'अतितृष्णा' और 'बाजारवादी संस्कृति' की आपाधापी में मरती 'मानवता'..
अतितृष्णा न कर्तव्या तृष्णां नैव परित्यजेत्।
शनैः शनैश्च भोक्व्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम्॥
बहुत अधिक इच्छाएँ करना सही नहीं है और इच्छाओं का त्याग कर देना भी सही नहीं है। अपने उपार्जित (कमाए हुए) धन के अनुरूप ही इच्छा करना चाहिए वह भी एक बार में नहीं बल्कि धीरे धीरे।
यहाँ पर उल्लेखनीय है कि आज का बाजारवाद हमें उपरोक्त सीख से उल्टा करने की ही प्रेरणा देता है, बाजारवादद के कारण ही एक बार में ही अनेक और अपने द्वारा कमाए गए धन से अधिक इच्छा करके अपने सामर्थ्य से अधिक का सामान, वह भी विलासिता लेने को हम उचित समझने लगे हैं, भले ही उसके लिए हमें कर्ज में डूब जाना पड़े। और कर्ज के बढ़ते बोझ की वजह से घबराये लोग कभी-कभी तो ऐसे मानसिक व्याकुल हो उच्चटित हो जाते हैं की "आत्महत्या" जैसे निन्दनीय कदम उठा लेते हैं, जो मानवता के ऐसे शत्रुओं को 'कायर' कहना ही उचित होगा.....!
- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे
संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' भिलाई
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