। गिरीश पंकज - यथानामो ततो गुण: ।। (नाम विश्लेषण)
गीयते गीत-गजलम् री-रच्यते व्यंग ललीत साहित्यम्।
श आर्यभूमे: शस्यते सद्भावनाम् प्रणेतुम् पंकजलोचनम्।।1।।
पंकजाञ्जायते पंक:,पंक्ति-पावन: पंकजासन: प्रसादात।
छत्तीसगढ़ प्रदेशम् प्रथम पंक्ति-बद्ध: भारत मातृभूमे:।।2।।
अर्थ: गि- गीत-गजल का गायन, री- व्यंग ललीत साहित्यों की रचना करने वाले, श-आर्य भू-भाग पर प्रतिष्ठीत, सद्भावना के प्रेरक एवं प्रणेता पंकज पर पंकजलोचन की कृपा बनी रहे।।1।।
जिस प्रकार किचड़ से विकसीत कमल पुष्प स्वयं के साथ दूसरों को शोभित करने वाले पंक: अर्थात ब्रह्मण कुल में जन्म लेकर छत्तीसगढ़ को प्रथम पंक्ति में खड़ा करने वाले पंकज पर पंकजासन भगवान ब्रह्मा की आशिर्बाद बना रहे और भारत भूमि में अग्र पंक्ति बद्ध करते रहें।।2।।
-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे
नाम - गिरीश पंकज
पिता - श्री कृष्ण प्रसाद उपाध्याय, गांधी वादी
माता - स्व.श्रीमती सावित्री देवी
जन्म - 1 जनवरी, 1957
शिक्षा - एमए (हिंदी), बी. जे. (प्रावीण्य सूची में प्रथम),
डिप्लोमा इन फोक आर्ट।
प्रकाशन :
दस व्यंग्य संग्रह- ट्यूशन शरणम् गच्छामि, भ्रष्टाचार विकास प्राधिकरण, ईमानदारों की तलाश, मंत्री को जुकाम, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं, नेताजी बाथरूम में, मूर्ति की एडवांस बुकिंग, हिट होने के फारमूले, चमचे सलामत रहें, एवं सम्मान फिक्सिंग।
चार उपन्यास - मिठलबरा की आत्मकथा, माफिया (दोनों पुरस्कृत), पॉलीवुड की अप्सरा, एक गाय की आत्मकथा। नवसाक्षरों के लिए तेरह पुस्तकें, बच्चों के लिए चार पुस्तकें। 2 गज़ल संग्रह आँखों का मधुमास,यादों में रहता है कोई . एवं एक हास्य चालीसा।
अनुवाद - कुछ रचनाओं का तमिल, तेलुगु,उडिय़ा, उर्दू, कन्नड, मलयालम, अँगरेजी, नेपाली, सिंधी, मराठी, पंजाबी, छत्तीसगढ़ी आदि में अनुवाद।
सम्मान-पुरस्कार :
त्रिनिडाड (वेस्ट इंडीज) में हिंदी सेवा श्री सम्मान, लखनऊ का व्यंग्य का बहुचर्चित अट्टïहास युवा सम्मान। तीस से ज्यादा संस्थाओं द्वारा सम्मान-पुरस्कार।
विदेश प्रवास:अमरीका, ब्रिटेन, त्रिनिडाड एंड टुबैगो, थाईलैंड, मारीशस, श्रीलंका, नेपाल, बहरीन, मस्कट, दुबई एवं दक्षिण अफीका। अमरीका के लोकप्रिय रेडियो चैनल सलाम नमस्ते से सीधा काव्य प्रसारण। श्रेष्ठ ब्लॉगर-विचारक के रूप में तीन सम्मान भी।
विशेष: व्यंग्य रचनाओं पर अब तक दस छात्रों द्वारा लघु शोधकार्य। व्यंग्य साहित्य पर कर्नाटक के शिक्षक श्री नागराज एवं जबलपुर दुुर्गावती वि. वि. से हिंदी व्यंग्य के विकास में गिरीश पंकज का योगदान विषय पर रुचि अर्जुनवार नामक छात्रा द्वारा पी-एच. डी उपाधि के लिए शोधकार्य। गोंदिया के एक छात्र द्वारा व्यंग्य साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन विषय पर शोधकार्य प्रस्तावित। डॉ. सुधीर शर्मा द्वारा संपादित सहित्यिक पत्रिका साहित्य वैभव, रायपुर द्वारा पचास के गिरीश नामक बृहद् विशेषांक प्रकाशित।
सम्प्रति: संपादक-प्रकाशक सद्भावना दर्पण। सदस्य, साहित्य अकादेमी नई दिल्ली एवं सदस्य हिंदी परामर्श मंडल। प्रांतीय अध्यक्ष-छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, मंत्री प्रदेश सर्वोदय मंडल। अनेक सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध।
