अपनी बात शुरू करने से पहले हम आपको एक प्रसिद्ध कविता की लाइन याद दिला दें, जो रुडयार्ड किपलिंग ने लिखी थी : “East is East and West is West, and never the twain shall meet.” राष्ट्रवाद पर चर्चा शुरू करने से पहले ही ये याद दिला देना जरूरी हो जाता है | भारत को कोई धर्म भारत नहीं बनाता, कोई भाषा भी हमें एक नहीं करती, संस्कृति भी यहाँ अलग अलग है | यही कारण होता है कि जब हम किसी विदेशी चश्में से भारत में राष्ट्रवाद को समझने की कोशिश करते हैं तो कामयाबी मिलने की संभावना कम, बहुत कम हो जाती है | भारत के लिए राष्ट्र की परिभाषा कम से कम महाभारत के काल से तो जरूर है | युधिष्ठिर जब शर शैय्या पर पड़े भीष्म से कुछ सीखने गए थे तो कई अन्य चीज़ों के साथ, भीष्म ने राष्ट्र के बारे में भी बताया था |
समय बीतता गया और श्रुति की परंपरा का लोप होते होते लोग महाभारत जैसे ग्रंथों की पुरानी परिभाषाएं भूलने भी लगे | राष्ट्रवाद की जो आधुनिक परिभाषाएं हैं उनमें से एक अर्नेस्ट रेनन के 1882 के सोरेबोन्न यूनिवर्सिटी में दिए गए लेक्चर से आती है | उन्होंने कहा था, राष्ट्र लम्बे समय के संघर्ष, बलिदानों और भक्ति भाव की परिणिति है | गर्व से भर देने वाली कथाओं, शौर्य की गाथाओं, और महानायकों का इतिहास ही वो सामाजिक पूँजी है जिसपर एक राष्ट्र की भावना का आधार रखा जाता है | एक राष्ट्र की भावना को समाज में समाहित करने के लिए गौरवशाली इतिहास की जरुरत होती है, अपने महानायक चाहिए | साझा सांस्कृतिक विरासत और भविष्य में, साथ मिलकर, ऐसे ही गौरवशाली कार्यों को अंजाम देने की मंशा ही राष्ट्र को जन्म देती है |
एक राष्ट्र के नागरिक होने के लिए ये जरूरी कारण हैं | राष्ट्र के नागरिक इसी एकीकरण की भावना से जुड़े होते हैं | इसलिए किसी राष्ट्र के बारे में जानना है और राष्ट्र की भावना के बारे में जानना है तो उसका एकमात्र तरीका है, जनमत संग्रह | राष्ट्र उसके नागरिक होते हैं, नागरिकों के अलावा कोई भी राष्ट्र का निर्धारण नहीं कर सकता |
ये परिभाषा जिस काल में आई थी, उस दौर में अंतर्राष्ट्रीय क्रांति के काल (1830 - 1848) को बीते कुछ जमाना हो चला था | भारत का पहला स्वतंत्रता समर कुचला जा चुका था | ये उतनी तेज़ उलट पलट का दौर नहीं था जब विचारों के बदले कारवाही का प्रभाव ज्यादा हो | अंतर्राष्ट्रीय मंच पर एक देश, या एक राष्ट्र की भावना के उदय से भारत भी अछूता नहीं रहा था | अगर भारत के ही पहले स्वतंत्रता समर को देखेंगे तो कई राजा सन 57 में अलग अलग नहीं लड़ रहे थे | उन्होंने अंतिम मुग़ल बादशाह जफ़र को एक नेता के तौर पर लेकर लड़ाई शुरू की थी | इसलिए जब कहा जाता है की वो छोटे मोटे राजा थे जो अपनी रियासत बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे तो वो अधूरा सच है |
लोग ये समझ चुके थे कि एकीकृत राष्ट्र के तौर पर ही वो अपनी स्वाधीनता की रक्षा कर सकते हैं | कौन बाहर का है, कौन अपना, और कौन सा अपना किसी आक्रमणकारी का साथ दे रहा है उसकी लकीरें साफ़ साफ़ खिंची जा चुकि थी | सिंधिया जैसे राजघराने जो फिरंगियों का साथ दे रहे थे वो भी हमलों से बच नहीं पाए थे | लेकिन ये दौर आज जैसा नहीं था, विद्रोह की भावना को शस्त्रों से कुचलने की परंपरा थी | सेनाओं के हारते ही दमन का चक्र आम नागरिकों पर चलना शुरू हुआ | 19 वीं शताब्दी का आरंभ होते होते भारत की अपनी शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त की जा चुकि थी | और तो और मंदिर, जो कि समाज को जोड़ने का काम करते थे उनको भी फिरंगी हुकूमत ने अपने कब्ज़े में ले लिया |
