ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शनिवार, 16 दिसंबर 2017

दंत-किर्तनीय ठंड में,महिमा सरसो तेल की,


महिमा सरसों तैल की, इस दंत किर्तनीय ठंड में

- आचार्य पण्डित विनोद चौबे

आज बात ज्योतिष, वास्तु या हस्तरेखा की नहीं करेंगे, बल्कि आज चर्चा करेंगे 'सरसों तेल के महत्ता की' ! पिछले दिनों पैर के तलवे में थोड़ा बहुत दर्द हुआ, डॉ. के पास गया, डॉक्टर साहब ने कहा कैल्सियम की कमी की वजह से ऐसा होता है, तो मुझे स्मरण आया का कैल्सियम तो सूर्य ही दे सकते हैं, अत: सूर्य ग्रह के नजदीक रहने वाले उनके परम मित्र बुध की औषधी है 'लाल सरसों' अतएव सरसों के तेल और सूर्य के किरण को सम्मिश्रित किया जाय तो निश्चित आवश्यकतानुकूल कैल्सियम हम ग्रहण कर सकते हैं, यह विचार कर ही रहा था कि मेरी नजर 'निर्णयसिंधु' पर पड़ी ! 

तन के उवटन से लेकर सब्जी और पकवानों तक यत्र-तत्र सर्वत्र सरसों तेल और उवटन का प्रयोग किया जाता है ! निर्णयसिंधु  के मुताबिक ठंड के मौसम में सरसों तेल के प्रयोग का बहुत महत्व बताया गया है, यदि सर्षप तैल से धूप में मर्दन किया जाय तो चर्मरोग कभी नहीं होता ! मैं जानता हुं कामकाजी व्यक्ति को प्रतिदिन तो वक्त नहीं मिलता परन्तु कम से कम रविवार को एक घंटा सूर्य के समक्ष सरसों तेल से मर्दन यानी मालिश से अवश्य करना चाहिये ! साथियों हिमालय के नजदीक मैदानी भूभाग मेरी (आचार्य पण्डित विनोद चौबे, 9827198828) जन्मभूमि उत्तर प्रदेश के जनपद देवरिया स्थित ग्राम मौना गढ़वां में है, अत: मैने ठंड का अनुभव किया है, यूपी की कंपकंपा देने वाली दंत-किर्तनीय-ठंडी पडती है, वहां शीत ऋतु में तो सूर्य की किरणों का भूमि से आम-दरफ्त भी बमुश्किल ही हो पाता है, अर्थात सूर्य का दर्शन भी नहीं हो पाता, किन्तु मेरा कर्मभूमि छत्तीसगढ़ का भिलाई है जहां ठंड नाम मात्र का ही अनुभव होता है, यहां सूर्य के किरणों की पर्याप्त उपलब्धता होती है, शीतकाल में सरसों तेल का प्रयोग करना कई भावी रोगों से निज़ात दिला देता है अत: सर्षप-तैल-मर्दन तो हर व्यक्ति को करना चाहिये, चाहे वह भारत के किसी भी हिस्से का रहवासी हो ! निर्णयसिंधु में इस बात की बड़ी प्रशंसा भी की गई है, इससे नेत्र विकार, चर्म विकार तथा थायराईड सहित तमाम धात्वीय कमियों की कमी से होने वाले रोगों से छुटकारा मिलने में सहायता प्रदान करता है ! यथा आप देखें इस श्लोक के माध्यम से :- 

सार्षपं गंध तैलं च यत्तैलं पुष्पवासितम्।

अन्यद्रव्ययुतं तैलं दुष्यति कदाचन।।

गंधयुक्त पुष्पों से सुवासित,अन्य पदार्थों से युक्त तथा सरसों का तेल दूषित नही

होता।

प्रस्तुत है गौर एवं कृष्ण सर्षप (सरसों) का अलग अलग प्रकार से किये गये प्रयोग यह कौटिल्य जी अर्थशास्त्री के उद्धरणों यह अंश :-

शिरीष-उदुम्बर-शमी-चूर्णं सर्पिषा संहृत्यार्ध-मासिकः क्षुद्-योगः ।। १४.२.०१ ।।

 कशेरुक-उत्पल-कन्देक्षु-मूल-बिस-दूर्वा-क्षीर-घृत-मण्ड-सिद्धो मासिकः ।। १४.२.०२ ।।

 माष-यव-कुलत्थ-दर्भ-मूल-चूर्णं वा क्षीर-घृताभ्याम् । वल्ली-क्षीर-घृतं वा सम-सिद्धम् । साल-पृश्नि-पर्णी-मूल-कल्कं पयसा पीत्वा । पयो वा तत्-सिद्धं मधु-घृताभ्यां अशित्वा मासं उपवसति ।। १४.२.०३ ।।

