प्याऊ खोलने का क्या है..शास्त्रीय महत्त्व..?
ग्रीष्मे चैव बसन्ते च
पानीये य: प्रयच्छति।
भविष्योत्तर पुराण के इस वचन के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में और बसन्त ऋतु में जो पानी पिलाने की व्यवस्था करता है, उसके पुण्य का हजारों जिएं भी वर्णन नही कर सकती हैं। गर्मी बढ़ते ही सभी को चाहे वह पशु पक्षी अथवा वृक्ष ही क्यों न हो, उन्हें पानी की आवश्यकता भी बढऩे लगती है।
प्राय: देखा जाता है कि जगह-जगह पर लोगों की प्यास बुझाने के लिए इस विषय पर भारतीय संस्कृति के आधरभूत शास्त्र क्या कहते हैं यह जानना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्याऊ द्वारा प्यास बुझाने की प्रक्रिया को भारतीय संस्कृति प्रपा दान कहती है। अमरकोष में प्रपा का अर्थ पानी यशाली का अर्थ पानी के घर से है। जहां पानी की अधिकारिक व्यवस्था हो, उसे प्रपा कहा जाता है। भविष्योत्तर पुराण मे लिखा गया है कि फाल्गुन मास के बीत जाने पर चैत्र महोत्सव से ग्राम या नगर के बीच में रास्ते में या वृक्ष के नीचे अर्थात छाये में पानी पिलाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। समथ्र्यवान व्यक्ति को चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ इन चार महीनों में जल पिलाने की व्यवस्था अवश्य करनी चाहिए।
यदि कम धन वाला व्यक्ति है, तो उसे तीन पक्ष अर्थात बैशाख शुक्ल पक्ष, ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष व ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष मे अवश्य जल पिलाने की व्यवस्था करनी चाहिए। ऐसा करने से प्यासा व्यक्ति सन्तुष्ट होता है ओर इस फल के लोगों के भागी प्याऊ कर्म में संलग्र लोग होते हैं।
त्रयाणामपि लोकानामुद्रक जीवनं स्मृतमं।
पवित्रममृतं यस्मातद्देर्य पुण्य मिच्छता।।
स्कन्द पुराण के इस वचन के अनुसार तीनों लोकों में जल को जीवन, पवित्र और अमृत माना गया है इसलिए पुण्य की कामना वाले लोगों को जल पिलाने की व्यवस्था करनी चाहिए। शास्त्रों मे प्रत्येक मौसम के अनुरूप दान का अत्यन्त महत्व बतलाया गया है जिससे गरीब से गरीब व्यक्ति भी सुख पूर्वक रह सके तथा सामाजिक विकास में सभी की भागेदारी हो सके। सर्दी के मौसम में कंबल का दान,लकड़ी और अग्नि की व्यवस्था, वर्षा ऋतु में छतरी का दान, या किसी गरीब व्यक्ति के घर को आच्छादित कराना या घर बनवाकर देना तथा ग्रीष्म ऋतृ में जल देना, गरीब व्यक्तियों को घड़े का दान करना, सतू का दान करना , अत्यन्त श्रेयस्कर बताया गया है। गरूण पुराण तो यहां तक कहता है कि किसी को जल पिलाने के लिए अगर जल खरीदना भी पड़े, तो भी उसकी यथा शीघ्र जल पिलाना चाहिए। गर्मी के मौसम में पानी पिलाने की व्यवस्था केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं बल्कि पशु, पक्षियों इत्यादि सभी के लिए करने का प्रयास करना चाहिए। शास्त्र तो कहते हैं कि पेड़ पौघों को भी समुचित पानी देना चाहिए। गर्मी पौधे सूखते हैं वहां संक्रामक रोगों की अभिवृद्ध होती है। वैसे लोगों को जो पानी में मिलावट करते हैं कुंए या तालाब पाटकर अपना पर या चौपाल बना लेते हैं, पानी की अनावश्यक बहते देख उसे सुरक्षित रखने का उचित प्रतिकार नहीं करते, नदी या तालाब में दूषित जल छोड़कर उसे गन्दा करते हैं, किसी प्रपा (प्याऊ) दान करने वाले मनुष्य को पानी पिलाने में बाधा उत्पत्र करते हैं। ग्रीष्म में छाया में खड़े पशु, पक्षी एवं मानव को हटा देते हैं, पानी न देना पड़े इसके लिए असत्य बोलते हैं, इन सभी को शास्त्र पापी की उपमा देते हैं। तथा इनके कुल या खानदान में जल दोष से सम्बंधित रोगों की अभिवृद्धि होती है।
बसन्त ग्रीष्मर्यार्मध्ये य: पानीयं प्रयच्छति।
पले पले सुवर्णस्य फल माप्रोति मानव:।।
अर्थात बसन्त और ग्रीष्म यानी गर्मी के चार महीनों में घड़े के दान, वस्त्र का दान तथा पीने योग्य जल का जो दान करता है, उनको सुवर्ण (सोना) दान का फल प्राप्त होता है। प्यास से व्याकुल व्यक्ति जिस क्षेत्र से होकर गुजरता है। उस क्षेत्र का पुण्य क्षीण हो जाता हैं इसलिए पुण्य की रक्षा हेतु भी प्याऊ की व्यवस्था करनी चाहिए। बहुत से शास्त्रों में जल पिलाने वाले को गोदान का फल प्राप्त करने का अधिकारी माना गया है। गर्मी के दिनों में मन्दिरों में भी लोग जल की व्यवस्था करते हैं।
भविष्योत्तर पुराण के अनुसार
यावद् विन्दूनि लिंगस्य पतितानि न संशय:
स बसेच्छाडरे लोकं तावत् कोट्यो ।
ग्रीष्मे चैव बसन्ते च
पानीये य: प्रयच्छति।
ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे,09827198828,Bhilai,
नोटः हमारे किसी भी लेख को कापी करना दण्डनीय अपराध है ऐसा करने पर उचित कार्यवायी करने को मजबूर हो जाऊंगा। समाचार पत्र पत्रिकाएं हमसे अनुमती लेकर प्रकाशित कर सकते हैं....प्राय: देखा जाता है कि जगह-जगह पर लोगों की प्यास बुझाने के लिए इस विषय पर भारतीय संस्कृति के आधरभूत शास्त्र क्या कहते हैं यह जानना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्याऊ द्वारा प्यास बुझाने की प्रक्रिया को भारतीय संस्कृति प्रपा दान कहती है। अमरकोष में प्रपा का अर्थ पानी यशाली का अर्थ पानी के घर से है। जहां पानी की अधिकारिक व्यवस्था हो, उसे प्रपा कहा जाता है। भविष्योत्तर पुराण मे लिखा गया है कि फाल्गुन मास के बीत जाने पर चैत्र महोत्सव से ग्राम या नगर के बीच में रास्ते में या वृक्ष के नीचे अर्थात छाये में पानी पिलाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। समथ्र्यवान व्यक्ति को चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ इन चार महीनों में जल पिलाने की व्यवस्था अवश्य करनी चाहिए।
यदि कम धन वाला व्यक्ति है, तो उसे तीन पक्ष अर्थात बैशाख शुक्ल पक्ष, ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष व ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष मे अवश्य जल पिलाने की व्यवस्था करनी चाहिए। ऐसा करने से प्यासा व्यक्ति सन्तुष्ट होता है ओर इस फल के लोगों के भागी प्याऊ कर्म में संलग्र लोग होते हैं।
त्रयाणामपि लोकानामुद्रक जीवनं स्मृतमं।
पवित्रममृतं यस्मातद्देर्य पुण्य मिच्छता।।
स्कन्द पुराण के इस वचन के अनुसार तीनों लोकों में जल को जीवन, पवित्र और अमृत माना गया है इसलिए पुण्य की कामना वाले लोगों को जल पिलाने की व्यवस्था करनी चाहिए। शास्त्रों मे प्रत्येक मौसम के अनुरूप दान का अत्यन्त महत्व बतलाया गया है जिससे गरीब से गरीब व्यक्ति भी सुख पूर्वक रह सके तथा सामाजिक विकास में सभी की भागेदारी हो सके। सर्दी के मौसम में कंबल का दान,लकड़ी और अग्नि की व्यवस्था, वर्षा ऋतु में छतरी का दान, या किसी गरीब व्यक्ति के घर को आच्छादित कराना या घर बनवाकर देना तथा ग्रीष्म ऋतृ में जल देना, गरीब व्यक्तियों को घड़े का दान करना, सतू का दान करना , अत्यन्त श्रेयस्कर बताया गया है। गरूण पुराण तो यहां तक कहता है कि किसी को जल पिलाने के लिए अगर जल खरीदना भी पड़े, तो भी उसकी यथा शीघ्र जल पिलाना चाहिए। गर्मी के मौसम में पानी पिलाने की व्यवस्था केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं बल्कि पशु, पक्षियों इत्यादि सभी के लिए करने का प्रयास करना चाहिए। शास्त्र तो कहते हैं कि पेड़ पौघों को भी समुचित पानी देना चाहिए। गर्मी पौधे सूखते हैं वहां संक्रामक रोगों की अभिवृद्ध होती है। वैसे लोगों को जो पानी में मिलावट करते हैं कुंए या तालाब पाटकर अपना पर या चौपाल बना लेते हैं, पानी की अनावश्यक बहते देख उसे सुरक्षित रखने का उचित प्रतिकार नहीं करते, नदी या तालाब में दूषित जल छोड़कर उसे गन्दा करते हैं, किसी प्रपा (प्याऊ) दान करने वाले मनुष्य को पानी पिलाने में बाधा उत्पत्र करते हैं। ग्रीष्म में छाया में खड़े पशु, पक्षी एवं मानव को हटा देते हैं, पानी न देना पड़े इसके लिए असत्य बोलते हैं, इन सभी को शास्त्र पापी की उपमा देते हैं। तथा इनके कुल या खानदान में जल दोष से सम्बंधित रोगों की अभिवृद्धि होती है।
बसन्त ग्रीष्मर्यार्मध्ये य: पानीयं प्रयच्छति।
पले पले सुवर्णस्य फल माप्रोति मानव:।।
अर्थात बसन्त और ग्रीष्म यानी गर्मी के चार महीनों में घड़े के दान, वस्त्र का दान तथा पीने योग्य जल का जो दान करता है, उनको सुवर्ण (सोना) दान का फल प्राप्त होता है। प्यास से व्याकुल व्यक्ति जिस क्षेत्र से होकर गुजरता है। उस क्षेत्र का पुण्य क्षीण हो जाता हैं इसलिए पुण्य की रक्षा हेतु भी प्याऊ की व्यवस्था करनी चाहिए। बहुत से शास्त्रों में जल पिलाने वाले को गोदान का फल प्राप्त करने का अधिकारी माना गया है। गर्मी के दिनों में मन्दिरों में भी लोग जल की व्यवस्था करते हैं।
भविष्योत्तर पुराण के अनुसार
यावद् विन्दूनि लिंगस्य पतितानि न संशय:
स बसेच्छाडरे लोकं तावत् कोट्यो ।
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