ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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रविवार, 24 सितंबर 2017

एकात्म मानववाद के पिरणेता

एकात्म मानववाद संपूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में देखने की अवधारणा को मूर्त रूप देता है !वह केवल भारत के लिए ही नहीं मानव मात्र के कल्याण के लिए समर्पित है।
‘एकात्म मानववाद’ के प्रणेता  पण्डित दीनदयाल उपाध्याय, महान चिंतक, श्रेष्ठ संगठक और आदर्श राजनेता तो थे ही उन्होने संपूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में देखने की अवधारणा को मूर्त रूप दिया। वे भारत की आशा के केंद्र तत्कालीन विपक्षी दल “भारतीय जनसंघ” के अखिल भारतीय संगठन मंत्री और बाद में राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। उन्होने अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी समझते हुये तत्कालीन राजनीति को दिशा देने  के लिए एक ऐसा सिद्धांत दिया जिसको भारत की जनता का उस समय पूर्ण समर्थन मिलता तो भारत अत्यंत अल्पकाल में ही अन्य देशों की तरह श्रेष्ठ और सबल हो गया होता। इस विचार को उन्होने “एकात्म मानव वाद “ की संज्ञा दी है। दीनदयाल जी के द्वारा प्रतिपादित ‘एकात्म मानव वाद’  केवल भारत के लिए ही नहीं मानव मात्र के कल्याण के लिए समर्पित है। उसे ‘विश्व दर्शन’ भी कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा। अतीत में भारत ने इन्हीं विचारों के आधार पर ‘विश्वगुरु’ का सम्मान पाया था। भारत की  मूल और प्राचीन भूमिका का निर्वाहन करके आज भी ‘व्यक्ति कल्याण से विश्व कल्याण’ की उद्दात भावना को साकार किया जा सकता है।  संयोग से भारत की इस सनातन विचारधारा को अब वैश्विक स्तर पर भी  ‘वननेस’ के सिद्धांत के रूप में मान्य की जाने लगी है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जिन्हें हम निसंदेह रूपसे विकास की इस भारतीय की अवधारणा का प्रवर्तक कह सकते हैं । विकास की यह अवधारणा शेष दुनिया के लिए नई अवश्य हो सकती है पर भारत के लिए प्राचीन किन्तु नित्यनूतन,  सहज और सरल है। हमारे यहाँ सुदूर जंगलों में एकांतिक जीवन व्यतीत कर रहा जनजाति के लोग और हम उन्हें ‘निपट गंवार’ असभ्य आदि पता नहीं क्या क्या संबोधन देते हैं,  वे भी अनंत काल से इन विचारों के अनुरूप जीवन जीते आ रहे हैं और सच्चे अर्थों में वही सुखी और सार्थक जीवन जी रहा होता है। व्यावहारिक दृष्टि से यही जीवन दृष्टि हमें हमारे तमाम संकटों से मुक्ति दिला सकती है। पश्चिमी की विकास की अवधारणा जहाँ यह मानती है कि व्यक्ति का प्रादुर्भाव शनैः शनैः हुआ वहीं भारतीय दृष्टि उसे पतनोन्मुखी मानती है। इसको छोड़ भी दें तो  इतना तो सब मानते हैं कि मानव जीवन के समस्त क्रियाकलापों का उद्देश्य सुख की प्राप्ति है और मानव के समस्त  क्रियाकलापों  का केन्द्र्विंदु ‘मन की शांति ‘ ही है और वही वास्तव में विकास का रास्ता है। पश्चिम का अंधानुकरण कर हमारे देश के नीति निर्धारक भी यह मानने लगे हैं कि उपभोग के साधनों की ज्यादा से ज्यादा उपलब्धि ही ‘सुख’ है और वही विकास का  पर्याय है जो सही नहीं है । पंडित दीनदयाल उपाध्याय उपभोग या सुख को विकास का पर्याय नहीं मानते थे।  वे इसके लिए एक अत्यंत सुंदर उदाहरण दिया करते थे। उनका कहना था कि व्यक्ति को गुलाब जामुन खाना अच्छा लगता है।  