ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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गुरुवार, 30 नवंबर 2017

'उपनिषद' क्या है..? ऋषियों का 'सेमिनार' ही 'उपनिषद तो नहीं

ऋषियों द्वारा आयोजित 'सेमिनार' या 'वैदिक-संगोष्ठी' को ही 'उपनिषद' कहते हैं

मित्रों, नमस्कार
आज ख्रिष्टाब्द के अन्तिम माह का प्रथम तिथि है, यानी 1 दिसंबर है, शुक्रवार है, नमन आप सभी को ¡ !!___/\___ आज हम चर्चा हम करेंगे, विषय है 'उपनिषद' यानी उपनिषद का अर्थ विश्लेषण और व्यावहारिक पक्ष सहित इसके ऊपर कुछ चिंतन , मनन करने जा रहा हुं....!

उप, नि, षद - इनका विश्लेषण किया जाए तो उप अर्थात पास में, नि अर्थात निष्ठापूर्वक और सद अर्थात बैठना। इस प्रकार इसका शाब्दिक अर्थ हुआ - तत्वज्ञान के लिये गुरू के पास निष्ठावान होकर बैठना। ये वेद के अंतिम भाग हैं और इसी कारण से इन्हें वेदान्त भी कहा गया है। उपनिषदों को रहस्यमय ग्रन्थ भी कहा गया है। रहस्यात्मक तत्वज्ञान गुरू और शिष्यों के मध्य चर्चा का विषय रहा है। शिष्यों के तत्वज्ञान से सम्बंधित प्रशनों के उत्तर गुरू देते आए हैं और वे ही प्रश्नोत्तर, गुरू-शिष्य के मध्य के संवाद, इन ग्रंथों में संकलित हैं।.
      जब महाभारत के महाविनाश के बाद देश में विचारों का जो नया उन्मेष पैदा हुआ संसार और शरीर के प्रति विरक्ति का जो भाव बना और आत्मा की अमरता पर जैसी उत्कट भावाभिव्यक्ति होने लगी उसे देखते हुए उपनिषदों की ऊपरी समय सीमा वही जाकर बनती है जो ब्राह्मण ग्रन्थों के रचनाकाल की है। यानी 2500 ई.पू.। देश में यज्ञों के प्रति उत्साह लगातार क्षीण हो रहा था और आध्यात्मविद्या का प्रभाव लगातर फैल रहा था इसलिए जहां ब्राह्मणों और आरण्यकों की रचना पांच-सात सौ सालों में हो चुकी होगी वहां उपनिषदों की रचना लगातार करीब एक हजार साल तक चलती रही होगी। जैसे हर कोई चाहता है कि उसके वंश का, कुनबे का या कौम का कोई पुराना संदर्भ निकल आए ताकि वह अपने को खूब प्रामाणिक साबित कर सके।दिनांक 15 फरवरी 2012 के ज्योतिष का सूर्य अंक के 20,21 एवं 22 वें पृष्ठ पर प्रकाशित

आचार्य पण्डित विनोद चौबे

(काशी हिन्दू वि. वि. वाराणासी से फलित ज्योतिष में आचार्य एवं सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्व विद्यालय, वाराणसी, उ.प्र. से नव्य व्याकरण में आचार्य, बीएड )

संपादक- ' ज्योतिष का सूर्य ' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, हाऊस नं. 1299, सड़क- 26, शांति नगर, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) -490023मोबाईल नं. 9827198828

बुधवार, 29 नवंबर 2017

मानसिक दिव्यांग बना सकता है राहु, राहुलजी जनेऊ का मज़ाक मत उड़ाओ-  

मानसिक दिव्यांग बना सकता है राहुराहुलजी जनेऊ का मज़ाक मत उड़ाओ-  आचार्य पण्डित विनोद चौबे
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भारत पर आक्रमण करने वाले मुगलों ने जनेऊ का अपमान किया, उसका हश्र तो राहुल जी को पता है ना , उनका क्या हुआ ! राहुलजी 'जनेऊ' का अपमान करके आपने अक्षम्य अपराध किया है ! ऐसी घटिया राजनीति मत किजीए ! बंद किजीए जन भावनाओं से खिलवाड़ ! भारत को साम्प्रदायिकता की आग में मत जलाओ, रहने दो देश में अमन चैन ! इतिहास को कुरेदना और मखौल उड़ाना बंद करो! करना है तो बात मे देश के विकास की! बढियां मौका था, उसको गंवा दिये राहुल जी ! अब बौराकर बार-बार गड्ढे में गिरते जा रहे हो! जानते हो राहुल जी आपके ग्रह तो बिल्कुल भी अनुकूल नहीं हैं, अभी कम से कम 28/04/2018 तक राहु के विंशोत्तरी दशा में शनि का अन्तर चलेगा, अत: अवसाद ग्रस्त, कुंठित होकर  काम मत करो यह राहु आपको मानसिक दिव्यांग भी बना सकता है, राहु !
- पण्डित विनोद चौबे, संपादक - 'ज्योतिष का सूर्य' मासिक समाचार पत्रिका, भिलाई, 9827198828

