ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शनिवार, 30 जून 2018

डॉक्टर डे

चौबेजी कहिन:- 'वैद्यराज नमस्तुभ्यम् यमराज सहोदरम्' को परिभाषित करने वाले डॉक्टर्स-डकैतों के बीहड़ों में है 'दूसरा भगवान' यानी 'डॉ.गोपीनाथ'🙏
1/7/2018
साथियों नमस्कार 🙏 आज 'चौबेजी कहिन' में 'डॉक्टर्स डे' पर आपको एक ऐसे डॉक्टर से परिचय कराता हूं जिन्हें 'गरीबों का मसीहा' और 'दूसरा भगवान' का दर्जा देती है भिलाई की जनता । वह शख्सियत हैं डॉ 'गोपीनाथ'🌹

आज 'डॉक्टर दिवस' है, आप सभी को बहुत बहुत बधाई, साथ ही भिलाई निवासी 'ग़रीबों का मसीहा' के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले हम सब के प्रेरणास्रोत आदरणीय डॉ. गोपीनाथ जी Gopinath Kandaswamy जी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं 🌺🌹🌺 आपको ईश्वर ऐसी शक्ति प्रदान करते रहें की 'शताधिक वर्षों तक यूं ही गरीबों की सेवा करते रहें' 🙏🙏

वैसे तो डॉक्टर गोपीनाथ जी किसी सरकारी सम्मान के मोहताज नहीं हैं, क्योंकि उनको 'दूसरा भगवान' शब्द से भिलाई की आम जनता बहुत सम्मान देती है 🙏 किन्तु छत्तीसगढ़ सरकार को भी ऐसे डॉक्टरों को अलंकृत करना चाहिए 😊
श्री गोपीनाथ जी ऐसे चिकित्सक हैं जिन्होंने भिलाई के 'लालबहादुर शास्त्री चिकित्सालय'  को 'गरीबों की आशा' के रुप में प्रतिष्ठित किया, और आज सेवानिवृत्त होने के बावजूद आज भी गरीबों के चिकित्सा सेवा में लगे हुए हैं, इनको यहां की जनता दूसरे भगवान के सदृश सम्मान देती है 🙏
वाकई जब भी मैं इस महान शख्सियत डॉ गोपीनाथ जी के बारे में लिखता हूं तो मेरी आंखें नम हो जाती हैं, जीवन में कई घटनाएं ऐसी होती हैं जिसे कभी भूला नहीं जा सकता!🙏
हमारे पिता स्व.श्रीरामजी चौबे जी की तबीयत अचानक खराब हुई उनकी पीड़ा देखकर बेहद परेशान था, आप तो जानते ही हैं परेशान व्यक्ति को मंत्रणाओं की भरमार हो जाती है, मैं चिन्तित था, इसी दौरान मेरा एक डॉक्टर के वेश में एक 'शैतान' के यहां जाना हुआ, उसने कहा कि - अपने पिताजी को कल एडमिट कर दो, कल शाम को ऑपरेशन कर दूंगा मामूली सा 'व्रण' है ऑपरेट कर दूंगा ठीक हो जाएगा ...आप आज 7500/रु.जमा कर दीजिए ! मैंने सोचा जब ऑपरेशन ही कराना है तो एक बार डॉ गोपीनाथ जी से राय ले लेता हूं यह सोचकर डॉ गोपीनाथ जी को फोन किया लेकिन वह फोन रिसीव नहीं कर पाए, मैंने उनके सहयोगी श्री इन्द्रनील श्रीवास्तव Indraneel Srivastava जी को फोन किया उन्होंने कहा आप सेक्टर-2 क्लिनिक में आ जाईए डॉ गोपीनाथ जी आ ही रहे हैं, मैं सुपेला से सेक्टर-2 के लिए पिताजी को लेकर चल पड़ा तब तक डॉक्टर साहब का भी फोन आ गया, मैं जब वहां पहुंचा तो डॉ गोपीनाथ जी ने कहा कि- आपके पिताजी को यह सामान्य 'व्रण' नहीं है और ना ही इसका आप वगैर (वायएप्सी) जांच कराये, ऑपरेशन कराईए क्योंकि ऑपरेशन के बाद तेजी से कैंसर बहुत तेज़ी से फैल जायेगा! 😪
मैंने कहा - एक डॉक्टर तो कल ही ऑपरेशन करने का सुझाव दिया है, तब डॉक्टर गोपीनाथ जी मुस्कुराते हुए ऑपरेशन कराने से मना कर दिए!
जांच रिपोर्ट आने के बाद डॉक्टर गोपीनाथ जी के मित्र डॉ आर.पी. सिंह (सेक्टर9) सर्जन एवं डॉ.केकडे द्वारा इलाज हुआ, पिताजी तो बच नहीं पाये क्योंकि उनको प्रोस्टेश कैंसर अन्तिम स्टेज पर था और उनके उम्र के मुताबिक 'कीमो' भी नहीं दे सकते थे, अत: चार माह के बाद उनकी मृत्यु हुई!
साथियों, यदि पिताजीका ऑपरेशन करा दिया होता और डॉ गोपीनाथ जी से मुलाकात नहीं करता तो शायद पिताजी 15 दिन भी जीवित नहीं बच पाते ।
हालांकि हमने अपने पिताजी के जांच रिपोर्ट को हमने देश के कई कैंसर हॉस्पिटल के स्पेशलिस्ट डॉक्टरों को भेजकर हर संभावनाओं को तलाशने की कोशिश की जिसमें कई हमारे शिष्यों ने सहयोग किया ! उस समय निवर्तमान छत्तीसगढ़ सरकार में संसदीय सचिव (गृह,जेल एवं सहकारिता) श्री विजय बघेल Vijay Baghel जी ने भी अपने स्तर पर भारत के जाने माने डॉक्टरों की सलाह ली, परन्तु जो सलाह डॉक्टर गोपीनाथ जी ने दी वही सलाह सभी डॉक्टरों ने दी!
डॉ गोपीनाथ जी ने कभी भी 'रोगी' को 'ग्राहक' नहीं समझे जो भी उनसे करते बनता वह नि: स्वार्थ भाव से सही इलाज करते, और सटीक सलाह! सहज, सरल और उनका मिलनसार स्वभाव के धनी व्यक्तित्व डॉ. गोपीनाथ जी को महान शख्सियत बनाते हुए, ग़रीबों का मसीहा बनाता है और हजारों लोगों के लिए 'दूसरा भगवान' भी! तभी तो संयुक्त मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ राज्य बनने तक उनके सेवाकाल में कई सरकार आई और गई परन्तु कोई उनका ट्रांसफर नहीं कर पाया, जरा भी उनके ट्रांसफर की बात सुनाई देती आसपास के रहवासियों ने धरना प्रदर्शन करके डॉ गोपीनाथ जी का ट्रांसफर नहीं होने दिया।

ऐसा कम ही देखने को मिलता है जब एक सरकारी डॉक्टर के प्रति आम लोगों का जुड़ाव हो! लेकिन दु:ख की बात यह है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने आजतक कोई 'शासकीय सम्मान' नहीं दिया, जबकि इनको 'शासकीय अलंकरण' दिया जाना चाहिए, ताकि इससे प्रेरित होकर छत्तीसगढ़ में 'शताधिक डॉ.गोपीनाथ' बन सकें🙏 ऐसे महापुरुष के बारे में जितना लिखा जाए कम है, आपको पुन: जन्मदिन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं 🌺🌹🌺🙏
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य'राष्ट्रीय मासिक पत्रिका शांतिनगर भिलाई, 9827198828

बुधवार, 27 जून 2018

मित्र धर्म...

