''पंडितों की हो रही एडवांस बुकिंग ''
मित्रों संध्या शुभमस्तु।।
आज एक समाचार पत्र में समाचार प्रकाशित हुआ था जिसका शिर्षक था।
''पंडितों की हो रही एडवांस बुकिंग '' http://epaper.bhaskar.com/index.php?editioncode=119&ch=mpcg जो मेरे समझ से काफी अमर्यादित शब्द लगा..आप लोगों की क्या राय है..और तो और इस समाचार में जिन पूरोहितों की चर्चा की गयी है वे लोग एक दिन में अथवा एक रात में चार चार शादियां करवाने की जिम्मा ले रखी है। क्या एक ही शुभ मुहूर्त में एक पंडित जी अलग-अलग घरों में विवाह करा सकते हैं क्योंकि प्रायः रात्रि व दिन कालिक वैवाहिक लग्नों में एक एध को छोड़कर कोई न कोई लग्न या तो अंधे अथवा पंगु अथवा विवाह (पाणि ग्रहण) के लिए उपयुक्त नहीं रहते फिर भी इल पूरोहितों द्वारा इस समाचार में चार चार विवाह कराने की बात स्वीकारी गयी है क्या यह उचित है अथवा हमारे धर्म संस्कृति के पौराणिक संविधान सूत्रों के साथ खिलवाड़...??
जबकि विवाह मुहूर्तों की असलियत कुछ इस प्रकार है..
मित्रों संध्या शुभमस्तु।।
आज एक समाचार पत्र में समाचार प्रकाशित हुआ था जिसका शिर्षक था।
''पंडितों की हो रही एडवांस बुकिंग '' http://epaper.bhaskar.com/index.php?editioncode=119&ch=mpcg जो मेरे समझ से काफी अमर्यादित शब्द लगा..आप लोगों की क्या राय है..और तो और इस समाचार में जिन पूरोहितों की चर्चा की गयी है वे लोग एक दिन में अथवा एक रात में चार चार शादियां करवाने की जिम्मा ले रखी है। क्या एक ही शुभ मुहूर्त में एक पंडित जी अलग-अलग घरों में विवाह करा सकते हैं क्योंकि प्रायः रात्रि व दिन कालिक वैवाहिक लग्नों में एक एध को छोड़कर कोई न कोई लग्न या तो अंधे अथवा पंगु अथवा विवाह (पाणि ग्रहण) के लिए उपयुक्त नहीं रहते फिर भी इल पूरोहितों द्वारा इस समाचार में चार चार विवाह कराने की बात स्वीकारी गयी है क्या यह उचित है अथवा हमारे धर्म संस्कृति के पौराणिक संविधान सूत्रों के साथ खिलवाड़...??
जबकि विवाह मुहूर्तों की असलियत कुछ इस प्रकार है..
विवाह मुहूर्त में जरूरी है त्रिबल शुद्धि
-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, 09827198828, Bhilai
हमारे जीवन में मुहूर्तोü का अत्यधिक महžव माना जाता है। ऋषि-मुनियों ने अपने चिंतन के बाद जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, उनके संकलित स्वरूप का नाम मुहूर्त शास्त्र है। विवाह-मुहूर्त में रवि शुद्धि, गुरू शुद्धि एवं चंद्र शुद्धि का विशेष महžव है। देव गुरू बृहस्पति विवाहोपरांत आपसी समझ से गृहस्थी के दायित्व को निभाने की शक्ति प्रदान करते हैं। इसलिए विवाह में कन्या की राशि से गुरू शुद्धि (गुरूबल) का विचार किया जाता है।
विवाह के बाद गृहस्थ के लिए संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी पुरूष पर आ जाती है। जिसका सूचक सूर्य को माना जाता है। इसलिए विवाह में वर की राशि से रवि शुद्धि (रविबल) का विचार किया जाता है। प्रत्येक कार्य की सफलता उसकी प्रक्रिया में एकाग्रता पर आधारित होती है। एकाग्रता एवं निरंतरता चंद्र शुद्धि पर आधारित होती है। विवाह में वर-कन्या दोनों की राशि से चंद्र-शुद्धि (चंद्र-बल) का विचार किया जाता है। मुहूर्त शास्त्र की दृष्टि से सभी दोषों का विचार कर यदि शुद्ध मुहूर्त निकाला जाए, तो वर्ष में कम ही मुहूर्त बनते हैं। इसे ध्यान में रखते हुए ऋषियों ने विवाह के उपवाद बताए हैं, जिनमें देवोत्थान या प्रबोधनी का दिन भी शुभ माना जाता है।
विवाह के बाद गृहस्थ के लिए संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी पुरूष पर आ जाती है। जिसका सूचक सूर्य को माना जाता है। इसलिए विवाह में वर की राशि से रवि शुद्धि (रविबल) का विचार किया जाता है। प्रत्येक कार्य की सफलता उसकी प्रक्रिया में एकाग्रता पर आधारित होती है। एकाग्रता एवं निरंतरता चंद्र शुद्धि पर आधारित होती है। विवाह में वर-कन्या दोनों की राशि से चंद्र-शुद्धि (चंद्र-बल) का विचार किया जाता है। मुहूर्त शास्त्र की दृष्टि से सभी दोषों का विचार कर यदि शुद्ध मुहूर्त निकाला जाए, तो वर्ष में कम ही मुहूर्त बनते हैं। इसे ध्यान में रखते हुए ऋषियों ने विवाह के उपवाद बताए हैं, जिनमें देवोत्थान या प्रबोधनी का दिन भी शुभ माना जाता है।
विवाह मुहूर्त के लिए मुहूर्त शास्त्रों में शुभ नक्षत्रों और तिथियों का विस्तार से विवेचन किया गया है। उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्रपद,रोहिणी, मघा, मृगशिरा, मूल, हस्त, अनुराधा, स्वाति और रेवती नक्षत्र में, 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12, 13, 15 तिथि तथा शुभ वार में तथा मिथुन, मेष, वृष, मकर, कुंभ और वृश्चिक के सूर्य में विवाह शुभ होते हैं। मिथुन का सूर्य होने पर आषाढ़ के तृतीयांश में, मकर का सूर्य होने पर चंद्र पौष माह में, वृश्चिक का सूर्य होने पर कार्तिक में और मेष का सूर्य होने पर चंद्र चैत्र में भी विवाह शुभ होते हैं।
जन्म लग्न से अथवा जन्म राशि से अष्टम लग्न तथा अष्टम राशि में विवाह शुभ नहीं होते हैं। विवाह लग्न से द्वितीय स्थान पर वक्री पाप ग्रह तथा द्वादश भाव में मार्गी पाप ग्रह हो तो कर्तरी दोष होता है, जो विवाह के लिए निषिद्ध है। इन शास्त्रीय निर्देशों का सभी पालन करते हैं, लेकिन विवाह मुहूर्त में वर और वधु की त्रिबल शुद्धि का विचार करके ही दिन एवं लग्न निश्चित किया जाता है। कहा भी गया है—
चंद्र एवं सूर्य तो कुछ दिनों या महीने में राशि परिवर्तन के साथ शुद्ध हो जाते हैं, लेकिन गुरु का काल लंबा होता है। सूर्य, चंद्र एवं गुरु के लिए ज्योतिषशास्त्र के मुहूर्त ग्रंथों में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिनमें इनकी विशेष स्थिति में यह दोष नहीं लगता। गुरु-कन्या की जन्मराशि से गुरु चतुर्थ, अष्टम तथा द्वादश स्थान पर हो और यदि अपनी उच्च राशि कर्क में, अपने मित्र के घर मेष तथा वृश्चिक राशि में, किसी भी राशि में होकर धनु या मीन के नवमांश में, वर्गोत्तम नवमांश में, जिस राशि में बैठा हो उसी के नवमांश में अथवा अपने उच्च कर्क राशि के नवमांश में हो तो शुभ फल देता है।
सिंह राशि भी गुरु की मित्र राशि है, लेकिन सिंहस्थ गुरु वर्जित होने से मित्र राशि में गणना नहीं की गई है। भारत की जलवायु में प्राय: 12 वर्ष से 14 वर्ष के बीच कन्या रजस्वला होती है। अत: बारह वर्ष के बाद या रजस्वला होने के बाद गुरु के कारण विवाह मुहूर्त प्रभावित नहीं होता है
जन्म लग्न से अथवा जन्म राशि से अष्टम लग्न तथा अष्टम राशि में विवाह शुभ नहीं होते हैं। विवाह लग्न से द्वितीय स्थान पर वक्री पाप ग्रह तथा द्वादश भाव में मार्गी पाप ग्रह हो तो कर्तरी दोष होता है, जो विवाह के लिए निषिद्ध है। इन शास्त्रीय निर्देशों का सभी पालन करते हैं, लेकिन विवाह मुहूर्त में वर और वधु की त्रिबल शुद्धि का विचार करके ही दिन एवं लग्न निश्चित किया जाता है। कहा भी गया है—
स्त्रीणां गुरुबलं श्रेष्ठं पुरुषाणां रवेर्बलम्।
तयोश्चन्द्रबलं श्रेष्ठमिति गर्गेण निश्चितम्।।
अत: स्त्री को गुरु एवं चंद्रबल तथा पुरुष को सूर्य एवं चंद्रबल का विचार करके ही विवाह संपन्न कराने चाहिए। सूर्य, चंद्र एवं गुरु के प्राय: जन्मराशि से चतुर्थ, अष्टम एवं द्वादश होने पर विवाह श्रेष्ठ नहीं माना जाता। सूर्य जन्मराशि में द्वितीय, पंचम, सप्तम एवं नवम राशि में होने पर पूजा विधान से शुभफल प्रदाता होता है। गुरु द्वितीय, पंचम, सप्तम, नवम एवं एकादश शुभ होता है तथा जन्म का तृतीय, षष्ठ व दशम पूजा से शुभ हो जाता है। विवाह के बाद गृहस्थ जीवन के संचालन के लिए तीन बल जरूरी हैं— देह, धन और बुद्धि बल। देह तथा धन बल का संबंध पुरुष से होता है, लेकिन इन बलों को बुद्धि ही नियंत्रित करती है। बुद्धि बल का स्थान सर्वोपरि है, क्योंकि इसके संवर्धन में गुरु की भूमिका खास होती है। यदि गृहलक्ष्मी का बुद्धि बल श्रेष्ठ है तो गृहस्थी सुखद होती है, इसलिए कन्या के गुरु बल पर विचार किया जाता है। चंद्रमा मन का स्वामी है और पति-पत्नी की मन:स्थिति श्रेष्ठ हो तो सुख मिलता है, इसीलिए दोनों का चंद्र बल देखा जाता है। सूर्य को नवग्रहों का बल माना गया है। सूर्य एक माह में राशि परिवर्तन करता है, चंद्रमा 2.25 दिन में, लेकिन गुरु एक वर्ष तक एक ही राशि में रहता है। यदि कन्या में गुरु चतुर्थ, अष्टम या द्वादश हो जाता है तो विवाह में एक वर्ष का व्यवधान आ जाता है।तयोश्चन्द्रबलं श्रेष्ठमिति गर्गेण निश्चितम्।।
चंद्र एवं सूर्य तो कुछ दिनों या महीने में राशि परिवर्तन के साथ शुद्ध हो जाते हैं, लेकिन गुरु का काल लंबा होता है। सूर्य, चंद्र एवं गुरु के लिए ज्योतिषशास्त्र के मुहूर्त ग्रंथों में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिनमें इनकी विशेष स्थिति में यह दोष नहीं लगता। गुरु-कन्या की जन्मराशि से गुरु चतुर्थ, अष्टम तथा द्वादश स्थान पर हो और यदि अपनी उच्च राशि कर्क में, अपने मित्र के घर मेष तथा वृश्चिक राशि में, किसी भी राशि में होकर धनु या मीन के नवमांश में, वर्गोत्तम नवमांश में, जिस राशि में बैठा हो उसी के नवमांश में अथवा अपने उच्च कर्क राशि के नवमांश में हो तो शुभ फल देता है।
सिंह राशि भी गुरु की मित्र राशि है, लेकिन सिंहस्थ गुरु वर्जित होने से मित्र राशि में गणना नहीं की गई है। भारत की जलवायु में प्राय: 12 वर्ष से 14 वर्ष के बीच कन्या रजस्वला होती है। अत: बारह वर्ष के बाद या रजस्वला होने के बाद गुरु के कारण विवाह मुहूर्त प्रभावित नहीं होता है
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