ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे, भिलाई |
संस्कृत में ''रंग'' का अर्थ नाचना, गाना होता है, अर्थात् उत्सव मनाना। हजारों वर्ष पूर्व ''रंग'' का निर्माण मजीठ अथवा मजीष्ठा की जड़ एवं बक्कल की छाल, पीपल, गूलर और पाकड़ जैसे वृक्षों पर लगने वाली लाख की कृमियों से लाल रंग एवं सिन्दूर और हल्दी से चूर्ण स्वरूप पीले रंग का निर्माण किया जाता था। उन्हीं प्राकृतिक रंगों से वासन्तिक महापर्व होली का उत्सव मनाया जाता रहा, जिसका स्थान अब रासायनिक पदर्थों से निर्मीत तथातथित रंगों ने ले लिया है। वह भी रंगों के चूर्णवत(पाउडर) नहीं बल्कि विधीवत पानी में घोलकर लोगों पर उड़ेला जाना अब आमजनमानस के स्वभाव में आ गया है, जो कि सर्वथा न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि आज पानी की विभीषिका ने लगभग सारी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है जिससे भारत भी वंचित नहीं है।
भारतीय धर्मशास्त्रों में मनीषियों द्वारा इस महापर्व को मनाए जाने के पिछे मनसा यह थी की शिशिर ऋतु के शीत से कफ-विकार चर्मोत्कर्ष अवस्था मे हो जाती है, जिसे समाप्त करने के लिए उपरोक्त कहे गये वृक्षों के लाख की कृमियों से उत्पादित प्राकृति रंग-चूर्ण(अबीर-गुलाल) को परस्पर में तिलक स्वरूप अथवा उन्हीं चूर्णों को धुरेड्डी के रूप में उड़ाया जाय तो आस-पास में मौजूद जनमानस के अन्तस्थों में यह कण जाकर उनके कफ-विकार को बर्हिगमित करेंगे। इसी संदर्भ में चरक संहिता के सूत्र-स्थानों में कहा गया है-
वसन्ते निचित:श्लेष्मा दिनकृद्भाभिरीरित:।
कायाग्निं बधते रोगांस्तत: प्रकुरूते बहून्।।
तस्मैद्वसन्ते कर्माणि वमनादीनि कारयेत्।।
उपरोक्त बातों से यह स्पष्ट होता है कि अबीर-गुलाल(औषधी-चूर्ण) से उत्सवादिक च्च्रंगज्ज्अर्थात नाचना, गाना ही शुद्ध होली है। और तिलक स्वरूप धारण करना क्यों आवश्यक है तो इस संदर्भ भारतीय मनीषियों ने तो बहुत तर्क दिये हैं परन्तु पाश्चात्य विद्वान भी इस बारे में अपना अभिमत कुछ इस प्रकार देते हैं..इसके पीछे आध्यात्मिक महत्व है। दरअसल, हमारे शरीर में सात सूक्ष्म ऊर्जा केंद्र होते हैं, जो अपार शक्ति के भंडार हैं। इन्हें चक्र कहा जाता है। माथे के बीच में जहां तिलक लगाते हैं, वहां आज्ञाचक्र होता है।-रोबिटो, फ्रीमोंट (कैलिफोर्निया)। आध्यात्म में आज्ञा-चक्र को त्रिकूट स्थान को कहा गया है, उस स्थान पर ढ़ाक के पत्ते से नि:सृ किया गया द्रव पदार्थ अथवा कण को तिलक स्वरूप लगाने से वसन्त की मादकता समाप्त हो जाती है और पुन: आज्ञा-चक्र जागृत हो अपने साधना में कार्यरत हो जाती है । अत: इस प्रकार सूखी होली अथवा औषधीय-चूर्ण(अबीर-गुलाल) से ही रंगोत्सव मनाये जाने के लिए शास्त्र भी दिशानिर्देशित करते हैं जिसका एकमात्र कारण अथवा उनका लक्ष्य था शिशीर ऋतु के जमें कफ को वमित कराना अतएव भारतीय हर उत्सवों के पिछे वैज्ञानिकीय रहस्य छुपा रहता है जरूरत है उन धर्म-संविधान सूत्रों पर चलने की।
भारतीय धर्मशास्त्रों में मनीषियों द्वारा इस महापर्व को मनाए जाने के पिछे मनसा यह थी की शिशिर ऋतु के शीत से कफ-विकार चर्मोत्कर्ष अवस्था मे हो जाती है, जिसे समाप्त करने के लिए उपरोक्त कहे गये वृक्षों के लाख की कृमियों से उत्पादित प्राकृति रंग-चूर्ण(अबीर-गुलाल) को परस्पर में तिलक स्वरूप अथवा उन्हीं चूर्णों को धुरेड्डी के रूप में उड़ाया जाय तो आस-पास में मौजूद जनमानस के अन्तस्थों में यह कण जाकर उनके कफ-विकार को बर्हिगमित करेंगे। इसी संदर्भ में चरक संहिता के सूत्र-स्थानों में कहा गया है-
वसन्ते निचित:श्लेष्मा दिनकृद्भाभिरीरित:।
कायाग्निं बधते रोगांस्तत: प्रकुरूते बहून्।।
तस्मैद्वसन्ते कर्माणि वमनादीनि कारयेत्।।
उपरोक्त बातों से यह स्पष्ट होता है कि अबीर-गुलाल(औषधी-चूर्ण) से उत्सवादिक च्च्रंगज्ज्अर्थात नाचना, गाना ही शुद्ध होली है। और तिलक स्वरूप धारण करना क्यों आवश्यक है तो इस संदर्भ भारतीय मनीषियों ने तो बहुत तर्क दिये हैं परन्तु पाश्चात्य विद्वान भी इस बारे में अपना अभिमत कुछ इस प्रकार देते हैं..इसके पीछे आध्यात्मिक महत्व है। दरअसल, हमारे शरीर में सात सूक्ष्म ऊर्जा केंद्र होते हैं, जो अपार शक्ति के भंडार हैं। इन्हें चक्र कहा जाता है। माथे के बीच में जहां तिलक लगाते हैं, वहां आज्ञाचक्र होता है।-रोबिटो, फ्रीमोंट (कैलिफोर्निया)। आध्यात्म में आज्ञा-चक्र को त्रिकूट स्थान को कहा गया है, उस स्थान पर ढ़ाक के पत्ते से नि:सृ किया गया द्रव पदार्थ अथवा कण को तिलक स्वरूप लगाने से वसन्त की मादकता समाप्त हो जाती है और पुन: आज्ञा-चक्र जागृत हो अपने साधना में कार्यरत हो जाती है । अत: इस प्रकार सूखी होली अथवा औषधीय-चूर्ण(अबीर-गुलाल) से ही रंगोत्सव मनाये जाने के लिए शास्त्र भी दिशानिर्देशित करते हैं जिसका एकमात्र कारण अथवा उनका लक्ष्य था शिशीर ऋतु के जमें कफ को वमित कराना अतएव भारतीय हर उत्सवों के पिछे वैज्ञानिकीय रहस्य छुपा रहता है जरूरत है उन धर्म-संविधान सूत्रों पर चलने की।
-ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे, भिलाई
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