ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

!!विशेष सूचना!!
नोट: इस ब्लाग में प्रकाशित कोई भी तथ्य, फोटो अथवा आलेख अथवा तोड़-मरोड़ कर कोई भी अंश हमारे बगैर अनुमति के प्रकाशित करना अथवा अपने नाम अथवा बेनामी तौर पर प्रकाशित करना दण्डनीय अपराध है। ऐसा पाये जाने पर कानूनी कार्यवाही करने को हमें बाध्य होना पड़ेगा। यदि कोई समाचार एजेन्सी, पत्र, पत्रिकाएं इस ब्लाग से कोई भी आलेख अपने समाचार पत्र में प्रकाशित करना चाहते हैं तो हमसे सम्पर्क कर अनुमती लेकर ही प्रकाशित करें।-ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे, सम्पादक ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका,-भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं.09827198828
!!सदस्यता हेतु !!
.''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के 'वार्षिक' सदस्यता हेतु संपूर्ण पता एवं उपरोक्त खाते में 220 रूपये 'Jyotish ka surya' के खाते में Oriental Bank of Commerce A/c No.14351131000227 जमाकर हमें सूचित करें।

ज्योतिष एवं वास्तु परामर्श हेतु संपर्क 09827198828 (निःशुल्क संपर्क न करें)

आप सभी प्रिय साथियों का स्नेह है..

शनिवार, 3 मार्च 2018

फलित ज्योतिष में क्या है कारकांश कुण्डली ?? और ऋषि जैमिनी

कारकांश लग्न: जन्मपत्री में जिस ग्रह के अंश सबसे ज्यादा होते हैं उसे जैमिनी पद्धति में आत्मकारक कहा जाता है। यह आत्मकारक ग्रह नवांश कुंडली में जिस राशि में बैठा होता है उस राशि को यदि हम लग्न मान लें तो वह कारकांश लग्न कहलाता है यह कारकांश लग्न जातक के विषय में काफी सही व सटीक जानकारी प्रेषित करता है। जहां जन्म कुंडलीका लग्न यह बताता है कि हम क्या बनना चाहते हंै वही कारकांश लग्न यह बताता है कि हम वास्तव में क्या है। इस कारकांश लग्न के द्वारा जैमिनी सूत्रों में बहुत सी जानकारी दी गई है जो हमने अपने प्रयासों और अनुभवों में काफी सही पाई परन्तु थोड़े से आधुनिक रूप के संदर्भों में इसमें बदलाव भी करने की आवश्यकता भी है, हालाकी इस संदर्भ मे विस्तृत चर्चा फिर कभी करेंगे, लेकिन आईए आपको 'कारकांश' की बेसिक जानकारी की ओर चलता हुं !

मित्रों, फलित ज्योतिष में ऋषि पाराशर ने जिन-जिन फलित सिद्धांतों का विनिर्माण किया उससे कोई कम  ऋषि जैमिनी के सिद्धांत सद्य: प्रभावी हैं, सटीक भविष्य कथन करते हैं, और फलित ज्योतिषको सजीव करते हैं ! मैं छत्तीसगढ़ के भिलाई स्थित शांति नगर के  'बगलामुखी पीठ'' ज्योतिष कार्यालय  में ऋषि जैमिनी आधारीत 'ज्योतिष संगोष्ठी' में  तमाम ज्योतिषियों के द्वारा 'कारकांश कुण्डली' विषय पर अभिमत का कुछ लिये रख रहा हुं !  आचार्य पण्डित विनोद चौबेकी  ओर से यथायोग्य प्रणाम व मंगल आशीष ! आपके मन में चल रहा होगा की आखिरकार ये 'कारकांश कुण्डली' होता क्या है ?? तो आईए समझने का यत्न करता हुं ! 

