ज्योतिषीय गणित एवं ज्योतिषीय योग
ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे , 09827198828, भिलाई(छ.ग.)
जब दो या दो से अधिक ग्रह एक साथ एक ही राशि में बैठते हैं तो इसे ‘योग’ कहा जाता है। ‘योग’ अर्थात् एक से अधिक जमा होना, जुड़ना या एकत्रा होना। नौ ग्रह और बारह राशियां, इन सभी के हजारों ‘कांबिनेशन’ बनते हैं अर्थात हजारों योग एवं प्रत्येक का अलग नाम। जी हां! हजारों प्रकार के ज्योतिषीय योग, कुछ अच्छे व कुछ बुरे। अच्छे योग अच्छा फल देने वाले एवं बुरे योग कठिनाई उत्पन्न करने वाले। एकत्र होने के अतिरिक्त जब ग्रह अलग-अलग भावों में शृंखलाबध्द होकर एक विशेष क्रम में उपस्थित होते हैं तब भी अनेक योगों का निर्माण होता है। जब कुछ ग्रह आपस में दृष्टि संबंध् बनाते हैं तब भी विशेष योग बनते हैं। साथ ही सूर्य एवं चन्द्र से जब कुछ अन्य ग्रह विशेष क्रम या संबंध् बनाते हैं तब भी अनेक योगों का निर्माण होता है। अलग-अलग बैठे ग्रह अपने स्वभाव के अनुसार, जिस भाव में बैठे हैं उससे संबंध्ति एवं जिस राशि में हैं उससे अपने शत्रु -मैत्र संबंधनुसार ग्रहों की दृष्टि प्राप्त करते हैं। इसी क्षमता के अनुरूप समय आने पर ये अपने पफल अपने-अपने कारकत्वों के अनुसार प्रदान करते हैं। किन्तु जैसे ही ये अलग-अलग बैठे ग्रह किसी कुण्डली में एक भाव में दो या दो से अधिक एकत्र होते हैं तो उत्पन्न होता है एक चमत्कार। अलग-अलग बैठे ग्रह फल प्रदान करने की जो क्षमता रखते हैं, योग बनने पर उनकी क्षमता कई गुणा प्रभावित हो जाती है। ज्योतिष शास्त्र में फलित करने के लिए या भविष्यवाणी करने के लिए या जातक का मार्गदर्शन करने के लिए ज्योतिषी की दृष्टि इन्हीं योगों में से गुजर कर शब्द पाती है। बिना योगों के निरीक्षण किए कोई भी भविष्य-कथन अपूर्ण ही नहीं अपितु अमान्य है। इन्हीं योगों का संसार ज्योतिष के फलित या भविष्य-कथन का सर्वाधिक महत्वपूर्णा तत्व है। इन योगों में से अनेक के नाम से ही इनका महत्व स्पष्ट होता है। कुछ नाम जो सर्वसाधरण में प्रचलित हैं उन्हें देखिए- ‘ध्न योग’, ‘राज योग’, ‘कुबेर योग’, ‘हंस योग’, ‘महाभाग्य योग’, ‘शंख योग’, ‘शिव योग’, ‘विष्णु योग’ या पिफर ‘दरिद्र योग’, ‘सर्पशाप योग’, ‘जार योग’, ‘शकट योग’, ‘विहग योग’ जैसे हजारों योग, योगों की अनेक श्रेणियां व अनेक प्रकार। ज्योतिष में योगों का महत्व अतुलनीय व अवर्णनीय है।
ज्योतिषीय योग बन गया तो फल देगा ही यह आवश्यक नहीं है। यदि ऐसा होता तो एक ही कुण्डली में बनने वाले अनेक योग अपनी-अपनी प्रकृति अनुसार अच्छे या बुरे फल देते, पर क्या एक साथ? यह तो संभव नहीं है। तो क्या आगे-पीछे क्रमश:? तो फिर क्रम कैसे तय हो? ऐसे अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जिनका उत्तार उस जिज्ञासा को शांत करता है कि किसी कुण्डली में अनेक अच्छे योग होने पर भी जातक को सुख या उपलब्ध्यिां प्राप्त क्यों नहीं हुई? या