ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शनिवार, 2 अप्रैल 2011

पाश्चात्य कालगणना
चिल्ड्रन्स ब्रिटानिका Vol 3-1964 में कैलेंडर के संदर्भ में उसके संक्षिप्त इतिहास का वर्णन किया गया है। कैलेंडर यानी समय विभाजन का तरीका-वर्ष, मास, दिन, का आधार, पृथ्वी की गति और चन्द्र की गति के आधार पर करना। लैटिन में Moon के लिए Luna शब्द है, अत: Lunar Month कहते हैं। लैटिन में Sun के लिए Sol शब्द है, अत: Solar Year वर्ष कहते हैं। आजकल इसका माप 365 दिन 5 घंटे 48 मिनिट व 46 सेकेण्ड है। चूंकि सौर वर्ष और चन्द्रमास का तालमेल नहीं है, अत: अनेक देशों में गड़बड़ रही।

दूसरी बात, समय का विभाजन ऐतिहासिक घटना के आधार पर करना। ईसाई मानते हैं कि ईसा का जन्म इतिहास की निर्णायक घटना है, इस आधार पर इतिहास को वे दो हिस्सों में विभाजित करते हैं। एक बी.सी. तथा दूसरा ए.डी.। B.C. का अर्थ है Before Christ - यह ईसा के उत्पन्न होने से पूर्व की घटनाओं पर लागू होता है। जो घटनाएं ईसा के जन्म के बाद हुर्इं उन्हें A.D. कहा जाता है जिसका अर्थ है Anno Domini अर्थात् In the year of our Lord. यह अलग बात है कि यह पद्धति ईसा के जन्म के बाद कुछ सदी तक प्रयोग में नहीं आती थी।


रोमन कैलेण्डर-आज के ई। सन् का मूल रोमन संवत् है जो ईसा के जन्म से 753 वर्ष पूर्व रोम नगर की स्थापना के साथ प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में इसमें दस माह का वर्ष होता था, जो मार्च से दिसम्बर तक चलता था तथा 304 दिन होते थे। बाद में राजा नूमा पिम्पोलियस ने इसमें दो माह Jonu Arius और Februarius जोड़कर वर्ष 12 माह का बनाया तथा इसमें दिन हुए 355, पर आगे के वर्षों में ग्रहीय गति से इनका अंतर बढ़ता गया, तब इसे ठीक 46 बी.सी. करने के लिए जूलियस सीजर ने वर्ष को 365 1/4 दिन का करने हेतु नये कैलेंडर का आदेश दिया तथा उस समय के वर्ष को कहा कि इसमें 445 1/4 दिन होंगे ताकि पूर्व में आया अंतर ठीक हो सके। इसलिए उस वर्ष यानी 46 बी.सी. को इतिहास में संभ्रम का वर्ष (Year of confusion) कहते हैं।

जूलियन कैलेंडर- जूलियस सीजर ने वर्ष को 365 1/4 दिन का करने के लिए एक व्यवस्था दी। क्रम से 31 व 30 दिन के माह निर्धारित किए तथा फरवरी 29 दिन की। Leap Year में फरवरी भी 30 दिन की कर दी। इसी के साथ इतिहास में अपना नाम अमर करने के लिए उसने वर्ष के सातवें महीने के पुराने नाम Quinitiles को बदलकर अपने नाम पर जुलाई किया, जो 31 दिन का था। बाद में सम्राट आगस्टस हुआ; उसने भी अपना नाम इतिहास में अमर करने हेतु आठवें महीने Sextilis का नाम बदलकर उस माह का नाम अगस्त किया। उस समय अगस्त 30 दिन का होता था पर-"सीजर से मैं छोटा नहीं", यह दिखाने के लिए फरवरी के माह जो उस समय 29 दिन का होता था जो एक दिन लेकर अगस्त भी 31 दिन का किया। तब से मास और दिन की संख्या वैसी ही चली आ रही है।