गुलाब जामुन उसके सुख का कारण है और मान लीजिये जिस समय व्यक्ति गुलाब जामुन खा रहा हो, उसी समय उसे अपने किसी परिजन के देहांत की सूचना मिल  जाए, तब भी क्या उसे वह गुलाब जामुन उतना ही अच्छा लगेगा ? व्यक्ति तो वही है और उसके हाथ में वही स्वादिष्ट गुलाब जामुन है  फिर भी उसे वह गुलाब जामुन अच्छा नहीं लगेगा। न उसे खाने से उसे उतना सुख मिलेगा ।  यदि गुलाब जामुन में ही सुख है तो फिर उस समय भी व्यक्ति को सुख प्राप्त होना चाहिए था, किन्तु ऐसा होता नहीं है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि मन की स्थिति ही सुख की अवधारक है। मन पर नियंत्रण ही वास्तविक विकास है. वे  स्पष्ट रूप से कहते थे कि उपभोग के विकास का रास्ता राक्षसत्व की ओर जाता है और मन को नियंत्रित करने का विकास का रास्ता देवत्व की ओर जाता है।  पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस देवत्व के रास्ते का अनुसंधान कर रहे थे । यह ठीक है कि यह नया रास्ता नहीं था. भारतीय साधु संत तथा सामान्य जन हजारों-हजारों वर्षों से इसकी साधना कर रहे थे।  मनुष्य की जितनी भौतिक आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति का महत्व को भारतीय चिंतन ने स्वीकार किया है।  परंतु उसे सर्वस्व नहीं माना है।  मनुष्य के शरीर, मन, बुध्दि और आत्मा की आवश्यकता की पूर्ति के लिए और उसकी इच्छाओं व कामनाओं की संतुष्टि के साथ उसके सर्वांगीण विकास के लिए भारतीय संस्कृति में ‘पुरुषार्थ चतुष्टय’ की अवधारणा को  पंडित दीनदयाल उपाध्याय आज के युग में भारत के समग्र विकास का मूल आधार मानते थे। वे कहते हैं - धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष में संतुलन ही ‘पुरुषार्थ चतुष्टय’ है ।
मनुष्य की भौतिक आवश्यकता की पूर्ति को पश्चिम की दृष्टि में ‘सुख’ माना गया है।  पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार अर्थ और काम पर धर्म का नियंत्रण रखना आवश्यक है और धर्म के नियंत्रण से ही ‘मोक्ष पुरुषार्थ’  प्राप्त हो सकता है. यद्यपि भारतीय संस्कृति में मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है. तथापि अकेले उसके लिए प्रयत्न करने से मनुष्य का कल्याण नहीं होता। वास्तव में तो अन्य पुरुषार्थों की अवहेलना करने वाला कभी मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता।
अन्य तीन 3 पुरुषार्थ भी एक दूसरे के पूरक व पोषक हैं।  यदि व्यापार भी करना है तो मनुष्य को सदाचरण, संयम, त्याग, तपस्या, सत्य, धृति,क्षमा, आदि धर्म के विभिन्न लक्षणों का निर्वाह करना पडेगा।  बिना इन गुणों के पैसा कमाया नहीं जा सकता। किसी प्रकार कमा भी लिया तो उससे सच्चा सुख प्राप्त नहीं किया जा सकता। व्यक्तिगत ‘सुख’ प्राप्त कर भी लिया तो सामाजिक ‘सुख’ प्राप्त नहीं किया जा सकता । सिध्दांतः धर्म ,अर्थ और काम का पुरुषार्थ ही राज्य का आधार है। राज्य  एक अकेली दंडनीति राज्य को ठीक ढंग से संचालित नहीं कर सकती।
पंडित दीनदयाल जी के अनुसार धर्म महत्वपूर्ण है परंतु वे कहते हैं कि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं पाएगा। वे इसके लिए एक सुभाषित का प्रयोग किया करते थे -  “बुभुक्षित: किं न करोति पापं, क्षीणा जना: निष्करुणा: भवन्ति. अर्थात भूखा सब पाप कर सकता है. ऐसा कहते हैं कि विश्वामित्र जैसे ऋषि ने भी भूख से पीडित हो कर शरीर धारण करने के लिए चांडाल के घर में चोरी कर के कुत्ते का जूठा मांस खा लिया था. हमारे यहां आदेश में कहा गया है कि अर्थ का अभाव नहीं होना चाहिए क्योंकि वह धर्म का द्योतक है. इसी तरह दंडनीति का अभाव अर्थात अराजकता भी धर्म के लिए हानिकारक है .