फिर उस जिज्ञासा को कि किसी कुण्डली में अनेक बुरे योग बनते हैं फिर भी जातक क्यों सुख अनुभव करते हुए उन्नत हुआ? यहीं पर ज्योतिष की वह महत्वपूर्ण सीढ़ी प्राप्त होती है जो पफलित करने या भविष्य-कथन कहने या फिर मार्गदर्शन करने के लिए परमावश्यक है और देती है ‘उत्तर’ उन सभी प्रश्नों व जिज्ञासाओं का जिनका वर्णन उपर किया है। यह परमावश्यक तत्व है- ‘दशा-अन्तर्दशा’। ज्योतिष में अनेक प्रकार की दशाओं का वर्णन किया गया है। ‘दशा-अन्तर्दशा’ कुण्डली में उपस्थित राशियों व ग्रहों से संबंध्ति जो अलग-अलग कालखंड ‘जातक’ को प्राप्त होते हैं, उनकी वैज्ञानिक गणना है। यह गणना व्यक्ति या जातक के जन्म से मृत्यु-पर्यन्त पूर्ण समय का ज्योतिषीय गणित बहुत सूक्ष्म विभाजन ;डिस्ट्रीब्यूशन है। इस गणना में व्यक्ति प्रत्येक पल ;जन्म से मृत्यु तक किसी न किसी ग्रह की दशा-अन्तर्दशा के आधीन जीवन व्यतीत करता है अर्थात जीवन के हर क्षण किसी न किसी ग्रह का आध्पित्य जातक पर होता है अर्थात वह उसी के प्रभाव में होता है। दशा-अन्तर्दशा के अनुसार ही, जो योग जन्म-कुण्डली में प्राप्त हुए हैं, उन पर विचार किया जाता है। यदि प्राप्त ‘योगों’ का संबंध् चल रही ‘दशा-अन्तर्दशा’ से होगा तब तो योग फलित होगा अन्यथा वह योग संबंध्ति दशा-अन्तर्दशा के आने तक कोई विशेष प्रभाव उत्पन्न नहीं करेगा अर्थात ‘योग’ तो बना किन्तु फलित होगा अपने से संबंध्ति ‘दशा-अन्तर्दशा’ के कालखंड में। प्राय: ऐसा भी होता है कि संबंध्ति ‘दशा’ जीवन पर्यन्त प्राप्त नहीं हुई तो इस ‘योग’ का किसी भी प्रकार का कैसा भी फल प्राप्त नहीं होगा। योगों में वह क्षमता हैं कि वे जब फलित हों तो आश्चर्यजनक व अनपेक्षित लाभ या हानि ;योग की प्रकृतिनुसार प्रदान करते हैं।
मित्रों अब मैं बात करूंगा ज्योतिषीय गणित के कुछ पुराने फार्मूले का तो आईए.....
अब मै ज्योतिष नामक वेदांग का वर्णन करूंगा,जिसका पूर्वकाल में साक्षात ब्रहमाजी ने उपदेश किया,तथा जिसके विज्ञानमात्र से मनुष्यों की धर्म सिद्धि हो जाती है,ब्रह्मन ! ज्योतिष शास्त्र चार लाख स्लोकों का बताया जाता है,उसके तीन स्कन्ध है,जिनके नाम है,गणित सिद्धान्त, जातक (होरा) और संहिता.गणित मे परिकर्म (योग,अन्तर,गुणन, भजन वर्ग वर्गमूल घन और घनमूल ) ग्रहों के मध्यम और स्पष्ट करने की रीतियां बतायीं गयी है,इसके सिवा अनुयोग (देश,दिशा,और काल का ज्ञान) चन्द्र ग्रहण,सूर्य ग्रहण,उदय अस्त छायाधिकार चन्द्रश्रंगोन्नति ग्रहयुति तथा पात (महापात= सूर्य चन्द्रमा के कान्ति साम्य ) का साधन प्रकार कहा गया है.
- जातकस्कन्ध में राशिभेद ग्रहयोनि वियोनिज गर्भधान जन्म अरिष्ट आयुर्दाय दशा कर्म कर्माजीव अष्टकवर्ग राजयोग नाभसयोग चन्द्रयोग प्रव्रज्य योग राशिशील ग्रहद्रिष्टिफ़ल ग्रहों के भावफ़ल आश्रय योग प्रकीर्ण अनिष्टयोग स्त्रीजातकफ़ल निर्याण नष्टजन्म विधान और द्रेष्काणों का स्वरूप इन सब विषयों का वर्णन है.