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*मानसिक दिव्यांग बना सकता है राहु*, *राहुलजी* *जनेऊ* *का मज़ाक मत उड़ाओ* - आचार्य पण्डित विनोद चौबे

*मानसिक दिव्यांग बना सकता है राहु*, *राहुलजी* *जनेऊ* *का मज़ाक मत उड़ाओ* - आचार्य पण्डित विनोद चौबे
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भारत पर आक्रमण करने वाले मुगलों ने जनेऊ का अपमान किया, उसका हश्र तो राहुल जी को पता है ना , उनका क्या हुआ ! राहुलजी 'जनेऊ' का अपमान करके आपने अक्षम्य अपराध किया है ! ऐसी घटिया राजनीति मत किजीए ! बंद किजीए जन भावनाओं से खिलवाड़ ! भारत को साम्प्रदायिकता की आग में मत जलाओ, रहने दो देश में अमन चैन ! इतिहास को कुरेदना और मखौल उड़ाना बंद करो! करना है तो बात मे देश के विकास की! बढियां मौका था, उसको गंवा दिये राहुल जी ! अब बौराकर बार-बार गड्ढे में गिरते जा रहे हो! जानते हो राहुल जी आपके ग्रह तो बिल्कुल भी अनुकूल नहीं हैं, अभी कम से कम 28/04/2018 तक राहु के विंशोत्तरी दशा में शनि का अन्तर चलेगा, अत: अवसाद ग्रस्त, कुंठित होकर  काम मत करो यह राहु आपको मानसिक दिव्यांग भी बना सकता है, राहु !
- पण्डित विनोद चौबे, संपादक - 'ज्योतिष का सूर्य' मासिक समाचार पत्रिका, भिलाई, 9827198828

रविवार, 26 नवंबर 2017

हे ! अडायमंड-बुक-स्टॉलीय-अध्ययन-कर्ता-ज्योतिष-मर्मज्ञ-रावण-प्रशंसक ज्योतिषाचार्य महाशय रावण ना ही वेदज्ञ था ना ही दैवज्ञ

मैं बार बार हर बार कहता हुं कि रावण की विद्वता वेद के रक्षण हेतु नहीं वरन् क्षरण हेतु था ! रावण की तपस्या लोक कल्याणार्थ नहीं स्व-कल्याणार्थ था ! रावण वैदिक सिद्धांतो का आरोहक नहीं अपितु विद्रोही था ! मैंने भिलाई निवासी एक रावण के प्रशंसक और पेशे से ज्योतिषाचार्य जी से इसी विषय पर विशद चर्चा होने लगी वे महाशय बेताब थेरावण को आदर्श-चरित की व्याख्या करने को ! मैंने उनसे बार बार इस बात को कहता रहा मित्रवर आप इस बात को समझिये वह रावण स्वयं को लोकपाल बनने की बनने के लिये मां सीता का हरण किया, चक्रवर्ती शासक बनने की चाह ने उसे शिवभक्त बनाया, यह स्वाभाविक भक्ति या प्राकृतिक तपस्वी नहीं कहा जा सकता ! अपने भाई कुबेर के समतूल्य ज्ञानी बनकर लोकाधिपति बनने के लिए वह वेदज्ञ बना, वेदज्ञ होते हुए रावण ने अवधूत क्रिया और तामस यज्ञ और त्राटक आदि प्रयोग किया करता था जबकी एक वेदज्ञ इन कार्यों से मुक्त होते हैं ! हे ! ज्योतिषाचार्य पण्डित जी सम्भवत: आपको ज्ञात होगा की मैं स्वत: 'रावण संहिता' का अध्ययन किया हुं उसमें कहीं पर भी लोक कल्याणार्थ चर्चा की तो बातें दूर, वह परकिया-तंत्र क्रिया कलापों से किसी व्यक्ति के जीवन को अवरोधित करने के माकुल उपाय बताये गये हैं ! कहीं आत्मा से परमात्मा की बातें नहीं की गई हैं ! और हे अडायमंड-बुक-स्टॉलीय-अध्ययन-कर्ता-ज्योतिष-मर्मज्ञ-रावण-प्रशंसक ज्योतिषाचार्य महाशय, आपको शायद ज्ञात नहीं रावण सिर्फ स्व-जन-हिताय कार्य किया ! उपनिषदों में कहीं भी ब्रह्म-निरुपण संबंधित रावण का कहीं कोई उपाख्यान नहीं मिलता इसलिये हे प्रभु आप रावण को दैवज्ञ या वेदज्ञ ना कहें ! और आईये आगे आपको उसके जन्म से लेकर उसके भ्रातृजनों के बारे में आपको विस्तृत बताता हुं !