 श्वेत-बस्त-मूत्रे सप्त-रात्र-उषितैः सिद्ध-अर्थकैः सिद्धं तैलं कटुक-आलाबौ मास-अर्ध-मास-स्थितं चतुष्-पद-द्वि-पदानां विरूप-करणं ।। १४.२.०४ ।।

 तक्र-यव-भक्षस्य सप्त-रात्रादूर्ध्वं श्वेत-गर्दभस्य लेण्ड-यवैः सिद्धं गौर-सर्षप-तैलं विरूप-करणं ।। १४.२.०५ ।।

 एतयोरन्यतरस्य मूत्र-लेण्द-रस-सिद्धं सिद्ध-अर्थक-तैलं अर्क-तूल-पतङ्ग-चूर्ण-प्रतीवापं श्वेती-करणं ।। १४.२.०६ ।।

 श्वेत-कुक्कुट-अजगर-लेण्ड-योगः श्वेती-करणं ।। १४.२.०७ ।।

 श्वेत-बस्त-मूत्रे श्वेत-सर्षपाः सप्त-रात्र-उषित-अस्तक्र(?)-मर्क--क्षीर-लवणं धान्यं च पक्ष-स्थितो योगः श्वेती-करणं ।। १४.२.०८ ।।

 कटुक-अलाबौ वली-गते गतं-अर्ध-मास-स्थितं गौर-सर्षप-पिष्टं रोम्णां श्वेती-करणं ।। १४.२.०९ ।।

 अलोजुनेति यः कीटः श्वेता च गृह-गोलिका । ।। १४.२.१०अ ब ।।

 एतेन पिष्तेनाभ्यक्ताः केशाः स्युः शङ्ख-पाण्डराः ।। १४.२.१०च्द् ।।

 गोमयेन तिन्दुक-अरिष्ट-कल्केन वा मर्दित-अङ्गस्य भल्लातक-रस-अनुलिप्तस्य मासिकः कुष्ठ-योगः ।। १४.२.११ ।।

 कृष्ण-सर्प-मुखे गृह-गोलिका-मुखे वा सप्त-रात्र-उषिता गुज्जाः कुष्ठ-योगः ।। १४.२.१२ ।।

 शुक-पित्त-अण्ड-रस-अभ्यङ्गः कुष्ठ-योगः ।। १४.२.१३ ।।

 कुष्ठस्य-प्रियाल-कल्क-कषायः प्रतीकारः ।। १४.२.१४ ।।

 कुक्कुट-कोश-अतकी(?)-शतावरी-मूल-युक्तं आहारयमाणो मासेन गौरो भवति ।। १४.२.१५ ।।

 वट-कषाय-स्नातः सह-चर-कल्क-दिग्धः कृष्णो भवति ।। १४.२.१६ ।।

 शकुन-कण्गु-तैल-युक्ता हरि-ताल-मनः-शिलाः श्यामी-करणं ।। १४.२.१७ ।।

 ख-द्योत-चूर्णं सर्षप-तैल-युक्तं रात्रौ ज्वलति ।। १४.२.१८ ।।

 ख-द्योत-गण्डू-पद-चूर्णं समुद्र-जन्तूनां भृङ्ग-कपालानां खदिर-कर्णिकाराणां पुष्प-चूर्णं वा शकुन-कङ्गु-तैल-युक्तं तेजन-चूर्णं ।। १४.२.१९ ।।

 पारिभद्रक-त्वन्-मषी मण्डूक-वसया युक्ता गात्र-प्रज्वालनं अग्निना ।। १४.२.२० ।।

 परिभद्रक-त्वक्-तिल-कल्क-प्रदिग्धं शरीरं अग्निना ज्वलति ।। १४.२.२१ ।।

 पीलु-त्वन्-मषीमयः पिण्डो हस्ते ज्वलति ।। १४.२.२२ ।।

 मण्डूक-वसा-दिग्धोअग्निना ज्वलति ।। १४.२.२३ ।।

 तेन प्रदिग्धं अङ्गं कुश-आम्र-फल-तैल-सिक्तं समुद्र-मण्डूकी-फेनक-सर्ज-रस-चूर्ण-युक्तं वा ज्वलति ।। १४.२.२४ ।।

 मण्डूक-कुलीर-आदीनां वसया सम-भागं तैलं सिद्धं अभ्यङ्गं गात्राणां अग्नि-प्रज्वालनं ।। १४.२.२५ ।।

