ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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रविवार, 31 दिसंबर 2017

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🚩 🌞 सोमवासरीय सुप्रभातम् 🌞 🚩

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कलियुगाब्द.............5119

विक्रम संवत्...........2074

शक संवत्..............1939

मास..........................पौष

पक्ष.........................शुक्ल

तिथी...................चतुर्दशी

प्रातः 11.44 पर्यंत पश्चात पूर्णिमा

तिथिस्वामी..............कलि

नित्यदेवी........भगमालिनी

रवि..................दक्षिणायन

सूर्योदय.......07.07.18 पर

सूर्यास्त.......05.53.01 पर

नक्षत्र...................मृगशिरा

दोप 02.52 पर्यंत पश्चात आर्द्रा

योग.........................शुक्ल

प्रातः 09.46 पर्यंत पश्चात ब्रह्मा

करण......................वणिज

प्रातः 11.44 पर्यन्त पश्चात विष्टि

ऋतु.........................हेमंत

दिन.....................सोमवार 

🇬🇧 *आंग्ल मतानुसार :-*

01 जनवरी सन 2018 ईस्वी ।

*हिन्दू नव वर्ष चैत्रसुदी प्रतिपदा को ही मनाया जाना चाहिये, आज ख्रिष्टाब्द वर्ष का प्रथम दिवस है, परन्तु यह नव वर्ष नहीं है- आचार्य पण्डित विनोद चौबे,9827198828*

👁‍🗨 *राहुकाल :-*

प्रात: 08.30 से 09.50 तक । 

🚦 *दिशाशूल :-*

पूर्व दिशा- यदि आवश्यक हो तो दर्पण देखकर यात्रा प्रारंभ करें। 

☸ शुभ अंक..............1

🔯 शुभ रंग.............लाल

✡ *चौघडिया :-*

प्रात: 07.11 से 08.30 तक अमृत

प्रात: 09.50 से 11.10 तक शुभ

दोप. 01.49 से 03.09 तक चंचल

अप. 03.09 से 04.29 तक लाभ

सायं 04.29 से 05.49 तक अमृत

सायं 05.49 से 07.29 तक चंचल ।

🎶 *आज का मंत्र :-*

|| ॐ दिव्यदेहाय नमः ||

 *संस्कृत सुभाषितानि :-*

*अन्तःकरण प्रबोधः*

सेवकस्य तु धर्मोऽयं

स्वामी स्वस्य करिष्यति।

आज्ञा पूर्व तु या जाता

गंगासागरसंगमे॥५॥

अर्थात :- 

सेवक का यही निश्चित धर्म है, शेष स्वामी स्वयं करेंगे। गंगा और सागर के संगम पर पूर्व में जो आज्ञा हुई थी॥५॥

⚜ *आज का राशिफल :-*

🐏 *राशि फलादेश मेष :-*

प्रयास सफल रहेंगे। प्रतिष्ठा बढ़ेगी। धन प्राप्ति सुगम होगी। विरोधी सक्रिय रहेंगे। जीवनसाथी के स्वास्थ्य की चिंता रहेगी।

🐂 *राशि फलादेश वृष :-*

शुभ समाचार प्राप्त होंगे। पुराने मित्र व संबंधियों से मुलाकात होगी। शुभ भय रहेगा। धनार्जन होगा। कष्ट संभव है। 

👫 *राशि फलादेश मिथुन :-*

अप्रत्याशित लाभ हो सकता है। व्यावसायिक यात्रा सफल रहेगी। रोजगार मिलेगा। धनलाभ होगा। विवाद न करें।

🦀 *राशि फलादेश कर्क :-*

फालतू खर्च होगा। शत्रु परास्त होंगे। पुराना रोग उभर सकता है। वाणी पर नियंत्रण रखें। जोखिम न लें। सत्संग का लाभ मिलेगा। 

🦁 *राशि फलादेश सिंह :-*

संतान की चिंता रहेगी। बकाया वसूली होगी। बेचैनी रहेगी। यात्रा से लाभ होगा। उन्नति होगी। जल्दबाजी न करें। घर में शुभ कार्य का आयोजन होगा।

👩🏻‍🏫 *राशि फलादेश कन्या :-*

नई योजना बनेगी। कार्यप्रणाली में सुधार होगा। मान-सम्मान मिलेगा। स्वास्थ्य नरम रहेगा। शत्रु भय रहेगा।

⚖ *राशि फलादेश तुला :-*

शारीरिक कष्ट संभव है। बेचैनी रहेगी। कोर्ट व कचहरी में अनुकूलता रहेगी। धर्म-कर्म में रुचि रहेगी। धनार्जन होगी।

🦂 *राशि फलादेश वृश्चिक :-*

वाणी में हल्के शब्दों के प्रयोग से बचें। वाहन व मशीनरी के प्रयोग में सावधानी रखें। कीमती वस्तुएं संभालकर रखें। 

🏹 *राशि फलादेश धनु :-*

जीवनसाथी से सहयोग प्राप्त होगा। कानूनी अड़चन दूर होगी। धन प्राप्ति सुगम होगी। यात्रा से लाभ होगा। कार्यक्षेत्र में लाभदायी अवसर मिलेंगे। 

🐊 *राशि फलादेश मकर :-*

मकान व भूमि संबंधी योजना बनेगी। उन्नति के मार्ग प्रशस्त होंगे। धन प्राप्ति सुगम होगी। रोग व चोट से बचें। 

