समाहित है वेदों में दुनिया के अनेको ज्ञान-विज्ञान :
आज जहा एक तरफ वेदों से लोगों का ध्यान बाँट कर अश्लीलता भरी कु-संस्कृति का भ्रामक माया जाल बुना जा रहा है वही वेदों की अहमियत कुछ इस प्रकार है -
भारतीय संस्कृति की अनादि पर परा के प्रतीक वेद सर्वांग जीवनपद्घति और संस्कार निर्माण के महास्रोत हैं जिनका अवगाहन समष्टि और व्यष्टि तक में महापरिवर्तन ला सकता है। वैदिक ज्ञान-विज्ञान के बारे में आज बहुसं य जनता की सोच क्षीण होती जा रही है जबकि भारतीय संस्कृति के इस महान ज्ञान भण्डार का लाभ लिया जाकर भारतवर्ष को पुनः विश्व गुरु की पदवी पर आरूढ किया जा सकता है। वेद अपौरुषेय व अनन्त राशि हैं। उनको पूर्ण कोई भी पढ नहीं सकता। इसकी पूर्णता का ज्ञान ब्रह्मा भी नहीं कर सकते। द्वापर के अंत में नारायण स्वयं व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए। उन्होंने मानवों की आयु अल्प जानकर वेद के 4 विभाग किये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद तथा 4 शिष्यों को एक-एक वेद का ज्ञान कराया। ऋग्वेद पैलकों को, यजुर्वेद वैश पायन को, सामवेद जैमुनि को तथा अथर्ववेद सुमन्तु को,--ये चारों शिष्य व्यास के पास वेदा यासार्थ रहे। पूर्व में भरद्वाज मुनि ब्रह्मा के पास जिनकी आयु ब्रह्मा कल्पत्रय पर्यन्त थी वे भी ब्रह्मा से पूर्णवेद का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके।--अतः मनुष्य वेद को पूर्ण कर ही नहीं सकता। ऋग्वेद विषय में व्यास ने पैलकों को शाखाओं का वर्णन बताया। व्यास ने पैलको ऋग् के विषय में ध्यान आकृति आदि ऋक के बारे में बताया। ऋग् वेद का उपवेद आयुर्वेद है ब्रह्मा देवता गोत्र अभि तथा गायत्री छन्द रक्तवर्ण पद्म पत्र समनेत्र विभक्त कंठ व भेद चर्चा, श्रावक, चर्चक, श्रवणीयपार, श्रमपार, जय रथक्रम, दंडक्रम आदि पारायण विधि है शाखा 1 आश्वलायनी, 2 सां यायनि, 3 शाकला, 4 बाष्कला, 5 मांडुकेयी। इस प्रकार व्यास महर्षि ने पैलको समझाया आठ विकृतियों के साथ एक शाखा का भी पूर्ण पठन करना ही कठिन है। इस प्रकार अथर्व का भी शास्त्रों में बहु विस्तार है। साम की सात शाखा मु य आशुरायणी, वार्तान्त वेद वासुरायणी, प्रांजली, प्राचीन योगी, ज्ञानयोगी, राणायणी, इस प्रकार वेद राशि अनन्त विस्तारपूर्वक है। पूर्व में वेद पाठी ब्राह्मण परिश्रम पूर्वक वेद पाठ करते थे जिससे राजा भी उनको बुलाकर स मान करते थे। इस युग में रूद्र पाठ भी शुद्घ नहीं पढकर कई लोग वेदी पाठी होने का दंभ भरते हैं तथा कर्मकांड में मंत्रों का उच्चारण भी शुद्घ नहीं करते। शास्त्रों में कहा है कि देवाधीनं जगत सर्वम् मन्त्राधीनस्तुदेवता, ते मंत्रा ब्राह्मणाधीना। इस प्रकार ब्राह्मणों को भूमि पर प्रत्यक्ष देवता रूप में मान्यता थी। आज स्वार्थवश वेद को भूलकर दूसरी भाषा तरफ लक्ष्य संधान किया जा रहा है अतः वेद पाठी ब्राह्मण दुर्लभ हो गये हैं। बांसवाडा