चौबेजी कहिन:- 21 वीं सदी का अद्भुत खग्रास चंद्रग्रहण 27 जुलाई को। आईए जानते हैं 'चन्द्रग्रहण रहस्य'...🙏 आज 'फेसबुक लाईव' में बतायेंगे राशियों पर 'चन्द्रग्रहण' का शुभाशुभ प्रभाव।
चन्द्रग्रहण रात्रि 27/7/2018 को 11बजकर 54 (PM) मिनट से लेकर 28/7/2018 को रात्रि 03 बजकर 49 मिनट (AM) तक 235 मिनट तक रहेगा जो 21वीं सदी का सबसे लंबा और पूर्ण चंद्रग्रहण है।
(कृपया इस लेख को कोई कॉपी-पेस्ट ना करें ऐसा करते पाये जाने पर ' ज्योतिष का सूर्य' वैधानिक कार्यवाही करने को बाध्य होगा)
गेरुआधारी फर्जी अग्निवेश ...!!
माओवादी और मिशनरीज की
रोटी पर पलता अग्निवेश फर्जी
गेरुआधारी है: वस्तुतः ईसाई है:
वेटिकन का प्यादा है अग्निवेश।
सोनियाँ सरकार में बड़ी दलाली
का काम वही कर सकता था जो
रोमन कैथोलिक ईसाई हो।
आपको पता होना चाहिए
कि सोनियाँ काँग्रेस के
शासनकाल में सबसे बड़े
लायजनर्स में अग्निवेश की
गिनती होती थी।
अग्निवेश सत्ता के गलियारे के
चमकते सितारे थे उन दिनों।
अग्निवेश की कृपा प्राप्त हो
जाने पर सोनियाँ सरकार में
बड़े से बड़ा काम करा लेते
थे लोग।
अग्निवेश का जन्म हुआ
आंध्रप्रदेश में।☺️
पले बढ़े पढ़े छत्तीसगढ़ में
और जीवन भर काम किया
मिशनरीज और माओवाद
के लिए।☺️☺️
विनायक सेन जैसे दुर्दांत
माओवादी को सोनियाँ सरकार
के सहारे फाँसी से बचा लेने
का चमत्कार कर दिखाया था
अग्निवेश ने।
आज तक भी विनायक सेन की
गर्दन फाँसी के फंदे तक न पहुँच
सका।
यह सोनियाँ की शक्ति नहीं
है यह चर्च की शक्ति का
परिणाम है।
अग्निवेश एक संगठन
चलाता है सर्व धर्म संसद।
उस संगठन की जहाँ भी बैठक
होती है वहाँ सर्व धर्म के नाम
पर केवल चर्च का बोलबाला
होता है।
और सनातन धर्म का स्वयंभू
प्रतिनिधि हर बार अग्निवेश ही
होता है।
अर्थात यह सर्व धर्म संसद
केवल चर्च की संसद बनकर
रह गया है।
या यूँ कहें कि चर्च के हितों को
ध्यान में रखकर ही यह संगठन
बनाया गया है।
19 जून 2009 को
G8 सम्मेलन से ठीक
पहले रोम में सर्व धर्म
संसद का आयोजन
हुआ।
आयोजक अग्निवेश थे।
चूँकि इस संगठन के सर्वेसर्वा
अग्निवेश ही हैं।
उस सम्मेलन से तीन दिन
पहले सभी डेलीगेट्स भारी
सुरक्षा व सुविधा के अंतर्गत
भूकंप प्रभावित ला अकीला
शहर में ले जाए गए।
जहाँ वेटिकन के पादरियों द्वारा
मृतकों के लिए सामूहिक प्रेयर
का आयोजन हुआ।
सारी व्यवस्था वेटिकन
ने ही किया था।
प्रेयर का आइडिया अग्निवेश
का ही था।
यदि तुम आर्य समाजी थे
और सनातनी थे तो वहाँ
वैदिक स्वस्तिवाचन व शांति
पाठ भी करवा सकते थे।
किन्तु चर्च का प्रेयर जिसको
आनन्दित करता हो वह वैदिक
शांति पाठ क्यों करेगा ?
