भाषा और साहित्य से परे विज्ञापन का जरिया बना-मीडिया
0 उत्पाद की तरह रोज जन्म ले रहे अखबार
समाचार पत्रों का महत्व इतिहास कालीन रहा है। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आजाद भारत की लंबी यात्रा में अखबारों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। जब हम आजाद नहीं थे, अथवा स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन दिनों में अखबार एक मिशन के रूप में हमारा सबसे बडा हथियार भी मना लिया गया था। अब आजादी की स्वच्छंद हवा में उसी अखबार का बदला रूप हमें दिखाई पड रहा है। यह अलग बात है कि पत्रकार एवं पत्रकारिता की मिशन वाली छवि अब धुंधले आईने का विषय बनकर रह गयी है। आम लोगों में जन जागरूकता जगाने वाले संपादकों से लेकर रिपोर्टर तक ने अपनी लिखने की शैली बदल डाली है। समाचार पत्र एवं मीडिया का भूमिका ने बदले समय में क्रांति की ज्वाला को शांत करने के साथ व्यापार का रूप अख्तियार कर लिया है। साथ ही मीडिया जगत में समाचार पत्रों में लिखी जाने वाली अभिव्यक्ति का तरीका भी बदल दिया है। हिंदी साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो भाषा का नया अविष्कार भी इसी मीडिया जगत ने कर दिखाया है। शुद्ध हिंदी के स्थान पर बाजार में प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाने लगा है। इतने ही नहीं लिखने वालों ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए हिंदी और इंग्लिस का मिला जुला रूप भी स्वीकार कर लिया है। भाषा जगत में ऐसी प्रचलित भाषा को हिंग्लिस के नाम से संबोधित किया जाने लगा है। हिंदी के कुछ ऐसे शब्द जो सामान्य रूप से प्रयोग से बाहर थे, अब लिखे जाने लगे है। अचानक शब्द का स्थान अब ’औचक’ शब्द ने ले लिया है। किसी अधिकारी द्वारा अचानक दौरा कर निरीक्षण करने के कार्य केा अब समाचार पत्र औचक निरीक्षण लिखने लगे है।
पत्रकारिता में एक बडा परिवर्तन बीते लगभग तीन दशकों से देखा जा रहा है। जब से कम्प्यूटर ने हमारे जीवन में प्रवेश किया है और पत्रकारिता कम्प्यूटरीकष्त हुई है, तब से अखबार निकालने वालों की चांदी हो गयी है। अंकों और शब्दों को जमाना अथवा कम्पोज करने का झंझट खत्म होने के साथ ही फोटो के लिए बनाये जाने वाली ब्लाॅक की औपचारिकता भी समाप्त हो चुकी है। अखबार प्रकाशन की परिवर्तित दुनिया में अखबार का मालिक वैज्ञानिक तरीके से परिपूर्ण अखबार छपाई को अमल में लाते यही चाहता है कि कम से कम खर्च में अखबार पाठकों के हाथ में पहंुच जाये। अखबार नवीशों द्वारा निकालने जाने वाले पदों को भी कुछ इसी तरह विज्ञापित किया जाता है, जिसमें चाहे गये कर्मचारी में रिपोर्टर से लेकर संपादक तक के कार्य करने की क्षमता अनिवार्य योग्यता के रूप में गिनी जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि समाचार संकलन के मैदान से लेकर उसे कम्प्यूटर के माध्यम से लिखा जाना और समाचार पत्र में उचित स्थान प्रदान करने तक की भूमिका एक व्यक्ति में समाहित की जाती है। इसका एक मात्र उद्देश्य एक ही वेतन में व्यक्ति से तीन व्यक्तियों का काम लेना है। तात्पर्य यह कि समाचार के लिए फिल्ड में जाना, कार्यालय पहंुचकर उस पर अच्छी कहानी तैयार करना, कम्प्यूटर पर कम्पोज करने के साथ पु्रफ रीडिंग करना, समाचार से संबंधित चित्रों का चयन करना और फिर अंतिम रूप से समाचार पत्र. में लगाने के साथ फोटो पर कैप्शन लिखना अपने आप में किसी बडी चुनौती से कम नहीं माना जा सकता है।