में नागर समाज में वैदिक विद्वानों का साम्राज्य रहा है। इनमें चारों वेदों के ज्ञाता थे। अतः उन्हें चारों तरफ से सन्मान मिलता था। वेद रक्षा यत्नतापूर्वक करना ही , ब्राह्मण का सच्चा धर्म है। पदार्थो के वास्तविक स्वरूप का निर्णय करने के लिए शास्त्रों को ही प्रबल प्रमाण माना जाता है अपना बुद्घि बल नहीं क्योंकि मानवों का बुद्घिबल व्यवस्थित नहीं होता। विशेषकर वेदो के विषय में शास्त्र दृष्टि से ही विचार होना चाहिये क्योंकि वेदों में अलौकिक विषय प्रतिपादित हैं, जहाँ मानव का बुद्घिबल कुण्ठित हो जाता है। अतएव मीमांसकों व वेदान्तियों ने वेदों का अपौरुषेय सिद्घ किया है अर्थात वेद किसी पुरुष के द्वारा नहीं रचे गये हैं। यद्यपि आज का मानव यह मानने को तैयार नहीं है कि वाक्य हों और वे किसी पुरुष के द्वारा रचित न हों। भारत की विविध भाषाओं में जितने साहित्य उपलब्ध हैं उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जो पुरुष के द्वारा न रचा गया हो। ऐसी स्थिति में वेद मात्र क्यों कर अपौरुषेय होगा। यद्यपि यह शंका अपने आप में ठीक ही है किन्तु इस सन्दर्भ में यह भी विचार करना चाहिये कि उपलब्ध साहित्य में क्या कोई ऐसा ग्रन्थ विद्यमान है जिसके रचयिता का स्मरण नहीं होता हो। एक पक्षीय विचार नहीं करना चाहिये। संसार में लाखों करोडों लोग विद्यमान हैं। अगणित का स्मरण भी किया जाता है। पाणिनी की परिभाषाओं को हम पढते हैं परंतु उनको हम भूलते नहीं। कालिदास के ग्रन्थ का अध्ययन करते हैं परन्तु उन्हें याद न रखें ऐसा नहीं हो सकता। किरातार्जुन पढते समय भारवी कवि की स्मृति हो आती है।--रामायणादि पढें पर वाल्मिकी व तुलसीदास जी की याद न आए, ऐसा नहीं हो सकता। इसी तरह से अध्ययन-अध्यापन की पर परा में विद्यमान वेदों के पढने वालों में आज तक किसी ने नहीं कहा कि इनका रचयिता अमुक है। इससे सिद्घ होता है कि इनके कर्त्ता का स्मरण नहीं होता, अतः ये अपौरुषेय हैं।द्यपि संभव है कि कतिपय लोगों को ग्रन्थ के रचयिता की सत्ता का स्मरण नहीं किन्तु सभी के लिए ऐसा नहीं कहा जा स यकता। उसमें भी जो ग्रन्थ पठन-पाठन की पर परा में प्रचलित है, उनके कर्त्ता का स्मरण किसी को न हो यह कदापि संभव नहीं। केवल वेद ही इसके अपवाद हैं। इसी लिए वेदों को अपौरुषेय माना गया है। अन्यों के धार्मिक ग्रंथों को भी वेदों की तरह अपौरुषेय सिद्घ करने की कुछ लोग चेष्टा करते हैं किन्तु साथ ही ग्रन्थों के निर्माता का भी स्मरण करते हैं। इनमें काल की गणना स्पष्टतः ज्ञात होती है किन्तु वेदों के विषय में अनुमान का आश्रय लेना पडेगा । अनुमान में हेतु का परीक्षण आवश्यक होता है। जो हेतु (कारण) कहीं पर भी अभिचरित व बाधित न होता हो। वहीं साध्य को सिद्घ कर सकता है। साध्य जिसे सिद्घ करना है, का भी परीक्षण आवश्यक है। परीक्षण से निष्कर्ष निकलता है कि वेद अपौरुषेय--है जबकि अन्य में पौरुषेयता देखी गई है