सर्व धर्म संसद का उद्घाटन
संध्या 5 बजे रोम के प्रसिद्ध
विला मडामा में हुआ।
उद्घाटनकर्ता था कम्युनिटी
ऑफ सेंट इडिगो का संस्थापक
प्रोफेसर एंड्रिया रिकार्डी।
एंड्रिया रिकार्डी चर्च के सम्बंध
में ही पुस्तकें लिखता रहा है।
इसी लेखन के कारण वह
इतिहासकार कहा जाता है।
चर्च के विश्वस्त लोगों में
से एक वफादार है एंड्रिया
रिकार्डी।
वही व्यक्ति अग्निवेश के सर्व
धर्म संसद का उद्घाटनकर्ता
महापुरुष था।
अग्निवेश के रिश्ते सम्बंधों
को समझने के लिए यह
लिंक महत्वपूर्ण है।
अपने वेटिकन के लिंक के
कारण ही अग्निवेश लगातार
हिन्दू धर्म के विविध तीर्थ,पर्व-
उत्सवों और रीति नीति पर
आक्रमण करता रहा है।
अग्निवेश का माओवाद के
साथ गहरा संबंध भी उसके
हिन्दू विरोधी होने का एक
प्रमुख कारण रहा है।
अग्निवेश झारखंड और
छत्तीसगढ़ के माओवादियों
से बड़े निकट से जुड़ा रहा है।
इन दोनों राज्यों के चर्च और
मिशनरीज से भी अग्निवेश
के बड़े गहरे संबंध रहे हैं।
अग्निवेश इनके लिए अनेकों
बार काम करता हुआ दिखाई
देता है।
अभी की अग्निवेश की झारखंड
यात्रा भी चर्च के लिए ही थी।
अग्निवेश राँची के समीप खूँटी
में वहाँ के सभी मिशनरीज के
प्रमुख लोगों से मिलकर उनको
साहस देने का काम किया।
हीलिंग टच टू मिशनरीज।
बच्चा बेचने वाली घटना में
सिस्टर कोनसिलिया और
सिस्टर मेरिडियन के पकड़े
जाने और अपराध स्वीकार
कर लेने के बाद राज्य सरकार
द्वारा मिशनरीज ऑफ चैरिटी
के ठिकानों पर पड़े छापे के बाद
मिशनरीज की चूलें हिल गई हैं।
भारत का कैथोलिक विशप
थियोडोर मैशकरेनहैस इस
छापे के तुरंत बाद दिल्ली से
दौड़ते हुए राँची पहुँचा था।
किंतु उसके वहाँ जाने
और दलाली के तमाम
प्रयत्न विफल रहे तब
दलाल शिरोमणि अग्निवेश
को थियोडोर मैशकरेनहैस
ने खूंटी भेजा।
पाकुड़ यात्रा लोगों को भ्रमित
करने के लिए आयोजित किया
गया था।
किन्तु कुछ नैजवानों के
आक्रामक रवैये ने सारा
भ्रम निवारण कर दिया।
चौबेजी कहिन:- जहां प्रभु श्रीराम ने "
निसिचर हीन करउँ महि " का प्रण किया था वह पावन तीर्थ है 'रामटेक' और यही है वह इकलौता मंदिर जिसके गर्भगृह में रखा गया है भोंसले राजाओं का 'शस्त्र-शस्त्र' (जरुर पढें यह रोचक एवं तथ्यपरक आलेख)🙏
11/07/2018
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ प्रण कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमहि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥9॥ अरण्य काण्ड
भावार्थ श्री रामजी ने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूँगा। फिर समस्त मुनियों के आश्रमों में जा-जाकर उनको (दर्शन एवं सम्भाषण का) सुख दिया॥9॥
🚩🚩🙏🚩🚩