गि रीश पंकज साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया का जाना- पहचाना नाम है। केंद्रीय साहित्य अकादेमी के सदस्य हैं। उनका नाम तो पढ़ता-सुनता रहता था लेकिन पिछले दिनों उनसे मुलाकात हुई, तो इस व्यक्तित्व को निकट से देखने-सुनने का अवसर मिला। फिर तो सिलसिला-सा बन गया। मुलाकातें कम हुईं मगर दूरभाष के जरिए बातचीत होती रही। गिरीश पंकज स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन कर रहे हैं। अपनी खुद्दारी के साथ जीवन जीने वाले लोग अब दुर्लभ हैं। मुझे लगा कि इनके बारे में कुछ लिखा जाना चाहिए। गिरीश पंकज तीस सालों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं और साहित्य में भी। उनकी लेखकीय सक्रियता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि आज उनकी लगभग पैंतीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें दस व्यंग्य संग्रह और चार उपन्यास हैं। दो उपन्यास प्रकाशन के लिए तैयार हैं। इस साल उनकी और चार-पाँच पुस्तकें प्रकाशित होने वाली हैं।
गिरीश पंकज मूलत: व्यंग्यकार हैं लेकिन साहित्य की अन्य विधाओं में भी वे निरंतर लिखते रहते हैं। जैसे वे बाल कविताएँ भी लिखते हैं, गीत-गजलें भी । कहानियाँ भी लिखते हैं, और उपन्यास भी। वे अब तक छह उपन्यास लिख चुके हैं। चार प्रकाशित हैं और दो प्रकाशनाधीन। उनके दस व्यंग्य संग्रह हैं। कर्नाटक, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के तीन लोग उनके व्यंग्य साहित्य पर पी-एच. डी कर रहे हैं। इसके पहले सात लोग उनकी विभिन्न कृतियों पर लघु शोध कार्य भी कर चुके हैं। ब्लॉग लेखन के कारण गिरीश पंकज का दायरा अब वैश्विक हो चुका है। उनकी रचनाओं को चाहने वालों की संख्या बढ़ी है। महाराष्ट्र की एक युवती ने उनकी रचनाएँ पढ़ कर उन पर शोधकार्य करने की इच्छा जाहिर की। अभी हाल ही में गोंदिया के एक छात्र गिरीश पंकज के व्यंग्य साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन विषय पर पी-एच. डी का प्रस्ताव ले कर आया। युवक ने नेट में सर्च करने पर पाया कि उनकी अनेक कविताएँ भी ब्लॉग के माध्यम से भी उपलब्ध हैं, तो युवक ने कहा कि आपकी व्यंग्य रचनाओं के साथ-साथ आपकी कविताओं पर भी शोध किया जा सकता है। गिरीश पंकज की पत्रकारिता और साहित्य में समान रुचि है। लेकिन साहित्य का पलड़ा बारी है। उन्हें साहित्यकार के रूप में पहचाने जाने पर ज्यादा संतोष होता है। वे एक संस्समरण सुनाते हैं कि तीन साल पहले जब मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कुछ लोगों के बीच यह कहा कि गिरीश पंकज वैसे संपादक नहीं हैं, ये साहित्यकार हैं, तो मुझे यह सुन कर बेहद खुशी हुई। प्रदेश का मुखिया अगर एक छोटे-से व्यक्ति को एक साहित्यकार के रूप में पहचानता है, इसे सौभाग्य ही मानता हूँ, वरना आजकल कौन शीर्ष नेता किसी रचनाकार के लिए इस तरह की टिप्पणी करता है। गिरीश पंकज उन बिरले लोगों में हैं, जिन्होंने पत्रकारिता और साहित्य दोनों क्षेत्रों में अपनी उपलब्धियों का झंडा गाड़ा है। उन्होंने पत्रकारिता की परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर टॉप किया था। सर्वश्रेष्ठ खोजी पत्रकारिता के लिए के.पी.