देखा जाये तो भूमंडलीकरण के इस दौर में समाचार पत्रों को किसी उत्पाद से कम नहीं माना जात रहा है। प्रतियोगी रूप में प्रतिवर्ष कुकुरमुत्ते की तरह उग आने वाले नये अखबार और पुराने समाचार पत्रों की विश्वसनीयता के बीच पाठक प्रकाशित की गयी खबरेां को एक उत्पाद की तरह ही देख रहे है और फिर जिस अखबार की खबर में रस न दिखाई पडे, उसे पाठक बेकार उत्पादक की श्रेणी में रखते हुए बाहर भी कर देने से परहेज नहीं कर रहे है। समाचार पत्रों में व्यापार का असर भी कम नहीं है। यही कारण है कि पत्र-पत्रिकाओं से लेकर हर छोटे बडे अखबारों में विज्ञापनो ंकी संख्या दिन प्रतिदिन बढती जा रही है। वर्तमान में समाचार पत्रों के कुल पष्ष्ठों के लगभग 60 से 70 प्रतिशत हिस्से विज्ञापनों से भरे पडे है। विज्ञापनों की आपाधापी में समाचार पत्रों से खबरों का अस्तित्व लुंज पुंज हो चला है। विज्ञापनों की अधिकता और संपादकों के दबाव के कारण समाचारों का संकलन बदले हुये रूप में किया जा रहा है। सीमित पष्ष्ठ और स्थान की कमी के कारण संपादक की कैंची सबसे पहले खबरों पर चलती है न कि विज्ञापनों पर। आज के बदले हुये समय में खबरों की प्रासंगिकता स्थान के आधार पर तय की जा रही है। खबर के हिस्से केा छोटा अथवा काट छांटकर रद्दी की टोकरी में फेंकना बडी आसानी से स्वीकार किया जा रहा है। अनेक अवसरों पर छापी जाने वाली खबरों का ओर छोर ही पाठक की समझ से परे होता है। साथ ही कई घटनाक्रमों पर लिखा गया समाचार संपादन के दष्ष्टिकोण से बिखरा बिखरा दिखाई पडने लगता है। आश्चर्य तो तब होता है जब महत्वपूर्ण समाचार में ’इन्ट्ो’ ही गायब दिखाई पडता है। जिससे अखबार का असर और उसकी संुदरता नष्ट हो जाती है।
समाचार पत्रों और प़ित्रकाओं में विगत कुछ दशकों से विज्ञापन की दुनिया में ऐसा तहलका मचाया है जिसके चलते खबरों के बीच में भी विज्ञापन ठूंसने का रिवाज चल निकला है। प्रकाशकों और संपादकों द्वारा यह भी नहीं देखा जा रहा है कि खबरों के बीच विज्ञापन समाचार की गंभीरता को किस कदर प्रभावित कर सकता है। यहां तक की राष्ट्ीय महत्व की खबरों के बीच भी विज्ञापन चस्पा किये जा रहे है। कुछ अधिक समझदार संपादकों द्वारा तो विज्ञापन को ही समाचार की शक्ल में प्रकाशित किया जा रहा है। इस प्रकार के परिवर्तन से पाठक यह समझ ही नहीं पाता है कि वास्तव में कौन सी खबर सच्ची और कौन से प्रयोजित है। स्त्रियां अब पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहा है या यह भी कहा जा सकता है कि स्त्री विमर्श के इस काल में स्त्रियों को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह तो दूर उलटा मीडिया उसे वस्तु की तरह पेश कर रहा है। इलेक्ट्ानिक मीडिया तथा प्रिंट मीडिया द्वारा महिलाओं की छवि केा दूषित करते हुए केवल उत्तेजक, मोहक और भोग्या के रूप में उसे प्रस्तुत किया जा रहा है। हम भली भांति यह भी जानते है कि भारतीय नारी की ऐसी छवि सांस्कृतिक परिदश्य में कहीं भी मेल नहीं खाती है। अखबारों में स्त्रियों की उत्तेजित करने वाली तस्वीरें शान के साथ प्रकाशित की जा रही है। चमकीले पन्नों पर उकेरे जाने के बाद इन तस्वीरों की ग्लैमर भूमिका और अधिक बढ जाती है। बदन दिखाउ तस्वीरें युवाओं के मन मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव तो डाल ही रही है, उनमें नैतिकता का गुण भी समाप्त हेाता जा रहा है।