🏺 *राशि फलादेश कुंभ :-*

पार्टी व पिकनिक का आनंद मिलेगा। विद्यार्थी वर्ग सफलता हासिल करेगा। श‍त्रु परास्त होंगे। लाभ होगा। मान-सम्मान मिलेगा। 

🐋 *राशि फलादेश मीन :-*

दु:खद समाचार मिल सकता है। विवाद न करें। पुराना रोग उभर सकता है। जोखिम व जमानत के कार्य टालें। 

☯ आज का दिन सभी के लिए मंगलमय हो ।

  🕉🕉🚩🚩🇪🇬🇪🇬   हमारा भारतीय नव संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तदानुसार 18 मार्च 2018  को  प्रारम्भ होगा जो कि संवत्सर 2075 है।🕉🕉🚩🚩

आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांति नगर, भिलाई 9828198828 !

।। 🐚 शुभम भवतु 🐚 ।।

🇮🇳🇮🇳 भारत माता की जय 🚩🚩

!! वंदे मातरम !! वंदे मातरम !! वंदे मातरम !!

शनिवार, 30 दिसंबर 2017

भज ले सीया मन मे हो, पंछी मन बावरा

दिल्ली के रामलीला मैदान के पिछे 'हमदर्द' बिल्डिंग के पास 'हनुमान वाटिका' के समीप ऐतिहासिक एवं पौराणिक बहुत प्रचीन बाजार 'सीताराम बाजार चौक' पर कबूतरों को दाना खिलाने का सुअवसर मिला !
मुगलपरस्त सरकारों ने इस प्रागैतिहासिक स्थल का नाम बदलकर यहां 'आसफ अली मार्ग' को मान्यता दी बजाय 'हनुमान वाटिका मार्ग' रखने के ! जबकी १९४७ में इस प्रसिद्ध 'रामलीला मैदान' के प्रांगण में बने 'हनुमान वाटिका' में स्वयंभू 'हनुमानजी' का प्राकट्य स्थानीय लोगों के मुताबिक तकरीबन २००० वर्ष पूर्व या इससे पहले का बताया जाता है ! किन्तु भारत पर आक्रमण करने वाले चोर, और डकैतों के कबीले मुगलों के नाम पर इस मार्ग का नामकरण हास्यास्पद सा लगता है ! और यहां के निवासी आचार्य पण्डित नरेश पाण्डेय जी के मुताबिक इस रामलीला मैदान में २००० वर्ष से रामलीला का भव्य आयोजन होता आ रहा है, किन्तु इस ऐतिहासिक स्थल को तुष्टीकरण की राजनीति ने रौंदते हुए, आसफ अली मार्ग का बोर्ड लगाकर एमसीडी/ दिल्ली सरकार द्वारा मान्यता देना, इनकी कुत्सित मानसिकता को दर्शाता है !
आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई 9827198828

अशुभ चंद्र का शुभाशुभ प्रभाव एवं उपाय:

 अशुभ चंद्रमा का शुभाशुभ प्रभाव एवं उपाय :

!! प्रात: चन्द्रवासरीय नमस्कारञ्च सुप्रभातम् !!

ज्योतिष में चंद्र ग्रह को मन का कारक ग्रह माना गया है। अगर किसी की कुंडली में चंद्र अशुभ हो तो व्यक्ति को मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है। साथ ही, कार्यों में बाधाएं भी आती हैं। चंद्र की वजह किस्मत का साथ भी नहीं मिल पाता है। यहां जानिए अशुभ चंद्र के असर को कम करने के ज्योतिषीय उपाय, जिनसे जल्दी ही शुभ फल मिल सकते हैं…                      

1. घर की उत्तर दिशा में चांदी के बाल गोपाल की मूर्ति स्थापित करें। मूर्ति को स्फटिक की माला पहनाएं। रोज पूजा करें। इससे अशुभ चंद्र का असर खत्म होता है।

2. चांदी का दान करें। यदि आप ज्यादा चांदी का दान नहीं कर सकते हैं तो सिर्फ चांदी के तार का दान भी किया जा कता है।                            3. दूध का दान करें और सोमवार को दूध का सेवन करने से बचें।

4. कभी भी किए गए दान का घमंड न करें। दान करना हो तो गुप्त दान करें। गुप्त दान यानी ऐसा दान जिसमें आपकी पहचान गुप्त रहे।5. नारियल का सेवन करें, सफेद कपड़े पहनें, अनुलोम-विलोम प्राणायाम करें। घर के उत्तरी भाग में कोई शुभ पौधा लगाएं।

6. घर में चांदी या पारे के शिवलिंग की स्थापना करें और रोज पूजा करें।7. कभी भी चांदी से बनी कोई भी चीज उपहार में या दान में न लें।

8. घर में मोर पंख रखेंगे तो चंद्र से शुभ फल प्राप्त हो सकते हैं।

9. घर में पूजा करते समय शंख भी बजाएं। इससे भी चंद्र के अशुभ असर खत्म होते हैं।

10. घर में बहुत ज्यादा बड़ी घड़ी रखने से बचें।

इन बातों का ध्यान रखेंगे तो कुंडली के अशुभ चंद्र का असर खत्म हो सकता है और मानसिक तनाव से मुक्ति मिल सकती है।

*आचार्य पण्डित विनोद चौबे*
संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांति नगर, भिलाई 9827198828*