- संहितास्कन्ध में ग्रहचार वर्षलक्षण तिथि दिन नक्षत्र योग करण मुहूर्त उपग्रह सूर्य संक्रान्ति ग्रहगोचर चन्द्रमा और तारा का बल समोपूर्ण लग्नो तथा ऋतुदर्शनो का विचार गर्भाधान पुंसवन सीमन्तोनयन जातकर्म नामकरण अन्नप्राशन चूडाकरण कर्णवेध उपनयन मौन्जीबन्धन क्षुरिकाबन्धन समावर्तन विवाह प्रतिष्ठा गृहलक्षण यात्रा गृहप्रवेश तत्काल वृष्टि ज्ञान कर्मवैलक्षण्य और उत्पत्ति का लक्षण इन सबका वर्णन है.
- गणित में एक ’इकाई’,दस ’दहाई’,शत ’सैकडा’,सहस्त्र ’हजार’,अयुत ’दसहजार’,लक्ष ’लाख’,प्रयुत ’दसलाख,कोटि ’करोड’,अर्बुद ’दसकरोड’,अब्ज ’अरब’,खर्ब ’दस अरब’,निखर्ब ’खरब’,महापद्म ’दस खरब’,शन्कु ’नील’,जलधि ’दस नील’,अन्त्य ’पद्म’,मद्य "दस पद्म’ परार्ध ’शंख’,इत्यादि संख्याबोधक संज्ञायें उत्तरोत्तर दसगुनी मानी गयी है,यथास्थानीय अंको का योग या अन्तर व्यतुक्रम से किया जाता है,गुणिक के अन्तिम अंक को गुणक से गुणना चाहिये,इस तरह से आदि अंक तक गुणन करने पर गुणनफ़ल प्राप्त होता है,इसी प्रकार से भागफ़ल जानने के लिये भी यत्न करना चाहिये,जितने अंक से भाजक के साथ गुणा करने पर भाज्य में से घट जाय,वही अंक लब्धि अथवा भागफ़ल होता है.दो समान अंको के गुणनफ़ल को वर्ग कहा जाता है,विद्वान पुरुष उसी को कृति कहते है,जैसे ४ का वर्ग ४ गुणा ४ = १६,और ९ का वर्ग ९गुणा ९= ८१ होता है,वर्गमूल जानने के लिये दाहिने अंक से लेकर बायें अंक तक अर्थात आदि से अन्त तक विषम और सम का चिन्ह कर देना चाहिये,खडी लकीर को विषम और आडी लकीर को सम का चिन्ह माना गया है,अन्तिम विषम में जितने वर्ग घट सकें उतने घटा देना चाहिये,फ़िर उसे दूना करके पंक्ति में रख दें,हे मुनीश्वर ! इस प्रकार बार बार करने से पंक्ति का आधा वर्गमूल होता है.
- समान तीन अंकों के गुणनफ़ल को घन कहा जाता है,घनमूल निकालने की विधि इस प्रकार से है,दाहिने प्रथम अंक पर घन या विषम का चिन्ह खडी लकीर के रूप में लगाया जाता है,उसके वामभाग में पार्श्ववर्ती दो अंको पर पडी लकीर के रूप में अघन या सम का निशान लगाया जाता है,अन्तिम या विषम घन में जितने घन घट सकें,उतने घटा दें,उस घन को अलग रखें,उसका घनमूल लें और उस घनमूल का वर्ग करें,फ़िर उसमे से तीन का गुणा करें,उससे आदि अंक में भाग दें,लब्धि को अलग लिख दें,उस लब्धि का वर्ग करें,और उसमें अन्त्य (प्रथम मूलांक) एवं तीन से गुणा करें,फ़िर उसके बाद के अंक में से उसे घटा दें,तथा अलग रखी हुई लब्धि के घन को अगले घन अंक से घटा दें,इस प्रकार बार बार करने से घनमूल सिद्ध होता है.