एकीकृत समाज को कुचलने की मुश्किलें फिरंगियों को दिखने लगी थी इसलिए जातिवाद जैसी परम्पराओं को विदेशी हुक्मरानों ने बढ़ावा देना शुरू किया | जाति के आधार पर इंसान को अपराधी घोषित करने की फिरंगी परंपरा उनके बड़े काम आई | 1900 आते आते भारत में दो पीढ़ियाँ गुजर चुकि थीं | अशिक्षित समाज को ना तो अपना ऐतिहासिक गौरव याद था, ना ही उसमें दोबारा लड़ने की ताकत बची थी | ऐसे में जब क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के जरिये कानूनी तौर पर जाति-आधारित भेदभाव को सरकारी प्रश्रय मिलना शुरू हुआ तो विदेशी हुक्मरानों के पोषित भूरे साहबों ने भी मौके का खूब फायदा उठाया | समाज के एक बड़े हिस्से को संपत्ति, जमीन, शिक्षा जैसे अधिकारों से वंचित कर दिया गया |
ऐसे ही दौर के लिए अंग्रेजी शब्दों Nationalist और Patriot को याद रखा जाना चाहिए | दोनों में आज आपको भाव एक सा लग सकता है | 1850 वाले ही दौर में भारतीय समाज में राजा राम मोहन और विद्यासागर जैसी भी विभूतियाँ थी | इन्हें आज कैसे पहचानेंगे आप ? क्या इनके लिए patriot शब्द का प्रयोग सही लगता है ? या फिर Nationalist कहना चाहेंगे ? नेशनलिस्ट को हिंदी में राष्ट्रवादी कहते हैं, ये राष्ट्र से प्रेम करता है, उसके विकास के लिए प्रयासरत होगा, राष्ट्र की खामियों से निपटने के लिए भी संघर्ष करेगा, लेकिन उसे शासन व्यवस्था से कोई ख़ास लेना देना नहीं होता है |
यहाँ पेट्रियट बिलकुल अलग हो जाता है, उसे हिंदी में स्वदेशानुरागी कहना ठीक होगा | पेट्रियट वैसा व्यक्ति होगा जिसे अपने राष्ट्र पर शासन भी अपना चाहिए | अगर राज्य व्यवस्था किसी और की होगी तो कानून किसी और का होगा और विदेशी कभी उसके देश का हित नहीं करेगा ये चीज़ एक पेट्रियट के दिमाग में बिलकुल साफ़ होती है | यही कारण है कि जब रानी झाँसी की बात होती है तो वो पेट्रियट होती हैं, दुर्गा भाभी का जिक्र होगा तो पेट्रियट कहा जायेगा, तांत्या टोपे या मंगल पाण्डेय के नाम के साथ पेट्रियट शब्द आएगा, खुदी राम बोस, सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह और चद्रशेखर आज़ाद इसी वजह से पेट्रियट हो जाते हैं | बस यही मामूली सा फर्क है कि आप राजा राम मोहन राय या फिर रवीन्द्रनाथ टैगोर को नेशनलिस्ट तो कह सकते हैं मगर पेट्रियट नहीं कह पा रहे |
( राष्ट्र के नागरिक होने के नाते मेरी जिम्मेदारी है कि मेरे राष्ट्र की परिभाषा जैसी जरूरी चीज़ हम कुछ मुट्ठी भर, गिने-चुने, बुद्धि-पिशाचों के हाथ में ना छोड़ दें | चर्चा जारी रहेगी | )
सौ साल से भी पुरानी बात है । उस ज़माने में दक्षिण अफ्रीका में फिरंगियों की हुकूमत थी । सभी भारतीय लोगों को वहां अपने पास पहचान के दस्तावेज़ रखने पड़ते थे । एक ही शासन में एक जगह दूसरी जगह जाने पर भारतीय लोगों को अपना परिचय पत्र दिखाना पड़ता था । सभी भारतीय लोगों लिए पंजीकरण (registration) करवाना अनिवार्य था ।
1906 से ही मोहनदास करमचंद गांधी इसका विरोध करना शुरू कर दिया था । विरोध प्रदर्शन के दौरान परिचय पत्र (pass) जलाने की ही कोशिश में उन्हें पहली बार 1908 में गिरफ़्तार कर लिया गया । इस तरह शुरू हुआ मोहनदास का "महात्मा गांधी" बनने का सफर !
