ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

!!विशेष सूचना!!
नोट: इस ब्लाग में प्रकाशित कोई भी तथ्य, फोटो अथवा आलेख अथवा तोड़-मरोड़ कर कोई भी अंश हमारे बगैर अनुमति के प्रकाशित करना अथवा अपने नाम अथवा बेनामी तौर पर प्रकाशित करना दण्डनीय अपराध है। ऐसा पाये जाने पर कानूनी कार्यवाही करने को हमें बाध्य होना पड़ेगा। यदि कोई समाचार एजेन्सी, पत्र, पत्रिकाएं इस ब्लाग से कोई भी आलेख अपने समाचार पत्र में प्रकाशित करना चाहते हैं तो हमसे सम्पर्क कर अनुमती लेकर ही प्रकाशित करें।-ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे, सम्पादक ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका,-भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं.09827198828
!!सदस्यता हेतु !!
.''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के 'वार्षिक' सदस्यता हेतु संपूर्ण पता एवं उपरोक्त खाते में 220 रूपये 'Jyotish ka surya' के खाते में Oriental Bank of Commerce A/c No.14351131000227 जमाकर हमें सूचित करें।

ज्योतिष एवं वास्तु परामर्श हेतु संपर्क 09827198828 (निःशुल्क संपर्क न करें)

आप सभी प्रिय साथियों का स्नेह है..

रविवार, 26 नवंबर 2017

हे ! अडायमंड-बुक-स्टॉलीय-अध्ययन-कर्ता-ज्योतिष-मर्मज्ञ-रावण-प्रशंसक ज्योतिषाचार्य महाशय रावण ना ही वेदज्ञ था ना ही दैवज्ञ

मैं बार बार हर बार कहता हुं कि रावण की विद्वता वेद के रक्षण हेतु नहीं वरन् क्षरण हेतु था ! रावण की तपस्या लोक कल्याणार्थ नहीं स्व-कल्याणार्थ था ! रावण वैदिक सिद्धांतो का आरोहक नहीं अपितु विद्रोही था ! मैंने भिलाई निवासी एक रावण के प्रशंसक और पेशे से ज्योतिषाचार्य जी से इसी विषय पर विशद चर्चा होने लगी वे महाशय बेताब थेरावण को आदर्श-चरित की व्याख्या करने को ! मैंने उनसे बार बार इस बात को कहता रहा मित्रवर आप इस बात को समझिये वह रावण स्वयं को लोकपाल बनने की बनने के लिये मां सीता का हरण किया, चक्रवर्ती शासक बनने की चाह ने उसे शिवभक्त बनाया, यह स्वाभाविक भक्ति या प्राकृतिक तपस्वी नहीं कहा जा सकता ! अपने भाई कुबेर के समतूल्य ज्ञानी बनकर लोकाधिपति बनने के लिए वह वेदज्ञ बना, वेदज्ञ होते हुए रावण ने अवधूत क्रिया और तामस यज्ञ और त्राटक आदि प्रयोग किया करता था जबकी एक वेदज्ञ इन कार्यों से मुक्त होते हैं ! हे ! ज्योतिषाचार्य पण्डित जी सम्भवत: आपको ज्ञात होगा की मैं स्वत: 'रावण संहिता' का अध्ययन किया हुं उसमें कहीं पर भी लोक कल्याणार्थ चर्चा की तो बातें दूर, वह परकिया-तंत्र क्रिया कलापों से किसी व्यक्ति के जीवन को अवरोधित करने के माकुल उपाय बताये गये हैं ! कहीं आत्मा से परमात्मा की बातें नहीं की गई हैं ! और हे अडायमंड-बुक-स्टॉलीय-अध्ययन-कर्ता-ज्योतिष-मर्मज्ञ-रावण-प्रशंसक ज्योतिषाचार्य महाशय, आपको शायद ज्ञात नहीं रावण सिर्फ स्व-जन-हिताय कार्य किया ! उपनिषदों में कहीं भी ब्रह्म-निरुपण संबंधित रावण का कहीं कोई उपाख्यान नहीं मिलता इसलिये हे प्रभु आप रावण को दैवज्ञ या वेदज्ञ ना कहें ! और आईये आगे आपको उसके जन्म से लेकर उसके भ्रातृजनों के बारे में आपको विस्तृत बताता हुं !

