भारतीय पर्वों में चार रात्रियां एवं मनुष्य के जीवन में प्रभाव.......
साथियों, जैसा की आपको ज्ञात है कि संस्कृत-साहित्य के कई उपाख्यानों में प्रसंगवश अलग अलग चार रात्रियों का वर्णन आता है, आखिरकार ये रात्रियां क्या है, और इनका मनुष्य के जीवन से क्या लेना देना है? आईये इस लेख के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं...........
पर्व, उत्सव और त्योहार किसी भी संस्कृति का दर्पण होते हैं। हिन्दू धर्म में इन पर्वों, उत्सवों एवं त्योहारों का विशिष्ट स्थान हैं तथा यह हिन्दू संस्कृति के अभिन्न अंग माने जाते हैं। प्राय: त्योहार दिन के प्रकाश में ही मनाये जाते हैं, लेकिन अपवाद स्वरूप कुछ त्यौहार ऐसें हैं, जो कि रात्रि के समय मनाए जाते हैं।
जैसे कृष्ण जन्माष्टमी, महाशिवरात्रि, दीपावली, होलिका दहन, शरद पूर्णिमा। मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत श्री दुर्गा सप्तशती में तीन रात्रियों का उल्लेख दारूण रात्रियों के रूप में हुआ है- कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि। कालरात्रि से तात्पर्य है- होली (होलिका दहन), महारात्रि- सिवरात्रि तथा मोहरात्रि- दीपावली अथवा शरद पूर्णिमा।
कुछ शास्त्रकारों के अनुसार उपरोक्त रात्रियों को भयानक (दारूण) रात्रियां माना गया है कालरात्रि- दीपावली की रात, महारात्रि- शिवरात्रि और मोहरात्रि- कृष्णजन्माष्टमी की रात। इन विशिष्ट रात्रियों को मानव जीवन से जोड़कर देखें तो मोहरात्रि- मोहने वाले कृष्ण के जन्म की रात्रि अर्थात् मनुष्य के जन्म की रात्रि, कालरात्रि- जीवन बुढ़ापे की शुरूआत, महारात्रि- निर्वाण की रात्रि अर्थात् भगवानन शिव के चरणों में समर्पित होने की रात्रि। दीपावली और शरदपूर्णिमा तो खुशियों की रात्रियां हैं, इसे मनुष्य के वैवाहिक जीवन की शुरूआत की रात्रि के रूप में भी देखा जा सकता है। जीवन की मोहरात्रि और महारात्रि कब आ जाए किसी को मालूम नहीं, लेकिन कालरात्रि के विषय में रामायण में एक उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार कालरात्रि (मृत्यु की रात्रि) मनुष्य की आयु में यह रात जो सतहत्तर (77वें) वर्ष के सातवें महीने के 7वें दिन पड़ती है और जिसके बाद मनुष्य नित्यकर्म आदि से मुक्त समझा जाता है। अब मनुष्य यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि आखिर यह 77 वर्ष, 7 माह, 7 दिन कैसे तय किये गए? इसका आधार क्या रहा होगा? हमारे यहां तो ये भी कहा गया है कि यह व्यक्ति ‘सठिया’ गया है या सत्तर-बहत्तर हो गया अर्थात् भुलक्कड़ हो गया है, इसे सेवानिवृत्त या नित्यकर्म से मुक्ति दे देनी चाहिए।
मैंने अपनी अल्पबुध्दि द्वारा निम्न दो फार्मूले बनाए जो कि उपरोक्त गणनाओं पर फिट बैठते हैं-
पहले फार्मूले के अनुसार, कुछ शास्त्रकारों ने माना कि चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का यह कलियुग, इस युग से दुगुनी संख्या का द्वापर युग, इससे दुगुनी संख्या का त्रेतायुग, इससे दुगुनी संख्या का सतयुग, इस प्रकार चार युग एक बार व्यतीत होंगे। परिवर्तन होकर पुन: सतयुग प्रारम्भ हो जायेगा। इस प्रकार ये चारों युग बारह बार व्यीतत होंगे, जब विधाता का एक दिन होगा, जिसकी गणना इस प्रकार है-