मित्र धर्म 🕉️🕉️

एक बार उद्धव जी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा  हे "कृष्ण"आप तो महाज्ञानी हैं, भूत, वर्तमान व भविष्य के बारे में सब कुछ जानने वाले हो आपके लिए कुछ भी असम्भव नही,में आपसे मित्र धर्म की परिभाषा जानना चाहता हूँ.उसके गुण धर्म क्या क्या हैं।

भगवान बोले उद्धव सच्चा मित्र वही है जो विपत्ति के समय बिना मांगे ही अपने मित्र की सहायता करे.उद्धव जी ने बीच मे रोकते हुए कहा "हे कृष्ण" अगर ऐसा ही है तो फिर आप तो पांडवों के प्रिय बांधव थे.एक बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर विश्वास किया किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है उसके अनुरूप मित्रता नही निभाई.आप चाहते तो पांडव जुए में जीत सकते थे।

आपने धर्मराज युधिष्ठिर को जुआ खेलने से क्यों नही रोका. ठीक है आपने उन्हें नहीं रोका,लेकिन यदि आप चाहते तो अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा पासे को धर्मराज के पक्ष में भी तो कर सकते थे लेकिन आपने भाग्य को धर्मराज के पक्ष में भी नहीं किया।

आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और स्वयं को हारने के बाद भी तो रोक सकते थे उसके बाद जब धर्मराज ने अपने भाइयों को दांव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे।

किंतु आपने ये भी नहीं किया.इसके बाद जब दुष्ट दुर्योधन ने पांडवों को भाग्यशाली कहते हुए द्रौपदी को दांव पर लगाने हेतु प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे।

लेकिन इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया जब द्रौपदी लगभग अपनी लाज खो रही थी, तब जाकर आपने द्रोपदी के वस्त्र का चीर बढ़ाकर द्रौपदी की लाज बचाई किंतु ये भी आपने बहुत देरी से किया उसे एक पुरुष घसीटकर भरी सभा में लाता है, और इतने सारे पुरुषों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है. जब आपने संकट के समय में पांडवों की सहायता की ही नहीं की तो आपको आपदा बांधव (सच्चा मित्र) कैसे कहा जा सकता है. क्या यही धर्म है।

भगवान श्री कृष्ण बोले - हे उद्धव सृष्टि का नियम है कि जो विवेक से कार्य करता है विजय उसी की होती है उस समय दुर्योधन अपनी बुद्धि और विवेक से कार्य ले रहा था किंतु धर्मराज ने तनिक मात्र भी अपनी बुद्धि और विवेक से काम नही लिया इसी कारण पांडवों की हार हुई।

भगवान कहने लगे कि हे उद्धव - दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि से द्यूतक्रीडा करवाई यही तो उसका विवेक था धर्मराज भी तो इसी प्रकार विवेक से कार्य लेते हुए ऐसा सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई को पासा देकर उनसे चाल चलवा सकते थे या फिर ये भी तो कह सकते थे कि उनकी तरफ से श्री कृष्ण यानी मैं खेलूंगा।

जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता ? पांसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार,चलो इसे भी छोड़ो. उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इसके लिए तो उन्हें क्षमा भी किया जा सकता है लेकिन उन्होंने विवेक हीनता से एक और बड़ी गलती तब की जब उन्होंने मुझसे प्रार्थना की, कि मैं तब तक सभाकक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए क्योंकि ये उनका दुर्भाग्य था कि वे मुझसे छुपकर जुआ खेलना चाहते थे।

इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया.मुझे सभाकक्ष में आने की अनुमति नहीं थी इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर बहुत समय तक प्रतीक्षा कर रहा था कि मुझे कब बुलावा आता है।

पांडव जुए में इतने डूब गए कि भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए और मुझे बुलाने के स्थान पर केवल अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे.अपने भाई के आदेश पर जब दुशासन द्रोपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभाकक्ष में लाया तब वह अपने सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही, तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा।

उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुशासन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया.जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर 'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम' की गुहार लगाते हुए मुझे पुकारा तो में बिना बिलम्ब किये वहां पहुंचा. हे उद्धव इस स्थिति में तुम्हीं बताओ मेरी गलती कहाँ रही।

उद्धव जी बोले कृष्ण आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई, क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ ?

कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा – इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा.क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे।

भगवान मुस्कुराये - उद्धव सृष्टि में हर किसी का जीवन उसके स्वयं के कर्मों के प्रतिफल के आधार पर चलता है।

में इसमें प्रत्यक्ष रूप से कोई हस्तक्षेप नही करता। मैं तो केवल एक 'साक्षी' हूँ जो सदैव तुम्हारे साथ रहकर जो हो रहा है उसे देखता रहता हूँ. यही ईश्वर का धर्म है।'भगवान को ताना मारते हुए उद्धव जी बोले "वाह वाह, बहुत अच्छा कृष्ण", तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी कर्मों को देखते रहेंगें हम पाप पर पाप करते जाएंगे और आप हमें रोकने के स्थान पर केवल देखते रहेंगे. आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते करते पाप की गठरी बांधते रहें और उसका फल भोगते रहें।

भगवान बोले – उद्धव, तुम धर्म और मित्रता को समीप से समझो, जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे साथ हर क्षण रहता हूँ, तो क्या तुम पाप कर सकोगे ?तुम पाप कर ही नही सकोगे और अनेक बार विचार करोगे की मुझे विधाता देख रहा है किंतु जब तुम मुझे भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि तुम मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तुम्हे कोई देख नही रहा तब ही तुम संकट में फंसते हो।

धर्मराज का अज्ञान यह था उसने समझा कि वह मुझ से छुपकर जुआ खेल सकता हैअगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक प्राणी मात्र के साथ हर समय उपस्थित रहता हूँ तो क्या वह जुआ खेलते।

और यदि खेलते भी तो जुए के उस खेल का परिणाम कुछ और नहीं होता। भगवान के उत्तर से उद्धव जी अभिभूत हो गये और बोले – प्रभु कितना रहस्य छुपा है आपके दर्शन में।

कितना महान सत्य है ये ! पापकर्म करते समय हम ये कदापि विचार नही करते कि परमात्मा की नज़र सब पर है कोई उनसे छिप नही सकता,और उनकी दृष्टि हमारे प्रत्येक अच्छे बुरे कर्म पर है।

परन्तु इसके विपरीत हम इसी भूल में जीते रहते  हैं कि हमें कोई देख नही रहा।प्रार्थना और पूजा हमारा विश्वास है जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि भगवान हर क्षण हमें देख रहे हैं, उनके बिना पत्ता तक नहीं हिलता तो परमात्मा भी हमें ऐसा ही आभास करा देते हैं की वे हमारे आस पास ही उपस्तिथ हैं और हमें उनकी उपस्थिति का आभास होने लगता है.हम पाप कर्म केवल तभी करते हैं जब हम भगवान को भूलकर उनसे विमुख हो जाते हैं।

शुक्रवार, 22 जून 2018

चौबे जी कहिन:- 'भीमसेनी (निर्जला) एकादशी' व्रत इन्द्रियों के विग्रह का महापर्व है। दिनभर अर्गर-बर्गर, इज्जा-पिज़्ज़ा और तैलिय खाद्य पदार्थों का सेवन करने वाले 'वृकोदरों' महिने में तीन दिन व्रत जरुर करो..🙏