ग्रेगोरियन कैलेंडर - 16वीं सदी में जूलियन कैलेन्डर में 10 दिन बढ़ गए और चर्च फेस्टीवल ईस्टर आदि गड़बड़ आने लगे, तब पोप ग्रेगोरी त्रयोदश ने 1582 के वर्ष में इसे ठीक करने के लिए यह हुक्म जारी किया कि 4 अक्तूबर को आगे 15 अक्तूबर माना जाए। वर्ष का आरम्भ 25 मार्च की बजाय 1 जनवरी से करने को कहा। रोमन कैथोलिकों ने पोप के आदेश को तुरन्त माना, पर प्रोटेस्टेंटों ने धीरे-धीरे माना। ब्रिाटेन जूलियन कैलेंडर मानता रहा और 1752 तक उसमें 11 दिन का अंतर आ गया। अत: उसे ठीक करने के लिए 2 सितम्बर के बाद अगला दिन 14 सितम्बर कहा गया। उस समय लोग नारा लगाते थे "Criseus back our 11 days"। इग्लैण्ड के बाद बुल्गारिया ने 1918 में और ग्रीक आर्थोडाक्स चर्च ने 1924 में ग्रेगोरियन कैलेण्डर माना।

भारत में कालगणना का इतिहास
भारतवर्ष में ग्रहीय गतियों का सूक्ष्म अध्ययन करने की परम्परा रही है तथा कालगणना पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य की गति के आधार पर होती रही तथा चंद्र और सूर्य गति के अंतर को पाटने की भी व्यवस्था अधिक मास आदि द्वारा होती रही है। संक्षेप में काल की विभिन्न इकाइयां एवं उनके कारण निम्न प्रकार से बताये गये-

दिन अथवा वार- सात दिन- पृथ्वी अपनी धुरी पर १६०० कि.मी. प्रति घंटा की गति से घूमती है, इस चक्र को पूरा करने में उसे २४ घंटे का समय लगता है। इसमें १२ घंटे पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने रहता है उसे अह: तथा जो पीछे रहता है उसे रात्र कहा गया। इस प्रकार १२ घंटे पृथ्वी का पूर्वार्द्ध तथा १२ घंटे उत्तरार्द्ध सूर्य के सामने रहता है। इस प्रकार १ अहोरात्र में २४ होरा होते हैं। ऐसा लगता है कि अंग्रेजी भाषा का ण्दृद्वद्ध शब्द ही होरा का अपभ्रंश रूप है। सावन दिन को भू दिन भी कहा गया।

सौर दिन-पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 1 लाख कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार से कर रही है। पृथ्वी का 10 चलन सौर दिन कहलाता है।

चान्द्र दिन या तिथि- चान्द्र दिन को तिथि कहते हैं। जैसे एकम्, चतुर्थी, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि। पृथ्वी की परिक्रमा करते समय चन्द्र का 12 अंश तक चलन एक तिथि कहलाता है।

सप्ताह- सारे विश्व में सप्ताह के दिन व क्रम भारत वर्ष में खोजे गए क्रम के अनुसार ही हैं। भारत में पृथ्वी से उत्तरोत्तर दूरी के आधार पर ग्रहों का क्रम निर्धारित किया गया, यथा- शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुद्ध और चन्द्रमा। इनमें चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे पास है तो शनि सबसे दूर। इसमें एक-एक ग्रह दिन के 24 घंटों या होरा में एक-एक घंटे का अधिपति रहता है। अत: क्रम से सातों ग्रह एक-एक घंटे अधिपति, यह चक्र चलता रहता है और 24 घंटे पूरे होने पर अगले दिन के पहले घंटे का जो अधिपति ग्रह होगा, उसके नाम पर दिन का नाम रखा गया। सूर्य से सृष्टि हुई, अत: प्रथम दिन रविवार मानकर ऊपर क्रम से शेष वारों का नाम रखा गया।

निम्न तालिका से सातों दिनों के क्रम को हम सहज समझ सकते हैं-

चन्द्रबुधशुक्रसूर्यमंगलबृह.शनि
रवि १---
१११०
१८१७१६१५१४१३१२
सोम १२४२३२२२१२०१९
१५१४१३१२१११०
२२२१२०१९१८१७१६
मंगल १२४२३
१२१११०
१९१८१७१६१५१४१३
बुध १२४२३२२२१२०
१६१५१४१३१२१११०
२३२२२१२०१९१८१७
बृह.१२४
१३१२१११०
२०१९१८१७१६१५१४
शुक्र १२४२३२२२१
१०
१७१६१५१४१३१२११
२४२३२२२१२०१९१८