कलियुग- 4,32,000 -कलियुग से दुगुनी संख्या द्वापर युग- 8,64,000, द्वापर युग से दुगुनी संख्या, त्रेतायुग- 17,28,000, त्रेतायुग से दुगुनी संख्या सतयुग-34,56,000, 12 बार घूमने पर विधाता का एक दिन- 64,80,000द12-77,77,60,000
दूसरे फार्मूले के अनुसार, कुछ विद्वान ब्रह्माजी की आयु की गणना इस प्रकार से करते हैं कि मनुष्यों का एक महीना पितरों का एक दिन, एक रात होता है। पितरों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन-रात होता है। देवताओं के दो हजार वर्ष का ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। इन सबका गुणा करने पर 30,360,360,2000 __/\__ 7776000000, उपरोक्त दोनों गणनाओं की संख्या को ब्रह्मा जी का एक दिन माना गया है। अगर इनमें से उपरोक्त शून्यों को हटा दें तो 7776 की संख्या आती है।
इस उम्र तक तो कार्य कर सकते हैं अर्थात् इसके अगले दिन अर्थात् 77 वर्ष, सात मास औरसात दिन से मनुष्य को नित्यकर्म आदि से मुक्त समझा जाता है। रामायण के अनुसार, उपरोक्त गणना को मैं कहां तक सही रूप दे पाया हूं, यह तो आप ही निर्णय कर पायेंगे पर यह महत्वपूर्ण रात्रियां मानव जीवन की विशिष्ट रात्रियां हैं।
अब सवाल यह उठता है, कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही क्यों कहते हैं 'महाशिवरात्रि'
थोड़ा बहुत तो मैने इस पर चर्चा की है परन्तु अब महाशिवरात्रि पर्व को महारात्रि और कुछ विद्वानों ने तो कालरात्रि के भी रूप में वर्णन किया है......तो आईये इसे विस्तृत रूप से समझने का प्रयास करते हैं......
महाशिवरात्रि फाल्गुनमास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है। भगवान शिव के निराकार से साकाररूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि है। ईशान-संहिता के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी की रात्रि को भगवान शिव करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाले लिंगरूप में प्रकट हुए। कहा जाता है कि इस दिन शिवजी समस्त शिवलिंगों में प्रवेश करते हैं; इसलिए इसे महाशिवरात्रि कहते हैं।प्रत्येक मास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी‘शिवरात्रि’ कहलाती है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव और आदिशक्ति का विवाह हुआ था।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी की महानिशा में ज्योतिर्लिंग का प्राकट्य
ईशान संहिता की कथा के अनुसार सृष्टिरचना के बाद भगवान ब्रह्मा एक बार घूमते हुए क्षीरसागर पहुंचे। उन्होंने वहां शेषनाग की शय्या पर भगवान नारायण को शान्त अधलेटे देखा। भूदेवी-श्रीदेवी उनकी चरणसेवा कर रहीं थी। गरुड़, नन्द-सुनन्द, पार्षद, गन्धर्व, किन्नर आदि हाथ जोड़े खड़े थे। यह देखकर ब्रह्माजी को आश्चर्य हुआ कि ‘मैं ही सबका पितामह हूँ; यह वैभव-मण्डित होकर यहां कौन सोया हुआ है?’
