रामराज्य का वर्णन करते हुए तुलसी कहतें हैं,
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥1॥
यानि, 'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते. सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं.
ऐसा नहीं है कि रामराज्य में हर कोई धनपति हो गया था पर इसके बाबजूद जिस रामराज्य का वर्णन तुलसी ने किया है वहां वर्ग-संघर्ष जैसी कोई अवधारणा नहीं पनप सकती थी इसकी वजह थी कि वहां के मनुष्यों के बीच परस्पर प्रेम था, एक दूसरे के प्रति आदर का भाव था, मालिक और मजदूर में भेद नहीं था, हर कार्य की सफलता का श्रेय स्वयं को नहीं सबको देने का भाव था. संघ के द्वितीय सरसंघचालक पू० माधव सदाशिव गोलवलकर ने भी कहा था कि रिक्शे या ठेले वाले को ऐ रिक्शावाले कहने की जगह अगर समाज उसे उसका नाम लेकर बुलायें तो उसमें कभी कम्युनिज्म और वर्ग-संघर्ष का भाव नहीं पनप सकता. ये सत्य कथन है, प्रेम, आदर और मानवीय मूल्यों का सम्मान आर्थिक विषमता को गौण कर देता है, आर्थिक विषमता सामजिक विषमता नहीं बन पाती.
कोई मजदूर है, श्रम करता है तो उसके मन में इसके लिये कोई हीनताबोध नहीं हो, श्रम सम्माननीय है, गौरव-बोध कराती है रामकथा का एक बड़ा सन्देश ये भी है और राम ने इसे जीवन और अपने कर्मों से हमेशा सिद्ध किया. राजकुल में जन्मे अवश्य थे पर इसे उन्होंने कभी भी श्रम से भागने का आधार नहीं बनाया. जब गुरुओं के साथ थे तो आश्रम की तमाम व्यवस्थाओं के साथ अपने गुरु के चरण दबाने जैसे कार्यों में राम हमेशा आगे रहे, जब वनवास काल में थे तब कुटिया बनाने से लेकर अन्य दूसरे काम दोनों भाई स्वयं ही करते थे. जब वापस अयोध्या आये, राजसिंहासन मिला तब भी ये संस्कार न तो उनमें लुप्त हुआ था न उनके परिवारजनों में. तुलसी आदर्श रामराज्य के वर्णन में लिखतें हैं,
जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी॥
निज कर गृह परिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई॥
जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ। सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ॥
कौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं॥
यानि, यद्यपि घर में बहुत से दास और दासियाँ हैं और वे सभी सेवा की विधि में कुशल हैं, तथापि श्री सीताजी घर की सब सेवा अपने ही हाथों से करती हैं और श्री रामचंद्रजी की आज्ञा का अनुसरण करती हैं, कृपासागर श्री रामचंद्रजी जिस प्रकार से सुख मानते हैं, श्री सीता वही करती हैं, क्योंकि वे सेवा की विधि को जानने वाली हैं. घर में कौसल्या आदि सभी सासुओं की सीताजी सेवा करती हैं, उन्हें किसी बात का अभिमान और मद नहीं है.
बिना श्रम अगर कुछ हासिल हो जाये तो वो महत्त्वहीन हो जाता है और जो श्रम के नतीजे में मिले उससे सुखकर कुछ नहीं होता, राम के जीवन-चरित में इसे सिखाता हुआ एक प्रसंग है, जब दशरथ ने प्रभु को वनवास की आज्ञा दी तो वो एक-एक कर सबसे मिले फिर जितनी धन-संपत्ति और वस्त्राभूषण उनके पास थे सब दान करने के लिए महल से बाहर निकल आये. दान करते समय एक अस्सी वर्षीय बूढ़ा लाठी टेकता हुआ उनके पास याचक रूप में आया. राम ने पूछा, क्या चाहिए ? उस वृद्ध ने गौ की मांग की, राम ने सामने मैदान की तरह अंगुली करते हुए उस वृद्ध से कहा, बाबा आपके हाथ में जो लाठी है, उसे जितनी जोर से फेंक सकते हो फेंको. जहाँ जाकर लाठी गिरेगी, उससे इधर की सारी गौएँ आपकी. उस बूढ़े को समझ नहीं आया कि ये क्या कह रहे हैं राम, वो नकारात्मकता में सर हिलाते हुए कहने लगा, राम, मेरी उम्र इतनी नहीं है कि मुझसे ये लाठी फेंकी जायेगी. राम ने उसे उत्साहित करते हुए कहा, देखो बाबा, लाठी जितनी दूर फेंकोगे उतनी गौएँ आपकी. उत्साह में भरे बूढ़े ने पूरे ताकत से लाठी घुमाकर फेंकी और वहां से काफी दूर जा गिरी. राम ने लाठी की सीमा के भीतर की सारी गायें उसे देकर ससम्मान विदा कर दिया. ये सारी घटना लक्ष्मण भी देख रहे थे, उन्हें कुछ समझ नही आया तो उन्होंने राम से पूछा , भैया, आप उसे यूं भी तो गौएँ दे सकते थे तो उससे ये श्रम क्यों करवाया? तब राम ने लक्ष्मण को समझाते हुए कहा कि अगर उस बूढ़े को दान में गौएँ मिलती तो वो उसे मुफ्त का माल समझकर अकर्मण्य हो जाते पर चूँकि अब उन्होंने इसे अपने श्रम से पाया है तो वो इसकी कद्र करेंगे और कीमत समझेंगे.