अब आईए विषय प्रवेश करें😊 भारत वेदभूमि है, देवभूमि है, योगभूमि है, यज्ञभूमि है, त्यागभूमि है, और आध्यात्मिकता से पूर्ण पूरी दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाने वाला वैज्ञानिक-ऋषि परम्पराओं की पवित्र भूमि भारत है, हे मां भारती प्रणाम 🙏 एकादशी का अर्थ है ग्यारहवीं अर्थात् - ग्यारह दिन यानी संख्या हुई 11जिसमें 5 कर्मेंद्रियां + 5 ज्ञानेन्द्रियां + 1मन =11अर्थात् कर्म, ज्ञान तथा मन को अपने अधिकार में करने वाला दिन है एकादशी। वर्ष में कृष्ण एवं शुक्ल पक्ष दोनों मिलकर 24 एकादशियां होती है और पुरुषोत्तम मास होने से कुल 26 एकादशी व्रत किया जाता है, मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी से इस व्रत का आरंभ किया जाता है, इन एकादशियों में आज यानी 'भीम‍सेनी एकादशी' व्रत है जिसे निर्जला व्रत किया जाता है, महाभारतीय पांच पाण्डवों में 'भीम' ने इस व्रत को किया था, इसलिए 'भीमसेनी' एकादशी व्रत नाम पड़ा । भीम को 'वृक' कहा गया है अर्थात् भोजन अधिक करने वाला या यूं कहें कि वगैर भोजन किसे वह एक दिन भी नहीं रह पाते थे, बावजूद ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की एकादशी को वे निर्जला एकादशी व्रत किया करते थे, अर्थात् आज के इस आधुनिक परिवेश में 'भीम' के बदलते स्वरूप हम सभी तो हैं जो तरह-तरह के पकवान खाने वाले 'वृकोदर' रुपी जीव हैं, जो दिन भर कुछ ना कुछ अर्गर-बर्गर, इज्जा-पिज़्ज़ा आदि आदि तैलिय खाद्य पदार्थ खाते ही रहते हैं, इन्हीं बातों का ध्यान रखते हुए हमारे ऋषि मुनियों ने हर माह में पड़ने वाले तीन दिन एकादशी (2 दिन) एवं पुर्णिमा (1 दिन) इन तीन दिन हर व्यक्ति को इन्द्रिय-निग्रह करने के लिए 'व्रत' रखने का विधान बताया। ताकि चित्त-शुद्धि और उदर विकार से मुक्ति मिल सके! 'व्रत’ शब्द ‘वृ’ धातुसे बना है । भिन्न-भिन्न अर्थ हैं संकल्प, इच्छा, आज्ञापालन, उपासना, प्रतिज्ञा इत्यादि अब आईए आज 'चौबेजी कहिन' में इस विषय को विस्तार से समझने का प्रयास करें, ऐतरेय ब्राह्मणग्रंथमें 'यज्ञात् भवति पर्जन्यः’ ऐसा वचन है अर्थात ‘व्रत’ एक यज्ञ है, इसलिए इससे पर्जन्य, विश्वशांति जैसे लाभ होते हैं । यज्ञ विधि का फल है स्वर्गप्राप्ति, जो मृत्युपश्चात प्राप्त होता है । किन्तु व्रतोंके संदर्भमें ऐसा नहीं है । व्रतोंके फल व्रतकर्ता को इसी जन्म में ही प्राप्त होते हैं । क्योंकि वैदिक यज्ञ कुछ ही लोग कर पाते है; परंतु व्रत कोई भी कर सकता है, इस दृष्टिसे यज्ञकी तुलनामें यह व्रत श्रेष्ठ है ।

न किंचिद्विद्यते राजन्सर्वकामप्रदं नृणाम्।।
एकाशनं दशम्यां च नंदायां निर्जलं व्रतम् ।।१२।।
पारणं चैव भद्रायां कृत्वा विष्णुसमा नराः।।
श्रद्धावान्यस्तु कुरुते कामदाया व्रतं शुभम् ।।१३।।
वांछितं लभते सोऽपि इहलोके परत्र च।।
पवित्रा पावनी ह्येषा महापातकनाशिनी ।।१४।। उपरोक्त प्रसंग में एकादशी व्रत की महनियता का वर्णन किया गया है। वास्तव में जितने भी व्रत उपवास आदि पुराणों में बताए गए हैं उन सबका अभिप्राय व्यक्तियों को अपने दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करके आत्मसाक्षात्कार की ओर अग्रसर करना ही रहा है ।

इस प्रकार व्रत रखते हुए भीमसेनी एकादशी का हर सनातन धर्मावलंबियों को इस व्रत का पूण्लाभ अवश्य लेना चाहिए, पौराणिक साहित्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी कहीं ना कहीं मानव जाति को लाभान्वित करने वाले हैं। एक स्वस्थ व्यक्ति को हर माह में कम से कम तीन दिन व्रत रखना ही चाहिए, इससे सत्वगुणी व्यक्तित्व प्रादुर्भाव होता है, और सच्चरित्रता का विकास भी। अगले ''चौबेजी कहिन" में 'उपवास' शब्द की व्याख्यात्मक आलेख प्रस्तुत करुंगा।। सनातन धर्म की जय।। भारत माता की जय।। वंदेमातरम् 🚩।। आपका दिन शुभ हो 🙏🌷


रविवार, 17 जून 2018

चौबेजी कहिन:- 'मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः' का उद्घोष करने वाले भारत में 'फादर्स डे' की अहमियत क्यों...?

चौबेजी कहिन:- 'मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः' का उद्घोष करने वाले भारत में 'फादर्स डे' की अहमियत क्यों...? हे 'इण्डिया' वालों आओ 'भारत' की ओर लौट चलें 🚩🙏🚩

(यह आलेख पांच मिनट का समय निकालकर हर एक भारतीय को जरूर पढ़ना चाहिए 🙏)

17/6/2018
वैश्विक स्तर पर विशेष दिवस के रूप में अनेक पर्व एवं कार्यक्रम प्रचलित होने लगे हैं, जिनमें से एक ‘पितृ-दिवस’ यानी ‘फादर्स डे’ भी है। दुनिया में यह अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। भारत, अमेरिका, श्रीलंका, अफ्रीका, पाकिस्तान, बर्मा, बांग्लादेश, जापान, चीन, मलेशिया, इंग्लैण्ड आदि दुनिया के सभी प्रमुख देशों में इसे जून के तीसरे रविवार को मनाते हैं। भारत में पिछले कुछ वर्षों से ‘पितृ-दिवस’ के प्रति रूझान में बड़ी तेजी से बढ़ौतरी दर्ज की जा रही है। ‘फादर्स डे’ मनाने की शुरूआत पश्चिमी वर्जीनिया के फेयरमोंट में 5 जुलाई, 1908 को हुई थी। इसका मूल उद्देश्य 6 दिसम्बर, 1907 को पश्चिम वर्जीनिया के मोनोंगाह की एक खान दुर्घटना में मारे गए 210 पिताओं को सम्मान देना था। ‘फादर्स डे’ के मूल में पश्चिमी वर्जीनिया की एक दर्दनाक खान दुर्घटना मौजूद हो, लेकिन भारत में अपने माता-पिता और गुरु को सम्मान देने और उन्हें भगवान समान समझने के संस्कार एवं नैतिक दायित्व चिरकाल से चलते आ रहे हैं। भारतीय संस्कृति में ‘पितृ-दिवस’ के मायने ही अलग हैं। यहां इस दिवस का मुख्य उद्देश्य अपने पिता द्वारा उनके पालन-पोषण के दौरान किए गए असीम त्याग और उठाए गए अनंत कष्टों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना अथवा स्वर्गीय पिताश्री की स्मृतियों को संजोना है ताकि हम एक श्रेष्ठ एवं आदर्श संतान के नैतिक दायित्वों का भलीभांति पालन कर सकें। इस तरह के सुसंकार भारतीय संस्कृति में कूट-कूटकर भरे हुए हैं। हर रोज 'मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः' का उद्घोष करने वाला 'भारत' वर्ष में 17 दिन पितृपक्ष माता-पिता को समर्पित करने वाले कथित पढ़े-लिखे भारतीयों में नकल करने की आदत बन चुकी है, जिन संकिर्णता भरी अभारतीय संस्कृतियों की उदासीनता तो देखिए जिन्होंने वर्ष का मात्र 2 दिन दिन ही माता-पिता के लिए समर्पित किया एक दिन 'मदर्स डे' और दूसरा 'फादर्स डे' अर्थात् 'पितृ दिवस' के रुप में दिया, उनका हमारे भारतीय समाज के लोग बड़ी तेजी से अनुसरण कर रहे हैं, जो ना केवल हास्यास्पद है बल्कि अपनी आने वाली पीढ़ियों को पाश्चात्य संस्कृति के दल-दल में ढकेलने का कुत्सित प्रयास है! 

'प्रात काल उठि के रघुनाथा !

मात-पिता गुरु नावहीं माथा !!

संभवतः यदि आप लोग अपने बच्चों को गोस्वामी तुलसीदास जी के इस चौपाई का अनुसरण कराते तो शायद देश में मिशनरियों, गैर मिशनरियों द्वारा संचालित 'वृद्धाश्रम' में जाने की जरूरत नहीं पड़ती ! वक्त है अब से चेत जाओ और 'फादर्स डे' की ओर से 'मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः' की ओर वापस लौट आओ! हमारे पिता स्वर्गीय श्री रामजी चौबे एवं बड़े पिताजी स्व.श्री रमाकांत चौबे एवं माता स्व. माया देवी चौबे तथा बड़ी मां स्व.कलावती देवी चौबे जी आप सभी के श्री चरणों में सादर नमन🙏🌹

आज रविवार को अवकाश का दिन है सभी की छुट्टियां रहतीं हैं, इसलिए 'मैं अपने निवास 'भिलाई के शांतिनगर में ही रहता हूं, क्योंकि आज 'ज्योतिष, हस्तरेखा एवं वास्तु' कन्टसल्टिंग क्लांइटों की संख्या अधिक होने से अन्य दिनों की अपेक्षा आज अधिक व्यस्तता होती है, उसी व्यस्तता में हमारे वरिष्ठ एवं मार्गदर्शक श्री कनिरामजी (सहप्रांत प्रचार प्रमुख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ छत्तीसगढ़) रायपुर जी का फोन आया उन्होंने कहा कि- चौबे जी आज 'फादर्स डे' इस विषय पर आप एक प्रेरक आलेख अवश्य लिखें, मैंने कहा जी आदरणीय 🙏 'चौबेजी कहिन' के संस्करण में आपके समक्ष यह आलेख प्रस्तुत करता हूं....🙏 साथियों आज सोशल मीडिया 'फादर्स डे' की 'कंग्रुचुलेशन' से अटा पड़ा है, मुझे लगा 😊 कि आज इस विषय पर आपको अपनी संस्कृति से अवगत कराऊंगा....