शनि १
पक्ष-पृथ्वी की परिक्रमा में चन्द्रमा का १२ अंश चलना एक तिथि कहलाता है। अमावस्या को चन्द्रमा पृथ्वी तथा सूर्य के मध्य रहता है। इसे ० (अंश) कहते हैं। यहां से १२ अंश चलकर जब चन्द्रमा सूर्य से १८० अंश अंतर पर आता है, तो उसे पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार एकम्‌ से पूर्णिमा वाला पक्ष शुक्ल पक्ष कहलाता है तथा एकम्‌ से अमावस्या वाला पक्ष कृष्ण पक्ष कहलाता है।

मास- कालगणना के लिए आकाशस्थ २७ नक्षत्र माने गए (१) अश्विनी (२) भरणी (३) कृत्तिका (४) रोहिणी (५) मृगशिरा (६) आर्द्रा (७) पुनर्वसु (८) पुष्य (९) आश्लेषा (१०) मघा (११) पूर्व फाल्गुन (१२) उत्तर फाल्गुन (१३) हस्त (१४) चित्रा (१५) स्वाति (१६) विशाखा (१७) अनुराधा (१८) ज्येष्ठा (१९) मूल (२०) पूर्वाषाढ़ (२१) उत्तराषाढ़ (२२) श्रवणा (२३) धनिष्ठा (२४) शतभिषाक (२५) पूर्व भाद्रपद (२६) उत्तर भाद्रपद (२७) रेवती।

२७ नक्षत्रों में प्रत्येक के चार पाद किए गए। इस प्रकार कुल १०८ पाद हुए। इनमें से नौ पाद की आकृति के अनुसार १२ राशियों के नाम रखे गए, जो निम्नानुसार हैं-

(१) मेष (२) वृष (३) मिथुन (४) कर्क (५) सिंह (६) कन्या (७) तुला (८) वृश्चिक (९) धनु (१०) मकर (११) कुंभ (१२) मीन। पृथ्वी पर इन राशियों की रेखा निश्चित की गई, जिसे क्रांति कहते है। ये क्रांतियां विषुव वृत्त रेखा से २४ उत्तर में तथा २४ दक्षिण में मानी जाती हैं। इस प्रकार सूर्य अपने परिभ्रमण में जिस राशि चक्र में आता है, उस क्रांति के नाम पर सौर मास है। यह साधारणत: वृद्धि तथा क्षय से रहित है।

चान्द्र मास- जो नक्षत्र मास भर सायंकाल से प्रात: काल तक दिखाई दे तथा जिसमें चन्द्रमा पूर्णता प्राप्त करे, उस नक्षत्र के नाम पर चान्द्र मासों के नाम पड़े हैं- (१) चित्रा (२) विशाखा (३) ज्येष्ठा (४) अषाढ़ा (५) श्रवण (६) भाद्रपद (७) अश्विनी (८) कृत्तिका (९) मृगशिरा (१०) पुष्य (११) मघा (१२) फाल्गुनी। अत: इसी आधार पर चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन-ये चन्द्र मासों के नाम पड़े।

उत्तरायण और दक्षिणायन-पृथ्वी अपनी कक्षा पर २३ ह अंश उत्तर पश्चिमी में झुकी हुई है। अत: भूमध्य रेखा से २३ ह अंश उत्तर व दक्षिण में सूर्य की किरणें लम्बवत्‌ पड़ती हैं। सूर्य किरणों का लम्बवत्‌ पड़ना संक्रान्ति कहलाता है। इसमें २३ ह अंश उत्तर को कर्क रेखा कहा जाता है तथा दक्षिण को मकर रेखा कहा जाता है। भूमध्य रेखा को ०० अथवा विषुव वृत्त रेखा कहते हैं। इसमें कर्क संक्रान्ति को उत्तरायण एवं मकर संक्रान्ति को दक्षिणायन कहते हैं।