कालिदास त्रयी-३

मुख्य कालिदास थे तथा अन्य ३ का उपनाम कालिदास था।
तीन कालिदासों का उल्लेख राजशेखर की काव्य मीमांसा में किया है, जल्हण की सूक्ति मुक्तावली तथा हरि कवि की सुभाषितावली मे भी-
एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित्। शृङ्गारे ललितोद्गारे कालिदास त्रयी किमु॥
= एक ही कालिदास की बराबरी का कोई नहीं है, शृङ्गार तथा ललित वाक्यों में ३ कालिदास का क्या कहना?
(१) कालिदास-१ ने ३ नाटक लिखे थे-मालविकाग्निमित्रम्, अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम्। मालविकाग्निमित्रम् के भरतवाक्य के अनुसार वे अग्निमित्र शुङ्ग (११५८-११०८ ई.पू.) के समकालीन थे।
मालविकाग्निमित्रम्-भरतवाक्य-आशास्यमीतिविगमप्रभृति प्रजानां सम्पत्स्यते न खलु गोप्तरि नाग्निमित्रे॥
दो अन्य नाटकों में कुछ लिखा नहीं है। वे अन्य के भी हो सकते हैं।
(२) कालिदास-२-उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य (८२ ई.पू.-१९ ई.) के नवरत्नों मे एक थे। ज्योतिर्विदाभरण के अन्तिम २२वें अध्याय में विक्रमादित्य, उनकी सभा के विद्वानों का परिचय तथा अपनी कृति का समय दिया है।
श्लोकैश्चतुर्दशशतै सजिनैर्मयैव ज्योतिर्विदाभरण काव्य विधानमेतत् ॥ᅠ२२.६ᅠ॥
विक्रमार्कवर्णनम्-वर्षे श्रुति स्मृति विचार विवेक रम्ये श्रीभारते खधृतिसम्मितदेशपीठे।
मत्तोऽधुना कृतिरियं सति मालवेन्द्रे श्रीविक्रमार्क नृपराजवरे समासीत् ॥ᅠ२२.७ᅠ॥
= १४२४ श्लोकों का यह ज्योतिर्विदाभरण मालवेन्द्र विक्रमादिय के आश्रय में लिखा गया जो १८० देशों पर श्रुति-स्मृति-विचार द्वारा शासन करते हैं।
नृपसभायां पण्डितवर्गा-शङ्कु सुवाग्वररुचिर्मणिरङ्गुदत्तो जिष्णुस्त्रिलोचनहरो घटखर्पराख्य।
अन्येऽपि सन्ति कवयोऽमरसिंहपूर्वा यस्यैव विक्रमनृपस्य सभासदोऽमो ॥ᅠ२२.८ᅠ॥
सत्यो वराहमिहिर श्रुतसेननामा श्रीबादरायणमणित्थकुमारसिंहा।
श्रीविक्रमार्कंनृपसंसदि सन्ति चैते श्रीकालतन्त्रकवयस्त्वपरे मदाद्या ॥ᅠ२२.९ᅠ॥
नवरत्नानि-धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंहशङ्कुर्वेतालभट्ट घटखर्पर कालिदासा।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ᅠ२२.१०ᅠ॥
= मेरे अतिरिक्त कई विद्वान् हैं-शङ्कु, वररुचि, मणि, अङ्गुदत्त, जिष्णुगुप्त (नेपाल राजा अवन्तिवर्म १०३-३३ ई.पू. के पुत्र तथा ज्योतिषी ब्रह्मगुप्त के पिता), त्रिलोचन, हर, घटखर्पर, अमरसिंह, कालतन्त्र लेखक (कृष्ण मिश्र), सत्याचार्य (ज्योतिषी), वराहमिहिर, श्रुतसेन, बादरायण, मणित्थ, कुमारसिंह। उनकी सभा के ९ रत्न हैं-धन्वन्तरि (तृतीय, वर्तमान् सुश्रुत संहिता के लेखक), क्षपणक (वर्तमान् उपलब्ध जैन शास्त्रों के लेखक), अमरसिंह (अमरकोष), शङ्कु (भूमिति = सर्वेक्षण), वेतालभट्ट (पुराण का नवीन संस्करण), घटखर्पर (तन्त्र), कालिदास, विख्यात वराहमिहिर, वररुचि (पाणिनि व्याकरण पर वार्तिक, वाक्यकरण-ज्योतिष गणना के सूत्र जो स्मरण के लिये वाक्यों द्वारा प्रकट किये जाते हैं)
यो रुक्मदेशाधिपतिं शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनीं महाहवे।
आनीय सम्भ्राम्य मुमोच यत्त्वहो स विक्रमार्कः समसह्यविक्रमः ॥ २२.१७ ॥
तस्मिन् सदाविक्रममेदिनीशे विराजमाने समवन्तिकायाम्।
सर्व प्रजा मङ्गल सौख्य सम्पद् बभूव सर्वत्र च वेदकर्म ॥ २२.१८ ॥
= विक्रमादित्य जैसा प्रतापी और कौन हो सकता है जिसने महायुद्ध में रुक्मदेश अधिपति (रोम के राजा जुलियस सीजर) को बन्दी बना कर उज्जैन लाये तथा नगर में घुमा कर छोड़ दिया? उनके वेदानुसार शासन के कारण लोगों में सौख्य और सम्पद है।
शङ्क्वादि पण्डितवराः कवयस्त्वनेके ज्योतिर्विदः सभमवंश्च वराहपूर्वाः।
श्रीविक्रमार्कनृपसंसदि मान्यबुद्घिस्तत्राप्यहं नृपसखा किल कालिदासः ॥ २२.१९ ॥
