मित्रों, नमस्कारोमि प्रणमामि/सुप्रभात/ यथायोग्य मंगलमयी शुभाशीष !! आज 'द्रविण' के अन्तर्गत आने वाले 'कर्नाटक' में स्थित मयसुर (मैसूर) के परिक्षेत्रीय जिसे आजकल का युवा पीढ़ी आईटी शहर के रुप में परिवर्द्धित व संवर्द्धित शहर मानता है वह है 'बेंगलोर' कल ही मैं भिलाई से वहां पहुंचा हुं ! हालाकी कल पांच राज्यों का स्थापना दीवस था ! जिसमें, छत्तीसगढ़ में भिलाई है अत: रायपुर माना विमानतल से वहां हमको 12:15 वाली बेंगलोर के लिए जो व्हाया हैदराबाद लेकिन बस केंसिल होने की वजह से काफी दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा ! खैर, हमारे परम सखा श्री अनुज नारद जी (सेक्टर-5, भिलाई) जी ने 'स्वीफ्ट डीजॉयर' से ऐन वक्त फ्लॉईट के समय पहुंचा ही दिया, तो फिर क्या था मैं बैंगलोर के बनरगड्डा में श्रीमती स्वाती मीतेश गांधी जी के निवास पर पहुंच गया !ऐसा महसूस हो रहा है की मैं अपनों के बीच हुं ! समय निकालकर मैं सोचा की इसी संदर्भ में कुछ विषय आपके समक्ष रखूं जिसे आपको जानना बेहद आवश्यक है ! मित्रों मैं तेजस्वी लेखक डॉ. त्रिभुवन सिंह जी का जब भी आलेख पढ़ता हुं बेहद आनंद की अनुभूति होता है, 'द्रविण' विषय पर मैं उनका एक लेख पढ़ा था ! उसके थोड़े से अंश को रखता हुं, जो आज 'कर्नाटक' इसाईयत-कल्चर की भेंट चढ. रहा है, और जो इसाईयों जान-बूझकर 'ब्राह्मणवाद' का प्रोपेगंडा तैयार कर 'द्रविड़ियों' को शूद्र./उच्छिष्ट/दलित आदि आदि की संज्ञा या निम्नवर्गिय जातियों वाला दलित समाज बताकर कुतर्क पेश किये इन इसाईयों ने और इन भोले-भाले लोगों को इसाई बनाने कुछ हद तक कामयाब भी रहे ! लेकिन सच्चाई कुछ और थी, और सच्चाई ये थी की इन पादरियों ने 'द्रविण संस्कृति' को आयातीत बता डाला और लोगों ने मान भी लिया ! जबकी यह कत्तई गलत था ! दरअसल 'द्रविण' में आर्य कहीं से आयातीत नहीं वरन यहां के मूलत: आर्य हैं, 'द्रविण' शब्द का अर्थ है धन --बल --- और पराक्रम से परिपूूूूर्ण *एक वर्ग जो कभी 'दलित' रहा ही नहीं ! आप शंकराचार्य जी देश के चारो दिशा में पीठ/मठों के क्षेत्रफल सुनिश्चित करने की प्रणाली से स्पष्ट समझ सकते हैं क्योंकि " मठाम्नयाय महानुशासनम्" के अनुसार ...श्रृंगेरी मठ के अधीन आने वाले प्रदेशों ---- केरल कर्नाटक आँध्रप्रदेश और द्रविड़ (जिसको आज तमिलनाडु ) के नाम से जाना जाता है / बल -पराक्रम-और एक - प्रदेश / राज्य --को ईसाई पादरियों ने एक अलग नश्ल प्रमाणित कर दिया , , और हमने मान भी लिया ! जबक
यह हमारी सबसे बड़ी भूल है हम 'शूकर सावक' सरीखे स्व-पेट- उदर, भरने काम कर रहे हैं , कभी देश और संस्कृति तथा सनातन धर्म के लिया किया क्या ! मेरे भिलाई के शांतिनगर स्थित कार्यालय मे एक मैगजीन किसी ने भेजी, उसमें पढ़ा की 1750 में भारत की जीडीपी 25% थी जब ये अंग्रेज आये तो उनके जाते जाते महज 2% ही जीडीपी शेष थी! आपको यह जानकर आश्चर्य होगा 25% जीडीपी में बड़ा योगदान 'द्रविण'ों का था , अब आप सोच सकते हैं इतने कर्मठी 'द्रविण' दलित कैसे हो गये ? डॉ बुचनन (१८०७) तक ने इसे एक भौगोलिक स्थान माना /
रविंद्रनाथ टैगोर के द्वारा रचित राष्ट्रीय गीत में भी द्रविड़ को एक भौगोलिक संज्ञा माना गया "--द्रविड़ उत्कल बंग , विंध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छलि जलधि तरंगा ........! बहुत देर हो चुकी थी मित्रों क्योंकि 1900 AD आते आते ईसाइयत फैलाने की बदनीयत से ईसाई पादरियों द्वारा--- द्रविड़ शब्द ---- को मुख्य भारत के जनमानस से अलग एक नयी रेस / नश्ल साबित कर दिया जा चुका था ! वह भी 'ब्राह्मणवाद द्वारा शोषित दलित' कहकर, जो परस्पर में हम चिनाव के गर्भ निकले आर्यों को वैमनस्यता भरी आग में झोंक दिया गया !(आचार्य पण्डित विनोद चौबे, BHILAI, 09827198828) खैर आईये मित्रों आपको एक श्लोक संस्मरण आ रहा है, जो 'द्रविण' से तो जुड़ा ही है, परन्तु हमारे जीवन से भी जुड़ा कुछ संदर्भ भी है आईये समझने का प्रयास करते हैं !
'आपद्गतं हससि किं द्रविणान्धमूढ
लक्ष्मी: स्थिरा न भवतीति किमत्र चित्रम् |
किं त्वं न पश्यसि घटीजलयन्त्रचक्रे
रिक्ता भवन्ति भरिता भरिताश्च रिक्ताः ||'
हे धनमद में चूर मनुष्य! तू किसी अन्य मनुष्य पर आई हुई विपत्ति को देखकर हँसता क्यों है। जिस पर तू इतना फूला फिरता है वह तेरी लक्ष्मी सदा तेरे पास न रहेगी, वह कभी एक जगह स्थिर नहीं रहती है। तू कुए में पड़ी हुई पानी की रहट को चलता हुआ नहीं देखता? जिसमें पानी का भरा हुआ पात्र खाली होता जाता है और खाली पात्र पानी से भरते जाते हैं।
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे
संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई मोबाईल नं. 9827198828
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