वर्षमान- पृथ्वी सूर्य के आस-पास लगभग एक लाख कि.मी. प्रति घंटे की गति से १६६०००००० कि.मी. लम्बे पथ का ३६५ ह दिन में एक चक्र पूरा करती है। इस काल को ही वर्ष माना गया।
युगमान- 4,32,000 वर्ष में सातों ग्रह अपने भोग और शर को छोड़कर एक जगह आते हैं। इस युति के काल को कलियुग कहा गया। दो युति को द्वापर, तीन युति को त्रेता तथा चार युति को सतयुग कहा गया। चतुर्युगी में सातों ग्रह भोग एवं शर सहित एक ही दिशा में आते हैं।

वर्तमान कलियुग का आरंभ भारतीय गणना से ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था। उस समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे। इस संदर्भ में यूरोप के प्रसिद्ध खगोलवेत्ता बेली का कथन दृष्टव्य है-

"हिन्दुओं की खगोलीय गणना के अनुसार विश्व का वर्तमान समय यानी कलियुग का आरम्भ ईसा के जन्म से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था। इस प्रकार यह कालगणना मिनट तथा सेकेण्ड तक की गई। आगे वे यानी हिन्दू कहते हैं, कलियुग के समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे तथा उनके पञ्चांग या टेबल भी यही बताते हैं। ब्राहृणों द्वारा की गई गणना हमारे खगोलीय टेबल द्वारा पूर्णत: प्रमाणित होती है। इसका कारण और कोई नहीं, अपितु ग्रहों के प्रत्यक्ष निरीक्षण के कारण यह समान परिणाम निकला है।"। (Theogony of Hindus, by Bjornstjerna P. 32)

वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मण्डल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मण्डल का चक्कर लगा रहे हैं।

मन्वन्तर मान- सूर्य मण्डल के परमेष्ठी मंडल (आकाश गंगा) के केन्द्र का चक्र पूरा होने पर उसे मन्वन्तर काल कहा गया। इसका माप है 30,67,20,000 (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष। एक से दूसरे मन्वन्तर के बीच 1 संध्यांश सतयुग के बराबर होता है। अत: संध्यांश सहित मन्वन्तर का माप हुआ 30 करोड़ 84 लाख 48 हजार वर्ष। आधुनिक मान के अनुसार सूर्य 25 से 27 करोड़ वर्ष में आकाश गंगा के केन्द्र का चक्र पूरा करता है।

कल्प- परमेष्ठी मंडल स्वायम्भू मंडल का परिभ्रमण कर रहा है। यानी आकाश गंगा अपने से ऊपर वाली आकाश गंगा का चक्कर लगा रही है। इस काल को कल्प कहा गया। यानी इसका माप है 4 अरब 32 करोड़ वर्ष (4,32,00,00,000)। इसे ब्रह्मा का एक दिन कहा गया। जितना बड़ा दिन, उतनी बड़ी रात, अत: ब्रह्मा का अहोरात्र यानी 864 करोड़ वर्ष हुआ।

ब्रह्मा का वर्ष यानी 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष
ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्माण्ड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,000000000 वर्ष)

भारतीय मनीषा की इस गणना को देखकर यूरोप के प्रसिद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञानी कार्ल सेगन ने अपनी पुस्तक "क्दृद्मथ्र्दृद्म" में कहा "विश्व में हिन्दू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो इस विश्वास पर समर्पित है कि इस ब्रह्माण्ड में उत्पत्ति और क्षय की एक सतत प्रक्रिया चल रही है और यही एक धर्म है, जिसने समय के सूक्ष्मतम से लेकर बृहत्तम माप, जो समान्य दिन-रात से लेकर 8 अरब 64 करोड़ वर्ष के ब्राहृ दिन रात तक की गणना की है, जो संयोग से आधुनिक खगोलीय मापों के निकट है। यह गणना पृथ्वी व सूर्य की उम्र से भी अधिक है तथा इनके पास और भी लम्बी गणना के माप है।" कार्ल सेगन ने इसे संयोग कहा है यह ठोस ग्रहीय गणना पर आधारित है।