श्रीरामचरितमानस के तृतीय सोपान अरण्य काण्ड मे प्रभु श्रीराम ने जिस स्थान पर समस्त पृथ्वी को 'निसिचर हीन' करने का संकल्प लिया, वह पवित्र स्थान 'रामटेक' है, जो महाराष्ट्र में स्थित है, इसी स्थान पर कविकुल गुरु महाकवि कालिदास जी ने 'मेघदूत' काव्य का वर्णन किया। मुझे इस पावन भूमि पर कल (10/07/2018) प्रभु श्रीराम का दर्शन एवं महाकवि कालिदास स्मारक का पावन *सौभाग्य* प्राप्त हुआ, जिसका पूरा श्रेय आदरणीय डॉ. नरेन्द्र प्रसाद दीक्षित, पूर्व कुलपति (दुर्ग विश्वविद्यालय, छ.ग.) जी के सान्निध्य को जाता है और इस ऐतिहासिक 'रामटेक यात्रा' को चिरंजीवी बनाने में अहम भूमिका श्री देशदीपक सिंह जी की रही।
विश्व का यह एक इकलौता मंदिर है जहां श्रीराम मंदिर के गर्भगृह में अस्त्र-शास्त्र रखा गया है । 'रामटेक' स्थित भगवान श्रीराम के इस ऐतिहासिक तीर्थ के बारे में जितना कहा जाए वह कम है, दुर्ग विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति रहे डॉ. नरेन्द्र प्रसाद दीक्षित ने बताया की तीसरी शताब्दी में यहां 'वाकाटक नरेशों ' का किला था।
वाकाटक शब्द का प्रयोग प्राचीन भारत के एक राजवंश के लिए किया जाता है जिसने तीसरी सदी के मध्य से छठी सदी तक शासन किया था। स्यात् वकाट नामक मध्यभारत में यह स्थान रहा हो, जहाँ पर शासन करनेवाला वंश वाकाटक कहलाया। अतएव प्रथम राजा को अजंता लेख में "वाकाटक वंशकेतु:" कहा गया है। इस राजवंश का शासन मध्यप्रदेश के अधिक भूभाग तथा प्राचीन बरार (आंध्र प्रदेश) पर विस्तृत था, जिसके सर्वप्रथम शासक विन्ध्यशक्ति का नाम वायुपुराण तथा अजंता के लेख में मिलता है। संभवत: विंध्य पर्वतीय भाग पर शासन करने के कारण प्रथम राजा 'विंध्यशक्ति' की पदवी से विभूषित किया गया। डॉ. दीक्षित कहते हैं यदि बात की जाए काव्यों के रचनाकारों की तो महाकवि कालिदास जी के 'मेघदूत' काव्य में इस पर्वत श्रृंखला को 'रामगिरि' के रुप में प्रतिष्ठित किया तो अन्य काव्यों में जैसे प्राकृत काव्य तथा सुभाषित को "वैदर्भी शैली" का नाम दिया गया है। वाकाटकनरेश वैदिक धर्म के अनुयायी थे, इसीलिए अनेक यज्ञों का विवरण लेखों में मिलता है। कला के क्षेत्र में भी इसका कार्य प्रशंसनीय रहा है।
श्री देशदीपक सिंह जी ने बताया कि 28/9/1925 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्थापना के बाद प.