जैसे रामायण महाभारत आदि। वेदो में भी वाक्यता विद्यमान है अतः वेद अपौरुषेय है। यद्यपि यह सत्य है। किन्तु तर्क समुचित नहीं है क्योंकि रामायण, महाभारत की वाक्यता के साथ ही उनके कर्त्ता का भी स्मरण होता है। वेदों में वाक्यता तो है किन्तु कर्त्ता का स्मरण नहीं होता। अतः वाक्यता को हेतु मानकर वेदों को पौरुषेय सिद्घ करना कठिन है। ऐसे में साध्य पौरुषेयता का परीक्षण करना चाहिये। पौरुषेयता का क्या अर्थ है। व्यास, वाल्मीकि कालिदास आदि के ग्रन्थों मे जो पद्यों की जो विलक्षणता पायी जाती है वह उन्हीं की है तत्सद्रश अनुपूर्वियों की अपेक्षा न करते हुए उन्होंने अपने-अपने ग्रन्थ प्रणयन किये हैं। अर्थात सत्यं सत्यं पुनः सत्यं उद्रव्य भुजमुच्यते। वेदशास्त्रात्परंनास्ति देवं केशवात्परं तपस्वाध्यायरिते.....। वेदों में दुनिया का तमाम ज्ञान-विज्ञान समाहित है वहीं वास्तविक वेदज्ञों का जीवन स पूर्ण आध्यात्मिक होने के साथ ही लौकिक एवं पारलौकिक वैभव से परिपूर्ण रहता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि वेदों के संरक्षण के साथ ही इसमें निहित ज्ञानराशि के बारे में वर्तमान पीढी को अवगत कराया जाए और इसके महत्व का सहज, सरल एवं सुबोधग य रीति से प्रतिपादन किया जाए। वैदिक पर पराओं के संरक्षण तथा वैदिक विज्ञान के प्रचार-प्रसार आज की युगीन आवश्यकता है। भावी पीढियों तक इस अमूल्य धरोहर को संवहित करने का दायित्व वेद विद्वानों के कंधों पर है। वेद और ज्योतिष के पारस्परिक अन्तर्स बंधों को समझें तो इनमें स्पष्ट किया गया कि इनका परस्पर गहन समन्वय है। ज्योतिष को वेद के चक्षु कहा गया है। वेदों के पठन-पाठन में उदात्त एवं अनुदात्त स्वरों, आरोह-अवरोह, उच्चारण माधुर्य और लयात्मकता के प्रभाव पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाना जरूरी है। अर्थ के साथ वेद गान व पठन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। स्पष्ट उच्चारण से ही वेदपाठ की सार्थकता है। इसके लिए स्वरों की अभिव्यक्ति की दृष्टि से हस्त चलाने की जरूरत नहीं है लेकिन स्वरों के अनुरूप ऋचाओं का पठन जरूरी है। इसके साथ ही वेदों के प्रति अगाध श्रद्घा एवं आस्था के साथ इनके पठन से आशातीत प्रभाव देखा जा सकता है। जिससे सत्य का उद्घाटन होकर अलौकिक एवं शाश्वत आनन्द और ज्ञान की प्राप्ति होती है वही वेद है। वेद-वेदांग एवं इनके पारस्परिक संबंधों को समझने के लिए इस के छह अंगों शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूपण, छन्द एवं ज्योतिष आदि पर विस्तृत अध्ययन-मनन की जरूरत है। आयुर्वेद को अथर्ववेद का उप वेद माना गया है। आज वेद और आयुर्वेद के संबंधों पर गहन अनुसंधान की आवश्यकता है। वैदिक संस्कृति और वैदिक ज्ञान-विज्ञान के रहस्यों को आत्मसात कर इसके अनुरूप जीवनयापन से व्यक्ति, समाज और परिवार को उच्चतम शिखरों का संस्पर्श कराया जा सकता है।