पंडित दीनदयाल उपाध्याय कहा करते थे “ अर्थ का ‘अभाव और प्रभाव’  दोनों बुरे होते हैं । व्यक्ति और समाज में अर्थ साधन न होकर साध्य बन जाएं तब अर्थ संचय के लिए व्यक्ति नानाविध पाप करता है।  इसी प्रकार जिस व्यक्ति के पास अधिक धन हो तो उसके विलासी बन जाने की अधिक संभावना है । वहीं धनाभाव  में भी व्यक्ति कोई भी अपकर्म करने को उद्यत हो जाता है। पश्चिम में व्यक्ति के जीवन को टुकडे-टुकडे में विचार किया जाता है वहीं भारतीय चिंतन में व्यक्ति के जीवन की पूर्णता शरीर, मन बुध्दि और आत्मा सभी का विकास में मानीं गई है। व्यक्ति अपनी  भूख मिटाने के लिए दूसरे की भूख की चिंता न करे ,यह तो धर्म नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पश्चिम के विकास की  खंडित अवधारणा के विपरीत ‘एकात्म मानववाद’ की अवधारणा पर जोर दिया । 
अब यह तो पश्चिम ने भी मान लिया है कि ऋग्वेद संसार का प्राचीनत्तम ग्रंथ है और जब यह निर्विवादित हो जाता है तब अनेक प्रकार की दुबिधाएं स्वमेव ही समाप्त हो जातीं हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि भारतीय सभ्यता संसार की प्रचीनत्तम सभ्यता है। क्योंकि ऋग्वेद में प्रतिपादित विचार किसी बिखरे या अविकसित समाज के नहीं बल्कि उन्नत समाज की देन हैं। वेद की ऋचायेँ एक स्थान पर नहीं अनेक बार व्यक्ति और समष्टि में ‘ एकरूपता , परस्पर पूरकता और परस्पर निर्भरता ’ के सिद्धांत को प्रतिपादित करतीं हैं। वे विश्व को एक परिवार मानतीं हैं और व्यक्तियों के कल्याण के लिए ही नहीं प्राणिमात्र की भलाई का चिंतन करतीं हैं। और प्राणिमात्र का ही क्यों स्थिर,जंगम और प्रकृति तक की चिंतायेँ सहस्त्रों वर्ष पूर्व उसके ‘रेडार’ में आ चुकी थीं ।
आधुनिक विज्ञान के जनक माने जानेवाले वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन  कहते हैं कि जब हम अपने शरीर की अनर्निहित संरचना को देखते हैं तो पाते हैं कि करोड़ों – अरबों जीबाणुओं को समेटे यह शरीर विभिन्न प्रकार के ( असंगत )  कार्यों को एक साथ सम्पन्न करता हुआ भी सुसंगत और परस्पर पूरक है। उसका अस्तित्व भी परस्पर एक दूसरे पर निर्भर है। आइंस्टीन  महोदय फिर कहते हैं कि हमारा बाह्य जगत भी इतना विशाल है  कि समुन्द्र के रेत के कणों को तो गिना जा सकता है परन्तु ब्रम्हान्डो, आकाश गंगाओं, गृहों  और सूर्य –चंद्रों को गिनना असंभव है। फिर भी उनमें ‘एकरूपता , परस्पर पूरकता और परस्पर निर्भरता’ सन्निहित है। भारत में इस सत्य को एक छोटे से संस्कृत के वाक्य खण्ड अनूदित हो जाता है – “ यथा पिंडे- तथा ब्रह्मांडे’ । अब इसी सिद्धांत को अमरीका में कोलिफोर्निया विश्वविद्यालय के भौतिक वैज्ञानिक और फ्रिट्ज़ ऑफ काबरा के नेतृत्व में कार्यरत  ‘सेंटर फॉर इकोलिट्रेसी’ के वैज्ञानिक कई वर्षों यह  सिद्ध करने में व्यस्त हैं।