ऋषियों की अद्भुत खोज
हमारे पूर्वजों ने जहां खगोलीय गति के आधार पर काल का मापन किया, वहीं काल की अनंत यात्रा और वर्तमान समय तक उसे जोड़ना तथा समाज में सर्वसामान्य व्यक्ति को इसका ध्यान रहे इस हेतु एक अद्भुत व्यवस्था भी की थी, जिसकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं जाता है। हमारे देश में कोई भी कार्य होता हो चाहे वह भूमिपूजन हो, वास्तुनिर्माण का प्रारंभ हो- गृह प्रवेश हो, जन्म, विवाह या कोई भी अन्य मांगलिक कार्य हो, वह करने के पहले कुछ धार्मिक विधि करते हैं। उसमें सबसे पहले संकल्प कराया जाता है। यह संकल्प मंत्र यानी अनंत काल से आज तक की समय की स्थिति बताने वाला मंत्र है। इस दृष्टि से इस मंत्र के अर्थ पर हम ध्यान देंगे तो बात स्पष्ट हो जायेगी।

संकल्प मंत्र में कहते हैं....
ॐ अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राहृणां द्वितीये परार्धे- अर्थात् महाविष्णु द्वारा प्रवर्तित अनंत कालचक्र में वर्तमान ब्रह्मा की आयु का द्वितीय परार्ध-वर्तमान ब्रह्मा की आयु के 50 वर्ष पूरे हो गये हैं। श्वेत वाराह कल्पे-कल्प याने ब्रह्मा के 51वें वर्ष का पहला दिन है।

वैवस्वतमन्वंतरे- ब्रह्मा के दिन में 14 मन्वंतर होते हैं उसमें सातवां मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।

अष्टाविंशतितमे कलियुगे- एक मन्वंतर में 71 चतुर्युगी होती हैं, उनमें से 28वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है।

कलियुगे प्रथमचरणे- कलियुग का प्रारंभिक समय है।

कलिसंवते या युगाब्दे- कलिसंवत् या युगाब्द वर्तमान में 5104 चल रहा है।

जम्बु द्वीपे, ब्रह्मावर्त देशे, भारत खंडे- देश प्रदेश का नाम

अमुक स्थाने - कार्य का स्थान
अमुक संवत्सरे - संवत्सर का नाम
अमुक अयने - उत्तरायन/दक्षिणायन
अमुक ऋतौ - वसंत आदि छह ऋतु हैं
अमुक मासे - चैत्र आदि 12 मास हैं
अमुक पक्षे - पक्ष का नाम (शुक्ल या कृष्ण पक्ष)
अमुक तिथौ - तिथि का नाम
अमुक वासरे - दिन का नाम
अमुक समये - दिन में कौन सा समय
अमुक - व्यक्ति - अपना नाम, फिर पिता का नाम, गोत्र तथा किस उद्देश्य से कौन सा काम कर रहा है, यह बोलकर संकल्प करता है।

इस प्रकार जिस समय संकल्प करता है, उस समय से अनंत काल तक का स्मरण सहज व्यवहार में भारतीय जीवन पद्धति में इस व्यवस्था के द्वारा आया है।

काल की सापेक्षता - आइंस्टीन ने अपने सापेक्षता सिद्धांत में दिक् व काल की सापेक्षता प्रतिपादित की। उसने कहा, विभिन्न ग्रहों पर समय की अवधारणा भिन्न-भिन्न होती है। काल का सम्बन्ध ग्रहों की गति से रहता है। इस प्रकार अलग-अलग ग्रहों पर समय का माप भिन्न रहता है।