रावण एक ऐसा योग है जिसके बल से सारा ब्रम्हाण्ड कांपता था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि वो रावण जिसे राक्षसों का राजा कहा जाता था वो किस कुल की संतान था। रावण के जन्म के पीछे के क्या रहस्य है? इस तथ्य को शायद बहुत कम लोग जानते होंगे। रावण के पिता विश्वेश्रवा महान ज्ञानी ऋषि पुलस्त्य के पुत्र थे। विश्वेश्रवा भी महान ज्ञानी सन्त थे। ये उस समय की बात है जब देवासुर संग्राम में पराजित होने के बाद सुमाली माल्यवान जैसे राक्षस भगवान विष्णु के भय से रसातल में जा छुपे थे।

वर्षों बीत गये लेकिन राक्षसों को देवताओं से जीतने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। एक दिन सुमाली अपनी पुत्री कैकसी के साथ रसातल से बाहर आया, तभी उसने विश्वेश्रवा के पुत्र कुबेर को अपने पिता के पास जाते देखा। सुमाली कुबेर के भय से वापस रसातल में चला आया, लेकिन अब उसे रसातल से बाहर आने का मार्ग मिल चुका था। सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री मैं तुम्हारे लिए सुयोग्य वर की तलाश नहीं कर सकता इसलिये उसे स्वयं ऋषि विश्वेश्रवा के पास जाना होगा और उनसे विवाह का प्रस्ताव स्वयं रखना होगा।

पिता की आज्ञा के अनुसार कैकसी ऋषि विश्वेश्रवा के आश्रम में पहुंच गई। ऋषि उस समय अपने संध्या वंदन में लीन थे आंखें खोलते ही ट्टषि ने अपने सामने उस सुंदर युवती को देखकर कहा कि वे जानते हैं कि उसके आने का क्या प्रयोजन है? लेकिन वो जिस समय उनके पास आई है वो बेहद दारुण वेला है जिसके कारण ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने के बाद भी उनके पुत्रा राक्षसी प्रवृत्ति के होंगे।

तब कैकसी ऋषि चरणों में गिरकर बोली आप इतने महान तपस्वी हैं तो उनकी संतान ऐसी कैसे हो सकती है आपको संतानों को आशीर्वाद अवश्य ही देना होगा। तब कैकसी कि प्रार्थना पर ऋषि विश्वेश्रवा ने कहा कि उनका सबसे छोटा पुत्र धर्मात्‍मा प्रवृत्ति का होगा। इसके अलावा वे कुछ नही कर सकते। कुछ समय पश्चात् कैकसी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसके दस सिर थे। ऋषि ने दस शीश होने के कारण इस पुत्र का नाम दसग्रीव रखा।
इसके बाद कुंभकर्ण का जन्म हुआ जिसका शरीर इतना विशाल था कि संसार मे कोई भी उसके समकक्ष नहीं था । कुंभकर्ण के बाद पुत्री सूर्पणखा और फिर विभीषण का जन्म हुआ। इस तरह दसग्रीव और उसके दोनो भाई और बहन का जन्म हुआ।

नीचे तस्‍वीरों के सामने दिये संक्षिप्‍त विवरण में छिपे हैं 10 रहस्‍य।

रावण ने क्‍यों की ब्रह्मा की तपस्‍या ?

ऋषि विश्वेश्रवा ने रावण को धर्म और पांडित्य की शिक्षा दी। दसग्रीव इतना ज्ञानी बना कि उसके ज्ञान का पूरे ब्रह्माण्ड मे कोई सानी नहीं था। लेकिन दसग्रीव और कुंभकर्ण जैसे जैसे बड़े हुए उनके अत्याचार बढ़ने लगे। एक दिन कुबेर अपने पिता ऋषि विश्वेश्रवा से मिलने आश्रम पहुंचे तब कैकसी ने कुबेर के वैभव को देखकर अपने पुत्रों से कहा कि तुम्हें भी अपने भाई के समान वैभवशाली बनना चाहिए। इसके लिए तुम भगवान ब्रह्मा की तपस्या करो।

माता की अज्ञा मान तीनों पुत्रा भगवान ब्रह्मा के तप के लिए निकल गए। विभीषण पहले से ही धर्मात्मा थे, उन्होने पांच हजार वर्ष एक पैर पर खड़े होकर कठोर तप करके देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त किया इसके बाद पांच हजार वर्ष अपना मस्तक और हाथ उफपर रखके तप किया जिससे भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए विभीषण ने भगवान से असीम भक्ति का वर मांगा।

   
क्‍यों सोता रहा कुंभकर्ण

कुंभकर्ण ने अपनी इंद्रियों को वश में रखकर दस हजार वर्षों तक कठोर तप किया उसके कठोर तप से भयभीत हो देवताओं ने देवी सरस्वती से प्रार्थना कि तब भगवान वर मांगते समय देवी सरस्वती कुंभकर्ण की जिव्हा पर विराजमान हो गईं और कुंभकर्ण ने इंद्रासन की जगह निद्रासन मांग लिया।
‘शारद प्रेरि तासु मति पफेरी मांगिस नींद मांस खटकेरी'।

रावण ने किससे छीनी लंका?

