस्सा रहा है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राहृण आदि ग्रथों में नक्षत्र, चान्द्रमास, सौरमास, मल मास, ऋतु परिवर्तन, उत्तरायन, दक्षिणायन, आकाशचक्र, सूर्य की महिमा, कल्प का माप आदि के संदर्भ में अनेक उद्धरण मिलते हैं। इस हेतु ऋषि प्रत्यक्ष अवलोकन करते थे। कहते हैं, ऋषि दीर्घतमस् सूर्य का अध्ययन करने में ही अंधे हुए, ऋषि गृत्स्मद ने चन्द्रमा के गर्भ पर होने वाले परिणामों के बारे में बताया। यजुर्वेद के 18वें अध्याय के चालीसवें मंत्र में यह बताया गया है कि सूर्य किरणों के कारण चन्द्रमा प्रकाशमान है।

यंत्रों का उपयोग कर खगोल का निरीक्षण करने की पद्धति रही है। आर्यभट्ट के समय आज से 1500 से अधिक वर्ष पूर्व पाटलीपुत्र में वेधशाला (Observatory) थी, जिसका प्रयोग कर आर्यभट्ट ने कई निष्कर्ष निकाले।

भास्कराचार्य सिद्धान्त शिरोमणि ग्रंथ के यंत्राध्याय प्रकरण में कहते हैं, "काल" के सूक्ष्म खण्डों का ज्ञान यंत्रों के बिना संभव नहीं है। इसलिए अब मैं यंत्रों के बारे में कहता हूं। वे नाड़ीवलय यंत्र, यष्टि यंत्र, घटी यंत्र, चक्र यंत्र, शंकु यंत्र, चाप, तुर्य, फलक आदि का वर्णन करते हैं।

प्रत्यक्ष निरीक्षण एवं अचूक ग्रहीय व कालगणना का 6000 वर्ष से अधिक पुराना इतिहास :-

श्री धर्मपाल ने "Indian Science and Technology in the Eighteenth Century" नामक पुस्तक लिखी है। उसमें प्रख्यात खगोलज्ञ जॉन प्लेफेयर का एक लेख "Remarks on the Astronomy of the brahmins" (1790 से प्रकाशित) दिया है। यह लेख सिद्ध करता है कि 6000 से अधिक वर्ष पूर्व में भारत में खगोल का ज्ञान था और यहां की गणनाएं दुनिया में प्रयुक्त होती थीं। उनके लेख का सार यह है कि सन् 1667 में एम.लॉ. लाबेट, जो स्याम के दूतावास में थे, जब वापस आये तो अपने साथ एक पंचांग लाए। दो पंचांग मिशनरियों ने भारत से भेजे, जो एक दक्षिण भारत से था और एक वाराणसी से। एक और पंचांग एम.डी. लिस्ले ने भेजा, जो दक्षिण भारत के नरसापुर से था। वह पंचांग जब उस समय के फ्रेंच गणितज्ञों की समझ में न आया तो उन्होंने वह जॉन प्लेफेयर के पास भेज दिया, जो उस समय रॉयल एस्ट्रोनोमर थे। उन्होंने जब एक और विचित्र बात प्लेफेयर के ध्यान में आई कि स्याम के पंचांग में दी गई यामोत्तर रेखा-दी मेरिडियन (आकाश में उच्च काल्पनिक बिन्दु से निकलती रेखा) 180-15"। पश्चिम में है और स्याम इस पर स्थित नहीं है। आश्चर्य कि यह बनारस के मेरिडियन से मिलती है। इसका अर्थ है कि स्याम के पंचांग का मूल हिन्दुस्तान है।

दूसरी बात वह लिखता है, "एक आश्चर्य की बात यह है कि सभी पंचांग एक संवत् का उल्लेख करते हैं, जिसे वे कलियुग का प्रारंभ मानते हैं। और कलियुग के प्रारंभ के दिन जो नक्षत्रों की स्थिति थी, उसका वर्णन अपने पंचांग में करते हैं तथा वहीं से काल की गणना करते हैं। उस समय ग्रहों की क्या स्थिति थी, यह बताते हैं। तो यह बड़ी विचित्र बात लगती है। क्योंकि कलियुग का प्रारंभ यानि ईसा से 3000 वर्ष पुरानी बात।
(1) ब्राहृणों ने गिनती की निर्दोष और अचूक पद्धति विकसित की होगी तथा ब्रह्मांड में दूर और पास के ग्रहों को आकर्षित करने के लिए कारणीभूत गुरुत्वाकर्षण के नियम से ब्राहृण परिचित थे।

