ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पुनरुद्धार के लिए 'अंधा कानून' की जरुरत नहीं 'महाभारत-कालीन-संविधान' चाहिए..

श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पुनरुद्धार के लिए 'अंधा कानून' की जरुरत नहीं 'महाभारत-कालीन-संविधान' चाहिए..
-आचार्य पण्डित विनोद चौबे,9827198728,
"मित्रों, आज श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर के पुनरुद्धार के लिये राम के ही देश भारत के हिन्दू समुदाय न्यायालय के ड्योढ़ी पर दर दर की ठोकरें खा रहे हैं ! जबकी  पुरातात्विक अनुसंधान में पाये गये हर वो निर्जीव पत्थर श्रीरामजन्मभूमि के सजीवता का प्रमाण दे रहे हैं, भारतीय इतिहास के हर वो पन्ने चीख-चीख यही उद्घोष कर रहे हैं की अयोध्या में रामलला का वही स्थान श्रीराम जन्मभूमि है, बावजूद हम बहुसंख्यक हिन्दुओं को जाति-पांति तथा वर्ग, वर्ण, भाषाई आधार पर विभाजित करने वाले भारतीय काले अंग्रेजो ने अयोध्या मंदिर के मुद्दे को ऐसा विवादित किया की उन्हे बार-बार सत्ता प्राप्त करने में सहायता दिया ! आज जब प.पू. आदरणीय मोहन भागवत जी ने स्पष्ट किया की वहीं श्रीराममंदिर बनेगा, तो इस मुद्दे पर वही चीख पुकार मच गई, और ओवैसी जैसे लोग सुप्रीमकोर्ट में चल रहे सुनवाई का हवाला देते हुए, कोर्ट के वगैर फैसले आये भागवत जी ने फैसला सुना दिया ! जनाब ओवैसी ! जब तुम इतना मस्जिद-प्रेमी स्लाम हितैषी हो तो कल मिस्त्र के एक मस्जिद मे हुए बम धमाकों मरे  235 लोगो को और मस्जिद को बचाने की वकालत क्यों नहीं करते ! जबकी  अयोध्या में तो सहस्त्रों साक्ष्य हैं की वहां मंदिर ही था, इब्राहीम लोधी के मामा दौलत खान लोधी के बुलावे भारत आये चोर शासक  व आक्मणकारी बाबर से ओवैसी तुमसे इतना प्रेम हो गया, जिसने महज चार वर्षिय बाबर के शासनकाल में उसके सेनापति मीर बांकी ने मंदिर के उपरी हिस्से को तोड़कर केवल गुंबज बनाया था ! अरे ओवैसी तुम्हारे अन्दर इतनी ताकत है तो, भारत के अलावां अन्य देशों में गिराये गये मस्जिदों  में से किसी एक को बनवाकर तो दिखाओ ! हम तो यूएई अरब में  भी भव्य मंदिर बना रहे हैं ! दरअसल तुम्हारे उपर तो देशद्रोही का मुकदमा चलाया जाना चाहिए !  लेकिन क्या करोगे "कॉपी-पेस्ट" कानून से तुम लोग जैसे वकील हमेशा खिलवाड़ करते रहते ही हैं, यही भारतीय कानून यदि 'महाभारत कालीन -संविधान' होता तो ओवैसी,तुम जैसे देशद्रोही और गद्दार लोग भरत मे एक क्षण भी नहीं रह पाते ! - आचार्य पण्डित विनोद चौबे ,संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, मोबाईल नं- 9827198828, Bhilai

   महाभारत के आदिपर्व के ‘आस्तीक’ प्रकरण में पढ़ने को मिले हैं । उक्त प्रकरण अर्जुन के प्रपौत्र, अभिमन्यु के पौत्र, एवं परीक्षित् के पुत्र राजा जनमेजय के सर्पयज्ञ को ऋषि आस्तीक द्वारा निष्प्रभावी किये जाने से संबद्ध है । मैं संबंधित कथा का उल्लेख नहीं कर रहा हूं । केवल इतना बता दूं कि एक बार जंगल में वन्य जन्तुओं का शिकार करते हुए थके-हारे राजा परीक्षित् ने मौनव्रत के साथ तप में तल्लीन ऋषि शमीक के कंधों पर उनसे प्रत्युत्तर न पा सकने से क्रुद्ध होकर मृत सर्प डाल दिया था । घटना से क्षुब्ध ऋषिपुत्र शृंगी ने राजा परीक्षित् को शाप दे डाला था कि तक्षक नाग के डसने से उसकी मृत्यु होवे । बाद में ऋषि शमीक ने पुत्र शृंगी को समझाते हुए परीक्षित् की बतौर राजा के प्रशंसा की और शासन के लिए राजा के होने और उसके दण्ड के अधिकार से सज्जित रहने की महत्ता की बात की । उसी संदर्भ में कहे गए वचनों में से मैंने अधोलिखित तीन श्लोक चुने हैं (महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 41):

अराजके जनपदे दोषा जायन्ते वै सदा ।
उद्वृत्तं सततं लोकं राजा दण्डेन शास्ति वै ॥२७॥
(अराजके जनपदे सदा वै दोषाः जायन्ते, राजा सततम् उद्वृत्तम् लोकम् दण्डेन वै शास्ति ।)
जिस प्रदेश में समुचित राजकीय व्यवस्था का अभाव हो वहां प्रजा में दोष या अपराध की प्रवृत्ति घर कर जाती है । उच्छृंखल या उद्धत जनसमूह को राजा ही दण्ड के प्रयोग द्वारा निरंतर अनुशासित रखता है ।

आज के युग में राजा की जगह चुने गये शासकों ने ले ली है । किंतु अपराध रोकने और अपराधियों को दण्डित करने का उनका कर्तव्य यथावत् है । दुर्भाग्य से आज हमारे देश में अपराधी को सजा देने का कार्य त्वरित एवं निर्णायक तरीके से नहीं हो रहा है ।

दण्डात् प्रतिभयं भूयः शान्तिरुत्पद्यते तदा ।
नोद्विग्नश्चरते धर्मं नोद्विग्नश्चरते क्रियाम् ॥२८॥
(दण्डात् भूयः प्रतिभयम्, तदा शान्तिः उत्पद्यते, उद्विग्नः धर्मम् न चरते, उद्विग्नः क्रियाम् न चरते ।)
दण्ड यानी सजा की व्यवस्था अधिकांशतः भय पैदा करता है और तब शान्ति स्थापित होती है । उद्विग्न या बेचैन व्यक्ति धर्माचरण नहीं करता है, और न ही ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाता है ।

जब दण्डित होने का भय समाज में रहता है तब लोगों में अपराध करने का साहस सामान्यतः नहीं होता है । समाज में सुरक्षा और निश्चिंतता की भावना व्याप्त रहती है । लोग उचित-अनुचित के विवेक के साथ अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाते हैं ।

राज्ञा प्रतिष्ठितो धर्मो धर्मात् स्वर्गः प्रतिष्ठितः ।
राज्ञो यज्ञक्रियाः सर्वा यज्ञात् देवाः प्रतिष्ठिताः ॥२९॥
(राज्ञा धर्मः प्रतिष्ठितः, धर्मात् स्वर्गः प्रतिष्ठितः, राज्ञः सर्वाः यज्ञक्रियाः, यज्ञात् देवाः प्रतिष्ठिताः ।)
राजा के द्वारा धर्म प्रतिष्ठित होता हैं और धर्म के माध्यम से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । राजा के द्वारा ही सभी यज्ञकर्म संपन्न होते हैं और यज्ञों से ही देवतागण प्रतिष्ठित होते हैं ।

प्रथम दो श्लोकों की बातें इसी भौतिक संसार के संदर्भ में महत्त्व रखती हैं । तीसरे श्लोक में दण्ड के समुचित प्रयोग की महत्ता परलोक एवं दैवी शक्तियों के संदर्भ में कही गयी है । भारतीय दर्शन के अनुसार स्वर्ग एवं नरक जैसे परलोकों का अस्तित्व है और मनुष्य के ऐहिक कर्म ही उसके परलोक का निर्धारण करते हैं । अमूर्त दैवी शक्तियों के अस्तित्व का भी भारतीय दर्शन में स्थान है । मनुष्य के कर्म उनके प्रसाद या रोष का आधार होते हैं । चूंकि राजा लोगों को दण्ड के माध्यम से सत्कर्म में लगाए रहता है, अतः स्वर्गलोक के लिए वही परोक्षतः सहायक बनता है । सामान्यतः यज्ञ का अर्थ देवताओं को प्रसन्न करने के लिए प्रज्वलित अग्नि में डाली जाने वाली घृतादि की आहुति के कर्मकाण्ड से लिया जाता है । किंतु यज्ञ का अर्थ अधिक व्यापक भी माना जाता है । विविध प्रयोजनों के लिए किए जाने वाले कर्मों को भी यज्ञ में ही शामिल किया जाता है ।
उक्त बातों का तात्पर्य यह है कि समाज पर शासन करने का दायित्व जिन पर हो उनका कर्तव्य है कि वे ओवैसी, फारुख अब्दुला जैसे लोग जो संवैधानिक पदों पर बैठकर भारत में नफरत की आग लगाना चाहते ऐसे लोगों पर महाभारत-कालीन-संविधान के दण्ड से दण्डित करना चाहिए ! साथ ही ऐसे लोगों का साथ देने वाले अनुचित कार्यों में लिप्त लोगों को दण्डित करके आम जन को सुरक्षा का भरोसा दें । और तदनुसार दण्ड की प्रक्रियओं में दण्डाधिकारी गणों का सापेक्ष सहयोग भी देना चाहिए।
-आचार्य पण्डित विनोद चौबे ,
संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई, 9827198828

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