शत्रु-विनाशक आदित्य-हृदय
।। आदित्य हृदय स्तोत्रम् ।।
जब भगवान् राम रावण के साथ युद्ध करते-करते क्लान्त हो गए, तब तान्त्रिक अस्त्र-शस्त्रों के आविष्कारक ऋषि अगस्त्य ने आकर भगवान् राम से कहा कि ‘३ बार जल का आचमन कर, इस ‘आदित्य-हृदय’ का तीन बार पाठ कर रावण का वध करो ।’ राम ने इसी प्रकार किया, जिससे उनकी क्लान्ति मिट गई और नए उत्साह का सञ्चार हुआ । भीषण युद्ध में रावण मारा गया ।
रविवार को जब संक्रान्ति हो, उस दिन सूर्य-मन्दिर में, नव-ग्रह मन्दिर में अथवा अपने घर में सूर्य देवता के समक्ष इस स्तोत्र का ३ बार पाठ करें । न्यास, विनियोगादि संक्रान्ति के ५ मिनट पूर्व प्रारम्भ कर दें । प्रयोग के दिन बिना नमक का भोजन करें ।
‘कृत्य-कल्पतरु’ के अनुसार १०८ बार इसका पाठ करना चाहिए । जो लोग केवल तीन ही पाठ करें, वे १०८ बार ‘गायत्री-मन्त्र’ का जप अवश्य करें ।
विनियोगः- ॐ अस्य आदित्य-हृदय-स्तोत्रस्य-श्रीअगस्त्य ऋर्षिनुष्टुप्छन्दः आदित्य-हृदयभूतो भगवान श्रीब्रह्मा देवता, ॐ बीजं, रश्मि-मते शक्तिः, अभीष्ट-सिद्धयर्थे पाठे विनियोगः (वा)निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जय सिद्धौ च विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः- अगस्त्य ऋषये नमः शिरसि। अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे। ॐ आदित्य-हृदय-भूत-श्रीब्रह्मा देवतायै नमः हृदि। ॐ बीजाय नमः गुह्ये। ॐ रश्मिमते शक्तये नमः पादयोः। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो नः प्रचोदयात् कीलकाय नमः नाभौ।
इस स्तोत्र के अंगन्यास और करन्यास तीन प्रकार से किये जाते हैं। केवल प्रणव से, गायत्री मन्त्र से अथवा `रश्मिमते नमः´ इत्यादि छः नाम मन्त्रों से। यहाँ नाम मन्त्रों से किये जाने वाले न्यास का प्रकार बतलाया गया है।
कर-न्यासः- ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः। ॐ देवासुर-नमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नमः। ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादि-न्यासः- ॐ रश्मिमते हृदयायं नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुर-नमस्कृताय शिखायै वषट्। ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।
इस प्रकार न्यास करके निम्न गायत्री मन्त्र से भगवान् सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिये – “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।´´ तत्पश्चात् आदित्यहृदय का पाठ करना चाहिये -
।। पूर्व-पीठिका ।।
ततो युद्ध-परिश्रान्तं, समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा, युद्धाय समुपस्थितम् ।।1।।
दैवतैश्च समागम्य, द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।
उपगम्याब्रवीद् रामगस्त्यो भगवांस्तदा ।।2।।
राम राम महाबहो ! श्रृणु गुह्यं सनातनम् ।
येन सर्वानरीन् वत्स ! समरे विजयिष्यसे ।।3
आदित्य-हृदयं पुण्यं, सर्व-शत्रु-विनाशनम् ।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ।।4
सर्व-मंगल-मांगल्यं, सर्व-पाप-प्रणाशनम् ।
चिन्ता-शोक-प्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ।।5
।। मूल-स्तोत्र ।।
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं, देवासुरनमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्तं, भास्करं भुवनेश्वरम् ।।6
सर्व-देवात्मको ह्येष, तेजस्वी रश्मि-भावनः ।
एष देवासुर-गणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ।।7
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च, शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो, यमः सोमो ह्यपाम्पतिः ।।8
पितरो वसवः साध्या, अश्विनो मरूतो मनुः ।
वायुर्वह्निः प्रजाः प्राण, ऋतु-कर्ता प्रभाकरः ।।9
आदित्यः सविता सूर्यः, खगः पूषा गभस्तिमान् ।
सुवर्ण-सदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः ।।10
हरिदश्वः सहस्त्रार्चिः, सप्त-सप्तिर्मरीचि-मान् ।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशु-मान् ।।11
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहस्करो रविः ।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः, शंखः शिशिर-नाशनः ।।12
व्योम-नाथस्तमो-भेदी, ऋग्यजुः साम-पारगः ।
घन-वृष्टिरपां मित्रो, विन्ध्य-वीथी-प्लवंगमः ।।13
आतपी मण्डली मृत्युः, पिंगलः सर्वतापनः ।
कविर्विश्वो महातेजा, रक्तः सर्वभवोद्भवः ।।14
नक्षत्र-ग्रह-ताराणामधिपो विश्व-भावनः ।
तेजसामपि तेजस्वी, द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ।।15
नमः पूर्वाय गिरये, पश्चिमायाद्रये नमः ।
ज्योतिर्गणानां पतये, दिनाधिपतये नमः ।।16
जयाय जय-भद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।
नमो नमः सहस्त्रांशो, आदित्याय नमो नमः ।।17
नमः उग्राय वीराय, सारगांय नमो नमः ।
नमः पद्म-प्रबोधाय प्रचण्डाय, नमोऽस्तु ते ।।18
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय, सूरायादित्य-वर्चसे ।
भास्वते सर्व-भक्षाय, रौद्राय वपुषे नमः ।।19
तमोघ्नाय हिमघ्नाय, शत्रुघ्नायामितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय, ज्योतिषां पतये नमः ।।20
तप्त-चामीकराभाय, हरये विश्व-कर्मणे ।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय, रूचये लोकसाक्षिणे ।।21
नाशयत्येष वै भूतं, तमेव सृजति प्रभुः ।
पायत्येष तपत्येष, वर्षत्येष गभस्तिभिः ।।22
एष सुप्तेषु जागर्ति, भूतेषु परि-निष्ठितः ।
एष चैवाग्नि-होत्रं च, फलं चैवाग्नि-होतृणाम् ।।23
देवाश्च क्रतवश्चैव, क्रतूनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु, सर्वेषु परम-प्रभुः ।।24
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु, कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरूषः कश्चिन्नावसीदति राघवः ! ।।25
पूजयस्वैनमेकाग्रों, देव-देवं जगत्पतिम् ।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा, युद्धेषु विजयिष्यसि ।।26
अस्मिन् क्षणे महाबाहो, रावणं त्वं जहिष्यसि ।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो, जगाम स यथाऽऽगतम् ।।27
एतच्छ्रुत्वा महा-तेजा, नष्ट-शोकोऽभवत् तदा ।
धारयामास सु-प्रीतो, राघवः प्रयतात्मवान् ।।28
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं, परं हर्षमवाप्त-वान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा, धनुरादाय वीर्य-वान् ।।29
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा, जयार्थं समुपागमत् ।
सर्व-यत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ।।30
अथ रविरवदिन्नरीक्ष्य रामं मुदित-मनाः परमं प्रहृष्य-माणः ।
निशिचरपति-संक्षयं विदित्वा, सुर-गण-मध्य-गतो वचस्त्वरेति।।31
।।इति वाल्मीकीयरामयणे युद्धकाण्डे, अगस्त्यप्रोक्तमादित्यहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णं।।
श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिये उनके सामने उपस्थित हो गया।।1।।
यह देख भगवान् अगस्त्य मुनि, जो युद्ध देखने के लिये देवताओं के साथ आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले।।2।।
सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो। वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे।।3
यह गोपनीय स्तोत्र “आदित्यहृदय´´ परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय प्राप्त होती है। यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है।।4
सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।।5
भगवान् सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित (रश्मिवान्) हैं। ये नित्य उदय होने वाले (समुद्यन), देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी हैं। तुम इनका (रश्मिमते नमः, समुद्यते नमः, देवासुरनमस्कृताय नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः- इन छः नाम मन्त्रों के द्वारा) पूजन करो।।6
सम्पूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं। ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत् को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं।।7
ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओ को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं।।8-9
इन्हीं के नाम – आदित्य (अदितिपुत्र), सविता (जगत् को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग (आकाश में विचरनेवाले), पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान (प्रकाशमान्), स्वर्णसदृश, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड का उत्पत्ति के बीज), दिवाकर (दिन का प्रकाश फैलाने वाले)।।10