इससे पूर्व पश्चिम के वैज्ञानिक और डार्बिन जैसे समाजशास्त्री व्यक्ति को बंदर का विकसित और परिबर्द्धित रूप मानते रहे हैं। डार्बिन के इस ‘विकासवाद के सिद्धांत’  को अब पश्चिम के वैज्ञानिकों ने भी एक तरह से  नकार दिया है । वहीं संसार का प्रचीनत्तम ग्रंथ ऋग्वेद कहता है - 'सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल ‘वह’  था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से साँस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।'
जिन सिद्धांतों को भारत का वैज्ञानिक , हमारे  ऋषि , हमारे अध्येता अपने अनुभव और शोध से बहुत पहले प्रतिपादित कर चुके थे उस ‘वह’ का साक्षात्कार और उसकी अनुभूति अब हम अब सहज और सरल रूप से कर रहे हैं। विज्ञान की विकसित अवस्था ने आज विश्व को एक विशाल परिवार के रूपमें परिवर्तित कर दिया है। सूचना प्राद्योगिकी ने जहाँ विश्व को एक ‘कॉटेज’ बना दिया है वहीं हम अनुभूति कर सकते हैं कि प्रकृतिक रूप से भी यह धरती एक साथ ‘धडक’ रही है। हम देखते हैं कि अणुबमों का कचरा अरब सागर में डाला जाता है और मछलियाँ हिन्द महासागर की मर जातीं हैं । पृथ्वी के एक सिरे की ग्लेशियर पिघलती है और सुदूर समुन्द्र उफनने लगता है।संसार में कहीं भी प्रकृति के साथ अन्याय होता है तो दूसरे छोर पर ‘सुनामी’ या ‘कैटरीना’ दण्ड देने की न्यायिक प्रक्रिया शुरू कर देती है।
फ्रिट्ज़ ऑफ काबरा के नेतृत्व में वर्क्ले ( कोलफोर्निया ) स्थिति ‘सेंटर फॉर इकोलिट्रेसी’ ने  ‘मन’ के सामर्थ्य का भी गंभीरता से अध्ययन किया है। वैज्ञानिकों ने स्टील के एक विशालकाय भारी बीम को ‘मन की शक्ति’ से हिला दिया है। यह ‘मन’ के आदेश  से हवाई जहाज चलाने के सामर्थ्य की प्रारम्भिक अवस्था भी बन सकता है जो  हमारे यहाँ के  परिचालक रहित पुष्पक विमान की संकल्पना को साकार करता है। इस विचार के मूल में ‘मैं’ का विस्तारित दर्शन है जिसे  ‘ब्रम्ह’ कहा जाता है जो पिण्ड से ब्रह्मांड तक की संरचना का कारक है। जिसे हम  ‘जीव’ ही ‘जगत’ की रचना का कारण मन सकते हैं ।  यदि सरल शब्दों में ‘एकात्म मानववाद’ को समझना  हो तो ‘आत्मबत सर्ब भूतेषु‘ ही ‘एकात्मकता’ और उसकी मानवीय दृष्टिकोण से अनुभूति ही ‘मानववाद’ है।
संसार में आजतक जितने भी राजनीतिक ‘वाद’ प्रणाली या सिद्धांत उपलब्ध है ,या जिन पर प्रयोग हो चुके हैं और जिनके आधार पर आमजन को सुखी और समृद्ध देखने की कल्पना की गई है और जिसमें ‘राज्य’ नाम की संस्था की प्रमुख भूमिका सन्निहित है । आज वे सब ‘वाद’ लगभग अपनी उपयोगिता खो चुके है। उन सबकी उत्पति का कारण ही जब प्रतिवाद था इसलिए वे मौलिक न होकर प्रतिक्रिया के पर्याय थे इसलिए उन सब से मानव कल्याण संभव नहीं है। वह फिर चाहें व्यक्तिवाद हो या पूंजीवाद ,  साम्यवाद हो या समाजवाद , वाम कहें  या दक्षिण  प्रायोगिक धरातल पर सर्वथा निर्दोष साबित नहीं हुये हैं। परिणामस्वरूप आज  सारा विश्व भटकाव और निराशा के गर्त में ढूब रहा है । ज्ञान के विस्फोट और विज्ञान के असीमित  विस्तार का वांछित लाभ भी ‘मनुष्य’ को नहीं मिल पा रहा है। वहीं पं. दीनदयाल उपाध्याय के द्वारा प्रतिपादित  “ एकात्म मानव वाद ” सर्वथा दोष रहित भारतीय भावधारा और चिंतन के अनुकूल है। भारत इन्ही विचारों के आधार पर अनंत काल तक विश्व का ‘आदर्श और पूज्य’ रहा है। होना तो यही चाहिए था कि भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपनी नीतियाँ को इन्हीं विचारों के अनुरूप बनाईं जानी चाहिए थीं। स्वयं महात्मा गांधी ‘भारतीय परंपराओं’ के अनुरूप देश को ले जाना चाहते थे परंतु विडम्बना यह है कि आज अधिकांश राजनीतिक दल, भारतीय होते हुए भी इस राष्ट्र की मूल सभ्यता के प्रवाह से न केवल कट गए हैं बल्कि अपने तात्कालिक राजनीतिक उद्देश्य के लिए भारतीय जनमानस के संस्कृतिक प्रवाह पर आघात करने से संकोच नहीं करते। यह भी उतना ही सही है कि कोई भी राजनीतिक विचारधारा या ‘वाद’ बिना प्रत्यक्ष प्रयोग के मान्यता प्राप्त नहीं कर सकता,  इसलिए भारत सरकार को चाहिए कि वह अपनी ‘नीति’’ एकात्म मानववाद के अनुरूप बनाए और इस विषय पर खुले मन से देशभर में संवाद की प्रक्रिया शुरू कराए । भारतीय विश्वविद्यालयों के शोधों के  विषय बनाए जाने चाहिए। इस ‘एकात्म मानव वाद’ को भारतीय राजनीति की मार्गदर्शिका बनाने के लिए उसके अनुकूल राजनीतिक वातावरण बनाया जाना भी अभीष्ट होगा।
पंडित जी ने संघ की अनेक पत्र पत्रिकाओं का काफी लम्बे समय तक संपादन किया था , जिनमें स्वदेश और पाञ्चजन्य प्रमुख हैं। उन्होने अपनी संपादकियों में, आलेखों और पुस्तकों में ‘एकात्म मानववाद’ का प्रतिपादन किया है उनकी विख्यात पुस्तक “राष्ट्रजीवन की दिशा और दशा” भी उन्होने इन्हीं विचारों की व्याख्या है। वे इन्हीं विचारों को सामान्य भारतीयों और अपने कार्यकर्ताओं के व्यवहार में देखना चाहते थे ।उनका स्वयं का जीवन भी आदर्श और अनुकरणीय था।  