ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे,09827198828,Bhilai,
नोटः हमारे किसी भी लेख को कापी करना दण्डनीय अपराध है ऐसा करने पर उचित कार्यवायी करने को मजबूर हो जाऊंगा। समाचार पत्र पत्रिकाएं हमसे अनुमती लेकर प्रकाशित कर सकते हैं.... ''संस्कृत मात्र भाषावाचक शब्द नही है। ये भारत का पर्याय है। भारतीय प्रतिभा जिस भाषा में निबद्घ है, उसे यह गौरवस्पद''सम्बोधन दिया गया है। अमेरिका और यूरोप में यह चिन्तन ''इण्डोलोजी के नाम से विख्यात है। इसीलिये हमारी समस्त वैदिक मनीषा, प्राचीन ज्ञानराशि तथा मध्यकालिन प्रतिभा के लिये हमने''इण्डॉलॉजी शब्द को समानार्थी के रूप में ''भारतविद्या कहना ही उचित होगा ॥ यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस महती ज्ञान राशि में समर्पित शोधकार्य की सुदीर्घ मेहनत का श्रेय भी पाश्चात्य जगत को मिलता रहा। क्योंकि हम अपनी उर्वरा भूमि को जोतते भी नहीं, बल्कि यूं ही अनमोल मोती उगाने को आतुर हो जाते हैं। वहीं दूसरी तरफ विदेशी विद्वान इस क्षेत्र में घोर परिश्रम कर मूल्यवान फसल को काटने में सफल हो जाते हैं। परन्तु अब यह फलवती धारणा बनाकर हमें इस दिशा कठिन प्रयास करने होंगे। भारतविद्याव्यसनी श्री गोपाल भाण्डारकर को हम इस दिशा में बढऩे वाला प्रथम पुरूष मान सकते हैं। उनके प्रयास से उनके 80 वें जन्मदिन 06 जुलाई 1917 में पुणे में भाण्डारकर प्राच्यविद्या शोध केन्द्र (भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट)की स्थापना हुयी। ये केवल पुणे तक ही सीमित नही है, भारत और समूचे विश्व के भारतविद्या प्रेमियों का यह एक विश्वमंच है। पेरिस में 1873 में आयोजित अन्तर्राष्टï्रीय प्राच्य विद्या परिषद् के अधिवेशन में इस महत्वकार्य हेतु एक सत्प्रेरणा पैदा की गई और डॉ० भाण्डारकर की अध्यक्षता में 1919(नवम्बर)को पुणे में इसका प्रथम अधिवेशन भी हो गया। अन्तर्राष्टï्रीय प्राच्य विद्या परिषद का द्वितीय अधिवेशन 1874 में जब लन्दन में हुआ था, तब मैक्समूलर ने विद्वान् शोधकत्र्ताओं के परस्पर मिलन व शास्त्र चर्चाओं को विश्व सम्मेलनों की एक महती उपलब्धि के रूप में निरूपित किया था।
विश्वविख्यात संस्कृत विद्वान डॅा० रामचन्द्र नारायण दाण्डेकर, जो इस संस्था के 42 वर्ष तक मुख्यसचिव रहे, की मान्यता है कि हमने 'प्राच्यÓ(ओरियण्टल)इस शब्द के अर्थ को संकुचित कर दिया। विश्व प्राच्य विद्या परिषद् के कार्यक्रम में इसका व्यापक रूप दिखाई देता है। भारत और एशिया तक अफ्रीका में फैली इन विधाओं को पाँच विभागो में विश्व स्तर पर अन्तर्राष्टï्रीय शोधकर्ताओं ने बाँटा है। 'इ कॉ ना सÓ इण्टरनेशनल कॉग्रेंस फॉर एशियन एण्ड नॉर्थ अफ्रिकन स्टडीजसंस्था इन सभी विभागों पर काम करने वाली एक अच्छी संस्था है, किन्तु भारतीय प्राच्य विद्यापरिषद का कार्य इस दिशा में संतोषजनक नही कहा जा सकता। भारत विद्या ही प्राच्य विद्या है, या प्राच्य विद्या ही केवल भारत विद्या है, धारणा बदलनी चाहिये। 'इ कॉ ना सÓ का 36 वाँ अधिवेशन सम्पन्न हुआ।
पाश्चात्य जगत् को संस्कृतभाषा की सूचना के पश्चात ही 'भारतविद्याÓ यह एक नवीन शाखा अस्तित्व में आयी। 18वीं शताब्दी के अन्तिम दो-तीन दशकों में अनेक संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद अंग्रेजी में प्रकाशित तथा प्रसारित हुये। 1785 में भगवद्गीता, 1787 में हितोपदेश,1789 में अभिज्ञानशाकुन्तल, 1792 में ऋतुसंहार और 1794 में मनुस्मृति आदि के अंग्रेजी में भाषान्तर छपजाने से पाश्चात्यजगत के ज्ञान पिपासुओं के समक्ष मानो भारतविद्या स्पष्टïत: प्रत्यक्ष हो गयी । 1874 में विश्व की प्रथम एशियाटिक सोसायटी का कलकत्ता में स्थापना होना भी एक विलक्षण घटना थी। उक्त कार्यो के पूर्व हमारा ये पवित्र संस्कृत ज्ञान कुछ सीमित 'पण्डितोंÓ के पास कैद था। वे इसे 'प्रदूषितÓ नहीं होने देना चाहते थे। उसे 'म्लेच्छों (अंग्रेजों) से दूर ही रखना चाहते थे। परन्तु उक्त घटनाओं से पाश्चत्यों को तो एक उत्तेजक अनुभव हुआ ही, भारतीयों में भी अपनी संस्कृति के प्रति नई दृष्टिï विकसित हुयी। आज भारत और भारत के बाहर अनेक शोधकार्य इसी दिशा में हो रहे हैं।
18 शताब्दी के पूर्व भी भारत में रहने वाले कुछ जिज्ञासु पाश्चात्य प्रवासियों एवं मिशनरियों ने भारतविद्या के विषय में थोड़े प्रयास किये। संस्कृत और इटालवी भाषाओं में समता का अध्ययन करने वाले फिलॉसफी तथा पुराण वर्णित भारतीय परम्पराओं का स्वदेशियों को कुछ विपरित ज्ञान कराने वाला फेनिसियों ये दो उल्लेखनीय हैं। डी.नोबोली बौद्घसाहित्य की ओर आकर्षित होने वाला प्रथम यूरोपीय तो है ही, यह दक्षिण भरतीय हिन्दू धर्म तथा भर्तृहरि के तीनों शतकग्रन्थों को पाश्चात्य अध्येताओं के समक्ष प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति भी है। फादर पो. इसलिये एक उल्लेखनीय नाम है क्यों कि लातीनी भाषा में उन्होंने संस्कृत व्याकरण लिखा तथा अनेक संस्कृत साहित्य पाण्डुलिपियों को फे्रंच विद्वानों के समीक्षार्थ उपलब्ध कराया। सर विलियम जोंस जो बाद में जाने गये- 'श्री ओरियंटल जोंसÓके नाम से, ने जनवरी 1786 में सम्पन्न रॉयल एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता के अधिवेशन में अपने तीसरे वार्षिक अभिभाषण में सिद्घ किया कि संस्कृत, ग्रीक , लैटिन, कैल्टिक तथा प्राचीन पर्शियन आदि अनेक भाषाओं का मूलस्रोत्र एक ही है। यद्यपि इस घटना से 20 वर्ष पूर्व पूर्व फादर कुर्दू ग्रीक,लैटिन आदि भाषाओ में लाक्षणिक समानता की बात कह चुके थे। अंकेटी छुपेरों ने 1754 में भारत आकर उपनिषदों क पर्शियन अनुवाद का लेटिन में भाषान्तरण किया। फ्रेंच इतिहासकार द गीन्य और पॉण्डिचेरी के मेरी दास पिल्ले की 1765 की मैत्री एक घटना है, जिससे निष्कर्ष निकला कि ग्रीक इतिहास में स्वर्णाक्षर लिखित सान्ट्रा कोटेस और कोई नहीं अपितु''चन्द्रगुप्त मौर्यÓÓही है। यथापि ये कोई विशेष प्रयास न थे किन्तु इन्हें हम एक अच्छी शुरूवात तो कह ही सकते हैं। विल्किंस और कोलबु्रक ा आदि ब्रिटिश पण्डित भी सर जोंस आदि के साथ इस दिशा में श्री गणेश कर चुके थे।
जर्मन कवि हेर्डेर तथा डॉ. गेटे वास्तव में गम्भीरता से उत्साहित हुये थे। 18 वें शतक में यूरोपिय बुद्घिवाद का समाधान चीन की गम्भीर चिन्तन शीलता से हुआ वहीं, 19वीं शदी में जर्मन स्वच्छता वाद संस्कृत साहित्य के प्र्रति तीव्रता से आकर्षित हुआ। इस विशेष आर्कषण का कारण यह भी था कि जहाँ जर्मनों में आधुनिक रोमेंटसिज्म रहा हैं, वहीं भारतीय प्राचीन स्वच्छन्दतावादी हैं।1814 में पहली बार कॉलेज द फ्रंास में संस्कृत आचार्य का पद निर्मित किया गया। प्रथम संस्कृताचार्य प्रो. चैसी के बाद बने 1832 में प्रों. न्यूर्नो ने अपने प्रथम भाषण में ही कहा कि -भारतीय दर्शन और पुराण कथा, साहित्य एवं धर्मशास्त्र का अध्ययन हम भारतभाषा अर्थात् संस्कृत में ही करेंगे । वास्तव में ये ज्ञान केवल भारतीय ही नहीं है, पूरे विश्व की उत्क्रान्ति (इवोल्यूशन)विकास तथा उन्नति के लिये है और मानव मन के विकास से सम्बन्धित इतिहास के सुवर्णपृष्ठï हैं। इन अक्षरों में गर्वित ज्ञान को हम संस्कृत भाषा के द्वारा ही प्राप्त करेंगे। 1850 से 1920 का कालखण्ड भारतविद्या का शेष विश्व द्वारा किये जाने वाले अध्ययन-अनुसंधान दृष्टिï से स्वर्णकाल कहा जा सकता है। सर्वांगींण इस अध्ययन का बहुत कुछ श्रेय जर्मन संस्कृतज्ञों को ही दिया जाना चाहिये। ग्रीक तथा रोमन पद्घति से यूरोपिय विद्वानों द्वारा किये गये शोध कायों के अलावा इजिप्ट असारिया अथवा चीन आदि देशों में भी अब संस्कृत का तुलनात्मक अध्ययन प्रारंभ हो चुका था। अब इस बात को एहसास हो चला था कि भारत के शास्त्रीय पंण्डितों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करना ही फलप्रद होगा। यूरोप में शास्त्रयुद्घ संस्कृत के विकास के लिये 'गुरूमुख ही एक अद्वितीय अवलम्ब है।
हमने जहाँ एक ओर पाश्चात्त्य पण्डितों को श्री विलयम्स जोंस को 'ओरियण्टल श्री मैग्डॉनल को 'मुग्धानल तथा श्री मैक्समूलर को ''मोक्षमूल जैसे सार्थक अलंकरण नामजद किये वहीं कुछ पाश्चात्य इतिहास लेखकों ने भारत तथा भारतविद्या के विषय में पूर्वाग्रह ग्रस्त तथा दुर्भावनापूर्ण लेखन कार्य किया। जानबूझ कर यह प्रचारित किया गया भारतीयों ने अपनी संस्कृति ग्रीक, असीरियन या बेबीलोनियन लोगों से उधार ली। मैक्समूलर के भी इस आशस के किसी पत्र का भी उल्लेख यत्र.तत्र पाया जाता है। भारत में इस पर दोनों प्रकार की प्रतिक्रिया हुयी। आक्रामक रूख भी देखने को मिला।
लेकिन प्रसन्नता है कि भारतीय चिन्तक अब अपनी भूमि स्वयं जोतने लगा है। उसने 'भारत विद्याÓ को एक स्वदेशी ज्ञान शाखा की श्रेणी प्रदान कर दी है, और पाश्चात्य विचारक और उनके भारतीय चेले भी ''आर्य भारत में बाहर से आये का राग अलापना बन्दकर भारत, भारतीयता तथा भारत विद्या को सही नजरिये से देखने लगे हैं। कम से कम अभी तक हुये 40-50 अ.भा.प्राच्य विद्या.परिषद् के अधिवेशनों तथा 14 से अधिक विश्व संस्कृत सम्मेलनों एवं16 से अधिक विश्वरामायण सम्मेलनों से यही तथ्य स्थापित होता है। आवश्यकता आज भूमण्डलीकरण के युग में इसकी है कि हम भारतीय पण्डित भी अति आत्ममुग्ध न हों और विदेशी संस्कृत सेवी भी दुराग्रह से मुक्त हों।
विश्वविख्यात संस्कृत विद्वान डॅा० रामचन्द्र नारायण दाण्डेकर, जो इस संस्था के 42 वर्ष तक मुख्यसचिव रहे, की मान्यता है कि हमने 'प्राच्यÓ(ओरियण्टल)इस शब्द के अर्थ को संकुचित कर दिया। विश्व प्राच्य विद्या परिषद् के कार्यक्रम में इसका व्यापक रूप दिखाई देता है। भारत और एशिया तक अफ्रीका में फैली इन विधाओं को पाँच विभागो में विश्व स्तर पर अन्तर्राष्टï्रीय शोधकर्ताओं ने बाँटा है। 'इ कॉ ना सÓ इण्टरनेशनल कॉग्रेंस फॉर एशियन एण्ड नॉर्थ अफ्रिकन स्टडीजसंस्था इन सभी विभागों पर काम करने वाली एक अच्छी संस्था है, किन्तु भारतीय प्राच्य विद्यापरिषद का कार्य इस दिशा में संतोषजनक नही कहा जा सकता। भारत विद्या ही प्राच्य विद्या है, या प्राच्य विद्या ही केवल भारत विद्या है, धारणा बदलनी चाहिये। 'इ कॉ ना सÓ का 36 वाँ अधिवेशन सम्पन्न हुआ।
पाश्चात्य जगत् को संस्कृतभाषा की सूचना के पश्चात ही 'भारतविद्याÓ यह एक नवीन शाखा अस्तित्व में आयी। 18वीं शताब्दी के अन्तिम दो-तीन दशकों में अनेक संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद अंग्रेजी में प्रकाशित तथा प्रसारित हुये। 1785 में भगवद्गीता, 1787 में हितोपदेश,1789 में अभिज्ञानशाकुन्तल, 1792 में ऋतुसंहार और 1794 में मनुस्मृति आदि के अंग्रेजी में भाषान्तर छपजाने से पाश्चात्यजगत के ज्ञान पिपासुओं के समक्ष मानो भारतविद्या स्पष्टïत: प्रत्यक्ष हो गयी । 1874 में विश्व की प्रथम एशियाटिक सोसायटी का कलकत्ता में स्थापना होना भी एक विलक्षण घटना थी। उक्त कार्यो के पूर्व हमारा ये पवित्र संस्कृत ज्ञान कुछ सीमित 'पण्डितोंÓ के पास कैद था। वे इसे 'प्रदूषितÓ नहीं होने देना चाहते थे। उसे 'म्लेच्छों (अंग्रेजों) से दूर ही रखना चाहते थे। परन्तु उक्त घटनाओं से पाश्चत्यों को तो एक उत्तेजक अनुभव हुआ ही, भारतीयों में भी अपनी संस्कृति के प्रति नई दृष्टिï विकसित हुयी। आज भारत और भारत के बाहर अनेक शोधकार्य इसी दिशा में हो रहे हैं।
18 शताब्दी के पूर्व भी भारत में रहने वाले कुछ जिज्ञासु पाश्चात्य प्रवासियों एवं मिशनरियों ने भारतविद्या के विषय में थोड़े प्रयास किये। संस्कृत और इटालवी भाषाओं में समता का अध्ययन करने वाले फिलॉसफी तथा पुराण वर्णित भारतीय परम्पराओं का स्वदेशियों को कुछ विपरित ज्ञान कराने वाला फेनिसियों ये दो उल्लेखनीय हैं। डी.नोबोली बौद्घसाहित्य की ओर आकर्षित होने वाला प्रथम यूरोपीय तो है ही, यह दक्षिण भरतीय हिन्दू धर्म तथा भर्तृहरि के तीनों शतकग्रन्थों को पाश्चात्य अध्येताओं के समक्ष प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति भी है। फादर पो. इसलिये एक उल्लेखनीय नाम है क्यों कि लातीनी भाषा में उन्होंने संस्कृत व्याकरण लिखा तथा अनेक संस्कृत साहित्य पाण्डुलिपियों को फे्रंच विद्वानों के समीक्षार्थ उपलब्ध कराया। सर विलियम जोंस जो बाद में जाने गये- 'श्री ओरियंटल जोंसÓके नाम से, ने जनवरी 1786 में सम्पन्न रॉयल एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता के अधिवेशन में अपने तीसरे वार्षिक अभिभाषण में सिद्घ किया कि संस्कृत, ग्रीक , लैटिन, कैल्टिक तथा प्राचीन पर्शियन आदि अनेक भाषाओं का मूलस्रोत्र एक ही है। यद्यपि इस घटना से 20 वर्ष पूर्व पूर्व फादर कुर्दू ग्रीक,लैटिन आदि भाषाओ में लाक्षणिक समानता की बात कह चुके थे। अंकेटी छुपेरों ने 1754 में भारत आकर उपनिषदों क पर्शियन अनुवाद का लेटिन में भाषान्तरण किया। फ्रेंच इतिहासकार द गीन्य और पॉण्डिचेरी के मेरी दास पिल्ले की 1765 की मैत्री एक घटना है, जिससे निष्कर्ष निकला कि ग्रीक इतिहास में स्वर्णाक्षर लिखित सान्ट्रा कोटेस और कोई नहीं अपितु''चन्द्रगुप्त मौर्यÓÓही है। यथापि ये कोई विशेष प्रयास न थे किन्तु इन्हें हम एक अच्छी शुरूवात तो कह ही सकते हैं। विल्किंस और कोलबु्रक ा आदि ब्रिटिश पण्डित भी सर जोंस आदि के साथ इस दिशा में श्री गणेश कर चुके थे।
जर्मन कवि हेर्डेर तथा डॉ. गेटे वास्तव में गम्भीरता से उत्साहित हुये थे। 18 वें शतक में यूरोपिय बुद्घिवाद का समाधान चीन की गम्भीर चिन्तन शीलता से हुआ वहीं, 19वीं शदी में जर्मन स्वच्छता वाद संस्कृत साहित्य के प्र्रति तीव्रता से आकर्षित हुआ। इस विशेष आर्कषण का कारण यह भी था कि जहाँ जर्मनों में आधुनिक रोमेंटसिज्म रहा हैं, वहीं भारतीय प्राचीन स्वच्छन्दतावादी हैं।1814 में पहली बार कॉलेज द फ्रंास में संस्कृत आचार्य का पद निर्मित किया गया। प्रथम संस्कृताचार्य प्रो. चैसी के बाद बने 1832 में प्रों. न्यूर्नो ने अपने प्रथम भाषण में ही कहा कि -भारतीय दर्शन और पुराण कथा, साहित्य एवं धर्मशास्त्र का अध्ययन हम भारतभाषा अर्थात् संस्कृत में ही करेंगे । वास्तव में ये ज्ञान केवल भारतीय ही नहीं है, पूरे विश्व की उत्क्रान्ति (इवोल्यूशन)विकास तथा उन्नति के लिये है और मानव मन के विकास से सम्बन्धित इतिहास के सुवर्णपृष्ठï हैं। इन अक्षरों में गर्वित ज्ञान को हम संस्कृत भाषा के द्वारा ही प्राप्त करेंगे। 1850 से 1920 का कालखण्ड भारतविद्या का शेष विश्व द्वारा किये जाने वाले अध्ययन-अनुसंधान दृष्टिï से स्वर्णकाल कहा जा सकता है। सर्वांगींण इस अध्ययन का बहुत कुछ श्रेय जर्मन संस्कृतज्ञों को ही दिया जाना चाहिये। ग्रीक तथा रोमन पद्घति से यूरोपिय विद्वानों द्वारा किये गये शोध कायों के अलावा इजिप्ट असारिया अथवा चीन आदि देशों में भी अब संस्कृत का तुलनात्मक अध्ययन प्रारंभ हो चुका था। अब इस बात को एहसास हो चला था कि भारत के शास्त्रीय पंण्डितों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करना ही फलप्रद होगा। यूरोप में शास्त्रयुद्घ संस्कृत के विकास के लिये 'गुरूमुख ही एक अद्वितीय अवलम्ब है।
हमने जहाँ एक ओर पाश्चात्त्य पण्डितों को श्री विलयम्स जोंस को 'ओरियण्टल श्री मैग्डॉनल को 'मुग्धानल तथा श्री मैक्समूलर को ''मोक्षमूल जैसे सार्थक अलंकरण नामजद किये वहीं कुछ पाश्चात्य इतिहास लेखकों ने भारत तथा भारतविद्या के विषय में पूर्वाग्रह ग्रस्त तथा दुर्भावनापूर्ण लेखन कार्य किया। जानबूझ कर यह प्रचारित किया गया भारतीयों ने अपनी संस्कृति ग्रीक, असीरियन या बेबीलोनियन लोगों से उधार ली। मैक्समूलर के भी इस आशस के किसी पत्र का भी उल्लेख यत्र.तत्र पाया जाता है। भारत में इस पर दोनों प्रकार की प्रतिक्रिया हुयी। आक्रामक रूख भी देखने को मिला।
लेकिन प्रसन्नता है कि भारतीय चिन्तक अब अपनी भूमि स्वयं जोतने लगा है। उसने 'भारत विद्याÓ को एक स्वदेशी ज्ञान शाखा की श्रेणी प्रदान कर दी है, और पाश्चात्य विचारक और उनके भारतीय चेले भी ''आर्य भारत में बाहर से आये का राग अलापना बन्दकर भारत, भारतीयता तथा भारत विद्या को सही नजरिये से देखने लगे हैं। कम से कम अभी तक हुये 40-50 अ.भा.प्राच्य विद्या.परिषद् के अधिवेशनों तथा 14 से अधिक विश्व संस्कृत सम्मेलनों एवं16 से अधिक विश्वरामायण सम्मेलनों से यही तथ्य स्थापित होता है। आवश्यकता आज भूमण्डलीकरण के युग में इसकी है कि हम भारतीय पण्डित भी अति आत्ममुग्ध न हों और विदेशी संस्कृत सेवी भी दुराग्रह से मुक्त हों।
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