जब लंका विजय हुई तो विजय के उपलक्ष्य में प्रभु ने सब वानर-भालुओं को बुलाया, उनसे प्रेम से बात की और कहा, ये विजय मेरी नहीं है, न ही रावण वध अकेले मेरे बल का परिणाम था बल्कि ये विजय आप सबके बल से प्राप्त हुआ है और आज तीनों लोक आप सबका यशोगान गा रहा है. अपने इन सहयोगियों के प्रति राम ने तब भी आभार प्रकट करते हुए उन्हें विजय का श्रेय दिया था जब वो चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे, अपने कुल गुरु वशिष्ठ से सबका परिचय कराते हुए राम ने कहा था , गुरुवर ! ये सब मेरे वो मित्र हैं जिन्होनें मेरे लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी, ये सब मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हैं. लंकाकाण्ड में आता है कि जब विभीषण के राज्याभिषेक की बात हो रही थी तब राम ने विभीषण के लंका चलने के अनुरोध को ये कहते हुए ठुकरा दिया था कि मैं पिता की आज्ञानुसार चौदह वर्ष पूर्व नगर में नहीं जा सकता पर आपके राज्याभिषेक के लिये मैं "अपने समान" सब वानरों को भेजता हूँ. राम ने वानरों को अपने समान बताया. राम की नज़र में हनुमान भी सेवक नहीं थे, राम ने कई बार हनुमान को अपना पुत्र बताया है. वो हनुमान से कहतें हैं, "सुन सुत तोहि उरिन मैं नाहीं" यानि हे पुत्र सुन मैं तुझसे उरिन नहीं हो सकता.
इसलिये राम से अधिक समाजवादी, मजदूर-हितैषी और वर्ग-भेद को पाटने वाला कोई दुनिया के किसी किताब, किसी वृत से, किसी इतिहास ग्रन्थ से निकाल कर दिखा दे.
मालिक और मजदूर के संबंधों को समझना हो, श्रम के सम्मान को समझना हो, श्रम से आत्मगौरव का बोध जागरण करना हो, मजदूर यानि धर्मविरोध नहीं बल्कि धर्म के अनुपालन का भाव देखना हो, वर्ग-संघर्ष न जन्म ले इसके लिये भाषण और दर्शन देने की जगह स्वयं के जीवन को मिसाल बनाकर दिखाना हो तो रामचरित से सुंदर कुछ नहीं हो सकता.
देश के विकास और निर्माण में बहुमूल्य भूमिका निभाने वाले लाखों मजदूरों के कठिन परिश्रम, दृढ़ निश्चय और निष्ठा का वास्तविक सम्मान तभी होगा जब हिंसा, वर्ग-संघर्ष, साम्राज्यवाद और नास्तिकता से मुक्त मजूदर दिवस आयेगा और ये व्यवहार में श्रीराम के अनुगमन के बिना संभव नहीं है.
रामायण की वैश्विक व्यापकता...
रामायण एक बार नहीं कई बार लिखी गई है | वाल्मीकि रामायण के बाद अलग अलग समय में अलग अलग लोगों ने अपने अपने हिसाब से इसकी व्याख्या, इसकी कहानी लिखी | समय, स्थान, व्यक्तिगत अभिरुचियों के हिसाब से इसमें अंतर भी आये | इसलिए तकनिकी रूप से हर किताब को रामायण कहते भी नहीं | कुछ ख़ास नियमों के पालन पर ही रामायण बनती है | जैसे अगर जैन धर्म में चलने वाली राम कथा देखेंगे तो उसमें कहानी थोड़ी अलग है | आज के विदेश यानि जैसे बर्मा, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड, जापान जैसी जगहों पर चलने वाली राम कथा भी रामायण से थोड़ी अलग होती है |
सबसे प्रचलित राम कथाओं में तुलसीकृत रामचरितमानस का नाम शायद सबसे ऊपर आएगा | ये ऐसी भाषा में लिखा गया है जिसे याद रखना काफी आसान है | उसके अलावा इसके हनुमान चालीसा जैसे हिस्से कई लोगों को जबानी याद होते हैं इसलिए भी ये सबको जाना पहचाना लगता है | तुलसीदास के बारे में मान्यता है कि उनके ज़माने के पंडित उन्हें कोई सम्मान नहीं देते थे | उन्हें रामायण पर कुछ भी लिखने का अधिकारी ही नहीं मानते थे !
