३३ करोड़ ही हैं देवी देवता ..
हम सदा अपने बड़े बूढ़ों से और धर्म शास्त्रों की कथाओं में यह सुना करते थे कि विश्वब्रम्हाण्ड में ३३ करोड़ देवी देवता हैं कुलदेवी कुलदेव,वास्तु, स्थान देव , ग्राम देवों को सदा नमन करते रहे .. फिर एक भ्रम पैदा हुआ कि देवता केवल तैतीस ही हैं, और इससे भी आगे एक आकाशवाणी व्हाट्स ऐप के परमज्ञानियों से बारम्बार अवतरित हुयी जिसने मात्र तैंतीस देवता स्वीकार किये और शेष को नकार दिया .. बहुत विचार के पश्चात एक विवेचन...
३३ देवों का वैशिष्ट्य सही है कोटि का अर्थ प्रकार भी मान्य है , किन्तु देव समूह के विषय में तैंतीस कोटि से तात्पर्य ३३ करोड़ ही है ..
अथर्वशीर्ष, के अनुसार - अहमादित्यरुत विश्वेदेवै , अहं मित्रा वरुणावुभौविभर्मी.. अहंमिन्द्राग्नि ..
इसमें आदित्य , के अलावा मरुत , विश्वेदेव . मित्रवरुणादि भी देवता के रूप में हैं ... अब १२ आदित्य , ११ रुद्र , ८ वसु और दो अश्विनीकुमारों तक ही सीमित ३३ देव नामावली में से ये न होने से क्या इनको देवता नहीं स्वीकार किया जायेगा . ??? मैं ये नहीं कह रहा कि ये ऊपर के गिनाये गए ३३
देवता नहीं होते... बिलकुल होते हैं किन्तु इनके अलावा भी करोड़ों देव हैं ..
भगवती दुर्गा की ५ प्रधान श्रेणियों में ६४ योगिनि हैं .. हर श्रेणी में ६४ ×५ योगिनी इनके साथ ५२ भैरव भी होते हैं .. ४९ प्रकार के मरुद्गण ४९ ही अग्नि , ५६ प्रकार के विश्वेदेव होते हैं ..
शेष देवों , इन्द्र , अग्नि, वायु, वरुण, यमादि दिक्पाल , सूर्यादि नवग्रह, षोडश मातृकायें , विश्वेदेवा, चतुषष्ट योगिनी , वास्तु , क्षेत्रपाल , के अस्वीकार्य का आधार क्या है .. ?? शुक्ल यजुर्वेद में :- अग्निर्देवता वातो देवता, सूर्यो देवता: , चन्द्रमा देवता: , वसवो देवता, रुद्रा देवताऽदित्या देवता मरुतो देवता विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता: .. सभी की देवस्वरूप में स्तुति है .. वेद में रुद्र सूक्त , यम सूक्त,देवी सूक्त, पितृ सूक्त, नारायण सूक्त, विष्णु सूक्त, श्री सूक्त, सूर्य , अग्नि, पृथ्वी, गौ , सब परमात्मा के सगुण साकार रूप हैं,
अधिभौतिक , और आध्यात्मिक के मध्य अधिदैवत्व की चैतन्य शक्तियों को देव कहा गया है ,चैतन्य शक्तियों में महाशक्तियां हैं, जो इन सबकी मूल परा, परमेशानि, मूल प्रकृति की लीला है ..
मेरे विचार से यह मात्र ३३ देवता वाला मत , अधिदैवत्व को नकारने वाली ये एकला पंथी की धारणा किताबी मज़हबी एकलापन्थी एकलोपास्य_ईश्वर वादी समूहों से प्रभावित है ..