समय छोटा-बड़ा रहता है। इसकी जानकारी के संकेत हमारे ग्रंथों में मिलते हैं। पुराणों में कथा आती है कि रैवतक राजा की पुत्री रेवती बहुत लम्बी थी, अत: उसके अनुकूल वर नहीं मिलता था। इसके समाधान हेतु राजा योग बल से अपनी पुत्री को लेकर ब्राहृलोक गये। वे जब वहां पहुंचे तब वहां गंधर्वगान चल रहा था। अत: वे कुछ क्षण रुके। जब गान पूरा हुआ तो ब्रह्मा ने राजा को देखा और पूछा कैसे आना हुआ? राजा ने कहा मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने पैदा किया है या नहीं? ब्रह्मा जोर से हंसे और कहा, जितनी देर तुमने यहां गान सुना, उतने समय में पृथ्वी पर 27 चर्तुयुगी बीत चुकी हैं और 28 वां द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहां जाओ और कृष्ण के भाई बलराम से इसका विवाह कर देना। साथ ही उन्होंने कहा कि यह अच्छा हुआ कि रेवती को तुम अपने साथ लेकर आये। इस कारण इसकी आयु नहीं बढ़ी। यह कथा पृथ्वी से ब्राहृलोक तक विशिष्ट गति से जाने पर समय के अंतर को बताती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी कहा कि यदि एक व्यक्ति प्रकाश की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान में बैठकर जाए तो उसके शरीर के अंदर परिवर्तन की प्रक्रिया प्राय: स्तब्ध हो जायेगी। यदि एक दस वर्ष का व्यक्ति ऐसे यान में बैठकर देवयानी आकाशगंगा (Andromeida Galaz) की ओर जाकर वापस आये तो उसकी उमर में केवल 56 वर्ष बढ़ेंगे किन्तु उस अवधि में पृथ्वी पर 40 लाख वर्ष बीत गये होंगे।

योगवासिष्ठ आदि ग्रंथों में योग साधना से समय में पीछे जाना और पूर्वजन्मों का अनुभव तथा भविष्य में जाने के अनेक वर्णन मिलते हैं।

पश्चिमी जगत में जार्ज गेमोव ने अपनी पुस्तक one, two, three, infinity में इस समय में आगे-पीछे जाने के संदर्भ में एक विनोदी कविता लिखी थी-

There was a young girl named liss Bright
who could travel much faster than light
She departed one day
in an Einstein way
and came back on the previous night

अर्थात्- एक युवा लड़की, जिसका नाम मिस ब्राइट था, वह प्रकाश से भी अधिक वेग से यात्रा कर सकती थी। एक दिन वह आइंस्टीन विधि से यात्रा पर निकली और बीती रात्रि में वापस लौट आई।

सम्वत्सर की वैज्ञानिकता

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक पश्चिमी देशों में उनके अपने धर्म-ग्रन्थों के अनुसार मानव सृष्टि को मात्र पांच हजार वर्ष पुराना बताया जाता था। जबकि इस्लामी दर्शन में इस विषय पर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा गया है। पाश्चात्य जगत के वैज्ञानिक भी अपने धर्म-ग्रन्थों की भांति ही यही राग अलापते रहे कि मानवीय सृष्टि का बहुत प्राचीन नहीं है। इसके विपरीत हिन्दू जीवन-दर्शन के अनुसार इस सृष्टि का प्रारम्भ हुए १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, १० वर्ष बीत चुके हैं और अब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से उसका १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, ११वां वर्ष प्रारम्भ हो रहा है। भूगर्भ से सम्बन्धित नवीनतम आविष्कारों के बाद तो पश्चिमी विद्वान और वैज्ञानिक भी इस तथ्य की पुष्टि करने लगे हैं कि हमारी यह सृष्टि प्राय: २ अरब वर्ष पुरानी है।

अपने देश में हेमाद्रि संकल्प में की गयी सृष्टि की व्याख्या के आधार पर इस समय स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष नामक छह मन्वन्तर पूर्ण होकर अब वैवस्वत मन्वन्तर के २७ महायुगों के कालखण्ड के बाद अठ्ठाइसवें महायुग के सतयुग, त्रेता, द्वापर नामक तीन युग भी अपना कार्यकाल पूरा कर चौथे युग अर्थात कलियुग के ५०११वें सम्वत्‌ का प्रारम्भ हो रहा है। इसी भांति विक्रम संवत्‌ २०६६ का भी श्रीगणेश हो रहा है।

