ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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रविवार, 17 जून 2018

चौबेजी कहिन:- 'मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः' का उद्घोष करने वाले भारत में 'फादर्स डे' की अहमियत क्यों...?

चौबेजी कहिन:- 'मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः' का उद्घोष करने वाले भारत में 'फादर्स डे' की अहमियत क्यों...? हे 'इण्डिया' वालों आओ 'भारत' की ओर लौट चलें 🚩🙏🚩

(यह आलेख पांच मिनट का समय निकालकर हर एक भारतीय को जरूर पढ़ना चाहिए 🙏)

17/6/2018
वैश्विक स्तर पर विशेष दिवस के रूप में अनेक पर्व एवं कार्यक्रम प्रचलित होने लगे हैं, जिनमें से एक ‘पितृ-दिवस’ यानी ‘फादर्स डे’ भी है। दुनिया में यह अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। भारत, अमेरिका, श्रीलंका, अफ्रीका, पाकिस्तान, बर्मा, बांग्लादेश, जापान, चीन, मलेशिया, इंग्लैण्ड आदि दुनिया के सभी प्रमुख देशों में इसे जून के तीसरे रविवार को मनाते हैं। भारत में पिछले कुछ वर्षों से ‘पितृ-दिवस’ के प्रति रूझान में बड़ी तेजी से बढ़ौतरी दर्ज की जा रही है। ‘फादर्स डे’ मनाने की शुरूआत पश्चिमी वर्जीनिया के फेयरमोंट में 5 जुलाई, 1908 को हुई थी। इसका मूल उद्देश्य 6 दिसम्बर, 1907 को पश्चिम वर्जीनिया के मोनोंगाह की एक खान दुर्घटना में मारे गए 210 पिताओं को सम्मान देना था। ‘फादर्स डे’ के मूल में पश्चिमी वर्जीनिया की एक दर्दनाक खान दुर्घटना मौजूद हो, लेकिन भारत में अपने माता-पिता और गुरु को सम्मान देने और उन्हें भगवान समान समझने के संस्कार एवं नैतिक दायित्व चिरकाल से चलते आ रहे हैं। भारतीय संस्कृति में ‘पितृ-दिवस’ के मायने ही अलग हैं। यहां इस दिवस का मुख्य उद्देश्य अपने पिता द्वारा उनके पालन-पोषण के दौरान किए गए असीम त्याग और उठाए गए अनंत कष्टों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना अथवा स्वर्गीय पिताश्री की स्मृतियों को संजोना है ताकि हम एक श्रेष्ठ एवं आदर्श संतान के नैतिक दायित्वों का भलीभांति पालन कर सकें। इस तरह के सुसंकार भारतीय संस्कृति में कूट-कूटकर भरे हुए हैं। हर रोज 'मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः' का उद्घोष करने वाला 'भारत' वर्ष में 17 दिन पितृपक्ष माता-पिता को समर्पित करने वाले कथित पढ़े-लिखे भारतीयों में नकल करने की आदत बन चुकी है, जिन संकिर्णता भरी अभारतीय संस्कृतियों की उदासीनता तो देखिए जिन्होंने वर्ष का मात्र 2 दिन दिन ही माता-पिता के लिए समर्पित किया एक दिन 'मदर्स डे' और दूसरा 'फादर्स डे' अर्थात् 'पितृ दिवस' के रुप में दिया, उनका हमारे भारतीय समाज के लोग बड़ी तेजी से अनुसरण कर रहे हैं, जो ना केवल हास्यास्पद है बल्कि अपनी आने वाली पीढ़ियों को पाश्चात्य संस्कृति के दल-दल में ढकेलने का कुत्सित प्रयास है! 

'प्रात काल उठि के रघुनाथा !

मात-पिता गुरु नावहीं माथा !!