- भिन्न अंको के परस्पर हर से हर (भाजक) और अंश (भाज्य) दोनो को गुण देने से सबके नीचे बराबर हर हो जाता है,भागप्रभाग में अंश को अंश से और हर को हर से गुणा करना चाहिये,भागानुबन्ध एवं भागाप्रवाह में यदि एक अंक अपने अंश से अधिक या ऊन होवे,तो तलस्थ हर से ऊपर वाले हर को गुण देना चाहिये,उसके बाद अपने अंश से अधिक ऊन किये हुये हर से (अर्थात भागानुबन्ध में हर अंश का योग करके और भागाप्रवाह में हर अंश का अन्तर करके) अंश को गुण देना चाहिये.ऐसा करने से भागानुबन्ध और भागाप्रवाह फ़ल सिद्ध होता है,जिसके नीचे हर न हो,उसके नीचे १ हर की कल्पना करनी चाहिये,भिन्न गुणन साधन में अंश अंश का गुणन करना चाहिये,और हर हर के गुणन से भाग देना चाहिये,इससे भिन्न गुणन में फ़ल की सिद्धि होती है,(जैसे २/७ गुणित ३/८ यहां २ और ३ अंश है,और ७ और ८ हर है,हर के गुणन से ७ गुणा ८ = ५६ हुआ फ़िर ६ भाग ५६ करने से ६/५६,जिसे २ से काटने पर ३/२८ उत्तर हुआ).
- विद्वन ! भिन्न संख्या के भाग में भाजक के हर और अंश को परिवर्तित कर यानी हर को अंश और अंश को हर बना कर फ़िर भाज्य के हर अंश के साथ,गुणन क्रिया करनी चाहिये,इससे भागफ़ल सिद्ध होता है,भिन्नांक के वर्गादि साधन में यदि वर्ग करना हो,तो हर और अंश दोनो का वर्ग करे,और घन करना हो तो दोनो का घन करे,इसी प्रकार से वर्गमूल निकालना हो तो दोनो का वर्गमूल निकाले,और घनमूल निकालना हो तो दोनो का घनमूल निकाले.विलोम विधि से राशि जानने के लिये द्र्श्य में हर को गुणक,गुणक को हर,वर्ग को मूल,और मूल को वर्ग ऋण को धन और धन को ऋण बनाकर अन्त में उल्टी क्रिया करने से राशि इष्ट संख्या ज्ञात होती है.विशेषता यह है,कि जहां अपना अंश जोडा गया है,वहां हर में अंश को जोड कर और जहां अपना अंश घटाया गया है,वहां हर में अंश को घटाकर हर कल्पना करे,और अंश ज्यों का त्यों रहे,फ़िर द्र्श्य राशि में विलोम क्रिया उक्त रीति से करे तो राशि सिद्ध होती है.
- अभीष्ट संख्या जानने के लिये इष्ट राशि की कल्पना करे,फ़िर प्रश्नकर्ता के अनुसार उस राशि को गुणा करे या भाग दे,कोई अंश घटाने को कहा गया हो तो घटावे,और जोडने के लिये कहा गया हो तो जोडे,अर्थात प्रश्न में जो जो क्रियायें कही गयी है,वे सब इष्ट राशि में करके फ़िर जो राशि निष्पन्न हो उससे कल्पित इष्टगुणित द्र्ष्ट में भाग दे,उसमें जो लब्धि हो वही इष्ट राशि है.
