संपादकीय
भाजपा के रथ पर आडवाणी और विरथ कांग्रेस
- पं. विनोद चौबे
रथ आवाम से नहीं जोड़ता, जनता से दूर ले जाता है। रथ सामंती प्रतीक है। हमारी परंपरा में रावण रथी है, और रघुवीर विरथ। बावजूद उनको रथ पर सवार होना क्या जरूरी था क्या इसके अलावा और कोई दुसरा विकल्प नहीं था..? आडवाणी जी 'आदि रथयात्री हैं। उनकी यात्रा के निहितार्थ सब जानते हैं।
लालकृष्ण आडवाणी का अपनी 38 दिन में 7600 किलोमिटर की 'जन चेतना यात्राÓ की शुरुआत जयप्रकाश नारायण के जयंती के अवसर पर उनके गांव छपरा के सिताब दियारा से करना प्रतीकात्मक रूप से खास महत्व का है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की स्वतंत्रता संग्राम और आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण में विशेष भूमिका रही, लेकिन आज की पीढ़ी उन्हें ज्यादातर 1970 के दशक के उस आंदोलन के लिए ही जानती है, जिसका केंद्रीय बिंदु भ्रष्टाचार मिटाना था।
आज लोकनायक की जयंती पर आडवाणी उनके गांव से भ्रष्टाचार विरोधी अपने अभियान पर निकलेंगे। आडवाणी लंबी रथयात्राओं के लिए जाने जाते हैं, लेकिन शायद पहली बार वे एक ऐसे मुद्दे को लेकर जनता के बीच उतरे हैं, जिसका परिप्रेक्ष्य व्यापक है। यह रथयात्रा 23 राज्यों से गुजरने वाली 40 दिन की इस यात्रा के दौरान मनमोहन सिंह सरकार उनके खास निशाने पर होगी। यहां एक दुसरे पहलु पर भी गौर करने की बात है कि रथ आवाम से नहीं जोड़ता, जनता से दूर ले जाता है। रथ सामंती प्रतीक है। हमारी परंपरा में रावण रथी है, और रघुवीर विरथ। बावजूद उनको रथ पर सवार होना क्या जरूरी था क्या इसके अलावा और कोई दुसरा विकल्प नहीं था..? आडवाणी जी 'आदि रथयात्री हैं। उनकी यात्रा के निहितार्थ सब जानते हैं।
देश उस मुकाम पर है जहां से राजनीति के सूत्र युवाओं के हाथ जा रहे हैं। देश के 72 करोड़ 99 लाख मतदाताओं में 50 प्रतिशत युवा हैं। राहुल गांधी मुकाबले में हैं। युवा आगे देख रहा है। रथ पीछे ले जाता है। इसलिए आडवाणी की रथयात्रा युवावर्ग को लुभाती नहीं है। शायद इसी सोच से संघ और भाजपा अपना नेता बदलना चाहते हैं। वे दूसरी पीढ़ी को सत्ता सौंपना चाहते हैं। दरअसल आडवाणी जी दो परिवारों के बीच फंसे हैं। एक उनका अपना परिवार है, जो उन्हें प्रधानमंत्री देखना चाहता है। उनकी दलील है कि मोरारजी तो 83 की उम्र में प्रधानमंत्री बने थे। फिर दादा की सेहत अच्छी है। दिमाग दुरुस्त है। दूसरा है संघ परिवार, जो किसी कीमत पर आडवाणी को अब मुख्यधारा में रहने देना नहीं चाहता। यही वजह है कि आडवाणी के इस रथयात्रा निकलने तक जो माहौल होना चाहिए सह इस बार माहौल पैदा करने में असमर्थ रही। पार्टी के बड़े नेताओं और मुख्यमंत्रियों ने हाथ खींच लिए हैं। पार्टी का यह रुख देख आडवाणी जी ने रथयात्रा नीतीश कुमार के हवाले कर दी है। लालकृष्ण आडवाणी ने निश्चित तौर पर भाजपा को सत्ता की राजनीति के सर्वश्रेष्ठ दिन दिखाए हैं। जनसंघ से भाजपा तक उनका योगदान बेजोड़ रहा है। उनकी पहली रथयात्रा ने पूरे देश में रामजान्मभूमि आंदोलन के लिए एक उफान पैदा किया था। आडवाणी की खुद की यात्रा भी कम रोचक नहीं है। पहले वह अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक रहे। फिर उनके समकक्ष हुए। बाद में प्रतिद्वंद्वी बने। यह संयोग है कि वाजपेयी के प्रतिद्वंद्वी बनने के बावजूद आडवाणी