= विक्रमार्क राजाकी संसद में शङ्कु आदि अनेक विद्वान् हैं। उनमें कालिदास तो मन्दबुद्धि है तथा राजा का मित्र है।
काव्यत्रयं सुमतिकृद्रघुवंशपूर्वं पूर्वं ततो ननु कियच्छ्रुतिकर्मवादः।
ज्योतिर्विदाभरणकालविधानशास्त्रं श्रीकालिदासकवितो हि ततो बभूव ॥ २२.२० ॥
= सुमति होने के बाद (विद्योत्तमा से अपमानित होने के बाद) रघुवंश सहित ३ महाकाव्य लिखा, उसके बाद कर्मवाद (फलित ज्योतिष की पुस्तक कालामृत २ खण्डों में), उसके बाद मुहूर्त ज्ञान (कालविधान) यह ज्योतिर्विदाभरण लिखा)
वर्षैः सिन्धुरदर्शनाम्बरगुणै (३०६८) र्याते कलौ सम्मिते, मासे माधवसंज्ञिके च विहितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः।
नानाकाल विधानशास्त्र गदित ज्ञानं विलोक्यादरा-दूर्जे ग्रन्थ समाप्तिरत्र विहिता ज्योतिर्विदां प्रीतये ॥
इस ग्रन्थ का आरम्भ कलि वर्ष (३०६८) के माघ मास में हुआ तथा कार्त्तिक मास में पूर्ण हुआ।
यहां कालिदास ने संकेत दिया है कि पहले वे मूर्ख थे। सुमति होने के बाद ३ महाकाव्य लिखे। ये अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः के ३ शब्दों से आरम्भ होते हैं-अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा (कुमारसम्भव), कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा (मेघदूत), वागर्थाविव संपृक्तौ (रघुवंश).
उत्तर कालामृत में भी अपने आश्रयदाता का नाम विक्रमादित्य लिखा है-
श्रीमद्वक्त्र चतुष्टयाच्युत हर स्वर्णायकाद्यैः सुरैः कार्यारम्भ विधौ समर्चित पद द्वन्द्वं द्विपेन्द्राननम्।
पाशाद्यायुश्च लड्डुक प्रविलसद्धस्तैश्चतुर्भिर्युतं श्रीमद्विक्रम सूर्य पालनपरं वन्दे भवानी सुतम्॥१॥
कामेशस्य सुवामभाग निलयां भक्ताखिलेष्टार्थदां शङ्खं चक्रमथाभयं च वरदं हस्तैर्दधानां शिवाम्।
सिंहस्थां शशिखण्ड मौलि लसितां देवीं त्रिनेत्रोज्ज्वलां श्रीमद्विक्रम सूर्य पालनपरां वन्दे महाकालिकाम्॥२॥
अंग्रेजों के नकली विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त-२ का आजतक किसी भी पुस्तक या शिलालेख में उल्लेख नहीं मिला है। पर हर साहित्य या खोज उसके नाम पर कर उसे स्वर्ण युग बनाया जाता है। कहीं किसी कुएं में पुरानी ईंट मिल गयी तो उसे गुप्तकाल का मान कर महान् पुरातत्त्व शोध द्वरा नकली स्वर्ण युग का बना देते हैं।
(३) कालिदास-३-यह भी मालवा राजा की सभा में थे। मालवा के सभी राजाओं को भोज कहते थे जैसे रघुवंश के इन्दुमती स्वयम्वर में उसे भोजकन्या, या महाभारत काल में रुक्मी को भोजराज कहा गया है। भोज-कालिदास वार्त्ताओं की आशु कविता इसी कालिदास की हैं। यह राजा भोज के साथ ईरान के बल्ख तक गये थे जहा मुहम्मद ने धर्मयुद्ध में उनसे सहायता मांगी थी।
भूपतिर्दशमो यो वै भोजराज इति स्मृतः॥दृष्ट्वा प्रक्षीण मर्य्यादां बली दिग्विजयं ययौ॥२॥
सेनया दशसाहस्र्या कालिदासेन संयुतः। तथान्यैर्ब्राह्मणैः सार्द्धं सिन्धुपारमुपाययौ॥३॥
जित्वा गान्धारजान् म्लेच्छान् काश्मीरान् आरवान् शठान्। तेषां प्राप्य महाकोषं दण्डयोग्यानकारयत्॥४॥
एतस्मिन्नन्तरे म्लेच्छ आचार्य्येण समन्वितः। महामद इति ख्यातः शिष्य शाखा समन्वितः॥५॥
नृपश्चैव महादेवं मरुस्थल निवासिनम्। चन्दनादिभिरभ्यर्च्य तुष्टाव मनसा हरम्॥६॥
इति श्रुत्वा स्तवं देवः शब्दमाह नृपायतम्॥९॥ महामद इति ख्यातः पैशाच कृति तत्परः॥१२॥
इति श्रुत्वा नृपश्चैव स्वदेशान् पुनरागमत्। महामदश्च तैः सार्द्धं सिन्धुतीरमुपाययौ॥१४॥
उवाच भूपतिं प्रेम्णा मायामद विशारदः। तव देवो महाराज मम दासत्वमागतः॥१५॥
तच्छ्रुत्वा कालिदासस्तु रुपा प्राह महामदम्। माया ते निर्मिता धूर्त नृपमोहनहेतवे॥१८॥
