पितृ दोष एक ऐसा दोष है जो आज के युग में हर तीसरी कुंडली में पाया जा रहा है।लोग कई इसके निवारण के लिए नासिक, गया, ब्रह्मकपाली या हरिद्वार जाते है और वहां पिण्डदान, श्राद्ध एवं तर्पण करवाते है। पर उसके बाद भी परिस्थियां अनुकूल नही हो पाती हैं ! मैंने इस विषय पर कईयों आलेख देश के कई प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं एवं 'गुगल महाराज' के माध्यम से लगातार १५ या १६ वर्षों से प्रस्तुत करता आ रहा हुं ! मैं आपको सुनिश्चित कर दूं कि 'पितृशापित या मातृशापित कुण्डली व्यक्ति को मानसिक व्यग्र बनाकर गलत संगति या गलत कार्यों एवं गलत निर्णयों से बार-बार हानि पहुंचाता है, इससे ना केवल सामाजिक पतन होता है बल्कि जन तथा धनहानि भी बड़े स्तर का करता है ! यह पितृदोष व्यक्ति के हर उन सपनों पर बट्टा लगा देता है, जो वह रात की अधेरे को चीर कर बंद आंखों के उजाले में देखा रहता है! यहां तक की पिछली सात पीढियों के अनुवांशिकिय असाध्य रोगों को भी यही पितृदोष ही बढ़ावा देता है, जैसे शुगर, बीपी आदि बिमारियां ! अब हम इसके जड़ मे आपको लेकर चलता हुं आखिर इसका कारण क्या है ? और ऐसे दोष से बचने का उपाय क्या है ? कारण है छाया ग्रह राहु, जो कुण्डली में चंद्र और सूर्य ग्र से युती ! अर्थात् राहु राक्षस कुल का ग्रह है , यदि यह जातक को, व्यक्ति अपने आगोश में लेता है तो व्यक्ति आसुरि प्रवृत्तियों में आकर अपने माता-पिता का अपमान/ पीड़ित करना आरंभ कर देता है, और साजिश़ के तहत अपने माता-पिता को अनाथाश्रम में भेज देते हैं ऐसे पुत्र ही पितृशापित दोष के कुप्रभाव में आते हैं ! और जिनकी कुण्डली में ऐसा योग है और अपने माता-पिता का सेवा सुश्रुसा भलिभांति करता है उस व्यक्ति को यह पितृशापित दोष कुछ नहीं बिगाड़ पाता !
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जन्मकुण्डली में यदि चंद्र पर राहु केतु या शनि का प्रभाव होता है तो जातक मातृ ऋण से पीड़ित होता है। चन्द्रमा मन का प्रतिनिधि ग्रह है अतः ऐसे जातक को निरन्तर मानसिक अशांति से भी पीड़ित होना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति को मातृ ऋण से मुक्ति के प्श्चात ही जीवन में शांति मिलनी संभव होती है।
पितृ ऋण के कारण व्यक्ति को मान प्रतिष्ठा के अभाव से पीड़ित होने के साथ-साथ संतान की ओर से कष्ट संतानाभाव संतान का स्वास्यि खराब होने या संतान का सदैव बुरी संगति जैसी स्थितियों में रहना पड़ता है। यदि संतान अपंग मानसिक रूप से विक्षिप्त या पीड़ित है तो व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन उसी पर केन्द्रित हो जाता है। जन्म पत्री में यदि सूर्य पर शनि राहु-केतु की दृष्टि या युति द्वारा प्रभाव हो तो जातक की कुंडली में पितृ ऋण की स्थिति मानी जाती है। यथा-
कर्मलोपे पितृणां च प्रेतत्वं तस्य जायते।
तस्य प्रेतस्य शापाच्च पुत्राभारः प्रजायते।।
अर्थात कर्मलोप के कारण जो पुर्वज मृत्यु के प्श्चात प्रेत योनि में चले जाते है, उनके शाप के कारण पुत्र संतान नही होती। अर्थात प्रेत योनि में गए पितर को अनेकानेक कष्टो का सामना करनापडता है। इसलिये उनकी मुक्ति हेतु यदि श्राद्ध कर्म न किया जाए तो उसका वायवीय शरीर हमे नुकसान पहुंचाता रहता है। जब उसकी मुक्ति हेतु श्राद्ध कर्म किया जाता है, तब उसे मुक्ति प्राप्त होने से हमारी उनेक समस्याएं स्वतः ही समाप्त हो जाती है।
परिवार में किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत परिवारजनों द्वारा जब उसकी इच्छाओं एवं उसके द्वाराछुटे अधुरे कार्यों को परिवारजनों द्वारा पुरा नही किया जाता। तब उसकी आत्मा वही भटकती रहती है एवं उन कार्यो को पुरा करवाने के लिए परिवारजनों पर दबाव डालती है। इसी कारणपरिवार में शुभ कार्यो में कमी एवं अशुभता बढती जाती है। इन अशुभताओं का कारण पितृदोष माना गया है। इसके निवारण के लिए श्राद्धपक्ष में पितर शांति एवं पिंडदान करना शुभ रहता हैं।
भारतीय धर्म शास्त्रों के अनुसार ’’पुन्नाम नरकात् त्रायते इति पुत्रम‘‘ एवं ’’पुत्रहीनो गतिर्नास्ति‘‘ अर्थात पुत्रहीन व्यक्तियों की गति नही होती व पुत नाम के नरक से जो बचाता है, वह पुत्र है। इसलिए सभी लोग पुत्र प्राप्ति की अपेक्षा करते है। वर्तमान में पुत्र एवं पुत्री को एक समान माने जाने के कारण इस भावना में सामान्य कमी आई है परन्तु पुत्र प्राप्ति की इच्छा सबको अवश्य ही बनी रहती है जब पुत्र प्राप्ति की संभावना नही हो तब ही आधुनिक विचारधारा वाले लोग भी पुत्री को पुत्र के समान स्वीकारते है। इसमे जरा भी संशय नही है।
पुत्र द्वारा किए जाने वाले श्राद्ध कर्म से जीवात्मा को पुत नामक नरक से मुक्ति मिलती है। किसी जातक को पितृदोष का प्रभाव है या नही। इसके बारे में ज्योतिष शास्त्र में प्रश्न कुंडली एवं जन्म कुंडली के आधार पर जाना जा सकता है।
- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे
संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई, 9827198828
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