सर्व प्रथम हमें अपने शाश्वत सनातन की तुलना इलहामी किताबी मजहबों से करना समीचीन ही नहीं है हमारे यहां उपासना के मार्ग भिन्न है किन्तु परमात्मा "ऐकमेव अद्वितीय , सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा" है , हमें बहुदेव वादी कहना अल्पज्ञता है हमारे दर्शन में ब्रह्म एकमेव अद्वितीय है उस परमात्मा को प्राप्त करने के ट पंथ अनेकों हैं "रुचीणां वैचित्र्यादृजु कुटिल नाना पथजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमस पयसामर्णव इव " .. जिस प्रकार भिन्न भिन्न नदियां अलग अलग सीधे अथवा टेढ़े मार्गों से अन्त में सागर में जा मिलती हैं उसी प्रकार भिन्न भिन्न दिखने वाले मत भी अन्त में एक परमेश्वर को ही प्राप्त होते हैं .... यहां यह सनातन का वैशिष्ट्य ही यही है कि हम परमात्मा को एकलापन्थी इलहामियों की भांति ऊपर वाला ही नहीं है , अपितु सब ओर वाला सर्वव्यापी सबकी अन्तरात्मा में प्रतिष्ठित है यहां ऊपर वाले के पैगाम से नहीं अपितु अन्तरात्मा के आत्मज्ञान से धर्म का विवेचन होता है। धर्म का निर्धारण ऊपर चौथे/सातवें आसमान पर तख्त पर अकेले बैठ कर भेजे गए सन्देशों से नहीं होता न ही किसी किताब में ये सामर्थ्य है कि परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग का पेटेण्ट करवा कर बस यही हमारे वाली किताब का ही मार्ग सच्चा की घोषणा कर सके "मैं और मेरा ही पंथ सच्चा जो न माने वो शैतान कुफ्र काफिर ", .. कुछ महामना इसे इलहाम का "अनन्य समर्पण" कहते हैं , ठीक है तो समर्पित होने वाला अपने समर्पण तक सीमित रहे कौन मना करता है ,.. दूसरे के मत पर बलात् प्रहार लोभ और तलवार के आतंक से मज़हबी मत परिवर्तन क्या है ये आत्म समर्पण या आत्म निवेदन तो नहीं ही है ..!!
समर्पण में जब सर्वस्व दे दिया जब दूसरे का अस्तित्व ही शेष नहीं रहा तब ये काफिर कहां से अस्तित्व में आ गए..?? भक्त का समर्पण केवल अपने ईष्ट को ही होता है , समर्पण भक्ति की परमावस्था है .. आतंकित असहाय से समर्पण तो रावण भी चाहता था माता सीता से,, तो क्या वह उचित था ..??
याने मेरा बाप सबका बाप जो न माने वो काफिर , ये एकला पन्थी ईश्वर की धारणा अब्राहमी पंथों का द्वन्द है ये समर्पण नहीं बल्कि विध्वंस है जो वर्तमान वैश्विक असंतोष का मूल है..
इन पंथों और सनातन के अनन्तो वै वेदा : नेति नेति और एक: सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति की उदात्त धारणा में मूलभूत अन्तर है ऐकमेव अद्वितीय परमेश्वर पिता , माता , गुरू, स्वामी , सखा , आदि भिन्न भाव मार्ग से प्रकट होते हैं यही हमारे सर्व स्वरूप सर्वेश, सर्व शक्ति रूप समन्वित धर्म की विशिष्ट विलक्षण महानता है .. सनातन वैदिक धारणा में परमात्मा अकेला नहीं अपितु सम्पूर्ण अस्तित्व है , एकमेव अद्वितीय है और तत्व रूप से वही सर्वस्व है यह सम्पूर्ण विश्व ब्रम्हाण्ड उस विराट की ही महिमा है, यह सम्पूर्ण एक पाद से इस जगत् में व्याप्त रह कर तीन पादों में अव्यक्त नित्य बना रहता है (पादोऽस्य विश्वाःभूतानि त्रिपादस्याऽमृतंदिवि ) परमात्मा से परे कुछ भी नहीं है , देव हों या मानव , दानव, पशु पक्षी , जड़ चेतन, अर्ध चेतन , पराचैतन्य सर्वत्र परमात्मा की ही विभूति है.. शैतान जैसा यहां कुछ नहीं है ,हिरण्याक्ष , रावण कुम्भकर्ण , या कंस शिशुपाल दंतवक्त्र तक सभी परमेश्वर के पार्षद ही हैं , जीवात्मा अपने कर्मफल के आधार पर देव भी बनता है और दानव भी .. देवता भी भिन्न भिन्न मन्वन्तरों में अलग अलग रूप से जन्म लेते हैं
यहां पर हम देव शक्तियों के सम्बन्ध में विचार कर रहे हैं .. यह भी सत्य है कि देवशक्तियां तैंतीस कोटि हैं किन्तु तैंतीस कोटि को प्रकार सिद्ध करके करोड़ का खण्डन नहीं होता है ..!! द्यु स्थानीय देवता ३३ भी हैं ,और ३३ कोटि का भी वर्णन पुराणों में है ,किन्तु इससे ३३ करोड़ देवताओं का निषेध किस प्रकार हो जाएगा .. ?? यह विचारणीय है ..