उनकी लिखी रामचरितमानस में भी कथाक्रम वाल्मीकि रामायण से भिन्न था | कहते हैं जांच के लिए जब उस काल में लिखी रामायणों को रखा गया तो पंडित जन तुलसीदासजी की किताब राम कथाओं के ढेर में सबसे नीचे रख देते | शाम में कपाट बंद होते, अगली सुबह जब कपाट खुलते तो रामचरितमानस सबसे ऊपर आ गई होती ! एक दो बार तो सबने अनदेखा किया मगर बार बार कब तक एक अच्छी किताब को दबाते ? आखिर सबको मानना ही पड़ा कि रामचरितमानस अच्छी है | बाकी जो उसकी जगह थी वो हिन्दू जनमानस ने उसे दे ही रखी है |
जैसे ये रामचरितमानस के ऊपर आ जाने की लोक कथा है वैसे ही, कई शेखुलर ताकतों के दुष्प्रचार के वाबजूद अजीब अजीब से सवाल सर उठाते ही रहते हैं | जैसे शुरुआत का ये कपट था कि आर्य कहीं बाहर से आये और उन्होंने द्रविड़ों को अपना गुलाम बना लिया | लेकिन इतिहास के नाम पर परोसे गए टनों लुगदी साहित्य के नीचे से सत्य फिर से सर निकाल लेता था ! एक तो मध्य प्रदेश की गुफाओं में भित्तिचित्र दिखा देते हैं कि भारतीय लोग पहले से ही घोड़े पालते थे इसलिए सिर्फ घुड़सवार, रथारूढ़ हमलावरों का उनसे जीत जाना संभव नहीं लगता | ऊपर से वो जिस रास्ते से रथारूढ़ आर्यों का आना बताते हैं वो रास्ता भी रथ के लायक नहीं |
ऐसी ही कुछ बातों के आधार पर बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपनी किताबों में लिखा कि आर्य कहीं बाहर से आये लोग नहीं थे |
एक ऐसा ही अन्य झूठ भाषा को लेकर भी चलाया जाता रहा | वेटिकन पोषित शेखुलर ताकतें बरसों इस मिथ्या प्रचार में लगी हैं कि संस्कृत एक मृत भाषा है | हिन्दुओं की इस भाषा को कुचलने के लिए कई आर्थिक अवरोध भी खड़े किये गए | आज की तारिख में संस्कृत के शिक्षकों की सरकारी तनख्वाह भी अन्य भाषा के शिक्षकों से कम है | विदेशी भाषाओँ को सीखने में ज्यादा फायदा है कहकर भारत के एक बड़े वर्ग को बरगलाने की कोशिश भी की जाती रही | लेकिन जनसाधारण ने अभिजात्य दलालों के प्रयासों को कभी कामयाब नहीं होने दिया है | सत्ता पोषित, वेटिकेन फण्ड पर अघाए, हिन्दू हितों को हड्डियों की तरह चबाने के प्रयासों में लगे इन कुत्तों पर जब तब लट्ठ पड़ते ही रहे हैं |
अब समय है कि हम ऐसे प्रयासों को तेज करें | कल तक सोशल मीडिया के अभाव में जो आवाज दबा दी जाती है उसकी गूँज धमाकों की तरह सुना कर विदेशी डीएनए धारकों के कान फाड़ने होंगे | सुधर्मा संस्कृत दैनिक एक ऐसे ही प्रयास में पिछले चार दशकों से भी ज्यादा से लगा हुआ है | वो विश्व का इकलौता संस्कृत दैनिक निकालते हैं | आइये उनके इस महती कार्य में योगदान करें | एक छोटा सा गिलहरी प्रयास भी रामसेतु बनाने में मायने रखता है !
- साभार "सुधर्मा संस्कृत दैनिक" के फेसबुक वॉल से....
संकलन कर्ता Astrologer Pandit Vinod Choubey 9827198828
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