ब्रह्माजी ने भगवान नारायण को जगाते हुए कहा–’तुम कौन हो, देखो जगत का पितामह आया है।’ इस पर भगवान नारायण ने कहा–’जगत मुझमें स्थित है, तुम मेरे नाभिकमल से पैदा हुए हो, तुम मेरे पुत्र हो।’ दोनों में स्रष्टा और स्वामी का विवाद बढ़ने लगा। ब्रह्माजी ने ‘पाशुपत’ और भगवान नारायण ने ‘महेश्वर’ नामक अस्त्र उठा लिए। सृष्टि में प्रलय की आशंका हो गयी। देवतागण कैलास पर भगवान शिव की शरण में गए। अन्तर्यामी शिव सब समझ गए और देवताओं को आश्वस्त किया कि मैं इन दोनों का युद्ध शान्त करुंगा। ऐसा कहकर भगवान शंकर दोनों के मध्य में अनादि-अनन्त ज्योतिर्मयलिंग के रूप में प्रकट हो गए। महेश्वर और पाशुपत अस्त्र उसी ज्योतिर्लिंग में लीन हो गए। यह लिंग निराकार ब्रह्म का प्रतीक है।
भगवान विष्णु और ब्रह्माजी ने उस लिंग की पूजा की। यह लिंग फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को प्रकट हुआ तभी से आज तक लिंगपूजा चली आ रही है। ब्रह्मा एवं विष्णुजी ने शंकरजी से कहा–जब हम दोनों लिंग के आदि-अन्त का पता न लगा सके तो आगे मानव आपकी पूजा कैसे करेगा? इस पर भगवान शिव द्वादशज्योतिर्लिंगों में बंट गए।
महाशिवरात्रि व्रत में ‘फाल्गुनमास’, ‘कृष्णपक्ष’, ‘चतुर्दशी तिथि’ व ‘रात्रि’ का महत्व
भगवान शिव को फाल्गुनमास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि की रात्रि ही क्यों प्रिय है? इसका गूढ़ अर्थ है–
शिव क्या हैं?
‘जिसमें सारा जगत शयन करता है, जो प्रलयकाल में सारे जगत को अपने अंदर लीन कर लेते हैं, वे ही ‘शिव’ हैं।
शिवरात्रि
शिवरात्रि का अर्थ है ‘वह रात्रि जिसका शिव के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है’ या भगवान शिव की अतिप्रिय रात्रि को ‘शिवरात्रि’ कहा गया है।
चतुर्दशी तिथि ही क्यों?
भगवान शिव चतुर्दशी तिथि के स्वामी हैं।
रात्रि ही क्यों?
भगवान शंकर संहार और तमोगुण के देवता हैं। दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय व संहार का द्योतक है। रात्रि के आते ही प्रकाश का, मनुष्य की दैनिक गतिविधियों का और निद्रा द्वारा मनुष्य की चेतनता का संहार हो जाता है। जिस प्रकार प्रलयकाल में भगवान शिव सबको अपने में लीन कर लेते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व अचेतन होकर रात्रि की आनन्ददायी गोद में समा जाता है। इसलिए भगवान शंकर की आराधना न केवल इस महारात्रि में वरन् सदैव प्रदोष (रात्रि के आरम्भ होने) के समय में की जाती है। रात्रि के समय भूत, प्रेत, पिशाच और स्वयं शिवजी भ्रमण करते हैं, अत: उस समय इनका पूजन करने से मनुष्य के पाप दूर हो जाते हैं। रात्रिप्रिय शिव से भेंट करने का समय रात्रि के अलावा और कौन-सा हो सकता है? अत: शिवजी की अतिप्रिय रात्रि को ‘शिवरात्रि’ कहा गया है।
ब्रह्माण्ड में सृष्टि और प्रलय का क्रम चलता रहता है। शास्त्रों में दिन और रात्रि को नित्य-सृष्टि और नित्य-प्रलय कहा है। दिन में हमारा मन, प्राण और इन्द्रियां विषयानन्द में ही मग्न रहती हैं। रात्रि में विषयों को छोड़कर आत्मा शिव की ओर प्रवृत्त होती हैं। हमारा मन दिन में प्रकाश की ओर, सृष्टि की ओर जाता है और रात्रि में अन्धकार की ओर, लय की ओर लौटता है। इसी से दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय का द्योतक है। इसलिए रात्रि ही परमात्मा शिव से आत्मसाक्षात्कार करने का अनुकूल समय है।
कृष्णपक्ष ही क्यों?
मन के देवता चन्द्र माने जाते हैं। शुक्लपक्ष में चन्द्रमा सबल और कृष्णपक्ष में क्षीण होते हैं। कृष्णपक्ष में चन्द्रमा के क्षीण होने से मनुष्य के अंत:करण में तामसी शक्तियां प्रबल हो जाती हैं। इन्हीं तामसी शक्तियों को आध्यात्मिक भाषा में भूत-प्रेतादि कहते हैं। भगवान शिव को भूत-प्रेतादि का नियन्त्रक देवता माना गया हैं। अत: कृष्णपक्ष की चन्द्रविहीन रात्रि को जब ये शक्तियां अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं, तब इनके उपशमन के लिए भगवान शिव की उपासना का विधान है।
फाल्गुनमास ही क्यों?