वर्तमान समय में सामान्य रूप से देखा जा सकता है कि मुख्य और बडे समचार पत्रों ने भी अपनी प्रकाशनीय सामग्री में से साहित्य और सांस्कष्तिक पष्ष्ठ भूमि वाले हिस्सेां केा अलग निकाल दिया है। साहित्यिक सामग्रियों का प्रकाशन तो लगभग न के बराबर ही गया है। किसी महापुरूष अथवा साहित्यकार के पुण्यतिथि अथवा जयंती पर छापने वाले साहित्यिक लेख भी यदा कदा समाचार पत्रों में ही देखे जा रहे है। साहित्य के साथ ही भारतीय संस्कष्ति और पुस्तक समीक्षा भी अखबारों की विषय वस्तु नहीं रह गयी है। पूर्व वर्षों की तुंलना में समाचार के प्रस्तुतिकरण का तरीका भी बदल गया है। अब खबरों को रोचक बनाने से लेकर दिल को छू लेने वाला शीर्षक और चटखारे लेकर समाचार पढे जाने की मांग को समाचार प्रस्तुतिकरण की आवश्यक शर्त बना दिया गया है। देश विदेश की महत्वपूर्ण खबरों का पिटारा अथवा खजाना माने जाने वाले समाचार पत्रांे में फैशन, फिटनेस, सौंदर्य, खाना खजाना, माॅडल और आकर्षक ज्वेलरी को अहम स्थान देना ही एक मात्र लक्ष्य के रूप में सामने आ रहा है। समाज से प्रत्यक्ष रूप से संबंध रखने वाली रूढीवादी विचारों और चली आ रही बे-सिर-पैर की परंपरा केा समाप्त करने जनजागरूकता जैसे विषय अब मीडिया की प्राथमिकता में नहंी रहे हैं। आज मीडिया वही परोस रहा है जो विज्ञापनदाता बडी कंपनियां चाहती है। विज्ञापनदाता कंपनियों के दबाव के चलते इलेक्ट्ानिक मीडिया भी सामाजि समस्याओं को खुलकर अथवा उचित तरीके से नहीं दिखा पा रहा है।
सुप्रसिद्ध पत्रकार बी साईनाथ ने एक बार एक व्याख्यान माला में अपने अनुभव स्पष्ट करते हुए कहा था कि जब सन 2007 में मुंबई में लक्मे फैशन वीक के दौरान सूती वस्त्रों से बनी वेशभूषा का प्रदर्शन किया जा रहा था, तब विदर्भ में किसान कपास की कीमत न मिल पाने के कारण आत्महत्या कर रहे थे। इन दोनों घटनाओं के जिक्र करने के पीछे एक मात्र उद्देश्य यह है कि जहां लक्मे फैशन वीक के आयोजन को कव्हरेज देने के लिए पांच सौ से उपर मान्यता प्राप्त पत्रकार सप्ताह भर मुंबई में डटे रहे तथा सैकडों पत्रकार प्रतिदिन प्रवेश पत्र. के माध्यम से आते जाते रहे। वहीं विदर्भ में किसानों की आत्महत्या मामले को कव्हरेज देने महज आधा दर्जन पत्रकार ही पूरे देश से पहंुच पाये। यह बताने की जरूरत नहीं कि देश में सबसे अधिक आर्थिक संकट से जुझ रहे कष्षकों को लेकर मीडिया में कितनी जिम्मेदारी दिख रही है अथवा संवेदनशीलता की पराकाष्ठा समझी जा सकती है। समाचारों की विश्वसनीयता और जागरूकता से सरोकार रखने वाले संपादकों और पत्रकारों के दायित्व निवर्हन ने आने वाली समस्याओं को सुलझाने एवं उन पर विचार करने के लिए प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया का गठन किया गया है। पत्रकारिता की बदली निर्भयकारी गतिविधियों के चलते प्रेस काउंसिंग आॅफ इंडिया जैसी संस्था नख-दंत विहिन प्रतीत हो रही है। जो निरंकुश और भयावह मीडिया तंत्र पर अपना शिकंजा नहीं कस पा रहा है। संपादक और पत्रकार भी किसी मानव समाज के सदस्य है। उनकी रोजी रोटी की भी समस्याएं है। छोटे बडे निहित स्वार्थ ही स्पष्ट रूप से देखे जा सकते है। इसी पत्रकारिता का दूसरा पक्ष भी हमारे समक्ष है। जिसमें जागरूक और स्वाभिमानी संपादकों, पत्रकारों का ऐसा संवर्ग शामिल है जो समझौते करने को तैयार नहीं है। परिणाम स्वरूप दूध से मक्खी की तरह निकालकर बाहर फेंक दिये जाते है।