आज जहा एक तरफ वेदों से लोगों का ध्यान बाँट कर अश्लीलता भरी कु-संस्कृति का भ्रामक माया जाल बुना जा रहा है वही वेदों की अहमियत कुछ इस प्रकार है -
भारतीय संस्कृति की अनादि पर परा के प्रतीक वेद सर्वांग जीवनपद्घति और संस्कार निर्माण के महास्रोत हैं जिनका अवगाहन समष्टि और व्यष्टि तक में महापरिवर्तन ला सकता है। वैदिक ज्ञान-विज्ञान के बारे में आज बहुसं य जनता की सोच क्षीण होती जा रही है जबकि भारतीय संस्कृति के इस महान ज्ञान भण्डार का लाभ लिया जाकर भारतवर्ष को पुनः विश्व गुरु की पदवी पर आरूढ किया जा सकता है। वेद अपौरुषेय व अनन्त राशि हैं। उनको पूर्ण कोई भी पढ नहीं सकता। इसकी पूर्णता का ज्ञान ब्रह्मा भी नहीं कर सकते। द्वापर के अंत में नारायण स्वयं व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए। उन्होंने मानवों की आयु अल्प जानकर वेद के 4 विभाग किये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद तथा 4 शिष्यों को एक-एक वेद का ज्ञान कराया। ऋग्वेद पैलकों को, यजुर्वेद वैश पायन को, सामवेद जैमुनि को तथा अथर्ववेद सुमन्तु को,--ये चारों शिष्य व्यास के पास वेदा यासार्थ रहे। पूर्व में भरद्वाज मुनि ब्रह्मा के पास जिनकी आयु ब्रह्मा कल्पत्रय पर्यन्त थी वे भी ब्रह्मा से पूर्णवेद का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके।--अतः मनुष्य वेद को पूर्ण कर ही नहीं सकता। ऋग्वेद विषय में व्यास ने पैलकों को शाखाओं का वर्णन बताया। व्यास ने पैलको ऋग् के विषय में ध्यान आकृति आदि ऋक के बारे में बताया। ऋग् वेद का उपवेद आयुर्वेद है ब्रह्मा देवता गोत्र अभि तथा गायत्री छन्द रक्तवर्ण पद्म पत्र समनेत्र विभक्त कंठ व भेद चर्चा, श्रावक, चर्चक, श्रवणीयपार, श्रमपार, जय रथक्रम, दंडक्रम आदि पारायण विधि है शाखा 1 आश्वलायनी, 2 सां यायनि, 3 शाकला, 4 बाष्कला, 5 मांडुकेयी। इस प्रकार व्यास महर्षि ने पैलको समझाया आठ विकृतियों के साथ एक शाखा का भी पूर्ण पठन करना ही कठिन है। इस प्रकार अथर्व का भी शास्त्रों में बहु विस्तार है। साम की सात शाखा मु य आशुरायणी, वार्तान्त वेद वासुरायणी, प्रांजली, प्राचीन योगी, ज्ञानयोगी, राणायणी, इस प्रकार वेद राशि अनन्त विस्तारपूर्वक है। पूर्व में वेद पाठी ब्राह्मण परिश्रम पूर्वक वेद पाठ करते थे जिससे राजा भी उनको बुलाकर स मान करते थे। इस युग में रूद्र पाठ भी शुद्घ नहीं पढकर कई लोग वेदी पाठी होने का दंभ भरते हैं तथा कर्मकांड में मंत्रों का उच्चारण भी शुद्घ नहीं करते। शास्त्रों में कहा है कि देवाधीनं जगत सर्वम् मन्त्राधीनस्तुदेवता, ते मंत्रा ब्राह्मणाधीना। इस प्रकार ब्राह्मणों को भूमि पर प्रत्यक्ष देवता रूप में मान्यता थी। आज स्वार्थवश वेद को भूलकर दूसरी भाषा तरफ लक्ष्य संधान किया जा रहा है अतः वेद पाठी ब्राह्मण दुर्लभ हो गये हैं। बांसवाडा में नागर समाज में वैदिक विद्वानों का साम्राज्य रहा है। इनमें चारों वेदों के ज्ञाता थे। अतः उन्हें चारों तरफ से सन्मान मिलता था। वेद रक्षा यत्नतापूर्वक करना ही , ब्राह्मण का सच्चा धर्म है। पदार्थो के वास्तविक स्वरूप का निर्णय करने के लिए शास्त्रों को ही प्रबल प्रमाण माना जाता है अपना बुद्घि बल नहीं क्योंकि मानवों का बुद्घिबल व्यवस्थित नहीं होता। विशेषकर वेदो के विषय में शास्त्र दृष्टि से ही विचार होना चाहिये क्योंकि वेदों में अलौकिक विषय प्रतिपादित हैं, जहाँ मानव का बुद्घिबल कुण्ठित हो जाता है। अतएव मीमांसकों व वेदान्तियों ने वेदों का अपौरुषेय सिद्घ किया है अर्थात वेद किसी पुरुष के द्वारा नहीं रचे गये हैं। यद्यपि आज का मानव यह मानने को तैयार नहीं है कि वाक्य हों और वे किसी पुरुष के द्वारा रचित न हों। भारत की विविध भाषाओं में जितने साहित्य उपलब्ध हैं उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जो पुरुष के द्वारा न रचा गया हो। ऐसी स्थिति में वेद मात्र क्यों कर अपौरुषेय होगा। यद्यपि यह शंका अपने आप में ठीक ही है किन्तु इस सन्दर्भ में यह भी विचार करना चाहिये कि उपलब्ध साहित्य में क्या कोई ऐसा ग्रन्थ विद्यमान है जिसके रचयिता का स्मरण नहीं होता हो। एक पक्षीय विचार नहीं करना चाहिये। संसार में लाखों करोडों लोग विद्यमान हैं। अगणित का स्मरण भी किया जाता है। पाणिनी की परिभाषाओं को हम पढते हैं परंतु उनको हम भूलते नहीं। कालिदास के ग्रन्थ का अध्ययन करते हैं परन्तु उन्हें याद न रखें ऐसा नहीं हो सकता। किरातार्जुन पढते समय भारवी कवि की स्मृति हो आती है।--रामायणादि पढें पर वाल्मिकी व तुलसीदास जी की याद न आए, ऐसा नहीं हो सकता। इसी तरह से अध्ययन-अध्यापन की पर परा में विद्यमान वेदों के पढने वालों में आज तक किसी ने नहीं कहा कि इनका रचयिता अमुक है। इससे सिद्घ होता है कि इनके कर्त्ता का स्मरण नहीं होता, अतः ये अपौरुषेय हैं।द्यपि संभव है कि कतिपय लोगों को ग्रन्थ के रचयिता की सत्ता का स्मरण नहीं किन्तु सभी के लिए ऐसा नहीं कहा जा स यकता। उसमें भी जो ग्रन्थ पठन-पाठन की पर परा में प्रचलित है, उनके कर्त्ता का स्मरण किसी को न हो यह कदापि संभव नहीं। केवल वेद ही इसके अपवाद हैं। इसी लिए वेदों को अपौरुषेय माना गया है। अन्यों के धार्मिक ग्रंथों को भी वेदों की तरह अपौरुषेय सिद्घ करने की कुछ लोग चेष्टा करते हैं किन्तु साथ ही ग्रन्थों के निर्माता का भी स्मरण करते हैं। इनमें काल की गणना स्पष्टतः ज्ञात होती है किन्तु वेदों के विषय में अनुमान का आश्रय लेना पडेगा । अनुमान में हेतु का परीक्षण आवश्यक होता है। जो हेतु (कारण) कहीं पर भी अभिचरित व बाधित न होता हो। वहीं साध्य को सिद्घ कर सकता है। साध्य जिसे सिद्घ करना है, का भी परीक्षण आवश्यक है। परीक्षण से निष्कर्ष निकलता है कि वेद अपौरुषेय--है जबकि अन्य में पौरुषेयता देखी गई है जैसे रामायण महाभारत आदि। वेदो में भी वाक्यता विद्यमान