पू. डॉक्टर हेडगेवार जी इस ऐतिहासिक तीर्थ 'रामटेक' आये थे। बार-बार इस पावन भूमि पर डॉक्टर हेडगेवार जी इसलिए आते थे क्योंकि भारत माता के रक्षार्थ मुगलों से कई बार 'भोंसले' राजाओं ने युद्ध किया, आज भी इस मंदिर में 'भोंसले' राजाओं के 'अस्त्र-शस्त्र' इस मंदिर के गर्भगृह में देखें जा सकते हैं। श्री देशदीपक जी ने इस संदर्भ में छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक जुड़ाव के बारे बताया कि- इंडियन एंटी क्वेरी खंड 37 पेज 204 के अनुसार यह लेख 80 पंक्तियों का है परन्तु बहुत सी मिट गई है। लेख के अधिक अंश में रामटेक के तीर्थो का वर्णन है। जिसमें हैहय वंशी राजा ब्रम्हदेव के सम्बन्ध में है जो रायपुर और खल्लारी के लेख में आते है। उसमें रामटेक में लक्ष्मण मंदिर का जिक्र किया गया है।
वनवास के समय राम के 'टिकने का स्थान' या 'पड़ाव' को 'रामटेक' कहा जाता है। कुछ विद्वानों के मत में यह महाकवि कालिदास के 'मेघदूत' में वर्णित रामगिरि है। यहाँ विस्तीर्ण पर्वतीय प्रदेश में अनेक छोट-छोटे सरोवर स्थित हैं, जो शायद 'पूर्वमेघ' में उल्लिखित 'जनकतनया स्नान पुण्योदकेषु' में निर्दिष्ट जलाशय हैं। इस पवित्र तीर्थ में भगवान श्रीराम वनवास काल में राम, लक्ष्मण तथा सीता इस स्थान पर रहे थे। रामचंद्र जी का एक सुंदर मंदिर ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ है। मंदिर के निकट विशाल वराह की मूर्ति के आकार में कटा हुआ एक शैलखंड स्थित है। रामटेक को 'सिंदूरगिरि' भी कहते हैं। इसके पूर्व की ओर 'सुरनदी' या 'सूर्यनदी' बहती है। इस स्थान पर एक ऊंचा टीला है, जिसे गुप्तकालीन बताया जाता है। चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त ने रामगिरि की यात्रा की थी। इस तथ्य की जानकारी 'रिद्धपुर' के ताम्रपत्र लेख से होती है। प्राचीन जनश्रुति के अनुसार रामचंद्र जी ने शंबूक का वध इसी स्थान पर किया था। रामटेक में जैन मन्दिर भी है। कुछ विद्वानों का मत है कि कालिदास के 'मेघदूत' का रामगिरि यही है।
-आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका शांतिनगर भिलाई, दुर्ग, छत्तीसगढ़ मोबाइल नं.9827198828
चौबेजी कहिन:- आजादी के बाद ही देश के ''गद्दारों'' ने जिसे ''शारदा देश'' कहा जाता था उस ''कश्मीर'' को ''आतंक की आग में ढकेल दिया....इन सत्ता के भूखे भेड़ियों ने'' 😪
साथियों इस आलेख में दर्द है, पीड़ा है, शहीद जांबाज सैनिकों का शौर्य है, ऋषियों की पवित्र अमरकथा है और एक सत्तारूढ़ गद्दार के गद्दारी की अमरगाथा है जिसने धारा 370 की धधकती ज्वाला में धरती के स्वर्ग कश्मीर को नर्क बना दिया....🤔
मित्रों, मुझे आचार्य अभिनव गुप्त जी का स्मरण आया और मैंने....अपनी धर्मपत्नी श्रीमती रम्भा चौबे जी को विस्तृत व समसामयिक तथा प्रागतैहासिक 'शारदा देश'' यानी 'कश्मीर' की यात्रा कराने चल पड़ा... कश्मीर जिसे ज्ञान-भूमि यानी ''शारदा देश'' के नाम से जाना जाता था जो 'कन्नौज प्रांत' से 'कश्मीर' तक अमन चैन व सनातन व संस्कृति की उर्वरा भूमि रही आज उस उर्वरा भूमि को " भारतीय स्वतंत्रता के लिये आजाद, भगत, राजगुरू, सुखदेव तथा रामप्रसाद बिस्मिल सहित असंख्य नवयुवकों ने अपने प्राण की आहूति दी उनका स्मरण तो भारत के इन गद्दारों ने करना तक मुनासीब नहीं समझा और गाहे-बेगाहे इनका स्मरण किया भी तो नाम मात्र का.. क्योंकि स्वतंत्र भारत के गलियों से लेकर उच्च संस्थानों तक अधिकतर संस्थानों का नामकरण अपने 'नाम' किया...