भारतीय संस्कृति और पौराणिक साहित्य में माता-पिता और गुरु को जो सर्वोच्च सम्मान और स्थान दिया गया है, शायद उतना कहीं और किसी सभ्यता व संस्कृति में देखने को नहीं मिलेगा।   हिन्दी साहित्य में ‘पिता’ को ‘जनक’, ‘तात’, ‘पितृ’, ‘बाप’, ‘प्रसवी’, ‘पितु’, ‘पालक’, ‘बप्पा’ आदि अनेक पर्यायवाची नामों से जाना जाता है। पौराणिक साहित्य में श्रवण कुमार, अखण्ड ब्रह्चारी भीष्म, मर्यादा पुरुषोत्तम राम आदि अनेक आदर्श चरित्र प्रचुर मात्रा में मिलेंगे, जो एक पिता के प्रति पुत्र के अथाह लगाव एवं समर्पण को सहज बयां करते हैं। वैदिक ग्रन्थों में ‘पिता’ के बारे में स्पष्ट तौर पर उल्लेखित किया गया है कि ‘पाति रक्षति इति पिता’ अर्थात जो रक्षा करता है, ‘पिता’ कहलाता है। यास्काचार्य प्रणीत निरूक्त के अनुसार, ‘पिता पाता वा पालयिता वा’, ‘पिता-गोपिता’ अर्थात ‘पालक’, ‘पोषक’ और ‘रक्षक’ को ‘पिता’ कहते हैं। महाभारत में ‘पिता’ की महिमा का बखान करते हुए कहा गया है:-

 दारूणे च पिता पुत्र नैव दारूणतां व्रजेत। 

पुत्रार्थ पदःकष्टाः पितरः प्रान्पुवन्ति हि।। 

अर्थात, पुत्र क्रूर स्वभाव का हो जाए तो भी पिता उसके प्रति निष्ठुर नहीं हो सकता, क्योंकि पुत्रों के लिए पिताओं को कितनी ही कष्टदायिनी विपत्तियाँ झेलनी पड़ती हैं। महाभारत में युधिष्ठर ने यज्ञ के एक सवाल के जवाब में आकाश से ऊँचा ‘पिता’ को कहा है और यक्ष ने उसे सही माना भी है। इसका अभिप्राय है कि पिता के हृदय-आकाश में अपने पुत्र के लिए जो असीम प्यार होता है, वह अवर्णनीय है। पद्मपुराण में माता-पिता की महत्ता बड़े ही सुनहरी अक्षरों में इस प्रकार अंकित है:-

अर्थात, माता सभी तीर्थों और पिता सभी देवताओं का स्वरूप है। इसलिए सब तरह से माता-पिता का आदर सत्कार करना चाहिए। जो माता-पिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सात द्वीपों से युक्त पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है। माता-पिता को प्रणाम करते समय जिसके हाथ घुटने और मस्तिष्क पृथ्वी पर टिकते हैं, वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है। मनुस्मृति में महर्षि मनु भी पिता की असीम महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं:-

उपाध्यान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता। 

सहस्त्रं तु पितृन माता गौरवेणातिरिच्यते।। 

अर्थात, दस उपाध्यायों से बढ़कर ‘आचार्य’, सौ आचार्यों से बढ़कर ‘पिता’ और एक हजार पिताओं से बढ़कर ‘माता’ गौरव में अधिक है, यानी बड़ी है। ‘पिता’ के बारे में मनुस्मृति में तो यहां तक कहा गया है: ‘‘पिता मूर्ति: प्रजापतेः’’ अर्थात, पिता पालन करने से प्रजापति यानी राजा व ईश्वर का मूर्तिरूप है।   

माता-पिता के ऋण से मुक्त होना असम्भव है। इसीलिए, माता-पिता तथा आचार्य की सेवा-सुश्रुषा ही श्रेष्ठ तप है। लेकिन, विडम्बना का विषय है कि आधुनिक युवा वर्ग अपने पथ से विचलित होकर अपनी प्राचीन भारतीय वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति को निरन्तर भुलाता चला जा रहा है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। आज घर-घर में पिता-पुत्रों के बीच आपसी कटुता, वैमनस्ता और झगड़ा देखने को मिलता है। भौतिकवाद आधुनिक युवावर्ग के सिर चढ़कर बोल रहा है। उसके लिए संस्कृति और संस्कारों से बढ़कर सिर्फ निजी स्वार्थपूर्ति और पैसा ही रह गया है। एक ‘पिता’ अपने पुत्र के मुख से सिर्फ प्रेम व आदर के दो शब्द की उम्मीद करता है, लेकिन उसे पुत्र से उपेक्षित, तिरस्कृत और अभद्र आचरण के अलावा कुछ नहीं मिलता है, हद तो तब हो जाती है जब समाचार पत्रों में यह खबरें सुर्खियां बटोरती है कि एक बेटे ने 'मां' अथवा पिता के मरने के बाद तीन महीने तक लाश घर में रख कर अपने मां और पिताजी के पेंसन लेते रहा। निःसन्देह, यह हमारी आधुनिक शिक्षा प़द्धति के अवमूल्यन का ही दुष्परिणाम है। 

सर्वसौख्यप्रदः पुत्रः पित्रोः प्रीतिविवद्धर्नः।

 आत्मा वै जायते पुत्र इति वेदेषु निश्चितम्।।

 अर्थात, पुत्र सब सुखों को देने वाला होता है, माता-पिता का आनंदवर्द्धक होता है। वेदों में ठीक ही कहा गया है कि आत्मा ही पुत्र के रूप में जन्म लेती है। आधुनिक युवापीढ़ी के लिए 'फादर्स डे' और 'मदर्स-डे' पर सोशल मीडिया में एक दिन माता-पिता के प्रति प्रेम की दो-चार पांति लिख देने मात्र का स्वांग ना करें बल्कि  वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति के अनुरूप वे अपने पिता के प्रति सभी दायित्वों का पालन करने का हरसंभव प्रयास करें। साथ ही महर्षि वेदव्यास जी की यह पंक्ति हमेशा याद रखने की आवश्यकता है कि ‘‘देवतं हि पिता महत्’’ अर्थात ‘पिता’ ही महान देवता है।

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गुरुवार, 14 जून 2018

चौबेजी कहिन:- राजा दशरथ रुपी 'जीव' को 'आत्म साक्षात्कार' करना चाहिए 'आत्महत्या' नहीं, निष्ठा और नैमेत्तिक 'आत्ममंथन' करना चाहिए 'आत्महत्या' नहीं, पढ़े-लिखे लोग ही अधिकांश आत्महत्याएं कर रहे हैं, कारण क्या है??

मित्रों नमस्कार 🙏 आज 'चौबेजी कहिन' में आत्महत्या विषय पर चर्चा करुंगा, आज सर्वहारा समाज में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति, चिन्ताजनक है यह जिस परिवार में होता है उस परिवार की सभी ख्वाहिशें शीशे की तरह चकनाचूर हो जाती हैं! छात्र-छात्राओं, बड़े-बूढे, अवसाद ग्रस्त बड़े ओहदे पर बैठे बड़े अधिकारी सहित अब तो इन्दौर के कथित आध्यात्मिक गुरु भैय्युजी महाराज ने भी आत्महत्या कर हम सबको चौंका दिया ! साथियों आत्महत्या करने के कई कारण हो सकते हैं, परन्तु आजतक जो हमने अनुभव किया है,जिन कारणों से वह व्यक्ति या महिला आत्महत्या करती है, आत्महत्या के बाद कभी उन समस्याओं का हल तो नहीं होता वरन् समस्याएं बढ़ती ही है, मुझे लगता है कि-आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों के प्रति गद्दार होता है, कायर होते हैं, फेमिली-मैनेजमेंट में विफल होते हैं या अपने अपराध को छुपाने के लिए 'अात्महत्या' जैसा महाअपराध कर बैठते हैं, क्योंकि ये अधिकतर आत्महत्या करने वाले पढ़े-लिखे लोग होते हैं ! जरा इन आंकड़ों पर ध्यान दें..

सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2014 में 1,31,666 लोगों ने आत्महत्या की। आत्महत्या करने वालों में 80% लोग साक्षर थे, जो देश की राष्ट्रीय साक्षरता दर 74% से अधिक है। 2015,2016,2017 में यह दर बढ़ती ही जा रही है! आपने अनुभव किया होगा कि अधिकांश धर्मपरिवर्तन भी पढ़े-लिखे लोग ही करते हैं, एकाध को छोड़ दें तो कानून के जानकार ही कानून का उलंघन करते हैं, उसी प्रकार क्षणिक आवेश में और क्षणभंगुर मान-सम्मान में अंधे लोगों द्वारा ही हिंसा की जाती है, ठीक उसी तरह अधिकांश आत्महत्याएं पढ़े-लिखे लोग ही करते हैं! यह जानते हुए कि- आत्महत्या करने के बाद 'अंधतमिस्त्र' नामक पीड़ादायक घोर नरक में 60 हजार वर्षों तक यम-यातनाएं सहनी पड़ती है, जैसा कि पराशर संहिता और गरुड़ पुराण में कहा गया है!  मैंने भिलाई में भी इसी प्रकार की परिवारों को उजड़ते देखा है आखिर ऐसा क्यों? यह स्थिति केवल भारत की नहीं वरन् भारतेतर देशों में भी 'आत्महत्या एक अभिशाप' बन चुका है कुछ प्रमाण प्रस्तुत कर रहा हूं आपको यह जानकर आश्चर्य होगा ! यूनान के महान दार्शनिक डायोजनीज़ अपने हाथों फाँसी लगा कर मरे थे। और हिटलर का नाम तो आपने सुना ही होगा वह अपनी पिस्तौल से गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी। अब आईए साहित्यकारों पर एक नज़र डालते हैं- ‘मृच्छकटिकम्’ के लेखक शूद्रक आग में जल मरे थे। ‘जानकी हरण’ महाकाव्य के रचनाकार सिंहल देश के राजा की मृत्यु का शोक न सह सके और और चिंता में जल मरे। चीनी साहित्यकार लाओत्से ने भी अपनी मौत स्वयं बुलायी थी। लैटिन कवि एम्पेदोक्लीज ने ज्वालामुखी में कूदकर आत्मघात किया था। इसी तरह 'सेल्फीयाना के शौकीन' सेल्फी पोज के चक्कर में कई सनकी बच्चे जानबूझकर मर जाते हैं उसे भी 'आत्महत्या' ही कहा जाता है, एक महासनकी 'लुकेषियस' ने अपने को चिरस्मरणीय बनाने के लिए ऐसा किया था। महाकवि चैटरसन ने दरिद्रता से पीछा छुड़ाने के लिए विषपान कर लिया था। गोर्की ने पेट में पिस्तौल चल कर उसने विदीर्ण कर डाला। आस्ट्रेलियाई साहित्यकार स्टीफेन ज्विग अपने आत्मघात का कारण बताते हुए भैय्युजी महाराज जैसे ही स्टीफेन ज्विग ने एक सुसाइड नोट छोड़ गया था जिसमें लिखा था “अब संघर्षों से टकराने की मेरी शक्ति चुक गई है। अशक्त जीवन का अन्त कर लेना मुझे अधिक अच्छा जँचा।” अर्थात् यह आत्महत्या की वजह अवसाद है जिसका कारण है नकली योगी, नकली ज्ञानीराम बनना है, हमें यदि इससे बचना है तो असली आध्यात्मिकता की ओर जाना होगा ! सर्वप्रथम मैं बड़ी जिम्मेदारी से कह सकता हूं कि गुरु, संत, यती और योगी कभी आत्महत्या नहीं कर सकता! मैंने स्वामी विवेकानंद जी के जीवन चरित्र को पढा वह बेहद कठिनाइयों भरा बाल्यकाल व्यतीत किए और विश्व के 'स्वामी विवेकानंद' बनकर आध्यात्मिक ज्ञान दिया, उसी प्रकार श्री विनायक दामोदर सावरकर जी की जीवनी पढ़ी विषम से विषम परिस्थितियों में भी वह 'स्वातंत्र्य वीर सावरकर' की उपाधि लेना स्वीकार किये ना की 'आत्महत्या' !  अवसाद ग्रस्त लोगों को ऐसे ऐसे कई विराट व्यक्तित्व हमारे भारतीय इतिहास के पन्नों में भरे पड़े हैं उनके जीवन चरित्र को हमें स्वयं और बच्चों को पढ़ाया जाना चाहिए ताकि वह कठिन परिस्थितियों में और मजबूत होकर उभरें ! अब आईए आपको एक गार्हस्थ्य 'योगी' राजा दशरथ के बारे में कुछ बताना चाहूंगा क्योंकि काल परिस्थिति वश कुछ लोगों को दो विवाह करने पड़ते हैं, और पारिवारिक कलह भी झेलने पड़ते हैं जिसका दुष्परिणाम भैय्युजी जैसी शख्सियत को आत्महत्या करके भुगतनी पड़ती है, मैं आज 'चौबेजी कहिन' में तीन पत्नियों के पति दशरथ जी के संदर्भ को रखना चाहता हूं! राजा दशरथ रुपी हम सामान्य 'जीव' की कहानी है उन्होंने देवासुर संग्राम में देवताओं की ओर से युद्ध करके देवताओं को विजयश्री प्राप्त कराया, लेकिन कैकेई के समक्ष हार गए लेकिन वह 'गृहस्थ योगी दशरथ' कभी नहीं हारा, आईए उस 'योगी' के योग की चर्चा करें!

योग का पथ कठिन साधना-पथ है. थोड़ी सी असावधानी भी साधक को उसके स्थान से, उसके प्राप्य और प्राप्ति से, भटका सकता है. उसके जीवन में उथल-पुथल मचा सकता है. त्रिगुणरुपी रानियों कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी के प्रति भाव असंतुलन राजा दशरथ को 'शासक दशरथ' के स्थान से च्युतकर 'शासित दशरथ' बना देता है। फलतः अब वृत्तियों द्वारा 'शासित दशरथ' की अभिलाषाएं, आकांक्षाये अधूरी रहतीं है, परिस्थितियाँ विपरीत हो जातीं हैं; शोक - पश्चाताप - दु:ख - अतिशय दु:ख, और अन्त में कष्टदायी मृत्यु. योगपथ में शिथिलता और सहस्रार तक की यात्रा पूरी न कर पाने के कारण 'तत्त्व साक्षात्कार' से भी वंचित होना पड़ता है, और वह 'काल को गले लगा कर पंखे पर झूल जाता है' जो 'आध्यात्मिक योगपथ पर स्वार्थांधता भरी काई से फिसल जाता है, अत: हर दशरथ रुपी 'जीव' को बड़ा ही साफगोई से 'आत्म साक्षात्कार' करना चाहिए आत्महत्या नहीं, आत्ममंथन करना चाहिए आत्महत्या नहीं!


बुधवार, 6 जून 2018

चौबेजी कहिन:- निराकार से साकार की ओर चलें और 'पब' की पाश्चात्य संस्कृति से बच्चों को 'प्रात: प्रणाम' की भारतीय संस्कृति की ओर लाने के लिए पौराणिक प्रसंगों से बच्चों को जोड़ें

चौबेजी कहिन:- निराकार से साकार की ओर चलें और 'पब' की पाश्चात्य संस्कृति से बच्चों को 'प्रात: प्रणाम' की भारतीय संस्कृति की ओर लाने के लिए पौराणिक प्रसंगों से बच्चों को जोड़ें..

साथियों मंगल कामनाओं सहित सुप्रभात 🌺🌹😊 आज 'चौबेजी कहिन' में चर्चा करुंगा 'निराकार से साकार की ओर' मै जानता हूं की वेदांत के विद्वान या मूर्ति पूजा विरोधी हमारे इस आलेख से सहमत ना हों परन्तु मेरा उद्देश्य आपको सरलता पूर्वक इस गूढ़ रहस्य से अवगत कराना है, ऐसा नहीं की मैं 'ज्योतिषी' हूं इसलिए आपको मूर्ति पूजा या यज्ञ अनुष्ठान के लिए प्रेरित कर रहा हूं, बल्कि मैं 'एजूकेसन हब' भिलाई में रहता हूं, आजकी सुदूरवर्ती इलाकों से यहां अध्ययन करने यहां नयी पीढ़ी के बच्चे आते हैं जिनसे हमारी मुलाकात होती है, और चर्चा होती है उन बच्चों से तो वे 'इण्टरनेट' पर उपलब्ध 'मूर्तिपूजा' विरोधियों और वामपंथियों द्वारा लिखित पुस्तकों का अध्ययन कर ईश्वरीय सत्ता से स्वयं को दूर कर 'सनातनी मूर्ति पूजा' के प्रति अनासक्ति प्रकट करते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि धिरे धिरे वह 'ईश्वर' के तो नहीं हुए लेकिन वे अंजाने में 'ईशु' के जरुर बन जाते हैं और स्वयं को 'लिबरल' कहकर 'सनातनी तनाच्छेदक बनकर एक घातक सिद्ध हो जातें हैं इसका साईड इफेक्ट्स जल्द ही 'प्रात: प्रणाम' की संस्कृति छोड़ 'पब' की पाश्चात्य संस्कृति की ओर रुख कर माता,पिता, भाई, बहन तथा 'राम' के द्रोही बनते जा रहे हैं, क्षमा चाहता हूं मित्रों आज युवाओं को 'साकार से निराकार' जैसा कठिन उपदेश का उपदेश आज की युवा पीढ़ी को मत दो, इनको सर्वप्रथम 'निराकार से साकार' की ओर लाकर 'राम' के प्रति आस्थावान बनाओ ताकि इनके जीवन में 'राम के आदर्शों' का प्रवेश कराया जा सके यह तभी संभव है जब मूर्ति पूजा का प्रतिष्ठित किया जायेगा, और इसी बात को वेद कई प्रसंगों में पाया गया है, लेकिन शुरुआत करुंगा श्रीरामचरितमानस के बालकांड के इस चौपाई से..


बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। 



इसका मतलब गोस्वामी तुलसीदास जी भी 'निराकार सत्ता' को स्वीकृति देते हैं परन्तु वह 'नवधा भक्ति' के नौ सोपान का उल्लेख कर 'भक्ति' मार्ग को सुगम व श्रेष्ठ मानते हैं! मैं एक छोटा सा और उदाहरण आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूं- शुक्ल यजुर्वेद में एक मंत्र है जिसमें शिव, इन्द्र आदि देवताओं का साकार रुप में वर्णन है- इस मंत्र को रुद्राष्टाध्यायी के सप्तम अध्याय में भी सम्मिलित किया गया है-



इसका अर्थ है-अपने रक्त को स्वस्थ रखने हेतु उग्रदेव को, सदाचार रूप सुंदर व्रत से मित्रदेव को, दुर्धर्ष व्रत से रुद्र एवं क्रीडा विशेष द्वारा इंद्र को सामर्थ्यविशेष द्वारा मरुतो को, हृदय की प्रसन्नता द्वारा साध्यों को प्रसन्न करता हूँ। अपने कंठस्थित मांस में शिव को, पार्श्व भाग के मांस में रुद्र को एवं यकृत के मांस में महादेव को, स्थूलान्त्र द्वारा शर्व को और हृदयाच्छादित नाड़ी की झिल्लियों से पशुपति को प्रसन्न करता हूँ।”

इस प्रकार के कई तथ्य ईश्वरीय सत्ता के साकार स्वरूप का वर्णन करते हैं- ऋग्वेद के प्रथम मंडल के सूक्त संख्या 19 में एक मन्त्र को देखे।

“ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः। मरुद्भिरग्न आ गहि।।

“जो शुभ्र तेजो से युक्त तीक्ष्ण,वेधक रूप वाले, श्रेष्ठबल-सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले है। हे अग्निदेव! आप उन मरुतो के साथ यहाँ पधारें।”
अब तो आप समझ ही गए होंगे कि- ऐसे असंख्य तथ्यों ने ही मूर्ति पूजा विरोधी नरेंद्र को 'स्वामी विवेकानंद' बनाया जिन्होंने भारत को पूरे विश्व में प्रतिष्ठित किया! हां एक कथित बाबा की भेष में व्यापारी-कलियुगीन-अत्त्पुरुष जिस तरह से वेदांग 'ज्योतिष' एवं की 'पौराणिक' संदर्भों पर गाहे-बगाहे निरर्थक टिप्पणी करता है वह दरअसल वेद का सुविधानुसारी व्याख्या करता है उसके बहकावे में ना आएं खैर, आईए विषय पर वापस चलते हैं, तो वेदों में यह कहा गया है कि- वेदों के गर्भ से ही पुराणों का प्राकट्य हुआ-
“ऋच: सामानि च्छंदांसि पुराणं यजुषा सह। उच्छिष्टाञ्जज्ञिरे दिवि देवा दिविश्रित:।।” (अथ. 11|9)
इस श्लोक में वैदिक मुनियों नें कहा कि पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था।
“इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपर्बंहयेत्” (बृहदारण्यकोपनिषद्)

अन्त में मैं यही कहना चाहूंगा कि आप लोग अपने बच्चों को पौराणिक कथाओं प्रसंगों से भरसक जोड़ने काम करें ताकि वह बच्चा युवा होने बाद भी 'प्रात: प्रणाम' की भारतीय संस्कृति का अवगाहक बने बजाय 'पब' के पाश्चात्य संस्कृति की! वेदों को जानने का प्रथम सीढ़ी है पौराणिक कथाएं, जरा सोचिएगा! यह लेख अच्छा लगे तो शेयर जरुर करें, और हे, दुर्गम राक्षसों कॉपी पेस्ट मत करना नहीं तो तुम्हारा बौद्धिक सर्वनाश करने 'दुर्गा' जी का प्राकट्य हो जायेगा, क्योंकि मार्कण्डेय पुराण का 'दुर्गम' भी कॉपी पेस्टीहा अराजक तत्व था, कभी इस विषय पर भी चर्चा करुंगा, अस्तु!
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य'राष्ट्रीय मासिक पत्रिका शांतिनगर भिलाई-दुर्ग, छत्तीसगढ़ मोबाइल नं- 9827198828

चौबेजी कहिन:- निराकार से साकार की ओर चलें और 'पब' की पाश्चात्य संस्कृति से बच्चों को 'प्रात: प्रणाम' की भारतीय संस्कृति की ओर लाने के लिए पौराणिक प्रसंगों से बच्चों को जोड़ें

चौबेजी कहिन:- निराकार से साकार की ओर चलें और 'पब' की पाश्चात्य संस्कृति से बच्चों को 'प्रात: प्रणाम' की भारतीय संस्कृति की ओर लाने के लिए पौराणिक प्रसंगों से बच्चों को जोड़ें..

साथियों मंगल कामनाओं सहित सुप्रभात 🌺🌹😊 आज 'चौबेजी कहिन' में चर्चा करुंगा 'निराकार से साकार की ओर' मै जानता हूं की वेदांत के विद्वान या मूर्ति पूजा विरोधी हमारे इस आलेख से सहमत ना हों परन्तु मेरा उद्देश्य आपको सरलता पूर्वक इस गूढ़ रहस्य से अवगत कराना है, ऐसा नहीं की मैं 'ज्योतिषी' हूं इसलिए आपको मूर्ति पूजा या यज्ञ अनुष्ठान के लिए प्रेरित कर रहा हूं, बल्कि मैं 'एजूकेसन हब' भिलाई में रहता हूं, आजकी सुदूरवर्ती इलाकों से यहां अध्ययन करने यहां नयी पीढ़ी के बच्चे आते हैं जिनसे हमारी मुलाकात होती है, और चर्चा होती है उन बच्चों से तो वे 'इण्टरनेट' पर उपलब्ध 'मूर्तिपूजा' विरोधियों और वामपंथियों द्वारा लिखित पुस्तकों का अध्ययन कर ईश्वरीय सत्ता से स्वयं को दूर कर 'सनातनी मूर्ति पूजा' के प्रति अनासक्ति प्रकट करते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि धिरे धिरे वह 'ईश्वर' के तो नहीं हुए लेकिन वे अंजाने में 'ईशु' के जरुर बन जाते हैं और स्वयं को 'लिबरल' कहकर 'सनातनी तनाच्छेदक बनकर एक घातक सिद्ध हो जातें हैं इसका साईड इफेक्ट्स जल्द ही 'प्रात: प्रणाम' की संस्कृति छोड़ 'पब' की पाश्चात्य संस्कृति की ओर रुख कर माता,पिता, भाई, बहन तथा 'राम' के द्रोही बनते जा रहे हैं, क्षमा चाहता हूं मित्रों आज युवाओं को 'साकार से निराकार' जैसा कठिन उपदेश का उपदेश आज की युवा पीढ़ी को मत दो, इनको सर्वप्रथम 'निराकार से साकार' की ओर लाकर 'राम' के प्रति आस्थावान बनाओ ताकि इनके जीवन में 'राम के आदर्शों' का प्रवेश कराया जा सके यह तभी संभव है जब मूर्ति पूजा का प्रतिष्ठित किया जायेगा, और इसी बात को वेद कई प्रसंगों में पाया गया है, लेकिन शुरुआत करुंगा श्रीरामचरितमानस के बालकांड के इस चौपाई से..


बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। 



इसका मतलब गोस्वामी तुलसीदास जी भी 'निराकार सत्ता' को स्वीकृति देते हैं परन्तु वह 'नवधा भक्ति' के नौ सोपान का उल्लेख कर 'भक्ति' मार्ग को सुगम व श्रेष्ठ मानते हैं! मैं एक छोटा सा और उदाहरण आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूं- शुक्ल यजुर्वेद में एक मंत्र है जिसमें शिव, इन्द्र आदि देवताओं का साकार रुप में वर्णन है- इस मंत्र को रुद्राष्टाध्यायी के सप्तम अध्याय में भी सम्मिलित किया गया है-



इसका अर्थ है-अपने रक्त को स्वस्थ रखने हेतु उग्रदेव को, सदाचार रूप सुंदर व्रत से मित्रदेव को, दुर्धर्ष व्रत से रुद्र एवं क्रीडा विशेष द्वारा इंद्र को सामर्थ्यविशेष द्वारा मरुतो को, हृदय की प्रसन्नता द्वारा साध्यों को प्रसन्न करता हूँ। अपने कंठस्थित मांस में शिव को, पार्श्व भाग के मांस में रुद्र को एवं यकृत के मांस में महादेव को, स्थूलान्त्र द्वारा शर्व को और हृदयाच्छादित नाड़ी की झिल्लियों से पशुपति को प्रसन्न करता हूँ।”

इस प्रकार के कई तथ्य ईश्वरीय सत्ता के साकार स्वरूप का वर्णन करते हैं- ऋग्वेद के प्रथम मंडल के सूक्त संख्या 19 में एक मन्त्र को देखे।

“ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः। मरुद्भिरग्न आ गहि।।

“जो शुभ्र तेजो से युक्त तीक्ष्ण,वेधक रूप वाले, श्रेष्ठबल-सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले है। हे अग्निदेव! आप उन मरुतो के साथ यहाँ पधारें।”
अब तो आप समझ ही गए होंगे कि- ऐसे असंख्य तथ्यों ने ही मूर्ति पूजा विरोधी नरेंद्र को 'स्वामी विवेकानंद' बनाया जिन्होंने भारत को पूरे विश्व में प्रतिष्ठित किया! हां एक कथित बाबा की भेष में व्यापारी-कलियुगीन-अत्त्पुरुष जिस तरह से वेदांग 'ज्योतिष' एवं की 'पौराणिक' संदर्भों पर गाहे-बगाहे निरर्थक टिप्पणी करता है वह दरअसल वेद का सुविधानुसारी व्याख्या करता है उसके बहकावे में ना आएं खैर, आईए विषय पर वापस चलते हैं, तो वेदों में यह कहा गया है कि- वेदों के गर्भ से ही पुराणों का प्राकट्य हुआ-
“ऋच: सामानि च्छंदांसि पुराणं यजुषा सह। उच्छिष्टाञ्जज्ञिरे दिवि देवा दिविश्रित:।।” (अथ. 11|9)
इस श्लोक में वैदिक मुनियों नें कहा कि पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था।
“इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपर्बंहयेत्” (बृहदारण्यकोपनिषद्)

अन्त में मैं यही कहना चाहूंगा कि आप लोग अपने बच्चों को पौराणिक कथाओं प्रसंगों से भरसक जोड़ने काम करें ताकि वह बच्चा युवा होने बाद भी 'प्रात: प्रणाम' की भारतीय संस्कृति का अवगाहक बने बजाय 'पब' के पाश्चात्य संस्कृति की! वेदों को जानने का प्रथम सीढ़ी है पौराणिक कथाएं, जरा सोचिएगा! यह लेख अच्छा लगे तो शेयर जरुर करें, और हे, दुर्गम राक्षसों कॉपी पेस्ट मत करना नहीं तो तुम्हारा बौद्धिक सर्वनाश करने 'दुर्गा' जी का प्राकट्य हो जायेगा, क्योंकि मार्कण्डेय पुराण का 'दुर्गम' भी कॉपी पेस्टीहा अराजक तत्व था, कभी इस विषय पर भी चर्चा करुंगा, अस्तु!
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य'राष्ट्रीय मासिक पत्रिका शांतिनगर भिलाई-दुर्ग, छत्तीसगढ़ मोबाइल नं- 9827198828

शनिवार, 2 जून 2018

चौबेजी कहिन:- 'मृत्यु से भयभीत ना हों' 'Must Include in Sunday Study' 'मनन' करने वाले को 'मनुष्य' कहा जाता है, मननशीलता के अभाव में 'मनुष्य' आकृति में 'पशु' है, प्रस्तुत है कठोपनिषद के 'नचिकेता-यमराज' का रोचक प्रसंग


चौबेजी कहिन:- 'मृत्यु से भयभीत ना हों'
'Must Include in Sunday Study' 'मनन' करने वाले को 'मनुष्य' कहा जाता है, मननशीलता के अभाव में 'मनुष्य' आकृति में 'पशु' है, प्रस्तुत है कठोपनिषद के 'नचिकेता-यमराज' का रोचक प्रसंग!


रविवारीय मंगल प्रभात 🚩🌺🚩 साथियों नमस्कार 🙏 आज 'चौबेजी कहिन' में चर्चा करुंगा 'नचिकेता का रोचक प्रसंग' । जिसे आज 'मस्ट इन्क्लूड इन संडे-स्टडी' में शामिल करें !  कठोपनिषद में 'मृत्यु' को 'आचार्य' कहा गया है, वहीं तैत्तिरीय उपनिषद् में मृत्यु को 'अतिथि' कहा गया है। आपने देखा होगा जब भी आपके घर में कोई अनुष्ठान यज्ञ होता है उसमे यज्ञाचार्य द्वारा चावल के चार अलग-अलग रंगों मे रंगा हुआ चावल के 'अक्षतपुंजो' से  'सर्वतोभद्र मंडल' का निर्माण किया जाता है शायद आपको पता नहीं की उस 'सर्वतोभद्र मंडल' में 'मृत्यु' का देवता के रूप में हर शुभ/मांगलिक कार्यों में पूजन किया जाता है, ऐसा क्यों ? तो आईए इस रहस्य को समझने का प्रयास करें ! सर्वप्रथम हमें 'नचिकेता’ को समझना होगा । इसके लिए हमें कठोपनिषद में प्रवेश करें 🙏

महर्षि वाजश्रवा के पौत्र एवं उद्दालक का पुत्र 'नचिकेता' अत्यन्त बुद्धिमान एवं सात्त्विक था। 





'चौबेजी कहिन'के प्रिय पाठकों, हमें मनुष्य योनि बड़े सौभाग्य से प्राप्त हुआ है 'बडे भाग मानुष तन पावा'। हमें प्रकृति ने मनुष्य को चिन्तन मनन की शक्ति दी है, पशु को नहीं। मनन करने से ही वह मनुष्य होता है, अन्यथा मानव की आकृति में वह पशु ही होता है। चिन्तन के द्वारा ही मनुष्य ने ज्ञान-विज्ञान में प्रगति की है तथा चिन्तन के द्वारा ही मनुष्य उचित-अनुचित धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि का निर्णय करता है। चिन्तन के द्वारा ही विवेक उत्पन्न होता है तथा वह स्मृति कल्पना आदि का सदुपयोग कर सकता है। चिन्तन को स्वस्थ दिशा देना श्रेष्ठ पुरुष का लक्षण होता है। एक ऐसे ही ऋषि-पुत्र 'नचिकेता' का उपाख्यान है! 


वैदक-साहित्य में आचार्य को 'मृत्यु' के महत्त्वपूर्ण पद से अलंकृत किया गया है।'आचार्यो मृत्यु:।'आचार्य मानो माता की भांति तीन दिन और तीन रात गर्भ में रखकर नवीन जन्म देता है। 'नचिकेता' का अर्थ 'न जाननेवाला, जिज्ञासु' है तथा यमराज 'यमाचार्य' है, मृत्यु के सदृश आंखे खोलनेवाले गुरु भी हैंं जिनका हम हर यज्ञ/मांगलिक कार्यों में पूजन व आराधना करते हैं!

तैत्तिरीय उपनिषद् में 'मृत्यु' को 'अतिथि' के रुप में प्रतिष्ठित किया है !


अतिथिदेवो भव (तै० उप० १.११.२)
जहां नचिकेता को यमराज तीन वरदान देता है। कठोपनिषद् के उपाख्यान तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण के उपाख्यान में पर्याप्त समानता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के उपाख्यान में यमराज मृत्यु पर विजय के लिए कुछ यज्ञादि का उपाय कहता है, किन्तु कठोपनिषद् कर्मकाण्ड से ऊपर उठकर ब्रह्मज्ञान की महत्ता को प्रतिष्ठित करता है। उपनिषदों में कर्मकाण्ड को ज्ञान की अपेक्षा अत्यन्त निकृष्ट कहा गया है।
यद्यपि यम-नचिकेता-संवाद ऋग्वेद तथा तै० ब्राह्मण में भी एक कल्पित उपाख्यान के रुप में ही है, कठोपनिषद् के ऋषि ने इसे एक आलंकारिक शैली में प्रस्तुत करके इस काव्यात्मक सौंदर्य का रोचक पुट दे दिया है। कठोपनिषद् जैसे श्रेष्ठ ज्ञान-ग्रन्थ का समारंभ रोचक, हृदयग्राही एवं सुन्दर होना उसके अनुरुप् ही है। मृत्यु के यथार्थ को समझाने के लिए साक्षात् मृत्यु के देवता यमराज को यमाचार्य के रुप में प्रस्तुत करना कठोपनिषद् के प्रणेता का अनुपम नाटकीय कौशल है। यह कल्पनाशक्ति के प्रयाग का भव्य स्वरुप् है।


-आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य'राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर भिलाई-दुर्ग, छत्तीसगढ़ मोबाइल नं. 9827198828

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3/6/2018

रविवारीय मंगल प्रभात 🚩🌺🚩 साथियों नमस्कार 🙏 आज 'चौबेजी कहिन' में चर्चा करुंगा 'नचिकेता का रोचक प्रसंग' । जिसे आज 'मस्ट इन्क्लूड इन संडे-स्टडी' में शामिल करें !  कठोपनिषद में 'मृत्यु' को 'आचार्य' कहा गया है, वहीं तैत्तिरीय उपनिषद् में मृत्यु को 'अतिथि' कहा गया है। आपने देखा होगा जब भी आपके घर में कोई अनुष्ठान यज्ञ होता है उसमे यज्ञाचार्य द्वारा चावल के चार अलग-अलग रंगों मे रंगा हुआ चावल के 'अक्षतपुंजो' से  'सर्वतोभद्र मंडल' का निर्माण किया जाता है शायद आपको पता नहीं की उस 'सर्वतोभद्र मंडल' में 'मृत्यु' का देवता के रूप में हर शुभ/मांगलिक कार्यों में पूजन किया जाता है, ऐसा क्यों ? तो आईए इस रहस्य को समझने का प्रयास करें ! सर्वप्रथम हमें 'नचिकेता’ को समझना होगा । इसके लिए हमें कठोपनिषद में प्रवेश करें 🙏



ॐ अशन् ह वै वाजश्रवस: सर्ववेदसं ददौ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥१॥क.व.१!!

 वाजश्रवस्(उद्दालक) ने यज्ञ के फल की कामना रकते हुए (विश्वजित यज्ञ में) अपना सब धन दान दे दिया। उद्दालक का नचिकेता नाम से ख्यात एक पुत्र था।

तं ह कुमारं सन्तं दक्षिणासु नीयमानसु श्रद्धा आविवेश सोऽमन्यत ॥२॥ 

जिस समय दक्षिणा के लिए गौओं को ले जाया जा रहा था, तब छोटा बालक होते हुए भी उस नचिकेता में श्रद्धाभाव (ज्ञान-चेतना, सात्त्विक-भाव) उत्पन्न हो गया तथा उसने चिन्तन-मनन प्रारंभ कर दिया। 

'चौबेजी कहिन'के प्रिय पाठकों, हमें मनुष्य योनि बड़े सौभाग्य से प्राप्त हुआ है 'बडे भाग मानुष तन पावा'। हमें प्रकृति ने मनुष्य को चिन्तन मनन की शक्ति दी है, पशु को नहीं। मनन करने से ही वह मनुष्य होता है, अन्यथा मानव की आकृति में वह पशु ही होता है। चिन्तन के द्वारा ही मनुष्य ने ज्ञान-विज्ञान में प्रगति की है तथा चिन्तन के द्वारा ही मनुष्य उचित-अनुचित धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि का निर्णय करता है। चिन्तन के द्वारा ही विवेक उत्पन्न होता है तथा वह स्मृति कल्पना आदि का सदुपयोग कर सकता है। चिन्तन को स्वस्थ दिशा देना श्रेष्ठ पुरुष का लक्षण होता है। एक ऐसे ही ऋषि-पुत्र 'नचिकेता' का उपाख्यान है! 

वैदक-साहित्य में आचार्य को 'मृत्यु' के महत्त्वपूर्ण पद से अलंकृत किया गया है।'आचार्यो मृत्यु:।'आचार्य मानो माता की भांति तीन दिन और तीन रात गर्भ में रखकर नवीन जन्म देता है। 'नचिकेता' का अर्थ 'न जाननेवाला, जिज्ञासु' है तथा यमराज 'यमाचार्य' है, मृत्यु के सदृश आंखे खोलनेवाले गुरु भी हैंं जिनका हम हर यज्ञ/मांगलिक कार्यों में पूजन व आराधना करते हैं!



अतिथिदेवो भव (तै० उप० १.११.२)
जहां नचिकेता को यमराज तीन वरदान देता है। कठोपनिषद् के उपाख्यान तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण के उपाख्यान में पर्याप्त समानता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के उपाख्यान में यमराज मृत्यु पर विजय के लिए कुछ यज्ञादि का उपाय कहता है, किन्तु कठोपनिषद् कर्मकाण्ड से ऊपर उठकर ब्रह्मज्ञान की महत्ता को प्रतिष्ठित करता है। उपनिषदों में कर्मकाण्ड को ज्ञान की अपेक्षा अत्यन्त निकृष्ट कहा गया है।
यद्यपि यम-नचिकेता-संवाद ऋग्वेद तथा तै० ब्राह्मण में भी एक कल्पित उपाख्यान के रुप में ही है, कठोपनिषद् के ऋषि ने इसे एक आलंकारिक शैली में प्रस्तुत करके इस काव्यात्मक सौंदर्य का रोचक पुट दे दिया है। कठोपनिषद् जैसे श्रेष्ठ ज्ञान-ग्रन्थ का समारंभ रोचक, हृदयग्राही एवं सुन्दर होना उसके अनुरुप् ही है। मृत्यु के यथार्थ को समझाने के लिए साक्षात् मृत्यु के देवता यमराज को यमाचार्य के रुप में प्रस्तुत करना कठोपनिषद् के प्रणेता का अनुपम नाटकीय कौशल है। यह कल्पनाशक्ति के प्रयाग का भव्य स्वरुप् है।


🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩 सनातनधर्म की जय!! जय श्रीराम !! जयतु भारतीय संस्कृति!! वंदेमातरम्!! 🚩🌹🚩🌹🌺🌹🌺🌼