रावण एक ऐसा योग है जिसके बल से सारा ब्रम्हाण्ड कांपता था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि वो रावण जिसे राक्षसों का राजा कहा जाता था वो किस कुल की संतान था। रावण के जन्म के पीछे के क्या रहस्य है? इस तथ्य को शायद बहुत कम लोग जानते होंगे। रावण के पिता विश्वेश्रवा महान ज्ञानी ऋषि पुलस्त्य के पुत्र थे। विश्वेश्रवा भी महान ज्ञानी सन्त थे। ये उस समय की बात है जब देवासुर संग्राम में पराजित होने के बाद सुमाली माल्यवान जैसे राक्षस भगवान विष्णु के भय से रसातल में जा छुपे थे।

वर्षों बीत गये लेकिन राक्षसों को देवताओं से जीतने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। एक दिन सुमाली अपनी पुत्री कैकसी के साथ रसातल से बाहर आया, तभी उसने विश्वेश्रवा के पुत्र कुबेर को अपने पिता के पास जाते देखा। सुमाली कुबेर के भय से वापस रसातल में चला आया, लेकिन अब उसे रसातल से बाहर आने का मार्ग मिल चुका था। सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री मैं तुम्हारे लिए सुयोग्य वर की तलाश नहीं कर सकता इसलिये उसे स्वयं ऋषि विश्वेश्रवा के पास जाना होगा और उनसे विवाह का प्रस्ताव स्वयं रखना होगा।

पिता की आज्ञा के अनुसार कैकसी ऋषि विश्वेश्रवा के आश्रम में पहुंच गई। ऋषि उस समय अपने संध्या वंदन में लीन थे आंखें खोलते ही ट्टषि ने अपने सामने उस सुंदर युवती को देखकर कहा कि वे जानते हैं कि उसके आने का क्या प्रयोजन है? लेकिन वो जिस समय उनके पास आई है वो बेहद दारुण वेला है जिसके कारण ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने के बाद भी उनके पुत्रा राक्षसी प्रवृत्ति के होंगे।

तब कैकसी ऋषि चरणों में गिरकर बोली आप इतने महान तपस्वी हैं तो उनकी संतान ऐसी कैसे हो सकती है आपको संतानों को आशीर्वाद अवश्य ही देना होगा। तब कैकसी कि प्रार्थना पर ऋषि विश्वेश्रवा ने कहा कि उनका सबसे छोटा पुत्र धर्मात्‍मा प्रवृत्ति का होगा। इसके अलावा वे कुछ नही कर सकते। कुछ समय पश्चात् कैकसी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसके दस सिर थे। ऋषि ने दस शीश होने के कारण इस पुत्र का नाम दसग्रीव रखा।
इसके बाद कुंभकर्ण का जन्म हुआ जिसका शरीर इतना विशाल था कि संसार मे कोई भी उसके समकक्ष नहीं था । कुंभकर्ण के बाद पुत्री सूर्पणखा और फिर विभीषण का जन्म हुआ। इस तरह दसग्रीव और उसके दोनो भाई और बहन का जन्म हुआ।

नीचे तस्‍वीरों के सामने दिये संक्षिप्‍त विवरण में छिपे हैं 10 रहस्‍य।

रावण ने क्‍यों की ब्रह्मा की तपस्‍या ?

ऋषि विश्वेश्रवा ने रावण को धर्म और पांडित्य की शिक्षा दी। दसग्रीव इतना ज्ञानी बना कि उसके ज्ञान का पूरे ब्रह्माण्ड मे कोई सानी नहीं था। लेकिन दसग्रीव और कुंभकर्ण जैसे जैसे बड़े हुए उनके अत्याचार बढ़ने लगे। एक दिन कुबेर अपने पिता ऋषि विश्वेश्रवा से मिलने आश्रम पहुंचे तब कैकसी ने कुबेर के वैभव को देखकर अपने पुत्रों से कहा कि तुम्हें भी अपने भाई के समान वैभवशाली बनना चाहिए। इसके लिए तुम भगवान ब्रह्मा की तपस्या करो।

माता की अज्ञा मान तीनों पुत्रा भगवान ब्रह्मा के तप के लिए निकल गए। विभीषण पहले से ही धर्मात्मा थे, उन्होने पांच हजार वर्ष एक पैर पर खड़े होकर कठोर तप करके देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त किया इसके बाद पांच हजार वर्ष अपना मस्तक और हाथ उफपर रखके तप किया जिससे भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए विभीषण ने भगवान से असीम भक्ति का वर मांगा।

   
क्‍यों सोता रहा कुंभकर्ण

कुंभकर्ण ने अपनी इंद्रियों को वश में रखकर दस हजार वर्षों तक कठोर तप किया उसके कठोर तप से भयभीत हो देवताओं ने देवी सरस्वती से प्रार्थना कि तब भगवान वर मांगते समय देवी सरस्वती कुंभकर्ण की जिव्हा पर विराजमान हो गईं और कुंभकर्ण ने इंद्रासन की जगह निद्रासन मांग लिया।
‘शारद प्रेरि तासु मति पफेरी मांगिस नींद मांस खटकेरी'।

रावण ने किससे छीनी लंका?