दिल्ली के सर्वोच्च सदन में ऐसे ही एक पंजीकरण के ख़िलाफ़ हरियाणा की कुमारी शैलजा की आवाज सुनाई दी है । उन्होंने जाति / गोत्र पूछे जाने पर आपत्ति दर्ज करवाई है । वो महात्मा गांधी वाले राजनैतिक दल Indian National Congress से हैं तो हम उनसे गांधी जी की रवायत की उम्मीद करते हैं । उन्हें संसद में जाने के लिए और कई संवैधानिक पदो की दावेदारी के लिए "जाति प्रमाण पत्र" दिखाना पड़ता है और अपने इलाके में पंजीकरण भी करवाना पड़ता है । ये अन्याय है !
आप मॉल जैसी जगहों पर गए होंगे, वो एस्केलेटर भी देखा ही होगा आपने | वही स्वचालित सीढ़ी जैसी चीज़ जो अपने आप ऊपर या नीचे जा रही होती है | देखी है ? फिर ठीक है चलिए अब काम की बात पर आते हैं |
राष्ट्र क्या है ? कोई व्यक्ति है ? चीज़ है ? उसे छूकर, सूंघ कर, चख कर, किसी तरह से महसूस कर सकते हैं क्या ? नहीं ना ! राष्ट्र एक अवधारणा है, एक कंसेप्ट | जैसे जैसे देश में मौजूद एक पीढ़ी आगे बढती है और दूसरी पीढ़ी को जगह मिलती है उसी के साथ ये भी बदलती रहती है | सोच के साथ साथ आगे चलेगी, विरोधाभास होंगे, टकराव भी होंगे | इन सब के साथ परिवर्तन जारी रहेगा | सिर्फ आजादी के समय को देख लें तो नजर आ जायेगा कि जो देश अहिंसा की परोकारी करता दिखता था उसने क्या किया ?
गोवा को आजाद करवाने के लिए कोई अहिंसात्मक, गांधीवादी प्रदर्शन नहीं हुए थे | पांडिचेरी, या दमन दिव जैसी जगहें भी सत्याग्रह से नहीं छुड़ाई गई थीं | और तो और जब पटेल को हैदराबाद लेना था तो निज़ाम के दरवाजे पर कोई कांग्रेसी धरने पर नहीं बैठा था | सीधा लट्ठ चला था |
अब जरा जाति को देखिये | किसी पच्चीस साल के लड़के से पूछने पर, आज वो अगर ओबीसी बताता है तो 25 साल बाद क्या बताएगा ? जाहिर है जैसे पिछले 70 साल में SC/ST बिलकुल भी नहीं बदला आज भी अनुसूचित जाति ही है, वैसे ही बाकि सबकी जाति भी एक फिक्स्ड, रुकी हुई चीज़ है | बिलकुल भी नहीं बदलती |
ऐसे ही राजनैतिक विचारधारा को देखिये | कांग्रेस की विचारधारा बदली है क्या ? बीजेपी ने हिंदुत्व कि अपनी अवधारणा में कोई परिवर्तन किया है क्या ? वामपंथियों की तथाकथित विचारधारा कितनी बदल गई है ? ये सब भी अटकी हुई, स्थायी रहने वाली चीज़ें हैं |
अब जरा क्षेत्रवाद को देखिये | उत्तर पूर्व के लोगों को चिंकी बुलाना छोड़ा किसी ने ? बिहार-उत्तर प्रदेश के भैया जी को अनपढ़ मूर्ख मानना छोड़ा ? दक्षिण श्रीदेवी, रेखा, जैसों को बरसों देखने के बाद दक्षिण भारतीय लोगों के लिए क्या धारणा है मन में ? मतलब क्षेत्रवाद भी रुकी हुई चीज़ है |
भाषा की क्या स्थिति होती है ? लिखने बोलने के तरीकों में कितना परिवर्तन आया है ? जैसे हम “फिक्स्ड” यानि एक अंग्रेजी के शब्द को हिंदी में इस्तेमाल कर रहे हैं, देवनागरी में लिख डाला है उस से कितने शुद्धतावादी सहमत होंगे ? “बहता पानी निर्मला...” जैसी कहावतों के वाबजूद हम हिंदी साहित्यकारों में इसके लिए समर्थन नहीं जुटा सकते |
अब वापिस आते हैं एस्केलेटर पर | एक पांव जमीन पर और एक चलते हुए एस्केलेटर पर रखेंगे तो क्या होगा ? इसके अलावा आपने कई बार नए लोगों को एस्केलेटर पर पांव रखने में डरते, हिचकिचाते भी देखा होगा | लगातार आगे बढती, बदलती, ऊपर-नीचे जाती हुई चीज़ के साथ चल देने में डर भी लगता है | इसमें कोई शर्माने की भी बात नहीं, क्योंकि “डर के आगे... जीत है !”