ब्रह्माण्ड में प्रलय के बाद सृष्टि और सृष्टि के बाद प्रलय होता है। इसी तरह रात्रि के बाद दिन और दिन के पश्चात् रात्रि होती है। इसी तरह वर्षचक्र भी चलता है। क्षय होते हुए वर्ष के अंतिम मास फाल्गुन के बाद नए वर्षचक्र का आरम्भ होता है। ज्योतिष के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी में चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है। अत: उस समय में जीवरूपी चन्द्र का शिवरूपी सूर्य के साथ योग होता है। अत: फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी को शिव-पूजा करने से जीव को इष्ट की प्राप्ति होती है। इस तिथि पर जो कोई भी भगवान शिव की उपासना करता है, चाहें वह किसी भी वर्ण का क्यों न हो, वे उसे भुक्ति-मुक्ति प्रदान करते हैं।
शिवरात्रिव्रतं नाम सर्वपापप्रणाशनम्।
आचाण्डालमनुष्याणां भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्।। (ईशान संहिता)
शिवरात्रि-व्रत
महाशिवरात्रि के समान शिवजी को प्रसन्न करने वाला अन्य कोई व्रत नहीं है। शिवरात्रि-व्रत में चार प्रहर में चार बार पूजा का विधान है। इस दिन उपवास, शिवाभिषेक, रात्रि भर जागरण और पंचाक्षर व रुद्रमन्त्रों का जप करना चाहिए। साधक का शिव के समीप वास ही उपवास है। पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और बुद्धि का निरोध (संयम) ही सच्ची शिव-पूजा’ या ‘शिवरात्रि-व्रत’ है।
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ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- "ज्योतिष का सूर्य" राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, सड़क-26, शांतिनगर भिलाई, जिला-दुर्ग (छ.ग.)
मोबाईल नं- 09827198828
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साथियों, जैसा की आपको ज्ञात है कि संस्कृत-साहित्य के कई उपाख्यानों में प्रसंगवश अलग अलग चार रात्रियों का वर्णन आता है, आखिरकार ये रात्रियां क्या है, और इनका मनुष्य के जीवन से क्या लेना देना है? आईये इस लेख के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं...........
पर्व, उत्सव और त्योहार किसी भी संस्कृति का दर्पण होते हैं। हिन्दू धर्म में इन पर्वों, उत्सवों एवं त्योहारों का विशिष्ट स्थान हैं तथा यह हिन्दू संस्कृति के अभिन्न अंग माने जाते हैं। प्राय: त्योहार दिन के प्रकाश में ही मनाये जाते हैं, लेकिन अपवाद स्वरूप कुछ त्यौहार ऐसें हैं, जो कि रात्रि के समय मनाए जाते हैं।
जैसे कृष्ण जन्माष्टमी, महाशिवरात्रि, दीपावली, होलिका दहन, शरद पूर्णिमा। मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत श्री दुर्गा सप्तशती में तीन रात्रियों का उल्लेख दारूण रात्रियों के रूप में हुआ है- कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि। कालरात्रि से तात्पर्य है- होली (होलिका दहन), महारात्रि- सिवरात्रि तथा मोहरात्रि- दीपावली अथवा शरद पूर्णिमा।