दसग्रीव अपने भाइयों से भी अधिक कठोर तप में लींन था। वो प्रत्येक हजारवें वर्ष में अपना एक शीश भगवान के चरणों में समर्पित कर देता। इस तरह उसने भी दस हजार साल में अपने दसों शीश भगवान को समर्पित कर दिया उसके तप से प्रसन्न हो भगवान ने उसे वर मांगने को कहा तब दसग्रीव ने कहा देव दानव गंधर्व किन्नर कोई भी उसका वध न कर सके वो मनुष्य और जानवरों को कीड़ों की भांति तुच्छ समझता था इसलिये वरदान मे उसने इनको छोड़ दिया। यही कारण था कि भगवान विष्णु को उसके वध् के लिए मनुष्य अवतार में आना पड़ा। दसग्रीव स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने लगा था। रसातल में छिपे राक्षस भी बाहर आ गये। राक्षसों का आतंक बढ़ गया। राक्षसों के कहने पर लंका के राजा कुबेर से लंका और पुष्पक विमान छीनकर स्वयं बन गया लंका का राजा।

कालजयी नहीं था रावण?

रावण के वरदान की शक्ति थी वो जानता था कि देवता भी उसे नहीं मार सकते। इसलिए उसने सोचा क्यों न काल को ही बंदी बना लिया जाए। शक्ति के मद में चूर रावण ने यमलोक पर आक्रमण कर दिया भीषण युद्ध हुआ देवता रावण के वरदान के आगे शक्तिहीन हो रहे थे। यमराज ने स्वयं रावण से युद्ध किया रावण भी रक्तरंजित हो चुका था। लेकिन फिर भी उसने हार नहीं मानी तब क्रोधित यमराज ने रावण वध के लिए अपना काल दण्ड उठा लिया। तब ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर यमराज को अपने वरदान के बारे में बताया। यमराज ने ब्रह्मा जी की आज्ञानुसार अपना कालदण्ड वापस ले लिया। रावण को लगा कि उसने ये विजय अपनी शक्ति से पाई है। उसे अब और घमंड हो गया था वो स्वयं को कालजयी मानने लगा था। पृथ्वी पर उसका आतंक और बढ़ गया था। लेकिन पृथ्वी पर भी रावण को पराजित करने वाले और भी योद्धा थे।

कैसे दसग्रीव का नाम रावण पड़ा?

दसग्रीव ने नंदी के श्राप और चेतावनी को अनसुना कर दिया और आगे बढ़ा । अपने बल के मद में चूर दसग्रीव ने जिस पर्वत पर भगवान शिव विश्राम कर रहे थे। उस पर्वत को अपनी भुजाओं पर उठा लिया। जिससे भगवान शंकर की तपस्‍या भंग हो गई और भगवान ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया । पर्वत के नीचे दसग्रीव की भुजाएं दब गईं वो पीड़ा से इस तरह रोया कि चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। तब रावण ने मंत्रियों की सलाह पर एक हजार वर्षों तक भगवान शिव की स्तुति की। भगवान शिव ने दसग्रीव से प्रसन्न होकर उसे अपनी चंद्रहास खड्ग दी और कहा कि तुम्हारे रुदन से सारा विश्व कराह उठा इसलिये तुम्हारा नाम रावण होगा। रावण का अर्थ रुदन होता है। तबसे दसग्रीव रावण के नाम से प्रचलित हुआ।

  
बालि ने भी हराया था रावण को

एक बार रावण भ्रमण करता हुआ महिष्मतीपुरी पहुंचा। इस अत्यंत सुंदर नगरी का राजा था सहस्रार्जुन। रावण ने इस नगरी पर अधिकार जमाने के लिये आक्रमण कर दिया। सहस्रार्जुन ने इस युद्ध में रावण को आसानी से हरा दिया वो चाहता तो रावण को मार भी सकता था लेकिन सहस्रार्जुन ने अपने पूज्य पुलस्त्य ऋषि का वंशज होने के कारण बंदी बना लिया। जिसकी कैद से मुक्त कराने के लिए पुलस्त्य ऋषि स्वयं पृथ्वी पर आए और रावण मुक्त हो गया। बालि से भी रावण की पराजय का विवरण ग्रंथों में मिलता है। कहा जाता है कि किष्किन्ध के राजा बालि ने रावण को अपनी बांह में दबाकर सात समुद्रों की यात्रा की थी। लेकिन तब रावण ने अपनी कुटिल ब‍ुद्धि का प्रयोग कर बालि को अपना मित्रा बना लिया था। इस तरह रावण शक्तिशाली तो था लेकिन पराजय का स्वाद उसने भी चखा था।

 
रावण के वध का कारण बनीं स्त्रियां?

