'RIP' उद्घोषक 'प्रेतपूजकों' भूतसंज्ञक आत्माओं को पहचानो.......(पार्ट-1)
!! मातृ देवो भव: !! पितृ देवोभव: !! की अवधारणा वाले इस भारत में 'रीप' यानी 'RIP' अर्थात् 'रेस्ट इन पीस' का कोई वजूद नहीं है फिर भी भारत के कुछ कथित प्रगतिशील अंग्रेजीयत के पैरोकार लोगों द्वारा मृत आत्माओं को 'विनम्र श्रद्धाँजली' की बजाय उन मृत-आत्माओं पर 'RIP' उड़ेल ही डालते हैं, जबकी भारतीय वैदिक संस्कृति तो 'देववाणी' संस्कृत, प्रसंस्कृत और संस्कारोत्पन्न शब्दों से शब्दायमान है, समृद्ध है, व्याप्त है, यही तो हमें औरों से सूदूर एक आध्यात्मिकता से आच्छादित भूमि से भारतीय होने का गौरव दिलाती है !
आईए, आज बात 'आत्मा' पर करते हैं ! साथियों मैं स्पष्ट कर दूं वेदांतीय 'आत्मा' की परिभाषा से अलग ........मेरा स्वयं का जो अनुभव है उसे कह रहा हुं, या व्यक्त कर रहा हुं ! बैंगलोर के प्रवास के चौथे दिवस हम साऊथ बेंगलोर में स्थित अक्षयनगर के 'कुक्के स्वामी राघवेन्द्रम् मंदिर' के समीप में बैठकर कल कार्तिक पुर्णिमा के पूण्य अवसर पर मंदिर कमेटी द्वारा आयोजित कार्यक्रम से 'विठ्ठल पाण्डुरंगा....विठ्ठल पाण्डूरंगा........
का स्वर से बेहद आनंद का अनुभव हो रहा था वहीं श्री स्वाती मीतेश गांधी जी फ्लैट पर कुछ प्रबुद्ध जनों के बीच भूतहा, प्रेतहा, बूरी आत्माएं, भली आत्माएं आदि आदि के बारे में चर्चा हो रही थी ! हां, आप सही सोच रहे होंगे की आचार्य जी आज इक्कीसवीं सदी में भी 'भूत,प्रेत' और 'आत्माओं' की क्या बहकी बहकी बाते कर रहे हैं ! मित्रों आप थोड़ा धैर्य धारण किजीए ये भूत, प्रेत, आत्माएं हमारे ऋग्वैदिक काल से ही अलग-अलग योनियों के रुप में विद्यमान रहीं हैं, और समय समय पर उनका व्यक्ति के जीवन पर भला ही प्रभाव भी पड़ता आ रहा है ! जो कभी अहितकर नहीं रहा ! हां अहितकर रहा भी है तो 'पश्चिमी प्रेतपूजकों के सिंथेटिक प्रेतों से मानसिक व शारीरिक तथा सांस्कृतिक नुकसान हुआ है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण आपको छत्तीसगढ के वनाँचल जशपुर क्षेत्रों के कैथोलिक-प्रभावित आदिवासियों के घरों पर क्रास का स्टीकर या एक अलग प्रकार मसीही झंडा उन आदिवासियों के घरों पर दीख जायेगा, जिसे पादरियों द्वारा इसलिये वहां लगाया जाता है ताकी इससे उन भोले-भाले आदिवासियों के उपर ',प्रेत साया' ऩ प्रभावित कर सके, जो उपरोक्त RIP उद्घोषकों के लिये उनके 'प्रेतपूजक' होने का प्रमाण है ! अब आईए अब आज रविवार पर केन्द्रीत आज आपके लिये पठनीय व ज्ञानवर्धन हेतुक मूल विषय पर आपको लेकर चलता हुं !