 वेणु-मूल-शैवल-लिप्तं अङ्गं मण्डूक-वसा-दिग्धं अग्निना ज्वलति ।। १४.२.२६ ।।

 पारिभद्रक-प्पतिबला-वञ्जुल-वज्र-कदली-मूल-कल्केन मण्डूक-वसा-सिद्धेन तैलेनाभ्यक्त-पादोअङ्गारेषु गच्छति ।। १४.२.२७ ।।

 उप-उदका प्रतिबला वञ्जुलः पारिभद्रकः । ।। १४.२.२८अ ब ।।

 एतेषां मूल-कल्केन मण्डूक-वसया सह ।। १४.२.२८च्द् ।।

 साधयेत्तैलं एतेन पादावभ्यज्य निर्मलौ । ।। १४.२.२९अ ब ।।

 अङ्गार-राशौ विचरेद्यथा कुसुम-संचये ।। १४.२.२९च्द् ।।

 हंस-क्रौञ्च-मयूराणां अन्येषां वा महा-शकुनीनां उदक-प्लवानां पुच्छेषु बद्धा नल-दीपिका रात्रावुल्का-दर्शनं ।। १४.२.३० ।।

 वैद्युतं भस्म-अङ्गि-शमनं ।। १४.२.३१ ।।

 स्त्री-पुष्प-पायिता माषा व्रजकुली-मूलं मण्डूक-वसा-मिश्रं चुल्लुयां दीप्तायां अपाचनं ।। १४.२.३२ ।।

 चुल्ली-शोधनं प्रतीकारः ।। १४.२.३३ ।।

 पीलुमयो मणिरग्नि-गर्भः सुवर्चला-मूल-ग्रन्थिः सूत्र-ग्रन्थिर्वा पिचु-परिवेष्टितो मुख्यादग्नि-धूम-उत्सर्गः ।। १४.२.३४ ।।

 कुश-आम्र-फल-तैल-सिक्तोअग्निर्वर्ष-प्रवातेषु ज्वलति ।। १४.२.३५ ।।

 समुद्र-फेनकस्तैल-युक्तोअम्भसि प्लवमानो ज्वलति ।। १४.२.३६ ।।

 प्लवमानानां अस्थिषु कल्माष-वेणुना निर्मथितोअग्निर्नौदकेन शाम्यति । उदकेन ज्वलति ।। १४.२.३७ ।।

 शस्त्र-हतस्य शूल-प्रोतस्य वा पुरुषस्य वाम-पार्श्व-पर्शुक-अस्थिषु कल्माष-वेणुना निर्मथितोअग्निः स्त्रियाः पुरुषस्य वाअस्थिषु मनुष्य-पर्शुकया निर्मथितोअग्निर्यत्र त्रिरपसव्यं गच्छति न चात्रान्योअग्निर्ज्वलति ।। १४.२.३८ ।।

 चुच्चुन्दरी खञ्जरीटः खार-कीटश्च पिष्यते । ।। १४.२.३९अ ब ।।

 अश्व-मूत्रेण संसृष्टा निगलानां तु भञ्जनं ।। १४.२.३९च्द् ।।

 अयस्-कान्तो वा पाषाणः कुलीर-दर्दुर-खार-कीट-वसा-प्रदेहेन द्वि-गुणः ।। १४.२.४० ।।

 नारक-गर्भः कङ्क-भास-पार्श्व-उत्पल-उदक-पिष्टश्चतुष्-पद-द्वि-पदानां पाद-लेपः ।। १४.२.४१ ।।

 उलूक-गृध्र-वसाभ्यां उष्ट्र-चर्म-उपानहावभ्यज्य वटपत्त्रैः प्रतिच्छाद्य  -योजनान्यश्रान्तो गच्छति ।। १४.२.४२ ।।

 श्येन-कङ्क-काक-गृध्र-हंस-क्रौञ्च-वीची-रल्लानां मज्जानो रेतांसि वा योजन-शताय । सिंह-व्याघ्र-द्वीप-काक-उलूकानां मज्जानो रेतांसि वा ।। १४.२.४३ ।।

 सार्ववर्णिकानि गर्भ-पतनान्युष्ट्रिकायां अभिषूय श्मशाने प्रेत-शिशून्वा तत्-समुत्थितं मेदो योजन-शताय ।। १४.२.४४ ।।

 अनिष्टैरद्भुत-उत्पातैः परस्यौद्वेगं आचरेत् । ।। १४.२.४५अ ।।

 आराज्यायैति निर्वादः समानः कोप उच्यते ।। १४.२.४५ब । 



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