नारायण पत्रकारिता सम्मान(भिलाई), रामेश्वर गुरू पत्रकारिता सम्मान(भोपाल), राजी स्मृति सम्मान (नई दिल्ली) आदि दस सम्मान इस बात का प्रमाण है। और साहित्य लेखन के लिए अट्टहास सम्मान (लखनऊ), लीलारानी स्मृति सम्मान(मोगा, पंजाब), साहित्य मार्तंड (श्री डूंगरगढ़, बीकानेर), स्वामी सहजानंजद सरस्वती सम्मान (दिल्ली),मावजी चावड़ा बाल साहित्य सम्मान(रायगढ़), अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन सम्मान (ट्रिनिडाड. वेस्टइंडीज), चेतना साहित्य सम्मान (रायपुर)करवट सम्मान (भोपाल)आदि अनेक सम्मान उनके खाते में दर्ज हैं। इन तमाम सम्मानों के बारे में गिरीश कहते हैं कि मुझे खुशी इस बात की है कि किसी भी सम्मान के जोड़-तोड़ नहीं करनी पड़ी, वरना आजकल तो लोग आयोजकों के पीछे ही पड़ जाते हैं।
आप ब्राह्मण कुल में जन्म लिये किन्तु उपनाम 'उपाध्यायÓ लिखना क्यों बंद किए..इसके पिछे क्या राज है?
चौबे जी, जो आपने सवाल मुझसे किया है, इस रहस्य को बहुत लोग जानने को बेताब रहते हैं। छात्र जीवन में जयप्रकाश नारायण आंदोलन (1974-75) अपने चर्म पर था उस समय जेपी जी की मनसा थी कि- जातिबंधन छोड़ो और 'वसुधैव कुटुम्बकमÓ के मार्ग पर चलो ताकि भारत से भेद-भाव खत्म हो सके। इन्हीं विचारों से अभिप्रेरीत होकर मैंने कुछ साथीयों के साथ यह संकल्प लिए अब हम लोग भी उपनाम(जातिसूचक) नहीं प्रदर्शित करेंगे। उसी समय से मैने अपना उपनाम 'उपाध्यायÓ लिखना बंद कर दिया। हालाकि इसके पूर्व लोहिया जी भी 'जातिबंधन छोड़ोÓ का नारा बुलंद किये थे। जो बाद मेें जेपी जी ने आगे बढ़ाया।
आपके द्वारा रचित 'एक गाय की आत्मकथा' उपन्यास का बेसब्री से इंतजार कर रहे पाठकों को कब तक समर्पित करेंगे..और इस उपन्यास के पिछे आपकी क्या मनसा थी..?
हां, मेरे साहित्य क्षेत्र के इस जीवन काल का महत्त्वपूर्ण व बेहतर सृजन है'एक गाय की आत्मकथा'। पाठकों का इंतजार जल्द ही समाप्त होगा 'एक गाय की आत्मकथा' उपन्यास के पिछे हमारी मनसा थी की- कुछ नृसंश गोवंश हत्यारों को छोड़ प्राय: हर भारतीय गाय को माँ मानते हैं, मगर उसकी बदहाली किसी से छिपी नहीं है। मैं नास्तिक किस्म का हूँ, मगर गाय के सवाल पर आस्तिक हो जाता हूँ। गाय ने हम पर कितने उपकार किए हैं। माँ का दूध हम तीन साल तक ही पीते हैं, मगर गाय का दूध जीवन भर पीते हैं। अपने शरीर को बलिष्ठ बनाने के लिए गाय का दूध सहायक बनता है, मगर गाय को खिलाते हैं घास.. निकालते हैं दूध। बूढ़ी हो जाए, काम की न रहे तो उसे कसाई के हाथों सौंप देते हैं। यह हमारे समाज के दोहरे चरित्र को दर्शाता है। इस बेजुबान गाय का भला क्या दोष जो हम इसे दोहन कर अन्त में कसाई की भेंट चढ़ा देते हैं...यही विचार मेंरे अन्तरात्मा में बार-बार कौंधती रही और मैंने एक वृहद उपन्यास लिख डाला। यह उपन्यास सर्वप्रिय प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हो रहा है। इसमें अनेक पौराणिक कथाएँ हैं, और कुछ काल्पनिक घटनाओं के सहारे मैंने यह बताने की कोशिश की है कि गो सेवा की आड़ में क्या खेल चल रहा है। एक मुस्लिम पात्र गो सेवा में लगा रहता है। साम्प्रदायिक सद्भावना का भी मैंने पूरा ख्याल रखा है।
आज सतही साहित्यकारों की बजाय चाटूकारों का बोल-बोला है इस बदलते परिवेश में साहित्य वर्तमान साहित्य की दशा-दिशा क्या है..?