स्थान के आधार पर देवता पृथ्वी स्थानीय , द्यो स्थानीय और अन्तरिक्ष स्थानीय रूप से वर्गीकृत हैं ..
द्यु स्थानीय ३३ कोटि में रुद्रादित्यवसु और अश्विनि कुमारों की गणना है .. सैषाऽष्टो वसव: सैषेऽकादश रुद्रा: , सैषा द्वादशादित्या: सैषा विश्वेदेवा सोमपाऽसोमपाश्च (अथर्व).. यहां तक तैंतीस पूर्ण हो जाते हैं .. किन्तु गणना इससे आगे भी है .. सैषा प्रजापतीन्द्र मनव: , सैषा ग्रह नक्षत्र ज्योतींषि कलाकाष्ठादि काल रूपिणी .. ये भी देव समूह ही है .. अब अगर कोई प्रजापति, इन्द्र को देव न मानें तो भी गलत होगा.. ब्रह्मा को प्रजापति कहा जाता है, उनके
मानसपुत्रों के पुत्रों में कश्यप ऋषि हुए जिनकी कई पत्नियां थी , उन्हीं से इस धरती पर पशु, पक्षी और नर-वानर , नाग. अहि ,सर्प , देव, दैत्य आदि
प्रजातियों का जन्म हुआ.. चूंकि वह हमारे जन्मदाता हैं इसलिए प्रजापति हैं ब्रह्मा को प्रजापिता भी कहा जाता है ..
मुख्य रुद्र ११ , हैं आदित्य १२ ,
किन्तु असँख्याता सहस्त्राणि ये रुद्रा अधिःभूम्याम् .. तेषा^ सहस्त्र योजने .. ( यजुर्वेदीय शत रुद्रिय संहिता ..) यहा पर भूमि के नीचे ही करोड़ों रुद्रों का उल्लेख है .. इसी प्रकार अन्तरिक्ष मण्डल के करोड़ों रुद्रों से प्रार्थना है . वेदों में इन्द्र , यम . वरुण , सूर्य चन्द्रमा , मरुत , विश्वेदेव , बृहस्पति, वायु को देवता कहा गया है ..
वातो देवता ,, ४९ मरुत तो सर्वज्ञात ही हैं.. अग्नि भी ४९ कहे गये हैं , इसी आधार पर गोत्र तो सात के गुणन में सहस्त्रों हैं किन्तु "प्रवर ४९" ही हैं प्रवरास्तु प्रवरणानि प्रवर: (प्रकृष्ट वरण रूप अग्नि प्रार्थना ) को प्रवर कहा जाता है .. अग्नि के तीन पुत्र , पावक,पवमान, और जल का भक्षण करने वाला शुचि कहा गया है , इनमें से प्रत्येक के १५ , पुत्र हैं इस क्रम से ४५ सन्तान , तीन अग्निपुत्र और एक स्वयं अग्निदेव कुल मिलाकर ४९ ही अग्नि कहे गये हैं ..( श्री विष्णु पुराण.. प्रथम अँश .अ.१०/ १६-१७ ) ..