हिन्दू जीवन-दर्शन की मान्यता है कि सृष्टिकर्ता भगवान्‌ व्रह्मा जी द्वारा प्रारम्भ की गयी मानवीय सृष्टि की कालगणना के अनुसार भारत में प्रचलित सम्वत्सर केवल हिन्दुओं, भारतवासियों का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार या समस्त मानवीय सृष्टि का सम्वत्सर है। इसलिए यह सकल व्रह्माण्ड के लिए नव वर्ष के आगमन का सूचक है।

व्रह्मा जी प्रणीत यह कालगणना निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित होने के कारण पूरी तरह वैज्ञानिक है। अत: नक्षत्रों को आधार बनाकर जहां एक ओर विज्ञानसम्मत चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कात्तिर्क, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन नामक १२ मासों का विधान एक वर्ष में किया गया है, वहीं दूसरी ओर सप्ताह के सात दिवसों यथा रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार तथा शनिवार का नामकरण भी व्रह्मा जी ने विज्ञान के आधार पर किया है।

आधुनिक समय में सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित ईसाइयत के ग्रेगेरियन कैलेण्डर को दृष्टिपथ में रखकर अज्ञानी जनों द्वारा प्राय: यह प्रश्न किया जाता है कि व्रह्मा जी ने आधा चैत्र मास व्यतीत हो जाने पर नव सम्वत्सर और सूर्योदय से नवीन दिवस का प्रारम्भ होने का विधान क्यों किया है? इसी भांति सप्ताह का प्रथम दिवस सोमवार न होकर रविवार ही क्यों निर्धारित किया गया है? जैसा ऊपर कहा जा चुका है, व्रह्मा जी ने इस मानवीय सृष्टि की रचना तथा कालगणना का पूरा उपक्रम निसर्ग अथवा प्रकृति से तादात्म्य रखकर किया है। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि ‘चैत्रमासे जगत्‌ व्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि, शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदय सति।‘ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस को सूर्योदय से कालगणना का औचित्य इस तथ्य में निहित है कि सूर्य, चन्द्र, मंगल, पृथ्वी, नक्षत्रों आदि की रचना से पूर्व सम्पूर्ण त्रैलोक्य में घटाटोप अन्धकार छाया हुआ था। दिनकर की सृष्टि के साथ इस धरा पर न केवल प्रकाश प्रारम्भ हुआ अपितु भगवान्‌ आदित्य की जीवनदायिनी ऊर्जा शक्ति के प्रभाव से पृथ्वी तल पर जीव-जगत का जीवन भी सम्भव हो सका। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से वर्ष का आरम्भ, अर्द्धरात्रि के स्थान पर सूर्योदय से दिवस परिवर्तन की व्यवस्था तथा रविवार को सप्ताह का प्रथम दिवस घोषित करने का वैज्ञानिक आधार तिमिराच्छन्न अन्धकार को विदीर्ण कर प्रकाश की अनुपम छटा बिखेरने के साथ सृजन को सम्भव बनाने की भगवान्‌ भुवन भास्कर की अनुपमेय शक्ति में निहित है। वैसे भी इंग्लैण्ड के ग्रीनविच नामक स्थान से दिन परिवर्तन की व्यवस्था में अर्द्ध रात्रि के १२ बजे को आधार इसलिए बनाया गया है; क्योंकि जब इंग्लैण्ड में रात्रि के १२ बजते हैं, तब भारत में भगवान्‌ सूर्यदेव की अगवानी करने के लिए प्रात: ५.३० बजे होते हैं।