संभवतः यदि आप लोग अपने बच्चों को गोस्वामी तुलसीदास जी के इस चौपाई का अनुसरण कराते तो शायद देश में मिशनरियों, गैर मिशनरियों द्वारा संचालित 'वृद्धाश्रम' में जाने की जरूरत नहीं पड़ती ! वक्त है अब से चेत जाओ और 'फादर्स डे' की ओर से 'मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः' की ओर वापस लौट आओ! हमारे पिता स्वर्गीय श्री रामजी चौबे एवं बड़े पिताजी स्व.श्री रमाकांत चौबे एवं माता स्व. माया देवी चौबे तथा बड़ी मां स्व.कलावती देवी चौबे जी आप सभी के श्री चरणों में सादर नमन🙏🌹

आज रविवार को अवकाश का दिन है सभी की छुट्टियां रहतीं हैं, इसलिए 'मैं अपने निवास 'भिलाई के शांतिनगर में ही रहता हूं, क्योंकि आज 'ज्योतिष, हस्तरेखा एवं वास्तु' कन्टसल्टिंग क्लांइटों की संख्या अधिक होने से अन्य दिनों की अपेक्षा आज अधिक व्यस्तता होती है, उसी व्यस्तता में हमारे वरिष्ठ एवं मार्गदर्शक श्री कनिरामजी (सहप्रांत प्रचार प्रमुख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ छत्तीसगढ़) रायपुर जी का फोन आया उन्होंने कहा कि- चौबे जी आज 'फादर्स डे' इस विषय पर आप एक प्रेरक आलेख अवश्य लिखें, मैंने कहा जी आदरणीय 🙏 'चौबेजी कहिन' के संस्करण में आपके समक्ष यह आलेख प्रस्तुत करता हूं....🙏 साथियों आज सोशल मीडिया 'फादर्स डे' की 'कंग्रुचुलेशन' से अटा पड़ा है, मुझे लगा 😊 कि आज इस विषय पर आपको अपनी संस्कृति से अवगत कराऊंगा....

भारतीय संस्कृति और पौराणिक साहित्य में माता-पिता और गुरु को जो सर्वोच्च सम्मान और स्थान दिया गया है, शायद उतना कहीं और किसी सभ्यता व संस्कृति में देखने को नहीं मिलेगा।   हिन्दी साहित्य में ‘पिता’ को ‘जनक’, ‘तात’, ‘पितृ’, ‘बाप’, ‘प्रसवी’, ‘पितु’, ‘पालक’, ‘बप्पा’ आदि अनेक पर्यायवाची नामों से जाना जाता है। पौराणिक साहित्य में श्रवण कुमार, अखण्ड ब्रह्चारी भीष्म, मर्यादा पुरुषोत्तम राम आदि अनेक आदर्श चरित्र प्रचुर मात्रा में मिलेंगे, जो एक पिता के प्रति पुत्र के अथाह लगाव एवं समर्पण को सहज बयां करते हैं। वैदिक ग्रन्थों में ‘पिता’ के बारे में स्पष्ट तौर पर उल्लेखित किया गया है कि ‘पाति रक्षति इति पिता’ अर्थात जो रक्षा करता है, ‘पिता’ कहलाता है। यास्काचार्य प्रणीत निरूक्त के अनुसार, ‘पिता पाता वा पालयिता वा’, ‘पिता-गोपिता’ अर्थात ‘पालक’, ‘पोषक’ और ‘रक्षक’ को ‘पिता’ कहते हैं। महाभारत में ‘पिता’ की महिमा का बखान करते हुए कहा गया है:-

 दारूणे च पिता पुत्र नैव दारूणतां व्रजेत। 

पुत्रार्थ पदःकष्टाः पितरः प्रान्पुवन्ति हि।। 

अर्थात, पुत्र क्रूर स्वभाव का हो जाए तो भी पिता उसके प्रति निष्ठुर नहीं हो सकता, क्योंकि पुत्रों के लिए पिताओं को कितनी ही कष्टदायिनी विपत्तियाँ झेलनी पड़ती हैं। महाभारत में युधिष्ठर ने यज्ञ के एक सवाल के जवाब में आकाश से ऊँचा ‘पिता’ को कहा है और यक्ष ने उसे सही माना भी है। इसका अभिप्राय है कि पिता के हृदय-आकाश में अपने पुत्र के लिए जो असीम प्यार होता है, वह अवर्णनीय है। पद्मपुराण में माता-पिता की महत्ता बड़े ही सुनहरी अक्षरों में इस प्रकार अंकित है:-