खैर यह तो उनके 'भग्न- मानसिकता' का परिचायक है इन 'गद्दारों' ने भारतीय इतिहास के साथ ऐसा खिलवाड़ किया की 'अकबर' को महान बताया और 'महाराणा प्रताप' के शौर्य को म्यूट कर दिया गया,
'जम्मू एण्ड कश्मीर' का मुद्दा ऐसा विवादित किया गया की वहां आजादी के बाद अब तक असंख्य भारतीय सैनिक शहीद हुये और आज भी वह स्थिति बनी हुई है...और जब कोई 'रक्तबीज राक्षस लश्कर का आतंकी मारा जाता है तो वही देश के गद्दार नेता धर्म की राजनीति, तुष्टिकरण की राजनीति पर आमादा हो जाते हैं और मीडिया भी प्रायोजित ढंग से बड़ी कव्हरेज दिखाती है ...अरे सत्ता के भूखे गद्दारों ने उसे 'कश्मीर ' का पवित्र ज्ञान-भूमि को... रक्त-रंजित इतिहास के रुप में उलट-पुलट कर रखने का कुत्सित प्रयास किया..
नफ़रत भरी कथित सेक्यूलरिज्म के पैरोकारों को घड़ियाली आंसू बहाने की बजाय .. अमरनाथ यात्रा के श्रद्धालुओं पर लश्कर आतंकी 'अबु स्माईल ' नामक 'रक्तबीज' राक्षस ने कायराना हमला किया इससे ज्यादा ध्यान उसको छुपाकर रखने वाले गद्दारों की भूमिका अहम है उनका पक्ष लेना बंद करें और जिसकी वजह से 'अबु स्माईल' वहां तक पहुंचा ! पहले उनका सख्ती से विरोध कर उन्हे करें...!
क्योंकि... भारतीय सत्ता पर बने रहने की हर कोशीश करने वाले देश के गद्दारों ने कभी '' कन्नौज से कश्मीर के पवित्र ज्ञान-भूमि 'शारदा देश' के सनातनी-इतिहास के पन्नों को पलट कर देखने की ख़ीदमत नहीं की ... क्योंकि उनके सत्ता-प्राप्ति में रोड़ा बन जाता...और भारत की वैश्विक मंच पर कश्मीर जिसे आध्यात्मिक पवित्र भूमि 'शारदा देश' कहा जाता था उसे ''आतंकी साये के प्रदेश के रुप में बदनाम किया जाना लक्ष्य था! तभी तो वहां से ज्ञान-तपस्वी, मां शारदा के वरद पुत्र कश्मीरी पण्डितो को खदेड़ा गया और आज ''मोदी सरकार के कुशल नेतृत्व पर उंगली उठा रहे हैं''
खैर, आईये कश्मीर का आध्यात्मिक पवित्र ज्ञान-भूमि के तपस्वी आचार्य अभिनव गुप्त जी चर्चा करते हैं.(ध्यानपूर्वक श्रीमती रम्भा चौबे जी सुनती हुईं गंभीर मुद्रा में)
..आप श्री अभिनव गुप्त जी को वगैर समझे कश्मीर को नहीं समझ पायेंगे.......तो आईये 950 ईसा पूर्व कश्मीर के पवित्र ज्ञान-भूमि पर जन्मे महान दार्शनिक शेषावतारी श्री अभिनव गुप्त जी के जीवन चरित्र के माध्यम से आपको 'कश्मीर' की यात्रा कराता हुं.