एक साथ आप जातिवादी और राष्ट्रवादी नहीं हो सकते | एक साथ क्षेत्रवादी और राष्ट्रवादी भी नहीं हो सकते | एक साथ भाषा-वादी और राष्ट्रवादी भी नहीं हो सकते | एक साथ राजनैतिक पार्टी के समर्थक और राष्ट्रवादी भी नहीं हो सकते |
बाकि एस्केलेटर पर पांव रखना है या फिर परिवर्तन की हलचल के बदले जमीन पर टिके रहना है ये फैसला आप खुद कीजिये |
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साभार
आनंद कुमार
अब कुछ बातें धर्म ग्रन्थों और कुछ पौराणिक संदर्भ
धर्म हमारे राष्ट्र के कण-कण में संव्याप्त है इसलिए
भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक राष्ट्रीयता के
रूप में जाना जाता रहा है। यही कारण रहा है
कि हमारे ऋषियों ने भारत भूमि को माता कहा है। “माता भूमि पुत्रोहं
पृथिव्याः” वाला यह राष्ट्र ही है जहाँ ऋषियों ने
ब्रह्मज्ञान पाया व ब्रह्मसाक्षात्कार किया। विश्व को परिवार मानने
की सुंदर
कल्पना भी इसी भूमि से
उपजी है।
राष्ट्र का शाब्दिक अर्थ है-रातियों का संगम स्थल। राति शब्द देने
का पर्यायवाची है। राष्ट्रभूमि और
राष्ट्रजनों की यह संयुक्त इकाई राष्ट्र
इसीलिए कही जाती है
कि यहाँ राष्ट्रजन अपनी-अपनी देन
राष्ट्रभूमि के चरणों में अर्पित करते है।
स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र को व्यष्टि का समष्टि में
समर्पण कहते हुए
इसकी व्याख्या की है। आध्यात्मिक
राष्ट्रीयता के उद्घोषक श्री अरविंद ने
कहा है-राष्ट्र हमारी जन्मभूमि है।
मनुस्मृति हमारे देश की साँस्कृतिक
यात्रा की ओर संकेत करती है। भगवान
मनु कहते हैं कि भारतवर्ष रूपी यह पावन अभियान
सरस्वती और दृषद्वती नामक
दो देवनदियों के मध्य देव विनिर्मित देश ब्रह्मावर्त से आरंभ
हुआ। सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते ।।
तस्मिन्देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागत: ।
वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।।
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन: ।
स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवा: ।।
--मनुस्मृति १/१३६,१३७,१३९
इस प्रकार मनु महाराज द्वारा सदाचार,
नैतिकता देवत्व के सम्वर्द्धन प्रचार प्रसार में विश्वास रखने
वाली भारतीय संस्कृति को बताया गया है।
महाभारत के भीष्म पर्व में भारत
की यशोगाथा का वर्णन कुछ इस तरह हुआ है-
अत्रतेकीर्तयिष्यामिवर्षभारतभारतम्।
प्रिययमिंद्रस्यदेवस्यमनोवैंवस्वतस्यच॥
अर्थात् “हे भारत! अब मैं तुम्हें उस भारतवर्ष
की कीर्ति सुनाता हूँ, जो देवराज इन्द्र
को प्यारा था, जिस भारत को वैवस्वत मनु ने अपना प्रियपात्र बनाया था, भारतीय
राष्ट्रवाद की व्याख्या करते हुए विष्णुपुराण में लिखा है-
उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रे: चैव दक्षिणम्। वर्षम् तद्
भारतम् नाम भारती यत्र संतति:’ (२,३,१)।
इस प्रकार हमारे देश का प्राचीन नाम ब्रह्मावर्त और भारतवर्ष है ।
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