चौबे जी, (गंभीर मुद्रा में लंबी श्वांसें लेते हुए) सहित्य मतलब हित के साथ चलने वाला, लेकिन अब साहित्य समाज का अहित करने पर तुला है। नई धारा के लोग अपनी प्रगतिशीलता या यथार्थवादिता की रौ में साहित्य को अश्लील बना रहे हैं। नैतिक मूल्य हाशिये पर हैं। परम्परा और संस्कृति का कोई मूल्य नहीं रहा। हमारा साहित्य पाश्चात्य साहित्य से ज्यादा प्रभावित हो रहा है। जबकि हमारी परम्परा में इतना अधिक श्रेष्ठ है कि हमें कहीं बाहर निहारने की ही जरूरत नहीं। स्त्री विमर्श के नाम पर जो फूहड़ता नजर आ रही है, वह किसी से छिपी नहीं। क्या वस्त्र उतारना ही मुक्ति है? शालीनता स्त्री का गहना है, क्या उसे उतार कर कोई स्त्री गरिमा प्राप्त कर सकती है? साहित्य लोकमंगल के लिए हैं। वह समाज को बेहतर बनाए, रसातल में न ले जाएं। मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपने व्यंग्य या कहानियों के माध्यम से समाज में जागरण की विनम्र कोशिश करूँ। न कि चंद रूपयों और पुरस्कारों के लालच में नेताओं और पुरस्कार वितरण करने वाली संस्थाओं की चाटूकारिता करना चाहिए।
आपकी लोकप्रियता जितना किताबी है उससे अधिक एक सक्रिय ब्लागर के रूप में भी है..प्रशंसकों की बढ़ती संख्या इस बात की गवाह है..इंटर्नेट पर की बोर्ड के सिपाही के रूप में आपकी पहचान बन रही है..इस संदर्भ में आपका क्या कहना है...?
मेरा ऐसा मानना है कि नेट एक नया संचार का माध्यम है। और यह ज्यादा लोकतांत्रिक है। यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई पहरा नहीं है। यह और बात है कि कुछ लोग इस माध्यम का गलत इस्तेमाल भी कर रहे हैं। अश्लील साहित्य, साम्प्रदायिक विचार या नफऱत फैलाने वाले चिंतनों की यहाँ भी भरमार दीखती है। यह गलत प्रवृत्ति है। नेट जैसे वैश्विक माध्यम का इस्तेमाल हम मानवीय भावनाओं के प्रसार के लिए करें, तो बेहतर होगा। इस माध्यम से जुड़ कर लेखक-पत्रकार अपने विचार दूर-दूर तक पहुँचा सकते हैं। कुछ वैचारिक लोग यह काम कर ही रहे हैं। मैं भी उन लेखकों के बीच में अपने आपको खड़ा पाकर काफी गौरवान्वित होता हुं..और देश-विदेश के हमारे नियमित ब्लाग पाठकों ने सराहा है यह हमारे लिए सौभाग्य की बात है।
आपका प्रारंभिक जीवन पत्रकारिता रही है आज भी आप एक मासिक पत्रिका 'सद्भावना दर्पणÓका संपादन व प्रकाशन कर रहे हैं..आज पत्रकारिता मिशन नहीं वरन बाजारवाद की पर्याय बनकर अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही है..? इस संदर्भ में आपके क्या विचार हैं..?