दसग्रीव अपने भाइयों से भी अधिक कठोर तप में लींन था। वो प्रत्येक हजारवें वर्ष में अपना एक शीश भगवान के चरणों में समर्पित कर देता। इस तरह उसने भी दस हजार साल में अपने दसों शीश भगवान को समर्पित कर दिया उसके तप से प्रसन्न हो भगवान ने उसे वर मांगने को कहा तब दसग्रीव ने कहा देव दानव गंधर्व किन्नर कोई भी उसका वध न कर सके वो मनुष्य और जानवरों को कीड़ों की भांति तुच्छ समझता था इसलिये वरदान मे उसने इनको छोड़ दिया। यही कारण था कि भगवान विष्णु को उसके वध् के लिए मनुष्य अवतार में आना पड़ा। दसग्रीव स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने लगा था। रसातल में छिपे राक्षस भी बाहर आ गये। राक्षसों का आतंक बढ़ गया। राक्षसों के कहने पर लंका के राजा कुबेर से लंका और पुष्पक विमान छीनकर स्वयं बन गया लंका का राजा।

कालजयी नहीं था रावण?

रावण के वरदान की शक्ति थी वो जानता था कि देवता भी उसे नहीं मार सकते। इसलिए उसने सोचा क्यों न काल को ही बंदी बना लिया जाए। शक्ति के मद में चूर रावण ने यमलोक पर आक्रमण कर दिया भीषण युद्ध हुआ देवता रावण के वरदान के आगे शक्तिहीन हो रहे थे। यमराज ने स्वयं रावण से युद्ध किया रावण भी रक्तरंजित हो चुका था। लेकिन फिर भी उसने हार नहीं मानी तब क्रोधित यमराज ने रावण वध के लिए अपना काल दण्ड उठा लिया। तब ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर यमराज को अपने वरदान के बारे में बताया। यमराज ने ब्रह्मा जी की आज्ञानुसार अपना कालदण्ड वापस ले लिया। रावण को लगा कि उसने ये विजय अपनी शक्ति से पाई है। उसे अब और घमंड हो गया था वो स्वयं को कालजयी मानने लगा था। पृथ्वी पर उसका आतंक और बढ़ गया था। लेकिन पृथ्वी पर भी रावण को पराजित करने वाले और भी योद्धा थे।

कैसे दसग्रीव का नाम रावण पड़ा?

दसग्रीव ने नंदी के श्राप और चेतावनी को अनसुना कर दिया और आगे बढ़ा । अपने बल के मद में चूर दसग्रीव ने जिस पर्वत पर भगवान शिव विश्राम कर रहे थे। उस पर्वत को अपनी भुजाओं पर उठा लिया। जिससे भगवान शंकर की तपस्‍या भंग हो गई और भगवान ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया । पर्वत के नीचे दसग्रीव की भुजाएं दब गईं वो पीड़ा से इस तरह रोया कि चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। तब रावण ने मंत्रियों की सलाह पर एक हजार वर्षों तक भगवान शिव की स्तुति की। भगवान शिव ने दसग्रीव से प्रसन्न होकर उसे अपनी चंद्रहास खड्ग दी और कहा कि तुम्हारे रुदन से सारा विश्व कराह उठा इसलिये तुम्हारा नाम रावण होगा। रावण का अर्थ रुदन होता है। तबसे दसग्रीव रावण के नाम से प्रचलित हुआ।

  
बालि ने भी हराया था रावण को

एक बार रावण भ्रमण करता हुआ महिष्मतीपुरी पहुंचा। इस अत्यंत सुंदर नगरी का राजा था सहस्रार्जुन। रावण ने इस नगरी पर अधिकार जमाने के लिये आक्रमण कर दिया। सहस्रार्जुन ने इस युद्ध में रावण को आसानी से हरा दिया वो चाहता तो रावण को मार भी सकता था लेकिन सहस्रार्जुन ने अपने पूज्य पुलस्त्य ऋषि का वंशज होने के कारण बंदी बना लिया। जिसकी कैद से मुक्त कराने के लिए पुलस्त्य ऋषि स्वयं पृथ्वी पर आए और रावण मुक्त हो गया। बालि से भी रावण की पराजय का विवरण ग्रंथों में मिलता है। कहा जाता है कि किष्किन्ध के राजा बालि ने रावण को अपनी बांह में दबाकर सात समुद्रों की यात्रा की थी। लेकिन तब रावण ने अपनी कुटिल ब‍ुद्धि का प्रयोग कर बालि को अपना मित्रा बना लिया था। इस तरह रावण शक्तिशाली तो था लेकिन पराजय का स्वाद उसने भी चखा था।

 
रावण के वध का कारण बनीं स्त्रियां?

यदि गौर करें तो रावण के वध् का कारण स्त्रियां ही बनीं। चाहे वह सीता हों या पिफर सूर्पणखा। ग्रन्थों में इसके पीछे भी रहस्य मिलता है। रावण एक बार हिमालय वन में विचरण कर रहा था तभी उसने वहां वेदवती नामक एक तपस्वनी को तपस्या में लीन देखा। रावण उस तपस्वनी को देखकर उस पर आशक्त हो गया और उसने वेदवती नामक उस तपस्वनी के केश पकड़कर उसे साथ ले जाने लगा। वेदवती ने अपने केश काटकर रावण को श्राप दिया कि तुम्हारे और तुम्हारे कुल के नाश का कारण स्त्रियां होंगी।

  
क्यों बनी वानरों की सेना?