तभी तक ताकतवर थे, जब तक वे वाजपेयी की छाया में थे। बाद में उन्हे लगा कि प्रधानमंत्री बनने के लिए अटल जैसा उदार चेहरा चाहिए। इसके लिए उन्होंने जिन्ना का सहारा ले लिया। बस यहीं से गड़बड़ हुई। इसके बाद संघ ने उनसे राजनैतिक नेतृत्व जबरन दूसरी पीढ़ी को दिलवाया। फिर नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी छीनी। अब आडवाणी क्या करें? एक- उन्हें चुनाव न लडऩे की घोषणा करनी चाहिए। दो- उन्हें जयप्रकाश नारायण की तरह व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई का ऐलान करना चाहिए। खुद को सत्ता की दौड़ से बाहर बताना चाहिए। दरअसल लालकृष्ण आडवाणी के लिए यह तय करने का वक्त आ गया है कि वे राजनीति से सुनील गावस्कर की तरह शतक लगाकर रिटायर होंगे। या कपिलदेव की तरह रिटायर किए जाएंगें। फिलहाल, उनका रास्ता कपिलदेव की ओर जा रहा है।
हाल के घोटालों और विदेशों में जमा काले धन के सवाल से आडवाणी सत्ताधारी गठबंधन को घेरने की कोशिश करेंगे। पर्यवेक्षकों की निगाह इस पर होगी कि इस पर जनता की कैसी प्रतिक्रिया मिलती है? अगले चुनावों में भाजपा की रणनीति काफी कुछ इस प्रतिक्रिया पर निर्भर करेगी।
अगर लोगों ने उत्साह दिखाया, तो भाजपा के लिए किसी अन्य मुद्दे की दरकार शायद नहीं रहेगी। उस हाल में पार्टी या संघ परिवार के लिए आडवाणी को दरकिनार करना भी कठिन हो जाएगा, जैसी मंशा उनके बीच हाल में दिखी है।
कुल मिलाकर नीतिश कुमार के हरी झंडी दिखाने के बाद आडवाणी की यह जनचेतना यात्रा प्रारंभ हुई और वहीं लालू प्रसाद यादव ने जय प्रकाश नारायण की इस पावन भूमि को दूषित करना बताया।
भाजपा के रथ पर आडवाणी और विरथ कांग्रेस
- पं. विनोद चौबे
रथ आवाम से नहीं जोड़ता, जनता से दूर ले जाता है। रथ सामंती प्रतीक है। हमारी परंपरा में रावण रथी है, और रघुवीर विरथ। बावजूद उनको रथ पर सवार होना क्या जरूरी था क्या इसके अलावा और कोई दुसरा विकल्प नहीं था..? आडवाणी जी 'आदि रथयात्री हैं। उनकी यात्रा के निहितार्थ सब जानते हैं।
लालकृष्ण आडवाणी का अपनी 38 दिन में 7600 किलोमिटर की 'जन चेतना यात्राÓ की शुरुआत जयप्रकाश नारायण के जयंती के अवसर पर उनके गांव छपरा के सिताब दियारा से करना प्रतीकात्मक रूप से खास महत्व का है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की स्वतंत्रता संग्राम और आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण में विशेष भूमिका रही, लेकिन आज की पीढ़ी उन्हें ज्यादातर 1970 के दशक के उस आंदोलन के लिए ही जानती है, जिसका केंद्रीय बिंदु भ्रष्टाचार मिटाना था।
आज लोकनायक की जयंती पर आडवाणी उनके गांव से भ्रष्टाचार विरोधी अपने अभियान पर निकलेंगे। आडवाणी लंबी रथयात्राओं के लिए जाने जाते हैं, लेकिन शायद पहली बार वे एक ऐसे मुद्दे को लेकर जनता के बीच उतरे हैं, जिसका परिप्रेक्ष्य व्यापक है। यह रथयात्रा 23 राज्यों से गुजरने वाली 40 दिन की इस यात्रा के दौरान मनमोहन सिंह सरकार उनके खास निशाने पर होगी। यहां एक दुसरे पहलु पर भी गौर करने की बात है कि रथ आवाम से नहीं जोड़ता, जनता से दूर ले जाता है। रथ सामंती प्रतीक है। हमारी परंपरा में रावण रथी है, और रघुवीर विरथ। बावजूद उनको रथ पर सवार होना क्या जरूरी था क्या इसके अलावा और कोई दुसरा विकल्प नहीं था..? आडवाणी जी 'आदि रथयात्री हैं। उनकी यात्रा के निहितार्थ सब जानते हैं।
देश उस मुकाम पर है जहां से राजनीति के सूत्र युवाओं के हाथ जा रहे हैं। देश के 72 करोड़ 99 लाख मतदाताओं में 50 प्रतिशत युवा हैं। राहुल गांधी मुकाबले में हैं। युवा आगे देख रहा है। रथ पीछे ले जाता है। इसलिए आडवाणी की रथयात्रा युवावर्ग को लुभाती नहीं है। शायद इसी सोच से संघ और भाजपा अपना नेता बदलना चाहते हैं। वे दूसरी पीढ़ी को सत्ता सौंपना चाहते हैं। दरअसल आडवाणी जी दो परिवारों के बीच फंसे हैं। एक उनका अपना परिवार है, जो उन्हें प्रधानमंत्री देखना चाहता है। उनकी दलील है कि मोरारजी तो 83 की उम्र में प्रधानमंत्री बने थे। फिर दादा की सेहत अच्छी है। दिमाग दुरुस्त है। दूसरा है संघ परिवार, जो किसी कीमत पर आडवाणी को अब मुख्यधारा में रहने देना नहीं चाहता। यही वजह है कि आडवाणी के इस रथयात्रा निकलने तक जो माहौल होना चाहिए सह इस बार माहौल पैदा करने में असमर्थ रही। पार्टी के बड़े नेताओं और मुख्यमंत्रियों ने हाथ खींच लिए हैं। पार्टी का यह रुख देख आडवाणी जी ने रथयात्रा नीतीश कुमार के हवाले कर दी है। लालकृष्ण आडवाणी ने निश्चित तौर पर भाजपा को सत्ता की राजनीति के सर्वश्रेष्ठ दिन दिखाए हैं। जनसंघ से भाजपा तक उनका योगदान बेजोड़ रहा है। उनकी पहली रथयात्रा ने पूरे देश में रामजान्मभूमि आंदोलन के लिए एक उफान पैदा किया था। आडवाणी की खुद की यात्रा भी कम रोचक नहीं है। पहले वह अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक रहे। फिर उनके समकक्ष हुए। बाद में प्रतिद्वंद्वी बने। यह संयोग है कि वाजपेयी के प्रतिद्वंद्वी बनने के बावजूद आडवाणी तभी तक ताकतवर थे, जब तक वे वाजपेयी की छाया में थे। बाद में उन्हे लगा कि प्रधानमंत्री बनने के लिए अटल जैसा उदार चेहरा चाहिए। इसके लिए उन्होंने जिन्ना का सहारा ले लिया। बस यहीं से गड़बड़ हुई। इसके बाद संघ ने उनसे राजनैतिक नेतृत्व जबरन दूसरी पीढ़ी को दिलवाया। फिर नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी छीनी। अब आडवाणी क्या करें? एक- उन्हें चुनाव न लडऩे की घोषणा करनी चाहिए। दो- उन्हें जयप्रकाश नारायण की तरह व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई का ऐलान करना चाहिए। खुद को सत्ता की दौड़ से बाहर बताना चाहिए। दरअसल लालकृष्ण आडवाणी के लिए यह तय करने का वक्त आ गया है कि वे राजनीति से सुनील गावस्कर की तरह शतक लगाकर रिटायर होंगे। या कपिलदेव की तरह रिटायर किए जाएंगें। फिलहाल, उनका रास्ता कपिलदेव की ओर जा रहा है।
हाल के घोटालों और विदेशों में जमा काले धन के सवाल से आडवाणी सत्ताधारी गठबंधन को घेरने की कोशिश करेंगे। पर्यवेक्षकों की निगाह इस पर होगी कि इस पर जनता की कैसी प्रतिक्रिया मिलती है? अगले चुनावों में भाजपा की रणनीति काफी कुछ इस प्रतिक्रिया पर निर्भर करेगी।
अगर लोगों ने उत्साह दिखाया, तो भाजपा के लिए किसी अन्य मुद्दे की दरकार शायद नहीं रहेगी। उस हाल में पार्टी या संघ परिवार के लिए आडवाणी को दरकिनार करना भी कठिन हो जाएगा, जैसी मंशा उनके बीच हाल में दिखी है।
कुल मिलाकर नीतिश कुमार के हरी झंडी दिखाने के बाद आडवाणी की यह जनचेतना यात्रा प्रारंभ हुई और वहीं लालू प्रसाद यादव ने जय प्रकाश नारायण की इस पावन भूमि को दूषित करना बताया।
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