(2) ब्राहृणों ने आकाश का निरीक्षण वैज्ञानिक ढंग से किया।


प्लेफेयर के निष्कर्ष
अंत में प्लेफेयर दो बातें कहते हैं-

(1) यह सिद्ध होता है कि भारत वर्ष में एस्ट्रोनॉमी ईसा से 3000 वर्ष पूर्व से थी तथा कलियुगारम्भ पर सूर्य और चन्द्र की वर्णित स्थिति वास्तविक निरीक्षण पर आधारित थी।

(2) एक तटस्थ विदेशी का यह विश्लेषण हमें आगे कुछ करने की प्रेरणा देता है।

श्री धर्मपाल ने अपनी इसी पुस्तक में लिखा है कि तत्कालीन बंगाल की ब्रिाटिश सेना के सेनापति, जो बाद में ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य बने, सर रॉबर्ट बारकर ने 1777 में लिखे एक लेख Bramins observatory at Banaras (बनारस की वेधशाला) पर प्रकाश डाला है। सन् 1772 में उन्होंने वेधशाला का निरीक्षण किया था। उस समय इसकी हालत खराब थी क्योंकि लंबे समय से उसका कोई उपयोग नहीं हुआ था। इसके बाद भी उस वेधशाला में जो यंत्र व साधन बचे थे , उनका श्री बारकर ने बारीकी से अध्ययन किया। उनके निरीक्षण में एक महत्वपूर्ण बात यह ध्यान में आई कि ये साधन लगभग 400 वर्ष पूर्व तैयार किए गए थे।
प्राचीन खगोल विज्ञान की कुछ झलकियां

(1) प्रकाश की गति :- क्या हमारे पूर्वजों को प्रकाश की गति का ज्ञान था? उपर्युक्त प्रश्न एक बार गुजरात के राज्यपाल रहे श्री के.के.शाह ने मैसूर विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्राध्यापक प्रो. एल. शिवय्या से पूछा। श्री शिवय्या संस्कृत और विज्ञान दोनों के जानकार थे। उन्होंने तुरंत उत्तर दिया, "हां जानते थे।" प्रमाण में उन्होंने बताया कि ऋग्वेद के प्रथम मंडल में दो ऋचाएं है-

मनो न योऽध्वन: सद्य एत्येक: सत्रा सूरो वस्व ईशे अर्थात् मन की तरह शीघ्रगामी जो सूर्य स्वर्गीय पथ पर अकेले जाते हैं। ( 1-71-9) ("तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिकृदसि सूर्य विश्वमाभासिरोचनम्" अर्थात् हे सूर्य, तुम तीव्रगामी एवं सर्वसुन्दर तथा प्रकाश के दाता और जगत् को प्रकाशित करने वाले हो। ( 1.50.9)
योजनानां सहस्रे द्वे द्वेशते द्वे च योजने।
एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते।।
अर्थात् आधे निमेष में 2202 योजन का मार्गक्रमण करने वाले प्रकाश तुम्हें नमस्कार है।

इसमें 1 योजन- 9 मील 160 गज
अर्थात् 1 योजन- 9.11 मील
1 दिन रात में- 810000 अर्ध निषेष
अत: 1 सेकेंड में - 9.41 अर्ध निमेष

इस प्रकार 2202 x 9.11- 20060.22 मील प्रति अर्ध निमेष तथा 20060.22 x 9.41- 188766.67 मील प्रति सेकण्ड। आधुनिक विज्ञान को मान्य प्रकाश गति के यह अत्यधिक निकट है।