हरिदश्व (दिशाओं में व्यापक या हरे रंग के घोड़ों वाले), सहस्त्रार्चि (हजारों किरणों से सुशोभित), सप्तसप्ति (सात घोड़ों वाले), मरीचमान् (किरणों से सुशोभित), तिमिरोन्मथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भु (कल्याण के उद्गम स्थल), त्वष्टा (भक्तो का दुःख दूर करने वाले या जगत् का संहार करने वाले), मार्तण्डक (ब्रह्माण्ड को जीवन प्रदान करने वाले), अंशुमान् (किरण धारण करने वाले)।।11
हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करने वाले), अहस्कर (दिनकर), रवि (सबके स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख (आनन्द रूप एवं व्यापक), शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले)।।12
व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी (अन्धकार का भेदन करने वाले), ऋक्, यजुःऔर समवेद के पारगामी, घनवृष्टि (घनी वृष्टि के कारण), अपां मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विन्ध्यवीथीप्लवंगम (आकाश में तीव्र गति से चलने वाल।।13
आतपी (घाम उत्पन्न करने वाले), मण्डली (किरण समूह को धारण करने वाले), मृत्यु, पिंगल, सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि, विश्व, महातेजस्वी, रक्त, सर्वभवोद्भव (सबकी उत्पत्ति के कारण)।।14
नक्षत्रताराग्रहों के स्वामी, विश्वभावन (जगत् की रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी तथा द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) आपको नमस्कार हैं।।15
पूर्वगिरि -उदयाचल तथा पश्चिमगिरि – अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है।।16
आप जयस्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता हैं। आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। आपको बारम्बार नमस्कार है। सहस्त्रों किरणों से सुशोभित भगवान् सूर्य ! आपको बारम्बार नमस्कार है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध हैं, आपको नमस्कार है।।17
उग्र (अभक्तों के लिये भयंकर), वीर और सारंग (शीघ्रगामी) सूर्यदेव को नमस्कार है। कमलों को विकसित करने वाले प्रचण्ड तेजधारी मार्तण्ड को प्रणाम है।।18
ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी (परात्पर रूप में) हैं। सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाली अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्र रूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।।19
आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देव स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।।20
आपकी प्रभा तपाये हुए स्वर्ण के समान है, आप हरि (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं, तम के नाशक, प्रकाश स्वरूप और जगत् के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है।।21
रघुनन्दन ! ये भगवान् सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुँचाते और वर्षा करते हैं।।22
ये सब भूतों में अन्तर्यामी रूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जगाते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरूषों को मिलने वाले फल हैं।।23
देवता (यज्ञ में भाग ग्रहण वाले), यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। सम्पूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।।24
राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा किसी भी भय के अवसर पर जो कोई पुरूष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।।25
इसलिये तुम एकाग्रचित्त होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो। इस “आदित्यहृदय´´ का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे।।26
`महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे।´ यह कहकर अगस्त्यजी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये।।27
उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्ध वित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान् सूर्य को देखते हुए इसका तीन बार जप किया। इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साह पूर्वक विजय पाने के लिये आगे बढ़े। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण का वध का निश्चय किया।।28-30
उस समय देवताओं के मध्य में खड़े भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा – रघुनन्दन ! अब शीघ्रता करो।।31