'RiP' शब्द के उद्घोषकों शायद आपको पता नहीं है की हमारे ऋग्वैदिक-संस्कृति 'शव को ईश्वर की प्रतिक्षा में रेस्ट यानी आराम नहीं कराया जाता' रेस्ट इन पीस अर्थात् 'RIP' को समझना चाहते हो तो हे लैटीन भक्तों लो आप लोग समझो ...Rest in peace" (Latin: Requiescat in pace (Classical Latin:) अब तो आपको समझ में आ ही गया होगा, कैथोलिक या रोमन लोग इसे क्यों प्रयोग करते हैं, इसलिए प्रयोग करते हैं क्योंकि यह स्वत: 'प्रेतपूजक' हैं , क्योंकी यह उस शव को जलाते नहीं बल्कि मिट्टी में विश्राम कराते हैं और उनके बरसी पर दो-चार मोमबत्ती जलाकर आ जाते हैं, जबकी हमारे यहां सनातनावलंबियों में तो दाह संस्कार, दग्ध संस्कार या अन्त्येष्टि संस्कार के दौरान 'हिंकाराय स्वाहा, हिंकृताय स्वाहा.....आदि वैदिक मंत्रों जलाया जाता है ! ऐसे में हमारे यहां नीचताई करने वाले या अन्यों को संत्राण वाली बूरी आत्माएं नहीं होती हमारे यहां तो यदि किसी स्वजन का अपमृत्यु या दैवयोगात् किसी सत्कर्म करते वक्त हादसे के शिकार या वीरगति को प्राप्त करते हैं ऐसी आत्माओं को स्त्री होने पर वह 'कुलदेवी' या पुरुष होने पर 'कुलदेवता' के रुप में पूजा जाता है, ना की 'प्रेत' रुप में ! जो कभी भी हर हाल में अपने परिजनों का वे कल्याण ही करते हैं ऐसे में कहीं कहीं इनका नाम 'भूतसंज्ञक' भी है जिनके 'अधीप' स्वत: 'गणेश' जी हैं जैसा की आपने पढ़ा होगा 'गजाननम् भूत गणादि सेवितम्...! ब्राह्मयज्ञों को करने वाले उत्तर भारत में जिनको 'बरम बाबा' या ' बिहार के भभूआं जिले के चैनपुर गांव में 'हर्षु ब्रह्म स्थान' हो या बिहार के सिवान जिले में स्थित 'मैरवां के हरेराम बाबा' हों भारत में बहुत प्रतिष्ठित व सर्वमान्य पूज्य ब्रह्म हुए ! वहीं भारत-चीन सीमा 'नाथूला' बॉर्डर पर लड़ते लड़ते शहीद हुए ''बाबा हरभजन सिंह'' जी का मंदिर है जहां भारतीय सेना उनकी मौजूदगी का अहसास करती हुई उनकी बाकायदे पूजा करती है, और 'बाबा हरभजन सिंह की आत्मा आज भी देश की सीमा की बखूबी दुश्मनों से रक्षा करते हैं..ऐसे ढेर सारे 'भूतसंज्ञक-आत्माओं' के उदाहरण मिल जायेंगे जो.मरने के बाद भी जनकल्याण में लगे हुए हैं...यह विषय बहुत लंबा है अत: कल इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए.. आप लोगों को 'आत्मा' को कैसे पहचाना जा सकता है, इसका तरीका क्या है तथा पितृलोक में हनुमानजी द्वारा अंगद की आत्मा को कैसे पहचाना गया..और इन संदर्भों का ज्योतिष तथा पुराणेतिहास सहित वैदिक वांगमय से इनका क्या जुड़ाव है ? आदि आदि विषयों पर हम कल सोमवार को आपके समक्ष एक आलेख रखूंगा....
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे
संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य'
राष्ट्रीय मासिक पत्रिका
शांतिनगर, भिलाई, जिला-दुर्ग
छ.ग. मोबाईल नं. 9827198828
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