श्री विष्णु पुराण प्रथम अँश अध्याय १५ में कहा गया है कि तैंतीस देवता प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न भिन्न रूप से जन्म लेते हैं .. चाक्षुष मन्वन्तर के तुषित नामक बारह श्रेष्ठ देव वैवस्वत मन्वन्तर में कश्यप - अदिति के पुत्र बन कर बारह आदित्य हुये .. इसी प्रकरण में सोम की २७ पत्नियों को नक्षत्रयोगिनियों की संज्ञा दी गयी है , तथा इन ३३ देवों के निरन्तर उत्पत्ति और निरोध का वर्णन है .. ( चित्र संलग्न )... इसी प्रकार श्री स्कन्द पुराण में नारद और कलाप ग्राम वासी ब्राम्हण बालक के संवाद में बहुत ही सुन्दर निरूपण है .. "अ" से "ऋ" तक चौदह मनु तथा "क" से लेकर "ह" तक तैंतीस वर्ण ही तैंतीस देवता कहे गये हैं... अ,उ,और म में ब्रम्हा विष्णु महेश , "क से लेकर ठ" तक बारह आदित्य , " ड से ब तक ग्यारह रुद्र " भ से ष तक अष्ट वसु .. स और ह में अश्विनी कुमार .. ये तैतीस देवता
अकारः कथितो ब्रह्मा उकारो विष्णुरुच्यते॥
मकारश्च स्मृतो रुद्रस्त्रयश्चैते गुणाः स्मृताः॥ ५.६८ ॥
अर्धमात्रा च या मूर्ध्नि परमः स सदाशिवः॥
एवमोंकारमाहात्म्यं श्रुतिरेषा सनातनी॥ ५.६९ ॥
ॐकारस्य च माहात्म्यं याथात्म्येन न शक्यते॥
वर्षाणामयुतेनापि ग्रंथकोटिभिरेव वा॥ ५.७० ॥
पुनर्यत्सारसर्वस्वं प्रोक्तं तच्छ्रूयतां परम्॥
अःकारांता अकाराद्या मनवस्ते चतुर्दश॥ ५.७१ ॥
स्वायंभुवश्च स्वारोचिरौत्तमो रैवतस्तथा॥
तामसश्चाक्षुषः षष्ठस्तथा वैवस्वतोऽधुना॥ ५.७२ ॥
सावर्णिर्ब्रह्मसावर्णी रुद्रसावर्णिरेव च॥
दक्षसावर्णिरेवापि धर्मसावर्णिरेव च॥ ५.७३ ॥
रौच्यो भौत्यस्तथा चापि मनवोऽमी चतुर्दश॥
श्वेतः पांडुस्तथा रक्तस्ताम्रः पीतश्च कापिलः॥ ५.७४ ॥
कृष्णः श्यामस्तथा धूम्रः सुपिशंगः पिशंगकः॥
त्रिवर्णः शबलो वर्णैः कर्कंधुर इति क्रमात्॥ ५.७५ ॥
वैवस्वतः क्षकारश्च तात कृष्णः प्रदृश्यते॥
ककाराद्य हकारांतास्त्रयस्त्रिंशच्च देवताः॥ ५.७६ ॥
ककाराद्याष्ठकारांता आदित्या द्वादश स्मृताः॥
धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणाश्चांशुरेव च॥ ५.७७ ॥
भगो विवस्वान्पूषा च सविता दशमस्तथा॥
एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णुर्द्वादश उच्यते॥ ५.७८ ॥
जघन्यजः स सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः॥
डकाराद्या बकारांता रुद्राश्चैकादशैव तु॥ ५.७९ ॥
कपाली पिंगलो भीमो विरुपाक्षो विलोहितः॥
अजकः शासनः शास्ता शंभुश्चण्डो भवस्तथा॥ ५.८० ॥
भकाराद्याः षकारांता अष्टौ हि वसवो मताः॥
ध्रुवो घोरश्च सोमश्च आपश्चैव नलोऽनिलः॥ ५.८१ ॥
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च अष्टौ ते वसवः स्मृताः॥
सौ हश्चेत्यश्विनौ ख्यातौ त्रयस्त्रिंशदिमे स्मृताः॥ ५.८२ ॥ ( स्कन्द पुराण .. माहेश्वर खंड पञ्चम अध्याय)
ये वर्णाक्षर ही मन्त्र रूप से ब्राम्हण के मुख में प्रतिष्ठित हैं ..
देवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनं च देवता
ते मन्त्रा ब्राम्हणाधीनं तस्मात् ब्राम्हण देवता ..
भू लोक पर वेदज्ञ भूदेव ( वेदवेत्ता ब्राम्हण) प्रत्यक्ष देव कहा गया है ब्राम्हण के मुख में मन्त्र रूप देवों का वर्ण स्वर रूपी ईश्वर का वास है ,..
एको देव: सर्वभूतेषुगूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ..
सर्वाध्यक्ष: सर्वभूताधिवास साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ..