कुछ शास्त्रकारों के अनुसार उपरोक्त रात्रियों को भयानक (दारूण) रात्रियां माना गया है कालरात्रि- दीपावली की रात, महारात्रि- शिवरात्रि और मोहरात्रि- कृष्णजन्माष्टमी की रात। इन विशिष्ट रात्रियों को मानव जीवन से जोड़कर देखें तो मोहरात्रि- मोहने वाले कृष्ण के जन्म की रात्रि अर्थात् मनुष्य के जन्म की रात्रि, कालरात्रि- जीवन बुढ़ापे की शुरूआत, महारात्रि- निर्वाण की रात्रि अर्थात् भगवानन शिव के चरणों में समर्पित होने की रात्रि। दीपावली और शरदपूर्णिमा तो खुशियों की रात्रियां हैं, इसे मनुष्य के वैवाहिक जीवन की शुरूआत की रात्रि के रूप में भी देखा जा सकता है। जीवन की मोहरात्रि और महारात्रि कब आ जाए किसी को मालूम नहीं, लेकिन कालरात्रि के विषय में रामायण में एक उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार कालरात्रि (मृत्यु की रात्रि) मनुष्य की आयु में यह रात जो सतहत्तर (77वें) वर्ष के सातवें महीने के 7वें दिन पड़ती है और जिसके बाद मनुष्य नित्यकर्म आदि से मुक्त समझा जाता है। अब मनुष्य यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि आखिर यह 77 वर्ष, 7 माह, 7 दिन कैसे तय किये गए? इसका आधार क्या रहा होगा? हमारे यहां तो ये भी कहा गया है कि यह व्यक्ति ‘सठिया’ गया है या सत्तर-बहत्तर हो गया अर्थात् भुलक्कड़ हो गया है, इसे सेवानिवृत्त या नित्यकर्म से मुक्ति दे देनी चाहिए।
मैंने अपनी अल्पबुध्दि द्वारा निम्न दो फार्मूले बनाए जो कि उपरोक्त गणनाओं पर फिट बैठते हैं-
पहले फार्मूले के अनुसार, कुछ शास्त्रकारों ने माना कि चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का यह कलियुग, इस युग से दुगुनी संख्या का द्वापर युग, इससे दुगुनी संख्या का त्रेतायुग, इससे दुगुनी संख्या का सतयुग, इस प्रकार चार युग एक बार व्यतीत होंगे। परिवर्तन होकर पुन: सतयुग प्रारम्भ हो जायेगा। इस प्रकार ये चारों युग बारह बार व्यीतत होंगे, जब विधाता का एक दिन होगा, जिसकी गणना इस प्रकार है-
कलियुग- 4,32,000 -कलियुग से दुगुनी संख्या द्वापर युग- 8,64,000, द्वापर युग से दुगुनी संख्या, त्रेतायुग- 17,28,000, त्रेतायुग से दुगुनी संख्या सतयुग-34,56,000, 12 बार घूमने पर विधाता का एक दिन- 64,80,000द12-77,77,60,000
दूसरे फार्मूले के अनुसार, कुछ विद्वान ब्रह्माजी की आयु की गणना इस प्रकार से करते हैं कि मनुष्यों का एक महीना पितरों का एक दिन, एक रात होता है। पितरों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन-रात होता है। देवताओं के दो हजार वर्ष का ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। इन सबका गुणा करने पर 30,360,360,2000 __/\__ 7776000000, उपरोक्त दोनों गणनाओं की संख्या को ब्रह्मा जी का एक दिन माना गया है। अगर इनमें से उपरोक्त शून्यों को हटा दें तो 7776 की संख्या आती है।
इस उम्र तक तो कार्य कर सकते हैं अर्थात् इसके अगले दिन अर्थात् 77 वर्ष, सात मास औरसात दिन से मनुष्य को नित्यकर्म आदि से मुक्त समझा जाता है। रामायण के अनुसार, उपरोक्त गणना को मैं कहां तक सही रूप दे पाया हूं, यह तो आप ही निर्णय कर पायेंगे पर यह महत्वपूर्ण रात्रियां मानव जीवन की विशिष्ट रात्रियां हैं।
अब सवाल यह उठता है, कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही क्यों कहते हैं 'महाशिवरात्रि'
थोड़ा बहुत तो मैने इस पर चर्चा की है परन्तु अब महाशिवरात्रि पर्व को महारात्रि और कुछ विद्वानों ने तो कालरात्रि के भी रूप में वर्णन किया है......तो आईये इसे विस्तृत रूप से समझने का प्रयास करते हैं......