= शालिवाहन (७८-१३८ ई.) की १०वीं पीढ़ी के भोजराज १०,००० सेना लेकर कालिदास के साथ बल्ख गये थे। वहां म्लेच्छ गुरु महा-मद (मुहम्मद) ने उनसे युद्ध में सहायता मांगी। वह धोखा देने में कुशल था पर कालिदास ने उसका भेद खोल दिया। मरुभूमि के महादेव (विक्रमादित्य द्वारा पुनरुद्धार किया हुआ मक्केश्वर महादेव-मक्का) का दर्शन कर लौट गये।
यह कालिदास तान्त्रिक तथा आशु कवि थे। जैन मुनि मानतुङ्ग (भक्तामर स्तोत्र के प्रणेता) उनके समकालीन हैं। स्फुट काव्यों के अतिरिक्त उनकी पुस्तक चिद्-गगनचन्द्रिका है जिसमें उन्होंने अपना स्थान महाराष्ट्र के पूर्णा के निकट कहा है-
इह कालिदासचन्द्रप्रसूतिरानन्दिनी स्तुतिर्व्याजात्।
चिद्गगनचन्द्रिकाब्धेः समयतु संसारदावदवथुं वः॥३॥
कालिदास पदवीं तवाश्रितः त्वत्प्रसादकृतवाग्विजृम्भणः॥३०६॥
त्वद्गुणान्यदहमस्तु वै जगत् तेन मोहमतिरद्य मुच्यताम्।
पूर्णपीठमवगम्य मङ्गले त्वत्प्रसादमकृते मया कृतः॥३०७॥
तीन अन्य नाटककार-
(१) मालवा के विद्वान् राजा शूद्रक (मालव गण के अध्यक्ष, ७५६ ई.पू. से शूद्रक शक) ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् तथ ३ अन्य छोटे नाटक लिखे। यह समुद्रगुप्त (गुप्त वंश ३२०-२६९ ई.पू.) रचित कृष्ण चरित में है-
पुरन्दरबलो विप्रः शूद्रकः शास्त्रशस्त्रवित्। धनुर्वेद चौरशास्त्रं रूपके द्वे तथाकरोत्॥६॥
स विपक्षविजेताभूच्छास्त्रैः शस्त्रश्च कीर्तये॥ बुद्धिवीर्येनास्य वरे सौगताश्च प्रसेहिरे॥७॥
स तस्तारारिसैन्यस्य देहखण्डै रणे महीम्। धर्माय राज्यं कृतवान् तपस्विव्रतमाचरन्॥८॥
शस्त्रार्जितमयं राज्यं प्रेम्णाऽकृत निजं गृहम्। एवं ततस्तस्य तदा साम्राज्यं धर्मशासितम्॥९॥
कालिदास-तस्याभवन्नरपतेः कविराप्तवर्णः, श्री कालिदास इति योऽप्रतिमप्रभावः।
दुष्यन्त भूपतिकथां प्रणयप्रतिष्ठां रम्याभिनेय भरितां सरसां चकार॥१५॥
शाकुन्तलेन स कविर्नाटकेनाप्तवान् यशः। वस्तुरम्यं दर्शयन्ति त्रीण्यन्यानि लघूनि च॥१६॥
स्वयं कालिदास ने भी नाटक के आरम्भ में सूत्रधार द्वारा इसका निर्देश किया है-
नान्दीपाठ-सूत्रधार-आर्ये! इयं हि रसभावविशेषदीक्षागुरोर्विक्रमादित्यस्य (अन्य पाठ में विशेष-साहसाङ्कस्य) अभिरूप भूयिष्ठेयं परिषत्। अस्याञ्च कालिदास प्रयुक्तेनाभिज्ञानशकुन्तलेन नवेन नाटकेनोपस्थातव्यस्माभिः॥
शूद्रक को साहसाङ्क तथा विक्रमादित्य भी कहते थे। उनके अधीन १०० राजाओं के संघ का उल्लेख है (४ मुख्य अग्निवंशी राजा थे-परमार, प्रतिहार, चालुक्य, चाहमान)-
भरतवाक्य-भवतु तव विडौजाः प्राज्यवृष्टिः प्रजासु त्वमपि विततयज्ञो वज्रिणं भावयेथाः।
गणशत परिवर्तैरेवमन्योन्यकृत्यैर्नियतमुभयलोकानुग्रहश्लाघनीयैः॥
इस नाटक का एक श्लोक कुमारिल भट्ट (जिनविजय महाकाव्य के अनुसार ५५७-४९३ ई.पू.) ने अपने तन्त्र वार्त्तिक में उद्धृत किया है-
सतां हि सन्देहपदेषुवस्तुषु, प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः। (१/२१)
(३) मातृगुप्त कालिदास श्रीहर्ष (उनका शक ४५६ ई.पू. में) के आश्रित है। कृष्ण चरित के अनुसार इनका काव्य शूद्रक-जय है- 
मातृगुप्तो जयति यः कविराजो न केवलम्। कश्मीरराजोऽप्यभवत् सरस्वत्याः प्रसादतः॥२१॥
विधाय शूद्रकजयं सर्गान्तानन्दमद्भुतम्। न्यदर्शयद् वीररसं कविरावन्तिकः कृतिः॥२२॥
राजतरङ्गिणी के प्रथम तरङ्ग के अनुसार कश्मीर के राजा प्रवरसेन की मृत्यु के बाद उनको ५ वर्ष के लिये कश्मीर का राजा बनाया गया था।
(३) हरिषेण कालिदास-इनका रघु चरित रघुवंश का आधार है। यह राज परिवार के थे तथा बाणभट्ट (हर्षवर्धन ६०५-६४७ ई. के आश्रित) की कादम्बरी में इनको भट्टार हरिश्चन्द्र कहा गया है-
हरिषेणः-तुङ्गं ह्यमात्यपदमाप्त यशः प्रसिद्धं भुक्त्वा चिरं पितुरिहास्ति सुहृन्ममायम्।
सन्धौ च विग्रहकृतौ च महाधिकारी, विज्ञः कुमार सचिवो नृपनीति दक्षः॥२३॥
काव्येन सोऽघ रघुकार इति प्रसिद्धो, यः कालिदास इति महार्हनामा।
प्रामाण्यमाप्तवचनस्य च तस्य धर्म्ये, ब्रह्मत्वमध्वरविधौ मम सर्वदैव॥२४॥

शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

भूर्जपत्र, ताड़पत्र और ताम्रपत्र से मंगलयान की यात्रा में शास्त्रों की भूमिका

प्राचीन भारत में ऋषि-मुनियों को जैसा अदभुत ज्ञान था, उसके बारे में जब हम जानते हैं, पढ़ते हैं तो अचंभित रह जाते हैं. रसायन और रंग विज्ञान ने भले ही आजकल इतनी उन्नति कर ली हो, परन्तु आज से 2000 वर्ष पहले भूर्ज-पत्रों पर लिखे गए "अग्र-भागवत" का यह रहस्य आज भी अनसुलझा ही है.

जानिये इसके बारे में कि आखिर यह "अग्र-भागवत इतना विशिष्ट क्यों है? अदृश्य स्याही से सम्बन्धित क्या है वह पहेली, जो वैज्ञानिक आज भी नहीं सुलझा पाए हैं.

आमगांव… यह महाराष्ट्र के गोंदिया जिले की एक छोटी सी तहसील, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा से जुडी हुई. इस गांव के ‘रामगोपाल अग्रवाल’, सराफा व्यापारी हैं. घर से ही सोना, चाँदी का व्यापार करते हैं. रामगोपाल जी, ‘बेदिल’ नाम से जाने जाते हैं. एक दिन अचानक उनके मन में आया, ‘असम के दक्षिण में स्थित ‘ब्रम्हकुंड’ में स्नान करने जाना है. अब उनके मन में ‘ब्रम्हकुंड’ ही क्यूँ आया, इसका कोई कारण उनके पास नहीं था. यह ब्रम्हकुंड (ब्रह्मा सरोवर), ‘परशुराम कुंड’ के नाम से भी जाना जाता हैं. असम सीमा पर स्थित यह कुंड, प्रशासनिक दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में आता हैं. मकर संक्रांति के दिन यहाँ भव्य मेला लगता है.

‘ब्रम्ह्कुंड’ नामक स्थान अग्रवाल समाज के आदि पुरुष/प्रथम पुरुष भगवान अग्रसेन महाराज की ससुराल माना जाता है. भगवान अग्रसेन महाराज की पत्नी, माधवी देवी इस नागलोक की राजकन्या थी. उनका विवाह अग्रसेन महाराज जी के साथ इसी ब्रम्ह्कुंड के तट पर हुआ था, ऐसा बताया जाता है. हो सकता हैं, इसी कारण से रामगोपाल जी अग्रवाल ‘बेदिल’ को इच्छा हुई होगी ब्रम्ह्कुंड दर्शन की..! वे अपने ४–५ मित्र–सहयोगियों के साथ ब्रम्ह्कुंड पहुंच गए. दुसरे दिन कुंड पर स्नान करने जाना निश्चित हुआ. रात को अग्रवाल जी को सपने में दिखा कि, ‘ब्रम्ह्सरोवर के तट पर एक वटवृक्ष हैं, उसकी छाया में एक साधू बैठे हैं. इन्ही साधू के पास, अग्रवाल जी को जो चाहिये वह मिल जायेगा..!  दूसरे दिन सुबह-सुबह रामगोपाल जी ब्रम्ह्सरोवर के तट पर गये, तो उनको एक बड़ा सा वटवृक्ष दिखाई दिया और साथ ही दिखाई दिए, लंबी दाढ़ी और जटाओं वाले वो साधू महाराज भी. रामगोपाल जी ने उन्हें प्रणाम किया तो साधू महाराज जी ने अच्छे से कपडे में लिपटी हुई एक चीज उन्हें दी और कहा, “जाओं, इसे ले जाओं, कल्याण होगा तुम्हारा.” वह दिन था, ९ अगस्त, १९९१.