ऐकोऽहम बहुस्याम् प्रजायेत .. की अपने संकल्प द्वारा सृष्टि करने वाला परमात्मा
एक ही विराट चेतना सभी उपादानों में है समस्त ब्रम्हाण्ड मण्डल में वही व्याप्त हैं और देव रूप में उनकी ही अनन्त विभूतियां हैं , कार्य कारण और कर्तृत्व के रूप में यही स्वयं सभी रूपों में व्याप्त हैं , जिस प्रकार अग्नि अनेक स्फुर्लिंगों की तरह (नाना देवों के रूप में) एक ही परमात्मा की विभूतियाँ हैं .. स्वर यन्त्र का प्रारम्भ अ. मध्य उ. और समाप्ति ओष्ठ्य म. के मध्य ही समस्त अक्षर हैं, ॐ कार की अनुरणन या नाद लय है जो त्रिगुणातीत तुरीय ब्रम्ह का निर्गुण स्वरूप है .. इन्ही के मध्य त्रिगुणात्मिका मूल प्रकृति से देव शक्तियों सहित समस्त चराचर जगत का प्राकट्य है ..
एक रुद्र कोटि में ही सहस्त्रों रुद्रों का समावेश है .. सहस्त्राणि सहस्त्रसो बाह्वोस्तव हेतय: ... असंख्याता सहस्त्राणि ये रुद्रा अधिभूम्याम् .. ऐसे कई साक्ष्य वैदिक और पौराणिक ग्रन्थों में हैं श्री शिव महापुराण में शतरुद्र और कोटिरुद्र संहिता में ही करोड़ों रुद्रदेवों का उल्लेख है ...
त्रयश्त्रींशश्च वै देवा तथा वैमानिका गणा : सोपेन्द्रा समहेन्द्राश्च त्वामिष्ट्वा सिद्धि मागता .. ( सूर्य स्तुति - महाभारत )
श्री रामादल में सभी वानर भालू देवता ही थे , केवल श्री राम लक्ष्मण ही नर रूप में युद्ध कर रहे थे .. वहां पर जो देव सँख्या है वह तो करोड़ों करोड़ से भी अधिक है .. अठारह पद्म तो केवल सेनापति ही हैं .
"अस मैं सुना श्रवन दसकंधर
पदुम अठारह यूथप बन्दर .," (श्री..मानस)...
देवता शब्द का वास्तविक अर्थ
" देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा, द्युस्थानो भवतीति .."
निरुक्त अ० ७/खं.१५ .. ब्रम्हा जी के द , द, द , तीन उपदेशों में देवताओं को दमन ( इन्द्रिय दमन ) का उपदेश है साथ ही कर्म फल को देने में देवता प्रमुख हैं ..
अर्थात दान देने से देव नाम पड़ता है , और दान कहते है अपनी वस्तु किसी दूसरे के हितार्थ दे देना
दीपन कहते है प्रकाश करने को,..
द्योतन कहते है सत्यमार्ग के उपदेश को.. इनमे से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही है कि जिसने जगत को सब पदार्थ दे रखे है , तथा विद्वान मनुष्य भी विद्यादि के देने वाले होने से देव कहलाते हैं ..
सर्वदेवमयी गौ माताके रोमकूपोंमें समस्त ३३ करोड़ देवताओंका वास कहा गया है
"त्रयत्रिंशद् देवकोट्यो रोमकूपे व्यवस्थिताः" .. (भविष्यपुराण उत्तर पर्व)
विचारणीय है कि गौ माताके शरीर में मात्र ३३ रोमावली या रोमकूप तो नहीं होते हैं यहां पर भी ३३ कोटि का तात्पर्य करोड़ों की संख्या से ही है ..
वेदोंमें भी ऐसा ही वर्णन मिलता है ,ऋग्वेदकी निम्न श्रुति -
त्रीणि शता त्री सहस्राण्यग्नि त्रिंशच्च देवा ऋग्वेद ३/९/९ .. इस वैदिक ऋचा में तीन सहस्र तीन सौ ( तैतींस सौ ) गणना है ..
सहस्त्र संख्या अनन्त वाचक है हजार और सौ की वाचक नहीं ! सहस्त्र शीर्षेत्यत्र स शब्दोनन्तवाचक: (मुद्गलोपनिषत् ) .. पुरुषसूक्तमें सहस्रशीर्ष शब्द हजारका वाचक न होकर सहस्र या अनन्त का वाचक है !..
अर्थात् उस विराट पुरुष परमात्माके अनन्त सिर ,अनन्त नेत्र आदि हैं ..
सहस्त्र का अर्थ यदि केवल हजार ही होता तो नेत्र और पैर के लिये दो सहस्त्र शब्द प्रयुक्त होने चाहिये ,.. अत: यहां सहस्त्र से तात्पर्य अनन्त ही है ..