अब सवाल ये उठता है कि जब श्री राम विष्णु अवतार थे तो रावण को मारने के लिए वे सर्वशक्तिशाली सेना का प्रयोग कर सकते थे लेकिन उन्हाने वानरों की ही सेना का निर्माण क्यों किया? इसके पीछे भी एक रहस्य मिलता है। शक्ति और ऐश्वर्य से घिरा दसग्रीव खुद को भगवान समझने लगा था। पूरे ब्रह्माण्ड को वह अपने अधीन मानता था । एक बार दसग्रीव अपनी शक्ति के मद में चूर पुष्पक विमान से विचरण करता हुआ सरकण्डा के वन में पहुंचा कुछ दूरी पर पहुंचने के बाद उसका विमान आगे नहीं बढ़ रहा था। तभी उसे एक आवाज सुनाई दी कि यहां से लौट जाओ भगवान शिव और माता पार्वती यहां विश्राम कर रहे हैं। तेज रौशनी में दसग्रीव को भगवान शंकर के दूत नंदी का मुख वानर के समान प्रतीत हुआ। दसग्रीव ने वानर कहकर नंदी का परिहास किया तब नंदी ने उसे श्राप दिया और कहा कि तुमने वानर कहकर मेरा उपहास किया है तो वानरों की सेना ही तुम्हारे वध में सहायक होगी।

रावण ने सीता जी से कभी जबर्दस्‍ती नहीं की

रावण इतना बलशाली था लेकिन पिफर भी वो सीता से विवाह करने की याचना करता था। जबकि त्रिलोक के बड़े बड़े वीर उसके आगे कांपते थे चाहता तो वो जबरन विवाह कर सकता था। लेकिन रावण सीता से चाहकर भी विवाह नहीं कर सकता था क्योंकि उसे श्राप था। एक बार रावण आकाश मार्ग से विचरण करता हुआ जा रहा था तभी उसने एक सुन्दर अप्सरा को देखा वो अप्सरा नल कुबेर की प्रेयसी थी। रावण ने उस अप्सरा को अपनी राक्षसी प्रवृत्ति का शिकार बना डाला। नल कुबेर को जब रावण के इस कुकृत्य का पता चला तो उसने रावण का श्राप दिया कि यदि वो किसी भी स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध छुएगा तो उसके मस्तक के सात टुकड़े हो जाएंगे। यही कारण था कि रावण सीता से बार-बार प्रणय याचना करता था, उसने सीता के साथ कभी जबर्दस्‍ती नहीं की। 

श्री राम ने रावण के सीने में क्‍यों नहीं चलाया तीर?

राम और रावण में घमासान युद्ध चल रहा था राम रावण के शीश काट रहे थे। तब सभी के मन में सवाल था कि आखिर श्री राम रावण के हृदय पर तीर क्यों नहीं चला रहे। देवताओं ने ब्रह्मा जी से यही प्रश्न किया। तब भगवान ब्रह्मा ने कहा कि रावण के हृदय में सीता का वाय है, सीता के हृदय में राम वास करते हैं और राम के हृदय में सारी सृष्टि है। ऐसे में यदि श्री राम रावण के हृदय पर तीर चलाते तो सारत सृष्टि नष्ट हो जाएगी। जैसे ही रावण के हृदय से सीता का ध्यान हटेगा वैसे ही श्री राम रावण का संहार करेंगे। इसलिये विभीषण जब रावण के वरदान का रहस्य बताने जब श्री राम के पास पहुंचे तो रावण के हृदय से सीता का ध्यान हट गया। फिर भगवान राम ने आतातायी राक्षस की नाभि पर तीर चलाकर वध किया। रावण वध का यही दिन दशहरा या विजयादशमी कहलाया।
-आचार्य पण्डित विनोद चौबे
(फलित ज्योतिष एवं नव्य व्याकरण से आचार्य) संपादक- "ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका मोबाईल नं.9827198828

शनिवार, 25 नवंबर 2017

ज्योतिष में 'केतुकूट योग' और यंत्रों का प्रभाव

साथियों नमस्कार,
कुछ दिनों से सोच रहा था ज्योतिष एवं तंत्र तथा मंत्र पर लिखता ही रहता हुं आज यंत्र विषय पर चर्चा करुं ! (मित्रों, मुझे अंग्रेजी नही आती फिर भी मैंने कोशिश की है,यि कोई त्रुटियां हों तो क्षमा करेंगे) जिस तरह यूरेनियम के एक अतिसूक्ष्म कण (Atom) के नाभिकीय विखंडन (Nuclear Explosion) से श्रृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया (Chain Reaction) के द्वारा निकलने वाली ऊर्जा से एक रेलगाडी 100 किलोमीटर प्रति घंटे क़ी रफ्तार से 100 वर्षों तक चल सकती है। विज्ञान के इस सिद्धांत की खोज ज्योतिष के इन्ही यंत्रो के सिद्धांत पर आधारित है।
॥उदाहरण॥
"केतुकूट" योग - जिससे छोटे छोटे बच्चो में मृगी या औरतों में योषा अपष्मार (Hysteria) की बीमारी हो जाती है, के निवारण के लिये जो बांह या गले में यंत्र बांधा जाता है, उसमें मकोय के पौधे क़ी जड़, अडूलसा के पुष्प, अमलतास क़ी जड़, सेमल के बीज, समुद्रफेन, सुहागा एवं हाथी दांत का चूर्ण मिश्रित कर नागफनी (Cactus) के पके लाल पुष्प के रस में पका कर ताम्बे के ताबीज़ में भर देते है। यह यंत्र हिस्टीरिया एवं बच्चो के मृगी क़ी सबसे उत्तम औषधि है जो खाई नहीं जाती है। बल्कि इसे चमड़ी के माध्यम से (Through Epidermic System) शरीर में पंहुचाया जाता है।
अब यह आधुनिक विज्ञान का काम है कि यह खोज करे कि आखीर इस यंत्र में प्रयुक्त इन औषधियों के रस के ताम्बे के संयोग से कौन सा ऐसा रसायन बनता है जो शरीर में घुस कर इन व्याधियो को दूर करता है? किन्तु अभी यह जानने में आधुनिक विज्ञान को बहुत दिन लग जायेगें।
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे
(फलित ज्योतिष एवं नव्य व्याकरण विषय मे आचार्य)
संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई मोबाईल नं.9827198828