अर्थात, माता सभी तीर्थों और पिता सभी देवताओं का स्वरूप है। इसलिए सब तरह से माता-पिता का आदर सत्कार करना चाहिए। जो माता-पिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सात द्वीपों से युक्त पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है। माता-पिता को प्रणाम करते समय जिसके हाथ घुटने और मस्तिष्क पृथ्वी पर टिकते हैं, वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है। मनुस्मृति में महर्षि मनु भी पिता की असीम महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं:-

उपाध्यान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता। 

सहस्त्रं तु पितृन माता गौरवेणातिरिच्यते।। 

अर्थात, दस उपाध्यायों से बढ़कर ‘आचार्य’, सौ आचार्यों से बढ़कर ‘पिता’ और एक हजार पिताओं से बढ़कर ‘माता’ गौरव में अधिक है, यानी बड़ी है। ‘पिता’ के बारे में मनुस्मृति में तो यहां तक कहा गया है: ‘‘पिता मूर्ति: प्रजापतेः’’ अर्थात, पिता पालन करने से प्रजापति यानी राजा व ईश्वर का मूर्तिरूप है।   

माता-पिता के ऋण से मुक्त होना असम्भव है। इसीलिए, माता-पिता तथा आचार्य की सेवा-सुश्रुषा ही श्रेष्ठ तप है। लेकिन, विडम्बना का विषय है कि आधुनिक युवा वर्ग अपने पथ से विचलित होकर अपनी प्राचीन भारतीय वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति को निरन्तर भुलाता चला जा रहा है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। आज घर-घर में पिता-पुत्रों के बीच आपसी कटुता, वैमनस्ता और झगड़ा देखने को मिलता है। भौतिकवाद आधुनिक युवावर्ग के सिर चढ़कर बोल रहा है। उसके लिए संस्कृति और संस्कारों से बढ़कर सिर्फ निजी स्वार्थपूर्ति और पैसा ही रह गया है। एक ‘पिता’ अपने पुत्र के मुख से सिर्फ प्रेम व आदर के दो शब्द की उम्मीद करता है, लेकिन उसे पुत्र से उपेक्षित, तिरस्कृत और अभद्र आचरण के अलावा कुछ नहीं मिलता है, हद तो तब हो जाती है जब समाचार पत्रों में यह खबरें सुर्खियां बटोरती है कि एक बेटे ने 'मां' अथवा पिता के मरने के बाद तीन महीने तक लाश घर में रख कर अपने मां और पिताजी के पेंसन लेते रहा। निःसन्देह, यह हमारी आधुनिक शिक्षा प़द्धति के अवमूल्यन का ही दुष्परिणाम है। 

सर्वसौख्यप्रदः पुत्रः पित्रोः प्रीतिविवद्धर्नः।

 आत्मा वै जायते पुत्र इति वेदेषु निश्चितम्।।

 अर्थात, पुत्र सब सुखों को देने वाला होता है, माता-पिता का आनंदवर्द्धक होता है। वेदों में ठीक ही कहा गया है कि आत्मा ही पुत्र के रूप में जन्म लेती है। आधुनिक युवापीढ़ी के लिए 'फादर्स डे' और 'मदर्स-डे' पर सोशल मीडिया में एक दिन माता-पिता के प्रति प्रेम की दो-चार पांति लिख देने मात्र का स्वांग ना करें बल्कि  वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति के अनुरूप वे अपने पिता के प्रति सभी दायित्वों का पालन करने का हरसंभव प्रयास करें। साथ ही महर्षि वेदव्यास जी की यह पंक्ति हमेशा याद रखने की आवश्यकता है कि ‘‘देवतं हि पिता महत्’’ अर्थात ‘पिता’ ही महान देवता है।

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