ऋग्वेद के मन्त्र ३/९/९ में आये " त्रीणि शता त्री सहस्रा० " का अर्थ सौ और हजार में नहीं होगा करोड़ या अनन्त होगा तब इस मन्त्र में "त्रीणि शता त्री सहस्राण्यग्नि.. " का अर्थ तैतींस करोड़ होगा अन्यथा "आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय.. " इस मन्त्र में आये 'सहस्र किरण' शब्द का हजार किरणों वाले सूर्य हो जाएंगे जबकि इस मन्त्र में 'सहस्रकिरणाय' का अर्थ होगा अनन्त किरणों वाले अथवा करोड़ों किरणों वाले सूर्य नारायण !
इसी प्रकार भगवद्गीतामें भगवद् वचन
"पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश: ! ( ११/५)
में 'शतशोऽथ सहस्रशः ' शब्द सौ और हजार का वाचक न होकर अनन्त और करोड़ोंका वाचक है ! भगवद्वचन है
' हे पार्थ ! अब तू मेरे सैकड़ों-हजारों नाना प्रकारके अनन्त वर्ण और आकृतिवाले अलौकिक रूपोंको देख !'.. उपरोक्त ऋग्वेदकी श्रुति ३/९/९ में आये सहस्र शब्द अनन्त या करोड़का वाचक होकर देवता ३३ करोड़ होने का प्रतिपादन कर रही हैं ..
यह तो रही शास्त्र की बात अब बात करते हैं, आज सवा अरब के लगभग भारत की जनसंख्या है और उसमें लगभग आज इतने ही देवी-देवता ओर भारत में मिल जायेंगे .. देवी-देवताओं से भी आगे अब उनकी बात करते हैं जो ईश्वर बने हैं.. ईश्वर बन कर भोले भाले जनमानस को लूट रहे हैं !!
शास्त्रों में तीन महादेव कहे हैं, ब्रह्मा, विष्णु और महेश ! पञ्च देवोपासना में देवों का पञ्चायतन है जिसमें नारायण , शिव , दुर्गा , गणेश और सूर्य की उपासना है ये शक्तियों में महाशक्ति रूप हैं .. लेकिन न जाने आज भारत वर्ष में कितने सारे ब्रह्मा विष्णु महेश फैले पड़े हैं, कितने बाबा रामरहीम , रामपाल कविर्ब्रम्ह , परमब्रम्ह , भगवान बने हुये है .. कोई गिनती ही नहीं है ..
ये किसी के गुरूर या गुरु हो सकते हैं .. कबीर पन्थियों के गुरू कबीर , साँई भक्तों के गुरु साँईबाबा , गुरुसत्ता एक सत्ता है जैसे पिता की सत्ता है जो जिस गुरु का शिष्य है जिस पिता का पुत्र है वह गुरू या पिता केवल उसके लिये परमात्म स्वरूप है पृथक पृथक गुरु परम्परा का सम्बन्ध परमात्मा से ही है , किन्तु नित्य पितर अर्यमादि के समान .. जिस प्रकार पिता रूप सत्ता में सबके पिता भिन्न रूप से हैं किन्तु सम्बन्ध पिता पुत्र में पिता का स्थान गुरु समान पूज्य है उसी प्रकार अपने पितरों का अपने गुरु का पूजन कीजिये किन्तु सम्बन्ध की सीमा तक ..
अपने पिता को सबका बाप घोषित मत कीजिये , ...
ऊपर वर्णमाला की मालिका के तैंतीस अक्षरों में देवताओं का निरूपण किया जा चुका है , पुराणों में हो चुके और आगे होने वाले सभी अवतारों का वर्णन है .. तैंतीस करोड़ के बाद इस मन्वन्तर में कोई स्थान रिक्त नहीं है अगले मन्वन्तर के सप्तऋषि परशुराम , अश्वत्थामा आदि भी पूर्व नियत हो चुके हैं, श्री दुर्गा सप्तशती( मार्कण्डेय पुराण) के अनुसार सावर्णि मनु राजा सुरथ होंगे , ..
यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है अन्यथा यहां तो सांताक्लॉज़ भी कल देवता बन जायेंगे ..मूल सनातन वैदिक मार्ग से इतर ये सब युगाधिपति कलि का साम्राज्य है ..
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई, मोबाईल नं. 9827198828
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