समाचार पत्रों का प्रमुख कर्तव्य विभिन्न उद्देश्यों से बनायी गयी सरकारी योजनाओं की जानकारी आम लोगों तक पहंुचाने का है। साथ ही देश के नागरिकों को उनके अधिकारों के विषय में जागष्त करना भी है। इस प्रकार की कर्तव्यनिष्ठता जहां एक ओर आम लोगों को उनका हक दिलायेगी वहीं दूसरी ओर समाचार पत्रों की लोकप्रियता भी कायम होगी। मुनाफाखोरी वाले इस मानवीय समाज में आज असली और नकली का फर्क कर पाना भी काफी मुश्किल काम हो गया है। जमाखोरी और कालाबाजारी ने ही समाज को जकड रखा है। समाचार पत्रों की प्रभावी भूमिका के चलते कालाबाजारी, मुनाफाखोरी और नकली माल बनाने वालों की गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सकता है। अपने मिशन को भूल चुका मीडिया आज आम आदमी की अभिव्यक्ति की आजादी की सहारा लेकर हर प्रकार के बंधनों को तोडने तैयार खडा है। वह उन मूल्यों और आदर्शों को भी मानने तैयार नहीं, जिनकी बांह पकडकर उसने समाज में अपनी विश्वसनीयता बनायी है। प्रेस काउंसिल जैसी वैधानिक संस्था अब वैश्वीकरण व उदारीकरण के समर्थकों के लिए मजाक बन गयी है। यही मीडिया जो सरकारी नियंत्रण का सख्त विरोधी है। खुद पर आत्म नियंत्रण के लिए भी तैयार नहीं है।
0 उत्पाद की तरह रोज जन्म ले रहे अखबार
समाचार पत्रों का महत्व इतिहास कालीन रहा है। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आजाद भारत की लंबी यात्रा में अखबारों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। जब हम आजाद नहीं थे, अथवा स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन दिनों में अखबार एक मिशन के रूप में हमारा सबसे बडा हथियार भी मना लिया गया था। अब आजादी की स्वच्छंद हवा में उसी अखबार का बदला रूप हमें दिखाई पड रहा है। यह अलग बात है कि पत्रकार एवं पत्रकारिता की मिशन वाली छवि अब धुंधले आईने का विषय बनकर रह गयी है। आम लोगों में जन जागरूकता जगाने वाले संपादकों से लेकर रिपोर्टर तक ने अपनी लिखने की शैली बदल डाली है। समाचार पत्र एवं मीडिया का भूमिका ने बदले समय में क्रांति की ज्वाला को शांत करने के साथ व्यापार का रूप अख्तियार कर लिया है। साथ ही मीडिया जगत में समाचार पत्रों में लिखी जाने वाली अभिव्यक्ति का तरीका भी बदल दिया है। हिंदी साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो भाषा का नया अविष्कार भी इसी मीडिया जगत ने कर दिखाया है। शुद्ध हिंदी के स्थान पर बाजार में प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाने लगा है। इतने ही नहीं लिखने वालों ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए हिंदी और इंग्लिस का मिला जुला रूप भी स्वीकार कर लिया है। भाषा जगत में ऐसी प्रचलित भाषा को हिंग्लिस के नाम से संबोधित किया जाने लगा है। हिंदी के कुछ ऐसे शब्द जो सामान्य रूप से प्रयोग से बाहर थे, अब लिखे जाने लगे है। अचानक शब्द का स्थान अब ’औचक’ शब्द ने ले लिया है। किसी अधिकारी द्वारा अचानक दौरा कर निरीक्षण करने के कार्य केा अब समाचार पत्र औचक निरीक्षण लिखने लगे है।