- संक्रमण गणित में यदि दो संख्याओं का योग और अन्तर ज्ञात हो,के योग को दो जगह लिख कर एक जगह अन्तर को जोड कर आधा कर ले,तो एक संख्या का ज्ञान होगा,और दूसरी जगह अन्तर को घटाकर आधा करे तो दूसरी संख्या ज्ञात होगी,इस प्रकार से दोनो राशियां मालुम हो जायेंगी,वर्णसंक्रमण में यदि दो संख्याओं का वर्गान्तर तथा अन्तर ज्ञात हो, तो वर्गान्तर में अन्तर से भाग देने पर जो लब्धि आती है,वही उनका योग है,योग का ज्ञान हो जाने पर फ़िर पूर्वोक्त प्रकार से दोनो संख्याओं का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये.वर्गक्रम गणित में इष्ट का वर्ग करके उसमे ८ से गुणा करे,फ़िर १ घटा दे,उसका आधा करे,बाद में उसमे इष्ट से भाग दे तो एक राशि आती है,फ़िर उसका वर्ग करके आधा करे,और उसके अन्दर एक जोड दे,तो दूसरी संख्या ज्ञात होती है,अथवा कोई इष्ट कल्पना करके उस द्विगुणित इष्ट से १ मे भाग देकर लब्धि में इष्ट को जोडे तो प्रथम संख्या ज्ञात होगी,और दूसरी संख्या १ होगी,यह दोनो संख्यायें वे ही होंगी,जिनके वर्गों के योग और अन्तर में १ घटाने पर भी वर्गांक ही शेष रहता है.किसी इष्ट के वर्ग का वर्ग तथा पृथक उसी का घन करके दोनो को प्रथक प्रथक ८ से गुणा करे,फ़िर पहले में से १ जोडे, तो दोनो संख्यायें ज्ञात होंगी,यह विधि व्यक्त और अव्यक्त दोनो गणितों में उपयुक्त हैं.
- गुणकर्म अपने इष्टांकगुणित मूल से ऊन या युक्त होकर अदि कोई संख्या दिखाई दे,तो मूल गुणक के आधे का वर्ग दिखाई देने वाली संख्या में जोडकर मूल लेना चाहिये,उसमे क्रम से मूल गुणक के आधा जोडना,और घटाना चाहिये,अर्थात जहां इष्टगुणितमूल से ऊन होकर द्रश्य हो,वहां गुणाकार्ध जोडना तथा यदि इष्टगुणितमूल युक्त होकर द्रश्य हो तो उक्त मूल में गुणाकार्ध घटाना चाहिये.फ़िर उसका वर्ग क्रम कर लेने से प्रश्न कर्ता की अभीष्ट राशि यानी संख्या सिद्ध होती है,यदि राशि मूलोन या मूल युक्त होकर पुन: अपने किसी भाग से भी ऊन या युत होकर द्रश्य होती है,तो उस भाग को १ में ऊन या युत कर (यदि भाग ऊन हुआ तो घटाकरके,और युत हुआ तो जोडकरके) उसके द्वारा पृथक प्रुथक द्रश्य मूल गुणक में भाग दे,फ़िर इस नूतन द्रश्य और मूल गुणक से पूर्ववत राशि का साधन करना चाहिये,त्रैराशिक में प्रमाण और इच्छा समान जाति के होते है,इन्हे आदि और अन्त में रखे,फ़ल भिन्न जाति का है,अत: उसे मध्य में स्थापित करे,फ़ल को इच्छा से गुणा करके प्रमाण के द्वारा भाग देने से लब्धि इष्टफ़ल होती है.यह क्रम त्रैराशिक बताया जाता है,व्यस्त त्रैराशिक में इससे विपरीत क्रिया करनी चाहिये,अर्थात प्रमाण फ़ल को प्रमाण से गुणा करके इच्छा से भाग देने पर लब्धि इष्टफ़ल होती है,प्रमाण,प्रमाणफ़ल,और इच्छा इन तीन राशियों को जानकर इच्छाफ़ल जानने की क्रिया को त्रैराशिक कहते हैं.
- पंचराशिक,सप्तराशिक आदि में फ़ल और हरों को परस्पर पक्ष में परिवर्तन करके अर्थात प्रमाण पक्षबाले को इच्छापक्ष में और इच्छापक्ष बाले को प्रमाण पक्ष में रखकर अधिक राशियों के घात में भाग देने पर जो लब्धि आवे,वही इच्छा फ़ल कहा जाता है.साधारण गणित में मिश्रधन को इष्ट मानकर इष्टकर्म से मूलधन का पता करे,उसको मिश्रधन से घटाने पर कलान्तर यानी सूद या ब्याज समझना चाहिये,अपने अपने प्रमाण धन से अपने अपने फ़ल को गुणा करना उसमे अपने अपने व्यतीत काल और फ़ल के घात से भाग देना,लब्धि को पृथक रहने देना,उन सब में उन्ही के योग का पृथक पृथक भाग देना,तथा सबको मिश्रधन से गुणा कर देना चाहिये,फ़िर क्रम से प्रयुक्त व्यापार में लगाये हुये धन खण्ड के प्रमाण मालुम चलते है.
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