मित्रों, आज दिनांक ११/१२/२०१७ को सोमवासरीय सुप्रभात, नमन, वंदन प्रात: अभिनंदन !
साथियों, कल हमने एक ऐसी कुण्डली का अवलोकन किया, जिसमें क्रमश: बु,शु एवं उच्च का वृहस्पति अस्त होकर चतुर्थ स्थान में स्थित थे, और दूसरे भाव यानी चतुर्थस्थ गुरु पंचम भाव स्थित शनि और राहु की यूती को देखकर जातक 'भावेश वालिया' (परिवर्तित नाम) को किसी ज्येतिषी ने यह बताया की आपकी कुण्डली में 'सन्यास योग' बन रहा है, मैने इस निर्णय को अस्वीकृत करते हुए उनको आश्वस्त किया की यह 'आध्यात्मिक कुण्डली' है परन्तु 'सन्यास योग' नहीं है ! आईये अलग अलग तीन किश्तों में वृहस्पति के बारे में समझने का प्रयास करेंगे, यह आलेख बहुत रोचक व ज्ञानवर्द्धक तो है ही, साथ में जन साधारण को अपनी कुण्डली का समीक्षा करने में सहयोग भी करेगा !
बृहस्पति को 2, 5, 9, 10 और 11वें भाव का स्थिर कारक माना गया है। आमतौर से अपने ही भाव में कारक को अच्छा नहीं माना गया है परंतु दूसरे भाव में बृहस्पति को लाभ देने वाला माना गया है।
प्रत्येक लग्र के लिए बृहस्पति का शुभाशुभ फल आप इस प्रकार आसानी से समझ सकते हैं :-
१) मेष लग्न में बृहस्पति योगकारक हैं।
२) वृषभ व मिथुन लग्न के लिए पाप फल देते हैं।
३) कर्क, सिंह लग्न के लिए बृहस्पति शुभ फलदायी हैं परंतु कन्या और तुला लग्न के लिए अशुभ फलदायी होते हैं।
४) वृश्चिक लग्न के लिए बृहस्पति शुभफल देने वाले, ५) धनु लग्न के लिए सम, मकर और कुंभ लग्न के लिए पाप फल देने वाले और मीन लग्न के लिए शुभफल माने गए हैं।
सन्यास योग बनाम आध्यात्मिक योग :-
मैने (आचार्य पण्डित विनोद चौबे, 9827198828) कल भिलाई निवासी 'भावेश वालिया' (परिवर्तित नाम) की कुण्डली की जो समीक्षा की उसमें 'आध्यात्मिक योग तो अवश्य था परन्तु सन्यास योग तो बिल्कुल भी नही' किन्तु केवल पंचमस्थ शनि एवं राहु की वजह से 'सन्यासयोग' कहना ठीक नहीं ! क्योंकि आध्यात्मिकता का गुणात्मक पक्ष तो पंचम, नवम् एवं दशम भाव में होता है। पंचम भाव ईश्वर-प्रेम, नवम् धार्मिक अनुष्ठान एवं दशम् कार्य का परिचायक है। ईश्वर-प्रेम के अतिरक्त अनुष्ठान एवं कर्म के संयोग के बगैर आध्यात्मिक प्रवृत्ति पनप तो सकती है किंतु फल-फूल नहीं सकती। पंचम एवं नवम में जब शुभ युति होती है तभी अनुष्ठानादि की क्रिया में भक्ति होती है। पंचम स्थान से ही भक्ति की प्रगाढ़ता का विचार होता है। अतः जब नवमेश और पंचमेश में परस्पर संबंध होता है तब व्यक्ति में भक्ति एवं अनुष्ठान की भावना जाग्रत होती है और वह उच्च श्रेणी का साधक बनता है। दशम स्थान कर्म स्थान है अतः यदि पंचम व नवम् के साथ दशम का भी संबंध हो जाए तो फल में उत्कृष्टता आती है। शनि अवश्य ही कठोर पाप ग्रह है परंतु वह इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए मनुष्य को तपाकर उसके विचारों को शुद्ध कर देता है। अतः जब शनि का पंचम्, नवम एवं दशम से संबंध होता है तो वह व्यक्ति को तपस्वी बना देता है। कभी-कभी दीक्षा योग अर्थात लग्न (शरीर) एवं चंद्रमा (मन) का जब शनि से संबंध होता है तो शनि विचारों को शुद्ध करते हुए मन और शरीर पर पूर्ण नियंत्रण रखता है। इससे भी व्यक्ति की अध्यात्म में रुचि बढ़ती है। यदि जन्म के समय चार, पांच, छः या सातों ग्रह एकत्र होकर किसी स्थान पर बैठे हों तो व्यक्ति प्रायः संन्यासी होता है। परंतु यह आवश्यक है कि इन में से कोई एक ग्रह बलवान हो और कोई एक दशमेश। ग्रहों की उक्त स्थिति में यदि सूर्य अत्यधिक बलवान हो तो संन्यास की प्रकृति एक तपस्वी की तरह होती है। चंद्र के बलवान होने पर व्यक्ति तांत्रिक होता है। मंगल के बली होने पर वह गेरु रंग का वस्त्र धारण करने वाला संन्यासी होता है। बृहस्पति के बलवान होने पर दंडी सन्यासी होता है। शुक्र के बली होने पर वह चक्रधारी साधु तथा शनि के बलवान होने पर नागा सन्यासी होता है।
(शेष चर्चा क्रमश: अगली पोसिट में करूंगा) -नमस्कार (लेख आपको कैसा लगा अवश्य बतायें)
-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे,
संपादक- ',ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई, दुरभाष क्रमांक - 9827198828
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