यदि गौर करें तो रावण के वध् का कारण स्त्रियां ही बनीं। चाहे वह सीता हों या पिफर सूर्पणखा। ग्रन्थों में इसके पीछे भी रहस्य मिलता है। रावण एक बार हिमालय वन में विचरण कर रहा था तभी उसने वहां वेदवती नामक एक तपस्वनी को तपस्या में लीन देखा। रावण उस तपस्वनी को देखकर उस पर आशक्त हो गया और उसने वेदवती नामक उस तपस्वनी के केश पकड़कर उसे साथ ले जाने लगा। वेदवती ने अपने केश काटकर रावण को श्राप दिया कि तुम्हारे और तुम्हारे कुल के नाश का कारण स्त्रियां होंगी।

  
क्यों बनी वानरों की सेना?

अब सवाल ये उठता है कि जब श्री राम विष्णु अवतार थे तो रावण को मारने के लिए वे सर्वशक्तिशाली सेना का प्रयोग कर सकते थे लेकिन उन्हाने वानरों की ही सेना का निर्माण क्यों किया? इसके पीछे भी एक रहस्य मिलता है। शक्ति और ऐश्वर्य से घिरा दसग्रीव खुद को भगवान समझने लगा था। पूरे ब्रह्माण्ड को वह अपने अधीन मानता था । एक बार दसग्रीव अपनी शक्ति के मद में चूर पुष्पक विमान से विचरण करता हुआ सरकण्डा के वन में पहुंचा कुछ दूरी पर पहुंचने के बाद उसका विमान आगे नहीं बढ़ रहा था। तभी उसे एक आवाज सुनाई दी कि यहां से लौट जाओ भगवान शिव और माता पार्वती यहां विश्राम कर रहे हैं। तेज रौशनी में दसग्रीव को भगवान शंकर के दूत नंदी का मुख वानर के समान प्रतीत हुआ। दसग्रीव ने वानर कहकर नंदी का परिहास किया तब नंदी ने उसे श्राप दिया और कहा कि तुमने वानर कहकर मेरा उपहास किया है तो वानरों की सेना ही तुम्हारे वध में सहायक होगी।

रावण ने सीता जी से कभी जबर्दस्‍ती नहीं की

रावण इतना बलशाली था लेकिन पिफर भी वो सीता से विवाह करने की याचना करता था। जबकि त्रिलोक के बड़े बड़े वीर उसके आगे कांपते थे चाहता तो वो जबरन विवाह कर सकता था। लेकिन रावण सीता से चाहकर भी विवाह नहीं कर सकता था क्योंकि उसे श्राप था। एक बार रावण आकाश मार्ग से विचरण करता हुआ जा रहा था तभी उसने एक सुन्दर अप्सरा को देखा वो अप्सरा नल कुबेर की प्रेयसी थी। रावण ने उस अप्सरा को अपनी राक्षसी प्रवृत्ति का शिकार बना डाला। नल कुबेर को जब रावण के इस कुकृत्य का पता चला तो उसने रावण का श्राप दिया कि यदि वो किसी भी स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध छुएगा तो उसके मस्तक के सात टुकड़े हो जाएंगे। यही कारण था कि रावण सीता से बार-बार प्रणय याचना करता था, उसने सीता के साथ कभी जबर्दस्‍ती नहीं की। 

श्री राम ने रावण के सीने में क्‍यों नहीं चलाया तीर?

राम और रावण में घमासान युद्ध चल रहा था राम रावण के शीश काट रहे थे। तब सभी के मन में सवाल था कि आखिर श्री राम रावण के हृदय पर तीर क्यों नहीं चला रहे। देवताओं ने ब्रह्मा जी से यही प्रश्न किया। तब भगवान ब्रह्मा ने कहा कि रावण के हृदय में सीता का वाय है, सीता के हृदय में राम वास करते हैं और राम के हृदय में सारी सृष्टि है। ऐसे में यदि श्री राम रावण के हृदय पर तीर चलाते तो सारत सृष्टि नष्ट हो जाएगी। जैसे ही रावण के हृदय से सीता का ध्यान हटेगा वैसे ही श्री राम रावण का संहार करेंगे। इसलिये विभीषण जब रावण के वरदान का रहस्य बताने जब श्री राम के पास पहुंचे तो रावण के हृदय से सीता का ध्यान हट गया। फिर भगवान राम ने आतातायी राक्षस की नाभि पर तीर चलाकर वध किया। रावण वध का यही दिन दशहरा या विजयादशमी कहलाया।
-आचार्य पण्डित विनोद चौबे
(फलित ज्योतिष एवं नव्य व्याकरण से आचार्य) संपादक- "ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका मोबाईल नं.9827198828

कोई टिप्पणी नहीं: