ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शनिवार, 1 जुलाई 2017

पुराणों ने पूर्व में ही सृष्टि के अधिष्ठाता विष्णु को 'White Hole एवं रुद्र Black Hole तथा ब्रह्मा को प्रजा सृजक बताया गया है.....(पार्ट-1)

पुराणों ने पूर्व में ही सृष्टि के अधिष्ठाता विष्णु को 'White Hole एवं रुद्र Black Hole तथा ब्रह्मा को प्रजा सृजक बताया गया है.....(पार्ट-1)

वेद को अप्रमाणित कहने वाले आसुरी प्रवृत्ति के फॉलोवरों तुम लोग पुराणों के सरल वाङमय को केवल राजा-रानी के कथा प्रसंगों का पुलिन्दा समझने की भूल मत करो....पुराण वेदों का भाष्य है जिसकी रोचकता के लिये कुछ पात्र सुनिश्चित किये जाते हैं और उन्हीं किरदारों के माध्यम से आज के साईंस से लाखों वर्ष पूर्व ब्रह्माण्डीय समस्त उन विषयों पर रिसर्च किया गया जिस पर आज का विज्ञान पहुंचने या समझने का प्रयास कर रहा है....अब देखिये ना ''महामशीन के माध्यम से सृष्टि के रहस्य को जानने हमारे आधुनिक वैज्ञानिक कितने बेताब हैं, किन्तु सफलता उनको मात्र 'ब्लेक होल' और 'व्हाईट होल' तक ही मिल पाई है, जिसकों लाखों वर्ष पूर्व पूरा वैज्ञानिक ऋषियों ने पुराणों में उल्लेखित कर दिया है ! आप सोच रहे होंगे की आचार्य पण्डित विनोद चौबे जी लाखों वर्ष पूर्व क्यों कह रहे हैं तो मैं जिम्मेदारी के साथ पुन: कह रहा हुं कि लाखों वर्ष पूर्व राम का अवतार हुआ साथ ही तमाम ऋषि वैज्ञानिकों का सानिध्य मिला और उन ऋषियों जो
बांस के खोखले छिद्र से आसमान को निहार कर सूर्य, चंद्र और मंगल आदि ग्रहों की दूरी से लेकर सृष्टि के रहस्यों का दस्तावेजीकरण किया वही आज "18 पुराण" के रुप मे मौजूद है तो आईये उसे आदरणीय माधवाचार्य जी एवं श्री राम शर्मा जी के अलग अलग शोधग्रंथो के अध्ययनोपरांत उस रहस्य को बताता हुं जो "पुराणों को कल्पनाओं का पुलिन्दा कहा करते थे उनके मुंह पर सहस्त्रों तमाचा जड़ता यह आलेख जिसको "अन्तर्नाद मंच पर कल यानी १ जुलाई २०१७ को हुये चर्चा से प्रेरित होकर आज प्रात: छत्तीसगढ के भिलाई स्थित शांतिनगर के अपने निवास वर्षा ऋतु का लाभ उठाते हुये मेढ़कों द्वारा '" पुराण अप्रमाणित है, और वेद प्रमाणित"" ऐसी टर्र टर्र की मण्डूक ध्वनि के प्रतिउत्तर में ''विद्-शंख-ध्वनि' का धामन कर रहा हुं....

संपूर्ण विश्व एक ही अखण्ड विज्ञानघन सत्ता का विकास है चाहे वह ब्रह्म कल्प हो या पद्मकल्प और वराहकल्प भारतीय वाङ्ग्मय में इस विज्ञानात्मक ब्रह्माण्डीय बिकास को कथा रूप के माध्यम से बड़े ही सहज भाव से स्पष्ट किया है यह अन्नतस्तारकित व्योमपथ ही क्षीर समुद्र है इसका मध्याकर्षण क्षेत्र ही उसकी संकर्षणात्मक शेषशय्या है या विश्वरूप से व्यापक व्यपनशील महासत्ता विष्लृ व्यापतौ धातु से निष्पन्न महाविष्णु है जो दिङ्निर्देशक की दृष्टि से आकाशगंगा का केंद्र भाग भी कहा जाता है । सृष्टि के आदिकारण या स्वेत महाविष्णु है यहाँ कमल नाल का रूपक ( आज के भौतिक वैज्ञानिक का बिचार ) साइफन ट्यूब की तरह है जिसके माध्यम से ब्रह्माण्डीय द्रब्य का निक्षेप व्योमपथ पर होता है विज्ञान आज व्हाइट होल के साथ साइफन सिस्टम की कल्पना कर रहा है जिससे विश्व द्रब्य का निक्षेप हुआ है इस नाल पर कमल यहाँ ब्रह्माण्डीय द्रब्य की प्रथम बिकासवस्था का संकेत है कमल पर बिराजमान ब्रह्मा सृष्टि से लेकर उसके पौरुषेय बिकास तक का संपूर्ण प्रतिनिधि है जो इस बहिर्भूत ब्रह्माण्डीय द्रब्य की चरम विकसित अवस्था के स्वरुप को स्पष्ट करता है ब्रह्मा के  चार मुख पौरुषेय प्रज्ञा के चतुर्मुखी  व सर्वतोमुखी बिकाश के सूचक है प्रतीकों से युक्त इनकी चार भुजाएं धर्म ,अर्थ,काम,मोक्ष, इन चारों अर्थो को स्पष्ट करती है ये भारतीय वाङ्ग्मय में पुरुषार्थ या पुरुष के अर्थरूप में सर्वत्र प्रसिद्ध है पुरुषार्थ का अर्थ है -- पुरुष की सक्रियता कर्मक्षमता के संदर्भ में व्यापक अर्थबोध जो उपयुक्त चारभागो में विभक्त ब्रह्मा के चारो हाथो द्वारा स्पष्ट किया गया है ।क्षीरसागर पर विश्वद्रब्य का वाचक महाविष्णु अकेले नही विश्वद्रब्य को परिणामोन्मुख करने वाली श्रीरूपा माहशक्ति वहां विद्यमान है देवऋषि नारद वीणा सहित वहां सन्मुख है नार ,का, अर्थ , जल  द का अर्थ है  देनेवाला । जगत और जीवन दोनों  का आधार जल है इस लिए यहाँ देवऋषि नारद इस विज्ञान कथा में प्रस्तुत है । विश्व का निर्माता और संचालकतत्व  नाद  है  सारीसृष्टि नादमुखर है संपूर्ण ब्रह्माण्ड संगीत से आपूरित है अतः देवऋषि के हाथ में वीणा अपने प्रतिकभुत विज्ञानर्थ को स्पष्ट करती है इस अन्तस्तारकित (interstellar) आकाशरूपी क्षीरसागर में मध्याकर्षण क्षेत्र स्वरुप शेषशय्या पर सोया हुआ महाविष्णु विशिष्ट प्रतीकों से युक्त है जिनमे एक तो नाभि से होता बहिर्भूत होता हुआ द्रब्यस्थानीय कमलनाल है जिस पर पूर्ण पुरुष ब्रह्मा है जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके विष्णु स्वयं अपने चार हाथो में चक्र, गदा, पद्म, और शंख से युक्त है विष्णु का सुदर्शन चक्र इन ब्रह्माण्डीय द्रव्यो की सर्वदा विद्यमान चक्रगति है वही विश्वद्रब्य को संपूर्ण ब्रह्माण्डीय बिकाश में बदलती है यही विष्णु के हाथ में घूमते हुए सुदर्शनचक्र का निदानभुत अर्थ है गदा सृष्टि के विकास में उत्पन्न होने वाली अवरोधक के अप्रसारण का प्रतिक है कमल ब्रह्माण्डीय संरचना का प्रतिक है नाभोगंगा के  बिस्तार को  वैज्ञानिक एक मुख्य प्रोजेक्शन थाल की तरह देखते है ऋषियों ने कोटि कोटि ब्रह्माण्डो की सर्वतोमुखी व्यापति को लक्ष्य में रख कर एक कमल की तरह देखा शंख जैव सृष्टि का प्रतिक है पृथ्वी के प्रारम्भिक बिकाश  के इतिहास में शंख प्रतिनिधि रूप है विष्णु के उदर से सम्भूत होने के कारण उपादान कारण की दृष्टि से सृष्टि के प्रत्येक कण को विष्णु कहा गया है पदार्थ की मौलिक स्वरुप की दृष्टि से इस # सर्वम # को सर्वं विष्णुमयं जगत् कहा जाता है यह विश्व महा विष्णु तत्व की समष्टि है विष्णु शब्द का व्याकरण  वा विज्ञानलभ्य अर्थ है -- एक अद्वितिय व्यापनशीलतत्व आकाशगंगा में फैले हुए अनेक छोटे बड़े तारे स्वयं हिरण्यगर्भ विष्णु है जो सृष्टि की संरचना में बिस्फोटक्रम से प्रवृत होते है ये सभी आदि हिरण्यगर्भ विष्णु से बहिर्भूत होते हुए तारो के रूप में प्रोद् भासित हो रहे है हमारा सूर्य भी एक मध्यम परिणाम हिरण्यगर्भ विष्णु है संरचनात्मक कालभेद के अनुसार इसके मण्डल की द्रब्यम्य स्थितियां बदलती रहती है उसी के अनुसार उसका वर्णभेद वा रंगभेद होता है

नाभोभौतिक विज्ञान (astrophysics) के आचार्य अनन्त दूरियों पर विस्तीर्ण इन हिरण्यगर्भो के वर्ण भेद द्वारा इनके द्रब्यमय क्रियात्मक स्वरुप को निर्धारण करता है भारतीय पुराण परम्परा के अनुसार विष्णु स्वेतवर्ण विशिष्ट है तत्वतः स्वेत होते हुए भी वे कालद्रब्य के फलस्वरूप उपाधिभेद से कभी रक्त वर्ण तो कभी कृष्णवर्ण प्रतीत होते है इस वर्ण परिवर्तन के अनुसार उस एक ही तत्व के तीन नाम है

१-स्वेतवर्ण -- विष्णु
२- रक्तवर्ण -- ब्रह्मा
३- कृष्णवर्ण --शिव  वा रूद्र

भागवत पुराण के अनुसार यही उस एक तत्व की वर्ण व्यवस्था वा रंगभेद स्थिति है

स त्वम त्रिलोकस्थितये विभर्षि शुक्लम् खलु वर्णात्मन ।
सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णम् च वर्णं तमसा जनात्यये ।।
यह स्वेतवर्ण विष्णु ही विज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो white hole  का परम भारस्वरूप है जिससे हिरण्यगर्भ की सृष्टि होती है कृष्णवर्ण रूद्र ही  black hole  का पर्याय है जो अपने ही भीतर सब कुछ निगल लेता है यही  black hole  कालान्तर में स्वेत विष्णु white hole के रूप में पुनः प्रस्तुत होता है श्रुति में यह विज्ञान बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा गया है यह रूद्र ही सभी शक्ति स्वरुप देवो को उतपन्न करता है

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः । हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥श्वेताश्वर उपनिषद ४/ १२ ॥
रूद्र को विश्व के आधारतत्व के रूप में ग्रहण करते हुए श्रुति उसके क्रियात्मक स्वरुप का उल्लेख इस प्रकार करती है वह रूद्र अपनी नियामक शक्ति द्वारा सभी लोको का नियमन करता हुआ अन्य का आश्रय नही लेता वह संहार रूप वा संकोच रूप होकर  सभी जीवो के भीतर संस्थित है वही प्रलयकाल में इन सब को अपने भीतर समेट लेता है यहाँ मन्त्र में रूद्र की क्रियात्मक अवस्था को स्पष्ट करने के लिए संचुकोच क्रिया विशेषतया ध्यान देने योग्य है संचुकोच का शाब्दिक अर्थ है - अपने में संकुचित कर लिया जो black hole की प्रमुख क्रियात्मक अवस्था है

एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः । प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ॥श्वेताश्वरौपनिषत्  ३/२।।
अंतिम पंक्ति का संकेत white hole के सृजन अर्थ में है पिछले मन्त्र में इसे शब्दतः स्पष्ट कर दिया गया है
#हिरण्यगर्भ जनयामास पूर्वम #
अर्थात प्रलय के पूर्व रूद्र ने ही हिरण्यगर्भ को उतपन्न किया था यह देखाजाय तो रूद्र की घोर मूर्ति है श्रुति में अघोर मूर्ति का नाम विष्णु है इसे यों भी कहा जा सकता है विष्णु ही अवर्ण (वर्णरहित) या कृष्णमूर्ति रूद्र है कृष्णवर्ण दृष्टि का अविषय होने के कारण अवर्ण कृष्ण या ब्लैक है यही अर्थ है यहाँ उपनिषद में स्पष्ट हुआ है रूद्र अवर्ण या कृष्ण वर्ण होते हुए भी निहित अर्थ वाला है -अर्थात प्रयोजन युक्त वाला है इस लिए सृष्टि के प्रयोजन काल में अनेक प्रकार के शक्तियों के सर्जनात्मक समन्वय के द्वारा अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है तात्विक दृष्टि से देखा जाय तो वह ब्रह्मा - विष्णु आदि विभिन्न भेदो से भेद्य नही है अन्त में वह रूद्र ही इस विश्व को अपने भीतर विलीन कर लेता है यहाँ व्येति पद -वी + एती जिसका अर्थ है विलीन हो जाना या विशेष रूप से लीन हो जाना  निम्नमंत्र का स्पष्ट एवम संक्षिप्त अर्थ है जो रंग रूप आदि से रहित होकर भी छिपे हुए प्रयोजन से युक्त होने के कारण विविध शक्तियों के सम्बन्ध से विश्व के प्रारम्भ में अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है एवम अन्त में संपूर्ण उसमे विलीन हो जाता है वह परम देव् एक है वह हमें शुभ बुद्धि से युक्त करे ।
य एकोSवर्ण बहुदाशक्तियोगाद् वर्णानानेकान निहितार्थों दधाती ।
वी चैती चान्तो विश्वमादौ स देव्: स न बुद्धया शुभाया संयुक्तु ।।

(पार्ट-2) क्रमश:

-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे,

संपादक - 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलााई

MOBIL NO.9827198828

पुराणों पूर्व में ही सृष्टि के अधिष्ठाता विष्णु को 'White Hole एवं रुद्र Black Hole तथा ब्रह्मा को प्रजा सृजक बताया गया है.....(पार्ट-1)


वेद को अप्रमाणित कहने वाले आसुरी प्रवृत्ति के फॉलोवरों या पुराणों के सरल वाङमय को केवल राजा-रानी के कथा प्रसंगों का पुलिन्दा समझने की भूल मत करो....पुराण वेदों का भाष्य है जिसकी रोचकता के लिये कुछ पात्र सुनिश्चित किये जाते हैं और उन्हीं किरदारों के माध्यम से आज के साईंस से लाखों वर्ष पूर्व ब्रह्माण्डीय समस्त उन विषयों पर रिसर्च किया गया जिस पर आज का विज्ञान पहुंचने या समझने का प्रयास कर रहा है....अब देखिये ना ''महामशीन के माध्यम से सृष्टि के रहस्य को जानने हमारे आधुनिक वैज्ञानिक कितने बेताब हैं, किन्तु सॆफलता उनको मात्र ब्लेक होल और व्हाईट होल तक ही मिल पाई है, जिसकों लाखों वर्ष पूर्व पूरा वैज्ञानिक ऋषियों ने पुराणों में उल्लेखित कर दिया है ! आप सोच रहे होंगे की महाराज लाखों वर्ष पूर्व क्यों कह रहे हैं तो मैं जिम्मेदारी के साथ पुन: कह रहा हुं कि लाखों वर्ष पूर्व राम का अवतार हुआ साथ ही तमाम ऋषि वैज्ञानिकों का सानिध्य मिला और उन ऋषियों जो द


बांस के खोखले छिद्र से आसमान को निहार कर सूर्य, चंद्र और मंगल आदि ग्रहों की दूरी से लेकर सृष्टि के रहस्यों का दस्तावेजी करण किया वह आज "18 पुराण" के रुप में मौजूद है तो आईये उसे आदरणीय माधवाचार्य जी एवं श्री राम शर्मा जी के अलग अलग शोधग्रंथो के अध्ययनोपरांत उस रहस्य को बताता हुं जो "पुराणों को कल्पनाओं का पुलिन्दा कहा करते थे उनके मुंह पर सहस्त्रों तमाचा जड़ता यह आलेख जिसको "अन्तर्नाद मंच पर कल यानी १ जुलाई २०१७ को हुये चर्चा से प्रेरित होकर आज प्रात: छत्तीसगढ के भिलाई स्थित शांतिनगर के अपने निवास वर्षा ऋतु का लाभ उठाते हुये मेढ़कों द्वारा '" पुराण अप्रमाणित है, और वेद प्रमाणित"" ऐसी टर्र टर्र की मण्डूक ध्वनि के प्रतिउत्तर में ''विद्-शंख-ध्वनि' का धामन कर रहा हुं.... आज के न


 


संपूर्ण विश्व एक ही अखण्ड विज्ञानघन सत्ता का विकास है चाहे वह ब्रह्म कल्प हो या पद्मकल्प और वराहकल्प भारतीय वाङ्ग्मय में इस विज्ञानात्मक ब्रह्माण्डीय बिकास को कथा रूप के माध्यम से बड़े ही सहज भाव से स्पष्ट किया है यह अन्नतस्तारकित व्योमपथ ही क्षीर समुद्र है इसका मध्याकर्षण क्षेत्र ही उसकी संकर्षणात्मक शेषशय्या है या विश्वरूप से व्यापक व्यपनशील महासत्ता विष्लृ व्यापतौ धातु से निष्पन्न महाविष्णु है जो दिङ्निर्देशक की दृष्टि से आकाशगंगा का केंद्र भाग भी कहा जाता है । सृष्टि के आदिकारण या स्वेत महाविष्णु है यहाँ कमल नाल का रूपक ( आज के भौतिक वैज्ञानिक का बिचार ) साइफन ट्यूब की तरह है जिसके माध्यम से ब्रह्माण्डीय द्रब्य का निक्षेप व्योमपथ पर होता है विज्ञान आज व्हाइट होल के साथ साइफन सिस्टम की कल्पना कर रहा है जिससे विश्व द्रब्य का निक्षेप हुआ है इस नाल पर कमल यहाँ ब्रह्माण्डीय द्रब्य की प्रथम बिकासवस्था का संकेत है कमल पर बिराजमान ब्रह्मा सृष्टि से लेकर उसके पौरुषेय बिकास तक का संपूर्ण प्रतिनिधि है जो इस बहिर्भूत ब्रह्माण्डीय द्रब्य की चरम विकसित अवस्था के स्वरुप को स्पष्ट करता है ब्रह्मा के  चार मुख पौरुषेय प्रज्ञा के चतुर्मुखी  व सर्वतोमुखी बिकाश के सूचक है प्रतीकों से युक्त इनकी चार भुजाएं धर्म ,अर्थ,काम,मोक्ष, इन चारों अर्थो को स्पष्ट करती है ये भारतीय वाङ्ग्मय में पुरुषार्थ या पुरुष के अर्थरूप में सर्वत्र प्रसिद्ध है पुरुषार्थ का अर्थ है -- पुरुष की सक्रियता कर्मक्षमता के संदर्भ में व्यापक अर्थबोध जो उपयुक्त चारभागो में विभक्त ब्रह्मा के चारो हाथो द्वारा स्पष्ट किया गया है ।क्षीरसागर पर विश्वद्रब्य का वाचक महाविष्णु अकेले नही विश्वद्रब्य को परिणामोन्मुख करने वाली श्रीरूपा माहशक्ति वहां विद्यमान है देवऋषि नारद वीणा सहित वहां सन्मुख है नार ,का, अर्थ , जल  द का अर्थ है  देनेवाला । जगत और जीवन दोनों  का आधार जल है इस लिए यहाँ देवऋषि नारद इस विज्ञान कथा में प्रस्तुत है । विश्व का निर्माता और संचालकतत्व  नाद  है  सारीसृष्टि नादमुखर है संपूर्ण ब्रह्माण्ड संगीत से आपूरित है अतः देवऋषि के हाथ में वीणा अपने प्रतिकभुत विज्ञानर्थ को स्पष्ट करती है इस अन्तस्तारकित (interstellar) आकाशरूपी क्षीरसागर में मध्याकर्षण क्षेत्र स्वरुप शेषशय्या पर सोया हुआ महाविष्णु विशिष्ट प्रतीकों से युक्त है जिनमे एक तो नाभि से होता बहिर्भूत होता हुआ द्रब्यस्थानीय कमलनाल है जिस पर पूर्ण पुरुष ब्रह्मा है जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके विष्णु स्वयं अपने चार हाथो में चक्र, गदा, पद्म, और शंख से युक्त है विष्णु का सुदर्शन चक्र इन ब्रह्माण्डीय द्रव्यो की सर्वदा विद्यमान चक्रगति है वही विश्वद्रब्य को संपूर्ण ब्रह्माण्डीय बिकाश में बदलती है यही विष्णु के हाथ में घूमते हुए सुदर्शनचक्र का निदानभुत अर्थ है गदा सृष्टि के विकास में उत्पन्न होने वाली अवरोधक के अप्रसारण का प्रतिक है कमल ब्रह्माण्डीय संरचना का प्रतिक है नाभोगंगा के  बिस्तार को  वैज्ञानिक एक मुख्य प्रोजेक्शन थाल की तरह देखते है ऋषियों ने कोटि कोटि ब्रह्माण्डो की सर्वतोमुखी व्यापति को लक्ष्य में रख कर एक कमल की तरह देखा शंख जैव सृष्टि का प्रतिक है पृथ्वी के प्रारम्भिक बिकाश  के इतिहास में शंख प्रतिनिधि रूप है विष्णु के उदर से सम्भूत होने के कारण उपादान कारण की दृष्टि से सृष्टि के प्रत्येक कण को विष्णु कहा गया है पदार्थ की मौलिक स्वरुप की दृष्टि से इस # सर्वम # को सर्वं विष्णुमयं जगत् कहा जाता है यह विश्व महा विष्णु तत्व की समष्टि है विष्णु शब्द का व्याकरण  वा विज्ञानलभ्य अर्थ है -- एक अद्वितिय व्यापनशीलतत्व आकाशगंगा में फैले हुए अनेक छोटे बड़े तारे स्वयं हिरण्यगर्भ विष्णु है जो सृष्टि की संरचना में बिस्फोटक्रम से प्रवृत होते है ये सभी आदि हिरण्यगर्भ विष्णु से बहिर्भूत होते हुए तारो के रूप में प्रोद् भासित हो रहे है हमारा सूर्य भी एक मध्यम परिणाम हिरण्यगर्भ विष्णु है संरचनात्मक कालभेद के अनुसार इसके मण्डल की द्रब्यम्य स्थितियां बदलती रहती है उसी के अनुसार उसका वर्णभेद वा रंगभेद होता है



नाभोभौतिक विज्ञान (astrophysics) के आचार्य अनन्त दूरियों पर विस्तीर्ण इन हिरण्यगर्भो के वर्ण भेद द्वारा इनके द्रब्यमय क्रियात्मक स्वरुप को निर्धारण करता है भारतीय पुराण परम्परा के अनुसार विष्णु स्वेतवर्ण विशिष्ट है तत्वतः स्वेत होते हुए भी वे कालद्रब्य के फलस्वरूप उपाधिभेद से कभी रक्त वर्ण तो कभी कृष्णवर्ण प्रतीत होते है इस वर्ण परिवर्तन के अनुसार उस एक ही तत्व के तीन नाम है


१-स्वेतवर्ण -- विष्णु

२- रक्तवर्ण -- ब्रह्मा

३- कृष्णवर्ण --शिव  वा रूद्र


भागवत पुराण के अनुसार यही उस एक तत्व की वर्ण व्यवस्था वा रंगभेद स्थिति है


स त्वम त्रिलोकस्थितये विभर्षि शुक्लम् खलु वर्णात्मन ।

सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णम् च वर्णं तमसा जनात्यये ।।

यह स्वेतवर्ण विष्णु ही विज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो white hole  का परम भारस्वरूप है जिससे हिरण्यगर्भ की सृष्टि होती है कृष्णवर्ण रूद्र ही  black hole  का पर्याय है जो अपने ही भीतर सब कुछ निगल लेता है यही  black hole  कालान्तर में स्वेत विष्णु white hole के रूप में पुनः प्रस्तुत होता है श्रुति में यह विज्ञान बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा गया है यह रूद्र ही सभी शक्ति स्वरुप देवो को उतपन्न करता है


यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः । हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥श्वेताश्वर उपनिषद ४/ १२ ॥

रूद्र को विश्व के आधारतत्व के रूप में ग्रहण करते हुए श्रुति उसके क्रियात्मक स्वरुप का उल्लेख इस प्रकार करती है वह रूद्र अपनी नियामक शक्ति द्वारा सभी लोको का नियमन करता हुआ अन्य का आश्रय नही लेता वह संहार रूप वा संकोच रूप होकर  सभी जीवो के भीतर संस्थित है वही प्रलयकाल में इन सब को अपने भीतर समेट लेता है यहाँ मन्त्र में रूद्र की क्रियात्मक अवस्था को स्पष्ट करने के लिए संचुकोच क्रिया विशेषतया ध्यान देने योग्य है संचुकोच का शाब्दिक अर्थ है - अपने में संकुचित कर लिया जो black hole की प्रमुख क्रियात्मक अवस्था है


एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः । प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ॥श्वेताश्वरौपनिषत्  ३/२।।

अंतिम पंक्ति का संकेत white hole के सृजन अर्थ में है पिछले मन्त्र में इसे शब्दतः स्पष्ट कर दिया गया है

#हिरण्यगर्भ जनयामास पूर्वम #

अर्थात प्रलय के पूर्व रूद्र ने ही हिरण्यगर्भ को उतपन्न किया था यह देखाजाय तो रूद्र की घोर मूर्ति है श्रुति में अघोर मूर्ति का नाम विष्णु है इसे यों भी कहा जा सकता है विष्णु ही अवर्ण (वर्णरहित) या कृष्णमूर्ति रूद्र है कृष्णवर्ण दृष्टि का अविषय होने के कारण अवर्ण कृष्ण या ब्लैक है यही अर्थ है यहाँ उपनिषद में स्पष्ट हुआ है रूद्र अवर्ण या कृष्ण वर्ण होते हुए भी निहित अर्थ वाला है -अर्थात प्रयोजन युक्त वाला है इस लिए सृष्टि के प्रयोजन काल में अनेक प्रकार के शक्तियों के सर्जनात्मक समन्वय के द्वारा अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है तात्विक दृष्टि से देखा जाय तो वह ब्रह्मा - विष्णु आदि विभिन्न भेदो से भेद्य नही है अन्त में वह रूद्र ही इस विश्व को अपने भीतर विलीन कर लेता है यहाँ व्येति पद -वी + एती जिसका अर्थ है विलीन हो जाना या विशेष रूप से लीन हो जाना  निम्नमंत्र का स्पष्ट एवम संक्षिप्त अर्थ है जो रंग रूप आदि से रहित होकर भी छिपे हुए प्रयोजन से युक्त होने के कारण विविध शक्तियों के सम्बन्ध से विश्व के प्रारम्भ में अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है एवम अन्त में संपूर्ण उसमे विलीन हो जाता है वह परम देव् एक है वह हमें शुभ बुद्धि से युक्त करे ।

य एकोSवर्ण बहुदाशक्तियोगाद् वर्णानानेकान निहितार्थों दधाती ।

वी चैती चान्तो विश्वमादौ स देव्: स न बुद्धया शुभाया संयुक्तु ।।



(पार्ट-2) क्रमश:


-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे,


संपादक - 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिवगर, भिलााई


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