मुझे आदरणीय श्री जवाहर लाल कौल जी का एक लेख 'श्रद्धादीप समर्पण' ने बहुत प्रभावित किया उसके कुछ अंश को उन्हीं के शब्दों में रखना चाहुंगा... भारत की ज्ञान-परंपरा में आचार्य अभिनवगुप्त एवं कश्मीर की स्थिति को एक ‘संगम-तीर्थ’ के रुपक से बताया जा सकता है। जैसे कश्मीर (शारदा देश) संपूर्ण भारत का ‘सर्वज्ञ पीठ’ है, वैसे ही आचार्य अभिनव गुप्त संपूर्ण भारतवर्ष की सभी ज्ञान-विधाओं एवं साधनों की परंपराओं के सर्वोपरि समादृत आचार्य हैं। कश्मीर केवल शैवदर्शन की ही नहीं, अपितु बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक, सिद्ध, तांत्रिक, सूफी आदि परंपराओं का भी संगम रहा है।
और विस्तृत सम्पूर्ण आलेख पढ़ने के लिये इस लिंक पर क्लिक करें..
आचार्य अभिनवगुप्त भी अद्वैत आगम एवं प्रत्यभिज्ञा –दर्शन के प्रतिनिधि आचार्य तो हैं ही, साथ ही उनमें एक से अधिक ज्ञान-विधाओं का भी समाहार है। भारतीय ज्ञान दर्शन में यदि कहीं कोई ग्रंथि है, कोई पूर्व पक्ष और सिद्धांत पक्ष का निष्कर्ष विहीन वाद चला आ रहा है और यदि किसी ऐसे विषय पर आचार्य अभिनवगुप्त ने अपना मत प्रस्तुत किया हो तो वह ‘वाद’ स्वीकार करने योग्य निर्णय को प्राप्त कर लेता है। उदाहरण के लिए साहित्य में उनकी भरतमुनिकृत रस-सूत्र की व्याख्या देखी जा सकती है जिसे ‘अभिव्यक्तिवाद’ के नाम से जाना जाता है। भारतीय ज्ञान एवं साधना की अनेक धाराएं अभिनवगुप्तपादाचार्य के विराट् व्यक्तित्व में आ मिलती है और एक सशक्त धारा के रुप में आगे चल पड़ती है।
आचार्य अभिनवगुप्त के पूर्वज अत्रिगुप्त (8वीं शताब्दी) कन्नौज प्रांत के निवासी थे। यह समय राजा यशोवर्मन का था। अभिनवगुप्त कई शास्त्रों के विद्वान थे और शैवशासन पर उनका विशेष अधिकार था। कश्मीर नरेश ललितादित्य ने 740 ई. जब कान्यकुब्ज प्रदेश को जीतकर काश्मीर के अंतर्गत मिला लिया तो उन्होंने अत्रिगुप्त से कश्मीर में चलकर निवास की प्रार्थना की। वितस्ता (झेलम) के तट पर भगवान शितांशुमौलि (शिव) के मंदिर के सम्मुख एक विशाल भवन अत्रिगुप्त के लिये निर्मित कराया गया। इसी यशस्वी कुल में अभिनवगुप्त का जन्म लगभग 200 वर्ष बाद (950 ई.) हुआ। उनके पिता का नाम नरसिंहगुप्त तथा माता का नाम विमला था।
भगवान् पतञ्जलि की तरह आचार्य अभिनवगुप्त भी शेषावतार कहे जाते हैं। शेषनाग ज्ञान-संस्कृति के रक्षक हैं। अभिनवगुप्त के टीकाकार आचार्य जयरथ ने उन्हें ‘योगिनीभू’ कहा है। इस रुप में तो वे स्वयं ही शिव के अवतार के रुप में प्रतिष्ठित हैं। आचार्य अभिनवगुप्त के ज्ञान की प्रामाणिकता इस संदर्भ में है कि उन्होंने अपने काल के मूर्धन्य आचार्यों-गुरूओं से ज्ञान की कई विधाओं में शिक्षा-दीक्षा ली थी। उनके पितृवर श्री नरसिंहगुप्त उनके व्याकरण के गुरू थे। इसी प्रकार लक्ष्मणगुप्त प्रत्यभिज्ञाशास्त्र के तथा शंभुनाथ (जालंधर पीठ) उनके कौल-संप्रदाय –साधना के गुरू थे। उन्होंने अपने ग्रंथों में अपने नौ गुरूओं का सादर उल्लेख किया है। भारतवर्ष के किसी एक आचार्य में विविध ज्ञान विधाओं का समाहार मिलना दुर्लभ है। यही स्थिति शारदा क्षेत्र काश्मीर की भी है। इस अकेले क्षेत्र से जितने आचार्य हुए हैं उतने देश के किसी अन्य क्षेत्र से नहीं हुए| जैसी गौरवशाली आचार्य अभिनवगुप्त की गुरु परम्परा रही है वैसी ही उनकी शिष्य परंपरा भी है| उनके प्रमुख शिष्यों में क्षेमराज , क्षेमेन्द्र एवं मधुराजयोगी हैं| यही परंपरा सुभटदत्त (12वीं शताब्ती) जयरथ, शोभाकर-गुप्त महेश्वरानन्द (12वीं शताब्दी), भास्कर कंठ (18वीं शताब्दी) प्रभृति आचार्यों से होती हुई स्वामी लक्ष्मण जू तक आती है |
दुर्भाग्यवश यह विशद एवं अमूल्य ज्ञान राशि इतिहास के घटनाक्रमों में धीरे-धीरे हाशिये पर चली गई | यह केवल कश्मीर के घटनाक्रमों के कारण नहीं हुआ | चौदहवीं शताब्दी के अद्वैत वेदान्त के आचार्य सायण -माधव (माधवाचार्य) ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'सर्वदर्शन सङ्ग्रह' में सोलह दार्शनिक परम्पराओं का विनिवेचन शांकर-वेदांत की दृष्टि से किया है| आधुनिक विश्वविद्यालयी पद्धति केवल षड्दर्शन तक ही भारतीय दर्शन का विस्तार मानती है और इन्हे ही आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन के द्वन्द्व-युद्ध के रूप में प्रस्तुत करती है|आगमोक्त दार्शनिक परम्पराएँ जिनमें शैव, शाक्त, पंचरात्र आदि हैं, वे कही विस्मृत होते चले गए| आज कश्मीर में कुछ एक कश्मीरी पंडित परिवारों को छोड़ दें, तो अभिनवगुप्त के नाम से भी लोग अपरिचित हैं| भारत को छोड़ पूरे विश्व में अभिनवगुप्त और काश्मीर दर्शन का अध्यापन आधुनिक काल में होता रहा है लेकिन कश्मीर विश्वविद्यालय में, उनके अपने वास-स्थान में उनकी अपनी उपलब्धियों को संजोनेवाला कोई नहीं है। काश्मीरी आचार्यों के अवदान के बिना भारतीय ज्ञान परंपरा का अध्ययन अपूर्ण और भ्रामक सिद्ध होगा। ऐसे कश्मीर और उनकी ज्ञान परंपरा के प्रति अज्ञान और उदासीनता कहीं से भी श्रेयस्कर नहीं है।...
आज कश्मीर को उसकी असल 'कश्मीरी़यत की पूर्व संस्कृति पर छोड़कर वहां से धारा 370 हटा लिया जाय और कश्मीरी पण्डितों को घर-वापसी करा दिया जाय तो'' तो पुन: कश्मीर 'शारदा देश' हो जायेगा और वह ' आध्यात्मिक पवित्र ज्ञान-भूमि की उन्नत सनातन संस्कृति की कृषि भूमि बन जायेगी'।
-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई, दुर्ग (छत्तीसगढ)
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(कृपया इस लेख को कोई कॉपी-पेस्ट ना करें ऐसा करते पाये जाने पर ' ज्योतिष का सूर्य' वैधानिक कार्यवाही करने को बाध्य होगा)