है अतः वेद अपौरुषेय है। यद्यपि यह सत्य है। किन्तु तर्क समुचित नहीं है क्योंकि रामायण, महाभारत की वाक्यता के साथ ही उनके कर्त्ता का भी स्मरण होता है। वेदों में वाक्यता तो है किन्तु कर्त्ता का स्मरण नहीं होता। अतः वाक्यता को हेतु मानकर वेदों को पौरुषेय सिद्घ करना कठिन है। ऐसे में साध्य पौरुषेयता का परीक्षण करना चाहिये। पौरुषेयता का क्या अर्थ है। व्यास, वाल्मीकि कालिदास आदि के ग्रन्थों मे जो पद्यों की जो विलक्षणता पायी जाती है वह उन्हीं की है तत्सद्रश अनुपूर्वियों की अपेक्षा न करते हुए उन्होंने अपने-अपने ग्रन्थ प्रणयन किये हैं। अर्थात सत्यं सत्यं पुनः सत्यं उद्रव्य भुजमुच्यते। वेदशास्त्रात्परंनास्ति देवं केशवात्परं तपस्वाध्यायरिते.....। वेदों में दुनिया का तमाम ज्ञान-विज्ञान समाहित है वहीं वास्तविक वेदज्ञों का जीवन स पूर्ण आध्यात्मिक होने के साथ ही लौकिक एवं पारलौकिक वैभव से परिपूर्ण रहता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि वेदों के संरक्षण के साथ ही इसमें निहित ज्ञानराशि के बारे में वर्तमान पीढी को अवगत कराया जाए और इसके महत्व का सहज, सरल एवं सुबोधग य रीति से प्रतिपादन किया जाए। वैदिक पर पराओं के संरक्षण तथा वैदिक विज्ञान के प्रचार-प्रसार आज की युगीन आवश्यकता है। भावी पीढियों तक इस अमूल्य धरोहर को संवहित करने का दायित्व वेद विद्वानों के कंधों पर है। वेद और ज्योतिष के पारस्परिक अन्तर्स बंधों को समझें तो इनमें स्पष्ट किया गया कि इनका परस्पर गहन समन्वय है। ज्योतिष को वेद के चक्षु कहा गया है। वेदों के पठन-पाठन में उदात्त एवं अनुदात्त स्वरों, आरोह-अवरोह, उच्चारण माधुर्य और लयात्मकता के प्रभाव पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाना जरूरी है। अर्थ के साथ वेद गान व पठन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। स्पष्ट उच्चारण से ही वेदपाठ की सार्थकता है। इसके लिए स्वरों की अभिव्यक्ति की दृष्टि से हस्त चलाने की जरूरत नहीं है लेकिन स्वरों के अनुरूप ऋचाओं का पठन जरूरी है। इसके साथ ही वेदों के प्रति अगाध श्रद्घा एवं आस्था के साथ इनके पठन से आशातीत प्रभाव देखा जा सकता है। जिससे सत्य का उद्घाटन होकर अलौकिक एवं शाश्वत आनन्द और ज्ञान की प्राप्ति होती है वही वेद है। वेद-वेदांग एवं इनके पारस्परिक संबंधों को समझने के लिए इस के छह अंगों शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूपण, छन्द एवं ज्योतिष आदि पर विस्तृत अध्ययन-मनन की जरूरत है। आयुर्वेद को अथर्ववेद का उप वेद माना गया है। आज वेद और आयुर्वेद के संबंधों पर गहन अनुसंधान की आवश्यकता है। वैदिक संस्कृति और वैदिक ज्ञान-विज्ञान के रहस्यों को आत्मसात कर इसके अनुरूप जीवनयापन से व्यक्ति, समाज और परिवार को उच्चतम शिखरों का संस्पर्श कराया जा सकता है।
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