महाशिवरात्रि फाल्गुनमास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है। भगवान शिव के निराकार से साकाररूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि है। ईशान-संहिता के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी की रात्रि को भगवान शिव करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाले लिंगरूप में प्रकट हुए। कहा जाता है कि इस दिन शिवजी समस्त शिवलिंगों में प्रवेश करते हैं; इसलिए इसे महाशिवरात्रि कहते हैं।प्रत्येक मास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी‘शिवरात्रि’ कहलाती है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव और आदिशक्ति का विवाह हुआ था।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी की महानिशा में ज्योतिर्लिंग का प्राकट्य
ईशान संहिता की कथा के अनुसार सृष्टिरचना के बाद भगवान ब्रह्मा एक बार घूमते हुए क्षीरसागर पहुंचे। उन्होंने वहां शेषनाग की शय्या पर भगवान नारायण को शान्त अधलेटे देखा। भूदेवी-श्रीदेवी उनकी चरणसेवा कर रहीं थी। गरुड़, नन्द-सुनन्द, पार्षद, गन्धर्व, किन्नर आदि हाथ जोड़े खड़े थे। यह देखकर ब्रह्माजी को आश्चर्य हुआ कि ‘मैं ही सबका पितामह हूँ; यह वैभव-मण्डित होकर यहां कौन सोया हुआ है?’
ब्रह्माजी ने भगवान नारायण को जगाते हुए कहा–’तुम कौन हो, देखो जगत का पितामह आया है।’ इस पर भगवान नारायण ने कहा–’जगत मुझमें स्थित है, तुम मेरे नाभिकमल से पैदा हुए हो, तुम मेरे पुत्र हो।’ दोनों में स्रष्टा और स्वामी का विवाद बढ़ने लगा। ब्रह्माजी ने ‘पाशुपत’ और भगवान नारायण ने ‘महेश्वर’ नामक अस्त्र उठा लिए। सृष्टि में प्रलय की आशंका हो गयी। देवतागण कैलास पर भगवान शिव की शरण में गए। अन्तर्यामी शिव सब समझ गए और देवताओं को आश्वस्त किया कि मैं इन दोनों का युद्ध शान्त करुंगा। ऐसा कहकर भगवान शंकर दोनों के मध्य में अनादि-अनन्त ज्योतिर्मयलिंग के रूप में प्रकट हो गए। महेश्वर और पाशुपत अस्त्र उसी ज्योतिर्लिंग में लीन हो गए। यह लिंग निराकार ब्रह्म का प्रतीक है।
भगवान विष्णु और ब्रह्माजी ने उस लिंग की पूजा की। यह लिंग फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को प्रकट हुआ तभी से आज तक लिंगपूजा चली आ रही है। ब्रह्मा एवं विष्णुजी ने शंकरजी से कहा–जब हम दोनों लिंग के आदि-अन्त का पता न लगा सके तो आगे मानव आपकी पूजा कैसे करेगा? इस पर भगवान शिव द्वादशज्योतिर्लिंगों में बंट गए।
महाशिवरात्रि व्रत में ‘फाल्गुनमास’, ‘कृष्णपक्ष’, ‘चतुर्दशी तिथि’ व ‘रात्रि’ का महत्व
भगवान शिव को फाल्गुनमास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि की रात्रि ही क्यों प्रिय है? इसका गूढ़ अर्थ है–
शिव क्या हैं?
‘जिसमें सारा जगत शयन करता है, जो प्रलयकाल में सारे जगत को अपने अंदर लीन कर लेते हैं, वे ही ‘शिव’ हैं।
शिवरात्रि
शिवरात्रि का अर्थ है ‘वह रात्रि जिसका शिव के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है’ या भगवान शिव की अतिप्रिय रात्रि को ‘शिवरात्रि’ कहा गया है।
चतुर्दशी तिथि ही क्यों?
भगवान शिव चतुर्दशी तिथि के स्वामी हैं।
रात्रि ही क्यों?