आप सोच रहे होंगे कि ये कौन सी "कहानी" और चमत्कारों वाली बात सुनाई जा रही है, लेकिन दो मिनट और आगे पढ़िए तो सही... असल में दिखने में बहुत बड़ी, पर वजन में हलकी वह पोटली जैसी वस्तु लेकर, रामगोपाल जी अपने स्थान पर आए, जहां वे रुके थे. उन्होंने वो पोटली खोलकर देखी, तो अंदर साफ़–सुथरे ‘भूर्जपत्र’ अच्छे सलीके से बांधकर रखे थे. इन पर कुछ भी नहीं लिखा था. एकदम कोरे..! इन लंबे-लंबे पत्तों को भूर्जपत्र कहते हैं, इसकी रामगोपाल जी को जानकारी भी नहीं थी. अब इसका क्या करे..? उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था. लेकिन साधू महाराज का प्रसाद मानकर वह उसे अपने गांव, आमगांव, लेकर आये. लगभग ३० ग्राम वजन की उस पोटली में ४३१ खाली (कोरे) भूर्जपत्र थे. बालाघाट के पास ‘गुलालपुरा’ गांव में रामगोपाल जी के गुरु रहते थे. रामगोपाल जी ने अपने गुरु को वह पोटली दिखायी और पूछा, “अब मैं इसका क्या करू..?” गुरु ने जवाब दिया, “तुम्हे ये पोटली और उसके अंदर के ये भूर्जपत्र काम के नहीं लगते हों, तो उन्हें पानी में विसर्जित कर दो.” अब रामगोपाल जी पेशोपेश में पड गए. रख भी नहीं सकते और फेंक भी नहीं सकते..! उन्होंने उन भुर्जपत्रों को अपने पूजाघर में रख दिया.

कुछ दिन बीत गए. एक दिन पूजा करते समय सबसे ऊपर रखे भूर्जपत्र पर पानी के कुछ छींटे गिरे, और क्या आश्चर्य..! जहां पर पानी गिरा था, वहां पर कुछ अक्षर उभरकर आये. रामगोपाल जी ने उत्सुकतावश एक भूर्जपत्र पूरा पानी में डुबोकर कुछ देर तक रखा और वह आश्चर्य से देखते ही रह गये..! उस भूर्जपत्र पर लिखा हुआ साफ़ दिखने लगा. अष्टगंध जैसे केसरिया रंग में, स्वच्छ अक्षरों से कुछ लिखा था. कुछ समय बाद जैसे ही पानी सूख गया, अक्षर भी गायब हो गए. अब रामगोपाल जी ने सभी ४३१ भुर्जपत्रों को पानी में भिगोकर, सुखने से पहले उन पर दिख रहे अक्षरों को लिखने का प्रयास किया. यह लेखन देवनागरी लिपि में और संस्कृत भाषा में लिखा था. यह काम कुछ वर्षों तक चला. जब इस साहित्य को संस्कृत के विशेषज्ञों को दिखाया गया, तब समझ में आया, की भूर्जपत्र पर अदृश्य स्याही से लिखा हुआ यह ग्रंथ, अग्रसेन महाराज जी का ‘अग्र भागवत’ नाम का चरित्र हैं. लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व जैमिनी ऋषि ने ‘जयभारत’ नाम का एक बड़ा ग्रंथ लिखा था. उसका एक हिस्सा था, यह ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ. पांडव वंश में परीक्षित राजा का बेटा था, जनमेजय.  इस जनमेजय को लोक साधना, धर्म आदि विषयों में जानकारी देने हेतू जैमिनी ऋषि ने इस ग्रंथ का लेखन किया था, ऐसा माना जाता हैं.

रामगोपाल जी को मिले हुए इस ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ की अग्रवाल समाज में बहुत चर्चा हुई. इस ग्रंथ का अच्छा स्वागत हुआ. ग्रंथ के भूर्जपत्र अनेकों बार पानी में डुबोकर उस पर लिखे गए श्लोक, लोगों को दिखाए गए. इस ग्रंथ की जानकारी इतनी फैली की इंग्लैंड के प्रख्यात उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल जी ने कुछ करोड़ रुपयों में यह ग्रंथ खरीदने की बात की. यह सुनकर / देखकर अग्रवाल समाज के कुछ लोग साथ आये और उन्होंने नागपुर के जाने माने संस्कृत पंडित रामभाऊ पुजारी जी के सहयोग से एक ट्रस्ट स्थापित किया. इससे ग्रंथ की सुरक्षा तो हो गयी. आज यह ग्रंथ, नागपुर में ‘अग्रविश्व ट्रस्ट’ में सुरक्षित रखा गया हैं. लगभग १८ भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी प्रकाशित हुआ हैं. रामभाऊ पुजारी जी की सलाह से जब उन भुर्जपत्रों की ‘कार्बन डेटिंग’ की गयी, तो वह भूर्जपत्र लगभग दो हजार वर्ष पुराने निकले.

यदि हम इसे काल्पनिक कहानी मानें, बेदिल जी को आया स्वप्न, वो साधू महाराज, यह सब ‘श्रध्दा’ के विषय अगर ना भी मानें... तो भी कुछ प्रश्न तो मन को कुरेदते ही हैं. जैसे, कि हजारों वर्ष पूर्व भुर्जपत्रों पर अदृश्य स्याही से लिखने की तकनीक किसकी थी..? इसका उपयोग कैसे किया जाता था..? कहां उपयोग होता था, इस तकनीक का..? भारत में लिखित साहित्य की परंपरा अति प्राचीन हैं. ताम्रपत्र, चर्मपत्र, ताडपत्र, भूर्जपत्र... आदि लेखन में उपयोगी साधन थे.