पत्रकारिता में एक बडा परिवर्तन बीते लगभग तीन दशकों से देखा जा रहा है। जब से कम्प्यूटर ने हमारे जीवन में प्रवेश किया है और पत्रकारिता कम्प्यूटरीकष्त हुई है, तब से अखबार निकालने वालों की चांदी हो गयी है। अंकों और शब्दों को जमाना अथवा कम्पोज करने का झंझट खत्म होने के साथ ही फोटो के लिए बनाये जाने वाली ब्लाॅक की औपचारिकता भी समाप्त हो चुकी है। अखबार प्रकाशन की परिवर्तित दुनिया में अखबार का मालिक वैज्ञानिक तरीके से परिपूर्ण अखबार छपाई को अमल में लाते यही चाहता है कि कम से कम खर्च में अखबार पाठकों के हाथ में पहंुच जाये। अखबार नवीशों द्वारा निकालने जाने वाले पदों को भी कुछ इसी तरह विज्ञापित किया जाता है, जिसमें चाहे गये कर्मचारी में रिपोर्टर से लेकर संपादक तक के कार्य करने की क्षमता अनिवार्य योग्यता के रूप में गिनी जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि समाचार संकलन के मैदान से लेकर उसे कम्प्यूटर के माध्यम से लिखा जाना और समाचार पत्र में उचित स्थान प्रदान करने तक की भूमिका एक व्यक्ति में समाहित की जाती है। इसका एक मात्र उद्देश्य एक ही वेतन में व्यक्ति से तीन व्यक्तियों का काम लेना है। तात्पर्य यह कि समाचार के लिए फिल्ड में जाना, कार्यालय पहंुचकर उस पर अच्छी कहानी तैयार करना, कम्प्यूटर पर कम्पोज करने के साथ पु्रफ रीडिंग करना, समाचार से संबंधित चित्रों का चयन करना और फिर अंतिम रूप से समाचार पत्र. में लगाने के साथ फोटो पर कैप्शन लिखना अपने आप में किसी बडी चुनौती से कम नहीं माना जा सकता है।
देखा जाये तो भूमंडलीकरण के इस दौर में समाचार पत्रों को किसी उत्पाद से कम नहीं माना जात रहा है। प्रतियोगी रूप में प्रतिवर्ष कुकुरमुत्ते की तरह उग आने वाले नये अखबार और पुराने समाचार पत्रों की विश्वसनीयता के बीच पाठक प्रकाशित की गयी खबरेां को एक उत्पाद की तरह ही देख रहे है और फिर जिस अखबार की खबर में रस न दिखाई पडे, उसे पाठक बेकार उत्पादक की श्रेणी में रखते हुए बाहर भी कर देने से परहेज नहीं कर रहे है। समाचार पत्रों में व्यापार का असर भी कम नहीं है। यही कारण है कि पत्र-पत्रिकाओं से लेकर हर छोटे बडे अखबारों में विज्ञापनो ंकी संख्या दिन प्रतिदिन बढती जा रही है। वर्तमान में समाचार पत्रों के कुल पष्ष्ठों के लगभग 60 से 70 प्रतिशत हिस्से विज्ञापनों से भरे पडे है। विज्ञापनों की आपाधापी में समाचार पत्रों से खबरों का अस्तित्व लुंज पुंज हो चला है। विज्ञापनों की अधिकता और संपादकों के दबाव के कारण समाचारों का संकलन बदले हुये रूप में किया जा रहा है। सीमित पष्ष्ठ और स्थान की कमी के कारण संपादक की कैंची सबसे पहले खबरों पर चलती है न कि विज्ञापनों पर। आज के बदले हुये समय में खबरों की प्रासंगिकता स्थान के आधार पर तय की जा रही है। खबर के हिस्से केा छोटा अथवा काट छांटकर रद्दी की टोकरी में फेंकना बडी आसानी से स्वीकार किया जा रहा है। अनेक अवसरों पर छापी जाने वाली खबरों का ओर छोर ही पाठक की समझ से परे होता है। साथ ही कई घटनाक्रमों पर लिखा गया समाचार संपादन के दष्ष्टिकोण से बिखरा बिखरा दिखाई पडने लगता है। आश्चर्य तो तब होता है जब महत्वपूर्ण समाचार में ’इन्ट्ो’ ही गायब दिखाई पडता है। जिससे अखबार का असर और उसकी संुदरता नष्ट हो जाती है।