(2) गुरुत्वाकर्षण: "पिताजी, यह पृथ्वी, जिस पर हम निवास करते हैं, किस पर टिकी हुई है?" लीलावती ने शताब्दियों पूर्व यह प्रश्न अपने पिता भास्कराचार्य से पूछा था। इसके उत्तर में भास्कराचार्य ने कहा, "बाले लीलावती, कुछ लोग जो यह कहते हैं कि यह पृथ्वी शेषनाग, कछुआ या हाथी या अन्य किसी वस्तु पर आधारित है तो वे गलत कहते हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि यह किसी वस्तु पर टिकी हुई है तो भी प्रश्न बना रहता है कि वह वस्तु किस पर टिकी हुई है और इस प्रकार कारण का कारण और फिर उसका कारण... यह क्रम चलता रहा, तो न्याय शास्त्र में इसे अनवस्था दोष कहते हैं।

लीलावती ने कहा फिर भी यह प्रश्न बना रहता है पिताजी कि पृथ्वी किस चीज पर टिकी है?

तब भास्कराचार्य ने कहा,क्यों हम यह नहीं मान सकते कि पृथ्वी किसी भी वस्तु पर आधारित नहीं है।..... यदि हम यह कहें कि पृथ्वी अपने ही बल से टिकी है और इसे धारणात्मिका शक्ति कह दें तो क्या दोष है?

इस पर लीलावती ने पूछा यह कैसे संभव है।
तब भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।4
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
सिद्धांत शिरोमणी गोलाध्याय-भुवनकोश (5)
आगे कहते हैं-
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति

समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।

सिद्धांत शिरोमणी गोलाध्याय-भुवनकोश- (6)

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियां संतुलन बनाए रखती हैं।

आजकल हम कहते हैं कि न्यूटन ने ही सर्वप्रथम गुरुत्वाकर्षण की खोज की, परन्तु उसके 550 वर्ष पूर्व भास्कराचार्य ने यह बता दिया था।
लीलावती अपने पिता से पूछती है कि पिताजी, मुझे तो पृथ्वी चारों ओर सपाट दिखाई देती है, फिर आप यह क्यों कहते हैं कि पृथ्वी गोल है।

तब भास्कराचार्य कहते हैं कि पुत्री, जो हम देखते हैं वह सदा वैसा ही सत्य नहीं होता। तुम एक बड़ा वृत्त खींचो, फिर उसकी परिधि के सौवें भाग को देखो, तुम्हें वह सीधी रेखा में दिखाई देगा। पर वास्तव में वह वैसी नहीं होता, वक्र होता है। इसी प्रकार विशाल पृथ्वी के गोले के छोटे भाग को हम देखते हैं, वह सपाट नजर आता है। वास्तव में पृथ्वी गोल है।
समो यत: स्यात्परिधे: शतांश:
पृथ्वी पृथ्वी नितरां तनीयान्

नरश्च तत्पृष्ठगतस्य कुत्स्ना

समेव तस्य प्रतिभात्यत: सा॥ १३
सिद्धांत शिरोमणी गोलाध्याय-भुवनकोश

पृथ्वी स्थिर नहीं है:-पश्चिम में १५वीं सदी में गैलीलियों के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है, परन्तु आज से १५०० वर्ष पहले हुए आर्यभट्ट, भूमि अपने अक्ष पर घूमती है, इसका विवरण निम्न प्रकार से देते हैं-
अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्
विलोमंग यद्वत्
अचलानि भानि तद्वत्सम
पश्चिमगानि लंकायाम्
आर्यभट्टीय गोलपाद-९

अर्थात्‌ नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।

इसी प्रकार पृथुदक्‌ स्वामी, जिन्होंने व्रह्मगुप्त के व्रह्मस्फुट सिद्धान्त पर भाष्य लिखा है, आर्यभट्ट की एक आर्या का उल्लेख किया है-

भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्‌॥


अर्थात्‌ तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।

अपने ग्रंथ आर्यभट्टीय में आर्यभट्ट ने दशगीतिका नामक प्रकरण में स्पष्ट लिखा-प्राणे नैतिकलांभू: अर्थात्‌ एक प्राण समय में पृथ्वी एक कला घूमती है (एक दिन में २१६०० प्राण होते हैं)

