वैदिक ऋषियों की तरह लोकमंगल के लिए निरन्तर चलते रहने का शिवसंकल्प ही 'चरैवेति! चरैवेति!!' है। इस संकल्प की अवधारणा और उसकी चरम परिणति ही जीवन का शाश्वत उद्देश्य है। यह जीवन समाज से मिला है और समाज के काम आ जाय, तो इससे बढ़कर जीवन की कोई दूसरी सार्थकता हो ही नहीं सकती। समय की शिला पर टंकित संघर्ष के स्वर्णाक्षर से निर्मित अभिलेखों को स्मृति की अक्षय मंजूषा में सँजोकर रखने का कार्य प्रत्येक मनुष्य करता है, किन्तु ऐसे लोग कम ही होते हैं, जो संघर्षजनित सफलता की वर्णमाला को सार्वजनिक करके समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सीखने का अवसर प्रदान करें। राम नाईक जी ने अपने जीवन को अनुकरणीय और प्रेरक बनाया है। उनके जीवन से सकारात्मक प्रेरणा के मन्त्र प्रतिध्वनित होते हैं। वस्तुतः ऐसा इसलिए है कि उन्होंने वैदिक ऋषियों की शीतल छाँव में विश्राम किया है। इसका संकेत करते हुए वे लिखते हैं- 'प्राचीन वाड़्मय की सूक्तियों में जीवन के लिए उपयुक्त दर्शन बताया गया है। ऐतरेय की सूक्तियों में एक जगह उल्लेख है कि राजा को आत्मोन्नति का बोध कराने के लिए इन्द्र देवता ने मनुष्य का रूप धारण किया था। अच्छे भाग्य का अधिकारी बनने के लिए सतत चलते रहने का उपदेश देते हुए इन्द्र कहते हैं-
आस्ते भग आसीनस्य
उर्ध्वम् तिष्ठति तिष्ठतः
शेते निपद्य मानस्य
चराति चरतो भगः! चरैवेति चरैवेति!!
बैठे हुए व्यक्ति का भाग्य भी बैठ जाता है
खड़े हुए व्यक्ति का भाग्य भी वृद्धि की ओर उन्मुख होता है
सो रहे व्यक्ति का भाग्य भी सो जाता है
किन्तु चलनेवाले का भाग्य प्रतिदिन बढ़ता जाता है,
अतः तुम चलते रहो! चलते रहो!!
उदाहरण के रूप में इन्द्र आगे बताते हैं,
चरन्वै मधुविन्दति
चरन्स्वादुमुदुम्बरम्
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्
चरैवेति! चरैवेति!!
मधुमक्खियाँ घूम घूमकर शहद जमा करती हैं।
पक्षी मीठे फल खाने के लिए सदा भ्रमण करते रहते हैं।
सूरज कभी सोता नहीं, चलता रहता है। इसलिए जगद् वन्दनीय है।
अतः हे मानव, तुम भी चलते रहो! चलते रहो!!'
- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' मासिक पत्रिका
भिलाई
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