समाचार पत्रों और प़ित्रकाओं में विगत कुछ दशकों से विज्ञापन की दुनिया में ऐसा तहलका मचाया है जिसके चलते खबरों के बीच में भी विज्ञापन ठूंसने का रिवाज चल निकला है। प्रकाशकों और संपादकों द्वारा यह भी नहीं देखा जा रहा है कि खबरों के बीच विज्ञापन समाचार की गंभीरता को किस कदर प्रभावित कर सकता है। यहां तक की राष्ट्ीय महत्व की खबरों के बीच भी विज्ञापन चस्पा किये जा रहे है। कुछ अधिक समझदार संपादकों द्वारा तो विज्ञापन को ही समाचार की शक्ल में प्रकाशित किया जा रहा है। इस प्रकार के परिवर्तन से पाठक यह समझ ही नहीं पाता है कि वास्तव में कौन सी खबर सच्ची और कौन से प्रयोजित है। स्त्रियां अब पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहा है या यह भी कहा जा सकता है कि स्त्री विमर्श के इस काल में स्त्रियों को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह तो दूर उलटा मीडिया उसे वस्तु की तरह पेश कर रहा है। इलेक्ट्ानिक मीडिया तथा प्रिंट मीडिया द्वारा महिलाओं की छवि केा दूषित करते हुए केवल उत्तेजक, मोहक और भोग्या के रूप में उसे प्रस्तुत किया जा रहा है। हम भली भांति यह भी जानते है कि भारतीय नारी की ऐसी छवि सांस्कृतिक परिदश्य में कहीं भी मेल नहीं खाती है। अखबारों में स्त्रियों की उत्तेजित करने वाली तस्वीरें शान के साथ प्रकाशित की जा रही है। चमकीले पन्नों पर उकेरे जाने के बाद इन तस्वीरों की ग्लैमर भूमिका और अधिक बढ जाती है। बदन दिखाउ तस्वीरें युवाओं के मन मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव तो डाल ही रही है, उनमें नैतिकता का गुण भी समाप्त हेाता जा रहा है।
वर्तमान समय में सामान्य रूप से देखा जा सकता है कि मुख्य और बडे समचार पत्रों ने भी अपनी प्रकाशनीय सामग्री में से साहित्य और सांस्कष्तिक पष्ष्ठ भूमि वाले हिस्सेां केा अलग निकाल दिया है। साहित्यिक सामग्रियों का प्रकाशन तो लगभग न के बराबर ही गया है। किसी महापुरूष अथवा साहित्यकार के पुण्यतिथि अथवा जयंती पर छापने वाले साहित्यिक लेख भी यदा कदा समाचार पत्रों में ही देखे जा रहे है। साहित्य के साथ ही भारतीय संस्कष्ति और पुस्तक समीक्षा भी अखबारों की विषय वस्तु नहीं रह गयी है। पूर्व वर्षों की तुंलना में समाचार के प्रस्तुतिकरण का तरीका भी बदल गया है। अब खबरों को रोचक बनाने से लेकर दिल को छू लेने वाला शीर्षक और चटखारे लेकर समाचार पढे जाने की मांग को समाचार प्रस्तुतिकरण की आवश्यक शर्त बना दिया गया है। देश विदेश की महत्वपूर्ण खबरों का पिटारा अथवा खजाना माने जाने वाले समाचार पत्रांे में फैशन, फिटनेस, सौंदर्य, खाना खजाना, माॅडल और आकर्षक ज्वेलरी को अहम स्थान देना ही एक मात्र लक्ष्य के रूप में सामने आ रहा है। समाज से प्रत्यक्ष रूप से संबंध रखने वाली रूढीवादी विचारों और चली आ रही बे-सिर-पैर की परंपरा केा समाप्त करने जनजागरूकता जैसे विषय अब मीडिया की प्राथमिकता में नहंी रहे हैं। आज मीडिया वही परोस रहा है जो विज्ञापनदाता बडी कंपनियां चाहती है। विज्ञापनदाता कंपनियों के दबाव के चलते इलेक्ट्ानिक मीडिया भी सामाजि समस्याओं को खुलकर अथवा उचित तरीके से नहीं दिखा पा रहा है।