भगवान शंकर संहार और तमोगुण के देवता हैं। दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय व संहार का द्योतक है। रात्रि के आते ही प्रकाश का, मनुष्य की दैनिक गतिविधियों का और निद्रा द्वारा मनुष्य की चेतनता का संहार हो जाता है। जिस प्रकार प्रलयकाल में भगवान शिव सबको अपने में लीन कर लेते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व अचेतन होकर रात्रि की आनन्ददायी गोद में समा जाता है। इसलिए भगवान शंकर की आराधना न केवल इस महारात्रि में वरन् सदैव प्रदोष (रात्रि के आरम्भ होने) के समय में की जाती है। रात्रि के समय भूत, प्रेत, पिशाच और स्वयं शिवजी भ्रमण करते हैं, अत: उस समय इनका पूजन करने से मनुष्य के पाप दूर हो जाते हैं। रात्रिप्रिय शिव से भेंट करने का समय रात्रि के अलावा और कौन-सा हो सकता है? अत: शिवजी की अतिप्रिय रात्रि को ‘शिवरात्रि’ कहा गया है।
ब्रह्माण्ड में सृष्टि और प्रलय का क्रम चलता रहता है। शास्त्रों में दिन और रात्रि को नित्य-सृष्टि और नित्य-प्रलय कहा है। दिन में हमारा मन, प्राण और इन्द्रियां विषयानन्द में ही मग्न रहती हैं। रात्रि में विषयों को छोड़कर आत्मा शिव की ओर प्रवृत्त होती हैं। हमारा मन दिन में प्रकाश की ओर, सृष्टि की ओर जाता है और रात्रि में अन्धकार की ओर, लय की ओर लौटता है। इसी से दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय का द्योतक है। इसलिए रात्रि ही परमात्मा शिव से आत्मसाक्षात्कार करने का अनुकूल समय है।
कृष्णपक्ष ही क्यों?
मन के देवता चन्द्र माने जाते हैं। शुक्लपक्ष में चन्द्रमा सबल और कृष्णपक्ष में क्षीण होते हैं। कृष्णपक्ष में चन्द्रमा के क्षीण होने से मनुष्य के अंत:करण में तामसी शक्तियां प्रबल हो जाती हैं। इन्हीं तामसी शक्तियों को आध्यात्मिक भाषा में भूत-प्रेतादि कहते हैं। भगवान शिव को भूत-प्रेतादि का नियन्त्रक देवता माना गया हैं। अत: कृष्णपक्ष की चन्द्रविहीन रात्रि को जब ये शक्तियां अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं, तब इनके उपशमन के लिए भगवान शिव की उपासना का विधान है।
फाल्गुनमास ही क्यों?
ब्रह्माण्ड में प्रलय के बाद सृष्टि और सृष्टि के बाद प्रलय होता है। इसी तरह रात्रि के बाद दिन और दिन के पश्चात् रात्रि होती है। इसी तरह वर्षचक्र भी चलता है। क्षय होते हुए वर्ष के अंतिम मास फाल्गुन के बाद नए वर्षचक्र का आरम्भ होता है। ज्योतिष के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी में चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है। अत: उस समय में जीवरूपी चन्द्र का शिवरूपी सूर्य के साथ योग होता है। अत: फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी को शिव-पूजा करने से जीव को इष्ट की प्राप्ति होती है। इस तिथि पर जो कोई भी भगवान शिव की उपासना करता है, चाहें वह किसी भी वर्ण का क्यों न हो, वे उसे भुक्ति-मुक्ति प्रदान करते हैं।
शिवरात्रिव्रतं नाम सर्वपापप्रणाशनम्।
आचाण्डालमनुष्याणां भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्।। (ईशान संहिता)
शिवरात्रि-व्रत
महाशिवरात्रि के समान शिवजी को प्रसन्न करने वाला अन्य कोई व्रत नहीं है। शिवरात्रि-व्रत में चार प्रहर में चार बार पूजा का विधान है। इस दिन उपवास, शिवाभिषेक, रात्रि भर जागरण और पंचाक्षर व रुद्रमन्त्रों का जप करना चाहिए। साधक का शिव के समीप वास ही उपवास है। पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और बुद्धि का निरोध (संयम) ही सच्ची शिव-पूजा’ या ‘शिवरात्रि-व्रत’ है।
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ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- "ज्योतिष का सूर्य" राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, सड़क-26, शांतिनगर भिलाई, जिला-दुर्ग (छ.ग.)
मोबाईल नं- 09827198828
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