जैमिनी ज्योतिष में आत्मकारक ग्रह नवमांश कुण्डली में जिस राशि में होता है वह कारकांश राशि कहलाती है. कारकांश राशि को लग्न माना जाता है और अन्य ग्रहों की स्थिति जन्म कुण्डली की तरह होने पर जो कुण्डली तैयार होती है उसे कारकांश लग्न कुण्डली कहा जाता है. इस कुण्डली के आधार पर ही ऋषि जैमिनी  ज्योतिष में फलकथन किया करते थे! और बाद में चलकर यह प्रामाणिक फलकथन का सूत्र बन गया !



कारक और ग्रहों की दृष्टि तथा उनके प्रभाव : .??


महर्षि जैमिनी ने जिस ज्योतिष पद्धति को निर्मित किया उसे जैमिनी ज्योतिष के नाम से जाना जाता है. इसमें राहु केतु को छोड़कर सभी सात ग्रहों को उनके अंशों के अनुसार विभिन्न कारक के नाम से जाना जाता है. जिस ग्रह का अंश सबसे अधिक होता है आत्मकारक कहलाता है. आत्मकारक के बाद आमात्यकारक और इसी क्रम में भ्रातृकारक, मातृकारक, पुत्रकारक, ज्ञातिकारक और दाराकारक होते हैं.


इस ज्योतिष विधि में ग्रहों की दृष्टि के सम्बन्ध में बताया गया है कि सभी चर राशियां अपनी अगली स्थिर राशियों को छोड़कर अन्य सभी स्थिर राशियों को देखती हैं. सभी स्थिर राशियां अपनी पिछली चर राशियों के अतिरिक्त अन्य राशियों पर दृष्टि डालती है. द्विस्वभाव राशियां परस्पर दृष्टिपात करती है.


पद , उपपद और अरुढ़ लग्न: 

जैमिनी ज्योतिष पद्धति में लग्नेश लग्न स्थान से जितने भाव आगे स्थित होता है उस भाव से उस भाव से उतने ही भाव आगे जो भाव होता है उसे पद या अरूढ़ लग्न के नाम से जाना जाता है. इस विधा में उप पद लग्न भी होता है.

द्वादशेश द्वादश भाव से जितने भाव आगे होता है उस भाव से उतने भाव आगे आने वाले भाव को उप पद लग्न कहा जाता है. फलकथन की दृष्टि से पद लग्न और उप पद लग्न दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं.

जैमिनी ज्योतिष के योग: 

वैदिक ज्योतिष की तरह जैमिनी ज्योतिष में भी योग महत्वपूर्ण होते हैं. इस विधि में योगो के नाम और उनके बीच सम्बन्ध को अलग तरीके से रखा गया है जो इस प्रकार है: आत्मकारक और अमात्यकारक की युति, आत्मकारक और पुत्रकारक की युति, आत्मकारक और पंचमेश की युति, आत्मकारक और दाराकारक की युति, अमात्यकारक और पुत्रकारक की युति इसी क्रम में अमात्यकारक और अन्य कारकों के बीच युति सम्बन्ध बनता है. इन युति सम्बन्धों के आधार पर शुभ और अशुभ स्थिति को जाना जाता है.

राशियों की दशा अन्तर्दशा: 

ज्योतिष की अन्य विधियों में जहां राशि स्वामी, ग्रहों की दृष्टि एवं ग्रहों की दशा अंतर्दशा और गोचर का विचार किया जाता है वहीं जैमिनी ज्योतिष में राशियों को प्रमुखता दी गई है. इस विधि में राशियों की दशा और अन्तर्दशा का विचार किया जाता है. प्रत्येक राशि की महादशा में अंतर्दशाओं का क्रम उसी प्रकार होता है जैसे महादशाओं का. इस विधि में राशियों की अपनी महादशा सबसे अंत में आती है.

-आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई, जिला- दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं. 9827198828

http://ptvinodchoubey.blogspot.in/2018/03/blog-post_3.html?m=1


कोई टिप्पणी नहीं: