ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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बुधवार, 6 जून 2018

चौबेजी कहिन:- निराकार से साकार की ओर चलें और 'पब' की पाश्चात्य संस्कृति से बच्चों को 'प्रात: प्रणाम' की भारतीय संस्कृति की ओर लाने के लिए पौराणिक प्रसंगों से बच्चों को जोड़ें

चौबेजी कहिन:- निराकार से साकार की ओर चलें और 'पब' की पाश्चात्य संस्कृति से बच्चों को 'प्रात: प्रणाम' की भारतीय संस्कृति की ओर लाने के लिए पौराणिक प्रसंगों से बच्चों को जोड़ें..

साथियों मंगल कामनाओं सहित सुप्रभात 🌺🌹😊 आज 'चौबेजी कहिन' में चर्चा करुंगा 'निराकार से साकार की ओर' मै जानता हूं की वेदांत के विद्वान या मूर्ति पूजा विरोधी हमारे इस आलेख से सहमत ना हों परन्तु मेरा उद्देश्य आपको सरलता पूर्वक इस गूढ़ रहस्य से अवगत कराना है, ऐसा नहीं की मैं 'ज्योतिषी' हूं इसलिए आपको मूर्ति पूजा या यज्ञ अनुष्ठान के लिए प्रेरित कर रहा हूं, बल्कि मैं 'एजूकेसन हब' भिलाई में रहता हूं, आजकी सुदूरवर्ती इलाकों से यहां अध्ययन करने यहां नयी पीढ़ी के बच्चे आते हैं जिनसे हमारी मुलाकात होती है, और चर्चा होती है उन बच्चों से तो वे 'इण्टरनेट' पर उपलब्ध 'मूर्तिपूजा' विरोधियों और वामपंथियों द्वारा लिखित पुस्तकों का अध्ययन कर ईश्वरीय सत्ता से स्वयं को दूर कर 'सनातनी मूर्ति पूजा' के प्रति अनासक्ति प्रकट करते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि धिरे धिरे वह 'ईश्वर' के तो नहीं हुए लेकिन वे अंजाने में 'ईशु' के जरुर बन जाते हैं और स्वयं को 'लिबरल' कहकर 'सनातनी तनाच्छेदक बनकर एक घातक सिद्ध हो जातें हैं इसका साईड इफेक्ट्स जल्द ही 'प्रात: प्रणाम' की संस्कृति छोड़ 'पब' की पाश्चात्य संस्कृति की ओर रुख कर माता,पिता, भाई, बहन तथा 'राम' के द्रोही बनते जा रहे हैं, क्षमा चाहता हूं मित्रों आज युवाओं को 'साकार से निराकार' जैसा कठिन उपदेश का उपदेश आज की युवा पीढ़ी को मत दो, इनको सर्वप्रथम 'निराकार से साकार' की ओर लाकर 'राम' के प्रति आस्थावान बनाओ ताकि इनके जीवन में 'राम के आदर्शों' का प्रवेश कराया जा सके यह तभी संभव है जब मूर्ति पूजा का प्रतिष्ठित किया जायेगा, और इसी बात को वेद कई प्रसंगों में पाया गया है, लेकिन शुरुआत करुंगा श्रीरामचरितमानस के बालकांड के इस चौपाई से..


बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। 



इसका मतलब गोस्वामी तुलसीदास जी भी 'निराकार सत्ता' को स्वीकृति देते हैं परन्तु वह 'नवधा भक्ति' के नौ सोपान का उल्लेख कर 'भक्ति' मार्ग को सुगम व श्रेष्ठ मानते हैं! मैं एक छोटा सा और उदाहरण आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूं- शुक्ल यजुर्वेद में एक मंत्र है जिसमें शिव, इन्द्र आदि देवताओं का साकार रुप में वर्णन है- इस मंत्र को रुद्राष्टाध्यायी के सप्तम अध्याय में भी सम्मिलित किया गया है-



इसका अर्थ है-अपने रक्त को स्वस्थ रखने हेतु उग्रदेव को, सदाचार रूप सुंदर व्रत से मित्रदेव को, दुर्धर्ष व्रत से रुद्र एवं क्रीडा विशेष द्वारा इंद्र को सामर्थ्यविशेष द्वारा मरुतो को, हृदय की प्रसन्नता द्वारा साध्यों को प्रसन्न करता हूँ। अपने कंठस्थित मांस में शिव को, पार्श्व भाग के मांस में रुद्र को एवं यकृत के मांस में महादेव को, स्थूलान्त्र द्वारा शर्व को और हृदयाच्छादित नाड़ी की झिल्लियों से पशुपति को प्रसन्न करता हूँ।”

इस प्रकार के कई तथ्य ईश्वरीय सत्ता के साकार स्वरूप का वर्णन करते हैं- ऋग्वेद के प्रथम मंडल के सूक्त संख्या 19 में एक मन्त्र को देखे।

“ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः। मरुद्भिरग्न आ गहि।।

“जो शुभ्र तेजो से युक्त तीक्ष्ण,वेधक रूप वाले, श्रेष्ठबल-सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले है। हे अग्निदेव! आप उन मरुतो के साथ यहाँ पधारें।”
अब तो आप समझ ही गए होंगे कि- ऐसे असंख्य तथ्यों ने ही मूर्ति पूजा विरोधी नरेंद्र को 'स्वामी विवेकानंद' बनाया जिन्होंने भारत को पूरे विश्व में प्रतिष्ठित किया! हां एक कथित बाबा की भेष में व्यापारी-कलियुगीन-अत्त्पुरुष जिस तरह से वेदांग 'ज्योतिष' एवं की 'पौराणिक' संदर्भों पर गाहे-बगाहे निरर्थक टिप्पणी करता है वह दरअसल वेद का सुविधानुसारी व्याख्या करता है उसके बहकावे में ना आएं खैर, आईए विषय पर वापस चलते हैं, तो वेदों में यह कहा गया है कि- वेदों के गर्भ से ही पुराणों का प्राकट्य हुआ-
“ऋच: सामानि च्छंदांसि पुराणं यजुषा सह। उच्छिष्टाञ्जज्ञिरे दिवि देवा दिविश्रित:।।” (अथ. 11|9)
इस श्लोक में वैदिक मुनियों नें कहा कि पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था।
“इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपर्बंहयेत्” (बृहदारण्यकोपनिषद्)

अन्त में मैं यही कहना चाहूंगा कि आप लोग अपने बच्चों को पौराणिक कथाओं प्रसंगों से भरसक जोड़ने काम करें ताकि वह बच्चा युवा होने बाद भी 'प्रात: प्रणाम' की भारतीय संस्कृति का अवगाहक बने बजाय 'पब' के पाश्चात्य संस्कृति की! वेदों को जानने का प्रथम सीढ़ी है पौराणिक कथाएं, जरा सोचिएगा! यह लेख अच्छा लगे तो शेयर जरुर करें, और हे, दुर्गम राक्षसों कॉपी पेस्ट मत करना नहीं तो तुम्हारा बौद्धिक सर्वनाश करने 'दुर्गा' जी का प्राकट्य हो जायेगा, क्योंकि मार्कण्डेय पुराण का 'दुर्गम' भी कॉपी पेस्टीहा अराजक तत्व था, कभी इस विषय पर भी चर्चा करुंगा, अस्तु!
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य'राष्ट्रीय मासिक पत्रिका शांतिनगर भिलाई-दुर्ग, छत्तीसगढ़ मोबाइल नं- 9827198828

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