कैसे करें 'प्रश्न कुण्डली' से विचार...??

कैसे करें प्रश्न विचार....?

ज्योतिष शास्त्र को प्रत्यक्ष शास्त्र कहा जाता है। ""प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्रार्कौ यत्र साक्षिणों""। ज्योतिष की विविध शाखाऔंमें प्रश्न विज्ञान एक ऎसी शाखा है जिसकी सभी दैवज्ञों को सर्वदा सहायता लेनी प़डती है। जातक व प्रश्न ये दो ऎसे क्षेत्र हैं, जिनके बिना ज्योतिषी एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकता।
प्रश्न दो प्रकार के होते हैं। पहला जब लोग अपनी परेशानी या उलझन मे प़डकर ज्योतिषी के पास अपनी चिंता अथवा परेशानी का समाधान करने आते हैं। जैसे- मेरे मुकदमें में क्या होगाक् अमुक बीमार है अच्छा हो जायेगाक् यात्रा में गया हुआ अभी तक नहीं लौटा उसका क्या हुआक् मैने परीक्षा दी है अथवा इन्टरव्यू दिया है रिजल्ट क्या रहेगाक् मेरे स्थान परिवर्तन का योग है अथवा नहींक्
इसके अलावा अनावश्यक प्रश्न भी होते हैं जो समय बर्बाद करने अथवा ज्योतिषी की परीक्षा लेने के निमित्त भी हो सकते हैं। जैसे बताओ मेरी मुटी में क्या हैक् मैने क्या खर्चा थाक् मेेरे मन में क्या हैक् इस तरह के प्रश्न में बहुत विचार कर उत्तर देने की आवश्यकता होती है।
यदि प्रश्न कर्ता की जन्म पत्रिका भी उपलब्ध हो तो उससे प्रश्न फल की पुष्टि की जा सकती है। जो योग देखकर बता दिया है कि इसका ऎसा फल होगा, परंतु इसके अतिरिक्त ग्रह और राशियों के विचार से उनके गुण धर्म, ग्रहों के शुभत्व-पापत्व, स्थान स्वामित्व, दृष्टि, मैत्री- उच्च-नीच-स्वक्षेत्र, मित्र या शत्रुक्षेत्र आदि कई प्रकार के विचारों के आधार पर फलादेश करना प़डता है। जैसे किसी न्यायाधीश के सम्मुख कोई अभियोग पेश होता है तो वह वादी प्रतिवादी एवं गवाहों आदि के सभी के आधार पर अपना फैसला देता है। इसी प्रकार ज्योतिषी को उपरोक्त ग्रह स्थितियों पर विचार कर एवं देश-काल, प्रश्न कर्ता की अवस्था, वंश-परिस्थिति आदि सब बातों को ध्यान में रख कर फल निर्णय करना होता है।
किसी विशेष प्रश्न के निर्णय के निमित कई प्रकार के योग होते हैं जिनका स्पष्टीकरण गणना की शुद्धता से होता है परंतु इसके अतिरिक्त प्रश्नकर्ता के मुख से निकले शब्द, उसके अंग-स्पर्श, शकुन आदि का भी प्रश्न फलादेश में विशेष महत्व है।
यदि किसी प्रश्न में लग्नेश लग्न तथा कार्य भाव को और कार्येश को देखता हो तो प्रश्न का शुभ फल प्राप्त होगा।
प्रश्न में जिस भाव से संबंधित प्रश्न हो वह कार्यभाव कहलाता है। यदि लग्नेश और कार्येश में इत्थशाल हो तो प्रश्न का शुभ फल प्राप्त होगा।
यदि लग्न को लग्नेश व शुभ ग्रह देखते हों तथा कार्यभाव को कार्येश और शुभग्रह देखते हों तो कार्य के संबंध में शुभ फल प्राप्त होगा और यदि इत्थशाल हो तो शुभ फल प्राप्त होगा।
यदि लग्न को लग्नेश व शुभ ग्रह देखते हों तथा कार्यभाव को कार्येश और शुभ ग्रह देखते हों तो कार्य के संबंध में शुभ फल प्राप्त होगा।
यदि लग्न में पाप ग्रह हों या पाप ग्रहों की दृष्टि लग्न पर प़डती हो तथा कार्य भाव में पाप ग्रह हो या पाप ग्रहों की दृष्टि प़डती हो तो कार्य की हानि होगी।
यदि लग्न और कार्यभाव पर पापग्रहों और शुभग्रहों का मिला-जुला असर हो तो कष्ट से या विशेष परिश्रम से कार्य लाभ होगा।
यदि लग्न को लग्नेश व चंद्रमा दोनों देखते हों तो प्र्रश्न का शुभ फल प्राप्त होगा।
यदि लग्न और लग्नेश बलवान हो तो प्रश्न का शुभफल प्राप्त होगा।
यदि लग्नेश और कार्येश में योगों की परिभाष्ाा का संबंध हो तो जिस ग्रह के संबंध से यह योग होता है उस ग्रह से इंगित व्यक्ति के कारण सफलता प्राप्त होती है।
प्रश्न के समय लग्न सम राशि या विषम राशि में हो और नवांश कौनसा होगा, प्रश्न किस संबंध में होगा
यह निम्न चार्ट से स्पष्ट होता है।