वारों के नामकरण की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया में व्रह्मा जी ने स्पष्ट किया कि आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारम्भ होकर क्रमश: बुध, शुक्र, चन्द्र, मंगल, गुरु और शनि की है। पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा सहित इन्हीं अन्य छह ग्रहों को साथ लेकर व्रह्मा जी ने सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पृथ्वी अपने उपग्रह चन्द्रमा सहित स्वयं एक ग्रह है, किन्तु पृथ्वी पर उसके नाम से किसी दिवस का नामकरण नहीं किया जायेगा; किन्तु उसके उपग्रह चन्द्रमा को इस नामकरण में इसलिए स्थान दिया जायेगा; क्योंकि पृथ्वी के निकटस्थ होने के कारण चन्द्रमा आकाशमण्डल की रश्मियों को पृथ्वी तक पहुँचाने में संचार उपग्रह का कार्य सम्पादित करता है और उससे मानवीय जीवन बहुत गहरे रूप में प्रभावित होता है। लेकिन पृथ्वी पर यह गणना करते समय सूर्य के स्थान पर चन्द्र तथा चन्द्र के स्थान पर सूर्य अथवा रवि को रखा जायेगा।
हम सभी यह जानते हैं कि एक अहोरात्र या दिवस में २४ होरा या घण्टे होते हैं। व्रह्मा जी ने इन २४ होरा या घण्टों में से प्रत्येक होरा का स्वामी क्रमश: सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरु और मंगल को घोषित करते हुए स्पष्ट किया कि सृष्टि की कालगणना के प्रथम दिवस पर अन्धकार को विदीर्ण कर भगवान्‌ भुवन भास्कर की प्रथम होरा से क्रमश: शुक्र की दूसरी, बुध की तीसरी, चन्द्रमा की चौथी, शनि की नौवीं, गुरु की छठी तथा मंगल की सातवीं होरा होगी। इस क्रम से इक्कीसवीं होरा पुन: मंगल की हुई। तदुपरान्त सूर्य की बाईसवीं, शुक्र की तेईसवीं और बुध की चौबीसवीं होरा के साथ एक अहोरात्र या दिवस पूर्ण हो गया। इसके बाद अगले दिन सूर्योदय के समय चन्द्रमा की होरा होने से दूसरे दिन का नामकरण सोमवार किया गया। अब इसी क्रम से चन्द्र की पहली, आठवीं और पंद्रहवीं, शनि की दूसरी, नववीं और सोलहवीं, गुरु की तीसरी, दशवीं और उन्नीसवीं, मंगल की चौथी, ग्यारहवीं और अठ्ठारहवीं, सूर्य की पाचवीं, बारहवीं और उन्नीसवीं, शुक्र की छठी, तेरहवीं और बीसवीं, बुध की सातवीं, चौदहवीं और इक्कीसवीं होरा होगी। बाईसवीं होरा पुन: चन्द्र, तेईसवीं शनि और चौबीसवीं होरा गुरु की होगी। अब तीसरे दिन सूर्योदय के समय पहली होरा मंगल की होने से सोमवार के बाद मंगलवार होना सुनिश्चित हुआ। इसी क्रम से सातों दिवसों की गणना करने पर वे क्रमश: बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार तथा शनिवार घोषित किये गये; क्योंकि मंगल से गणना करने पर बारहवीं होरा गुरु पर समाप्त होकर बाईसवीं होरा मंगल, तेईसवीं होरा रवि और चौबीसवीं होरा शुक्र की हुई। अब चौथे दिवस की पहली होरा बुध की होने से मंगलवार के बाद का दिन बुधवार कहा गया। अब बुधवार की पहली होरा से इक्कीसवीं होरा शुक्र की होकर बाईसवीं, तेईसवीं और चौबीसवीं होरा क्रमश: बुध, चन्द्र और शनि की होगी। तदुपरान्त पांचवें दिवस की पहली, होरा गुरु की होने से पांचवां दिवस गुरुवार हुआ। पुन: छठा दिवस शुक्रवार होगा; क्योंकि गुरु की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के पश्चात्‌ तेईसवीं होरा मंगल और चौबीसवीं होरा सूर्य की होगी। अब छठे दिवस की पहली होरा शुक्र की होगी। सप्ताह का अन्तिम दिवस शनिवार घोषित किया गया; क्योंकि शुक्र की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के उपरान्त बुध की तेईसवीं और चन्द्रमा की चौबीसवीं होरा पूर्ण होकर सातवें दिवस सूर्योदय के समय प्रथम होरा शनि की होगी।
संक्षेप में व्रह्मा जी प्रणीत इस कालगणना में नक्षत्रों, ऋतुओं, मासों, दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित वैज्ञानिक रूप से किया गया है। दिवसों के नामकरण को प्राप्त विश्वव्यापी मान्यता इसी तथ्य का प्रतीक है।

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