दीनदयाल जी ने आम भारतीय चिंतन को “ राष्ट्रीय चिति ” की संज्ञा दी है। उनका मानना था कि इसी ‘चिति’ के आधार पर हमारी समस्त योजनायें और कार्यक्रम बनाए जाने चाहिए। पंडित जी एक ऐसे महान कर्मयोगी थे कि जिन्होने अपना पूरा जीवन ही उस पवित्र लक्ष्य  के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने बहुत कम समय में ही ‘सम्राट चन्द्रगुप्त’ जैसे आदर्श चरित्र पर पुस्तक लिखकर भारतीय इतिहास के एक सांस्कृतिक निष्ठा वाले राज्य का चित्रण किया था और वे चाणक्य की भूमिका को अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं का आदर्श बनाना चाहते थे।  निश्चित रूप से वे  ‘शब्द और कृति’  की एकात्मकता के सर्जक थे। उन्होने ,  अपनी छोटी सी पुस्तिका - “ भारतीय जनसंघ : नीति और सिद्धांत ”  जिसका  इस विचारधारा के अनुरूप कार्य करनेवाले लोगों के लिए ‘गीता’ जैसा महत्व होना चाहिए , के उपसंहार “हमारा आराध्य ” में लिखा हैं –“ आर्थिक योजनाओं और आर्थिक प्रगति का माप समाज में ऊपर की ‘सीढी’ पर पहुँचे हुये व्यक्ति नहीं बल्कि नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा। आज देश में करोड़ों मानव हैं जो मानव के किसी भी अधिकार का उपभोग नहीं कर पाते। शासन के नियम और व्यवस्थाएं ,योजनायें और नीतियाँ ,प्रशासन का व्यवहार और भावना इनको अपनी परिधि में लेकर नहीं चलतीं ,प्रत्युत उन्हें मार्ग का रोड़ा ही समझा जाता है। हमारी भावना और सिद्धांत है कि वह मैले- कुचेले,  अनपढ़, मूर्ख लोग हमारे ‘नारायण’ हैं। हमें इनकी पूजा करनी है । यह हमारा सामाजिक एवं मानव धर्म है। जिस दिन हम इनको पक्के ,सुंदर सभ्य घर बनाकर देंगे ,जिस दिन हम इनके बच्चों और स्त्रियों को शिक्षा और जीवन दर्शन का ज्ञान देंगे ,जिस दिन हम इनके हाथ और पाँव की बिवाइयों को भरेंगे और जिस दिन इनको उद्योग और धंधों की शिक्षा देकर इनकी आय को ऊँचा उठा देंगे ,उसी दिन तो हमारा भ्रातृभाव व्यक्त होगा। ग्रामों में जहाँ समय अचल खड़ा है ,जहाँ माता और पिता अपने बच्चों के भविष्य को बनाने में असमर्थ हैं ,वहाँ जबतक हम आशा और पुरुषार्थ का संदेश नहीं पहुँचा पायेंगे तब तक राष्ट्र के  चैतन्य को जाग्रत नहीं कर सकेंगे । हमारी श्रद्धा का केंद्र ,आराध्य और उपास्य , हमारे पराक्रम और प्रयत्न का उपकरण तथा उपलब्धियों का मानदण्ड वह मानव होगा जो आज शब्दशः अनिकेत और अपरिग्रही है । जब हम उस मानव को ‘पुरुषार्थ चतुष्टयशील बनाकर समुत्कर्ष का स्वामी और विद्या- विनय सम्पन्न करके आध्यात्मिकता के साक्षात्कार से राष्ट्र और विश्व-सेवापारायण अनिकेतन और अपरिग्रही बना सकेंगे तभी हमारा ‘एकात्म मानव’ साकार हो सकेगा।”

http://ptvinodchoubey.blogspot.in/2017/09/blog-post_20.html?m=1

-भुवन सिंह कुशवाह

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