शुत्र के आक्रमण संबंधी प्रश्न हो तो-
1.   2 5, 6 भाव में पाप ग्रह सूर्य, मंगल या शनि हो तो शत्रु रास्ते से वापिस लोट जायेगा।
2.   यदि पाप ग्रह सूर्य, मंगल या शनि चतुर्थ भाव में हो तो समीप आया शत्रु हार मान कर चला जायेगा
3.   यदि चौथे भाव में मीन, वृश्चिक, कुंभ, कर्क राशियों के स्वामी हो तो शत्रु पराजित होगा।
4.   यदि चौथे भाव में 1,2,5 या 9 (मेष, वृष, सिंह या धनु राशि) में हो तो शत्रु हार मानकर भाग जायेगा। प्रश्न यदि रोगी के संबंध में हो तो 
      निम्नानुसार गणना करते हैं।
षष्ठेश पाप ग्रह के लग्न में है तो रोगी की मृत्यु होगी अर्थात लग्नेश पाप ग्रह हो और षष्टेश वहां स्थित हो।

5.   यदि चतुर्थ और अष्टम स्थान तथा पाप ग्रहों के मध्य चंद्रमा की स्थिति हो तो मृत्यु अवश्य भावी है।
6.   यदि शुभ ग्रह बलवान होकर चंद्रमा को देखे तो रोगी आगे चलकर रोग मुक्त हो जायेगा।
7.   यदि चंद्रमा लग्न में और सूर्य सप्तम में हो तो रोगी की मृत्यु हो जायेगी। 
8.   यदि लग्न में पाप ग्रह हो तो वैद्य की दवा से रोग बढे़।
9.   यदि लग्न में शुभ ग्रह हो तो वैद्य के वचन अमृत समान जाने।
10. यदि रोगी और वैद्य में, औषध और रोग में मित्रता हो तो रोग शान्ति हो। शुत्रता हो तो रोग बढ़ेगा।
11.  यदि लग्नेश बलवान हो, शुभ ग्रह केन्द्र अथवा अपनी उच्चाराशि या त्रिकोण में हो तो रोगी बच जाये।
12.  यदि एक भी बलवान शुभ ग्रह लग्न में हो तो वह रोगी की रक्षा करता है।
13.  यदि शुभ ग्रह नवम व तीसरे स्थान पर हो तो रोग नाश करते हैं।
उक्त संदर्भ में राहुल महाजन पुत्र स्व. प्रमोद महाजन के लिये दिनांक 03-06-06 को सांय 17.35 पर प्रश्न प्रछा गया कि राहुल महाजन बचेंगे कि नहीं। उस समय प्रश्न कुण्डली निम्न बनी-

उक्त कुण्डली में लग्न में गुरू हैं जो चिकित्सक का भाव है। अत: लग्न में सौम्य ग्रह है।
2 सप्तम भाव में सौम्य ग्रह शुक हैं जो रोग का भाव है।
2 शुक लग्न पर जो उनकी उच्चाराशि है तथा स्वगृह है पर दृष्टिपात कर रहे है।
2 बृहस्पति चिकित्सक भाव लग्न में बैठकर सप्तम भाव जो रोग का भाव है और उनकी मित्र राशि है, पर दृष्टिपात कर रहे है। अत: रोगी के बचने की पूरर्गü संभावना है। परंतु दशक भाव जो रोगी का भाव है, में क्रूर ग्रह शनि व मंगल स्थित हैं। अत: बचने के बाद भी शरीर में दुष्प्रभाव रहेंगे और संभवत: कोई ऎसा दुष्प्रभाव जो काफी समय तक परेशान करेगा। यह जग विदित है कि राहुल महाजन बच गये और अब स्वस्थ है।
-आचार्य पण्डित विनोद चौबे संपादक-'ज्योतिष का सूर्य' मासिक पत्रिका मोबाईल नं. 9827198828