सुप्रसिद्ध पत्रकार बी साईनाथ ने एक बार एक व्याख्यान माला में अपने अनुभव स्पष्ट करते हुए कहा था कि जब सन 2007 में मुंबई में लक्मे फैशन वीक के दौरान सूती वस्त्रों से बनी वेशभूषा का प्रदर्शन किया जा रहा था, तब विदर्भ में किसान कपास की कीमत न मिल पाने के कारण आत्महत्या कर रहे थे। इन दोनों घटनाओं के जिक्र करने के पीछे एक मात्र उद्देश्य यह है कि जहां लक्मे फैशन वीक के आयोजन को कव्हरेज देने के लिए पांच सौ से उपर मान्यता प्राप्त पत्रकार सप्ताह भर मुंबई में डटे रहे तथा सैकडों पत्रकार प्रतिदिन प्रवेश पत्र. के माध्यम से आते जाते रहे। वहीं विदर्भ में किसानों की आत्महत्या मामले को कव्हरेज देने महज आधा दर्जन पत्रकार ही पूरे देश से पहंुच पाये। यह बताने की जरूरत नहीं कि देश में सबसे अधिक आर्थिक संकट से जुझ रहे कष्षकों को लेकर मीडिया में कितनी जिम्मेदारी दिख रही है अथवा संवेदनशीलता की पराकाष्ठा समझी जा सकती है। समाचारों की विश्वसनीयता और जागरूकता से सरोकार रखने वाले संपादकों और पत्रकारों के दायित्व निवर्हन ने आने वाली समस्याओं को सुलझाने एवं उन पर विचार करने के लिए प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया का गठन किया गया है। पत्रकारिता की बदली निर्भयकारी गतिविधियों के चलते प्रेस काउंसिंग आॅफ इंडिया जैसी संस्था नख-दंत विहिन प्रतीत हो रही है। जो निरंकुश और भयावह मीडिया तंत्र पर अपना शिकंजा नहीं कस पा रहा है। संपादक और पत्रकार भी किसी मानव समाज के सदस्य है। उनकी रोजी रोटी की भी समस्याएं है। छोटे बडे निहित स्वार्थ ही स्पष्ट रूप से देखे जा सकते है। इसी पत्रकारिता का दूसरा पक्ष भी हमारे समक्ष है। जिसमें जागरूक और स्वाभिमानी संपादकों, पत्रकारों का ऐसा संवर्ग शामिल है जो समझौते करने को तैयार नहीं है। परिणाम स्वरूप दूध से मक्खी की तरह निकालकर बाहर फेंक दिये जाते है।
समाचार पत्रों का प्रमुख कर्तव्य विभिन्न उद्देश्यों से बनायी गयी सरकारी योजनाओं की जानकारी आम लोगों तक पहंुचाने का है। साथ ही देश के नागरिकों को उनके अधिकारों के विषय में जागष्त करना भी है। इस प्रकार की कर्तव्यनिष्ठता जहां एक ओर आम लोगों को उनका हक दिलायेगी वहीं दूसरी ओर समाचार पत्रों की लोकप्रियता भी कायम होगी। मुनाफाखोरी वाले इस मानवीय समाज में आज असली और नकली का फर्क कर पाना भी काफी मुश्किल काम हो गया है। जमाखोरी और कालाबाजारी ने ही समाज को जकड रखा है। समाचार पत्रों की प्रभावी भूमिका के चलते कालाबाजारी, मुनाफाखोरी और नकली माल बनाने वालों की गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सकता है। अपने मिशन को भूल चुका मीडिया आज आम आदमी की अभिव्यक्ति की आजादी की सहारा लेकर हर प्रकार के बंधनों को तोडने तैयार खडा है। वह उन मूल्यों और आदर्शों को भी मानने तैयार नहीं, जिनकी बांह पकडकर उसने समाज में अपनी विश्वसनीयता बनायी है। प्रेस काउंसिल जैसी वैधानिक संस्था अब वैश्वीकरण व उदारीकरण के समर्थकों के लिए मजाक बन गयी है। यही मीडिया जो सरकारी नियंत्रण का सख्त विरोधी है। खुद पर आत्म नियंत्रण के लिए भी तैयार नहीं है।
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