।। आदित्य हृदय स्तोत्रम् ।।
जब भगवान् राम रावण के साथ युद्ध करते-करते क्लान्त हो गए, तब तान्त्रिक अस्त्र-शस्त्रों के आविष्कारक ऋषि अगस्त्य ने आकर भगवान् राम से कहा कि ‘३ बार जल का आचमन कर, इस ‘आदित्य-हृदय’ का तीन बार पाठ कर रावण का वध करो ।’ राम ने इसी प्रकार किया, जिससे उनकी क्लान्ति मिट गई और नए उत्साह का सञ्चार हुआ । भीषण युद्ध में रावण मारा गया ।
रविवार को जब संक्रान्ति हो, उस दिन सूर्य-मन्दिर में, नव-ग्रह मन्दिर में अथवा अपने घर में सूर्य देवता के समक्ष इस स्तोत्र का ३ बार पाठ करें । न्यास, विनियोगादि संक्रान्ति के ५ मिनट पूर्व प्रारम्भ कर दें । प्रयोग के दिन बिना नमक का भोजन करें ।
‘कृत्य-कल्पतरु’ के अनुसार १०८ बार इसका पाठ करना चाहिए । जो लोग केवल तीन ही पाठ करें, वे १०८ बार ‘गायत्री-मन्त्र’ का जप अवश्य करें ।
विनियोगः- ॐ अस्य आदित्य-हृदय-स्तोत्रस्य-श्रीअगस्त्य ऋर्षिनुष्टुप्छन्दः आदित्य-हृदयभूतो भगवान श्रीब्रह्मा देवता, ॐ बीजं, रश्मि-मते शक्तिः, अभीष्ट-सिद्धयर्थे पाठे विनियोगः (वा)निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जय सिद्धौ च विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः- अगस्त्य ऋषये नमः शिरसि। अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे। ॐ आदित्य-हृदय-भूत-श्रीब्रह्मा देवतायै नमः हृदि। ॐ बीजाय नमः गुह्ये। ॐ रश्मिमते शक्तये नमः पादयोः। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो नः प्रचोदयात् कीलकाय नमः नाभौ।
इस स्तोत्र के अंगन्यास और करन्यास तीन प्रकार से किये जाते हैं। केवल प्रणव से, गायत्री मन्त्र से अथवा `रश्मिमते नमः´ इत्यादि छः नाम मन्त्रों से। यहाँ नाम मन्त्रों से किये जाने वाले न्यास का प्रकार बतलाया गया है।
कर-न्यासः- ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः। ॐ देवासुर-नमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नमः। ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादि-न्यासः- ॐ रश्मिमते हृदयायं नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुर-नमस्कृताय शिखायै वषट्। ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।
इस प्रकार न्यास करके निम्न गायत्री मन्त्र से भगवान् सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिये – “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।´´ तत्पश्चात् आदित्यहृदय का पाठ करना चाहिये -
।। पूर्व-पीठिका ।।
ततो युद्ध-परिश्रान्तं, समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा, युद्धाय समुपस्थितम् ।।1।।
दैवतैश्च समागम्य, द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।
उपगम्याब्रवीद् रामगस्त्यो भगवांस्तदा ।।2।।
राम राम महाबहो ! श्रृणु गुह्यं सनातनम् ।
येन सर्वानरीन् वत्स ! समरे विजयिष्यसे ।।3
आदित्य-हृदयं पुण्यं, सर्व-शत्रु-विनाशनम् ।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ।।4
सर्व-मंगल-मांगल्यं, सर्व-पाप-प्रणाशनम् ।
चिन्ता-शोक-प्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ।।5
।। मूल-स्तोत्र ।।
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं, देवासुरनमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्तं, भास्करं भुवनेश्वरम् ।।6
सर्व-देवात्मको ह्येष, तेजस्वी रश्मि-भावनः ।
एष देवासुर-गणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ।।7
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च, शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो, यमः सोमो ह्यपाम्पतिः ।।8
पितरो वसवः साध्या, अश्विनो मरूतो मनुः ।
वायुर्वह्निः प्रजाः प्राण, ऋतु-कर्ता प्रभाकरः ।।9
आदित्यः सविता सूर्यः, खगः पूषा गभस्तिमान् ।
सुवर्ण-सदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः ।।10
हरिदश्वः सहस्त्रार्चिः, सप्त-सप्तिर्मरीचि-मान् ।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशु-मान् ।।11
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहस्करो रविः ।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः, शंखः शिशिर-नाशनः ।।12
व्योम-नाथस्तमो-भेदी, ऋग्यजुः साम-पारगः ।
घन-वृष्टिरपां मित्रो, विन्ध्य-वीथी-प्लवंगमः ।।13
आतपी मण्डली मृत्युः, पिंगलः सर्वतापनः ।
कविर्विश्वो महातेजा, रक्तः सर्वभवोद्भवः ।।14