याज्ञवल्क्य और मैत्रियी की कथा

याज्ञवल्क्य और मैत्रियी की कथा 

महर्षि याज्ञवल्क्य वैदिक युग में एक अत्यन्त विद्वान व्यक्ति हुए हैं। वे ब्रह्मज्ञानी थे। उनकी दो पत्नियां थीं। एक का नाम कात्यायनी तथा दूसरी का मैत्रियी था । कात्यायनी सामान्य स्त्रियों के समान थीं, वह घर गृहस्थी में ही व्यस्त रहती थी। सांसारिक भोगों में उसकी अधिक रूचि थी। सुस्वादी भोजन, सुन्दर वस्त्र और विभिन्न प्रकार के आभूषणो में ही वह खोई रहती थी। याज्ञवल्क्य जैसे प्रसिद्ध महर्षि की पत्नी होते हुए भी उसका धर्म में उसे कोई आकर्षण नहीं दिखाई देता था। वह पूरी तरह अपने संसार में मोहित थी। जबकि मैत्रियी अपने पति के साथ प्रत्येक धार्मिक कार्य में लगी रहती थी। उनके प्रत्येक कर्मकाण्ड में सहायता देना तथा प्रत्येक आवश्यक वस्तु उपलब्ध कराने मे उसे आनन्द आता था। अध्यात्म में उसकी गहरी रूचि थी तथा अपने पति के साथ अधिक समय बिताने के कारण आध्यात्मिक जगत में उसकी गहरी पैठ थी। वह प्रायः महर्षि याज्ञवल्क्य के उपदेशों को सुनती, उनके धार्मिक क्रिया-कलापों में सहयोग देती तथा स्वंय भी चिन्तन-मनन में लगी रहती थी। सत्य को जानने की उसमें तीव्र जिज्ञासा थी। 
एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ त्यागकर संन्यास लेने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को अपने समीप बुलाया और उनसे बोले, 'हे मेरी प्रिय धर्मपत्नियों, मैं गृहस्थ त्यागकर संन्यास ले रहा हूं। मैं चाहता हूं कि मेरे पश्चात तुम दोनों में किसी प्रकार का विवाद न हो। इसलिए मेरी जो भी धन-सम्पत्ति है तथा घर में जो भी सामान है, उसे तुम दोनों में आधा-आधा बांट देना चाहता हूं।' कात्यायनी तुंरत तैयार हो गई लेकिन मैत्रियी सोचने लगी कि ऐसी क्या वस्तु है जो गृहस्थ से भी अधिक सुख, सतोंष देने वाली है और जिसे प्राप्त करने के लिए महर्षि गृहस्थ का त्याग कर रहे हैं। वह बोली, 'भगवन आप जिस स्थिति को प्राप्त करने के लिए गृहस्थ का त्याग कर रहे हैं, क्या वह इस गृहस्थ जीवन से अधिक मूल्यवान है?' महर्षि ने उत्तर दिया, 'मैत्रियी वह अमृत है, यह संसार नाशवान है। इसका सुख क्षणिक है, वह स्थायी आनन्द है। उसी की खोज में मैं अपना शेष जीवन व्यतीत कर देना चाहता हूं।' मैत्रियी फिर बोली, 'भगवन यदि धन-धान्य से पूर्ण यह समस्त पृथ्वी मुझे मिल जाए तो क्या मृत्यु मेरा पीछा छोड़ देगी, मैं अमर हो जाऊंगी।' महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा, 'प्रिय मैत्रियी, धन से तो सांसारिक वस्तुओं का ही प्रबंध किया जा सकता है। यह तो शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति, भोग-विलास तथा वैभव का ही साधन है। इससे अमरत्व का कोई सम्बंध नहीं है।' तब मैत्रियी ने कहा, 'यदि ऐसा है तो आप मुझे इससे क्यों बहला रहे हैं। मुझें इसकी आवश्यकता नहीं है। मुझे तो आप उस तत्व का उपदेश दीजिए जिसमें मैं सदा रहने वाला सुख पा सकूं। उसे जान सकूं जिसे जानने के पश्चात कुछ भी जानना शेष नहीं रहता तथा इस आवागमन के चक्र से मुफ्त होकर सदा-सदा के लिए अमर हो जाऊं।' 
महर्षि अपनी पत्नी की सत्य के प्रति जिज्ञासा को जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी पत्नी की प्रशंसा करते हुए कहा, 'हे मैत्रियी, तुम्हारी इस सच्ची लगन को देखकर मैं पहले भी तुमसे प्रसन्न था और तुम्हें प्यार करता था, अब तुम्हारी बातें सुनकर मैं तुमसे बहुत अधिक प्रसन्न हूं, आओ, मेरे पास बैठो, मैं तुम्हें वह ज्ञान दूंगा जिससे वास्तव में तुम्हारी आत्मा का कल्याण होगा और तुम संसार के माया-मोह से सदा के लिए मुफ्त हो जाओगी।' और ऐसा ही हुआ, मैत्रियी ने अपने पति के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके, ईश्वर को पा लिया और उसका मन स्थायी शांति तथा आनन्द से परिपूर्ण हो गया। - आचार्य पण्डित विनोद चौबे संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' मासिक पत्रिका मोबाईल नं. 9827198828

ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्मेति उस कल्याणकारी परमात्मा को जानकर ही भक्त अत्यन्त शान्ति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।