सूर्योदय-सूर्यास्त-भूमि गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांतर होने के कारण अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं। इसे आर्यभट्ट ने ज्ञात कर लिया था, वे लिखते हैं-
उदयो यो लंकायां सोस्तमय:
सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमक

विषयेऽर्धरात्र: स्यात्

(आर्यभट्टीय गोलपाद-१३)

अर्थात्‌ जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।

चंद्र-सूर्यग्रहण- आर्यभट्ट ने कहा कि राहु केतु के कारण नहीं अपितु पृथ्वी व चंद्र की छाया के कारण ग्रहण होता है।

अर्थात्‌ पृथ्वी की बड़ी छाया जब चन्द्रमा पर पड़ती है तो चन्द्र ग्रहण होता है। इसी प्रकार चन्द्र जब पृथ्वी और सूर्य के बीच आता है तो सूर्यग्रहण होता है।

विभिन्न ग्रहों की दूरी- आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है। आजकल पृथ्वी से सूर्य की दूरी (15 करोड़ किलोमीटर) है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है।
ग्रह आर्यभट्ट का मान वर्तमान मान
बुध०.३७५ एयू०.३८७ एयू
शुक्र०.७२५ एयू०.७२३ एयू
मंगल१.५३८ एयू१.५२३ एयू
गुरु५.१६ एयू५.२० एयू
शनि९.४१ एयू९.५४ एयू
व्रह्माण्ड का विस्तार- व्रह्माण्ड की विशालता का भी हमारे पूर्वजों ने अनुभव किया था। आजकल व्रह्माण्ड की विशालता मापने हेतु प्रकाश वर्ष की इकाई का प्रयोग होता है। प्रकाश एक सेकेंड में ३ लाख किलोमीटर की गति से भागता है। इस गति से भागते हुए एक वर्ष में जितनी दूरी प्रकाश तय करेगा उसे प्रकाश वर्ष कहा जाता है। इस पैमाने से आधुनिक विज्ञान बताता है कि हमारी आकाश गंगा, जिसे Milki way ‌ कहा जाता है, की लम्बाई एक लाख प्रकाश वर्ष है तथा चौड़ाई दस हजार प्रकाश वर्ष है।

इस आकाश गंगा के ऊपर स्थित एण्ड्रोला नामक आकाश गंगा इस आकाश गंगा से २० लाख २० हजार प्रकाश वर्ष दूर है और व्रह्माण्ड में ऐसी करोड़ों आकाश गंगाएं हैं।

श्रीमद्भागवत में राजा परीक्षित महामुनि शुकदेव से पूछते हैं, व्रह्माण्ड का व्याप क्या है? इसकी व्याख्या में शुकदेव व्रह्माण्ड के विस्तार का उल्लेख करते हैं- ‘हमारा जो व्रह्माण्ड है, उसे उससे दस गुने बड़े आवरण ने ढंका हुआ है। प्रत्येक ऊपर का आवरण दस गुना है और ऐसे सात आवरण मैं जानता हूं। इन सबके सहित यह समूचा व्रह्माण्ड जिसमें परमाणु के समान दिखाई देता है तथा जिसमें ऐसे करोड़ों व्रह्माण्ड हैं, वह समस्त कारणों का कारण है।‘ ये बात बुद्धि को कुछ अबोध्य-सी लगती है। पर हमारे यहां जिस एक शक्ति से सब कुछ उत्पन्न-संचालित माना गया, उस ईश्वर के अनेक नामों में एक नाम अनंत कोटि व्रह्माण्ड नायक बताया गया है। यह नाम जहां व्रह्मांडों की अनन्तता बताता है, वहीं इस विश्लेषण के वैज्ञानिक होने की अनुभूति भी कराता है। इस प्रकार इस संक्षिप्त अवलोकन से हम कह सकते हैं कि काल गणना और खगोल विज्ञान की भारत में उज्ज्वल परम्परा रही है। पिछली सदियों में यह धारा कुछ अवरुद्ध सी हो गई थी। आज पुन: उसे आगे बढ़ाने की प्रेरणा पूर्वकाल के आचार्य आज की पीढ़ी को दे रहे हैं।