पत्रकारिता के बदलते स्वरूप को ले कर मैं भी चिंतित हूँ। साहित्य और पत्रकारिता का आपस में गहरा संबंध हुआ करता था। पत्रकारिता मिशन हुआ करता था। उसका अपना मूल्य हुआ करता था। लेकिन बाजारवाद के नये दौर में अब मूल्यों का क्षरण हो रहा है। अख़बार एक उत्पाद की तरह हो गए हैं। जैसे कोई साबुन, जूता, मोबाइल या कुछ और। उत्पाद है तो उसे बेचने की कोशिश भी होगी। फिर माल बेचने के लिए एक सुंदरी भी चाहिए। कुछ अश्लीलता भी परोसी जाएगी। आज हालत यह है कि अनेक अखबारों में अश्लील विज्ञापन नजर आने लगे हैं। उन अखबारों में भी जिनके मालिक-संपादक लेखों-अग्रलेखों और सार्वजनिक मंचों पर नैतिकता की बात करते पाए जाते हैं। संपादक नामक इकाई खत्म होती जा रही है। प्रबंधन का दखल बढ़ रहा है। वह पत्रकारिता को अपने बंधन में रखना चाहता है। यही कारण है कि पत्रकारिता में अब नैतिकता की बात बेमानी है। हिंदी भाषा भ्रष्ट हो रही है। बेवजह अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग किया जाने लगा है। कुछ हिंदी अखबारों में अंग्रेजी के पन्ने में भी नजर आने लगे हैं। इसका असर यह हुआ कस्बाई पत्रकारिता को भी हिंग्लिश का रोग लग गया है।
'मिठलबरा की आत्मकथाÓ के बाद आपने मीडिया पर एक व्यंग रचना लिखी है। जो प्रकाशनाधीन है। इस उपन्यास में आखिरकार आप कौन सा तड़का लगाएं हैं..?
बदलते हुए पत्रकारीय मूल्यों पर प्रहार करने वाला यह मेरा नया व्यंग्य उपन्यास 'ओम मीडियाय नम:Ó है जो शीघ्र प्रकाशित होगा। इस उपन्यास की अद्योपांत भाषा व्यंग्यमय है। इसमें नये दौर की पत्रकारिता के अश्लील चरित्र को बेनकाब करने वाली अनेक कथाएँ भी हैं। इसके पहले भी उपन्यास 'मिठलबरा की आत्मकथाÓ में भी कुछ ऐसा ही था जो प्रकाशित हो चुका है। इस उपन्यास का तेलुगु अनुवाद हाल ही में प्रकाशित हुआ है। मिठलबरा का उडिय़ा में भी अनुवाद हो चुका है। मेरीअनेक कृतियों के भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। उनकी कृति शैतान सिंह का तमिल में अनुवाद हुआ और इसकी ग्यारह हजार प्रतियाँ तमिलनाडु के गाँवों तक पहुँची। जो छत्तीसगढ़ और मेरे लिए सौभाग्य का विषय हैं, हमारी कृतियों के अन्य कई भाषाओं में पढ़े जाने से प्रदेश की ख्यति बढ़ी है।
साहित्य के क्षेत्र में सक्रियता :
छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समित के अध्यक्ष भी है. गांधी, विनोबा, लोहिया और जेपी जैसे चिंतको के अनुगामी पंकज प्रदेश सर्वोदय मंडल के मंत्री भी है. गिरीश पंकज के चिंतन और रचनात्मक सक्रियता को देख कर प्रसन्नता होती है कि छत्तीसगढ़ में रहते हुए उन्होंने अखिल भारतीय स्तर पर अपनी विशेष पहचान बनाई है। ब्लॉग और फेसबुक के अलावां और भी जनसंचार के माध्यम से अब वे देश और विदेशी पाठकों की संख्या में भारी इ•ााफा हुआ है। पाठकों का प्रेम और पाठकों की लंबी फेहरीश्त ही हमारे जीवन की सम्पत्ति है।
अब चला-चली के बेला में एक मनोरम पा्रकृतिक दृश्य छोड़ जाता हुँ..
आपके लिए नहीं सिर्फ आपके ही लिए..
नव पलाश पलाश वनं पुर:
स्फु ट पराग परागत पंकजम्,
मृदु लतांत लतांत मलोकयत
स सुरभिं-सुरभिं सुमनो भरै:।
अर्थात : वृक्षों पर आ रहे हैं नए-नए पात। पूरा पलाश का जंगल सुरभिं-सुरभिं सुगंधित है, तालाब कमल पुष्पों से आच्छादित है। रंगत बदल गई है दिग् दिगंत की,अर्थात ऋ तु आ गई है बसंत की। इन्हीं पक्तियों के साथ गिरीश जी को बसन्त ऋतु की भाव-भंगिमा, इन्द्रधनुषी रंगों से सराबोर ढ़ेर सारी शुभकामनाएं...
--------नोटः यह ''ज्योतिष का सूर्य''राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के फरवरी-2012 के अंक में प्रकाशित हो चुका है। ----
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