नक्षत्र-ग्रह-ताराणामधिपो विश्व-भावनः ।
तेजसामपि तेजस्वी, द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ।।15
नमः पूर्वाय गिरये, पश्चिमायाद्रये नमः ।
ज्योतिर्गणानां पतये, दिनाधिपतये नमः ।।16
जयाय जय-भद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।
नमो नमः सहस्त्रांशो, आदित्याय नमो नमः ।।17
नमः उग्राय वीराय, सारगांय नमो नमः ।
नमः पद्म-प्रबोधाय प्रचण्डाय, नमोऽस्तु ते ।।18
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय, सूरायादित्य-वर्चसे ।
भास्वते सर्व-भक्षाय, रौद्राय वपुषे नमः ।।19
तमोघ्नाय हिमघ्नाय, शत्रुघ्नायामितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय, ज्योतिषां पतये नमः ।।20
तप्त-चामीकराभाय, हरये विश्व-कर्मणे ।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय, रूचये लोकसाक्षिणे ।।21
नाशयत्येष वै भूतं, तमेव सृजति प्रभुः ।
पायत्येष तपत्येष, वर्षत्येष गभस्तिभिः ।।22
एष सुप्तेषु जागर्ति, भूतेषु परि-निष्ठितः ।
एष चैवाग्नि-होत्रं च, फलं चैवाग्नि-होतृणाम् ।।23
देवाश्च क्रतवश्चैव, क्रतूनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु, सर्वेषु परम-प्रभुः ।।24
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु, कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरूषः कश्चिन्नावसीदति राघवः ! ।।25
पूजयस्वैनमेकाग्रों, देव-देवं जगत्पतिम् ।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा, युद्धेषु विजयिष्यसि ।।26
अस्मिन् क्षणे महाबाहो, रावणं त्वं जहिष्यसि ।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो, जगाम स यथाऽऽगतम् ।।27
एतच्छ्रुत्वा महा-तेजा, नष्ट-शोकोऽभवत् तदा ।
धारयामास सु-प्रीतो, राघवः प्रयतात्मवान् ।।28
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं, परं हर्षमवाप्त-वान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा, धनुरादाय वीर्य-वान् ।।29
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा, जयार्थं समुपागमत् ।
सर्व-यत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ।।30
अथ रविरवदिन्नरीक्ष्य रामं मुदित-मनाः परमं प्रहृष्य-माणः ।
निशिचरपति-संक्षयं विदित्वा, सुर-गण-मध्य-गतो वचस्त्वरेति।।31
।।इति वाल्मीकीयरामयणे युद्धकाण्डे, अगस्त्यप्रोक्तमादित्यहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णं।।
श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिये उनके सामने उपस्थित हो गया।।1।।
यह देख भगवान् अगस्त्य मुनि, जो युद्ध देखने के लिये देवताओं के साथ आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले।।2।।
सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो। वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे।।3
यह गोपनीय स्तोत्र “आदित्यहृदय´´ परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय प्राप्त होती है। यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है।।4
सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।।5
भगवान् सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित (रश्मिवान्) हैं। ये नित्य उदय होने वाले (समुद्यन), देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी हैं। तुम इनका (रश्मिमते नमः, समुद्यते नमः, देवासुरनमस्कृताय नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः- इन छः नाम मन्त्रों के द्वारा) पूजन करो।।6
सम्पूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं। ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत् को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं।।7
ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओ को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं।।8-9
इन्हीं के नाम – आदित्य (अदितिपुत्र), सविता (जगत् को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग (आकाश में विचरनेवाले), पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान (प्रकाशमान्), स्वर्णसदृश, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड का उत्पत्ति के बीज), दिवाकर (दिन का प्रकाश फैलाने वाले)।।10
