ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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रविवार, 30 जुलाई 2017

'कर्म ही पूजा' है, या 'कर्म भी पूजा' है ?

'कर्म ही पूजा' है, या 'कर्म भी पूजा' है ?

 आज श्रावण माह का चौथा सोमवार है, आप सभी को 'ज्योतिष का सूर्य' की ओर से अनंत शुभकामनाएं ...

आईये आज "रूतम् द्रावयती'ति" रूद्र: अर्थात् लोक कल्याणार्थ निरंतर कर्म करने वाली अलग-अलग महान शक्ति:पुंजो के आराध्य या यूं कहें संचालक भूतभावन शिव और शक्ति मां पार्वती के साथ आप सहित अखिल विश्व के "रुतम्" यानी दु:ख का 'द्रावयति' यानी निवारण करने वाले भगवान शिव की ''शब्दश: लेखार्चना करें", नमन करें......और "कर्म ही पूजा है या कर्म भी पूजा है" को समझने का प्रयास करें..

पूजा शाब्दिक अर्थ ‘सम्मान देना/आदर-सत्कार करना' बताया गया है| कर्मकाण्ड में पूजा एक प्रक्रिया है जो जीव और ईश्वर के मध्य घटित होता है| इसमें मनुष्य पत्र-पुष्प-फलादि ईश्वर को प्रतिमा या आवाहित स्थान पर समर्पित करता है और जब ये प्रक्रिया मन ही मन होती है तो उसे मानसिक पूजा कहा जाता है|
   जो ब्रह्म ज्ञानमार्गियों के लिए निर्गुण-निराकार है वही भक्तिमार्गियों के लिए सगुण-साकार भी है|
  ये साधारण सी बात है कि आप जिसे प्रेम करते हैं उसे प्रसन्न देखना चाहते हैं अर्थात् आपके प्रेमी की प्रसन्नता ही आपके लिए अभीष्ट होती है| प्रेमी की प्रसन्नता के लिए उसे आदर-सम्मान, उपहार आदि देते हैं, यथासंभव उसकी इच्छापूर्ति का प्रयास करते हैं| ये प्रेमी की अनकही पूजा है, जिसे हम समझ नहीं पाते की यही पूजा है| प्रिय अतिथि (अभ्यागत) के आगमन पर उनका स्वागत-सत्कार, भोजनादि की उत्तम व्यवस्था करते हैं; जो कि अतिथि पूजा है|
  इसी प्रकार प्रेमी भक्त अपने सगुण-साकार भगवान को प्रसन्न करने के लिए बहुविध समर्पण-गुणगान-ध्यानादि करते हैं, अपने इष्ट की प्रसन्नता चाहते हैं|
  वर्त्तमान समय की पूजा के स्वरूप पर विचार करें तो अनुभव होता है कि स्वयं की प्रसन्नता पाने के लिए ईश्वर को मनाने का प्रयास करते हैं| 
  बहुधा पूजा करना (विशेषकर नित्य पूजा करना) एक लक्ष्य समझा जाता जबकि पूजा लक्ष्य (भगवान की प्रसन्नता) प्राप्ति का प्रयास है|
  पूजा को आध्यात्मिक भाव से परिभाषित करें तो :-
“पूजा भक्त और भगवान के मध्य घटित होने वाली समर्पण-सेवा की वह क्रिया है, जिससे भक्त अपने भगवान को प्रसन्न करने का प्रयास करता है"
  स्पष्ट होता है कि पूजा का अधिकारी प्रेमी भक्त है न कि स्वार्थी मानव| 
  पूजा का उद्देश्य भगवान की प्रसन्नता पाना है न कि अपनी प्रसन्नता|
  पूजा एक क्रिया है न कि लक्ष्य|
  तथापि कर्मकाण्ड में भगवान की प्रसन्नता के अतिरिक्त सांसारिक स्वार्थ सिद्धि का भी प्रलोभन है ताकि स्वार्थ के कारण ही सही भगवान से जुड़ें कदाचित प्रेम हो जाए और सच्ची पूजा कर बैठें| इसलिए मैं तो उस पूजा को भी ईश्वर की ओर बढने का प्रयास ही मानता हूं जो सांसारिक सुख या स्वयं की प्रसन्नता हेतु की जाती है|
“कर्म ही पूजा है" कथन को मैं अतिवाद समझता हूं; यह मेरी व्यक्तिगत सोच है “कर्म भी पूजा है" ऐसा मानता हूं |

- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- "ज्योतिष का सूर्य" भिलाई 

(कॉपी-पेस्ट से बचें, ऐसा पाये जाने पर दाण्डिक प्रक्रिया करने के लिये 'ज्योतिष का सूर्य' मासिक पत्रिका बाध्य होगा)

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