मराठी विश्वकोष में भूर्जपत्र की जानकारी दी गयी हैं, जो इस प्रकार है – “भूर्जपत्र यह ‘भूर्ज’ नाम के पेड़ की छाल से बनाया जाता था. यह वुक्ष ‘बेट्युला’ प्रजाति के हैं और हिमालय में, विशेषतः काश्मीर के हिमालय में, पाए जाते हैं. इस वृक्ष के छाल का गुदा निकालकर, उसे सुखाकर, फिर उसे तेल लगा कर उसे चिकना बनाया जाता था. उसके लंबे रोल बनाकर, उनको समान आकार का बनाया जाता था. उस पर विशेष स्याही से लिखा जाता था. फिर उसको छेद कर के, एक मजबूत धागे से बांधकर, उसकी पुस्तक / ग्रंथ बनाया जाता था. यह भूर्जपत्र, उनकी गुणवत्ता के आधार पर दो – ढाई हजार वर्षों तक अच्छे रहते थे. भूर्जपत्र पर लिखने के लिये प्राचीन काल से स्याही का उपयोग किया जाता था. भारत में, ईसा के पूर्व, लगभग ढाई हजार वर्षों से स्याही का प्रयोग किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं. लेकिन यह कब से प्रयोग में आयी, यह अज्ञात ही हैं. भारत पर हुए अनेक आक्रमणों के चलते यहाँ का ज्ञान बड़े पैमाने पर नष्ट हुआ है. परन्तु स्याही तैयार करने के प्राचीन तरीके थे, कुछ पध्दतियां थी, जिनकी जानकारी मिली हैं. आम तौर पर ‘काली स्याही’ का ही प्रयोग सब दूर होता था. चीन में मिले प्रमाण भी ‘काली स्याही’ की ओर ही इंगित करते हैं. केवल कुछ ग्रंथों में गेरू से बनायी गयी केसरियां रंग की स्याही का उल्लेख आता हैं.मराठी विश्वकोष में स्याही की जानकारी देते हुए लिखा हैं – ‘भारत में दो प्रकार के स्याही का उपयोग किया जाता था. कच्चे स्याही से व्यापार का आय-व्यय, हिसाब लिखा जाता था तो पक्की स्याही से ग्रंथ लिखे जाते थे. पीपल के पेड़ से निकाले हुए गोंद को पीसकर, उबालकर रखा जाता था. फिर तिल के तेल का काजल तैयार कर उस काजल को कपडे में लपेटकर, इस गोंद के पानी में उस कपडे को बहुत देर तक घुमाते थे. और वह गोंद, स्याही बन जाता था, काले रंग की..’ भूर्जपत्र पर लिखने वाली स्याही अलग प्रकार की रहती थी. बादाम के छिलके और जलाये हुए चावल को इकठ्ठा कर के गोमूत्र में उबालते थे. काले स्याही से लिखा हुआ, सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य तीसरे शताब्दी का है. आश्चर्य इस बात का हैं, की जो भी स्याही बनाने की विधि उपलब्ध हैं, उन सब से पानी में घुलने वाली स्याही बनती हैं. जब की इस ‘अग्र भागवत’ की स्याही, भूर्जपत्र पर पानी डालने से दिखती हैं. पानी से मिटती नहीं. उलटें, पानी सूखने पर स्याही भी अदृश्य हो जाती हैं. इस का अर्थ यह हुआ, की कम से कम दो – ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे देश में अदृश्य स्याही से लिखने का तंत्र विकसित था. यह तंत्र विकसित करते समय अनेक अनुसंधान हुए होंगे. अनेक प्रकार के रसायनों का इसमें उपयोग किया गया होगा. इसके लिए अनेक प्रकार के परीक्षण करने पड़े होंगे. लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कोई भी जानकारी आज उपलब्ध नहीं हैं. उपलब्ध हैं, तो अदृश्य स्याही से लिखा हुआ ‘अग्र भागवत’ यह ग्रंथ. लिखावट के उन्नत आविष्कार का जीता जागता प्रमाण..!

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ‘विज्ञान, या यूं कहे, "आजकल का शास्त्रशुध्द विज्ञान, पाश्चिमात्य देशों में ही निर्माण हुआ" इस मिथक को मानने वालों के लिए, ‘अग्र भागवत’ यह अत्यंत आश्चर्य का विषय है. स्वाभाविक है कि किसी प्राचीन समय इस देश में अत्यधिक प्रगत लेखन शास्त्र विकसित था, और अपने पास के विशाल ज्ञान भंडार को, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करने की क्षमता इस लेखन शास्त्र में थी, यह अब सिध्द हो चुका है..! दुर्भाग्य यह है कि अब यह ज्ञान लुप्त हो चुका है. यदि भारत में समुचित शोध किया जाए एवं पश्चिमी तथा चीन की लाईब्रेरियों की ख़ाक छानी जाए, तो निश्चित ही कुछ न कुछ ऐसा मिल सकता है जिससे ऐसे कई रहस्यों से पर्दा उठ सके. (जैसा की एक स्वयंसेवक के द्वारा गोंदिया के अग्रवाल परिवार के बारे में अध्ययन करने पर तथ्यों की जानकारी मिली उसे आपके समक्ष रख रहा हुं, बाकी पाठ्य सामग्री वैदिक उपाख्यानों से ली गई है)
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- "ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई 09827198828
सनातन धर्म की जय हो ।।