हरिदश्व (दिशाओं में व्यापक या हरे रंग के घोड़ों वाले), सहस्त्रार्चि (हजारों किरणों से सुशोभित), सप्तसप्ति (सात घोड़ों वाले), मरीचमान् (किरणों से सुशोभित), तिमिरोन्मथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भु (कल्याण के उद्गम स्थल), त्वष्टा (भक्तो का दुःख दूर करने वाले या जगत् का संहार करने वाले), मार्तण्डक (ब्रह्माण्ड को जीवन प्रदान करने वाले), अंशुमान् (किरण धारण करने वाले)।।11
हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करने वाले), अहस्कर (दिनकर), रवि (सबके स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख (आनन्द रूप एवं व्यापक), शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले)।।12
व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी (अन्धकार का भेदन करने वाले), ऋक्, यजुःऔर समवेद के पारगामी, घनवृष्टि (घनी वृष्टि के कारण), अपां मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विन्ध्यवीथीप्लवंगम (आकाश में तीव्र गति से चलने वाल।।13
आतपी (घाम उत्पन्न करने वाले), मण्डली (किरण समूह को धारण करने वाले), मृत्यु, पिंगल, सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि, विश्व, महातेजस्वी, रक्त, सर्वभवोद्भव (सबकी उत्पत्ति के कारण)।।14
नक्षत्रताराग्रहों के स्वामी, विश्वभावन (जगत् की रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी तथा द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) आपको नमस्कार हैं।।15
पूर्वगिरि -उदयाचल तथा पश्चिमगिरि – अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है।।16
आप जयस्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता हैं। आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। आपको बारम्बार नमस्कार है। सहस्त्रों किरणों से सुशोभित भगवान् सूर्य ! आपको बारम्बार नमस्कार है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध हैं, आपको नमस्कार है।।17
उग्र (अभक्तों के लिये भयंकर), वीर और सारंग (शीघ्रगामी) सूर्यदेव को नमस्कार है। कमलों को विकसित करने वाले प्रचण्ड तेजधारी मार्तण्ड को प्रणाम है।।18
ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी (परात्पर रूप में) हैं। सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाली अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्र रूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।।19
आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देव स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।।20
आपकी प्रभा तपाये हुए स्वर्ण के समान है, आप हरि (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं, तम के नाशक, प्रकाश स्वरूप और जगत् के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है।।21
रघुनन्दन ! ये भगवान् सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुँचाते और वर्षा करते हैं।।22
ये सब भूतों में अन्तर्यामी रूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जगाते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरूषों को मिलने वाले फल हैं।।23
देवता (यज्ञ में भाग ग्रहण वाले), यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। सम्पूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।।24
राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा किसी भी भय के अवसर पर जो कोई पुरूष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।।25
इसलिये तुम एकाग्रचित्त होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो। इस “आदित्यहृदय´´ का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे।।26
`महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे।´ यह कहकर अगस्त्यजी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये।।27
उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्ध वित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान् सूर्य को देखते हुए इसका तीन बार जप किया। इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साह पूर्वक विजय पाने के लिये आगे बढ़े। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण का वध का निश्चय किया।।28-30
उस समय देवताओं के मध्य में खड़े भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा – रघुनन्दन ! अब शीघ्रता करो।।31
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