वेदों का अध्ययन व मनन जंगलों में किया जाता था उसे आरण्यक कहा जाता है-
मित्रों.. शुभरात्रि आज आप लोगों से आरण्यक के बारे में च्चा करूंगा, ताकि आप सभी अपने शयन के समय विधीवत इनका चिन्तन व मनन कर सकें..तो आईए...
ब्राह्मण ग्रन्थ के जो भाग अरण्य में पठनीय हैं, उन्हें 'आरण्यक' कहा गया या यों कहें कि वेद का वह भाग, जिसमें यज्ञानुष्ठान-पद्धति, याज्ञिक मन्त्र, पदार्थ एवं फलादि में आध्यात्मिकता का संकेत दिया गया, वे 'आरण्यक' हैं। जो मनुष्य को आध्यात्मिक बोध की ओर झुका कर सांसारिक बंधनों से ऊपर उठते हैं। वानप्रस्थाश्रम में संसार-त्याग के उपरांत अरण्य में अध्ययन होने के कारण भी इन्हें 'आरण्यक' कहा गया। आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा, आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को आरयण्क इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का मनन अरण्य अर्थात् वन में किया जाता था। ये ग्रन्थ अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए थै। आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद् आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण भी कहते हैं) मुख्य हैं। ऐतरेय तथा शांखायन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद् आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से सम्बद्ध हैं। अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या मी महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरू, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख है।
वेद एवं संबधित आरयण्कवेद सम्बन्धित आरण्यक
1- ऋग्वेद
ऐतरेय आरण्यक, शांखायन आरण्यक या कौषीतकि आरण्यक
2- यजुर्वेद बृहदारण्यक, मैत्रायणी, तैत्तिरीयारण्यक
3- सामवेद जैमनीयोपनिषद या तवलकार आरण्यक
4- अथर्ववेद कोई आरण्यक नहीं
1- ऋग्वेद
ऐतरेय आरण्यक, शांखायन आरण्यक या कौषीतकि आरण्यक
2- यजुर्वेद बृहदारण्यक, मैत्रायणी, तैत्तिरीयारण्यक
3- सामवेद जैमनीयोपनिषद या तवलकार आरण्यक
4- अथर्ववेद कोई आरण्यक नहीं
'आरण्यक' नाम से स्पष्ट है कि इन ग्रन्थों का घनिष्ठ सम्बन्ध अरण्य अथवा वन से है। अरण्यों के एकान्त वातावरण में, गम्भीर आध्यात्मिक रहस्यों के अनुसन्धान की चेष्टा स्वाभाविक ही नहीं, सुकर भी थी। आरण्यकों में सकाम कर्म के अनुष्ठान तथा उसके फल के प्रति आसक्ति की भावना विद्यमान नहीं दिखलाई देती। इसी कारण इनका आध्यात्मिक महत्त्व ब्राह्मण ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक है। उपनिषदों के तत्त्वज्ञान को समझने के लिए भी आरण्यकों का पहले अनुशीलन आवश्यक है। उपनिषदों में बहुसंख्यक ऐसे प्रसंग हैं, जिनके यथार्थ परिज्ञान के लिए उनके उन मूलाधारों को जानना आवश्यक है, जो आरण्यकों में निहित हैं। भाषा की दृष्टि से भी आरण्यक साहित्य महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इनका प्रणयन वैदिकी और लौकिक संस्कृत की मध्यवर्तनी भाषा में हुआ है। कर्मकाण्ड की दृष्टि से ब्राह्मण एवं आरण्यक परस्पर अत्यधिक सम्बद्ध हैं, इसलिए बौधायन धर्मसूत्र में, आरण्यकों को भी 'ब्राह्मण' आख्या से संयुक्त किया गया है–
"विज्ञायते कर्मादिष्वेतैर्जुहुयात् पूतो देवलोकात् समश्नुते इति हि ब्राह्मणमिति हि ब्राह्मण्"।
तैत्तिरीयारण्यक–भाष्यभूमिका में सायणाचार्य का कथन है कि अरण्यों अर्थात् वनों में पढ़े–पढ़ाये जाने के कारण 'आरण्यक' नामकरण हुआ
'अरण्याध्ययना–देतदारण्यकमितीर्यते। अरण्ये तदधीयीतेत्येवं वाक्यं प्रवक्ष्यते।।
ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करने वाला ही इन ग्रन्थों के अध्ययन का अधिकारी है–"एतदारण्यकं सर्व नाव्रती श्रोतुमर्हति"।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'आरण्यक' शब्द 'अरण्य' में 'वुञ्' (भावार्थक) प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है–इस प्रकार से इसका अर्थ है, 'अरण्य में होने वाला' - 'अरण्ये भवमिति आरण्यम्।' बृहदारण्यक में भी इसी का समर्थन किया गया है–'अरण्येऽनूच्यमानत्वात् आरण्यकम्।' उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि आरण्यकों का अध्ययन सामान्यतः वनों में ही किया जाता था, किन्तु यह अनिवार्यता नहीं थी। तैत्तियारण्यक के कुछ अंशों से विदित होता है कि वैदिकयुग में, वनों के साथ ही ग्रामों में भी कोई बन्धन नहीं था।
तैत्तिरीयारण्यक–भाष्यभूमिका में सायणाचार्य का कथन है कि अरण्यों अर्थात् वनों में पढ़े–पढ़ाये जाने के कारण 'आरण्यक' नामकरण हुआ
'अरण्याध्ययना–देतदारण्यकमितीर्यते। अरण्ये तदधीयीतेत्येवं वाक्यं प्रवक्ष्यते।।
ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करने वाला ही इन ग्रन्थों के अध्ययन का अधिकारी है–"एतदारण्यकं सर्व नाव्रती श्रोतुमर्हति"।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'आरण्यक' शब्द 'अरण्य' में 'वुञ्' (भावार्थक) प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है–इस प्रकार से इसका अर्थ है, 'अरण्य में होने वाला' - 'अरण्ये भवमिति आरण्यम्।' बृहदारण्यक में भी इसी का समर्थन किया गया है–'अरण्येऽनूच्यमानत्वात् आरण्यकम्।' उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि आरण्यकों का अध्ययन सामान्यतः वनों में ही किया जाता था, किन्तु यह अनिवार्यता नहीं थी। तैत्तियारण्यक के कुछ अंशों से विदित होता है कि वैदिकयुग में, वनों के साथ ही ग्रामों में भी कोई बन्धन नहीं था।
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