मित्रों, नमस्कार
आपके मन मे बार बार सवाल उठता होगा की 'संस्कृति' है क्या ? जिसका हम बार बार, हर बार, प्रत्येक आलेख में जिक्र करते ही रहता हुं ! हालाकी यह विषय तो बहुत विशाल है, वट वृक्ष जैसी कई शाखाएं हैं जो जड़ों की ओर जाकर पुन: एक नया वट पौध खड़े कर लेती है, शायद जिसका अहसास उसके आस पास रहने वाला व्यक्ति नहीं कर सकता !
!! वंदे मातरम !! साथियों, भारतीय धर्मग्रंथों में भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा की चर्चा की गई है, जिसमें कहा गया है 'भारतस्य प्रतिष्ठा द्वे संस्कृति संस्कृतस्तथा' इस धरातल पर यदि भारतीय भू-भाग की प्रतिष्ठा है तो वह है यहां की भाषा 'संस्कृत' तथा यहां की पारस्परिक भाईचारा वाली 'संस्कृति' ! दु:खद बात यह है मित्रों आज तक सर्वाधिक प्रहार इन्हीं दोनों पर किया गया ! अभी बैंगलोर के बनलगड्डा में ही हुं, यहां नयी सोच व नयी जोश तथा बेहद व्यस्ततम दिनचर्या है ! जोश़ है खरोस़ है ईडली है, डोसा है और ईमली के रस में भिगोया सांबर है, जिसको आज श्रीमती 'स्वाती मीतेश गांधी' जी ने बनाकर खिलाया भी और बगल के 'कुक्के स्वामी राघवेन्द्र मठ' मंदिर से मृद़ंग की थाप पर सप्तर्षि आरती जो मंदिर के पूजारियों द्वारा कृष्णयजुर्वेदीय वैदिक मंत्रों का ह्रस्व,दीर्घ और प्लूत का साहचर्य उच्चारण सुनाई देता है यही तो हमारी संस्कृति ! ऐसा नहीं की शिक्षाधानी भिलाई की संस्कृति इससके कमतर है, क्योंकि मेरी कर्मभूमि भिलाई को अंगीकार कर मुझे अहसास होता है कि बस्तर से भिलाई तक की संस्कृति वह तत्व है जो दण्डकारण्य को परिभाषित कर "राम चरित्र'' को प्रतिष्ठित करता है, यह कहना लाज़मी होगा की मैं अपने निवास भिलाई के शांतिनगर से जब दूर यात्रा पर होता हुं, चाहे वह समाज कार्य के उद्देश्य से या उदर-पोषण के लक्ष्य से तो मुझे बरबर पुन: छत्तीसगढ की धरती आकर्षित करती है, यदि भारत से दूर किसी अन्य देश की यात्रा पर होता हुं तो 'भारत' मां मुझे अपनी ओर बरबस ही खिंचती हैं, जानके है ऐसा क्यों होता है क्योंकि 'राम' इस देश के वह सामाजिक 'तत्व' हैं जिससे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को अपने अस्तित्व को सुरक्षित , संरक्षित एवं विकसित करने का नया आधार मिलता है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हुं क्योंकि दुनिया में जीतने भी देश हैं उन देशों की उनकी स्वयं की कोई मौलिक संस्कृति नहीं है, और है भी तो वह आयातीत रही हैं, परिवर्तनीय रही है ! लेकिन भारत की अपनी संस्कृति है, जो ज्योतिषीय कालगणना के मुताबिक लगभग १ अरब पंचानबे लाख पांच हजार एक सौ अठ्ठारह वर्षों के पूर्व से भी आज आठवें मनवंतर के अठ्ठाईसवें चतुर्युगी के कलियुग के प्रथम चरण में भी अक्षुण्ण है, अडीग, स्थिर है, यहां की ऋषित्व परंपरा इतना वैभवशाली है जो हम सबको आपस मे एक दूसरे से सहयोग, सहकार एवं संवेदनशील सम्बन्धो की डोरी से बांधे रखती है। हम आपस में चाचा, भाई, मामा, काका तथा बुआ और फूफा के बंधन में ऐसे बंधे हैं जो कभी भग्न नहीं हो सकती क्योंकि अपनी संस्कृति मूल्यपरक है, हम मूल्यों को निभाना भी जानते हैं, जो हमे इंसानियत की भाषा सीखाती क्योंकि जिस भाषा को 'देववाणी' या 'देवभाषा' कहा गया जहां सम्यक रुप से वगैर भेद-भाव के वनाञ्चल के दुरुह कन्दराओं में वनौषधियों के सूखे पत्तों का चर्वण कर सर्वे भवन्तु सुखिन:...और 'भद्रं कर्णेभि:...' का गायन करते हैं, इसी ऋषि परम्परा की वज़ह से आजतक हमारी संस्कृति कट्टरता और ज़िहादवाद तो आना दूर की बात है, कभी ऐसे शब्द भी नहीं आये.. यही तो है जो औरों से हमे अलग महान बनाती है, इंसान को विकसित कर उसके अंदर ऋषित्व और देवत्व पैदा करती है। व्यावहारिक वह आध्यात्मिक मूल्यों की पाठ पढ़ाती है, जिससे इंसान परमात्मा के संग साहचर्य एवं तादात्म्य स्थापित कर जीवन मे सत्य एवं सौन्दर्य को अभिव्यक्त कर सके, परन्तु विडम्बना है कि वर्तमान के इस नव उदारवादी भूमंडलीकरण से जो बाजार मूल्य पैदा हुआ है, उससे इंसान क्रय विक्रय की वस्तु बन गया है। यहां रिश्तों को भी हानि-लाभ की तराजू पर तौला जाने लगा है ! २४ घंटे शताधिक टीवी चैनलों पर आने वाले सीरीयलों में ऐसी ऐसी 'सास, बहु और साजिशों के करतब दिखाये जाते हैं जो इंसानी चरित्र के नहीं बल्कि शैतानी चरित्र जैसा अनुभव कराते हैं !
जबकी भारतीय संस्कृति का केंद्र वह इंसान है, जिसके अंदर ईश्वरीय अंश विद्यमान है; जिसके अन्दर आध्यात्मिक आभा है, शास्त्रवेत्ता प्रतिभा है, जिसके अंदर दुसरो के सुख-दुख को समझने एवं अनुभव करने की क्षमता होती है; ऐसा विवेक होता है, जो उचित एवं अनुचित के बीच भेद कर सके और हमारे विरोध के बावजूद साहस के साथ उचित को अपना सके। इस संस्कृति का मुख्य उद्देश्य इंसान का निर्माण करना और नवनिर्मित इंसान को सतत विकसित कर ऋषियों के समान बना देना है, जो संस्कृति तत्वों को अपनी प्रबल प्रेरणा तपस्या से पोषित और पराक्रमीय यात्रा 'चरैवेति चरैवेती' से तोषित करता है; अर्थात संस्कृति एक नया इंसान गढ़ती है; ऋशित्व प्रदान करती है, तो ऋषि , संस्कृति को अपने प्राणों से सींचकर अक्षुण्ण बनाए रखता है। इसमें इंसान के विकास के साथ समाज एवं राष्ट्र के विकास की समस्त सम्भवनाए सन्निहित होती है।
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई, मोबाईल नं 9827198828
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